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माधवराव सप्रे की कहानियाँ/अपनी बात

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माधवराव सप्रे की कहानियाँ
माधवराव सप्रे, संपादक देवीप्रसाद वर्मा
अपनी बात

इलाहाबाद: हिंदुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ १९ से – २९ तक

 

अपनी बात

हिन्दी के अनेक विद्वानों ने स्व॰ माधवराव सप्रे की कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी' को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है, फिर भी कभी-कभार उस पर बहस आरम्भ हो जाती है। इसी दृष्टि से यह आवश्यक समझा गया कि स्व॰ सप्रेजी की कहानियों का संग्रह प्रस्तुत किया जाए, ताकि उनका वास्तविक मूल्यांकन हो सके। स्व॰ सप्रेजी का कहानी-विधा के प्रति कितना आकर्षण था, उसका प्रमाण निम्नलिखित उनकी ही पंक्तियाँ देती हैं––

"इस समय हमें अपनी पूर्वावस्था के एक शिक्षक का स्मरण हुआ जब हम बिलासपुर में अंग्रेजी शाला में पढ़ते थे। उस समय हमारे शिक्षक श्री रघुनाथ राव यद्यपि बड़े विद्वान न थे, तो भी पूर्ण आत्मसंयमी थे और उपद्रवी और आलसी लड़कों को मार्ग पर लाने में बड़े कुशल थे। वे शारीरिक दण्ड का उपयोग कम करते, वरन नीतिशिक्षा अधिक करते थे। समय-समय पर सुनीति से भरी छोटी-छोटी शिक्षाप्रद कहानियाँ कहकर विद्यार्थियों का मन अभ्यास में लगाते और उन्हें नीतिवान करने का प्रयत्न करते थे। 'सबसे बुरी चीज', 'हाथी को हाथ में लेना', 'दुश्मन', आदि कहानियों का स्मरण हमारे सहपाठियों को अवश्य होगा।" ––'छत्तीसगढ़मित्र', माधवराव सप्रे, सन् १९०१

उपर्युक्त उद्धरण यह प्रमाणित करता है कि १२ वर्षीय छात्र के मन में निरन्तर कहानी विधा तैर रही थी और उसका प्रभाव उसके परिपक्व लेखन पर भी था और यही कारण था कि वे इस विधा के प्रति सर्वाधिक प्रयत्नशील थे। जब सप्रेजी हाईस्कूल के छात्र के रूप में गवर्नमेन्ट हाईस्कूल, रायपुर में भर्ती हुए, तब वे अपने शिक्षक नन्दलाल दुबे के सम्पर्क में आये, जिन्होंने न केवल सप्रेजी के मन में हिन्दी के प्रति अगाध श्रद्धा का निर्माण किया, अपितु सप्रेजी को मेधावी लेखक के रूप में निर्मित करने में सफल हुए।

यदि कहानी को जीवन की कल्पनामूलक गाथा कहें, तब वास्तविकता की प्रतीति तथा प्रामाणिकता के लिए कहानी को अपने जीवन से संपृक्त रखना अनिवार्य शर्त हो जाती है और यही कारण है कि कथाकार उसी दिशा में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। सप्रेजी आरम्भ से ही सामाजिक अव्यवस्था के विरोधी तथा गरीबों के मसीहा थे। राष्ट्रप्रेम उनके हृदय में कूट-कूट कर भरा था। वे कहानी विधा को सही रूप देने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील थे। उनकी संक्षिप्त कथायात्रा हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। 'छत्तीसगढ़मित्र' में प्रकाशित उनकी कहानियों की सूची इस प्रकार है––

(१) सुभाषित-रत्न–– जनवरी, १९००
(२) सुभाषित-रत्न–– फरवरी, १९००
(३) एक पथिक का स्वप्न–– मार्च-अप्रैल, १९००
(४) सम्मान किसे कहते हैं–– मार्च-अप्रैल, १९००
(५) आजम–– जून, १९००
(६) एक टोकरी भर मिट्टी–– अप्रैल, १९०१

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतेन्दु-युग में कहानी का कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं बन पाया था। उस युग का अनुवादों का युग कहना ठीक होगा और उससे हटकर जो कहानियाँ आ रही थीं, उनके मूलस्रोत दो थे––

(१) संस्कृत कथाएँ।
(२) लोककथाएँ।

साथ ही भारतेन्दु के पश्चात् हिन्दी कहानी पर बँगला की छाप अधिक दिखाई देती है। पर, सप्रेजी इन तीनों से हटकर कहानी का भी सही स्वरूप प्रस्तुत करना चाहते थे। इस दिशा में किए गए उनके प्रयत्नों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है––

जनवरी सन् १९०० में 'सुभाषित-रत्न' शीर्षक कहानी छपी जिस में अपने कथानक को प्रमाणित एवं बल प्रदान करने के लिए संस्कृत श्लोकों का चयन किया गया है। कथानक पूर्णतः स्वतन्त्र है। इस कहानी का अन्त कितने मार्मिक ढंग से किया गया है––

"इस पृथ्वी में अन्न, जल और सुभाषित––ये तीन ही मुख्य रत्न हैं। मूर्ख लोग हीरा, माणिक, आदि पत्थर के टुकड़े को रत्न कहते हैं। यह सुनकर श्रीमान गृहस्थ अपने मन में बहुत लज्जित हुआ।" विषयान्तर न होगा यदि मैं यह कहूँ कि सप्रेजी के आदर्श कहानी के क्षेत्र में भामह के सिद्धान्त के अनुयायी थे जिसे किसी हद तक हम आज के उपयोगितावाद से जोड़ सकते हैं।

––"पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि गृहमन्नं सुभाषितम्॥"

आगे चलकर इस शीर्षक पर छोटी-छोटी कहानियाँ संस्कृत श्लोकों के साथ उन्होंने लिखीं जिसे लघुकथा का सफल प्रयास ही कहा जायेगा। पर, ये कहानियाँ संस्कृत श्लोकों के आधार पर लिखी गई हैं या संस्कृत कथाओं की प्रतिछाया मात्र हैं––सम्भवतः यही कारण था कि सप्रेजी ने कहानी को 'सुभाषित-रत्न' शीर्षक देना बन्द कर दिया।

उस समय अनुवादों का प्रभाव कहानियों पर काफ़ी अधिक देखने में आता है। लम्बी कहानियाँ, जासूसी कहानियाँ ज्यादा प्रचलित थीं। सप्रेजी ने उस दिशा में भी प्रयत्न किया और मार्च-अप्रैल के अंक में 'एक पथिक का स्वप्न' नामक कहानी लिखी जो कि १८ पृष्ठों में समाप्त हुई है तथा उसे तीन भागों में विभाजित कर प्रकाशित किया गया है। इस कहानी को यदि किशोरीलाल जी की 'इन्दुमती' के परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो अनायास ही कहना पड़ेगा कि क़रीब-क़रीब वैसी ही कहानी सप्रेजी ने न केवल भारतीय वातावरण में दी, अपितु इस कहानी को ऐतिहासिक कहानी की संज्ञा के साथ प्रस्तुत किया। पादटिप्पणी को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो कि इस प्रकार है––

"हिन्दुस्तान के इतिहास में सुबुक्तगीन नाम का जो अत्यन्त प्रसिद्ध बादशाह हुआ, वही हमारा गरीब पथिक है। उसके लड़के महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को मुसलमानों के आधीन किया। 'एक पथिक का स्वप्न' उस समय के ढर्रे पर चल रही कहानियों की पंक्ति में ही आती है और इसी अंक में उन्होंने निबन्धनुमा ढंग से 'सम्मान किसे कहते हैं' शीर्षक पर देशभक्ति से ओतप्रोत कथानकयुक्त कथा को प्रस्तुत किया जिसे 'नानी की कहानी' की प्रणाली या सपटबयानी या किस्सागोई कह सकते हैं।"

जून, १९०० में उन्होंने गोल्डस्मिथ के आधार पर रची हुई एक शिक्षाप्रद कहानी की घोषणा की जिसमें 'आजम' शीर्षक कहानी लिखी, परन्तु सप्रेजी का कथाकार मौलिक कहानी के प्रस्तुतीकरण-हेतु निरंतर छटपटा रहा था और उनके कथाकार को पूर्ण संतुष्टि सन् १९०१ में 'एक टोकरी भर मिट्टी' लिखने के बाद मिली। इस विधा के प्रति सप्रेजी कितने जागरूक एवं प्रयत्नशील थे, सवा साल की कथायात्रा में उनके विभिन्न प्रयोग उनकी सही कहानी की तलाश को ही प्रमाणित करते हैं। यह बात भी अपना अलग महत्त्व रखती है कि 'एक टोकरी भर मिट्टी' लिखने के बाद सप्रेजी ने कोई भी कहानी नहीं लिखी। इससे हमारे कथन को ही पुष्टि मिलती है कि 'एक टोकरी मिट्टी' हिन्दी की प्रथम कहानी है।

क्योंकि लेखक का उस कहानी के बाद कहानी न लिखना 'एक टोकरी भर मिट्टी' को यही प्रमाणित करता है कि इसे उन्होंने परम लक्ष्य की प्राप्ति के रूप में निरूपित किया था।

श्री कमलेश्वर द्वारा सम्पादित 'सारिका' के 'प्रसंग' स्तम्भ में हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में जब 'एक टोकरी भर मिट्टी' को मैंने प्रस्तुत किया, तब लगभग एक वर्ष तक उस पर निरन्तर चर्चा चलती रही और उस समय उसके पक्ष में सबसे सटीक तर्क डॉ॰ धनंजय, इलाहाबाद ने रखा था जिसका सारांश इस प्रकार है––

"यह तय है कि सप्रेजी की 'एक टोकरी भर मिट्टी' को ही हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी होने का प्रथम गौरव दिया जा सकता है!"

यों कथात्मक तत्त्व तो इंशा अल्ला खाँ की 'रानी केतकी की कहानी' और राजा शिवप्रसाद सितारे-हिन्द के 'राजा भोज का सपना' में ही किसी-न-किसी रूप में मिलने लगे थे, फिर भी यह कथा के प्रारम्भिक विकासमान रूप ही थे। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तथा बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक कई मौलिक और अनूदित कहानियाँ लिखी जा चुकी थीं। अनूदित कहानियों में देशी और विदेशी, दोनों ही प्रकार की थीं और जो मौलिक कहानियाँ थीं, वे भी इन अनुवादों से काफ़ी प्रभावित थीं। २०वीं शताब्दी के प्रथम दशक में किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती', 'गुलबहार'; रामचन्द्र शुक्ल की 'ग्यारह वर्ष का समय'; मास्टर भगवानदास की 'प्लेग की चुडैल' आदि कहानियाँ, जिनमें से 'इंदुमती' (१९००) को प्रथम मौलिक कहानी माना गया, मुझे दो आपत्तियाँ हैं। एक तो यह कि ऊपर गिनाई गई कहानियाँ एक जगह से और हिन्दी-भाषी लेखकों द्वारा लिखी जाकर एक ही जगह प्रकाशित हुईं, इसलिए इनमें वैविध्य हो नहीं सकता; कहानी के प्रति एक लेखक का जो दृष्टिकोण रहा होगा, वही दूसरों का भी रहा होगा। उस समय तक वैसे भी साहित्य में समूह ही सब कुछ था। दूसरे, जैसा कि संकेत किया जा चुका है, मौलिक कहानियों पर अनुवादों का प्रभाव बेहद था। 'इंदुमती' उस समय लिखी जाने वाली कहानियों से थोड़ी अलग ज़रूर थी, लेकिन इस पर परदेशी-विदेशी, दोनों तरह के प्रभाव हैं। एक ओर शेक्सपीयर के 'टेंपेस्ट' की छाप है इस पर, तो दूसरी ओर एक राजपूत कहानी का प्रभाव है (हिन्दी साहित्य कोश : भाग १, पृ॰ २३७)। कहानीपन, जो सबसे स्थूल और प्रारंभिक चीज़ है, का 'इंदुमती' में सर्वथा अभाव है। रही वातावरण की बात, तो उसे मैं विशेष अहमियत नहीं देता, क्योंकि भारतीयता की अवधारणा पहले साफ़ होनी चाहिये; विदेशी वातावरण में रखकर भी कहानी की स्थिति को भारतीय बनाया जा सकता है। उस समय की कहानियों के बीच 'इंदुमती' की विशिष्टता वातावरण के जरिये स्थापित नहीं होती।

इसके समानान्तर माधवराव सप्रे की 'एक टोकरी भर मिट्टी' को देखा जाय तो इसकी अलग विशेषताएँ हैं––उन कहानियों के बीच यह आसानी से खो नहीं सकती। अगर रचना-काल का मिलान करें तो 'इंदुमती' और इसमें कोई खास फ़र्क नहीं है। इसकी मौलिकता पर यह कहकर संदेह उठाया गया है कि यह 'नवशेरवाँ का इंसाफ़' का रूपान्तर है। प्रारंभिक काल की कहानियों का संबंध दो स्रोतों से रहा है––एक संस्कृत कथाओं; और दूसरा, फ़ारसी की कहानियों का (हिन्दी साहित्य कोश : भाग २, पृ॰ २३७)।

एक स्रोत और था लोककथाओं का। 'नवशेरवाँ का इंसाफ़' की जो कथा है, वैसी तमाम कथाएँ अब भी लोक-प्रचलित हैं। 'एक टोकरी भर मिट्टी' पर अगर छाप है तो लोककथाओं की ही है, फ़ारसी कहानी की नहीं। इस कहानी को इसलिए भी पहली कहानी का गौरव दिया जाना चाहिए कि एकसाथ यह लोक कथा के स्तर को भी छूती है और साहित्यिक कहानी के स्तर पर भी पहुँचती है। उस समय लिखी जाने वाली कहानियों से यह अलग है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि समूह के पत्र में प्रकाशित न होकर एक सर्वथा भिन्न जगह प्रकाशित हुई। सप्रेजी की कहानी को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी मानने के और भी कई कारण हैं। इसका शिल्प एकदम अलग है और इस तरह के शिल्प का प्रतिनिधित्व करता है जो आगे के दशकों की कहानियों में क्रमशः विकसित होता गया। इस कहानी और आज की कहानी में एक क्रम सहजता से स्थापित किया जा सकता है। अतिशय भाव-प्रवणता अथवा अतिशय कुतूहल को छोड़कर पहली बार यह कहानी सामाजिक संदर्भो को विकसित करती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसका संदर्भ अपना है। पूरी सिचुवेशन को जिस तटस्थता से इसमें निर्मित किया गया है, वह इसे सातवें दशक की कहानी के नज़दीक ला देती है। कहानी का गठन जटिल न होते हुए भी असाधारण है। मानवीय संबंधों को भी बड़ी सूक्ष्मता से उभारा गया है। ये तमाम बातें इस कहानी को उस समय की कहानियों से अलग और विशिष्ट बनाती हैं। 'इंदुमती' में ऐसा कुछ भी नया नहीं है जिसे आज के कहानी के स्तर पर रेखांकित किया जा सके। इसलिए सप्रेजी की कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी' ही हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी हो सकती है।

'सारिका' में ही सन् १९७७ में डॉ॰ बच्चन सिंह ने पुनः इसी प्रश्न को उठाया और उन्होंने एक नयी बात कहने का प्रयत्न किया कि किशोरीलाल गोस्वामी-कृत 'प्रणयिनी-परिणय' उपन्यास नहीं, कहानी है। इस संदर्भ में क्योंकि बार-बार विवाद उठाया जाता है, इस कारण मैं डॉ॰ बच्चन सिंह के उक्त कथन पर अपने विचार रखना आवश्यक समझ रहा हूँ––'एक टोकरी भर मिट्टी' को प्रथम कहानी न कहकर 'प्रणयिनी-परिणय' को कहना कहाँ तक उचित है?

सन् १९६८ में 'सारिका मासिक' में प्रकाशित मेरे लेख 'हिन्दी की पहली कहानी' का उद्धरण देते हुए डॉ॰ बच्चन सिंह ने 'सारिका पाक्षिक' में कहा है––"आज कहानी...के साथ-साथ एक कहानी और चलती है। वह मानवीय, पर शांति की गाथा है। वह कहानी जो ऊपर है, वह भी अपनी अभिव्यक्ति, परिवेश और अंचल में नयी है।" (कमलेश्वर––नई कहानी की भूमिका)। नई कहानी के सबल पक्षधर कमलेश्वर की वाणी किसी सीमा तक प्रस्तुत कहानी में मिलती है।

पहले तर्क में कमलेश्वर का नई कहानी का पक्षधर होना कोई समीक्षा-सिद्धान्त नहीं है जिसके आधार पर उस कहानी को कसा जा सके। यदि डॉ॰ सिंह कृपापूर्वक इस पंक्ति को दुबारा पढ़ें––आज कहानी के साथ-साथ एक और कहानी चलती है––और फिर 'एक टोकरी भर मिट्टी' को कसें तो वे मानवीय परिणति के बहाने सही तथ्य से विलग न हो पायेंगे। मैं ज़ोर देकर कहना चाहूँगा कि वाक़ई नई कहानी का पक्षधर होना कोई समीक्षा-सिद्धान्त नहीं है, परन्तु वास्तविकता को जानबूझ कर ओझल करना कौन-सी आलोचना के अन्तर्गत आयेगा?

डॉ॰ सिंह का दूसरा आरोप कि सातवें दशक की कहानी का बीज या डॉ॰ धनंजय के अनुसार सातवें दशक के नज़दीक मानने से 'एक टोकरी भर मिट्टी' कहानी ऐतिहासिक संदर्भ से च्युत हो जाती है। यदि इसे परिभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाय, तो सारे इतिहास को पुनः लिखना पड़ेगा। एक उदाहरण लीजिए––श्री दिनकर ने घनानंद की एक कविता "धरती में धसौं कि आकाश चीरौं" की चर्चा करते हुए कहा है कि घनानंद का एक पैर रीतिकाल में था और दूसरा पैर छायावाद को पार कर आधुनिक युग में था।

––'रीतिकाल : नया मूल्यांकन', ज्योत्सना मासिक,

रीतिकालीन विशेषांक।

अतएव डॉ॰ सिंह की परिभाषा के अनुसार घनानंद अब द्विवेदी-युग के कवि हो गए। ऐसी परिभाषा देने वाले को क्या कहा जाये?

इससे भी रोचक बात उन्होंने और कही है––अपने समय की कहानियों से मेल न खाने के कारण यह सिद्ध होता है कि यह अनुवाद है। पिछले दशक में कहानी, अकहानी, कस्बे या मलवे की कहानी, आदि नामों के साथ जो कहानियाँ आईं, अब उन्हें डॉ॰ सिंह अनुवाद घोषित कर सकते हैं और उन सभी लेखकों को खारिज कर सकते हैं। ठीक इसी प्रकार डॉ॰ जगदीश गुप्त ने सनातन "सूर्योदयी कविता" से "आँख कविता" तक ४५ काव्य-विधाओं की चर्चा की है[] जो अपने समय की कविताओं से अलग थीं, इस कारण अलग नाम से आईं। अस्तु, डॉ॰ सिंह उन सब को अनुवाद घोषित कर सकते हैं, क्योंकि उनकी परिभाषा की बुनियाद ही है 'मैं कह रहा हूँ और फरमाते हैं...'। संक्षिप्तता कहानी की मज्जागत विशेषता नहीं है, इसलिए उस युग के परिप्रेक्ष्य में डॉ॰ सिंह ने १/२ पेज (एक टोकरी भर मिट्टी) के स्थान पर 'प्रणयिनी-परिणय' को प्रस्तुत किया।

सन् १९०० के संदर्भ में डॉ॰ सिंह के विचार देखिए––"कहानी और उपन्यास में, ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय तक कोई ऐसा अलगाव नहीं हो पाया था कि उसके बीच कोई विभाजन-रेखा खींची जा सके।"

इसे यदि आप स्वीकार कर लें तो कम-से-कम सैकड़ों उपन्यासों को हिन्दी साहित्य के इतिहास से ग़ायब कर देना पड़ेगा। जबकि वास्तविकता यह है कि डॉ॰ बच्चन सिंह कहानी और उपन्यास के बीच आज भी कोई विभाजन-रेखा ठीक से नहीं खींच पा रहे हैं। परन्तु, हमारे पूर्वज उसका अंतर अच्छी तरह समझते थे और यही कारण था कि किशोरीलाल गोस्वामी ने अपने मासिक का नाम 'उपन्यास' रखा था। साथ ही अपने ६५ उपन्यासों को उपन्यास कहा है। उन्होंने 'इन्दुमती' को कहानी और 'प्रणयिनी-परिणय' को उपन्यास घोषित किया था, क्योंकि दोनों के बीच विभाजन-रेखा स्पष्ट थी। क्या डॉ॰ सिंह १८८२ में लाला श्रीनिवासदास-कृत 'परीक्षागुरु', जो हिन्दी का प्रथम उपन्यास माना गया है, को नकार सकते हैं। मैं यहाँ स्थानाभाव के कारण लेखकों के मात्र नाम का स्मरण दिलाना चाहूँगा। शायद, इससे वे अपनी मान्यता बदल दें––बालकृष्ण भट्ट, लज्जाराम, राधाकृष्ण दास, देवकीनंदन खत्री, गहमरी, आदि-आदि। ठाकुर जगमोहन सिंह ने (सन् १८८८) में अपने उपन्यास 'श्यामा-स्वप्न' के मुखपृष्ठ पर यह छपवाया था––"An Original Novel in Hindi Prose"––गद्य में एक मौलिक उपन्यास। क्या इतना पढ़कर भी यदि हम कहानी और उपन्यास का अंतर न स्वीकारें तो इसे विशाल हठवादिता के सिवाय और क्या कहा जायेगा? इस तथ्य को हम कैसे भूल जाएँ कि तत्कालीन उपन्यासकारों ने हिन्दी के पाठकों की वृद्धि में कितना अमूल्य योगदान किया है। डॉ॰ सिंह ने 'चन्द्रकांता', 'चंद्रकांता संतति' तथा 'भूतनाथ' जरूर पढ़ा होगा और न पढ़े हों तो कहानी और उपन्यासों की विभाजन-रेखा खींचने के निमित्त उसके साथ निम्नलिखित तत्कालीन उपन्यासों को जरूर पढ़ लें––परीक्षा-गुरु, नूतन ब्रह्मचारी, सौ अजान एक सुजान, सती सुखदेवी, दो मित्र, धूर्त रसिकलाल, निःसहाय हिन्दू, ठेठ हिन्दी की ठाठ, काजर-कोठरी, कुसुम कुमारी, नरेन्द्र मोहनी, वीरेन्द्र वीर, त्रिवेणी, प्रणयिनी-परिणय, आदर्श रमणी, आदर्श बाला, और सास-पतोहू। और, यदि इसके बाद भी वे इसका अन्तर न समझें, तब क्या कहा जाय?

डॉ॰ सिंह का सबसे बड़ा दावा उपन्यास का कहानी होने का 'हीरक जयन्ती' अंक 'सरस्वती' है। उनके ही शब्दों में 'नूतन ब्रह्मचारी' को कहानी कहा गया है। यह टिप्पणी 'इन्दुमती' कहानी के ऊपर छपी है। परन्तु अंक के सम्पादक ने 'सरस्वती की कहानी' शीर्षक १७ पृष्ठीय लेख में 'नूतन ब्रह्मचारी' को कहीं भी कहानी नहीं लिखा है। पृष्ठ १६ में गोस्वामी से वृन्दावनलाल वर्मा, गुलेरी, रामचन्द्र शुक्ल, बालकृष्ण शर्मा, कौशिक, सुदर्शन, ज्वालादत्त शर्मा से लेकर भगवतीचरण वर्मा, इलाचन्द्र जोशी, उषा देवी मित्र और अमृतलाल नागर की चर्चा की है।

इसी लेख के पृष्ठ ७ में उन्होंने सन् १९०० के संदर्भ में यह लिखा है––इसी प्रकार हिन्दी में गम्भीर साहित्यिक विवाद का श्रीगणेश 'नैषधचरित चर्चा' और 'सुदर्शन' से होता है। प्रसिद्ध विद्वान् और अपने समय के शीर्ष लेखक पं॰ माधवप्रसाद मिश्र 'सुदर्शन' के सम्पादक थे। 'नैषधचरित' की उन्होंने समालोचना की थी। उसी का यह उत्तर था। कहानी साहित्य का एक प्रकार है। किन्तु डॉ॰ सिंह यही कहेंगे कि तत्कालीन साहित्यकार कहानी और उपन्यास समझते ही नहीं थे और न उसकी विभाजन-रेखा ही खींच सकते थे। मेरा डॉ॰ सिंह से बहुत ही विनम्र अनुरोध है कि वे सप्रेजी द्वारा सम्पादित 'छत्तीसगढ़मित्र' की फ़ाइल अवश्य देखें, तब उन्हें यह सष्ट हो जायेगा कि वे अंग्रेज़ी साहित्य के कितने निकट थे। यह निर्विवाद तथ्य है कि टॉल्सटाय या गोर्की से भी अधिक संसार के कथा-साहित्य पर एन्तोर जे॰ राव (सन् १८६०-१९२४) का प्रभाव पड़ा है। वे नगण्य घटनाओं के द्वारा चरित्र का उद्घाटन करते थे। प्रभाव के लिए, प्रभाव के बदले जीवन के लिए प्रभाव ही उनका आग्रह था। छोटे-से-छोटे कलेवर में अधिक-से-अधिक जीवन-आदर्श वे रखते थे। इस प्रकार लघुकथा (शार्ट स्टोरी) की झलक आप 'एक टोकरी भर मिट्टी' में देख सकते हैं।

अन्त में, यह संग्रह प्रस्तुत करते समय परम श्रद्धेय श्री श्रीनारायण चतुर्वेदी का हृदय से आभारी हूँ कि उनके प्रयत्न एवं प्रेरणा से ही यह कार्य सम्पन्न हो पाया है। उन्होंने 'स्पष्टीकरण के दो शब्द' लिखकर इसे उपकृत किया है। यहाँ श्री कमलेश्वर की चर्चा इसलिए आवश्यक है कि यदि उन्होंने 'सारिका' में इस 'प्रसंग' को उठाकर हिन्दी-प्रेमियों के समक्ष सही स्थिति का आकलन करने का अवसर दिया। साथ ही डॉ॰ भालचन्द्र राव तेलंग ने 'अन्तर्भाष्य-समीक्षा' लिखकर मेरा उत्साहवर्धन ही किया है।

––देबीप्रसाद वर्मा

  1. 'नयी कविता', भाग ८ : 'नयी कविता : किसिम-किसिम की कविता' के संदर्भ में आपके विचार देखिए।