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माधवराव सप्रे की कहानियाँ/एक पथिक का स्वप्न

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माधवराव सप्रे की कहानियाँ
माधवराव सप्रे, संपादक देवीप्रसाद वर्मा
एक पथिक का स्वप्न

इलाहाबाद: हिंदुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ३७ से – ५६ तक

 

एक पथिक का स्वप्न

(पहला भाग)

कंदहार के जंगल में से एक गरीब प्रवासी अकेला जा रहा था। जाते-जाते दोपहर का समय हो गया। सूर्य की गर्मी से संतप्त होकर विश्रान्ति लेने के लिए वह एक झाड़ के नीचे बैठ गया। पास ही एक छोटा-सा नाला बहता था। उसके तट पर हरी दूब देखते ही घोड़ा चरने लगा। वहाँ कई प्रकार के बड़े-बड़े वृक्ष और भाँति-भाँति की सुन्दर लताओं के कारण अति रमणीय शोभा दृष्टिगोचर होती थी। कई वृक्ष तो इतने ऊँचे दिखाई देते थे, मानो वे आकाश को भेदकर उस पार चले जाने की इच्छा कर रहे हों! जंगल इतना घना था कि सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पहुँच नहीं सकती थीं। हाँ, कहीं-कहीं झाड़ सूखकर गिर पड़े थे और वन में रहने वालों ने कई झाड़ काट भी डाले थे। उसी जगह से कुछ थोड़ा-सा उजेला आता था। वहाँ जंगली जानवरों को मनुष्यों का कदापि सहवास न रहने के कारण कुछ भी डर नहीं मालूम होता था। इस ‘पत्र-निर्मित स्वाभाविक छत्र' की छाया में सब छोटे-बड़े जीव-जन्तु आराम करने के लिए आश्रय ढूँढ़ रहे थे। सचमुच चारों ओर शान्ति देवता का साम्राज्य देख ऐसा जान पड़ता था कि वनश्री का यह निवास स्थान प्रत्यक्ष इन्द्र-भुवन ही है। सृष्टि की अपूर्व शोभा ऐसे ही स्थानों में दीख पड़ती है। इसके अवलोकन मात्र से धार्मिक मनुष्य के अंतःकरण में परमात्मा के विषय में आनन्द और प्रेम के तरंग उठने लगते हैं और अनीश्वरवादी के मन पर भी क्षण भर उसकी कुशलता का प्रभाव प्रकट हो ही जाता है। इस अपूर्व शोभा और चमत्कार को देख वह श्रान्त पथिक बिलकुल विस्मित हो गया। उसकी दृष्टि झर-झर बहते हुए उस समीपवर्ती जलधारा की ओर एकटक लग गई। मन में कुछ गंभीर विचार भी आने लगे। इतने में जिधर उसका घोड़ा चर रहा था, उस तरफ से पत्तों की खरखराहट उसके कान पर पड़ते ही वह चौंक उठा। ज्योंही वह उधर देखता है, त्योंही एक दीर्घ भयंकर गर्जना सुन पड़ी। पलक मारने की देर थी कि उस बटोही ने अपने घोड़े को एक बड़े सिंह के पंजे से घायल होकर जमीन पर गिरते देखा। फिर क्या! क्रोध से लाल होकर खड़ा हो गया और हाथ में तलवार लेकर सिंह के पिछले पैर पर ऐसे जोर से वार किया कि वह कट गया। इतने में दूसरे पैर पर भी एक घाव लगाकर उसको पूरा लँगड़ा ही कर डाला। सिंह घायल होकर, थोड़े कर्कश स्वर में गर्जता हुआ दूर हट गया। परन्तु उसके पंजे की चोट इतनी जबरदस्त लग गई थी कि वह बेचारा घोड़ा अंत समय की वेदना से तड़फड़ाने लगा। अपनी शिकार खो गई और लँगड़ा भी होना पड़ा, इस बात का खेद मानकर सिंह ने अपनी आँखें अंगार के समान लाल कीं, आयाल के बाल खड़े कर दिये और पूँछ पटककर अति घोर गर्जना करता हुआ अगले पैरों से सरकते-सरकते अपने शत्रु पर टूटने के लिए आगे बढ़ने लगा। इतने में उस वीर पुरुष ने तलवार का ऐसा एक हाथ चलाया कि सिंह का मस्तक उसके धड़ से बिलकुल अलग हो गया।

घोड़े की मृत्यु देखते ही बटोही अत्यन्त दुःखित हुआ। एक जानवर साथ में था, वह भी चला गया। अब पैरों के बल प्रवास करना पड़ेगा, इस बात की चिंता से उसका मन बहुत उदास हो गया।

कुछ देर में जब उसका मन शांत हुआ तो अपना सामान उठाकर जंगल में चलने लगा। थोड़ी दूर तक जाने के पश्चात् जंगल खतम हुआ और खुला मैदान दीख पड़ा। वहाँ उसने एक हरिणी को अपने बच्चे के साथ चरते देखा। हरिणी तो डर कर भाग गई, परन्तु वह बच्चा बिलकुल छोटा, हाल ही में पैदा हुआ था, इसलिए दौड़ न सका। बटोही ने उसे उठा लिया और उसके पैर बाँधकर बगल में दबा आगे चलने लगा।

सायंकाल होते ही पड़ाव की जगह देखकर बटोही ने काँधे पर से अपना सामान नीचे उतारा और हिरण के बच्चे को झाड़ से बाँध दिया। लकड़ियाँ मिल गईं और चकमक पत्थर से आगी बनाकर उस बच्चे के पास गया। इच्छा यह थी कि उसको मारकर अपनी जठराग्नि बुझावे। इतने में थोड़ी दूर पर उसकी माँ हताश होकर कुछ काल तक अपने बच्चे की ओर, फिर उस प्रवासी की ओर, कारुण्य-दृष्टि से देखती हुई खड़ी थी। उधर बटोही की नजर पड़ते ही उसने अपनी गर्दन ऊँची कर दी। शरीर शिथिल हो गया, नेत्रों से अश्रु की धारा बहने लगी और अत्यन्त दीन मुद्रा धारण करके उसने बच्चे की ओर अपनी दृष्टि लौटाई। बेचारे बच्चे को यह मालूम भी न था कि उसकी कौन-सी दशा होने वाली है। सिर्फ माता के वियोग से वह खिन्न हो गया था। हरिणी धीरे-धीरे आगे बढ़ी। बटोही भी उसके मन का भाव समझकर कुछ पीछे हट गया। हरिणी एक ही उछाल में बच्चे के पास पहुँच गई और अत्यन्त प्रेम से उसको चाटने सूँघने लगी। परन्तु उस मनुष्य को निकट आते देख झटपट कूदकर दूर हो गई और फिर भी दुःखित मुद्रा से उसकी ओर एकटक देखने लगी।

यह अद्‌भुत प्रसंग देखकर पथिक का हृदय दया से आर्द्र हो गया। हरिणी का वात्सल्य भाव अवलोकन कर उसके मन में अनुकम्पा का प्रादुर्भाव हुआ। कारुण्य आदि उत्तमोत्तम चित्त-विकारों से छाती धड़कने लगी। माँ और बच्चे को एकत्र देख इतना आनंद हुआ कि वह फूला न समाया। अन्त में मानसिक उत्साह का प्रभाव तथा पवित्र अन्तःकरण का संस्कार इतना प्रबल हो गया कि उसे परमात्मा के सर्वसाक्षित्व की याद आई और तुरन्त ही उसने उस बच्चे को कैद से मुक्त कर दिया। उसी दम वह अपनी माँ की ओर दौड़ा। दोनों मिलकर जंगल की ओर मुड़े। परन्तु जाते-जाते मानो अपनी कृतज्ञता दिखलाने ही के लिए उस हरिणी ने अपने प्रसन्न मुख और आनंदपूर्ण नेत्रों से पथिक की ओर एक बार लौट कर देखा और फिर झाड़ी में अपने छोटे बच्चे को लेकर घुस गई।

सज्जन मनुष्यों का चित्त ऐसे सत्कर्मों से अवश्य ही प्रफुल्लित हो जाता है। जीव ऐसी अमूल्य वस्तु दूसरी कोई भी नहीं है। क्या पशुओं को और क्या मनुष्यों को, जीव सभी को प्यारा है। परन्तु यह जानबूझ कर भी, कई लोग बेचारे गूँगे जानवरों का केवल कौतुकार्थ वध करते हैं; उन्हें कुछ दुःख होगा या नहीं––इसबात का बिलकुल सोच-विचार नहीं करते। ऐसे नरपशुओं से क्या कहें?

हिरण के बच्चे को जीवदान देने के कारण उस पथिक को बहुत ही हर्ष और समाधान हुआ। उसने अपने झोले से थोड़ा-सा बासी भात निकाला और ब्यारी करके उसी जगह रात भर रहने का निश्चय किया। इधर-उधर से पत्ते बटोर कर अपने बिछौने के नीचे बिछाए। जीवदान के समान सत्कर्म करने से वह स्थान उसको अतिप्रिय मालूम होता था। चारों तरफ चन्द्रमा का शुभ स्फटिकवत् शीतल प्रकाश और निर्जन बन की अनुपम शांति उसके मन का आह्‌लाद और भी बढ़ा रही थी। बीच-बीच में श्वापदों की भयंकर गर्जना और उनके चलने की आहट सुन पड़ती थी। बटोही दिनभर का थका हुआ था। बिछौने पर लेटते ही नींद आने लगी। दोपहर की दुर्घटना का स्मरण होते ही उसको अपने घोड़े की याद आई। फिर वह बहुत ही व्याकुल हो गया। परन्तु संध्या समय हिरण के बच्चे को बंधन मुक्त करने के कारण जो समाधान हुआ था, वह अभी तक वैसा ही बना था। इससे उसका मन कुछ शांत हुआ और इसी अवस्था में उसे गहरी नींद ने आ घेरा। मध्य रात्रि के समय उसने एक स्वप्न देखा, वह यह कि एक तेजस्वी पुरुष (कदाचित् पैगम्बर हो) इतने जगमगाते हुए वस्त्र पहिन कर उसके सन्मुख आया कि उसकी नजर भी वहाँ ठहर न सकी। आते ही उसने कहा––

"आज तूने एक गूँगे जानवर का जीव बचाया है, इस सत्कार्य से परमात्मा बहुत प्रसन्न हुए हैं, इसके पलटे तुझको गजनी का राज्य मिलेगा। जिस प्रकार की भूतदया तूने आज जानवरों के साथ दिखलाई है, वैसी ही सदैव मनुष्यों के साथ रखना।"

इतना कहकर वह दिव्य पुरुष गुप्त हो गया और बटोही भी जाग उठा। चन्द्रमा का प्रकाश अभी तक मलीन नहीं हुआ था। अर्थात् बहुत कुछ रात शेष बची थी। परन्तु उस पथिक को फिर से नींद न आई। उसको यह स्वप्न जागृत अवस्था में भी नेत्रों के सन्मुख दिखाई देता था। इसलिए बिछौने पर पड़े-पड़े अस्ताचल से नीचे उतरते हुए चन्द्रमा की शोभा देखता रहा।

चन्द्रास्त होते ही क्षण भर वहाँ अँधियारा-सा छा गया। फिर पूर्व दिशा में अरुणोदय होने लगा। परन्तु चारों ओर कुहरा छाया हुआ था। इसीलिए सूर्य का प्रकाश कुछ धुँधला-सा दीख पड़ता था। लता-पर्ण तथा वृक्ष-शाखा, मोती के समान चमकने वाली ओस की बूँदों से सुशोभित हो गई थी। रात भर में इतनी ओस जम गई थी कि उसके बोझ से पत्ते झुक गये और उनमें से ओस की बूँदें टप-टप-टप करके नीचे गिरने लगीं। थोड़ी देर में सूर्य का प्रकाश पहाड़ियों की चोटी पर से तराई पहुँचा और प्रातःकाल की मंद हवा बहने लगी। इससे सब ओस टपक कर गिर पड़ी और जमीन ऐसी भीग गई कि मानो रात में वर्षा हुई हो। अब बटोही अपने बिछौने पर से उठा। बिछौने के नीचे जो पत्ते बिछाये हुए थे, उन्हें समेट कर उसने आग सुलगाई और अपना हुक्का तैयार किया। रात को जो भात बच रहा था, उसी का कलेवा किया और पत्ते के दोनों में जो ओस जमा की थी, उसी को पीकर उसने अपना सब सामान अधारी में रख लिया। रास्ता चलने के पहले मक्के-शरीफ की तरफ मुँह फेर कर उसने भक्तिपूर्वक नमाज पढ़ी और राह में अपनी रक्षा करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करके सामान काँधे पर उठाया और धीरे-धीरे चलने लगा।

अनजान प्रदेश, जंगल का रास्ता, और साथ में कोई भी नहीं, ऐसी स्थिति में अकेले चलते-चलते बटोही का जी घबरा उठा। रात्रि का स्वप्न और उस दिव्य पुरुष का भविष्य-कथन बारंबार उसके मन में आने लगा। उसे इस बात का पूरा भरोसा हो गया कि बेशक मुझ पर परमेश्वर की कृपा है, उसी की यह आज्ञा समझना। परंतु वह फिर भी सोच करने लगता कि जो मनुष्य इस देश में बिलकुल अनजान है, जिसे इस दुनियाँ में रहने के लिए न तो कोई मकान और न कोई ठिकाना है, जिसे इस संसार में किसी का आधार भी नहीं––वह, वह यःकश्चित् गरीब प्रवासी, गजनी ऐसे बलाढ्‌य राज्य का अधिपति हो जायगा––यह बात कैसे संभवनीय हो सकती है? रंक से राजा होने का अनुभव स्वप्न ही में मिलता है। जो बात प्रत्यक्ष देखने में कभी नहीं आती, वह स्वप्न भी इस प्रकार होगा––ऐसा सोचकर उसका मन किंचित् सशंक हो गया। तथापि यह कितना भी असंभव क्यों न हो, इसमें परमेश्वर का चमत्कार है, इस बात की कल्पना उसके मन में दृढ़तर समा गई थी।

(दूसरा भाग)

पथिक ऐन जंगल में से चलते-चलते उस जगह पर पहुँचा जहाँ दिन-दोपहर को अँधेरा मालूम होता था। उन झाड़ी के मध्य भाग में जब आया, तब वहाँ उसे मनुष्यों की आवाज सुनाई देने लगी। कुछ आगे बढ़कर देखता है तो आठ आदमी आग जलाकर उसके आसपास बैठे भोजन कर रहे हैं। उनको खाते देख यह प्रतीत होता था कि वे कई दिन से भूखे हैं, क्योंकि वे अघोरी की नाईं सपाटे से निगलते चले जाते थे। यह देख बटोही के मन में शंका आई कि हो न हो, अब शत्रु से गाँठ पड़ी। पर क्या करें? पीछे लौट नहीं सकता, क्योंकि उसको उन्होंने देख लिया था। इसलिए हिम्मत करके आगे बढ़ा और उनसे पड़ाव की जगह पूछने लगा। उनमें से एक ने हँसकर कहा––

"भला, यहीं रह जाओगे तो क्या नुकसान है।" इस पर उन दोनों में बातचीत होने लगी। पथिक ने कहा––

"नहीं, मुझे आगे जाना है। अगर तुम रास्ता बतलाओ तो ठीक है, नहीं तो सेंत-मेंत बड़चड़ करने की मुझे फुरसत नहीं।"

"अच्छा, लेकिन जो लोग इस जंगल में से आते-जाते हैं, वे यहाँ अपनी रक्षा के लिए कुछ महसूल दिया करते हैं। यह बात तुम्हें मालूम है या नहीं?"

"तुमसे सहायता लेने की मुझे कोई गरज नहीं है। इसलिए मैं तुमको एक कौड़ी भी न दूँगा।"

"सुनो! हम यहाँ पर आठ आदमी हैं। क्या तुम इनके साथ पुर सकोगे? जरा नरम होओ और कुछ ख्याल करो कि तुम कहाँ हो? ऐंठ की बातें तो न करो। जब कभी मौका लग जाता है तो हम लोग अपना हक राजा पर भी चला लेते हैं। सच पूछो तो यहाँ के राजा हम ही हैं। तुम्हारा किया कुछ भी न हो सकेगा। सीधी तरह जो कुछ तुम्हारे पास है, चुपचाप हमारे स्वाधीन करो। और वह रास्ता दिखाई देता है, उधर से चले जाओ। नहीं तो तुम्हारे जी पर बीतेगी। समझे? याद रक्खो कि जिस काम को हम अपना हाथ लगाते हैं, उससे फिर पीछे कभी नहीं लौटते?" "तो क्या मैं लुटेरों के फन्दे में पड़ गया हूँ?"

"इसमें क्या शक, कहो तो फिर क्या कहना है?"

"अब यही कहना है कि साम्हने से हट जाओ। मैं तुम्हारी कभी न सुनूँगा। इस बात को खूब सोच रक्खो कि सिर्फ आठ ही नहीं, तुम्हारे सरीखे सौ लुटेरे भी आ जायें, तो मैं अकेला उनके लिए बस हूँ। क्या मुझे अकेला समझ कर डराना चाहते हो?"

वह चोर अपने साथीदारों की तरफ देखकर जोर से हँसा और फिर बोला कि––

"यह भला आदमी सीधी बातों से नहीं मानता। इसे थोड़ी सी खुराक मिले तो ठीक होगा।" फिर उस पथिक की ओर लौटकर कहने लगा––

"अरे, इधर आ, मेरे साम्हने तो खड़ा रह। अपना सामान नीचे धर दे, और चल दिखला तो सही तुझमें कितना दम है। मैंने तो तुझे पहिले ही कह दिया कि तुझे अपना जीव प्यारा है तो हमारी बात मान ले। क्यों, सुनता है कि नहीं?"

"यहाँ जीव की पर्वाह किसको है! मैं तो उसकी कुछ कीमत ही नहीं समझता। खुदा का इरादा होगा तो मैं मरने को अभी तैयार हूँ। पर जब तक जीता हूँ, अपना माल तुम्हें न छूने दूँगा। सुख क्या चीज है, यह तो मुझे आज तक मालूम भी नहीं, और न कभी आगे जानने की कोई उम्मीद ही है, फिर भी मौत से क्यों डरूँ? मैं जानता हूँ कि तुन हरामखोर हो, तुम्हें दया-माया छूकर भी नहीं निकली। चलो देखूँ तो सही, तुम क्या कर सकते हो मेरा?" ऐसा कहकर वह पथिक एक झाड़ से टिक गया और अपना सामान नीचे उतार कर हाथ में तलवार ले खड़ा रहा। उसका विलक्षण ढाढ़स देखकर वे सब आश्चर्य से स्तब्ध हो गये। परन्तु अपना प्रभाव दिखलाने के लिए उनमें से एक चोर ने पथिक के दाहिने हाथ में (जिसमें तलवार थी) ऐसा बाण चलाया कि वह तीर हाथ को छेदकर झाड़ में जा घुसा। उसने तीर को खींच कर निकाल डाला और तलवार चलाने का प्रयत्न किया। पर उसके हाथ से इतना खून बह रहा था कि वह बिलकुल दुर्बल हो गया। तलवार नीचे गिर पड़ी। डाकू उसके बदन पर टूट पड़े और उसकी मुसकें बाँधकर सामान टटोलने लगे। पर जब उसमें कोई भी कीमती चीजें न मिलीं, तो वे बहुत ही निराश हो गए। इतने से माल के लिए अपने जीव की परवाह न करने वाले उस पथिक का उपहास करके, दाँत-ओंठ पीसते हुए सब माल इधर-उधर फेंक दिया। और जैसा कि अंदाज किया था, वैसा कुछ भी माल हाथ न लगा। इससे खिन्न होकर उन चोरों ने पैसे मिलने की नई युक्ति निकाली। बटोही को अच्छा मजबूत कठमस्त देखकर गुलाम बनाकर बेचने का उन्होंने इरादा किया। ऐसे गुलाम की कीमत भी बहुत बढ़िया मिलेगी––यह सोचकर उनमें से एक ने कहा––

"अभी बहादुर इधर आओ। चलो, अब हमारे साथ घर चलो, जब तक तुम्हारा घाव अच्छा न हो जाय, हमारे यहाँ पहुनाई करो। फिर जल्दी ही तुम्हारे लिए कोई दूसरा बन्दोबस्त किया जायेगा। कुछ चिन्ता मत करो।"

फिर पथिक का हाथ उसकी पगड़ी से बाँध दिया और दो चोर उसकी दोनों भुजाओं को पकड़ कर उसे ले चले। वन में कुछ दूर जाने पर कई छोटे-छोटे झोंपड़े नजर आये। वहाँ पहुँचते ही सब लोग ठहर गए। चोर अपने-अपने लड़के-बच्चों के साथ रहते थे। इसलिए उस पथिक के रहने के लिए एक नई झोंपड़ी तैयार की गई। दो-चार दिनों में जब उसका घाव कुछ अच्छा हुआ तो सब चोरों ने एकत्र होकर उसको अपने सामने खड़ा किया और उनका नायक कहने लगा––

"क्यों भाई! कहो, तुम्हें हमारा धंधा पसंद आया है या नहीं। इस धंधे में मनुष्य को बहुत चालाक और होशियार रहना चाहिए। तुम तो अच्छे, मोटे-ताजे, मजबूत, शूर जवान दिखाई देते हो। अगर हमारे साथ रहना चाहते हो तो कहो?"

प्रवासी ने कहा––"मैं बड़ा धूर्त हूँ। अगर तुम मुझे अपने बेड़े में रखना चाहते हो तो रक्खो। पर मैं यह नहीं कह सकता कि मैं तुमसे विश्वासघात कभी नहीं करूँगा।"

"कुछ हरज नहीं, हम तुमको अपने बेड़े में शामिल करते हैं, विश्वासघात करना शूरों का काम नहीं है। तुम पूरे शूर हो, इसीलिए हम तुम्हारा विश्वास करते हैं।"

"अगर ऐसा ही है तो समझता हूँ कि तुम्हारे समान मूर्ख कोई भी नहीं। शूर पुरुष सदैव सम्माननीय होते हैं। ऐसे डाकुओं पर विश्वास रखना शूरों का काम नहीं है। यदि मैं तुम्हारा विश्वास मानकर चुपचाप बैठा रहूँ तो मुझे निरपराधी मनुष्यों को दुःख देने का पाप लगेगा।"

"तुम इतने ईमानदार होगे, यह बात हमें मालूम न थी। इतना अलामत जानते कि तुम बड़े शूर हो। पर अब हमें ऐसा जान पड़ता है कि तू न तो ईमानदार है और न शूर। सिर्फ ढोर चराना या घोड़ा मलना या गुमाबी करना, यही तेरा काम है, बस अभी थोड़ी देर में तुझे तेरे लायक धन्धा मिल जायगा।"

बटोही के दोनों हाथ बँधे हुए थे। उन्हीं को ऊपर उठाकर कहने लगा–– "सच है ये मेरे हाथ बँधे हैं, इसीलिए तुम इतनी, बड़-बड़ कर रहे हो। कायरों का तो यह काम ही है कि जब शत्रु के भय से दूर हों तो शूर-वीर बन जायें। अरे दुष्ट, अधम, परद्रव्यापहारी नीच! क्या जख्मी और पराधीन को दुर्वचन कहने ही में तू अपनी बहादुरी समझता है?"

यह सुनकर उस चोर को कुछ लज्जा उत्पन्न हुई। उसने कहा––

"अच्छा शौर्य और सच्चाई किसे कहते हैं, हम नहीं जानते। इसके लिए तकरार करने से कुछ फायदा नहीं। लेकिन आज इतने दिन से तुम हमारे यहाँ हो, तुमको खिलाने-पिलाने और दवा-दारू करने में जो हमारा पैसा लगा है, वह तो मिलना ही चाहिए। तुम्हारे पास तो एक कौड़ी भी नहीं। इसलिए हमारा विचार है कि तुमको गुलाम बनाकर बेच दें और पैसे वसूल कर लें।"

फिर वे चोर उस पथिक को एक नजदीक के गाँव में ले गए। वहाँ किसी व्यापारी के पास बेचकर जो कुछ कीमत मिली, लेकर घर लौट आए। व्यापारी ने उसके घाव पर मल्हम-पट्टी वगैरह लगाई और अच्छे-अच्छे पौष्टिक पदार्थ खाने को दिए। उसका पूर्व वृत्तान्त पूँछकर अच्छी तरह से हिफाजत की। पथिक अपने मन में समझ गया कि उसकी इतनी फिकर क्यों हो रही है। अब एक दिन अवश्य ही गुलाम बनना पड़ेगा। क्या करे बेचारा! निरुपाय होकर ईश्वर पर भरोसा रखकर बड़ी कठिनाई से दिन बिताने लगा। जब कभी स्वप्न की याद आ जाती, तो अत्यन्त व्याकुल और उदास हो जाता। स्वप्न में दूत के वचन पर विश्वास रखकर आज तक जितना मनोराज्य किया, उसके विषय में अब उसको बहुत ही शरम मालूम होती थी। स्वप्न-जैसी मिथ्या कल्पना इतनी सत्य प्रतीत हुई––इस बात का उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, और अब जो कुछ नसीब में लिखा है, वही होगा––ऐसा समझकर संतोष-वृत्ति से रहने का निश्चय किया।

जिस व्यापारी का वर्णन ऊपर कर चुके हैं, वह गुलाम बेचने का रोजगार करता था। जब बटोही बिलकुल चंगा हो गया तो उसको अपने साथ लेकर वह खुरासान को रवाना हुआ। कई दिन तक रास्ता चलने पर वे उस शहर में पहुँचे। वहाँ उसने यह बात प्रकट की कि उसके पास एक अच्छा खूबसूरत जवान गुलाम बिकाऊ है। कई ग्राहक आए, पर कीमत न पटी। व्यापारी को आशा थी कि बहुत कुछ लाभ होगा। इसलिए उसने कीमत भी अधिक बढ़ा दी थी। जब सब ग्राहक लौट गए तो व्यापारी अत्यंत निराश हो गया। भाग्यवशात् उसको एक हिकमत सूझी। उसने विचार किया कि स्वतंत्रता सबको प्यारी होती है, यदि वह इस मनुष्य को मुक्त कर दे तो कदाचित् यह दूसरों की अपेक्षा अधिक द्रव्य देगा, क्योंकि अपने स्वातंत्र्य की आवश्यकता जितनी इसे होगी, उतनी दूसरे किसी को भी नहीं हो सकती। यह विचार मन में आते ही वह हर्ष से फूला न समाया। तुरंत ही उस बटोही के पास गया और बोला––

"क्यों, तुझे अपनी स्वतंत्रता पाने की इच्छा है क्या?"

"वाह साहिब! आप यह क्या पूछते हैं? क्या भूखे को कोई ऐसा भी पूछता है कि तुझे अन्न चाहिए?"

"अच्छा, तुझे स्वतंत्रता मिल जाय तो उसके बदले तू क्या देगा?"

"आपको क्या चाहिए?"

"द्रव्य।"

"नहीं, यह तो कभी नहीं हो सकता। स्वतंत्रता मनुष्य मात्र को ईश्वर के यहाँ से मिली है, उसे मोल लेने की मेरी इच्छा नहीं। सच पूछिये तो तुम्हारे जैसे नीच रोजगार करने वालों का गला काटना ही मेरा कर्तव्य है। पर इस काम के लिए जितना मुझे अधिकार है, उतना ही तुमको मेरी स्वतंत्रता छीन लेने का है।"

यह सुनते ही उस बूढ़े व्यापारी की नाड़ी ठंडी हो गयी। क्रोध से लाल होकर वहाँ से हट गया और उस गुलाम को छल करने को आरंभ किया। उसके गले में पट्टी बाँधकर दिन भर नीच और कठोर काम कराने लगा। परन्तु दैव योग से यह हकीकत खुरासान के बादशाह अलप्तगीन के कानों तक पहुँची। क्यों न हो, भक्तों का नसीब कभी-न-कभी जागता ही है। बस यही कारण है कि बादशाह ने बहुत-सा द्रव्य देकर उस गुलाम को अपने पास रख लिया।

(तीसरा भाग)

इस प्रकार से वह पथिक बादशाह के महल में पहुँचा। पहिले-पहल तो उसे दूसरे गुलामों के साथ महल के छोटे-मोटे कामों पर रखा गया। फिर उसकी चतुराई और होशियारी देखकर अलप्तगीन ने उसको अपने खास गुलामों में रख लिया। तब से वह निरन्तर बादशाह के समीप रहने लगा। थोड़े ही दिनों में बादशाह बहुत खुश हो गया और उसको एक तरक्की की जगह दे दी। इस गुलाम में बहुत कुछ ऊँचे दर्जे की बुद्धि है––यह सोचकर एक दिन उसने उसका जन्म-वृत्तान्त पूछा। गुलाम ने कहा––

"ऐ शाहंशाह! मुझ गरीब की हकीकत क्या पूछते हो। आज मैं यहाँ गुलामी कर रहा हूँ, उसमें कुछ शक नहीं। पर आज तक मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया है कि जिससे मेरे कुल को बट्टा लगे। मैं गरीब हूँ, तथापि स्वतन्त्र हूँ। जब ईरान का बादशाह यजीदजद शत्रुओं के साथ लड़ाई में हार कर भाग गया, तब उसके कुटुम्ब के सब लोग तुर्किस्थान ही में रह गये। बादशाह को दुश्मनों ने कतल कर डाला। उसके कुटुम्ब में तुर्किस्थान के कई लोगों से शादियाँ हुईं। मेरा जन्म उसी के वंश में हुआ है। इसलिए अब मैं तुर्क कहलाता हूँ। जिस समय मेरा जन्म हुआ, मेरे माँ-बाप बिलकुल गरीब थे। हर रोज गुजर होना भी मुश्किल था। तिस पर भी मेरे बाप ने मुझे अच्छी तरह से पढ़ाया, अपने धर्म पर विश्वास रखकर नीति का मार्ग दिखलाया और सदैव सदाचरण करने की सुशिक्षा दी, क्योंकि वह स्वयं कुछ लिखना-पढ़ना जानता था और उस शहर में एक बड़ा विद्वान् और सद्‌गुणी मनुष्य गिना जाता था। युद्ध करना, शिकार खेलना, घोड़े पर सवार होना, हथियार चलाना, आदि वीर पुरुष के योग्य कई उत्तम-उत्तम गुण सीखने का भी मुझे मौका मिला। मैं समझता हूँ कि मेरी शिक्षा राजदरबार में जो कई सरदारों के पुत्र हैं, उनसे यदि अधिक नहीं तो कम भी न होगी। न मालूम क्यों छुटपन ही से मेरे मन की ऐसी भावना हो गई थी कि मैं जन्म भर यों ही गरीब न बना रहूँगा, कभी-न-कभी मुझसे जरूर कोई बड़ा भारी काम होने वाला है। बस इसी कल्पना के जोश में अपनी उमर के उन्नीसवें बरस घर छोड़ बाहर निकल पड़ा। गजनी के लश्कर में पहुँच सिपाहियों में भरती होने के इरादे से गाँव-गाँव, जंगल-जंगल घूमता हुआ चला आया था कि दुर्भाग्य से एक घने बन में डाकुओं से गाँठ पड़ गई। वे आठ आदमी थे। मुझे अकेला देख, हाथ-पैर बाँध कर अपने घर ले गये और हर एक तरह की तकलीफ देने लगे। कुछ दिन पीछे एक व्यापारी के पास मुझे बेच दिया। वहाँ जो दुख मुझे सहना पड़ा, वह कहने के लायक नहीं है। लेकिन यह उस परमेश्वर की ही कृपा हुई कि हुजूर का गुलाम होकर यहाँ आ पहुँचा।"

पथिक की यह वार्ता सुनकर अलप्तगीन बहुत प्रसन्न हुआ और थोड़े ही दिनों में तरक्की देते-देते उसको समीरुल-उमरा बना दिया। उसने भी कभी ऐसा खराब काम नहीं किया कि जिससे उसके नाम और ओहदे पर बट्टा लगता। अब तो अलप्तगीन ने अपनी सब फौज ही उसे सौंप दी और कहा कि राज्य की कुल व्यवस्था तुम ही देखा करो। यह अधिकार मिलते ही उसने फौज को एक शिस्त से कवायद सिखलाना शुरू किया और लड़ाई की ऐसी अच्छी व्यवस्था रखी कि थोड़े ही दिनों में कई दुश्मनों के दाँत खट्टे हो गए। कई तो आप ही आप डर कर सीधे हो गए। जिधर-उधर शांति होकर बादशाह का अमल पूरा-पूरा स्थापित हो गया। इससे अमीर की बड़ी प्रशंसा होने लगी और फौज का हर एक सिपाही उसको अपनी जान से भी ज्यादा चाहने लगा। अब उसके मन में अपने स्वप्न की कुछ-कुछ सत्यता मालूम होने लगी। अपने पुत्र को इस प्रकार के वैभव में देखने का सुख उसके बाप के नसीब में न था। पर उसकी माँ अभी तक जीवित थी। उसको उसने अपने पास बुलवा लिया। लड़के की यह बड़ाई देख उसे भी बड़ा आनन्द हुआ।

देखो तो सही! इस मनुष्य की स्थिति अल्पकाल ही में कैसी बदल गई!! यही पथिक जो कुछ दिन पूर्व गुलामी करता था और सबके सामने घुटना टेक कर माथा नवाया करता था, वह अब खुरासान के सब अमीरों का उमराव हो गया है और उसको सब छोटे-बड़े लोग झुक कर सलाम करते हैं!!! कितना बड़ा अंतर है। यह सच है, पुरुष का भाग्य कब खुलेगा, कोई नहीं जानता। बादशाह अपने अमीर से बहुत ही खुश रहने लगा। राजदरबार में उसकी सलाह लिए बिना कुछ भी काम नहीं चलता था। क्या दरबार में और क्या रणभूमि में उसी की आज्ञा सबको मान्य होती थी। वह अपने दुश्मन को प्रत्यक्ष काल के समान, राजा को जीव और प्राण के तुल्य, प्रजा को एकमात्र आधार और सेना को सदा विजयी सच्चा नायक मालूम होता था। इसीलिए अब वह अपने दुख के दिन भूल कर सुख से रहने लगा। ऐसी एक भी चीज न थी कि जिस पर उसका मन लगता और वह उसे न मिल सकती। उसके स्वप्न की बात पूरी होने में अब कौन-सी त्रुटि थी!

अलप्तगीन की जहीरा नाम की एक अत्यंत रूपवती और सद्‌गुणी कन्या थी। इस समय वह ऐन जवानी में होने के कारण केवल अद्वितीय मालूम होती थी। बड़े-बड़े सरदारों और अमीरों ने उससे शादी करने की बातचीत निकाली, परन्तु उसने किसी को भी पसंद न किया। जहीरा अपने माँ-बाप की इकलौती लड़की थी। इसलिए अलप्तगीन उसको बहुत ही चाहता था। जब उसने यह हाल सुना कि लड़की ने अपने अमीरों में से किसी को भी पसंद नहीं किया, तब उसके मन में बड़ी भारी चिंता उत्पन्न हुई कि अब वंश कैसे चलेगा। तथापि वह भली भाँति जानता था कि जहीरा कोई साधारण लड़की नहीं है। वह बहुत समझदार और चतुर है। इसलिए उसने इस काम में कुछ छेड़छाड़ करना ठीक न समझा। जो कुछ हो, लड़की के मन से होना चाहिए। उसके अधिकार में किसी तरह की रोक-टोक न करने का बादशाह ने पूरा-पूरा निश्चय कर लिया।

इस किस्से का मुख्य नायक अमीरुल-उमरा बादशाह के महलों में ही रहता था। शाहजादी ने उसे कई बार देखा भी था। कभी-कभी तो आपस में उन दोनों की बातचीत भी हुआ करती थी। इस प्रकार के कई प्रसंग आते-आते एक दूसरे को चाहने लगे। चाह से परस्पर अनुराग उत्पन्न हुआ और अब अमीर को यह भी मालूम हो गया कि उसके सहवास से शाहजादी खुश होती है। परन्तु जब उसको याद आ जाती कि शाहजादी ने अमीरों को निराश किया है, तो उसका मन उदास हो जाता। तो भी प्रेम के वश होकर आशा करने लगता कि मुझे इसका पलटा अवश्य ही मिलेगा। जैसे अमीर के मन में वैसे ही शाहजादी के भी मन में प्रेम का बीज आरोपित हो चुका था और उनकी परस्पर प्रीति बढ़ती ही जाती थी। अब उनका यह भाव आपस में छिप नहीं सकता था। दोनों की आँखें मिलते ही शाहजादी के बर्ताव में जो एक प्रकार की चंचलता दीख पड़ती थी, उससे तो यह बात स्पष्ट हो जाती थी कि उसके मन पर प्रेम का पूरा असर हो चुका है। उसके भाषण और नेत्र-संकेत से ऐसा मालूम होता था कि वह बिलकुल परवश हो गई है। अस्तु, उसकी यह दशा देख अमीर को विश्वास हुआ कि ऐसे समय पर यदि अपना मनोगत विचार शाहजादी को बतलाया जावे तो अपमानित होने का डर नहीं है। इसलिए एक दिन शाहजादी को प्रसन्न मुद्रा में देख उसने अपना विचार प्रगट किया। उसका परिणाम भी कुछ खराब न हुआ। शाहजादी लज्जा से मुस्करा कर नीचे देखने लगी।

अमीर आनन्दातिशय से प्रफुल्लित होकर बोला कि––"ऐ शाहजादी, इसमें कुछ शक नहीं कि थोड़े दिन पहले मैं इस महल में गुलाम होकर रहता था। पर मेरा जन्म अच्छे राजघराने में हुआ है। मैं समझता हूँ कि मेरे योग से तुम्हारे बड़प्पन में किसी तरह का कलंक नहीं लग सकता।"

"ऐ अमीरुल अमरा" शाहजादी ने कहा, "अपने जन्म का साथी और सुख-दुख का भागी ढूँढ़ने में बहुत होशियारी से काम करना चाहिए। ऐसे समय कुल की अपेक्षा शील ही का अधिक महत्व है। धन-दौलत और कुल तो जन्म ही से प्राप्त होते हैं, परन्तु सत्य, शील और उत्तम नीति सहज नहीं मिलती। श्रीमान मनुष्य मिलना कठिन नहीं है। इस दरबार में ऊँचे कुल के बड़े लोग मैंने कई देखे हैं। आज तक यहाँ ऐसे सैकड़ों अमीर आ चुके जो अपने तईं बादशाह से भी बढ़कर समझते हैं। पर सदाचारी और सुशील मनुष्य का मिलना बहुत ही कठिन है। कर्म, धर्म, संयोग से यदि ऐसा सत्पुरुष मिल जाय तो उसे परमात्मा की कृपा ही समझनी चाहिए।"

"शाहजादी, मैं यह नहीं कह सकता कि मुझमें यहाँ के अमीरों से बढ़कर कोई विशेष सद्‌गुण है। हाँ, इतना तो अलबत्ता कहूँगा कि यह संपत्ति और प्रतिष्ठा उन्हें अनायास करके ही प्राप्त हो गई है और मैं यद्यपि राजकुल में उत्पन्न हुआ हूँ, तो भी केवल अपने पराक्रम ही से इस योग्यता को पहुँचा हूँ। उन्हें अपनी बपौती का अभिमान है, और मुझे इस तलवार का।"

"ये अमीर,” जहीरा अत्यन्त अनुरागपूर्वक बोली, "मेरे नसीब में जो सुख-दुख लिखा है, वह तुम्हारे साथ जन्म भर भोगने के लिए बड़े संतोष से तैयार हूँ। परन्तु इसमें मेरे पिता की भी अनुमति होनी चाहिए। पिता की आज्ञा मुझे शिरसा मान्य है। उनकी इच्छा के विरुद्ध मैं कदापि कोई काम नहीं कर सकती। कन्या का यही धर्म है कि अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करे। जो कन्या धर्म के अनुसार नहीं चल सकती, वह शादी हो जाने पर, स्त्री-धर्म से कैसे रह सकेगी? जिसके हृदय में पितृ-प्रेम नहीं, उसके मन में पति-प्रेम कहाँ से आ सकता है?"

"मैं अभी बादशाह के पास जाकर सब हाल सुनाता हूँ। मुझे विश्वास है कि बादशाह मुझसे बहुत खुश हैं। परन्तु यह तो मानापमान का विषय है। कौन जानता है अपना सम्बन्ध उनको पसंद होगा या नहीं?"

इतना कहकर अमीर ने उसी दिन बादशाह से मुलाकात की और अपना हृदय-विचार उनको कह सुनाया। यह बात सुनते ही क्रोध अथवा आश्चर्य से चकित न होकर अलप्तगीन ने बड़े सन्तोष से कहा, "तुम जानते हो कि जहीरा मेरी इकलौती लड़की है। मेरे लिए आज सोलह वर्ष से वही एक आनन्द का स्थान है। अब उसको भी सुख मिलने के दिन आ गए। मेरा कर्तव्य यही है कि हर एक प्रकार से उसके सुख की वृद्धि करूँ। बड़े-बड़े शहजादों और अमीरों ने उसकी शादी माँगी, पर उसने एक को भी पसन्द न किया। अगर वह तुमको पसन्द करे तो मेरी मनाई नहीं।" अमीर ने जवाब दिया कि शाहजादी ने मुझ पर अपनी अनुकूलता दिखाने की कृपा की है। सिर्फ आपकी आज्ञा चाहिए।

लड़की की यह इच्छा देख कर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ। जहीरा ने अत्यन्त योग्य वर को ही अपना प्रेमी दिखाया। इससे वह अपने तईं को धन्यवाद देने लगा। उसने तुरन्त अपनी अनुमति प्रगट की और बड़े समारोह से दोनों की शादी कर दी। जहीरा ने जिन-जिन अमीरों को अस्वीकार किया था, वे अपने मन में जलने लगे। पर शहर के सब लोग बहुत ही प्रसन्न हुए। सारे खुरासन में आनन्द की बधाई बजने लगी।

शाहजादी के ब्याह के कुछ दिन पीछे, हिजरी सन् ३५१ में अलप्तगीन ने गजनी के बादशाह मनसूर से लड़ाई की तैयारी की। मनसूर हार गया और अलप्तगीन ने अपने दामाद की सहायता से गजनी राज्य हस्तगत कर लिया। आगे सन् ६७५ ई॰ में (अर्थात् ३६५ हिजरी में) अलप्तगीन का देहान्त हो गया और उसका लड़का अबू इसहाक गद्दी पर बैठा। थोड़े ही दिनों में अपने बहनोई के साथ उसने बुखारा पर चढ़ाई की। मनसूर, अमीर के पराक्रम और शौर्य से अपरिचित न था। उसने उन दोनों का बहुत कुछ आदर सत्कार किया और गजनी का राज्य भी सौंप दिया। परन्तु राज्य-सुख का उपयोग लेने के लिए अबू इसहाक बहुत दिन तक जीता न रहा। सन् ९७७ ई॰ में उसके परलोक सिधारने पर प्रजा, अमीर और उमरावों ने एकमति से जहीरा के पति को (अर्थात् हमारे पथिक को) गजनी का बादशाह बनाया।

इस प्रकार उस पथिक का स्वप्न सच्चा हुआ और जो कुछ दिन पहले गुलाम बनकर दीन दशा में पड़ा था, वही गरीब पथिक एक बलाढ्‌य राजा हो गया। दिन के हेर-फेर ऐसे ही होते हैं।

हिन्दुस्थान के इतिहास में सबक्तगीन नाम का जो अत्यन्त प्रसिद्ध बादशाह हो गया, वह यही हमारा गरीब पथिक है। उसी के लड़के महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को मुसलमानों के आधीन किया।