माधवराव सप्रे की कहानियाँ/स्पष्टीकरण के दो शब्द
स्पष्टीकरण के दो शब्द
विशाल भवनों की नींव के दृढ़ और विशाल पत्थर गगनचुंबी प्रासादों का बोझ सँभाले अज्ञात पड़े रहते हैं। उन्हें कोई जानता भी नहीं, देखना तो दूर की बात है। "शिलान्यास", "उद्घाटन" आदि के कुछ पत्थर जो इस प्रकार सावधानी से लगाये जाते हैं कि सदैव निगाह में आते रहें, वे अवश्य सभी को दिखायी पड़ते हैं, और फिर प्रासाद के उठने पर उसके खंभों, महराबों में लगे आलंकारिक और सौन्दर्यवर्द्धक पत्थरों पर भी लोगों की दृष्टि जाती है। ऊपरी भाग के अन्य अनेक पत्थरों पर भी लोगों की निगाह पड़ती है, किन्तु नींव के पत्थर, जिनके बिना प्रासाद उठता ही नहीं, अज्ञात और अनभिनन्दित पड़े रहते हैं। शायद यही उनकी नियति है।
आधुनिक हिन्दी के 'शिलान्यास के पत्थर' भारतेन्दु और शायद 'उद्घाटन के पत्थर' आचार्य द्विवेदी तथा अलंकरण के अनेक बहु-विज्ञापित पत्थर आज ज्ञात, चर्चित और अभिनंदित हैं। यह उचित भी है। किन्तु नींव के अनेक बहुत महत्त्वपूर्ण पत्थर विस्मृत कर दिये गये हैं। उनके नाम गिनाना भी व्यर्थ है। मैंने उनकी चर्चा करते समय अनेक 'डॉक्टरों' को उनका नाम सुनकर आश्चर्य से अपनी ओर ताकते देखा है। अतएव उनकी संक्षिप्त तालिका भी देना अनावश्यक समझता हूँ। प्रस्तुत पुस्तक के संदर्भ में उन विशाल और महत्त्वपूर्ण नींव के पत्थरों में से केवल एक ही की चर्चा आवश्यक है। वे थे पण्डित माधवराव सप्रे।
इस भूमिका में भी उनके संबंध में अधिक लिखने का अवकाश नहीं है। इतना कहना ही पर्याप्त है कि आधुनिक हिन्दी के आदिकाल में वे हिन्दी में एक पहलपूर्ण रचनाकार और प्रेरक शक्ति थे। माखनलाल चतुर्वेदी ऐसे हिन्दी के कवि और लेखक उनके ही द्वारा प्रेरित और निर्मित थे। उन्होंने हिन्दी गद्य को उसका वर्त्तमान रूप देने में जो कार्य किया, उसका सही मूल्यांकन करना कठिन है। वे अत्यन्त कर्मठ और प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। हिन्दी भाषा के प्रचार और साहित्य-साधना की प्रेरणा देने में––विशेष कर पुराने मध्यप्रदेश में––उनका नाम जानकर लोग "करि गुलाब कौ आचमन" लेंगे।
आधुनिक हिन्दी को उसका वर्तमान रूप देने के अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी में गहन चिन्तन और साहित्य में गंभीर राजनीतिक चिन्तन को अन्तर्भुक्त करने का सफल कार्य शायद सर्वप्रथम किया। वे गंभीर लेखक, विचारक और शैलीकार थे। उन्होंने कुछ कहानियाँ भी लिखी थीं। वे आज के युग में कैसी समझी जायेंगी––यह कहना मेरे लिए कठिन है। मेरे लिए तो इनमें रुचि लेने के लिए यह बात ही पर्याप्त है कि सप्रेजी के समान गंभीर चिन्तक और लेखक ने इस विधा का उपयोग किया।
इस संग्रह से मेरा वादरायण संबंध इतना ही है कि जब श्री देबीप्रसाद वर्मा ने इन कहानियों का संग्रह और सम्पादन कर लिया, तब उन्होंने मुझे लिखा कि मैं इन्हें प्रकाशित कराने का प्रयत्न करूँ। आज के युग में हिन्दी के प्रायः विस्मृत और पुराने प्रस्तरित (फॉसिलाइज्ड) लेखकों की कोई वस्तु प्रकाशित कराना कितना कठिन है, इसका मुझे बहुत काफी अनुभव है। मैं लेखकों या पुस्तकों का नाम न लूँगा, किंतु मुझे ऐसे ग्रन्थों के लिए प्रकाशकों या संस्थाओं को राजी करने में आठ से चालीस वर्ष तक लगे हैं। प्रकाशक तो व्यवसायी हैं। उनकी हिचक मैं समझ सकता हूँ। किन्तु हिन्दी की संस्थाएँ भी इस मामले में उदार नहीं हैं। कहीं कर्मठ होने पर भी कार्यकर्त्ता कल्पनाशील नहीं मिलते, कहीं पूर्वाग्रह काम करते हैं, कहीं 'लाल-फीताशाही' काम नहीं होने देती। फिर भी, जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, वर्षों से लेकर दशकों तक पीछे पड़े रहने से कुछ ग्रन्थों के प्रकाशन में सफलता मिल जाती है। इस संग्रह को मैंने पहले एक हिन्दी संस्था से (जो वास्तव में 'सरकारी' है) छपाने का प्रयत्न किया, किन्तु वहाँ असफल होने पर मैंने इलाहाबाद की हिन्दुस्तानी एकेडेमी का द्वार खटखटाया।
कई अनिवार्य और अप्रत्याशित कारणों से कुछ समय अवश्य लगा, किन्तु एकेडेमी के साहित्य-प्रेमी, निदग्ध और कल्पनाशील अधिकारियों ने सप्रेजी के महान् व्यक्त्वि और उनके द्वारा इस विधा के प्रयोग का ऐतिहासिक महत्त्व समझा, और उनकी कृपा से सप्रेजी के प्रायः विस्मृत साहित्य की एक अनमोल कड़ी हिन्दी साहित्य-निधि को प्राप्त हो रही है।
श्री तेलंग और श्री वर्मा की विस्तृत और सारगर्भित भूमिकाओं के बाद मेरी भूमिका एकदम “अजागलस्तनश्चैव” निरर्थक है। किन्तु एकेडेमी और वर्माजी द्वारा इस 'गोवर्धन' पर्वत उठाने में, मैं भी ब्रज के बालगोपालों की तरह अपनी भूमिका-रूपी लाठी लगाकर उन भोले ब्रजवासियों की तरह ही मानो यह मूर्खतापूर्ण अनुभव कर रहा हूँ कि मेरी लाठी ने इस गोवर्धन का बहुत कुछ भार सँभाल रखा है।
मैं श्री वर्मा को उनके परिश्रम, श्री तेलंग को उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका और हिन्दुस्तान एकेडेमी को मेरा निवेदन और सुझाव स्वीकार करने के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
श्रीनारायण चतुर्वेदी