मिश्रबंधु-विनोद (१)/भूमिका

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भूमिका . (प्रथम संस्करण की) ग्रंथ-निर्माण दिसंबर १९०१ (संवत् १९५८) की सरस्वती पत्रिका में हमने हिंदी-साहित्य इतिहास-विषयक एक ग्रंथ बनाने की इच्छा प्रकट की थी और यह बात पृष्ट ४३० तथा ४११ पर इस प्रकार कही गई थी "हनने भाषा के उत्तमोत्तम शत नबोन और प्राचीन कवियों की ऋविता पर समालोचना लिखने का निश्चय किया है और उन पालोचनात्मक लेखों के आधार पर हिंदी का जन्म और गौरव था अन्य किसीसे ही नाम की पुस्तक निर्माण करने का भी विचार है। इसमें हिंदी में उसके जन्म से अद्यावधि क्या-क्या उन्नति तथा प्रवत्ति हुई है और उसके स्वरूप में क्या-क्या हेर-फेर हुए हैं, इनका वर्णन किया चाहते हैं । यह कार्य समालोचना-संबंधी प्रथों के बहुतायत के प्रस्तुत हुए विना और किसी प्रकार नहीं हो सकता। इसी हेतु हमने समालोचना करने का प्रारंभ किया है और जब शंकर की कृपा से एक सौ उत्तमोत्तम कवियों की समालोचना लिख जायगी, तब उक्र ग्रंथ के बनाने का प्रयत्न करेंगे। अपने इस अभिप्राय ओ हमने . इस कारण विस्तारपूर्वक बतलाया है कि कदाचित् कोई सुलेखक हमारे इस विचार को उचित समझ कृपा करके समालोचनाओं द्वारा हमारी सहायता करें, अथवा स्वयं उस ग्रंथ के निर्माण करने का प्रयत्न करें। यदि कतिपय विद्वज्जन हमारी सहायता करेंगे, तो हम भी अपने अभीष्ट-साधन ( उक्त ग्रंथ के निर्माणा) में बहुत शीघ्र सफलमनोरथ होंगे, नहीं तो कई वर्ष इस कार्य में लगने संभव है।" [ ३८ ]________________

मिश्रबंधु-विनोंद इ निश्चयानुसार हमारा ध्यान समालोचना की और रहा। संवत् १६६२ के लगभगः भूप की रचना पर एक समालोचना हम कौर ने अयपुर के समाजचक पत्र में छपवाई । उसे देखकर काशीनागरप्रचारित सुभा ने भूपण-ग्रंथावलों की संपादन-झार्थ हमें सौंपा। संवत् १९६४ ॐ लगभग सभा ने हमसे प्रायः २०० पृष्टों का एक साहित्य इतिहास लिखने की इच्छा प्रट की ! उस समय हम झालिदास-कृत रघुबंश झा पद्यानुवाद कर रहे थे । उसे छोड़कर हमने समालोचना लिखने का आम उठाया, जो एक वर्ष तकृ तो निर्विन चलता रहा, परंतु फिर ढाई वर्ष पर्यंत उसमें शिथिलता रहीं, और हमारा ध्यान रूस और जापान के इतिहास एवं भारत-विनय-नामक पद्यअंथ लिने की कोर चला गया । ये ग्रंथ इन्हीं ढाई वर्षों में समाप्त हुए, जिनमें से रूह तथा अपान के इतिहास प्रकाशित भी हो गए हैं। ग्रथम हिंदी-लाहिंत्य-सम्मेलन के समय विषय-निर्धारिणी समिति में, हिंदी साहित्य के इतिहास के विषय में वादविवाद हुआ और समिति ने इसके शंत्र दर्न जाने की इच्छा प्रकट की । उक्न समिति के इम भी सभासद् थे, सो अपनी अकर्मण्यता पर हमें ग्लानि हुई । उसी समय से इतिहास का कार्य फिर पूर्ण परिश्रम से चलने लगा और संवत् ११६८ में ग्रंथ बनकर तैयार हो गया, केवल अंतिम अध्याय में कुछ बढ़ाना एवं भूमि का दिखना शेप रह गया । संवत् १९६३ के मई मत नैं छुट्टी लेकर हम लोगों ने यह अर्थ भी समाप्त कर डाला है। प्रकाशन एड्दै हम यह अंथ संक्षेप में लिखना चाहते थे, परंतु धीरेघी इस अाक्रार बढ़ता गया । तब हमने नव सत्कृष्ट कवियों से संबंध रखनेवाले खेत 'हिंदी-नवरत्न' * के नाम से प्रयोग की ॐ हिंद-नवरत्न का द्वितीय, संशोधित संस्करण भी अव गंगा-पुस्तकमाला [ ३९ ]________________

. भूमिका हिंदी-ग्रंथ-प्रसारक मंडल द्वारा एक पृथक् ग्रंश-रूप में छपवा दिए । फिर भी शेर इतिहास प्रथ का श्राकार कुछ बढ़ अवश्य गया, परंतु उसके घटाने का हुने विशेष प्रयत्न से नहीं क्रियः । हमने पहले काश-नारीप्रचारिणी सभा क वचन दिया था कि यह ग्रंथ उसी को प्रकाशनार्थ दिया जाया । पीछे हैं -प्रसारक मंडली ने इसे छापने का अनुरोध किया । सभः ने भी मंडल द्वारा ही इसका प्रकाशित होना स्त्रीकार कर लिया है हिंदु-नद्ररत्र के छापने में मै ढल ने बढ़ा सराहनीय उत्साह दिखलाया था। इस से हमके भी उसी के द्वारा इस ग्रंथ में प्रकाशित होने से प्रसन्नता हुई। इसमें अाज तक अपने क्रिस हिंदी-संबो कार्य इ ई श्रार्थिक हुभ नहीं उठाया, इस से स्वभावतः हमें उत्साही प्रकाश य प्राइन रुचिकर होता है । | नाम् । पहले हम इस ग्रंथ झा चुम्म हिदीशुदहित्य का इतिहास रखनेवाले थे, परंतु इतिहास का रांइती र चिंत्रार करने से ज्ञात हुआ कि हममें साहित्य-इतिहास लिने की पात्रता नहीं हैं। फिर इतिहास-ग्रंथ में छोटे-बड़े सभी कदि इदं देवकों को स्थान नहीं मिल सकता । इसमें भाश-संबंधी खुश हुई एरिवर्तनों पर त मुख्य रूप से ध्यान देना पड़ेगा, कवियों पर गण रूप से; परंतु हमने कैदियों पर भी पूरा ध्यान रखा है। इस कारण यह थ इतिहास से इतर बातों का भी कथन करता है । हमने इसमें इतिहास-संबंधी सुझी विपर्यों एवं पुरै के जाने का असाध्य पूर्ण * प्रयत्न किया, परंतु जिन घरों को इतिहास में होना अनावश्यक है, उन्हें के अंथ से नहीं हटाया । हमारे विचार * प्रायः सभी मुख्य एवं अनुख्य कत्रियों के नाम तथा उनके ग्रंथों के कथन से एक तों इतिहास में पूर्णता अाती हैं और दूसरे हिंदी-भांडार का गौरव प्रकट होता है । यदि कोई व्यक्कि किलो कृत्रि के विश्व में कुछ जानना चाहे [ ४० ]________________

मिश्रबंधु-विनोद तो उसे भी उस विषय की सामग्री प्रचुरता से मिल सकती है। इन्हीं कारणों से साधारण कृवियों एवं ग्रंथों के भाभ छोड़कर इतिहसि का शुद्ध स्वरूप स्थिर देखा हमें अनावश्यक समझ पड़ा । फिर भी इतिहास का क्रम रखने को हमने कवियों का हाल समयानुसार लिखा है और ग्रंथ के आदि में एक संक्षिप्त इतिहास भी दे दिया है। इन कारणों से हमने इसका नाम इतिहास न रखकर “मिश्रबंधुविनोद रक्खा है, परंतु इसमें इतिहास ही की क्रम रखने एवं इतिहास-संबंधी सामग्री सन्निविष्ट रहने के कारण हमने इसका उपनाम *हिंदी-साहित्य का इतिहास” तथा “कवि-कीर्तनभी रक्खा है। | विषय पहनें हमारा विचार था कि प्रायः १०० कवियों की रचनाओं पर समालोचनाएँ लिखकर उन्हीं के सहारे इतिहास-ग्रंथ लिखें । सरस्वती से उद्धत लेख में भी यही बात कही गई है । पीछे से यह विचार उत्पन्न हुआ कि केवल उत्कृष्ट कवियों की भाषा आदि के जानने से हिंदी का पूरा हाल नहीं ज्ञात हो सकता । भाषा पर बड़े छवियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है पर समय विशेष की भाषा वही कहीं और सकती है, जो सर्वसाधारण के व्यवहार में हों । इस विचार से भी छोटे-बड़े सभी कवियों का वर्णन हमें अवश्यक आन पढ़ा । पहले हमने उन सभी कवियों की रचनाओं पर समालोचनाएँ लिखने का विचार किया था जिनका वर्णन इस ग्रंथ में हुआ है और * इसी दृष्टि से कार्यारंभ भी हुआ था, पर पीछे से यह आपत्ति अ पड़ी कि हमें बहुत-से उन कवियों के भी हाल लिखने पड़े, जिनके अंथ हमने नहीं देखे हैं, अथवा ॐ लेख लिखने के समय हमें प्राप्त नहीं हो सके । वहुत-से ऐसे भी कवि थे कि जिनके ग्रंथ तो भारी थे, परंतु उनमें तादृश कान्योत्कर्ष न था जिससे उन पर विशेष श्रम अपना समय का अपव्यय समझ पड़ा । संवत् १६६२-६३ में हो [ ४१ ]________________

लेव द्धिले गए, उनमें कुछ विशेष विस्तार था, परंतु पीछे से सम्में छन के अदद करने एवं अन्य कारणों से शीघ्दी करनी पड़ी । इससे पीछे के लिखे हुए लेख पहलेवालों की अपेक्षा कुछ छोटे हो गए, फिर भी कवियों की योग्यतानुसार लेखों में उनके गुण-दोष दिखजाने की यथासाध्य प्रयत्न किया गया हैं । इर्तमान समय के लेख की रचना पर समालोचना लिखने का कुछ भी प्रयत्न नहीं किया गया। उनके मंथों के नाम और मोंटी रीति से दो-एक अति प्रकट गुण-दोष लिखने पर ही हमने संतोष किया है। कारण यह है कि इतिहास के छिर्थे वर्तमान समय म विस्तृत वर्णन परमावश्यक नहीं है, और आजकल के बेदकों पर कुछ दिखने की इच्छा रखनेवाली बड़ी सुगमतापूर्वक उनका पूरा ब्योरा जान सकता है। फिर वर्तमान लेखकों के प्रतिकुल उचित अथचा अनुचित प्रकार से कुछ भी खिले जानें से झगड़े-बखेड़े का पूरा मच रहता है । नवरत्नवाले क्यों पर मंथ अलग छप चुका है, सो इसमें भी उनके विस्तृत वर्णन की लिखना अनावश्यक था और उनके नाम भी छोड़ देना मंथ ॐ अपूर्ण इख्ता, इन कारणों से हमने उन कवियों के छोटे-छोटे वर्णन इसमें लिख दिए हैं। जिन महाशयों को उनका कुछ विस्तृत हुल देखना हों, वें नवरत्न” के अवलोकन की ऋष्ट उठावें । | लेखन-शैली । इस मंथ को हम तीन भाइयों ने मिलकर बनाया है, सो लेखको के लिये सुदैव इम, हम खौग, आदि शब्द इसमें मिलेंगे । बहुत स्थानों पर लैखों द्वारा ग्रंथदि देखे ज्ञाने या अन्य कार्य किए जाने के कथन हैं। इन स्थानों पर हम शब्द से सब लोगों के द्वारा उसके किए जाने का प्रयोजन निकलता है, परंतु हम तीनों में से किसी ने भर में कुछ किया है, उसका भी वर्णन हमने हम शब्द से किया है। एक-एक दो-दौ मनुष्यों के कार्यों को अलग लिखने [ ४२ ]________________

मिश्रबंधु-विनोद से मंथ में अनावश्यक विस्तार होता और भद्दापन आता । फिर अधिकतर स्थानों पर सभी की राय मिलाकर लेख लिखे गए हैं। तीनों लैखों के कार्यों के अलग-अलग दिखाना हमें अभीष्ट भी न था । इस ग्रंथ में जहाँ एक संवत् के नीचे कई नाम आए हैं या अज्ञात अथवा वर्तमान समय में विना संवत् लिखे ही नाम लिखें गए हैं, वहाँ से अकारादि क्रम से लिखे हैं। इस क्रम में नाम के आदि में आनेवाले 'ध' और 'ब' एक ही माने गए हैं और कहीं। कहीं 'श' और 'स' का भी यही हाल है। काल-क्रम कचियों के पूर्वापर क्रम रखने में हमने जन्म-संवत् का विचार न करके काब्यारंभ काल के अनुसार क्रम रक्खा है । साहित्य-सेवा की दृष्टि से किसी का जन्म उसी समय से माना जा सकता है. अब से कि वह रचना का आरंभ करे । इसी कारण कई छोटी अवस्थाबाले लेखर्को के नाम बड़ी अवस्थावालों के पूर्व आ गए हैं। ऐसे लोगों ने छोटी ही अवस्थाओं से साहित्य-रचना की ओर ध्यान दिया । कालनायक के कथनों में इस नियम से प्रतिकूलता है। कालनायक केवल काव्योत्कर्ष के विचार से नहीं रखे गए हैं, वरन् इसके साथ उनके चणित विक्य, उनका तात्कालिक प्रभाव और उनके समयों के विचार भी मिल गए हैं । सुदन-का-संवत् १८११ से १८३० तक चलता है। इसके नायक बधा भी हो सकते थे, परंतु उनका कविता-काल १८३० से प्रारंभ होता है, सों सबसे पीछे होने के कारण वह समयनायक नहीं बनाए गए । फिर भी उनका वर्णन इसी समय हुआ । हमने कक्यिों के किसी समय में रखने के विचार मैं उनम काव्यारं काल ही जौड़ा हैं । कई स्थानों पर ऐसा हुआ है कि कवियों ने जिस संवत् में उनका बर्णन हुआ है, उस बहुत पीछे तक रचना की है। जैसे सुंदर-दादूपंथी कथन संवत् १६७८ में हुआ है, [ ४३ ]________________

सूमिका परंतु उनका रचना-काल १७४६ तक चल गया हैं। ऐसे स्थानों पर इतिहास-भंथ में प्रक्रट में कुछ भ्रम अवश्य देख पड़ेगा, परंतु किसी कवि का वर्णन तो एक ही स्थान पर हो सकता हैं और वह स्थान उसके इचदारंभ झा ही होना चाहिए, नहीं तो उससे पीछे के संदराय उससे पहले के समझ पड़ेंगे । धार । हमने इस झंध में दहत-से कवि तथा ग्रंथों के नाम लिखे हैं। बड़े लेख में तो प्रायः संवतः और मैथ के ब्योरे वहीं त्रि दिए राह हैं कि क्रिस्ट प्रकार वह उपलब्ध हुए परं तु छदै बेखों में बहुधा ऐसा नहीं लिजा गया है। कहीं-हों ठीक संक्तु न लिखकर हुमने देवल यह लिख दिया है कि कवि अमुझे संदत् के पूर्व हुआ। संचल दवं ग्रंथों के नाम हमें निम्न प्रकार से ज्ञात हुए हैं--- ( १ ) स्वयं उन्हीं कविया झी रचनाओं से। (३) अन्य दिय की रचनाओं से ।। १३) काशी-नागरीप्रचारिणी सभा की खोज से । ( ४ } शिवसिंह से। ( ५ ) डॉक्टर ग्रियर्सन-कृत माडर्न वनैकुलर लिटरेचर श्रॉफ़् हिंदु स्तान एवं हिंग्विस्टक सर्च ऑकू इंडिया से । ( ६ ) अपनी जाँच एवं किंवदंतियों से । { ७ } धपुर-निवासी मुंशी देवीप्रसाद के लेख में ! विवरण ( १ } हिंदी-इतिहास के संबंध में यह बड़े हर्ष की बात है कि कवियों में रचना-काल ६ देने की रीति प्राचीन समय से चली 'श्राती है । इससे सैकड़ों कविय के विक्य में सुगमता से अमहीन इत् प्राप्त हो गए । कबिगस अपने ग्रथों में स्वरचित अन्य ग्रंथै के भी हवाले कहीं-कहीं देते हैं । इन हवा में उनके अन्य [ ४४ ]________________

मिश्रबंधु-विनोद ग्रंथों के नाम ज्ञात हुए हैं । विनोद में जहाँ कहीं संवत् लिखने में प्रकट रूप से कवि के प्रश्नों का हवाला नहीं दिया गया है, वहाँ भी गौण रूप से बह मिल जाता है। कहीं-कहीं रचना-काल में से संवत् लिखा ही है, पर मैथनामावली में ग्रंथ के सामने भी व्रकेट में संवत् लिख दिया गया है। ऐसे स्थलों पर समझ लेना चाहिए कि संवत् उसी ग्रंथ से ज्ञात हुआ है। कहीं-कहीं ग्रंथ या अन्य प्रकार से किसी कवि का जन्म-काल मिल आया, परंतु उसका रचना-काल प्रामाणिक रीति पर नहीं मिला। ऐसी दशा में कवि की योग्यतानुसार ज्ञात वातों पर ध्यान देकर जन्म-काल में २० से ३० वर्षे हक जोड़कर हमने कविता-काज निकाला है। जहाँ लेख से किसी प्रकार यह न प्रकट होता हों कि संवत् ग्रंथ से मिला है, वहाँ उसे अन्य प्रमों से उपलब्ध समझना चाहिए। (२) बहुत-से कवियों ने अन्य भाषा-ऋवियों के नाम अपनी रचनाओं में रक्खे हैं। ऐसे लेखों में यह प्रकट हो गया कि लिखित कवि, लेखक कवि का या त समकालिक था या पूर्व का। कहीं-कहीं कवि के मंथों की प्राचीन प्रतियाँ सिख, जिनमें उनके लिखे जाने के समय लिखे हैं। इन दोनों देशों में यह लिख दिया गया है किं कवि अमुक समय से पूर्व हुआ । जिन ग्रंथों में अन्य कविर्यो । के नाम विशेषतया पाए जाते हैं, उनका ब्यौरा यों है सं० १७१८ का कविमालासंग्रह है। इसमें भी कवियों के | १७७६ सं० के लगभग सैगृहीत झालिदास-हज़ारा, जिसमें ३१२ बिर्यों की रचनाएँ हैं। १७६३ संवत् का दलपतिराय-वंशीधर-कृत अलंकार-रत्नाकर है। इसमें ४४ क्यों के नाम हैं। 15०० संवत् प्रवीण कवि द्वारा संगृहीत सारस । यह [ ४५ ]________________

पंडित युगलकिशोर के पुस्तकालय में हैं। इसमें प्रायः ११० दियों की अचाएँ पाई जाती हैं। सं० १८०३ क्रम सत्कविशिरोविराससंग्रह। ६० १८५७ ४ का चिन्मदन्तरं गिद्ध संग्रह ।। सं० १६०० कम गिलगिरोद्भवसंग्रह } .. इन ग्रंथों के अतिरिक्ष सूदन कदि ने से० ५७१९ में सुजानरिव्र-नामक ग्रंथ रचा, जिसमें उन्होंने १५० वियों के नाम प्रारंभ में दिए हैं । सूर्यल-कृत १८६७ वाले वैशभास्कर में * प्रायः १२५ छवियों के नाम हैं। | ( ३ ) सरकारी सहायता से काशी-नागप्रचारिणी सभा सं० १९१६-५७ से हस्तलिखित ग्रंथों की खोज कर रही है। इसमें प्रायः २०७० कवियों के नाम प्राप्त हैं और अपने उपयोग अथों एवं उनके पसी को पता लब हैं । खोज्न करनेवाले पुरुष स्थान-स्थान पर घुमाकर ग्रंथों को देखते और उनके संचत अादि का पता लगाते हैं। इसकी * आठ पटें प्रकाशित हो चुकी हैं और शेष हस्तलिखित हैं । अहाँ हम ग्रंथों से कोई पता नहीं लगा है, वहाँ किसी अन्य उचित कारण के अभाव में हमने ज़ौज का प्रमाण माना है। इस खोज झा भने खोज शब्द से हा ग्रंथ में यत्र-तत्र हवाला दिया है । इससे हमकों सामग्री-संचय में बड़ा सहारा मिला है। | ( ४ ) अहाँ सरोज और खोज में भेद निकला है, वहाँ किस्सा • खास कारण के अभाव में हमनें खोज का ही प्रमाण माना है । स्त्रों ने किसी खास पते के अभाव में सरोज के संवत् के स्त्रीकार किया है । सरोज के संवतों में वड़ रह गया है और उनके दुरुस्त करने का पूरा प्रयत्न भी नहीं क्लिया गया जैसे कालिदास,

  • इसके पश्चात् ४ रिपोर्टों और निकली हैं । [ ४६ ]________________

मिश्रबंधु-विनोंद बिंद और दुलह क सरोजक्कर ने पिता, पुत्र और पौत्र मानकर भी उनके समय में बहुत ही कम अंतर रक्खा है । खोज में इससे अधिक श्रम किया गया है। इसी कारण हमने उसका अधिक प्रमाण माना है। ज में प्रायः विला-अलि को उत्पत्ति-काद्ध लिखा गया है। शियसिंहसरोज का हमर्ने प्रायः ‘सरोज' शब्द से हवाला दिया है। (३) डॉक्टर साहब ने विशेशतया 'सरोज' का हो अाधार ग्रहण किया है, परंतु कई स्थानों पर उन्होंने नई बातें भी लिखी हैं, जिनकी सत्यता के कारण भी दे दिए हैं । सरोज में मैथिल लैखर्को का कथन संतपदायक नहीं है। इधर डॉक्टर साहब स्वयं बिहार में नियुः रहे हैं, इस कारण मैथिल-वियों के विषय में आपके अनुसंधान माननीय हैं। आपके अथों से हमें कुछ मैथिल-कविश्रा का पता मिला है। | ( ६ ) जब किसी अन्य समुचित प्रकार से समय का पता नहीं लगा, तब हमने लोगों से पूछताँछकर कई कवियों के काल निर्धारित किए । ऐसी दशा में हमने यह बात उनं वर्णनों में लिख दी है। वर्तमान समयवाले कवियों के हाल में पता लगाए हुए लेखक बहुत अधिक हैं। उनमें जहाँ कुछ न लिखा हों, वहाँ यही समझना चाहिर कि हाल पता लगाने से ही मिला है । | (७ ) स्वर्गीय मुंशी दैवीप्रसादजी हमारे यहाँ प्रसिद्ध इतिहासज्ञ थे। आपने इतिहास के विषय पर खोज भी अच्छी को थी । राजपतानावाले छवियों के विषय में हमें आपसे अच्छी सहायता मिली थी । वर्तमान समय में कृवियां ६३ लँखों के नाम हमें विशेषतया समस्यापूर्ति के पत्र, पत्रिका, सामाजिक पत्रों एवं अन्य एत्र-पत्रिकाओं से मिले । उनकै नेथ अादि का हाल जानने की हमने प्रायः ५०० काई लेखक के पास भेड़े और भेजवाए, तथा प्रायः २० सामयिक पत्र में यह प्रार्थना प्रकाशित कराई कि हम इतिहास-ब्रेथ लिख [ ४७ ]________________

भूमिका रहे हैं, सो झवि एवं लेख्छ कृपया अपना झा औरों के हल्द्ध हमें भेजने का अनुग्रह करें । इनके उत्तर में प्रायः ३०० महाशा ने अपनी या अँ की जीवनी हमारे पास भेजने की कृपा की । इसके अतिरिक्र जो कुछ हमें ज्ञात था उसके सहारे से हमने इस ग्रंथ में लेख के दर्शन लिखे हैं। जिन वर्तमान लेखक के निश्चित परिचय नहीं मिल सके, उनकी अबस्था आदि के विषय में कहींकहीं अनुमान से भी वर्णन लिख दिए गए हैं, परंतु ये अनुमान ऐ ही के दिपय में किए गए हैं कि जिनसें हम मिल चुके हैं। इस ग्रंथ में बहुत-से ऐसे कवियों का वर्णन हैं, जिनके काल-निरूपण में भूल होना संभव है। इस संबंध में यही निवेदन करना है कि यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि दुक्क मनुष्य सब कुछ नहीं जान सकती । बहुत-सी ऐसी भी बात हैं जो पता लगाने से भी इमें न ज्ञात हुई, परंतु औरों को दें सहज ही में मालूम हैं । यदि वें उन बातों को हमें सूचित करेंगे, द आगे के संस्करण से बे भूलें निकुड़ सकी । सहायक इसी स्थान पर हम उन सज्जनों का भी कथन कर देना चाहते हैं। जिन्होंने कृपा करके इस ग्रंथ की रचना में हमको सहायता दी । सबसे अधिक धन्यवादास्पद वायू श्याम दरदास हैं। यह उन्हीं के प्रयत्नों का फल है कि काशी-नदारीत्रचारिणी सभा ने सरकार से हिंदीमंथों की खोज के लिझै धन-सहायतः पाई और १६ वर्षों से सभ” यह काम सफलतापूर्वक्र कर रही है ! यदि खोज ने ऐसा प्रशंसनीय काम न कर रक्खा होता, तो ऐसा पूर्ण साहित्य-ग्रंङ कदापि न बन सकता । शिवसिंहसरोज से भी हम अच्छा सहायता मिली है। मंशो देवीप्रसादी मारवाड़-निवासी में हमें प्रायः ८०० कवियों की एक नामावली भेजी, जिसमें हमको २०५ नए नाम मिले । मुंशीजी [ ४८ ]________________

१३ मिश्रबंधु-विनोद ने हमारे पूछने पर इन २०५ कवियों के विषय में विशेष हालात लिखने की भी कृपा की । लाला अनावानीनजी ने भी हमें १८५ कायस्थ कवियों की नामावली भेजी और स्वर्गीय पंडित' मन्नन द्विवेदी गजपुरी तहसीलदार संयुक्त ने भी प्रायः ४० कवियों ? भामावढी हमें भेट की । इन दोनों नामावलियों में भी प्रायः ६० नए नाम मिले । सतना-निवासी स्वामी भोलानाथ ने ६३ कवियों की नामावली भेजने की कृपा की । पंडित व्ररत्न भट्टाचार्य ने वर्तमान समय के २७ लेखकों के नाम हमें लिख भेजे । इन दोनों महाशय के नाम में भी कुछ नए नाम मिले । आँधली-निवासी स्वर्गवासी पंडित युगलकिशोर ने प्राचीन एवं प्रसिद्ध कवियों तथा ग्रंथों के विषय में हमको बहुत-सी बातें बताईं। जिनके कथन इस ग्रंथ में एवं नवरस्त्र में जहाँ-तहाँ मिलेंगे । कोरौना-निवासी पंडित विश्वनाथ त्रिवेदी ने हमारे लिये वर्तमान कवियों के पास प्रायः ३०० कार्ड भेजने की कृपा की । उपर्युक्त महानुभावों को हम उनकी कृपा के लिये अनेकानेक धन्यवाद देते हैं। श्रीमान् महाराजा साहब बहादुर छतरपुर ने वैष्णव संप्रदाय के तथा अन्य कवियों के विषय में बहुत-सी उपयोगी बातें हमें बताने की दया की और हमें अपना बृहत् पुस्तकालय भी दिखलाकर बड़ा अनुग्रह किया । श्रीमान् सरीख महानुभावों की दया विना वैष्णव कार्यों एवं संप्रदायों को पूरा हाल में न ज्ञात होता । | ग्रंथ-विवरण हिंदी भाषा को उत्पत्ति संवत् ७०' के लगभग अनुमान की ज: सती है, परंतु उस समय का कोई ग्रंथ मिलना बहुत कठिन है। संवत् १३४३ तक सिवा. चंद अंर तत्पुत्र अल्हन के, और किसी के भी काव्य-ग्रंथ हमारे देखने में नहीं आए । इसीलिये अंथ में हमने यह समय हिंदी का पूर्वारं भिक काल माना है। इस [ ४९ ]________________

भूमिका १३ प्रकार ज्यों-ज्यों उन्नति होती गई, त्यों हिंदी की भी परिवर्तन होता गया । ग्रंथ में काल-विभाग इस प्रकार किया गया हैनाम | किस्तो कुर्वेद सहती है । कम संवन में किसक) पूर्वारंभिक काल ७६० १३४३ बहुत कम उत्तरारंभिक झालं १३४४ १६११ र्थोड़ी पूर्वसाध्यमिक काल कुछ अधिक प्रौढ़ माध्यमिक काळ १५६१ १६८ अच्छी मात्रा में पूर्वाहंकृत काळे १६८१ १६६०. बहुत अच्छी मात्रा में उत्तरालंकृत काल ३७६ १ १८८९ वर्धमान मात्रा में अज्ञात अछि साधारण परिवर्तनकाल १८० १९२५ : प्रचुरता से वर्तमान काल १६२६ अब तक बहुत अधिक | अज्ञात काल के कविवरण प्रायः उत्तरालंकृत वं परिवर्तन काल के समझ पड़ते हैं। मंथ में इस काल-विभाग के उठाने के पूर्व रात अध्यायों में हिंदी का संक्षिप्त इतिहास लिखा गया है। इस भाग का नाम संक्षिप्त प्रकरण हैं। इसके पीछे पृवरंभिक उत्तरारंभिक और पूर्व माध्यमिक काले को मिलाको अादिप्रकरण बनाया गया है । इसनें इन्हीं तीनों काल के नाम पर तीन अध्याय हैं। तन काज , एक ही में रखने पर भी छवियों की कमी से यह प्रकरण छोटा है। इसके पीछे छों कालों में प्रत्येक के नाम पर एक-एक प्रकरण है। प्रौढ़ माध्यमिक प्रकरण में सात अध्याय हैं, जिनमें सृर और तुलसीकाद्ध का वर्णन हुआ है। पूर्दालंकृत प्रकरण में सात अध्यायों द्वारा भूषण और दैव-काल का कथन है और उत्तरालंकृत प्रकरण में छः अश्या मैं दास-पाकर-कान चाएत हैं । इन दोनों प्रकरों के [ ५० ]________________

मिश्रबंधु-विनोंद नाम ‘अलंकार’ लिए हुए इस कारण से रखे गए हैं कि इस समय के कबियो नै सालं कार भाषा लिखने का अधिक प्रयत्न किया । अज्ञात- प्रण इतिहास-ग्रंथों में होता ही नहीं और हमारे यहाँ भी न होना चाहिए था, परंतु हिंदी में चरित्र-वर्णन की कमी से बहुतेरे जैखों का पता नहीं लगता । यदि केवल इतिहास-ग्रंथ लुिखले होते, तो हम इस प्रकरण में न लिखते, परंतु हमारा विचार थासाध्य कुल प्राचीन कवियों के नाम लिखने का है ; इसलिये अलि समयवाले रचयिता भी कथन कर दिया गया। आशा है कि मंत्र के द्वितीय सत्रा के समय तक स्तोगी की कृपा से यह प्रकरण अकार में बहुत संकुचित हो जायगा । परिवर्तनप्रकरण में तीन अध्यायों द्वारा उस समय का हर कहा गया है, अत्र कि यौरपथ संघर्ष से उत्पन्न नवीन विचार हिंदी में स्थान पाने का प्रयत्न कर रहे थे । वर्तमान प्रकरण में पाँथ अध्याय हैं । उपर्युक्ल नूतन विचारों को इस समय अच्छी प्रभाव पड़ रहा है । इस ग्रंथ में अनेक अध्याय ३ अकार बहुत बड़े हो गए हैं । इसकी मुख्य कारण हिंदी में कवियों की अधिकता है । हमने बड़े अभ्यायों में प्रायः वीस वर्ष से अधिक समय नहीं लिया है, परंतु फिर भी उनके आकारों की वृद्धि क्रिस अध्याय के उचित फैलाव से बहुत आगे निकल गई । बहुत स्थानों पर बीस वर्ष से भी कम समय का कथन एक अध्याय में करना हमें उचित नहीं आन पड़ा। अशा हैं कि अश्व-विस्तार के बिचार से सहृदय पाठकगण हमारे अध्ययविस्तार के दौए को क्षमा करेंगे। . विविध समय और उनकी दशा हिंदी-साहित्य के उत्पन्न करने का यश ब्रह्मभट्ट कवियों को प्राप्त हैं। सबसे प्रथम इन्हीं महाशयों ने नृपयशवर्णन के व्याज से हमारे साहित्य की अंगपुष्टि की, यही क्यों उसे जन्म ही दिया, क्योंकि [ ५१ ]________________

. भूमिका ११ प्रारंभकाल के कवियों में कैदल पुष्य झवि की जाति में संदेह है, फिर भी उसका बनाया अलंकार-मंथ अबको प्रथम होन पर भी संदिग्ध ही है और अभी तक इसके अस्तित्व पर भी पूर्ण विश्वास नहीं होता । इन कवियों ने रायश बन के साथ वीर और अंगारेरसों की प्रधानता रखः । कथाएँ तो इन्होनें कहीं, परंतु शांति और स्कुट विषय की उन्नति न हुई, १चं गद्य और नाटकको अभाव रहा। उत्तर प्रारंभिक काल में धीर, ऋ बार, ईति और कृथा-विभागों के प्रायः समान उद्धत हुई, तथा इन सवा कुछ वल , परंतु ते । अंथों और नाटक का अभाव, इवें स्फूद्ध दिया तथा गद्य क थिन्य बना रहः । इस समय से ब्राह्मणे ने भी महात्मा नौरखनाथ की देखदेखी हिंदी को अपनाया । पृचं अति नै प्राकृत मिश्रित भापर का चलन रहा, परंतु उधर में कोई भी भय स्थिर न हुई और विविध कवियों ने यथारुचि ब्रज, अवधी, राजपुतानी, बड़ी, पूर्वी आदि

  • भाटों में रचना की । पूर्व माध्यमिक कक्ष में बीर और श्रृंगार-क्काब्य शिथिल हो गए, परंतु नाटक में कुछ बस्य पढ़ा ! शेप बिभाग प्रायः जैसे के तैसे रहे, किंतु भागों में ब्रज, अधी, पूर्वी और पंजाबी की प्रधान हुई । प्रौढ़ साध्यमिक शा में ऋगार, शांति और कथा-विभाग ने अच्छी उन्नति की और स्फुट दिएको एवं गद्य ने भी कुछ बल पाया । भाषाओं में सबको इद्राकर ब्रजभाषा प्रधान हुई और अवधी का भई कुछ सान रहा । पूर्वाश्चत काल में वोर एवं रीति-वर्णन ने और पकड़ा और शेर की विर वृद्धि से शांति-रस दब गया । ब्रजभाषा का अर भी बल दड़ा और अवधी दबने लगी ! उत्तराल कृत्त झाल में शुगर तथा रीति-

वन की विशेष बल-वद्धि हुई और कथा एवं गद्य को भी चमत्कार देख पडा, परंतु वीर-काव्य मंद पड़ गया । ब्रजभाषा का महत्व पूर्ववत् रहा, किंतु अवधी की कुछ बृद्धि हुई और लड़ी जी की भी कुछ प्रतिष्ठा [ ५२ ]________________

সিবিনীঃ हुई। परिवर्तन-काल में क्या और रीति-विषय कुछ कम पड़ गए और गद्य का बल बढ़ा। अवधी भाया लुप्तप्राय हो गई और खड़ी बोली ब्रजभाषा की कुछ अंशों में समताली करने लगी, यद्यपि प्राधान्य ब्रजभाषा का ही रहा । ऋग्वारस इस काल से ही कुछ घट चला था और वर्तमान काल में वह बहुत न्यून हो गया है। यद्यपि अब भी उसका कुछ बल्ल है। अब कथा और स्फुट विषयों का विशेष जोर है और गद्य ने बहुत अच्छी उन्नति करके पद्य को दबा दिया है । परिवर्तन-काल में दीर-रस का प्रायः अभाव हो गया था और अक्ष भी वह शिथिल है । शांति और नाटक बलवान् हैं और रीति-ग्रंथ का शैथिल्य है जो उचित भो है। अब खड़ी बोली प्रधान भाषा है, और ब्रजभाषा का केवल पद्य में व्यवहार होता है; सों भी सब कृवियों द्वारा नहीं । संवत् इस ग्रंथ में ईसवी सन् न लिखकर ऋभने विक्रमीय संवत् लिखा है। इस विषय पर बहुत विचार करके हमने संवत् ही का लिखना उचित समझा । हमारे यहाँ प्राचीन काल से अब तक संवत् का ही प्रयोग होता चला आया है, सो कोई कारण नहीं है कि हम अपने साहित्य-इतिहास में भी बाहरी सन् का ब्यवहार करें। यह ग्रंथ हिंदी जाननेवाल के लाभार्थं लिखा गया है। उनमें से अधिकांश अँगरेज़ी अन् ग्वं महीनों का हाल ही नहीं जानतें, अतः सर्ने के प्रयोग से डों स्नाभ न होता । ॐ अँगरेज़ीदाँ हिंदी-सक हैं, मैं संवत् से १० घटाकर सुगमता से सन् आन सकते हैं। कहा जा सकता है कि सनों में ही इतिहास जानने के कारण अकबर, औरंगजेब, एलीज़ग्रंथ आदि राजा-रानियों के समय पर ध्यान रखकर तत्सामयिक हिंदी-इतिहास की घटनाओं पर विचार करने में अड़चन पढेगः । यह बात अवश्य यर्थः हैं, परं तु थोड़ा-सा कष्ट उठाकर विद्वान् लोग [ ५३ ]________________

भूमिका इस अड़चन के सुगमता से दूर र सके । 'उधर अँगरेज़ न जान्दबाले ग्रामवासियों को सर्न के सम्झर्ने मैं को कष्ट पड़ेगा, उसका प्रकार अहुत दशा में अनिवार्य हो शायरी । देशी रियासत में अब तक इन्हू श६ अन् त्रि से संत का प्रयोग होता है, यह तुझे कि टाड साहब ने अपने राजस्थान में भी बहुतायत संवत् तिचे हैं । चिसिंह-सुज्ञ में भी संत्रों में ही समय लिया गया है। और भी सभी कच्चि दाबर इसी के प्रय झरते चलें आए हैं। किसी ने हिजरी, ईसवी आदि सन को व्यवहार नहीं किया । ऐसी दश में इतिहास-ग्रंथ में संवत ॐ चलन स्थिर रखकर हमसे कोई नई बात नहीं की, वरन् स्थिर प्राचीन प्रथा का अनुसरमञ्च किया है। उपाधि इभारे यहाँ धेड़े दिनों में समस्यापूर्ति करनेवाली एवं अन्य प्रकार की हिंदी-संबंधी सभा, समाज आदि स्थापित हुए थे और हैं। इनसे हिंदी-प्रचार में कुछ लाभ अवश्य हुश्रा, परंतु अनुपयोगी विषयवाल रचनायों की वृद्धि भी हुई है। इनमें से कुछ ने एक यह भी चाल निकाली थी * प्राचीन ऋथा ३ अनेक साधारण कार्यो को १ जिनमें कई का स्वर्गवास हो गया है, और कई अब भी मौजूद हैं। कारब्यु-धराधर, वसुबाभूषण, वसुंधरा-रत्र-जैसी भारी-भारी उपाधियाँ दीं । हमारी समझ में यह छोटे मुँह बड़ी बातें हैं। यदि दिलकुल साधारण कविगण वसुधभूषा हलाने लगे, तो बड़े-बड़े महानुभाव चे महामारा जिन उराधियों से विभूषित किए जायें ? यदि बड़े-बड़े हिंदी-रसिक किसी दो-एक परम यौम्य विद्वानों का कोई इन्चित उपाधि दें, जैसा कि बाबू हरिश्चंद्र में दी गई, तो शेष ज्ञोग उसे सहर्ष स्वीकार करें, परंतु जुड़ दर्जन साधारण मनुष्य को बड़ी-बड़ी अनुचित उपाधियाँ साधारण मनुष्यों द्वारा मिलने लगे, [ ५४ ]________________

15 मिश्रबंध-विनोद तब सभ्य-समाज में ३ कैसे प्राइझ मानी जा सकती है। इन्हीं कारणों से इमने उन उपाधियों को न मानकर मंत्र में उनका उल्लेख नहीं दिया है। हमें आशा है कि उपाधिधारी महाशय हमें क्षमा करेंगे । । नाम-लेखन-शैली पुराने कवियों के नामों के पूर्व पंडित, बाबू, मिस्टर आदि लिखने की रीत नहीं है। इस अंध में पुराने लोगों से बढ़ते हुए धीरे-धीरे इस क्र्तमान लेखकों तक पहुँच गए हैं, परंतु भेद न डालने के विचार से हमनें वर्तमान लेखकों के नामों के प्रथम भी पंडित, बाबू आदि नहीं लिखा । आशा है कि लेखक हमें क्षमा करेंगे। वर्तमान लेखक बहुत लोगों का विचार है कि इतिहास-ग्रंथ में वर्तमान लेखकों का वर्णन न होना चाहिए । अँगरेज़ी-साहित्य-इतिहासकार वर्तमान लेखक का हाल नहीं लिखते हैं । शायद इस से हमारे यहाँ भी बहुत लोगों का यही मत है। पर हम बहुत विचार के बाद वर्तमान लेखकों का कथन : भी श्रावश्यक समझते हैं। इतिहास में वर्तमान काल भी सम्मिलित है, इसमें तो किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता । साधारण इतिहास-ग्रंथों तक में वर्तमान समय का कथन सदैव होता है। ऐसी दशा में साहित्य के इतिहास से उसे निकाले डालने के लिये पुष्ट कारणों का होना आवश्यक है। कहा जा सकता है कि वर्तमान लेखकों पर निर्भयतापूर्वक सम्मति प्रकट करने से कलह का भय है, तथैव किसी वर्तमान लेखक के विषय में यह भी निश्चय नहीं हो सकता कि वह मरण-पर्यंत कैसा लेखक ठहरेगा ? कालहवाली आपत्ति में कुछ अल नहीं है, क्योंकि यदि उसे मान लें, तो वर्तमान लेखकों की रचनाओं पर समात्नौचनाओं का लिखना भी छोड़ना पड़ेगा। कहा जा सकता है कि दो-एक लेखकों पर समालोचना लिखनो और बात है, पर सभी वर्तमान लेखकों के गुण-दर्षों में दिखाने [ ५५ ]________________

মূলিঙ্ক से कुछ हानि हो सकता है । यह बात कुछ-कुछ यथार्थ है, परंतु इसके लिये उनका वर्णन ही छोड़ देना आवश्यक नहीं । इमने वर्तमन्द लेख्वक के ग्रंथों में वर्णन कर दिया है और उनके सहारे वर्तमान साहित्यकाति का कथन भी किया है, परंतु प्रत्येक लेखक के गु-दोषों पर विशेष ध्यान नहीं दिया है। गुरु-दोषों के वर्णन में हमने वर्तमान झाल्छ की लेखन-शैडी पर अपने रिचार प्रकट कर दिए हैं। इसी कार से हमने वर्तमान लेखकों में श्रे-विभाग नहीं किया । श्रेमियों का वर्णन आगे आगा । दृस आपस में हमें कुछ भी बल नहीं समझ पड़ता है । हम ग्रंथ इस समय लिख रहे हैं, सो हमारे कथनों में इस समय तक उन्नति का हो रहे । इस समय जो छैखक जैसा है, उसक? वर्णन भी वैसा ही हो सकता है। अविष्य में जब वह जैसी उन्नति करेगा, तब भविष्य के इतिहासकार उसका वैसा ही कथन करेंगे । हमारे यहाँ इस मामले में अगरेज़ी इतिहासकारों के प्रणाली नहीं मानी जा सकती । बिलासत में समालोचना-संबंधी पत्रों का बड़ा बल एवं गुण-ग्राहकता की अड़ी धूम है । वहाँ प्रत्येक ग्रंथ की अनेकानेक समालोचनाएँ उसके छपढ़ें ही प्रकाशित होने लगती हैं और उन समालोचनाओं की भी अनैक अलौचनाएँ निकल जाती हैं। इसलिये वह साधारण पाठ तक की देश का वास्तविक स्वरूप बहुत जल्द ज्ञात हो जाता है। अच्छे प्रथकारों के अनेक जीवन-चरित्र भी पत्र-पत्रिकाओं में निकल आते हैं। वहाँ सद्गुणों की इतनी अधिॐ पूसा होती चली आई है कि किसी मुखी मनुष्य के जीवन-चरित्र एवं यश की लुप्त हों आना बहुत करके असंभव है। ईंगलैंड का कवि चासर संवत् १३६७ में उत्पन्न हुश्री था और ६० वर्ष की अवस्था में उसका शरीरांत हुआ । ऐसे प्राचीन आदि के विषय में भी पूरा हाल ज्ञात हैं, यहाँ तक कि उसके बाप-दादों तक का निरिक्त न लिखा है। इधर हमारे यहाँ सृरदस, केशवदास,