यंग इण्डिया/प्रकाशकका निवेदन

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प्रकाशकका निवेदन।

श्री बडा बजार कुमार समाको प्रकाशन क्षेत्रमें अवतीर्ण होने देखकर लोगोंके हृदयमें अनेक तरहके विचार उत्पन्न हो सकते है। इनमें सबसे मुख्य और प्रधान विचार यह हो सकता है कि बड़ा बाजार कुमार समा व्यावसायिक संस्था नहीं है, फिर इमने यह काम क्यों उठाया, क्योंकि वर्तमान समयमें प्रायः करके साहित्य-क्षेत्र भी व्यवसाय का क्रीडाखल हो रहा है। इसके अतिरिक्त दो चार संस्थायें साहित्यके प्रचारके उद्देश्यसे खोली गई हैं पर उनमें से दो एक तो रूपान्तरमे व्यवसायिक हो रही हैं और दो एकका प्रबन्ध ही ऐसा अव्यवस्थित प्रतीत होता है कि वे अपने उद्देश्यको सफल नहीं कर रही है। इसलिये यह आवश्यक हो गया है कि इस स्थलपर इस सम्बन्ध में कुछ लिखा जाय ताकि लोगोंका भ्रम दूर हो जाय।

बडा बजार कुमार सभाकी स्थापना जिस उद्देश्यसे हुई थी उसमे “ज्ञान वधक विभाग” का विशेष स्थान था। इस समाके जन्मकाल से ही "ज्ञान वर्धक" विभागपर ध्यान रखा गया पर उस समय प्रारम्भिक कठिनाइयोंके कारण सिवा एक छोटा मोटा पुस्तकालय खोल देनेके और कुछ न हो सका और यह काम भी पूर्णताके साथ नहीं निष्पन्न हो रहा था। १९२१ से [  ] पुस्तकालयका काम ठीक तरहसे चलने लगा। हिन्दीके प्रायः सभी मासिक, साप्ताहिक और दैनिक पत्र आने लगे। इस समय सभाके सदस्योंका ध्यान ज्ञानवर्धक विभागकी ओर अधिकाधिक आकर्षित होने लगा। ज्ञानवर्धक विभाग जो काम कर रहा था उतनेसे ही सभा के सदस्य सन्तुष्ट नहीं थे। इस विभाग द्वारा समाजकी सेवा करने के तरह तरहके भाव लोगोंके हृदयमें उठने लगे। कुछ लोगों को इस बातकी धुन समाई कि यदि सुलभ मूल्यपर बड़ा बजार कुमार सभा पुस्तक प्रकाशन का काम करे तो इससे समाजका भी उपकार होगा और "ज्ञानवर्धक" विभागका उद्देश्य भी चरितार्थ होगा। यह चर्चा दिनोंदिन जोर पकड़ती गई और उत्साही सभासदोंका ध्यान उस ओर अधिकाधिक आकृष्ट होने लगा। पर सभाके कोषमें इतनी पर्याप्त पूंजी नहीं थी कि वह प्रकाशनका काम सहसा उठा सकती। इसी समय सभाके एक उदार सदस्यने इस बाबत सभाकी सहायता करनेकी अभिलाषा प्रगट की। इस उद्देश्य को लेकर उन्होंने पुस्तकोंके प्रकाशनमें सभाकी सहायता करनेका वचन दिया। किसी अनिवार्य कारणवश अपना नाम नहीं प्रगट करना चाहते थे इससे यह भार उन्होंने सभाको सौंपा। सभाने इसे स्वीकार कर लिया।

अब फिर पड़ी पुस्तकोंके चुनाव की। हम लोग इस चिन्तामें थे ही कि कौन सी पुस्तक सबसे पहले निकाली जाय कि इसी बीच में मेरे मित्र अनुवादकने महात्मा गान्धीके 'यङ्ग इंडिया' के [  ]लेखोकी चर्चा की। मैंने उसी समय निश्चय किया कि यह पुस्तक अवश्य प्रकाशित की जाए क्योंकि इसके द्वारा सभा के सभी उद्देश्य पूरे होते हैं। प्रचार के लिये इससे उपयोगी दूसरी पुस्तक नहीं हो सकती थी। यङ्ग इण्डियाके लेख अंग्रेजीमें निकले हैं। इनकी उपयोगिता के बारे में अपनी ओर से कुछ लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। केवलमात्र इतना लिख देना काफी होगा कि महात्माजीके हाथों में माते ही इसकी ग्राहक संख्या १२०० से ४०,००० हो गई। पर भारतमें अंग्रेजी पढ़े लिखोंकी संख्या कितनी है? प्राय: नहीं के बराबर है। महात्माजी सदा यही कहा करते थे कि हमारा पल तो उन २२ करोड़ अपढ़ोंमें है। हमारे आन्दोलनको सफलता उनके ही सहयोगसे हो सकती है। पर यङ्ग इण्डिया द्वारा अंग्रेजी भाषामें महात्माजी अपने जिन विचारोंको प्रगट करते थे उनको उन असंख्य अंग्रेजी भाषासे अनभिज्ञ जनताके पास तक पहुँचाने का या यत्न किया गया। खेदके साथ लिखना पड़ता है कि इसके लिये कोई यधेष्ठ और सन्तोषजनक उद्योग नहीं किया गया। मैंने इस बातकी अत्यन्त आवश्यकता देखी क्योंकि इनका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करके सुलभ मूल्यमें प्रचार करना असहयोग आन्दोलनका बड़ा सहायक हो सकता है। जिन लोगोंने महात्माजीक विचारों को केवल दूरसे सुन लिया है उनके सामने उन विचारोंका खजाना रख दिया जाना और उसमें से अपने अपने एक चुन लेनेकी उन्हें पूरी स्वतन्त्रता रहेगी। असहयोग [  ]ममे लोग समझ जायगे और उसको अपनाने में अधिक दस-वित होंगे। निदान इसी पुस्तकसे श्रीगणेश करना निश्चय हुआ।

वहीं पर दो शब्द मूल्य के विषयमें भी लिख देना उचित है। इस पुस्तक का इतना कम मूल्य देखकर लोग विस्मित होंगे,क्योंकि इतनी भारी पुस्तकका भूल्य १) वर्तमान प्रकाशन क्षेत्रमे तो एक तरहकी क्रान्ति है। पर इसे कान्ति नहीं समझनी चाहिये। वास्तवमें पुस्तकोंके मूल्य की दर इम मूल्य की दरसे कुछ ही अधिक होनी चाहिये। इससे दोनों का लाभ हो सकता है। प्रकाशक व्यवमाय भी कर सकते हैं और हिन्दी साहित्य का प्रचार भी बढ़ता जायगा। पर वर्तमान समय में जो धीगा धींगा हो रही है उसीका फल है कि आज पुस्तको का मूल्य देखकर दांतों तले अंगुली दबानी पडती है और एक साधारण पुस्तकके २००० के संस्करणको खपाते खपाते दो तीन वष लग जाते हैं और दोष मढ़ा जाता है जनता के माथे कि वह हिन्दी साहित्यमें रुचि नहीं दिखलाती। इस समय साहित्य क्षेमें आवश्यकता है उदार प्रकाशकों की जो कम लाम उठाकर साहित्य के प्रचारकी चेष्टा करे।

बडा बजार कुमार सभाके प्रकाशनका उद्देश्य होगा सुलभ मूल्य में (कमसे कम दाम रखकर सभी उपयोगी विषयोंपर हिन्दी भाषा में उत्तमोत्तम पुस्तके प्रकाशित करना और जनतामें उनका प्रचार करना जिससे थे लोग भी हिन्दी साहित्य को अपनाने लगे [ १० ]जो अबतक अर्थाभावके कारण इन प्रकाशकोंकी सेवा नहीं कर सकते थे। यदि हिन्दी के उदार पाठकों ने इस विषय में उचित सहायता की और पूर्ण योग दिया तो उनकी अभिलाषा इस संस्था द्वारा अवश्य पूरी होगी।

इन कतिपय शब्दोंके साथ यङ्ग इण्डिया का प्रथम भएड उदार पाठकों की सेवामें उपस्थित किया जाता है। आशा है इसे अपनाकर वे सभाका उत्साह अवश्य बढ़ावेंगे। यदि जनताने इस संग्रह को अपनाने में पर्याप्त उत्साह दिखाया तो सभा शोध ही महात्माजी के गुजराती नवजीवन के लेखों का संग्रह भी निकालने का यन करेगी।

विनीत-
राधा कृष्ण नेवटिया
मन्त्री
बड़ा बजार कुमार समा