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यह गली बिकाऊ नहीं/1

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नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ ५ से – ११ तक

 

एक

मद्रास आने पर उसके जीवन में परिवर्तन अवश्यंभावी हो गया था। कंदस्वामी वाद्दार की 'गानामृत नटन विनोद नाटक सभा' के लिए गीत और संवाद लिखते हुए या समय-समय पर मंच पर पात्राभिनय करते हुए उसके जीवन में न तो इतनी गति थी और न ही प्रकाश। मदुरै और मद्रास के जीवन में जो इतना उतार-चढ़ाव है, इसका क्या कारण है? कारण की तह में पहुँचने पर ऐसा लगता है कि अधिक प्रकाश वाले स्थान में छोटा जीवन भी बृहदाकार दीखता है और कम प्रकाश वाले स्थान में बड़ा जीवन भी क्षुद्र और धुँधला हो जाता है।

क्या प्रकाश मात्र जीवन है?––इस प्रश्न का कोई प्रयोजन नहीं है। मद्रास में सूर्य का प्रकाश मात्र जीवन-यापन के लिए पर्याप्त नहीं है। मनुष्य को स्वयं प्रकाश फैलाना पड़ता है और अपने चारों ओर प्रकाश-पुंज बुनना पड़ता है। अपने कृत्रिम प्रकाश के सामने सूर्य के प्रकाश को फीका भी बनाना पड़ता है।

मदुरै कंदस्वामी वाधार के गानामृत नटन विनोद नाटक सभा में रहते हुए उसका पूरा नाम मुत्तु कुमार स्वामी पावलर था। नाटक सभा के टूटने पर अकाल-पीड़ितों की तरह मद्रास के कल, जगत् की शरण लेनी पड़ी तो उसे अपने जीवन की सुविधाओं में ही नहीं, अपने नाम में भी काट-छाँट करनी पड़ी। सचमुच, अपने बड़े नाम को काटकर छोटा करना पड़ा।

'मुत्तुकुमरन्'––वह संक्षिप्त नाम उसे और उसके साथियों को उपयुक्त लगा। चेत्तूर और शिवगिरि जैसे जमींदारों की शरण में जीने वाले उसके पूर्वजों को अपने 'अकट विकट चक्र चंड प्रचंड आदि केशव पावलर' जैसे लंबे नामों को छोड़ने या छोटा करने में, हो सकता है कि संकोच हुआ हो। लेकिन वह इस सदी में उपस्थित था इसलिए वैसा नहीं कर सका। बाय्स कंपनी के बंद होने पर दस महीने तक पाठ्य पुस्तके तैयार करने वाली एक कंपनी में प्रूफ़ रीडर का काम करता रहा। उससे तंग आकर नाटक प्रसूत सिने-संसार में प्रवेश पाने के विचार से मद्रास को चल पड़ा।

मदुरै से मद्रास को रवाना होते समय उसके साथ कुछ सुविधाएँ भी थीं और कुछ असुविधाएँ भी। असुविधाएँ निम्न प्रकार थीं––

––मद्रास के लिए वह नया था। चापलूसी करने की आदत नहीं थी। उसके पास किसी के नाम न कोई परिचय-पत्र था और न कोई सिफ़ारिशी चिट्ठी। हाथ की कुल पूँजी थी, सिर्फ सैंतालीस रुपये। कला के जगत् में अत्यंत आवश्यक समझी जाने वाली योग्यता भी उसमें नहीं थी। और वह किसी दल विशेष का सदस्य या पक्षपाती भी नहीं था।

सुविधाएँ भी थीं―

वह अभी विवाह-बंधन में नहीं बँधा था। इसका यह मतलब नहीं कि उसे शादी या लड़की से नफ़रत थी। असली बात यह थी कि उन दिनों नाटक कंपनी में काम करने वालों का मान-सम्मान करने या लड़की ब्याहने को कोई तैयार नहीं था। कंघी किये हुए काले घुँँघराले बाल, होंठों में सदाबहार मुस्कान, सुन्दर नाक-नक़्श, कद-काठी का भरा पूरा―उसे कोई एक बार देख ले तो बार-बार देखने को जी करे और सुमधुर कंठ―सब कुछ था।

एळुंबूर रेलवे स्टेशन में उसके उतरते ही मूसलाधार वर्षा होने लगी। इसका कोई यह गलत हिसाब न लगाए कि दक्षिण से आने वाले कवि के स्वागत में आकाश अपनी भूमिका निभा रहा है। यह, दिसंबर महीने का पिछला पखवारा था। हर साल की तरह प्रकृति अपना नियम निभा रही थी। दिसंबर में ही क्यों, किसी भी महीने में मद्रास के लिए ऐसी बारिश की कोई ज़रूरत नहीं थी।

ऐसी वर्षा में, मद्रास में कोई चीज़ बिकती नहीं। सिनेमा-थियेटर में भीड़ कम हो जाती है। झोंपड़-पट्टियाँ पानी में डूब जाती हैं। सुन्दर लड़कियों को डरते-डरते सड़कों पर पाँव रखना पड़ता है कि चमकदार साड़ियों में कहीं कीचड़ न उछल जाये। पान की दुकानों से लेकर साड़ियों की दूकानों तक व्यापार ठप्प हो जाता है। विस्मृति में छतरियाँ खो जाती हैं। अध्यापकों और सरकारी नुमाइन्दों के जूते फट जाते हैं। टैक्सी वाले कहीं भी जाने को इनकार करते हैं। इस तरह पानी से डरने वाले मद्रास शहर के लिए बारिश की क्या ज़रूरत है भला!

लेकिन मुत्तुकुमरन् को पानी में नहाने वाला ऐसा मद्रास बड़ा सुन्दर लगा। मद्रास नगरी उसकी कल्पना में ऐसी उभर आयी, मानो कोई सुन्दरी नहाने के बाद भीगे कपड़ों में लजाती खड़ी हो। धुआँधार मेघों के आच्छादन में इमारतें, सड़कें और पेड़ धुँँधले-से नज़र आये।

मुत्तुकुमरन् पानी में अधिक भीगे बिना, एळुंबूर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने वाली एक सराय में टिक गया और वहीं अपने ठहरने की व्यवस्था की।

एक लड़का, जो पहले उसके साथ 'नाटक सभा' में स्त्री की भूमिका करता था, वह मद्रास में अब मशहूर सिने-अभिनेता हो गया था। अपने 'गोपालस्वामी नाम को छोटा करके उसने 'गोपाल' रख लिया था। उसने नहा-धोकर कपड़े बदले और कॉफ़ी पीने के बाद सोचा कि उसे फ़ोन करे।

उस लॉज में सभी कमरों में फ़ोन की सुविधा नहीं थी। सिर्फ़ रिसेप्शन में फ़ोन था। अपने कामों से निपटकर जब वह रिसेप्शन में आया, तब घड़ी ग्यारह बजा रही थी।

टेलिफ़ोन डाइरेक्टरी में उसने अभिनेता गोपाल का नंबर ढूँढ़ा। पर वह मिल ही नहीं रहा था। आखिर लाचार होकर रिसेप्शन में बैठे व्यक्ति से गोपाल का नंबर पूछा।

उसके तमिळ में पूछे गये प्रश्न का उन्होंने अंग्रेज़ी में उत्तर दिया। मद्रास में उसे यह एक अजीब तजुर्बा यह हुआ कि तमिळ में प्रश्न करने वाले अंग्रेज़ी में उत्तर पा रहे हैं और अंग्रेज़ी में प्रश्न करने वालों को तमिळ के सिवा दूसरी किसी भाषा में उत्तर देने वाले नहीं मिल रहे हैं। उनके उत्तर से उसे इतना ज्ञात हुआ कि गोपाल का नाम टेलिफ़ोन डाइरेक्टरी में 'लिस्ट' नहीं किया गया होगा। कुछ क्षणों के बाद टेलिफ़ोन पर ही पूछ-ताछ कर उन्होंने गोपाल का नंबर बताया। मद्रास में क़दम रखते-न-रखते मुत्तुकुमरन् ने यह महसूस किया कि हर पल उसे अपने को बदलना पड़ रहा है। उसे तो समय को अपने मुताबिक बदलने की आदत पड़ गयी थी। यहाँ तो अपने को समय के अनुसार बदलना पड़ रहा है। अपनी आदत से उबर पाना उसे ज़रा कठिन लग रहा था। उसने जिसका नाम लेकर नंबर पूछा था, उसके नाम ने रिसेप्शनिस्ट पर जादू-सा कर दिया और मुत्तुकुमरन् के प्रति भी तनिक आदर भाव दिखाने को बाध्य कर दिया।

फ़ोन पर अभिनेता गोपाल नहीं मिला। पर इतना ज्ञात हुआ कि वह किसी शूटिंग के लिए बंगलोर गया है। दोपहर को तीन बजे की हवाई उड़ान से लौट रहा है। मुत्तुकुमरन् की छुटपन की दोस्ती की बात अनमने ढंग से सुनने के बाद उस छोर से उत्तर आया कि साढ़े चार बजे आइये, मुलाकात हो सकती है।

उसी क्षण उसे उस उत्तर के अनुसार अपने को बदलना पड़ा। उस उत्तर को अपने अनुरूप बदले तो कैसे बदले? वह जाये तो कहाँ जाए? वर्षा भी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। दोपहर के भोजन के बाद उसने अच्छी तरह सोने का निश्चय किया। रात की रेल-यात्रा में उसने जो नींद खोयी थी, उसे पुनः प्राप्त करने की तीव्र इच्छा हुई। लेकिन इस नये शहर में, नये कमरे में जल्दी से नींद आयेगी क्या? उसने बक्सा खोलकर किताबें निकालीं।

दो निघंटु, एक छंद शास्र, चार-पाँँच कविता की किताबें―ये ही उसके पेशे की पूँजी थीं। मृत्तुकुमरन् इधर किताब के पन्ने उलट रहा था कि उधर सामने के कमरे से एक युवती किवाड़ पर ताला लगाकर कहीं बाहर जाने को तैयार हो रही थी। मुत्तुकुमरन् ने उसके पृष्ठ भाग का सौंदर्य देखा तो ठगा-सा रह गया। पतली सुनहरी कमर, बनी-सँवरी पीठ, नीली साड़ी―सब एक से बढ़कर एक थीं।

"उमड़ घुमड़कर आयी बदरिया

कैंसी चमचम चमकी बिजुरिया!

आयी सज-धज के रे जोगिनिया।
सुन्दर रूप लगाये अगिनिया।"

'कनक लता-सी कामिनी, काहे को कटि छीन?' पूछने वाले आलम कवि बनने की कोशिश में मुत्तुकुमरन् निघंटु उलटने-पलटने लगा। प्रास-अनुप्रास तो मिल गये। नाटक कंपनी में काम करते हुए जब चाहो, जैसा चाहो, निघंटु की मदद से वह अनायास फटाफट गीत रच लेता था। पर आज न जाने क्यों, उसका मन उचाट-सा हुआ जा रहा था। बार-बार उसके मन में यही विचार सिर उठा रहा था कि मैं जीविका की खोज में मद्रास आ तो गया, पर जीवन चले कैसे? इसलिए गीत रचने का उत्साह नहीं रहा।

लेकिन उस युवती की मनमोहिनी मूरत उसके लिए मीठी खुराक़ बन गयी और वह उसके रसास्वादन में लगा रहा। पर बीच-बीच में उसका मन मदुरै और दिण्डुक्कळ की ओर निकल भागा। इसलिए कि वहाँ ऐसी सुघड़ लड़कियाँ उसके देखने में नहीं आयीं। इसकी क्या वजह हो सकती है? वजह ढूँढ़ते हुए उसके मन में यह विचार आया कि खान-पान के बारे में शहर की लड़कियाँ जितनी सतर्क रहती हैं, उतनी देहाती लड़कियाँ नहीं। नगर की लड़कियाँ बन-ठनकर अपने को दर्शाने और दूसरों को आकर्षित करने में जितनी रुचि दिखाती हैं, वह देहाती लड़कियों में या तो नहीं है या वैसी सुविधा नहीं है। मद्रास में एक माँ को भी अपने को चार-पाँच बच्चों की माँ कहने के गौरव से बढ़कर अपने को एक युवती जताने का ध्यान ही अधिक है। देहात की वह दशा नहीं है। एक स्त्री को माँ मानते हुए मन में विकार उत्पन्न नहीं होता। युवती मानते हुए तो मन में विकार की संभावना ही अधिक है। गर्भिणी स्त्रियों को जहाँ भी देखें, जिस सूरत में भी देखें, काम-भावना कभी सिर नहीं उठाती।

इस तरह की ख़्याम-खयाली और दिन के भोजन के बाद सोने का उपक्रम करते हुए भी वह सो नहीं सका। इसलिए लॉज के पास के म्यूज़ियम, आर्ट गैलरी, केनिमारा पुस्तकालय आदि देख आने के विचार से वह निकल पड़ा। वर्षा अब ज़रा थमकर बूँदा-बूँदी का रूप धारण कर चुकी थी। पेन्थियन रोड पर चलते हुए उसे कुछेक गर्भिणी स्त्रियाँ दीख पड़ीं तो उसे दोपहर का वह विचार ताज़ा हो आया। उनमें से एकाध का चेहरा देखने पर उसे लगा कि मद्रास भोग-भूमि है। कुछेक के चेहरे तो यह बता रहे थे, मद्रास यातना-भूमि है। कुछ स्थान सुन्दर और कृत्रिम से दीख पड़े तो कुछ स्थान भद्दे, घृणित और बेबसी और तकलीफ़ से भरे। इसलिए वह मद्रास के सच्चे स्वरूप या उसके सामान्य चरित्र का पता नहीं पा सका।

म्यूज़ियम थियेटर की गोलाकार छोटी सुन्दर इमारत और आर्ट-गैलरी की मुग़लकालीन शोभा देखकर वह दंग रह गया। म्यूज़ियम को देखने में उसे पूरा एक घंटा लगा। मद्रास में क़दम रखते ही उसे जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, पग-पग पर उन्हीं से उलझना पड़ा। उसके हर प्रश्न का उत्तर अंग्रेज़ी ही में मिला। तमिळ में उत्तर देने वाले तो रिक्शेवाले और टैक्सी ड्राइवर ही थे। उनकी तमिळ भी उसकी समझ में जल्दी नहीं आयी। मदुरै में बड़े-छोटे लड़कों के साथ भी आदरसूचक संबोधन ही सुनने को मिलता था। मद्रास में तो बड़े-बूढ़ों के साथ भी 'तू तू, मैं मैं' ही चलती थी। मुत्तकुमरन् अंग्रेज़ी जानता ही नहीं था। और मद्रास की तमिळ तो विभिन्न भाषाओं की मिली-जुली खिचड़ी थी।

बारिश के कारण म्युज़ियम, पुस्तकालय या आर्ट गैलरी में विशेष भीड़ नहीं थी। सब कुछ देखकर जब वह बाहर निकला तो फिर से पानी बरसना शुरू हो गया था। चूँकि टेलिफ़ोन डाइरेक्टरी पर गोपाल का पता नहीं था, होटल के रिसेप्शनिस्ट से पूछ-ताछ कर जो पता उसे मिला था, उसे ही एक छोटे-से कागज़ पर लिखकर अपनी जेब में रख लिया था। वह पुर्जा भी पानी में ज़रा भीग गया था। कुछ क्षण तक सोचता रहा कि इस बारिश में गोपाल के घर कैसे जाये? पास के व्यक्ति से समय पूछा तो उन्होंने बताया कि पौने चार बजे हैं। साढ़े चार बजे गोपाल के घर पर पहुँचना था। उसे लगा कि इसी घड़ी चल देना अच्छा होगा। यदि बस में जाये तो जगह के बारे में पूछकर उतरने में दिक्क़त होगी। हो सकता है, बस स्टैण्ड से गोपाल के घर तक पानी में भीगते हुए चलना पड़े। उसे इस बात का तो पता नहीं कि गोपाल का घर बस स्टैण्ड के निकट होगा या दूर।

काफ़ी सोच-विचार कर, वह इस नतीजे पर पहुँचा कि टैक्सी करके जाना ही अच्छा है। साथ ही, अपनी माली हालत को मद्दे नज़र रखते हुए उसे यह चिन्ता भी सवार हुई कि टैक्सी में जाना कहाँ तक उचित है? अगले क्षण उसे एक दूसरी चिन्ता भी सताने लगी कि अगर टैक्सी में नहीं पहुँच पाया तो वह आज गोपाल से मिल नहीं पाएगा। फिर तो अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ेगा। अतः चाहे कुछ भी हो, आज ही गोपाल से मिल लेना होगा।

इस निष्कर्ष पर पहुँचकर, वह टैक्सी पकड़ने के लिए पानी में भीगता हुआ पेन्थियन रोड के प्लेटफार्म तक आया। बारिश की वजह से खाली टैक्सियाँ दिखायी ही नहीं दे रही थीं। दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद, एक टैक्सी मिली। उसमें सवार होते ही 'मीटर' लगाते हुए टैक्सी ड्राइवर ने पूछा, "किधर?"

मुत्तुकुमरन् ने जेब का कागज़ निकालकर देखा और बोला, "गोपाल, बोग रोड, मांबळम।"

टैक्सी की रफ्तार तेज़ करते हुए ड्राइवर ने उत्सुकता से पूछा, "कौन-से गोपाल? सिने स्टार? क्या आप उन्हें जानते हैं?"

'हांँ' में जवाब देकर वह फिर कहीं रुक नहीं पाया। बचपन में ही वाय्‌‌‌स कंपनी में सम्मिलित होने से लेकर गोपाल के मद्रास में आकर सिने-अभिनेता बनने
की सारी कहानी छेड़ दी। उसकी इन लंबी बातों से ड्राइवर को यह अनुमान हो गया कि यह आदमी सिर्फ बाहर का ही नहीं, पूरी तरह गवार भी है।

एक खूबसूरत से बगीचे के बीच स्थित गोपाल के बंगले के फाटक पर पहुँचते ही गोरखे ने टैक्सी रोक दी। वह गोरखे से क्या और कैसे कहे कि पानी में भीगे बगैर फ्लैट के अंदर जा सके---मुत्तुकुमरन् इस बात पर विचार कर ही रहा था कि टैक्सी ड्राइवर ने आगे का काम सँभाल दिया ।

"तुम्हारे मालिक के लंगोटियाँ यार हैं ये..." ड्राइवर के मुख से इतना सुनना था कि 'बड़ा साहब बचपन 'दोस्त ?' पूछते हुए गोरखे ने तन कर एक लम्बा-सा सलाम ठोंका और टैक्सी को अन्दर जाने दिया । अपने को अधिक बुद्धिमान समझने वाले लोग जिस काम को करने में माथा-पच्ची के सिवा कुछ नहीं कर पाते, उसे कम अक्ल होने पर भी समयोचित ज्ञान रखनेवाले बड़ी आसानी से कर जाते हैं । एक टैक्सी ड्राइवर ने इस बात का नमूना पेश कर दिया तो मुत्तुकुमरन् मन-ही-मन उसे दाद देने लगा।

टैक्सी 'पोर्टिको' में जा रुकी तो मुत्तुकुमरन् 'मीटर' के पैसे देकर और बांकी के चिल्लर लेकर बड़े सोध-संकोच के साथ सीढ़ियां चढ़ा । 'हाल' में प्रवेश करते ही, गोपाल की एक आदमकद तस्वीर ने उसका स्वागत किया। उसमें गोपाल शिकारी के भेष में एक मरे हुए शेर के सिर पर पैर रखे, हाथ में बंदूक ताने खड़ा था।

बनियान और लुंगी पहने अधेड़ उम्र का एक आदमी अंदर से आया और मुत्तुकुमरन् से पूछा, “क्या काम है ? किससे मिलना है ?” मुत्तुकुमरन् से परिचय सुनकर उसे रिसेप्शन हाल में ले गया और एक आसन पर बिठाकर चला गया ! उस 'हाल' में कई सुन्दर लड़कियाँ बैठी हुई थीं, जो होटल में दिखी लड़की से भी अधिक सुन्दर लगीं। उसने देखा कि वे सब इसे टकटकी लगाये देख रही हैं । उस कमरे पर दाखिल होने पर मुत्तुकुमरन् को लगा कि वह घुप्प अंधेरे से चकाचौंध पैदा करनेवाले प्रकाश में आ गया है। वहाँ ऐसे कुछ नवयुवक भी थे जो . पाक्ल-सूरत में अभिनेता लगते थे। थोड़ी देर उनके बीच हो रही बातों पर ध्यान देने पर उसे पता चला कि गोपाल स्वयं एक नाटक कंपनी शुरू करने वाला है। उसमें काम करने के लिए अभिनेता-अभिनेत्रियों के चुनाव के लिए उस दिन शाम को पाँच बजे 'इन्टरव्यू' होनेवाली है । और वह 'इन्टरव्यू स्वयं गोपाल लेगा और चुनेगा।

वहाँ बैठी लड़कियों पर प्रकट या अप्रकट रूप से बार-बार नजर फेरने की अपनी लालसा को वह दबा नहीं पाया। हो सकता है कि उनकी आँखें भी उसी की तरह तरस रही हों। वहाँ बैठे हुए युवकों को देखने पर उसे इस बात का पक्का विश्वास हो गया कि वह इन सबमें ज्यादा खूबसूरत है । असल में उसका यह गर्व स्वाभाविक भी था। पहले तो वह साधारण ढंग से दुबका हुआ था। अब पैर पर पैर रखकर आराम से बैठ गया। ऊँची आवाज़ में बोलती लड़कियाँ उसे देखते ही दबी आवाज़ में यह गली बिकाऊ नहीं । 11 आराम बोलने लग गयीं । कुछ तो उसके सामने अपने को शर्मीली जताने के लिए शशरमाने का अभिनय करने लगीं। 'अंदर से पकने पर फल बाहर से रंग पकड़ते हैं । शायद लड़कियों की भी यही प्रकृति है।'—इस तरह मुत्तुकुमरन् की कल्पना सुगबुगायी उसके आने के बाद यद्यपि उनकी खिलखिलाहट थम गयीं, पर होंठों में मुस्कराहटें तैरती रहीं और बातें जारी रहीं। यह देखकर मुत्तुकुमरन को यों लगा कि वे उसके लिए आधी हँसी सुरक्षितं रखे हुई हैं।

उसमें से कुछेक के होंठ सुन्दर थे : कुछेक के नेत्र सुन्दर थे। कुछेक की उंगलियाँ मुलायम लगीं। कुछेक नाक-नक्शा से अच्छी थीं । कुछेक की सुन्दरता ऐसे विभाजन की सीमा में ही नहीं आयीं ।

लड़कियां, जिससे अपनी मुस्कान, दृष्टि या बात आदि छिपाना चाहती हैं, उसे विशेष रूप से जताने के लिए भी कोई चीज़ होती है-दुराव-छुपाव का यही रहस्यार्थ होता है।

लुंगी-बनियान वाला रिसेप्शन हाल में फिर आया तो सबका ध्यान उसकी ओर गया।