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यह गली बिकाऊ नहीं/17

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नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ १२० से – १२९ तक

 

सत्रह
 

दूसरे दिन शाम को, उनकी मंडली के प्रथम नाटक का मंचन होना था। इसलिए उस दिन सबेरे वे लोग कहीं बाहर नहीं गए। दोपहर को गोपाल अपने कुछ साथियों के साथ, मंच की व्यवस्था, सीन-सेटिंग के प्रबन्ध आदि का निरीक्षण करने के लिए थियेटर हाल तक हो आया ।

उस दिन दोपहर का भोजन अब्दुल्ला के एक मित्र सेन ई नाम के चीनी दोस्त के यहाँ था। किसी-न-किसी बहाने अब्दुल्ला माधवी के इर्द-गिर्द यों मँडराते रहे, फूल के इर्द-गिर्द भौंरा । उधर मुत्तुकुमरन् सदैव माधवी के साथ रहकर उनके लिए विघ्न बना फिर रहा था। दिन पर दिन उसके प्रति नफरत बढ़ती जा रही थी। मुत्तुकुमरन् कुछ ऐसा प्रतिद्वन्द्वी निकला कि अब्दुल्ला को माधवी के पास 'फटकने या बोलने-चालने नहीं देता था।

प्रथम दिन का नाटक बड़ा सफल रहा । उस रात को अब्दुल्ला और मुत्तुकुमरन् में आमने-सामने ही फिर झड़प हो गयी। अच्छी रकम वसूल हो जाने और दर्शकों की भरी-पूरी भीड़ हो जाने के कारण गोपाल पर अब्दुल्ला की बड़ी धाक जम गयी कि इन्हीं की बदौलत यह सबकुछ हुआ है।

नाटक पूरा होते-होते रात के ग्यारह बज गए थे। नाटक के अंत में, सबको 'मंच पर बुलाकर माला पहनाकर अब्दुल्ला ने सम्मान किया। पर जान-बूझकर 'मुत्तुकुमरन् को छोड़ दिया। यद्यपि मुत्तुकुमरन को भूलने जैसी कोई बात नहीं थी, फिर भी उन्होंने ऐसा अभिनय किया कि उस समय जैसे उसका स्मरण ही नहीं रहा । गोपाल को इसकी याद थी। पर वह यों चुप रह गया, मानो अब्दुल्ला के कामों में दखल देने से डरता हो । पर माधवी के क्षोभ का कोई पारावार नहीं था । उसे लगा कि ये सभी मिलकर कोई साजिश कर रहे हैं।

नाटक के बाद, पिनांग के एक धनी-मानी व्यक्ति के यहाँ उनके रात के भोजन का प्रबन्ध था। उन्हें ले जाने के लिए मेजबान स्वयं आये थे।

मंच पर हुए उस अनादर से क्षुब्ध माधवी ने अपनी एक सह-अभिनेत्री के द्वारा मुत्तुकुमरन् को 'ग्रीन रूम' आने के लिए कहला भेजा। वह भी केरल की तरफ को ही थी।

नीचे, मंच के नीचे खड़े मुत्तुकुमरन् के पास आकर उसने कहा कि माधवी ने चुलाया है । वह अनसुना-सा खड़ा रहा तो वह बोली, "क्या मैं जाऊँ ?"

उसने सिर हिलाकर 'हाँ' का इशारा किया तो वह चली गयी। थोड़ी देर की मुहलत देकर वह 'ग्रीन रूम' में गया तो माधबी ने उसके निकट आकर भरे-गले से कहा, "यहाँ का यह अन्याय मैं नहीं सह सकती। हमें दावत में नहीं जाना चाहिए।"

"स्वाभिमान अलग है और ओछापन अलग है। उनकी तरह हमें ओछा व्यवहार नहीं करना चाहिए । माधवी, ऐसी बातों में मैं बड़ा स्वाभिमानी आदमी हूँ। कोई भी सच्चा कलाकार स्वाभिमानी ही होता है। लेकिन वह आत्मसम्मान सार्थक होना चाहिए। न कि घटिया क्रोध । नये देश में, नये शहर में हम आए हैं। हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि हमारा बड़प्पन बना रहे और बढ़ता रहे !"

"यह तो ठीक है ! पर दूसरे लोग हमारे साथ बड़प्पन का व्यवहार कहाँ करते ? ओछों का-सा घटिया व्यवहार नहीं कर रहे ?"

"परवाह नहीं ! हमें अपने बड़प्पन के व्यवहार से च्युत नहीं होना चाहिए !" इसके बाद माधवी ने कोई दलील नहीं दी। उस रात के भोज में वे दोनों सम्मिलित हुए।

भोज एकदम पाश्चात्य तरीके का था। बड़े-बड़े कॉस्मापालिटन्स को आमंत्रित किया गया था। कुछ मलायी, चीनी, फिरंगी और अमेरिकन अपने-अपने कुटुंब के साथ आए थे।

भोज के उपरांत , एक दूसरे हाल में आए हुए औरत-मर्द हाथ में हाथ लिये 'डान्स' करने लगे। मुत्तुकुमरन और माधवी एक ओर लगी कुर्सियों पर बैठकर बातें करने लगे । गोपाल भी एक चीनी युवती के साथ नाच रहा था । उस समय अब्दुल्ला ने माधवी के पास आकर अपने साथ 'डान्स' करने के लिए बुलाया।

“एक्स्क्यूज मी, सर ! मैं इनके साथ बातें कर रही हूँ।" माधबी ने सादर जवाब दिया। पर अब्दुल्ला ने नहीं छोड़ा। लगा कि उन्होंने अपनी हवस पूरी करने के लिए ही इस भोज का इन्तजाम किया है। उसके पास बैठकर बातें करने वाले मुत्तुकुमरन्' को नाचीज़ समझकर वे माधबी के सामने दाँत निपोरकर गिड़डिडाने लगे। मुत्तुकुमरन्, जहाँ तक संभव हुआ, उनके बीच में नाहक पड़ना या जवाब देना नहीं चाहता था । पर बात जब हद से बाहर हो गयी तो वह चुप्पी साधे बैठा, नहीं रह सका । अपने उन्माद में एक बार अब्दुल्ला अपने को काबू में नहीं रख सके और जोश में भरकर माधवी का हाथ पकड़ कर खींचने लग गये।

"अनिच्छा प्रकट कर रही युवती का हाथ पकड़कर खींचना ही यहाँ की सभ्यता है क्या ?" उसने पहले-पहल अपना मुंह खोला । यह सुनकर अब्दुल्ला तैश में आकर आँखें तरेरते हुए उस पर पिल पड़े--"शट अप। आई एम नाट टॉकिंग विद् यूं।"

माधवी तो अब उनसे और घृणा करने लगी। इसके बाद ही गोपाल उसके पास दौड़ा भाया और अब्दुल्ला की वकालत करते हुए बोला, "इतने सारे रुपये खर्च करके इन्होंने हमें बुलाया है। हमारे स्वदेश लौटने तक ये हमारे लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं। उनका दिल क्यों तोड़ रही हो?"

"नहीं, मैं किसी के कहने पर नहीं नाच सकती !"

माधवी के इस इनकार के पीछे गोपाल ने मुत्तुकुमरन् का ही हाथ पाया । उसे लगा कि मुत्तुकुमरन् पास नहीं रहता तो माधवी के मुख से इनकार के इतने कड़े शब्द नहीं निकलते । इसलिए वह चोट खाए हुए बाध की तरह दहाड़कर बोला,. "इस तरह तुम्हें डरते देखकर लगता है कि तुमने सिल पर पैर रखकर अरुंधती निहारते हुए उस्ताद का हाथ पकड़ा है और शास्त्रोक्त विवाह किया है। ऐसी शादी करनेवालियां भी यो पुरुष से उरती नहीं दीखती!'

मुत्तुकुमरन् पास ही खड़ा था । वह दोनों की बातें सुन रहा था । पर वह उनकी . बातों में नहीं पड़ा।माधवी गोपाल की बात सुनकर आक्रोश से भर गयी और बोली,
"छिः ! आप भी कोई मर्द हैं ? एक औरत के सामने ऐसी बातें करते आपको शरम नहीं आती?"

माधवी के मुख से ऐसी अप्रत्याशित बात सुनकर गोपाल सकपका गया । आज तक माधवी ने उसके प्रति इतने कड़े और मर्यादा से बाहर के शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। यह उसके पिछले दिनों का अनुभव था। पर आज...? जितने भी कड़े शब्दों का इस्तेमाल संभव था, उतना कर दिया गया।

वह माधवी, जो उसके हुक्म सिर-आँखों पर बजा लाती थी, आज रोष- तोष, मान-अभिमान से भरकर नागिन की तरह बिफर उठी थी। इसका क्या कारण है ? जब कारण का मूल समझ में आ गया तो गोपाल का सारा क्रोध मुत्तुकुमरन् पर निकला । उसने पूछा-"क्यों उस्ताद ? यह सब क्या तुम्हारी लगायी है ?"

"इसीलिए तो मैंने कहा था कि मैं तुम लोगों के साथ नहीं आऊँगा!" मुत्तुकुमरन ने गोपाल की बातों का उत्तर दिया तो माधवी को उसपर गुस्सा चढ़ आया।

"इसका क्या मतलब ? यही न कि आपके साथ आने पर मैं मान-अभिमान और रोब दाब से रहती हूँ और आपके न आने पर आवारा होकर फिरती ?" माधवी आग-बबूला होकर मुत्तुकुमरन् ही पर बरस पड़ी। उन दोनों में 'मनमुटाब होते देखकर गोपाल वहाँ से खिसक गया। माधवी ने मुत्तुकुमरन को भी नहीं छोड़ा । कड़े शब्दों में टोका-"जब आप ही बेमुरव्वती की बातें करने लगे तो फिर मेरा आसरा ही कौन ? इस से दूसरे तो फ़ायदा उठाने की ही सोचेंगे।"

"मैंने कौन-सी बेमुरव्वती की बात कर दी कि तुम इस तरह चिल्लाती हो ? वह मुझपर उँगली उठा रहा है कि ये सब तुम्हारे काम हैं, ये सब तुम्हारे काम हैं ! मैंने पूछा कि फिर मुझे क्यों बुला लाये ? इसमें न जाने मेरा दोष क्या है कि तुम नाहक मुझपर गुस्सा उतार रही हो !"

"आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नहीं आते तो मैं अपनी मर्जी से आवारा घूमती-फिरती ! इसीलिए मैंने"

"वे लोग अभी भी तुम्हारे बारे में वैसा ही समझ रहे हैं।"

“समझें तो समझे ! उसकी मुझे कोई चिंता नहीं। आप मुझे तो सही समझे-इतना ही मैं चाहती हूँ। आप भी मुझे गलत समझने लगेंगे तो मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा !"

"इतने दिनों से बर्दाश्त ही तो करती रही हो ! एकाएक तुम्हारे व्यवहार में परिवर्तन देखकर वह हैरान है !" मुत्तुकुमरन् को अपनी ही यह बात पसंद नहीं आयी तो उसने उससे कुछ भी बोलना बन्द कर सिर झुका लिया।

भोज के बाद, अपने आवास लौटते हुए भी वे आपस में नहीं बोले । गोपाल और अब्दुल्ला-दोनों ने एक-दूसरे की तरफ़ से शायद मुँह ही फेर लिया। इधर
इन दोनों ने भी अपने आपसे मुँह फेर लिया।

उसके बाद, नाटक वाले तीनों दिन ऐसे ही बीते कि गोपाल की माधवी से, माधवी की मुत्तुकुमरन् से व्यवहार में सहजता ही नहीं आयी। छ: बजे नाटक- मंडली के साथ, कारों में थियेटर जाते, ग्रीन रूम में जाकर 'मेकअप' करते और मंच पर आकर नाटक खेलते । फिर गुमसुम आवास को लौट आते थे।

गोपाल ने अब्दुल्ला की हविस पूरी करने का एक दूसरा रास्ता निकाल दिया। उसकी मंडली में 'उदय रेखा' नाम की छरहरे बदन की एक सुन्दरी श्री। उसे अब्दुल्ला के साथ लगा दिया ताकि वह उसके साथ अकेली कार में जाये और उसके दिल को बहलाने के सामान संजोये । वह स्त्री-साहस में निपुण थी और अब्दुल्ला को खुश कर टैप रिकार्डर, ट्रांजिस्टर, जापानी नाईलेक्स की साड़ियाँ, नेकलेस, अंगूठी, घड़ी वगैरह कितनी ही चीजें अपने लिए झटक लायी।

पहले दिन के अनुभव के बाद, मुत्तुकुनरन् ने नाटक-थियेटर में जाना ही छोड़ दिया और शाम का वक्त अपने ही कमरे में गुजारना शुरू कर दिया। अकेले में रहते हुए वह कुछेक कविताएं भी रच सका। खाली समय में वह मळाया से निकलनेवाले दो-तीन तमिळ के दैनिक पत्रों को लेकर बैठ जाता । भाग्य से यहाँ के दैनिक अधिक पृष्ठों वाले होते थे और उसे समय काटने में मदद देते थे। दोपहर के वक्त मंडली के कुछ कलाकार उससे बातें करने के लिए भी पास आ जाते थे। दूसरे या तीसरे दिन एक उप-अभिनेता मुत्तुकुमरन् से ही यह सवाल कर बैठा, "क्यों साहब, आपने नाटक में आना ही क्यों बंद कर दिया ? आपमें और गोपाल साहब में कोई अनबन तो नहीं ?"

मुत्तुकुमरन ने लीप-पोतकर उत्तर दिया, “एक दिन देखना काफ़ी नहीं हैं क्या? हमारा नाटक हमारी मंडली खेलती है ! रोज-रोज देखने की क्या जरूरत है ?". "ऐसे कैसे कह सकते हैं, साहब ? नाटक सिनेमा की तरह नहीं है। एक बार 'कैमरे' में भरकर चालू कर दें तो फ़िल्म जैसे चलती ही रहेगी। नाटक की बात दूसरी है। वह प्राणदायिनी कला है । बार-बार खेलते हुए भी हर बार निखर उठती है, चमक उठती है ! अभिनय, गीत-सब कुछ शान पर चढ़कर आनंद की गंगा बहा देते हैं।'

"बिलकुल ठीक फरमाया तुमने ।”

"अब आप ही देखिए! कल आप नहीं आये। परसों आये थे। जिस दिन आपने आकर देखा था, उस दिन माधवीजी का अभिनय बड़ा शानदार और जानदार रहा। कल आप नहीं आये तो थोड़ा ‘डल' रहा । उनके अभिनय में वह उत्साह नहीं रहा और बह जान नहीं रही !"

मेरी बड़ाई करने के ख्याल से ही ऐसा कह रहे हो। वैसी कोई बात नहीं होगी। माधवी स्वभाव से ही समर्थ कलाकार है। वह जब भी अभिनय करे और
जहाँ भो करे, अपना स्तर बनाये रखेगी।"

"आप चाहे जितना उनका पलड़ा भारी करें, कर लें लेकिन मैं नहीं मानूंगा। मैं गौर से देखकर बता रहा हूँ। सच पूछिए तो अपने अनुभव से भी बता रहा हूँ। अपने प्रियजनों को दर्शकों की गैलरी में बैठे पाकर अभिनेता ऐसा निहाल हो जाता है, मानो कोई संजीवनी मिल गयी हो। एक बार की बात है, विरुदुनगर में मारियम्मन का मेला था। मैं नाटक खेलने अपनी पहले की मंडली के साथ गया हुआ था। वहीं मेरा जनम हुआ था। मेरी बुआ की वेटी-वही मेरी मंगेतर थी- जाटक देखने आयी थी। लच मानिए, उस दिन मैंने बहुत अच्छा अभिनय किया था।"

"अच्छा ! उससे तुम्हारी मुहब्बत रही होगी?"

"अब आप आये रास्ते पर? बही बात माधवी की..."

कहते-कहते वह रुक गया । इसलिए कि मुत्तुकुमरन् की दृष्टि पर उसकी दृष्टि पड़ते ही उसकी सिट्टी-पिट्टी भूल गयी।

उस अभिनेता की बातों की सच्चाई उसे भी मान्य थी। पर माधवी के साथ, अपने प्रेम को वह जग-जाहिर होने नहीं देना चाहता था। उसे भली-भाँति मालूम था कि उसकी अनुपस्थिति में माधवी का अभिनय फीका और बे-जान हो जायेगा । इतना सबकुछ जानते हुए, माधवी का उत्साह बढ़ाने के लिए ही सही, वह पिनांग के नाटकों में सम्मिलित नहीं हुआ।

पिनांग में, अंतिम नाटक के मंचन की समाप्ति के बाद नाटक-मंडली के लोग अकेले या गोष्ठी में खरीदारी के लिए बाजार गये। वहाँ सामान सस्ते बिकते थे । 'फ्री पोर्ट' होने से पिनांग के बाजारों में तरह-तरह की कलाई घड़ियाँ, टेरिलिन, रेयान, टेरिकाट, सिल्क, रेडियो जैसे बहुत सारे नथे-नये सामान पहाड़-से लगे थे। गोपाल ने अब्दुल्ला से पेशगी लेकर अपनी मंडली के हर स्त्री-पुरुष को सौ-सौ मलेशियन रुपये दिये। मुत्तुकुमरन् और माधवी को ढाई सौ के हिसाब से पाँच सौ रुपये एक लिफ़ाफ़े में रखकर माधवी के हाथ में दे दिये । सीधे मुत्तुकुमरन् से मिलने और उसके हाथ रुपये देने को उसे डर लग रहा था। माधवी ने भी हिचकते हुए ही वे रुपये लिये।

"एक बात उनसे भी कह दीजिए । मैं उनकी अनुमति के बिना यह राशि लूंगी तो शायद वे नाराज हो जायेंगे !"

माधवीं के मुख से इधर हिचकते-हिचकते बात फूटी और उधर गोपाल के मुख से काफी कड़क भरी आवाज़ फटी-"वे कौन होते हैं तुम्हारे ? नाम लेकर भुत्तुकुमरन् क्यों नहीं कहती?"

माधवी ने इसका कोई जवाब नहीं दिया । गोपाल आग उगलती आँखों से उसे देखकर चला गया। लेकिन उसने सख्ती का चाहे जैसा व्यवहार किया, वह मुत्तुकुमरन् के पास जाते-जाते नरम हो गया। पिछले तीन दिनों से उन दोनों के बीच जो मौन छाया था, जो वैमनस्य धर किये हुए था, उसे तोड़ने के प्रयत्न में वह फिर बोला, "सभी 'शॉपिंग' को जा रहे हैं। हम पिनांग छोड़कर आज रात को ही रवाना हो रहे हैं । तुम भी जाकर कुछ खरीदना चाहो तो खरीद लो । माधवी के हाथ तुम्हारे लिए भी रुपये दे दिये हैं। चाहो तो कार भी ले जाओ। दोनों साथ ही जाकर खरीदारी कर आओ। बाद को चलते समय 'टाइम' नहीं रहेगा!"

"••••••."

"यह क्या ? तुम सुनते ही नहीं ! क्या तुम्हारे ख्याल से मैं बेकार ही बके जा रहा हूँ?"

"जो कहना है, सो कह दिया न ?"

"मुझे क्या ? तुम्हारी खातिर ही कहा !"

"माना तुम यह दिखाना चाहते हो कि मेरा तुम बहुत ख्याल करते हो?"

"इस तरह ताना न मारो, उस्ताद ! मुझसे सहा नहीं जाता !"

"तो क्या करोगे ?"

"अच्छा, अब तुमसे आगे बोलना ठीक नहीं लगता है. गुस्सा पीकर बैठे हो।" इतना कहकर गोपाल वहाँ से खिसक गया।

उसके जाने के थोड़ी देर बाद माधवी आयी। उसमें मुत्तुकुमरन् का आमना- सामना करने का साहस नहीं था। इसलिए वह कहीं दूर देखती हुई खड़ी रही। उसके हाथ में गोपाल का दिया हुआ रुपयों वाला लिफ़ाफ़ा था। वह बोली- "रुपया दिया है.'"शॉपिंग' में जाना है तो खर्च के लिए"

"किसके खर्च के लिए•••"

"आपके और मेरे.." वह सहमी हुई थी।

"तुमने अपने लिए लिया, यह तो ठीक है । पर मेरे लिए कैसे ले लिया?"

"मैंने नहीं लिया ! उन्हींने दिया।"

"दिया है तो रख लो ! मुझे कहीं खरीदारी-वरीदारी के लिए नहीं जाना।" "जाना तो मुझे भी नहीं हैं।"

"छि:-छिः ! ऐसा न कहो! जाओ, जो चाहो, खरीद लो! उदयरेखा को देखो, दो दिनों से नाइलान, नाईलैक्स वगैरह पहनकर बनी-उनी फिर रही हैं । उससे कम की चीज़ तुम क्यों पहनो ? तुम तो हीरोइन' ठहरी !"

"ऐसी बातें आपके मुंह से शोभा देती हैं क्या ? मेरे बारे में आपका जी इतना खट्टा हो गया है कि उदयरेखा की और मुझे एक तराजू पर तोल रहे हैं !"

"यहाँ किसी का जी नहीं बिगड़ा। अपना-अपना मन तोलकर देखें तो पता चले।"

"पता क्या चलेगा?"
"दो-तीन दिनों से कैसा सलूक कर रही हो?"

"...'यही सवाल आपसे भी तो दुहराया जा सकता है"-कहती हुई माधवी उसके पास गयी और बड़े धीमे स्वर में गिड़गिड़ाती-सी फुसफुसायी, ताकि सिर्फ उसी के कानों में सुनायी दे-"देखिए, आप नाहक अपना दिल न दुखाइये। मैं अब कभी भी आपके साथ विश्वासघात नहीं करूंगी ! इस जगह तो मैं अबला हूँ। आप भी साथ न रहें तो मेरा कोई सहारा नहीं !"

"शक्तिहीन की शरण में जाने से क्या फायदा ?"

"यदि आप में शक्ति नहीं तो इस दुनिया में और किसी में नहीं है । व्यर्थ में बार-बार मेरी परीक्षा न लीजिए !"

"तो फिर तीन दिनों से मेरे साथ बोली क्यों नहीं ?"

"आप क्यों नहीं बोले ?"

"मैं स्वभाव से ही क्रोधी प्राणी हूँ और मर्द हूँ "यह जानकर ही मैं खुद आकर आपसे हाथ जोड़ रही हूँ !"

"तुम बड़ी होशियार हो !"

"वह होशियारी भी आपकी बदौलत ही नसीब हुई है !"

मुत्तुकुमरन के चेहरे से रूखी नाराज़गी की परत उतर गयी और उसकी जगह मुस्कान ने ले ली । उसे पास खींचकर सीने से लगा लिया। माधवी उसके कानों में बोली, "द्वार खुला है ।"

"हा-हाँ ! जाकर बंद कर आओ। कहीं अब्दुल्ला ने देख लिया तो जलेगा-भुनेगा कि मैं ख़ाक मालदार हूँ। मुझे यह माल नहीं मिला। और जो पैसे-पैसे का मोहताज है, माल उसके पैरों पर लोट रहा है।"

"नहीं, मेरे लिए तो आप ही राजा हैं !"

"बस, कहने भर को ही ऐसा कहती हो । लेकिन जब कथानायिका बनकर मंच पर उत्तरती हो तो और किसी राजा की रानी बन जाती हो।"

"देखिए, अभी भी आप बाज नहीं आये। इसी डर से मैं आपसे बार-बार विनती करती रहती हूँ कि मंच पर मुझे किसी के साथ नाटक खेलते हुए. या घनिष्ठता बढ़ाते हुए देखकर मुझपर नाराज न हो जाइए । फिर वही पुरानी चक्की आप बार-बार पीस रहे हैं। इससे ज्यादा मैं क्या कर सकती हूँ ! सच मानिए, मंच पर भी मैं आप ही को कथानायक का पार्ट अदा करते हुए देखना चाहती हूँ। आप कथानायक बनकर मंच पर आ गये तो अच्छे-से-अच्छे कलाकारों का भी कलेजा मुँह को आ जायेगा !"

"बस, बस ! ज्यादा तलुवे न सहलाओ!"

"अब तलुबे सहलाकर साधने योग्य कोई काम बाकी नहीं रह गया !"

"बस, बस! बको मत ! हमें यहाँ किसी दूकान में जाना नहीं है। सारी
'शॉपिंग' वापसी में हम सिंगापुर में कर लेंगे !"

माधवी ने मुत्तुकुमरन् की यह बात मान ली। उसी समय दोनों ने यह भी प्रतिज्ञा की कि अब्दुल्ला और गोपाल चाहे जितना भी रूखा व्यवहार करें, हमें विचलित नहीं होना चाहिए। लेकिन उसी दिन शाम को ईप्पो चलते हुए तलवार की धार से गुजरना पड़ा।

नाटक के थोक ठेकेदार अब्दुल्ला ने अपने साथ ईप्पो चलने के लिए गोपाल और माधवी के लिए वायुयान का प्रबंध करके बाकी सभी के लिए कारों की व्यवस्था कर दी। इससे मुत्तुकुमरन् को कार में जाने वालों में सम्मिलित होना पड़ा।

चलने के थोड़ी देर पहले ही माधवी को इस बात का पता चला । उसने गोपाल के पास जाकर बड़े धैर्य से कहा, "मैं भी कार ही में आ रही हूँ। आप और अब्दुल्ला 'प्लेन' पर आइये।"

"नहीं ! ईप्पो वाले हमारे स्वागत के लिए 'एयरपोर्ट' आये होंगे।"

"आये हों तो क्या? आप तो जा रहे हैं न ?"

"जो भी हो, तुम्हें 'प्लेन' में ही चलना चाहिए !

"मैं कार में ही आऊँगी।”

"यह भी क्या ज़िद है ?"

"हाँ, ज़िद ही सही।"

"उस्ताद को प्लेन का टिकट नहीं दिया गया- इसीलिए यह हंगामा कर रही हो?"

"आप चाहे तो वैसा ही मानिए । मैं तो उन्हीं के साथ कार में ईप्पो आऊँगी।"

"यह उस्ताद कोई आसमान से अचानक तुम्हारे सामने नहीं टपक पड़ा ! मेरे ही कारण तुम्हारी उससे दोस्ती है !"

"कौन इनकार करता है ? उससे क्या ?"

"बढ़-बढ़कर बातें करती हो ? तुम्हारा मुँह बहुत खुल गया है !"

"नयी जगह में हमारे हाथ बँधे हैं। मैं कुछ नहीं कर पा रहा। अगर मद्रास होता तो गधी कहीं की ! हट जा मेरे सामने से' कहकर गरदनी देकर निकालता और तुम्हारी जगह किसी दूसरी हीरोइन को एक रात में पढ़ा-सुनाकर मंच पर खड़ा कर देता।"

"ऐसा करने की नौबत आये तो वह भी कर लीजिए ! पर हाँ, पहले अपने मुंह की थूक गटक लीजिए।"

यह सुनकर गोपाल हैरान रह गया.। इसके पहले माधवी के मुख से ऐसी करारी चोट खाने का मौका ही नहीं आया था। 'मुत्तुकुमरन का सहारा पाकर माधवी लता इतराने लगी है। अब इससे टकराना ठीक नहीं है--सोचकर गोपाल ने उसका पीछा छोड़ दिया । आखिर अब्दुल्ला, गोपाल और उदयरेखा हवाई जहाज से ही गये । माधवी मुत्तुकुमरन और मंडलीवालों के साथ कार में आयी।

माधवी का दिल दुखाने के विचार से उसके नाम से आरक्षित हवाई जहाज के टिकट पर ही उदयरेखा का नाम चढ़वाकर बे उसे हवाई जहाज़ से ले गये। पर माधवी ने इस बात का ख्याल तक नहीं किया कि वे किसे हवाई जहाज़ पर ले जा रहे हैं।

लेकिन दूसरे दिन सवेरे उदयरेखा ही सबके सामने यह ढिंढोरा पीटे जा रही थी कि अब्दुल्ला के साथ वह पिनांग से हवाई जहाज पर आयी थी । वह चाहती थी कि उसकी बढ़ी हुई हैसियत का मंडलीवालों को पता चल जाये। इस स्थिति में, शायद उसकी यह धारणा रही हो कि इससे मंडलीवालों पर उसका रोब-दाब जम जायेगा।