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यह गली बिकाऊ नहीं/3

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नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ १९ से – २६ तक

 

तीन
 

"बस, तुम लिखो उस्ताद ! बाकी सब कुछ मैं देख लूँगा । 'अभिनेता सम्राट गोपाल द्वारा अभिनीत नवरस नाटक' एक लाइन का यह विज्ञापन काफ़ी है: 'हाउस फुल' हो जायेगा । सिनेमा में जो नाम कमाया है, नाटक में उसी का इस्तेमाल करना चाहिए । यही आजकल की 'टेकनिक' है ।

"याने कोई ऐरा-गौरा, नत्थू-खैरा भी लिखे तो भी तुम्हारे नाम से नाटक चमक उठेगा।" तुम यही कहना चाहते हो न?

"और क्या?"

"तो फिर मैं नहीं लिखूगा !"

मुत्तुकुमरन् की आवाज में सरूती थी। उसके चेहरे से हैंसी गायब हो गयी। "क्यों, क्या बात है ?"

"तुम कहते हो कि हद दर्जे की चीज्ञ को भी अपने 'लेबल' पर अच्छे दामों बेच सकते हो और मेरा कहना है कि मैं अपनी अच्छी चीज़ को भी 'सस्ते लेबल' पर नहीं बेचूंगा ।"

यह सुनकर गोपाल भौंचक रह गया। मानो मुँह पर जोर का तमांचा पड़ा हो । यही बात अगर किसी दूसरे ने कही होती तो उसके गाल पर थप्पड़ लगाकर वह 'गेट आउट' चिल्लाया होता । लेकिन मुत्तुकुमरन् के सामने वह आज्ञाकारिणी पत्नी की भांति दब गया। थोड़ी देर तक वह तिलमिलाता रहा कि दोस्त को क्या जवाब दे ! न तो वह गुस्सा उतार सका और न कोई चिकनी-चुपड़ी बात ही कर पाया। उसके भाग्य से मुत्तुकुमरन् ही होंठों पर मुस्कान भरते हुए कहने लगा, "फ़िक्र न करो, गोपाल ! मैंने तुम्हारे अहंकार की थाह लेने के लिए ही ऐसी बातें की। मैं तुम्हारे लिए नाटक लिखूगा । लेकिन वह तुम्हारे अभिनय से बढ़कर मेरी लेखनी का ही नाम रोशन करेगा।"

"उससे क्या? तुम्हारी बड़ाई में मेरा भी तो हिस्सा होगा!" "पहला नाटक-सामाजिक हो या ऐतिहासिक ?" मूत्तु ने बात बदली।

"ऐतिहासिक ही होगा। राजेन्द्र चोलन या सुन्दर पांडियन में कोई भी हो । पर हां, बीच-बीच में ऐसे चुटीले संवाद जरूर हों, जिन्हें सुनकर दर्शक तालियां पीटें । नाटक का राजा चाहे जो भी हो, उसके मुंह से कभी-कभी ऐसे संवाद बुलबाना चाहिए कि हमारे महाराज, कामराज, नारियों के मन मोहनेवाले रामचंद्रन, दाताओं के दाता करुणानिधि, युवकों के युवक पेरियार, भाइयों के भाई अपणा•••"

"वह नहीं होगा।"

"क्यों ? क्यों नहीं होगा?"

"राजराजचोलन के जमाने में तो ये सब नहीं थे। इसलिए । ..." "मैंने सोचा कि 'मास अपील' होगा !"

"मास अपील' के नाम पर ऊल-जुलूल लिखना मुझसे नहीं होगा।"

"तो क्या लिखोगे? कैसे लिखोगे?"

"मैं नाटक को नाटक की तरह ही लिलूँगा, बस !"

"वह लोकप्रिय कैसे होगा?"

"नाटक की सफलता नाटक-लेखन और मंचन पर निर्भर है न कि बेहूदे संवादों पर !"

"जैसी आपकी इच्छा ! तुम ठहरे उस्ताद । इसलिए मेरी नहीं सुनोगे !"

"किस पात्र की कौन भूमिका निभायेगा ? कितने सीन होंगे? कितने गाने होंगे -इन सबका जिम्मा मुझपर छोड़ दो। नाटक सफल नहीं हुआ तो मेरा नाम मुत्तुकुमरन नहीं !"

"ठीक है “अब चलो, खाने को चलें।"

भोजन के बाद भी दोनों थोड़ी देर तक बातें करते रहे उसके बाद गोपाल ने अपनी अलमारी खोलकर, उसमें रखी रंग-बिरंगी बोतलों में से दो बोतलें और गिलास निकाल ली।

"इसकी आदत पड़ गई उस्ताद ?"

"नाटककारों और संगीतकारों के सामने यह सवाल शोभा ही नहीं देता।"

"आओ, इधर बैठो” कहते हुए भोपाल ने मेज पर बोतल, गिलास और 'ओपनर' रखे । उसके बाद उनकी बातों की दिशा बदली। शाम की 'इन्टरव्यू में आयी हुई लड़कियों पर वे खुलकर बड़ी स्वतंत्रता से विचार-विमर्श करने लगे। उधर बोतलें खाली होती जा रही थी और इधर शालीनता भी रीतती चली जा रही थी। 'तनिपाडल तिर१' जैसी पुरानी पुस्तकों से कुछ अश्लील कविताएँ सुनाकर मुत्तुकुमरन् भी श्लेष के सहारे उनको भद्दी व्याख्या करने लग गया। समय बीतते पता न चला।
बाय्स कंपनी में काम करते हुए भी उनके बीच ऐसी कविताएँ और बातें हुआ करती थीं। लेकिन तब की और अब की बातों में बड़ा फ़र्क था। बाय्स कंपनी में न तो नशे-पानी की ऐसी व्यवस्था थी और न खुलकर बात करने की सहूलियत । लुक-छिपकर डरते-डरते बातें करनी होती थीं । बाय्स कंपनी ऐसी बंजर भूमि थी, जहाँ लड़कियों की भनक तक नहीं पड़ती थी। अब तो वह बात नहीं थी।

आधी रात के बाद, मुत्तुकुमरन् लड़खड़ाते पैरों 'आउट हाउस' की ओर बढ़ा तो एक नायर छोकरे ने उसे सहारा देकर बिस्तर पर ले जाकर लिटाया ।

"मैं टेलिफोन की 'की-बोर्ड के पास सोऊँगा । जरूरत पड़े तो फ़ोन पर बुला लीजिएगा!" यह कहकर, बिस्तर के पास के 'फोन एक्स्टेंशन' दिखाकर वह चला गया । मुत्तुकुमरन् को उसकी आवाज़ बड़ी धीमी सुनाई दी और टेलीफ़ोन भी धुंधला-सा दीख पड़ा। उसके अंग ऐसे शिथिल पड़ गये थे, मानो कहीं मार-पीट में चूर-चूर हो गये हों । आँखों में नींद भर आयी थी।

उसी समय टेलीफ़ोन की घंटी बजी। मानो सपने से उठकर उसने अँधेरे में कुछ टटोला । टेलिफ़ोन नहीं मिल रहा था। सिरहाने की 'स्विच' दबाकर बत्ती जलायी और टेलिफोन का चोंगा उठाया। दूसरे छोर से एक नारी कंठ की सहमी- सहमी और शरमीली-सी आवाज आ रही थी-"हलो, मुझे पहचानते हैं आप?" यद्यपि वह आवाज पहचानी-सी लगी तो भी उस आलम में वह ठीक-ठीक पहचान नहीं पाया । इसलिए वह उत्तर देते हुए हिचक रहा था।

नारी-कंठ ने बात जारी रखी. मैं 'माधवी'."इंटरव्यू के पहले   मापसे बातें हुई थीं। याद है ?"

"हां•••तुम ...?"

नशे में उसने 'तुम' कह दिया तो क्या बुरा किया ? एक हमउम्र युवती से 'आप' कहकर बात करे तो क्या इससे उसकी जवानी और दोस्ती की अवहेलना नहीं होती ? अब तक पी हुई शराब को और भी तीखी करती हुई, उस लड़की की मधु- मधुर कंठ-ध्वनि उसके कानों में शहद उड़ेल रही थी!

"माफ़ कीजिये । आप..." अपने को होश में वापस लाते हुए अपने संबोधन में वह संशोधन करने लगा तो दूसरी ओर से उसकी प्यार भरी आवाज़ आयी, "जैसे आपने पहले बुलाया, वैसे ही बुलाइये । वही मुझे पसन्द है !" उसकी नजाकत और बात करने के तौर-तरीके पर मुत्तुकुमरन् कुछ इस तरह खिल उठा मानो बैठे ही बैठे उसे बलात् नारी-आलिंगन का सुख मिल गया हो। "इस घड़ी कहाँ से बोल रही हो ? और तुम्हें यह कैसे पता चला कि मैं इस वक्त इस 'आउट हाउस' में मिलूंगा !"

"वहाँ, गोपालजी के घर में टेलिफ़ोन पर जो लड़का है, उसे मैं जानती हूँ!" "यह जानकर ही यदि इस बेवक्त में कोई लड़की इस तरह फ़ोन पर बात करे तो लोग क्या समझे?"

"जो चाहें, समझें । चूंकि मैं बर्दाश्त नहीं कर सकी; इसीलिए आपको बुलाया ! इसमें कोई गलती है ?"

इस अंतिम वाक्य में, जो प्रश्न था, वह उसे गुड़-सा मीठा लगा। सुननेवाले को तो यह नशे के नशे से भी बढ़कर बड़ा नशा लगा। उसे लगा कि संसार में सबसे पहले मधु का स्रोत नारी-कंठ और अधरों से ही बहा होगा। ऐसी मधुमती माधवी से बात करने का सौभाग्य पाकर मुत्तुकुमरन् अपने को बड़ा धन्य समझने लगा। तनिक होश में आकर उसने सोचा कि इस तरह माधवी के फ़ोन करने का क्या कारण हो सकता है ? लेकिन कारण को पीछे ढकेलकर बही उसके अंतःपटल पर आ खड़ी हो गयी। एक क्षण के लिए उसके मन में यह संदेह-सा हुआ कि उसके . फोन करने के पीछे शायद यह आशय हो कि मुझसे दोस्ती बढ़ाकर मेरी सिफ़ारिश और मेहरबानी से गोपाल की नाटक मंडली में प्रमुख स्थान पाया जा सकता है। किन्तु अगले ही क्षण उसी के मन ने उस भ्रम को मिटाकर कहा कि बात वह नहीं, शायद उसके दिल में तुम्हें प्रवेश मिल गया है। उसके फोन करने के पीछे इसी प्रेम-भावना का हाथ है।

उस रात को वह मीठे सपनों में खोया रहा । सोकर उठा तो लगा कि पौ कुछ पहले ही फट गयी है. और सूरज में. बड़ी उतावली दिखा दी है । असल में 'बेड- कॉफ़ो' के साथ, नायर छोकरे के जगाने के बाद ही वह उठा था। कुल्ला करने के बाद जब उसने गरम कॉफ़ी पी तो मन में उत्साह और उल्लास भर गया 'आउट हाउस' के बरामदे पर आकर सामले के बगीचे पर नज़र दौड़ायी तो उसकी आँखों के सामने बड़ा ही मनोरम दृश्य उपस्थित था। ओस कणों में नहायी हरी घास की फर्श झिलमिला रही थी। उस हरीतिमा में लाल गोटे की तरह गुलाब खिले थे। एक और पारिजात का पेड़ था, जिसके फूल हरी घास पर चौक पूर रहे थे। कहीं से रेडियो में 'नन्नु पालिम्ब' मोहन राग का गीत हवा में तिरता आ रहा था।

सामने का बगीचा, प्रातःकाल की खूनक और गीत की माधुर स्वर-लहरी- ये तीनों मिलकर मुत्तुकुमरन् को आह्लादित कर रहे थे। उस आह्लाद में उसे माधवी का स्मरण हो आया। पिछली रात को टेलिफ़ोन में बेवक्त गूंजती आवाज़ भी याद हो आयी।

कुछ लोगों के गाने पर ही संगीत की रचना होती है जबकि कुछ लोगों के बोलने पर भी संगीत बन जाता है। माधवी की बोली में वही जादू था। माधवी के कंठ में शायद कोयल बैठी थी। कोयल जैसे अंतराल दे-देकर कूकती है, वैसे ही वह बोल रही थी। मुत्तूकुमरन् को उसकी स्वर-माधुरी की तारीफ़ में एक गीत. रचने की कविता लिखने की इच्छा हुई। "सुख बयार का, स्नेह मधु का,

जिसने पाया हो सुमधुर कंठ

उसकी वाणी में गीत घुला

जैसे मंच पर गीत का गान

मन में भी गूंजे वैसी तान

उससे भी सूक्ष्म है एक संगीत

जो अनहद नाद कहाता है;

कोई डूब के ही सुन पाता है।"

इस आशय का एक गीत रचकर उसने मन-ही-मन गुनगुनाया। कहीं वह छन्दो बद्ध था और कहीं शिथिल । फिर भी उसे इस बात का संतोष था कि यह उच्च आशय का था।

इस तरह मुत्तुकुमरन् बरामदे में खड़ा होकर बगीचे की सुषमा देख रहा था और माधवी की स्वर-माधुरी का रस ले रहा था कि गोपाल 'नाइट गाउन' में ही मुत्तुकुमरन् से मिलने 'आउट हाउस' में आ गया ।

"अच्छी नींद तो आयी, यार ?"

"हाँ, बड़े मजे की नींद सोया !"

"अच्छा, अब मैं तुमसे एक बात पूछने आया हूँ !"

"क्या ?"

"कल आयी हुई लड़कियों में से तुम किसे सबसे ज्यादा पसन्द करते हो?".

"क्यों, क्या मेरी शादी उससे कराना चाहते हो?"

"नहीं ! मैं अपनी नाटक मंडली का उद्घाटन जल्दी से जल्दी करना चाहता हो?"

हूँ। पहले नाटक का मंचन भी उसी समय कर देना है। उसके लिए सेलेक्शन' वगैरह. जल्दी हो जाए तो अच्छा रहेगा न ?"

."हाँ, कर लो!"

"करने के पहले तुम्हारी भी सलाह चाहता हूँ !"

"इस विषय में मैं 'अभिनेता सम्राट' को सलाह क्या दूं ?"

"यह कैसा मज़ाक है ?"

"मजाक नहीं, सच्ची बात है।"

.."इन्टरव्यू के लिए जो दो युवक आये थे, मैंने उन दोनों को लेने का निश्चय कर लिया है। क्योंकि वे दोनों संगीत नाटक अकादेमी के सेक्रेटरी चक्रपाणि की सिफ़ारिश लेकर आये थे!"

"अच्छा! ले लो। फिर...?"

"आयी हुई लड़कियों में..."

"सभी सुन्दर हैं !"
"ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह माधवी ही कद-काठी से नाक-नश से तराशी हुई बहुत सुन्दर युवती थी !"

"अच्छा!"

"उसे 'पर्मानेंट हीरोइन' बना लेना है !"

"नाटक के ही लिए न?"

"उस्ताद ! तुम्हारा मज़ाक मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता ! रहने भी दो !"

"अच्छा रहने दिया ! आगे बोलो!" मुत्तुकुमरन् ने कहा।

गोपाल बोला, "आयी हुई लड़कियों में से कुछेक को नाटक के उपपात्रों के लिए लेना चाहता हूँ !"

. “यानी ऐतिहासिक कहानी हो तो सखी और बाँदी; सामाजिक कहानी हो तो कॉलेज की सहेली, पड़ोस की लड़की-~-यही न ? जरूर-जरूरत पड़ेगी ! समय- समय पर जीवन-साथी के बतौर भी काम आ सकती है !"

मजाक बर्दाश्त न कर सका तो गोपाल ने चुप्पी साध ली और मुत्तुकुमरन् पर पनी दृष्टि फेंकी । मुत्तुकुसरन् ने तत्काल बात बदलकर हँसते हुए पूछा, 'गोपाल नाटक मंडली नाम रखने से पहले, तुम कह रहे थे कि सेक्रेटरी से मिलकर आय- कर आदि के विषय में कुछ पूछना है । पूछ लिया क्या ?"

गोपाल ने कहा, "सुबह ही सेक्रेटरी को फोन कर मालूम भी कर चुका। हम गोपाल नाटक मंडली नाम रख सकते हैं । सेक्रेटरी की सलाह के बाद ही तुम्हारे पास आया हूँ !"

"अच्छा, बोलो ! आगे क्या करना है ?"

"इस 'आउट हाउस में सभी सुविधाएं हैं। यहाँ बैठकर जल्द-से-जल्द उस्ताद को नाटक लिखकर तैयार कर देना है, बस । अगर किसी चीज़ की जरूरत हो तो नायर छोकरे को आवाज़ दो । उत्तर के सुपर स्टार दिलीप कुमार जब यहाँ आये थे, उनके ठहरने के लिए ही यह 'आउट हाउस' खासकर बनवाया था। उनके बाद यहाँ ठहरने वाले पहले आदमी तुम्ही हो !"

"तुम्हारा ख्याल यही है न कि उस्ताद की इससे बड़ी अवहेलना नहीं की जा सकती!"

"इसमें अवहेलना कैसी?"

"दिलीप कुमार एक अभिनेता है लेकिन मैं तो एक गर्वीला कवि हूं। उनके ठहरने से मैं इसको तीर्थ-स्थान नहीं मान सकता। तुम मानना चाहो तो मानो । मैं तो यह चाहता हूँ कि जहाँ मैं ठहरता हूँ, उसे दूसरे लोग तीर्थ मानें !"

"जैसी तुम्हारी मर्जी ! पर जल्दी नाटक लिख दो, बस !" "मेरी पांडुलिपि को अच्छी तरह कोई टाइप करके देनेवाला मिले तो सही..."

"हाँ : याद आया। कल की 'इंटरव्यू में उसी माधवी नाम की लड़की नेकहा था कि वह टाइप करना भी जानती है । उसी से कह दूँगा कि वह 'टाइप' कर दे। 'टाइप करते-करते उसे संवाद भी याद हो जाएंगे।"

"बड़ा अच्छा विचार है । इस तरह कोई कथा नायिका ही साथ रहकर 'हेल्प' करे तो मैं भी नाटक जल्दी लिख डालूंगा।"

'कल ही एक नये 'टाइप राइटर' के लिए ऑर्डर दे देता हूँ !"

"जैसे तुम एक-एक चीज़ का 'आर्डर' देकर भगा लेते हो, वैसे मैं अपनी कल्पना को 'ऑर्डर' देकर तो नहीं मँगा सकता । वह तो धीरे-धीरे ही उभर करआयेगी!

"मैं कोई जल्दी नहीं करता। इतना ही कहा कि नाटक जरा जल्दी तैयार हो जाए तो अच्छा रहेगा। चाय, कॉफी, ओवल--जो चाहो, फोन पर मँगा लो !"

"सिर्फ चाय, कॉफ़ी या ओवल ही मिलेगी ?"

"जो चाहो में 'वह' भी शामिल है !"

"फिर तो तुम मुझे उमर खैयाम बना दोगे?"

"अच्छा, मुझे देरी हो रही है । दस बजे काल शीट' है !" कहकर गोपाल चला गया।

मुत्तुकुमरन ने 'आउट हाउस' के बरामदे से देखा की सूरज की रोशनी में हरी घास और निखर उठी है। और गुलाब की लाली माधवी के अधरों की याद दिला रही है । अंदर फ़ोन की घंटी बजी तो उसने फुर्ती से जाकर 'रिसीवर' उठाया।

"मैं माधवी बोल रही हूँ !"

"बोलो, क्या बात है "

"अभी 'सर' ने फोन पर बताया था..."

"सर माने...?"

.."अभिनेता सम्राट ! मैं कल से स्क्रिप्ट 'टाइम करने के लिए आ जाऊँगी । मेरे आने की बात सुनकर आप खुश हैं न ?"

"आने पर ही खुश हूँगा।"

दूसरे छोर से हँसी की खिलखिलाहट सुनायी दी।

"टाइप करने के लिए तुम आओगी, गोपाल के. मुँह से यह सुनकर मैंने उसे क्या कहा, मालूम है ?"

"क्या कहा ?"

"सुनकर तुम खुश होगी ! कहा कि जब कथा-नायिका साथ रहकर 'हेल्प' करेगी तो मैं नाटक जल्दी लिख डालूँगा।"

"यह सुनकर मेरे दिल पर क्या बीत रही है, यह आप जानते हैं ?"

"सुनाओ तो जानूँ !"

"कल वहाँ आने पर ही बताऊँगी !" वह चुटकी लेकर बोली। उधर से फ़ोन रखने की आवाज आयी तो मुत्तुकुमरन् रिसीवर रखकर मुड़ा।
द्वार पर हाथ में एक लिफ़ाफ़ा लिये छोकरा नायर खड़ा था ।

"क्या है, इधर लाओ!" मुत्तुकुमरन् के कहने पर वह अंदर आया और लिफ़ाफ़ा देकर चला गया।

लिफ़ाफ़ा भारी और बंद था । ऊपर मुत्तुकुमरन् का नाम लिखा था । मुत्तुकुमरन ने बड़ी फुर्ती से उसे खोला तो उसमें से दस रुपये के नये-नये नोटों के साथ काग़ज़ का एक छोटा-सा पुर्जा भी निकला।

मुत्तुकुमरन ने पढ़ने के लिए पुर्जा निकाला तो उसमें दो ही चार पंक्तियाँ लिखी हुई थीं। नीचे गोपाल के हस्ताक्षर थे। मुत्तुकुमरन ने एक बार, दो बार नहीं, कई वार उसे पढ़ा । उसके मन में एक साथ कई विचार आये। मुत्तुकुमरन ने इस बात का पता लगाने का प्रयत्न किया कि गोपाल उसे अपना घनिष्ठ मित्र मानकर प्यार से पेश आता है या जीविका की खोज में शहर की शरण लेने वाले व्यक्ति के साथ नौकर-मालिक का-सा व्यवहार करता है ? मुत्तुकुमरन्' ने पहले यह समझा कि पैसे के साथ आये हुए उस पत्र के सहारे गोपाल का मन आँक लेगा। पर यह उतना आसान नहीं था। सोचने-विचारने पर उसे ऐसा ही लग रहा था कि पत्र बड़े स्नेह और प्यार के साथ ही लिखा हुआ है।