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योगिराज श्रीकृष्ण/ग्रन्थकार लाला लाजपतराय

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योगिराज श्रीकृष्ण
लाला लाजपत राय, संपादक भवानीलाल भारतीय, अनुवादक हरिद्वार सिंह बेदिल

नई दिल्ली: आर्य प्रकाशन मंडल, पृष्ठ परिचय

 

ग्रन्थकार लाला लाजपतराय

भारत की आजादी के आन्दोलन के प्रखर नेता लाला लाजपतराय का नाम ही देशवासियो में स्फूर्ति तथा प्रेरणा का संचार करता है। अपने देश, धर्म तथा संस्कृति के लिए उनमें जो प्रबल प्रेम तथा आदर था उसी के कारण वे स्वयं को राष्ट्र के लिए समर्पित कर अपना जीवन दे सके। भारत को स्वाधीनता दिलाने में उनका त्याग, बलिदान तथा देशभक्ति अद्वितीय और अनुपम थी। उनके बहुविध क्रियाकलाप मे साहित्य-लेखन एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। वे उर्दू तथा अंग्रेजी के समर्थ रचनाकार थे।

लालाजी का जन्म 28 जनवरी, 1865 को अपने ननिहाल के गाँव ढुंढ़िके (जिला फरीदकोट, पंजाब) में हुआ था। उनके पिता लाला राधाकृष्ण लुधियाना जिले के जगराँव कस्बे के निवासी अग्रवाल वैश्य थे। लाला राधाकृष्ण अध्यापक थे। वे उर्दू-फारसी के अच्छे जानकार थे तथा इस्लाम के मन्तव्यों में उनकी गहरी आस्था थी। वे मुसलमानी धार्मिक अनुष्ठानों का भी नियमित रूप से पालन करते थे। नमाज पढ़ना और रमजान के महीने में रोजा रखना उनकी जीवनचर्या का अभिन्न अंग था तथापि वे सच्चे धर्म-जिज्ञासु थे। अपने पुत्र लाला लाजपतराय के आर्यसमाजी बन जाने पर उन्होंने वेद के दार्शनिक सिद्धान्त त्रैतवाद (ईश्वर, जीव तथा प्रकृति का अनादित्य) को समझने में भी रुचि दिखाई। लालाजी की इस जिज्ञासु प्रवृत्ति का प्रभाव उनके पुत्र पर भी पड़ा था।

लाजपतराय की शिक्षा पाँचवें वर्ष में आरम्भ हुई। 1880 में उन्होंने कलकत्ता तथा पजाब विश्वविद्यालय से एंट्रेस की परीक्षा एक ही वर्ष में पास की और आगे पढ़ने के लिए लाहौर आये। यहाँ वे गवर्नमेंट कॉलेज में प्रविष्ट हुए और 1882 में एफ०ए० की परीक्षा तथा मुख्तारी की परीक्षा साथ-साथ पास की। यहीं वे आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और उसके सदस्य बन गये। डी०ए०वी० कॉलेज, लाहौर के प्रथम प्राचार्य लाला हंसराज (आगे चलकर महात्मा हसराज के नाम से प्रसिद्ध) तथा प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् पं० गुरुदत्त उनके सहपाटी थे, जिनके साथ उन्हें आगे चलकर आर्यसमाज का कार्य करना पड़ा। इनके द्वारा ही उन्हें महर्षि दयानन्दद के विचारों का परिचय मिला।

1882 के अन्तिम दिनों में वे पहली बार आर्यसमाज लाहौर के वार्षिक उत्सव मे सम्मिलित हुए ! इस मार्मिक प्रसंग का वर्णन स्वयं लालाजी ने अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है--“उस दिन स्वर्गीय लाला मदनसिह बी०ए० (डी०ए०वी० कॉलेज के संस्थापको मे प्रमुख) का व्याख्यान था। उनको मुझसे बहुत प्रेम था। उन्होंने व्याख्यान देने से पहले समाज मदिर की छत पर मुझे अपना लिखा सुनाया और मेरी सम्मति पूछी मैने उस व्याख्यान को बहुत पसन्द किया। जब मैं छत से नीचे उतरा तो लाला साँईदास जी (आर्यसमाज लाहौर के प्रथम मंत्री) ने मुझे पकड़ लिया और अलग ले जाकर कहने लगे कि हमने बहुत समय तक इन्तजार किया है कि तुम हमारे साथ मिल जाओ। मै उस घड़ी को भूल नहीं सकता। वह मेरे से बातें करते थे, मेरे मुँह की ओर देखते थे तथा मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरते थे। मैंने उनको जवाब दिया कि मै तो उनके साथ हूँ। मेरा इतना कहना था कि उन्होंने फौरन समाज के सभासद बनने का प्रार्थना-पत्र मँगवाया और मेरे सामने रख दिया। मै दो-चार मिनट तक सोचता रहा, परन्तु उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे हस्ताक्षर लिए बिना तुम्हे जाने न दूँगा। मैने फौरन हस्ताक्षर कर दिये। उस समय उनके चेहरे पर प्रसन्नता की जो झलक थी उसका वर्णणन मै नहीं कर सकता। ऐसा मालूम होता था कि उनको हिन्दुस्तान की बादशाहत मिल गई है। उन्होंने एकदम पं० गुरुदत्त को बुलाया और सारा हाल सुनाकर मुझे उनके हवाले कर दिया। वह भी बहुत खुश हुए। लाला मदनसिंह के व्याख्यान की समाप्ति पर लाला साँईदास ने मुझे और पं० गुरुदत्त को मंच पर खड़ा किया। हम दोनों से व्याख्यान दिलवाये। लोग बहुत खुश हुए और खूब तालियाँ बजाईं। इन तालियों ने मेरे दिल पर जादू का-सा असर किया। मैं प्रसन्नता और सफलता की मस्ती में झूमता हुआ अपने घर को लौटा।[]

यह है लालाजी के आर्यसमाज में प्रवेश की कथा। लाला साँईदास आर्यसमाज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि वे होनहार नवयुवकों को इस संस्था में प्रविष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। स्वामी श्रद्धानन्द (तत्कालीन लाला मुंशीराम) को आर्यसमाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। 30 अक्टूबर, 1883 को जब अजमेर में ऋषि दयानन्द का देहान्त हो गया तो 9 नवम्बर, 1883 को लाहौर आर्यसमाज की ओर से एक शोकसभा का आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चय हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाये, जिसमे वैदिक साहित्य, संस्कृत तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजो और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। 1886 मे जब इस शिक्षण संस्था की स्थापना हुई तो आर्यसमाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपतराय का भी इसके संचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर मे डी०ए०वी० कॉलेज, लाहौर के महान् स्तम्भ बने।


वकालत के क्षेत्र में

लाला लाजपतराय ने एक मुख्तार (छोटा वकील) के रूप में अपने मूल निवासस्थान जगराँव मे ही वकालत आरम्भ कर दी थी; यह कस्बा बहुत छोटा था, जहाँ उनके कार्यय के बढ़ने की अधिक सम्भावना नहीं थी, अत: वे रोहतक चले गये। उन दिनों पंजाब प्रदेश में वर्तमान हरियाणा, हिमाचल तथा आज के पाकिस्तानी पंजाब का भी समावेश था। रोहतक में रहते हुए ही उन्होने 1885 में, वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1886 में वे हिसार आ गये। एक सफल वकील के रूप में 1892 तक वे यहीं रहे और इसी वर्ष लाहौर आये। तब से लाहौर ही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। लालाजी ने यों तो समाज-सेवा का कार्य हिसार में रहते हुए ही आरम्भ कर दिया था, जहाँ उन्होने लाला चंदूलाल, प० लखपतराय और लाला चूड़ामणि जैसे आर्यसमाजी कार्यकर्ताओं के साथ सामाजिक हित की योजनाओं के कार्यान्वयन में योगदान किया, किन्तु लाहौर आने पर वे आर्यसमाज के अतिरिक्तत राजनैतिक आन्दोलन के साथ भी जुड़ गये। 1888 में वे प्रथम बार कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन में सम्मिलित हुए जिसकी अध्यक्षता मि० जार्ज यूल ने की थी। 1906 मे वे प० गोपालकृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के एक शिष्टमण्डल के सदस्य के रूप में इंग्लैड गये। यहाँ से वे अमेरिका चले गये। उन्होंने कई बार विदेश यात्राएँ की और वहाँ रहकर पश्चिमी देशों के समक्ष भारत की राजनैतिक परिस्थिति की वास्तविकता से वहाँ के लोगों को परिचित कराया तथा उन्हें स्वाधीनता आन्दोलन की जानकारी दी।

लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियों--लोकमान्य तिलक तथा विपिनचन्द्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस में उग्र विचारों का प्रवेश कराया। 1885 में अपनी स्थापना से लेकर लगभग बीस वर्षों तक कांग्रेस ने एक राजभक्त संस्था का चरित्र बनाये रखा था। इसके नेतागण वर्षष मे एक बार बड़े दिन की छुट्टियों में देश के किसी नगर में एकत्रित होते और विनम्रतापूर्ववक शासन के सूत्रधारों (अग्रेजों) से सरकारी उच्च सेवाओं में भारतीयों को अधिकाधिक संख्या मे प्रविष्ट करने की याचना करते। 1905 मे जब बनारस मे सम्पन्न हुए कांग्रेस के अधिवेशन मे ब्रिटिश युवराज के भारत-आगमन पर उनका स्वागत करने का प्रस्ताव आया तो लालाजी ने उसका डटकर विरोध किया। कांग्रेस के मंच से यह अपनी किस्म का पहला तेजस्वी भाषण हुआ जिसमें देश की अस्मिता प्रकट हुई थी।

1907 में जब पंजाब के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर चेतना उत्पन्न हुई तो सरकार का क्रोध लालाजी तथा सरदार अजीतसिंह (शहीद भगतसिंह के चाचा) पर उमड़ पड़ा और इन दोनों देशभक्त नेताओं को देश से निर्वासित कर उन्हें पड़ोसी देश बर्मा के मांडले नगर मे नजरबंद कर दिया, किन्तु देशवासियो द्वारा सरकार के इस दमनपूर्ण कार्य का प्रबल विरोध किये जाने पर सरकार को अपना यह आदेश वापस लेना पड़ा। लालाजी पुनः स्वदेश आये और देशवासियों ने उनका भावभीना स्वागत किया। लालाजी के राजनैतिक जीवन की कहानी अत्यन्त रोमाचक तो है ही, भारतवासियों को स्वदेश-हित के लिए बलिदान तथा महान् त्याग करने की प्रेरणा भी देती है।


जन-सेवा के कार्य

लालाजी केवल राजनैतिक नेता और कार्यकर्ता ही नही थे, उन्होंने जन-सेवा का भी सच्चा पाठ पढ़ा था। जब 1896 तथा 1899 (इसे राजस्थान में छप्पन का अकाल कहते है, क्योकि यह विक्रम का 1956 का वर्ष था) में उत्तर भारत में भयंकर टुप्काल पड़ा तो लालाजी ने अपने साथी लाला हंसराव के सहयोग से अकालपीड़ित लोगों को सहायता पहुँचाई। जिन अनाथ बच्चो को ईसाई पादरी अपनाने के लिए तैयार थे और अन्ततः जो उनका धर्म-परिवर्तन करने के इरादे रखते थे, उन्हें इन मिशनरियों के चंगुल से बचाकर फीरोजपुर तथा आगरा के आर्य अनाथालयो में भेजा। 1905 में कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) मे भयंकर भूकम्प आया। उस समय भी लालाजी सेवा-कार्य में जुट गये और डी०ए०वी० कॉलेज, लाहौर के छात्रों के साथ भूकम्प पीड़ितों को राहत प्रदान की। 1907-08 में उड़ीसा, मध्यप्रदेश तथा संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उतर प्रदेश) में भी भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और लालाजी को पीड़ितों की सहायता के लिए आगे आना पड़ा।


पुन: राजनैतिक आन्दोलन में

1907 के सूरत के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियो के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। हम यह देख चुके हैं कि जनभावना को देखते हुए अंग्रेजों को उनके देश-निर्वासन को रद्द करना पड़ा था। वे स्वदेश आये और पुन: स्वाधीनता के संघर्ष में जुट गये। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुन: इंग्लैंड गये और देश की आजादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमेरिका चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमेरिकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ उन्होने इण्डियन होम रूल लीग की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे। 20 फरवरी, 1920 को जब वे स्वदेश लौटे तो अमृतसर में जलियाँवाला बाग काण्ड हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला मे जल रहा था। इसी बीच महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये। 1920 में ही वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने। उन दिनों सरकारी शिक्षण संस्थाओं के बहिष्कार, विदेशी वस्त्रों के त्याग, अदालतो का बहिष्कार, शराब के विरुद्ध आन्दोलन, चरखा और खादी का प्रचार जैसे कार्यक्रमों को कांग्रेस ने अपने हाथ में ले रखा था, जिसके कारण जनता में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हो चला था। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये।

1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और केन्द्रीय धारा सभा (सेट्रल असेम्बली) के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पं० मोतीलाल नेहरू से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया और पुन: असेम्बली में पहुँच गये। अन्य विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाली मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द तथा पं० मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उन्होंने हिन्दू महासभा के कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 मे उन्हें हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया। ध्यातव्य है कि उन दिनों हिन्दू महासभा का कोई स्पट राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था और वह मुख्य रूप से हिन्दू संगठन, अछूतोद्धार, शुद्धि जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में ही दिलचस्पी लेती थी। इसी कारण कांग्रेस से उसका थोड़ा भी विरोध नहीं था। यद्यपि संकीर्ण दृष्टि के अनेक राजनैतिक कर्मी लालाजी के हिन्दू महासभा में रुचि लेने से नाराज भी हुए किन्तु उन्होंने इसकी कभी परवाह नहीं की और वे अपने कर्तव्यपालन में ही लगे रहे।


जीवन-संध्या

1928 में जब अंग्रेजों द्वारा नियुक्त साइमन कमीशन भारत आया तो देश के नेताओ ने उसका बहिष्कार करने का निर्णय लिया। 30 अक्टूबर, 1928 को कमीशन लाहौर पहुँचा तो जनता के प्रबल प्रतिरोध को देखते हुए सरकार ने धारा 144 लगा दी। लालाजी के नेतृत्वव में नगर के हजारों लोग कमीशन के सदस्यों को काले झण्डे दिखाने के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचे और 'साइमन वापस जाओ' के नारों से आकाश गुँजा दिया। इस पर पुलिस को लाठीचार्ज का आदेश मिला। उसी समय अंग्रेज सार्जेट साण्डर्स ने लालाजी की छाती पर लाठी का प्रहार किया जिससे उन्हें सख्त चोट पहुँची। उसी सायं लाहौर की एक विशाल जनसभा में एकत्रित जनता को सम्बोधित करते हुए नरकेसरी लालाजी ने गर्जना करते हुए कहा--मेरे शरीर पर पड़ी लाठी की प्रत्येक चोट अंग्रेजी साम्राज्य के कफन की कील का काम करेगी। इस दारुण प्रहार से आहत लालाजी ने अठारह दिन तक विषम ज्वर की पीड़ा भोगकर 17 नवम्बर, 1928 को परलोक के लिए प्रस्थान किया।


बहुआयामी व्यक्तित्व

लाला लाजपतराय का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे एकसाथ ही उत्कृष्ट वक्ता, श्रेष्ठ लेखक, सार्वजनिक कार्यकर्ता, सेवाभावी समाजसेवक, राजनैतिक नेता, शिक्षाशास्त्री, चिन्तक, विचारक तथा दार्शनिक थे। आर्यसमाज से ही उन्होंने देश-सेवा का पाठ पढ़ा था और स्वामी दयानन्द से उन्होंने समर्पण तथा सेवा का आदर्श ग्रहण किया था। उनके शब्दों में आर्यसमाज मेरी माता तथा स्वामी दयानन्द मेरे धर्मपिता हैं। मैंने देश-सेवा का पाठ आर्यसमाज में ही पढ़ा है। लालाजी के बलिदान के पश्चात् देशबंधु चित्तरंजनदास की पत्नी श्रीमती बसतीदेवी ने एक वक्तव्य प्रसारित कर कहा था कि क्या देश में कोई ऐसा क्रान्तिकारी युवक नही है जो भारतकेसरी लालाजी की मौत का बदला ले सके? जब यह बात सरदार भगतसिंह तक पहुँची तो उसने लालाजी पर लाठियों का प्रहार करने वाले साण्डर्स को मारकर उस अमर देशभक्त की मौत का बदला ले लिया। लाला लाजपतराय देश के स्वाधीनता संग्राम के महान्से नानी थे। देशवासी उनके त्याग और बलिदान को सदा स्मरण रखेंगे।


लाला लाजपतराय-लेखक और साहित्यकार के रूप में

लालाजी का अध्ययन विशाल था । धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्नो पर उनका स्पष्ट चिन्तन था। उनका लेखन विशद विविध विषयों से सम्पृक्त तथा बहुआयामी था जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :

जीवनी-लेखन : स्वदेशी और अन्य देशीय महापुरुषों के जीवन-चरित-लेखन का उनका कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इटली के विख्यात देशभक्त मैजिनी और गैरीबाल्डी का जीवनी-लेखन तो विदेशी शासकों की दृष्टि मे इतना आपत्तिजनक समझा गया कि इन दोनो पुस्तको की जब्ती के आदेश प्रसारित किये गये। उनके द्वारा निम्न जीवन-चरित लिखे गये--

1. लाइफ एण्ड वर्क ऑफ पं० गुरुदत्त विद्यार्थी एम०ए० : इस ग्रन्थ का प्रकाशन 1891 में पं० गुरुदत्त के निधन के एक वर्ष पश्चात् हुआ। यह लालाजी की प्रथम कृति है जिसे उन्होंने अपने मित्र तथा सहपाठी पं० गुरुदत्त के संस्मरणों के आधार पर लिखा था। विरजानन्द प्रेस, लाहौर से प्रकाशित यह ग्रन्थ अब प्राय: दुर्लभ हो चुका है। इसका उर्दू संस्करण 1992 में छपा था।

2. महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका काम : स्वामी दयानन्द का यह उर्दू जीवन-चरित लालाजी ने 1898 में लिखा। इसका हिन्दी अनुवाद गोपालदास देवगण शर्मा ने किया जो 1898 मे ही 'दुनिया के महापुरुषों की जीवन-ग्रन्थमाला' के अन्तर्गत छपा। 2024 वि० में सार्वदेशिक पत्र ने इसे अपने विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया।

3. योगिराज महात्मा श्रीकृष्ण का जीवन-चरित्र : उर्दू मे इसका प्रकाशन 1900 में लाहौर से हुआ। इसका हिन्दी अनुवाद मास्टर हरिद्वारीसिह बेदिल (गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर में अध्यापक) ने किया, जिसे पं० शंकरदत्त शर्मा ने वैदिक पुस्तकालय, मुरादाबाद से प्रकाशित किया।

4. शिवाजी महाराज का जीवन-चरित : 1896 में उर्दू में प्रकाशित।

5. महात्मा ग्वीसेप मैजिनी का जीवन-चरित : यह भी मूलत: उर्दू में लिखा गया और 1896 में प्रकाशित हुआ। ब्रिटिश शासन ने इसे जब्त कर लिया। इसका हिन्दी अनुवाद श्री केशवप्रसाद सिंह ने किया जिसके कई संस्करण छपे। नेशनल बुक ट्रस्ट ने इसे 1967 मे पुनः प्रकाशित किया।

6. गैरीवाल्डी : उर्दू में यह जीवन-चरित लिखा गया था। इसे भी अंग्रेजों ने प्रतिबधित कर दिया था। देश के स्वतंत्र हो जाने के पश्चात् नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा 1967 में पुन प्रकाशित हुआ।

7. सम्राट अशोक : मूल ग्रन्थ उर्दू में था। इसका हिन्दी अनुवाद चौधरी एण्ड सस, बनारस ने 1933 में प्रकाशित किया।


अन्य ग्रन्थ

1. दि आर्यसमाज : आर्यसमाज के सिद्धान्तो, कार्यो तथा उसके संस्थापक स्वामी दयानन्द के जीवन एवं कृतित्व का विश्लेषण करने वाला यह अंग्रेजी ग्रन्थ 1914 में लिखा गया था। उस समय लालाजी लंदन में थे। सुप्रसिद्ध प्रकाशक लांगमैंस ग्रीन एण्ड कम्पनी ने इसे 1915 में प्रथम बार लंदन से ही प्रकाशित किया। इसका एक भारतीय संस्करण प्रिंसिपल श्रीराम शर्मा ने सम्पादित किया, जिसमें उपयुक्त परिवर्धन भी किया गया था। ओरियेण्ट लागमैस, नई दिल्ली ने इसे 1967 में प्रकाशित किया। इन पंक्तियों के लेखक ने इसका हिन्दी अनुवाद किया जिसके दो संस्करण क्रमश: 1982 तथा 1994 में अजमेर तथा दिल्ली से प्रकाशित हुए। दिल्ली के ही विभिन्न प्रकाशकों ने हाल ही में इसके मूल अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित किये हैं। तरक्किए उर्दू बोर्ड, दिल्ली ने इसका उर्दू अनुवाद किशोर सुलतान से करवाकर प्रकाशित किया है।

2. दि मैसेज ऑफ भगवद्गीता : इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद से 1908 में प्रकाशित।

3. अनहैप्पी इण्डिया : मिस कैथराइन मेयो नामक एक चालाक अमरीकी महिला पत्रकार ने भारत को बदनाम करने तथा उसे स्वराज्य के लिए अयोग्य सिद्ध करने की दृष्टि से ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासको की प्रेरणा पाकर 'मदर इण्डिया' नामक एक पुस्तक लिखी जो भारतीय चरित्र को अत्यन्त विकृत, दूषित तथा घृणोत्पादक शैली में प्रस्तुत करती थी। महात्मा गांधी ने पढकर इसे 'गंदी नाली के निरीक्षक की रिपोर्ट' कहा था। लालाजी ने इस पूर्वाग्रहयुक्त पुस्तक का सटीक और मुँहतोड़ उत्तर 1928 में 'अनहैप्पी इण्डिया' लिखकर दिया। 'दुखी भारत' शीर्षक से इसका हिन्दी अनुवाद इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद ने ही प्रकाशित किया था।

लालाजी ने आर्थिक, राजनैतिक तथा शिक्षा आदि विषयो पर अनेक उच्चकोटि के ग्रन्थ अंग्रेजी में लिखे थे। इनका यथोपलब्ध विवरण इस प्रकार है :

1. England's Debt to India : B.W. Huebsch, New York से 1917 में प्रकाशित।

2. The Evolution of Japan. : आर० चटर्जी, कार्नवालिस स्ट्रीट, कलकत्ता से 1919 में प्रकाशित।

3. Ideals of Non-cooperation and Other Essays : जी० ए० नटेसन मद्रास से 1924 में प्रकाशित।

4. India's Will to Freedom : Writings and Speeches on the Present Situation.: गणेशन एण्ड कम्पनी, मद्रास से 1921 में प्रकाशित।

5. The Problems of National Education in India : 1920 में प्रकाशित। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा 1966 मे पुनः प्रकाशित।

6. The Political Future of India : B.W. Huebsch, New York से 1919 में प्रकाशित।

7. Story of My Deportation. : पंजाबी प्रेस, लाहौर से 1908 में प्रकाशित।

8. Young India--An Interpretation and History of the National Movement. : B.W. Huebsch, New York से 1916 मे प्रकाशित। भारत लोक-सेवक मण्डल (Servants of the People's Society) लाहौर द्वारा 1927 में लाहौर से प्रकाशित भारतीय संस्करण

9. Report of People's Famine Relief Movement-1908 : लाहौर से 1909 में प्रकाशित।

10. The Story of My Life : The People, लाहौर का लाजपतराय विशेषांक (अप्रैल 13, 18, सन् 1929)

यह लालाजी की आत्मकथा है जिसका हिन्दी अनुवाद पं० भीमसेन विद्यालंकार ने किया, जो 1932 में नवयुग ग्रन्थमाला, लाहौर से प्रकाशित हुआ।

लालाजी की जन्म-शताब्दी (1965) के अवसर पर विजयचन्द्र जोशी ने 'लाला लाजपतराय-आटोबायोग्राफिकल राइटिंग्स' शीर्षक से उनकी आत्मकथा का सम्पादन किया तथा दो खण्डो में लालाजी के लेखों तथा भाषणो का संग्रह भी प्रकाशित किया।

लालाजी सफल पत्रकार भी थे। उन्होंने उर्दू में 'पंजाबी' तथा 'वंदेमातरम्' नामक पत्र निकाले। 1918-20 में उन्होंने न्यूयार्क से 'यंग इण्डिया' नामक एक अंग्रेजी मासिक भी प्रकाशित किया था।

देश की आर्थिक और वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना 1894 में की। बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन इसके मुख्य सचिव रहे थे। लालाजी द्वारा स्थापित भारत लोक सेवक मण्डल (Servants of the People's Society) ने देश के नवजागरण तथा सेवा का अभूतपूर्व कार्य किया है। प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन, भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री तथा पं० अलगूराय शास्त्री जैसे देशभक्तो ने लालाजी से प्रेरणा लेकर ही राष्ट्र-सेवा का पाठ पढ़ा था।

  1. लाला लाजपतराय को आत्माकथा नवयुग ग्रंथमत्स लाहौर से प्रकाशित 1932