रंगभूमि/१

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरञ्जन और विनोद की जगह है। उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकद्दमेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहाने गरीबों का गला घोंटा जाता है। शहर के आस-पास गरीबों की बस्तियाँ होती हैं। बनारस में पाँड़ेपुर ऐसी ही बस्ती है। वहाँ न शहरी दीपकों की ज्योति पहुँचती है, न शहरी छिड़काव के छींटे, न शहरी जल-स्रोतों का प्रवाह। सड़क के किनारे छोटे-छोटे बनियों और हलवाइयों की दुकानें हैं, और उनके पीछे कई इक्केवाले, गाड़ीवान, ग्वाले और मजदूर रहते हैं। दो-चार घर बिगड़े सफेदपोशों के भी हैं, जिन्हें उनकी हीनावस्था ने शहर से निर्वासित कर दिया है। इन्हीं में एक गरीब और अन्धा चमार रहता है, जिसे लोग सूरदास कहते हैं। भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की ज़रूरत होती है, न काम की। सूरदास उनका बना-बनाया नाम है, और भीख माँगना बना-बनाया काम। उनके गुण और स्वभाव भी जगत्-प्रसिद्ध हैं——गाने-बजाने में विशेष रुचि, हृदय में विशेष अनुराग, अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेम उनके स्वाभाविक लक्षण हैं। बाह्य दृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हुई।

सूरदास एक बहुत ही क्षीण-काय, दुर्बल और सरल व्यक्ति था। उसे दैव ने कदाचित्, भीख माँगने ही के लिए बनाया था। वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता, और राहगीरों की जान की खैर मनाता। "दाता, भगवान् तुम्हारा कल्यान करें——" यही उसकी टेक थी, और इसी को वह बार-बार दुहराता था। कदाचित् वह इसे लोगों की दया-प्रेरणा का मंत्र समझता था। पैदल चलनेवालों को यह अपनी जगह पर बैठे-बैठे दुआएँ देता था। लेकिन जब कोई इक्का आ निकलता, तो वह उसके पीछे दौड़ने लगता, और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे। किंतु हवा-गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था। अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी की बातें नहीं सुनतीं। प्रातःकाल से संध्या तक उसका समय शुभ कामनाओं ही में कटता था। यहाँ तक कि माघ-पूस की बदली और वायु तथा जेठ-बैसाख की लू-लपट में भी उसे नागा न होता था।

कार्त्तिक का महीना था। वायु में सुखद शीतलता आ गई थी। संध्या हो चुकी थी। सूरदास अपनी जगह पर मूर्तिवत् बैठा हुआ किसी इक्के या बग्घी के आशाप्रद शब्द पर कान लगाये था। सड़क के दोनों ओर पेड़ लगे हुए थे। गाड़ीवानों ने उनके नीचे गाड़ियाँ ढील दीं। उनके पछाई बैल टाट के टुकड़ों पर खली और भूसा खाने लगे। गाड़ीवानों ने भी उपले जला दिये। कोई चादर पर आटा गूँधता था, कोई गोल-गोल बाटियाँ बनाकर उपलों पर सेंकता था। किसी को बरतनों की जरूरत न थी। सालन के
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लिए धुएँ का भुरता काफी था। और, इस दरिद्रता पर भी उन्हें कुछ चिंता नहीं थी, बैठे बाटियाँ सेंकते और गाते थे। बैलों के गले में बँधी हुई घंटियाँ मजीरों का काम दे रही थीं। गनेस गाड़ीवान ने सूरदास से पूछा——"क्यों भगत, ब्याह करोगे?"

सूरदास ने गरदन हिलाकर कहा——"कहीं है डौल?"

गनेस——"हाँ, है क्यों नहीं। एक गाँव में एक सुरिया है, तुम्हारी ही जाति-बिरादरी की है, कहो तो बातचीत पक्की करूँ। तुम्हारी बरात में दो दिन मजे से बाटियाँ लगें।"

सूरदास——"कोई ऐसी जगह बताते, जहाँ धन मिले, और इस भिखमंगी से पीछा छूटे। अभी अपने ही पेट की चिंता है, तब एक अंधी की और चिंता हो जायगी। ऐसी बेड़ी पैर में नहीं डालता। बेड़ी ही है, तो सोने की तो हो।"

गनेस——"लाख रुपये की मेहरिया न पा जाओगे, रात को तुम्हारे पैर दबायेगी, सिर में तेल डालेगी, तो एक बार फिर जवान हो जाओगे। ये हड्डियाँ न दिखाई देंगी।"

सूरदास——"तो रोटियों का सहारा भी जाता रहेगा। ये हड्डियाँ देखकर ही तो लोगों को दया आती है। मोटे आदमियों को भीख कौन देता है? उलटे और ताने मिलते हैं।"

गनेस——"अजी नहीं, वह तुम्हारी सेवा भी करेगी, और तुम्हें भोजन भी देगी। बेचन साह के यहाँ तेलहन झाड़ेगी, तो चार आने रोज पायेगी।"

सूरदास——"तब तो और भी दुर्गति होगी। घरवाली की कमाई खाकर किसी को मुँह दिखाने लायक भी न रहूँगा।"

सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आई, सूरदास उसके पीछे "दाता, भगवान् तुम्हारा कल्यान करें" कहता हुआ दौड़ा।

फिटन में सामने की गद्दी पर मि॰ जॉन सेवक और उनकी पत्नी मिसेज़ जॉन सेवक बैठी हुई थीं। दूसरी गद्दी पर उनका जवान लड़का प्रभु सेवक और छोटी बहन सोफिया सेवक थी। जॉन सेवक दुहरे बदन के गोरे-चट्टे आदमी थे। बुढ़ापे में भी चेहरा लाल था। सिर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गये थे। पहनावा अँगरेज़ी था, जो उन पर खूब खिलता था। मुख की आकृति से गरूर और आत्मविश्वास झलकता था। मिसेज़ सेवक को काल-गति ने अधिक सताया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं, और उससे हृदय की संकीर्णता टपकती थी, जिसे सुनहरी ऐनक भी न छिपा सकती थी। प्रभु सेवक की मसें भींग रही थीं, छरीरा डील, इकहरा बदन, निस्तेज मुख, आँखों पर ऐनक, चेहरे पर गंभीरता और विचार का गाढ़ा रंग नज़र आता था। आँखों से करुणा की ज्योति-सी निकली पड़ती थी। वह प्रकृति-सौंदर्य का आनन्द उठाता हुआ जान पड़ता था। मिस सोफिया बड़ी-बड़ी रसीली आँखोंवाली, लज्जाशीला युवती थी। देह अति कोमल, मानों पंचभूतों की जगह पुष्पों से उसकी सृष्टि हुई हो। रूप अति सौम्य, मानों लज्जा और
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विनय मूर्तिमान् हो गये हों। सिर से पाँव तक चेतना ही चेतना थी, जड़ का कहीं आभास तक न था।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज़ सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा-"इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जायगा?"

मि० जॉन सेवक बोले-"इस देश के सिर से यह बला न जाने कब टलेगी। जिस देश में भीख माँगना लजा की बात न हो, यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन-वृत्ति बना लें, जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार हो, उसके उद्धार में अभी शताब्दियों की देर है।”

प्रभु सेवक-"यहाँ यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वैदिक काल में राजों के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या-लाभ करते समय भीख माँगकर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे। ज्ञानियों और ऋषियों के लिए भी यह कोई अपमान की बात न थी। किंतु वे लोग माया-मोह से मुक्त रहकर ज्ञान-प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे। उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है। मैंने यहाँ तक सुना है कि कितने ही ब्राहणा, जो जमींदार हैं, घर से खाली हाथ मुकद्दमे लड़ने चलते हैं, दिन-भर कन्या के विवाह के बहाने, या किसी संबंधी की मृत्यु का हीला करके, भीख माँगते हैं, शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैं, पैसे जल्द रुपये बन जाते हैं, और अन्त में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों को जेब में चले जाते हैं।”

मिसेज़ सेवक-“साईस, इस अंधे से कह दे, भाग जाय, पैसे नहीं हैं।"

सोफिया-"नहीं मामा, पैसे हों, तो दे दीजिए। बेचारा आधे मील से दौड़ा आ रहा है, निराश हो जायगा। उसकी आत्मा को कितना दुःख होगा।"

माँ-"तो उससे किसने दौड़ने को कहा था? उसके पैरों में दर्द होता होगा।" सोफिया-"नहीं, अच्छी मामा, कुछ दे दीजिए, बेचारा कितना हाँफ रहा है।"

प्रभु सेक्क ने जेब से केस निकाला; किंतु ताँबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकला, और चाँदी का कोई सिक्का देने में माँ के नाराज़ होने का भय था। बहन से बोले-"सोफी, खेद है, पैसे नहीं निकले। साईस, अंधे से कह दो, धीरे-धीरे गोदाम तक चला आये; वहाँ शायद पैसे मिल जायँ।”

किन्तु सूरदास को इतना संतोष कहाँ? जानता था, गोदाम पर कोई मेरे लिए खड़ा न रहेगा; कहीं गाड़ी आगे बढ़ गई, तो इतनी मिहनत बेकार हो जायगी। गाड़ी का पीछान छोड़ा, पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया। यहाँ तक कि गोदाम आ गया, और फिटन रुकी। सब लोग उतर पड़े। सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गया, जैसे वृक्षों के बीच में हूँठ खड़ा हो। हाँफते-हाँफते बेदम हो रहा था।

मि० जॉन सेवक ने यहाँ चमड़े की आढ़त खोल रखी थी। ताहिरअली नाम का
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एक व्यक्ति उनका गुमाश्ता था। बरामदे में बैठा हुआ था। साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया।

जॉन सेवक ने पूछा—"कहिए खाँ साहब, चमड़े की आमदनी कैसी है?"

ताहिर—“हुजूर, अभी जैसी होनी चाहिए, वैसी तो नहीं है, मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी।

जॉन सेवक—"कुछ दौड़-धूप कीजिए, एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा। आस-पास के देहातों का चक्कर लगाया कीजिए। मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दूकान खुलवा दूँ। तब आसपास के चमार यहाँ रोज़ आयेंगे, और आपको उनसे मेल-जोल पैदा करने का मौका मिलेगा। आजकल इन छोटी-छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता। मुझी को देखिए, ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा, जिस दिन शहर के दो-चार धनी-मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो। दस हजार की भी एक पालिसी मिल गई, तो कई दिनों की दौड़-धूप ठिकाने लग जाती है।"

ताहिर—"हुजूर, मुझे खुद फिक्र है। क्या जानता नहीं हूँ कि मालिक को चार पैसे का नफा न होगा, तो वह यह काम करेगा ही क्यों? मगर हुजूर ने मेरो जो तनख्वाह मुकर्रर की है, उसमें गुजर नहीं होता। बीस रुपये का तो गल्ला भी काफी नहीं होता, और सब ज़रूरतें अलग। अभी आपसे कुछ कहने की हिम्मत तो नहीं पड़ती; मगर आपसे न कहूँ, तो किससे कहूँ।"

जॉन सेवक—"कुछ दिन काम कीजिए, तरक्की होगी न। कहाँ है आपका हिसाबकिताब, लाइए, देखूँ।"

यह कहते हुए जॉन सेवक बरामदे में एक टूटे हुए मोढ़े पर बैठ गये। मिसेज सेवक कुर्सी पर बैठीं। ताहिरअली ने हिसाब की बही सामने लाकर रख दी। साहब उसकी जाँच करने लगे। दो-चार पन्ने उलट-पलटकर देखने के बाद नाक सिकोड़कर बोले"अभी आपको हिसाब-किताब लिखने का सलीका नहीं है, उस पर आप कहते हैं, तरक्की कर दीजिए। हिसाब बिलकुल आईना होना चाहिए; यहाँ तो कुछ पता ही नहीं चलता कि आपने कितना माल खरीदा, और कितना माल रवाना किया। खरीदार को प्रति खाल एक आना दस्तूरी मिलती है, वह कहीं दर्ज ही नहीं है!”

ताहिर--"क्या उसे भी दर्ज कर दूँ?"

जॉन सेवक—"क्यों, वह मेरी आमदनी नहीं है?"

ताहिर—"मैंने तो समझा है, वह मेरा हक है।"

जॉन सेवक—"हरगिज़ नहीं, मैं आप पर गबन का मामला चला सकता हूँ। (त्योरियाँ बदलकर) मुलाजिमों का हक है! खूब! आपका हक है तनख्वाह, इसके सिवा आपका कोई हक नहीं।"

ताहिर—“हुजूर, अब आइंदा ऐसी गलती न होगी।" [  ]जॉन सेवक—"अब तक आपने इस मद में जो रकम वसूल की है, वह आमदनी में दिखाइए। हिसाब किताब के मामले में मैं ज़रा भी रिआयत नहीं करता।

ताहिर--"हुजूर, बहुत छोटी रकम होगी।"

जॉन सेवक—"कुछ मुज़ायका नहीं, एक ही पाई सही; वह सब आपको भरनी पड़ेगी। अभी वह रकम छोटी है, कुछ दिनों में उसकी तादाद सैकड़ों तक पहुँच जायगी। उस रकम से मैं यहाँ एक संडे स्कूल खोलना चाहता हूँ। समझ गये? मेंम साहब की यह बड़ी अभिलाषा है। अच्छा चलिए, वह जमीन कहाँ है, जिसका आपने जिक्र किया था?

गोदाम के पीछे की ओर एक विस्तृत मैदान था। यहाँ आस-पास के जानवर चरने आया करते थे।जॉन सेवक यह ज़मीन लेकर यहाँ सिगरेट बनाने का एक कारखाना खोलना चाहते थे। प्रभु सेवक को इसी व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा था। जॉन सेवक के साथ प्रभु सेवक और उनकी माता भी ज़मीन देखने चलीं। पिता और पुत्र ने मिलकर जमीन का विस्तार नापा। कहाँ कारखाना होगा, कहाँ गोदाम, कहाँ दस्तर, कहाँ मैनेजर का बँगला, कहाँ श्रमजीवियों के कमरे, कहाँ कोयला रखने की जगह और कहाँ से पानी आयेगा, इन विषयों पर दोनों आदमियों में देर तक बातें होती रहीं। अंत में मिस्टर सेवक ने ताहिरअली से पूछा-"यह किसकी ज़मीन है?"

ताहिर—“हुजूर, यह तो ठीक नहीं मालूम, अभी चलकर यहाँ किसी से पूछ लूँगा; शायद नायकराम पण्डा की हो।"

साहब—"आप उससे यह जमीन कितने में दिला सकते हैं?"

ताहिर—"मुझे तो इसमें भी शक है कि वह इसे बेचेगा भी।"

जॉन सेवक—"अजी, बेचेगा उसका बाप, उसकी क्या हस्ती है? रुपये के सत्तरह आने दीजिए, और आसमान के तारे मँगवा लीजिए। आप उसे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उससे बातें कर लूँगा।"

प्रभु सेवक—"मुझे तो भय है कि यहाँ कच्चा माल मिलने में कठिनाई होगी। इधर लोग तंबाकू की खेती कम करते हैं।"

जॉन सेवक—"कच्चा माल पैदा करना तुम्हारा काम होगा। किसान को ऊख या जौ-गेहूँ से कोई प्रेम नहीं होता। वह जिस जिन्स के पैदा करने में अपना लाभ देखेगा, वही पैदा करेगा। इसकी कोई चिंता नहीं है। खाँ साहब, आप उस पण्डे को मेरे पास कल ज़रूर भेज दीजिएगा।"

ताहिर—“बहुत खूब, उसे कहूँगा।"

जॉन सेवक—"कहूँगा नहीं, उसे भेज दीजिएगा। अगर आपसे इतना भी ने ही सका, तो मैं समझूँगा, आपको सौदा पटाने का ज़रा भी ज्ञान नहीं।"

मिसेज़ सेवक—(अंगरेजी में) "तुम्हें इस जगह पर कोई अनुभवी आदमी रखना चाहिए था।" [ १० ]जॉन सेवक—(अँगरेजी में) "नहीं, मैं अनुभवी आदमियों से डरता हूँ। वे अपने अनुभव से अपना फायदा सोचते हैं, तुम्हें फायदा नहीं पहुँचाते। मैं ऐसे आदमियों से कोसों दूर रहता हूँ।"

ये बातें करते हुए तीनों आदमी फिटन के पास आये। पीछे-पीछे ताहिरअली भी थे। यहाँ सोफिया खड़ी सूरदास से बातें कर रही थी। प्रभु सेवक को देखते ही बोली'प्रभु, यह अंधा तो कोई ज्ञानी पुरुष जान पड़ता है, पूरा फिलॉसफर है।"

मिसेज़ सेवक—"तू जहाँ जाती है, वहीं तुझे कोई-न-कोई ज्ञानी आदमी मिल जाता है। क्यों रे अंधे, तू भीख क्यों माँगता है? कोई काम क्यों नहीं करता?"

सोफिया—(अँगरेजी में)"मामा, यह अंधा निरा गँवार नहीं है।"

सूरदास को सोफिया से सम्मान पाने के बाद ये अपमान-पूर्ण शब्द बहुत बुरे मालूम हुए। अपना आदर करनेवालों के सामने अपना अपमान कई गुना असह्य हो जाता है। सिर उठाकर बोला-"भगवान् ने जन्म दिया है, भगवान् की चाकरी करता हूँ। किसी दूसरे की ताबेदारी अब नहीं हो सकती।"

मिसेज़ सेवक—"तेरे भगवान् ने तुझे अंधा क्यों बना दिया है इसलिए कि तू भीख माँगता फिरे? तेरा भगवान् बड़ा अन्यायी है।"

सोफिया—(अँगरेजी में) "मामा, आप इसका इतना अनादर कर रही हैं कि मुझे शर्म आती है।"

सूरदास—"भगवान् अन्यायी नहीं है, मेरे पूर्व जन्म की कमाई ही ऐसी थी। जैसे कर्म किये हैं, वैसे फल भोग रहा हूँ। यह सब भगवान् की लीला है। वह बड़ा खिलाड़ी है। घरौंदे बनाता-बिगाड़ता रहता है। उसे किसी से बैर नहीं। वह क्यों किसी पर अन्याय करने लगा?"

सोफिया—"मैं अगर अंधी होती, तो खुदा को कभी माफ न करती।"

सूरदास—“मिस साहब, अपने पाप सबको आप भोगने पड़ते हैं, भगवान् का इसमें , कोई दोष नहीं।"

सोफिया—"मामा, यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। अगर प्रभु ईसू ने अपने रुधिर से हमारे पापों का प्रायश्चित्त कर दिया, तो फिर सारे ईसाई समान दशा में क्यों नहीं हैं? अन्य मतावलंबियों की भाँति हमारी जाति में भी अमीर-गरीब, अच्छे-बुरे, लँगड़े-लूले, सभी तरह के लोग मौजूद हैं। इसका क्या कारण है?"

मिसेज़ सेवक ने अभी कोई उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा—“मिस साहब, अपने पापों का प्रायश्चित्त हमें आप करना पड़ता है। अगर आज मालूम हो जाय कि किसी ने हमारे पापों का भार अपने सिर ले लिया, तो संसार में अंधेर मच जाय।"

मिसेज सेवक—"सोफी, बड़े अफसोस की बात है कि इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं आती, हालाँकि रेवरेंड पिम ने स्वयं कई बार तेरी शंका का समाधान किया है।" [ ११ ]प्रभु सेवक-(सूरदास से) "तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए। क्यों?"

सूरदास-"हाँ, जब तक हम वैरागी न होंगे, दुःख से नहीं बच सकते।"

जॉन सेवक-"शरीर में भभूत मलकर भीख माँगना स्वयं सबसे बड़ा दुःख है; यह हमें दुःखों से क्योंकर मुक्त कर सकता है?"

सूरदास-"साहब, वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख माँगने की ज़रूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने और जटा बढ़ाने को पाखण्ड बताया है । बैराग तो मन से होता है संसार में रहे, पर संसार का होकर न रहे। इसी को बैराग कहते हैं।"

मिसेज सेवक-"हिंदुओं ने ये बातें यूनान के Stoics से सीखी हैं; किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है। यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दुःख-सुख का असर न पड़े। इसी अंधे को अगर इस वक्त पैसे न मिले, तो दिल में हजारों गालियाँ देगा।"

जॉन सेवक-"हाँ, इसे कुछ मत दो, देखो, क्या कहता है। अगर ज़रा भी भुनभुनाया, तो हंटर से बातें करूँगा। सारा बैराग भूल जायगा। माँगता है भीख, धेले-धेले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता है, उस पर दावा यह है कि मैं वैरागी हूँ। (कोचवान से) गाड़ी फेरो, क्लब होते हुए बँगले चलो।”

सोफिया-"मामा, कुछ तो जरूर दे दो, बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था ।”

प्रभु सेवक—“ओहो, मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही।"

जॉन सेवक—"हरगिज नहीं, कुछ मत दो, मैं इसे बैराग का सबक देना चाहता हूँ।"

गाड़ी चली। सूरदास निराशा की मूर्ति बना हुआ अंधी आँखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहा, मानों उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है। वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे-पीछे चला। सहसा सोफिया ने कहा--"सूरदास, खेद है, मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं। फिर कभी आऊँगी, तो तुम्हे इतना निराश न होना पड़ेगा।"

अन्धे सूक्ष्मदर्शी होते हैं। सूरदास स्थिति को भली भाँति समझ गया। हृदय को क्लेश तो हुआ, पर बेपरवाही से बोला-"मिस साहब, इसकी क्या चिंता? भगवान् तुम्हारा कल्यान करें। तुम्हारी दया चाहिए, मेरे लिए यही बहुत है।"

सोफिया ने माँ से कहा—"मामा, देखा आपने, इसका मन ज़रा भी मैला नहीं हुआ।"

प्रभु सेवक—"हाँ, दुखी तो नहीं मालूम होता।"

जॉन सेवक—"उसके दिल से पूछो।"

मिसेज सेवक—“गालियाँ दे रहा होगा।" [ १२ ]
गाड़ी अभी धीरे-धीरे चल रही थी। इतने में ताहिरअली ने पुकारा-"हुजूर, यह जमीन पण्डा की नहीं, सूरदास की है। यह कह रहे हैं।"

साहब ने गाड़ी रुकवा दी, लजित नेत्रों से मिसेज सेवक को देखा, गाड़ी से उतरकर सूरदास के पास आये, और नम्र भाव से बोले-"क्यों सूरदास, यह जमीन तुम्हारी है?"

सूरदास-"हाँ हुजूर, मेरी ही है। बाप-दादों की इतनी ही तो निसानी बच रही है।"

जॉन सेवक-"तब तो मेरा काम बन गया। मैं चिंता में था कि न-जाने कौन इसका मालिक है। उससे सौदा पटेगा भी या नहीं। जब तुम्हारी है, तो फिर कोई चिंता नहीं। तुम-जैसे त्यागी और सजन आदमी से ज्यादा झंझट न करना पड़ेगा। जब तुम्हारे पास इतनी जमीन है, तो तुमने यह भेष क्यों बना रखा है?"

सूरदास-"क्या करूँ हुजूर, भगवान् की जो इच्छा है, वह कर रहा हूँ।"

जॉन सेवक-"तो अब तुम्हारी विपत्ति कट जायगी। बस, यह जमीन मुझे दे दो। उपकार का उपकार, और लाभ का लाभ। मैं तुम्हें मुँह-माँगा दाम दूँगा।"

सूरदास-"सरकार, पुरुखों की यही निसानी है, बेचकर उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगा?"

जॉन सेवक-"यहीं सड़क पर एक कुआँ बनवा दूँगा। तुम्हारे पुरुखों का नाम चलता रहेगा।"

सूरदास-"साहब, इस ज़मीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल-भर चरी नहीं है। आस-पास के सब ढोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूँगा, तो ढोरों के लिए कोई ठिकाना न रह जायगा।”

जॉन सेवक-"कितने रुपये साल चराई:के पाते हो?"

सूरदास--"कुछ नहीं, मुझे भगवान् खाने-भर को यों ही दे देते हैं, तो किसी से चराई क्या लूँ? किसी का और कुछ उपकार नहीं कर सकता, तो इतना ही सही।"

जॉन सेवक-(आश्चर्य से) "तुमने इतनी जमीन यों ही चराई के लिए छोड़ रखी है? सोफिया सत्य कहती थी कि तुम त्याग की मूर्ति हो। मैंने बड़ों-बड़ों में इतना त्याग नहीं देखा। तुम धन्य हो! लेकिन जब पशुओं पर इतनी दया करते हो, तो मनुष्यों को कैसे निराश करोगे? मैं यह जमीन लिए बिना तुम्हारा गला न छोड़ेंगा।"

सूरदास-"सरकार, यह जमीन मेरी है जरूर, लेकिन जब तक मुहल्लेवालों से पूछ न लूँ, कुछ कह नहीं सकता। आप इसे लेकर क्या करेंगे?"

जॉन सेवक--"यहाँ एक कारखाना खोलूँगा, जिससे देश और जाति की उन्नति होगी, गरीबों का उपकार होगा, हजारों आदमियों को रोटियाँ चलेंगी। इसका यश भी तुम्ही को होगा।"

सूरदास-"हुजूर, मुहल्लेवालों से पूछे बिना मैं कुछ नहीं कह सकता।"

जॉन सेवक-"अच्छी बात है, पूछ लो। मैं फिर तुमसे मिलूँगा। इतना समझ रखो कि मेरे साथ सौदा करने में तुम्हें घाटा न रहेगा। तुम जिस तरह से खुश होगे, उसी
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तरह खुश करूँगा। यह लो (जेब से पाँच रुपये निकालकर), मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया था, उस अपमान को क्षमा करो।"

सूरदास—"हुजूर, मैं रुपये लेकर क्या करूँगा? धर्म के नाते दो-चार पैसे दे दीजिए, तो आपका कल्यान मनाऊँगा। और किसी नाते से मैं रुपये न लूँगा।"

जॉन सेवक—"तुम्हें दो-चार पैसे क्या दूँ? इसे ले लो, धर्मार्थ ही समझो।"

सूरदास—"नहीं साहब, धर्म में आपका स्वार्थ मिल गया है, अब यह धर्म नहीं रहा।"

जॉन सेवक ने बहुत आग्रह किया, किंतु सूरदास ने रुपये नहीं लिये। तब वह हारकर गाड़ी पर जा बैठे।

मिसेज़ सेवक ने पूछा--"क्या बातें हुई?"

जॉन सेवक—"है तो भिखारी, पर बड़ा घमंडी है। पाँच रुपये देता था, न लिये।"

मिसेज़ सेवक—"है कुछ आशा?"

जॉन सेवक—"जितना आसान समझता था, उतना आसान नहीं है।" गाड़ी तेज हो गई।