रंगभूमि/१६

विकिस्रोत से
रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
[ १९३ ]

[१६]

अरावली की पहाड़ियों में एक वट-वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन-शून्य, कठोर, निष्प्रभ, पाषाणमय स्थान को प्रेम, प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया है, मानों कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो। किंतु विनय की दृष्टि इस प्राकृतिक सौंदर्य की ओर नहीं; वह चिंता की उस दशा में हैं, जब आँखें खुली रहती हैं और कुछ नहीं सूझता, कान खुले रहते हैं और कुछ सुनाई नहीं देता; बाह्य चेतना शून्य हो गई है। उनका मुख निस्तेज हो गया है, शरीर इतना दुर्बल कि पसलियों की एक-एक हड्डी गिनी जा सकती है।

हमारी अभिलाषाएँ ही जीवन का स्रोत हैं; उन्हों पर तुषार-पात हो जाय, तो जीवन का प्रवाह क्यों न शिथिल हो जाय।

उनके अंतस्तल में निरंतर भीषण संग्राम होता रहता है। सेवा-मार्ग उनका ध्येय था। प्रेम के काँटे उसमें बाधक हो रहे थे। उन्हें अपने मार्ग से हटाने के लिए वह सदैव यत्न करते रहते हैं। कभी-कभी वह आत्मग्लानि से विकल होकर सोचते हैं, सोफी ने मुझे उस अग्नि-कुंड से निकाला ही क्यों। बाहर की आग केवल देह का नाश करती है, जो स्वयं नश्वर है, भीतर की आग अनंत आत्मा का सर्वनाश कर देती है।

विनय को यहाँ आये कई महीने हो गये; पर उनके चित्त की अशांति समय के साथ बढ़ती ही जाती है। वह आने को तो यहाँ लज्जा-वश आ गये थे; पर एक-एक घड़ी एक-एक युग के समान बीत रही है। पहले उन्होंने यहाँ के कष्टों को खूब बढ़ा-बढ़ाकर अपनी माता को पत्र लिखे। उन्हें विश्वास था कि अम्माजी मुझे बुला लेंगी। पर वह मनोरथ पूरा न हुआ। इतने ही में सोफिया का पत्र मिल गया, जिसने उनके धैर्य के टिमटिमाते हुए दीपक को बुझा दिया। अब उनके चारों ओर अँधेरा था। वह इस अँधेरे में चारों ओर टटोलते फिरते थे और कहीं राह न पाते थे। अब उनके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है। कोई निश्चित मार्ग नहीं है, माँझी की नाव है, जिसे एकमात्र तरंगों की दया का ही भरोसा है।

किंतु इस चिंता और ग्लानि की दशा में भी वह यथासाध्य अपने कर्तव्य का पालन करते जाते हैं। जसवंतनगर के प्रांत में एक बच्चा भी नहीं है, जो उन्हें न पहचानता हो। देहात के लोग उनके इतने भक्त हो गये हैं कि ज्यों हा वह किसी गाँव में जा पहुँचते हैं, सारा गाँव उनके दर्शनों के लिए एकत्र हो जाता है। उन्होंने उन्हें अपनी मदद आप करना सिखाया है। इस प्रांत के लोग अब वन्य जंतुओं को भगाने के लिए पुलिस के यहाँ नहीं दौड़े जाते, स्वयं संगठित होकर उन्हें भगाते हैं; जरा-जरा-सी बात पर अदालतों के द्वार नहीं खटखटाने जाते, पंचायतों में समझौता कर लेते हैं; जहाँ कभी कुएँ न थे, वहाँ अब पक्के कुएँ तैयार हो गये हैं; सफाई की ओर भी लोग ध्यान देने लगे
[ १९४ ]
हैं, दरवाजों पर कूड़े-करकट के ढेर नहीं जमा किये जाते। सारांश यह कि प्रत्येक व्यक्ति अब केवल अपने ही लिए नहीं, दूसरों के लिए भी है; वह अब अपने को प्रतिद्वंद्वियों से घिरा हुआ नहीं, मित्रों और सहयोगियों से घिरा हुआ समझता है। सामहिक जीवन का पुनरुद्धार होने लगा है।

विनय को चिकित्सा का भी अच्छा ज्ञान है। उनके हाथों सैकड़ों रोगी आरोग्य-लाभ कर चुके हैं। कितने ही घर, जो परस्पर के कलह से बिगड़ गये थे, फिर आबाद हो गये हैं। ऐसी अवस्था में उनका जितना सेवा-सत्कार करने के लिए लोग तत्पर रहते हैं, उसका अनुमान करना कठिन नहीं; पर सेवकों के भाग्य में सुख कहाँ? विनय को रूखी रोटियों और वृक्ष की छाया के अतिरिक्त और किसी वस्तु से प्रयोजन नहीं। इस त्याग और विरक्ति ने उन्हें उस प्रांत में सर्वमान्य और सर्वप्रिय बना दिया है।

किंतु ज्यों-ज्यों उनमें प्रजा की भक्ति होती जा रही है, प्रजा पर उनका प्रभाव बढ़ता जाता है, राज्य के अधिकारिवर्ग उनसे बदगुमान होते जाते हैं। उनके विचार में प्रजा दिन-दिन सरकश होती जाती है। दारोगाजी की मुट्ठियाँ अब गर्म नहीं होती, कामदार और अन्य कर्मचारियों के यहाँ मुकदमे नहीं आते, कुछ हत्थे नहीं चढ़ता; यह प्रजा में विद्रोहात्मक भाव के लक्षण नहीं, तो क्या हैं? ये ही विद्रोह के अकुर हैं, इन्हें उखाड़ देने ही में कुशल है।

जसवंतनगर से दरवार को नित्य नई-नई सूचनाएँ-कुछ यथार्थ, कुछ कल्पित-भेजी जाती हैं, और विनयसिंह को जाब्ते के शिकंजे में खींचने का आयोजन किया जाता है। दरबार ने इन सूचनाओं से आशंकित होकर कई गुप्तचरों को विनय के आचार-विचार की टोह लगाने के लिए तैनात कर दिया है; पर उनकी निःस्पृह सेवा किसी को उन पर आघात करने का अवसर नहीं देती।

विनय के पाँव में बेवाय फटी हुई थी; चलने में कष्ट होता था। बरगद के नीचे ठंडी-ठंडी हवा जो लगी, तो बैठे-बैठे सो गये। आँख खुली, तो दोपहर ढल चुका था। झपटकर उठ बैठे, लकड़ी सँमाली और आगे बढ़े। आज उन्होंने जसवंतनगर में विश्राम करने का विचार किया था। दिन भागा चला जाता था। तीसरे पहर के बाद सूर्य की गति तीव्र हो जाती है। संध्या होती जाती थी और अभी जसवंतनगर का कहीं पता न था। इधर बेवाय के कारण एक-एक कदम उठाना दुस्सह था। हैरान थे कि क्या करूँ। किसी किसान का झोपड़ा भी नजर न आता था कि वहीं रात काटें। पहाड़ों में सूर्यास्त ही से हिंसक पशुओं की आवाजें सुनाई देने लगती हैं। इसी हैसबैस में पड़े हुए थे कि सहसा उन्हें दूर से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। उसे देखकर वह इतने प्रसन्न हुए कि अपनी राह छोड़कर कई कदम उसकी तरफ चले। समीप आया, तो मालूम हुआ कि डाकिया है। वह विनय को पहचानता था। सलाम करके बोला-"इस चाल से तो आप आधी रात को भी जसवंतनगर न पहुँचेंगे।"

विनय-"पैर में बेवाय फट गई है, चलते नहीं बनता। तुम खूब मिले। मैं बहुत
[ १९५ ]
घबरा रहा था कि अकेले कैसे जाऊँगा। अब एक से दो हो गये, कोई चिंता नहीं है। मेरा भी कोई पत्र है?"

डाकिये ने विनयसिंह के हाथ में एक पत्र रख दिया। रानीजी का पत्र था। यद्यपि अँधेरा हो रहा था, पर विनय इतने उत्सुक हुए कि तुरंत लिफाफा खोलकर पत्र पढ़ने लगे। एक क्षण में उन्होंने पत्र समाप्त कर दिया और तब एक ठंडी साँस भरकर लिफाफे में रख दिया। उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि गिरने का भय हुआ। जमीन पर बैठ गये। डाकिये ने घबराकर पूछा-"क्या कोई बुरा समाचार है? आपका चेहरा पीला पड़ गया है।"

विनय-"नहीं, कोई ऐसी खबर नहीं। पैरों में दर्द हो रहा है, शायद मैं आगे न जा सकूँगा!"

डाकिया-"यहाँ इस बीहड़ में अकेले कैसे पड़े रहिएगा?"

विनय-"डर क्या है!"

डाकिया- "इधर जानवर बहुत हैं, अभी कल एक गाय उठा ले गये।"

विनय-"मुझे जानवर भी न पूछेगे, तुम जाओ, मुझे यहीं छोड़ दो।”

डाकिया-"यह नहीं हो सकता, मैं भी यहीं पड़ रहूँगा।"

विनय-"तुम मेरे लिए क्यों अपनी जान संकट में डालते हो? चले जाओ, घड़ी रात गये तक पहुँच जाओगे।"

डाकिया-'मैं तो तभी जाऊँगा, जब आप भी चलेंगे। मेरी जान की कौन हस्ती है। अपना पेट पालने के सिवा ओर क्या करता हूँ। आपके दम से हजारों का भला होता है। जब आपको अपनी चिंता नहीं है, तो मुझे अपनी क्या चिंता है।"

विनय—"भाई, मैं तो मजबूर हूँ। चला ही नहीं जाता।"

डाकिया--"मैं आपको कंधे पर बैठाकर ले चलूँगा; पर यहाँ न छोडूँगा।"

विनय—"भाई, तुम बहुत दिक कर रहे हो। चलो, लेकिन मैं धीरे-धीरे चलूँगा। तुम न होते, तो आज मैं यहीं पड़ रहता।”

डाकिया—“आप न होते, तो मेरी जान की कुशल न थी। यह न समझिए कि मैं केवल आपकी खातिर इतनी जिद कर रहा हूँ, मैं इतना पुण्यात्मा नहीं हूँ। अपनो रक्षा के लिए आपको साथ लिये चलता हूँ। (धीरे से) मेरे पास इस वक्त ढाइ सो रुपये हैं। दोपहर को एक जगह सो गया, बस देर हो गई। आप मेरे भाग्य से मिल गये, नहीं तो डाकुओं से जान न बचती।"

विनय—"यह तो बड़े जोखिम की बात है। तुम्हारे पास कोई हथियार है?"

डाकिया--"मेरे हथियार आप हैं। आपके साथ मुझे कोई खटका नहीं है। आपको देखकर किसी डाकू की मजाल नहीं कि मुझ पर हाथ उठा सके। आपने डकैतों को भी वश में कर लिया है।" सहसा धोड़ों की टाप की आवाज कान में आई। डाकिये ने घबराकर पीछे देखा।

१३ [ १९६ ]
पाँच सवार भाले उठाये, घोड़े बढ़ाये चले आते थे। उसके होश उड़ गये, काटो, तो बदन में लहू नहीं। बोला-"लीजिए, सब आ ही पहुँचे। इन सबों के मारे इधर रास्ता चलना कठिन हो गया है। बड़े हत्यारे हैं। सरकारी नौकरों को तो छोड़ना ही नहीं जानते। अब आप ही बचायें, तो मेरी जान बच सकती है।”

इतने में पाँचो सवार सिर पर आ पहुँचे। उनमें से एक ने पुकारा-"अबे, ओ डाकिये, इधर आ, तेरे थैले में क्या है?”

विनयसिंह जमीन पर बैठे हुए थे। लकड़ी टेककर उठे कि इतने में एक सवार ने डाकिये पर भाले का वार किया। डाकिया सेना में रह चुका था। वार को थैले पर रोका। भाला थैले के वार-पार हो गया। वह दूसरा वार करनेवाला ही था कि विनय सामने आकर बोले-"भाइयो, यह क्या अंधेर करते हो! क्या थोड़े-से रुपयों के लिए एक गरीब की जान ले लोगे?"

सवार-“जान इतनी प्यारी है, तो रुपये क्यों नहीं देता?"

विनय-"जान भी प्यारी है और रुपये भी प्यारे हैं। दो में से एक भी नहीं दे सकता।"

सवार-"तो दोनों ही देने पड़ेगे।"

विनय-"तो पहले मेरा काम तमाम कर दो। जब तक मैं हूँ, तुम्हारा मनोरथ न पूरा होगा।"

सवार-"हम साधु-संतों पर हाथ नहीं उठाते। सामने से हट जाओ।"

विनय-"जब तक मेरी हड्डियाँ तुम्हारे घोड़ों के पैरों-तले न रौंदी जायँगी, मैं सामने से न हटूँगा।"

सवार- "हम कहते हैं, सामने से हट जाओ। क्यों हमारे सिर हत्या का पाप लगाते हो?”

विनय-"मेरा जो धर्म है, वह मैं करता हूँ; तुम्हारा जो धर्म हो, वह तुम करो। गरदन झुकाये हुए हूँ।"

दूसरा सवार-"तुम कौन हो?"

तीसरा सवार-"बेधा हुआ है, मार दो एक हाथ, गिर पड़े, प्रायश्चित्त कर लेंगे।"

पहला सवार—"आखिर तुम हो कौन?"

विनय—"मैं कोई हूँ, तुम्हें इससे मतलब?"

दूसरा सवार—“तुम तो इधर के रहनेवाले नहीं जान पड़ते। क्यों बे डाकिये, यह कौन हैं?"

डाकिया—"यह तो नहीं जानता, पर इनका नाम है विनयसिंह। धर्मात्मा और परोपकारी आदमी हैं। कई महीनों से इस इलाके में ठहरे हुए हैं।"

विनय का नाम सुनते ही पाँचों सवार घोड़ों से कूद पड़े और विनय के सामने हाथ बाँधकर सड़े हो गये। सरदार ने कहा-"महाराज, हमारा अपराध क्षमा कीजिए। [ १९७ ]
हमने आपका नाम सुना है। आज आपके दर्शन पाकर हमारा जीवन सफल हो गया। इस इलाके में आपका यश घर-घर गाया जा रहा है। मेरा लड़का घोड़े से गिर पड़ा था। पसली की हड्डी टूट गई थी। जीने की कोई आशा न थी। आप ही के साथ के एक महाराज हैं इन्द्रदत्त। उन्होंने आकर लड़के को देखा, तो तुरंत मरहम-पट्टी की और एक महीने तक रोज आकर उसकी दवा-दारू करते रहे। लड़का चंगा हो गया। मैं तो प्राण भी दे दूँ, तो आपसे उऋण नहीं हो सकता। अब हम पापियों का उद्धार कीजिए। हमें आज्ञा दीजिए कि आपके चरणों की रज माथे पर लगायें। हम तो इस योग्य भी नहीं हैं।"

विनय ने मुस्किराकर कहा-“अब तो डाकिये की जान न लोगे? तुमसे हमें डर लगता है।"

सरदार-"महाराज, हमें अब लज्जित न कीजिए। हमारा अपराध क्षमा कीजिए। डाकिया महा शय, तुम आज किसी भले आदमी का मुँह देखकर उठे थे, नहीं तो अब तक तुम्हारा प्राण-पखेरू आकाश में उड़ता होता। मेरा नाम सुना है न? वीरपालसिंह मैं ही हूँ, जिसने राज्य के नौकरों को नेस्तनाबूद करने का प्रण कर लिया है।"

विनय-राज्य के नौकरों पर इतना अत्याचार क्यों करते हो?"

वीरपाल-"महाराज, आप तो कई महीनों से इस इलाके में हैं, क्या आपको इन लोगों की करतूतें मालूम नहीं हैं? ये लोग प्रजा को दोनों हाथों से लूट रहे हैं। इनमें न दया है, न धर्म। हैं हमारे ही भाई-बंद, पर हमारी ही गरदन पर छुरी चलाते हैं। किसी ने जरा साफ कपड़े पहने, और ये लोग उसके सिर हुए। जिसे धूस न दीजिए, वही आपका दुश्मन है। चोरी कीजिए, डाके डालिए, घरों में आग लगाइए, गरीबों का गला काटिए, कोई आपसे न बोलेगा। बस, कर्मचारियों की मुट्ठियाँ गर्म करते रहिए। दिन-दहाड़े खून कीजिए, पर पुलिस की पूजा कर दीजिए, आप बेदाग छूट जायेंगे, आपके बदले कोई बेकसूर फाँसी पर लटका दिया जायगा। कोई फरियाद नहीं सुनता। कौन सुने, सभी एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं। यही समझ लीजिए कि हिंसक जन्तुओं का एक गोल है, सब-के-सब मिलकर शिकार करते हैं और मिल-जुलकर खाते हैं। राजा है, वह काठ का उल्लू। उसे विलायत में जाकर विद्वानों के सामने बड़े-बड़े व्याख्यान देने की धुन है। मैंने यह किया और वह किया, बस, डींगे मारना उसका काम है। या तो विलायत की सैर करेगा, या यहाँ अँगरेजों के साथ शिकार खेलेगा, सारे दिन उन्हीं कि जूतियाँ सीधी करेगा। इसके सिवा उसे कोई काम नहीं, प्रजा जिये या मरे, उसकी बला से। बस, कुशल इसी में है कि कर्मचारी जिस कल बैठाये, उसी कल बैठिए, शिकायत न कीजिए, जबान न हिलाइए; रोइए, तो मुँह बन्द करके। हमने लाचार होकर इस हत्या-मार्ग पर पग रखा है। किसी तरह तो इन दुष्टों की आँस्ने खुलें। इन्हें मालूम हो कि हमें भी दंड देनेवाला कोई है। ये पशु से मनुष्य हो जाय।

विनय—"मुझे यहाँ की स्थिति का कुछ ज्ञान तो था; पर यह न मालूम था कि
[ १९८ ]
दशा इतनी शोचनीय है। मैं अब स्वयं राजा साहब से मिलूँगा और यह सारा वृत्तांत उनसे कहूँगा।"

वीरपाल-"महाराज, कहीं ऐसी भूल भी न कीजिएगा, नहीं तो लेने के देने पड़ जायगे। यह अंधेर-नगरी है। राजा में इतना ही विवेक होता, तो राज्य की यह दशा ही क्यों होती १ वह उलटे आप ही के सिर हो जायगा।"

विनय-"इसकी चिन्ता नहीं। सन्तोष तो हो जायगा कि मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया! मुझे तुमसे भी कुछ कहना है। तुम्हारा यह विचार कि इन हत्याकाण्डों से अधिकारिवर्ग प्रजापरायण हो जायगा; मेरी समझ में निर्मूल और भ्रम-पूर्ण है। रोग का अन्त करने के लिए रोगी का अन्त कर देना न बुद्धि-संगत है, न न्याय-संगत। आग आग से शान्त नहीं होती, पानी से शान्त होती है।"

वीरपाल-"महाराज, हम आपसे तर्क तो नहीं कर सकते; पर इतना जानते हैं कि विष विष ही से शान्त होता है। जब मनुष्य दुष्टता की चरम सीमा पर पहुँच जाता है, उसमें दया और धर्म लुप्त हो जाता है, जब उसके मनुष्यत्व का सर्वनाश हो जाता है, जब वह पशुओं के-से आचरण करने लगता है, जब उसमें आत्मा की ज्योति मलिन हो जाती है, तब उसके लिए केवल एक ही उपाय शेष रह जाता है, और वह है प्राण-दंड। व्याघ्र-जैसे हिंसक पशु सेवा से वशीभूत हो सकते हैं! पर स्वार्थ को कोई दैविक शक्ति परास्त नहीं कर सकती।"

विनय-"ऐसी शक्ति है तो। हाँ, केवल उसका उचित उपयोग करना चाहिए।"

विनय ने अभी बात भी न पूरी की थी कि अकस्मात् किसी तरफ से बन्दूक की आवाज कानों में आई। सवारों ने चौंककर एक दूसरे की तरफ देखा और एक तरफ घोड़े छोड़ दिये। दम-के-दम में घोड़े पहाड़ों में जाकर गायब हो गये। विनय की समझ में कुछ न आया कि बन्दूक की आवाज कहाँ से आई और पाँचो सवार क्यों भागे।

डाकिये से पूछा-"ये सब किधर जा रहे हैं?"

डाकिया--"बन्दूक की आवाज ने किसी शिकार की खबर दी होगी, उसी तरफ गये हैं। आज किसी सरकारी नौकर की जान पर जरूर बनेगी।"

विनय-"अगर यहाँ के कर्मचारियों का यही हाल है, जैसा इन्होंने बयान किया, तो मुझे बहुत जल्द महाराज की सेवा में जाना पड़ेगा।"

डाकिया-"महाराज, अब आपसे क्या परदा है; सचमुच यही हाल है। हम लोग तो टके के मुलाजिम ठहरे, चार पैसे ऊपर से न कमायें तो बाल-बच्चों को कैसे पालें; तलब है, वह साल-साल भर तक नहीं मिलती, लेकिन यहाँ तो जो जितने ही ऊँचे ओहदे पर है, उसका पेट भी उतना ही बड़ा है।”

दस बजते-बजते दोनों आदमी जसवंतनगर पहुँच गये। विनय बस्ती के बाहर ही एक वृक्ष के नीच बैठ गये और डाकिये से जाने को कहा। डाकिये ने उनसे अपने घर चलने का बहुत आग्रह किया, जब वह किसी तरह न राजी हुए, तो अपने घर से उनके
[ १९९ ]
वास्ते भोजन बनवा लाया। भोजन के उपरांत दोनों आदमी उसी जगह लेटे। डाकिया उन्हें अकेला छोड़कर घर न आया। वह तो थका था, लेटते ही सो गया, पर विनय को नींद कहाँ! रानीजी के पत्र का एक-एक शब्द उनके हृदय में काँटे के समान चुभ रहा था। रानी ने लिखा था—"तुमने मेरे साथ, और अपने बंधुओं के साथ, दगा की है। मैं तुम्हें कभी क्षमा न करूँगी। तुमने मेरी अभिलाषाओं को मिट्टी में मिला दिया। तुम इतनी आसानी से इंद्रियों के दास हो जाओगे, इसकी मुझे लेश-मात्र भी आशंका न थी। तुम्हारा वहाँ रहना व्यर्थ है, घर लौट आओ और विवाह करके आनंद से भोग-विलास करो। जाति-सेवा के लिए जिस आचरण की आवश्यकता है, जिस मनोबल की आवश्यकता है, वह तुमने नहीं पाया और न पा सकोगे। युवावस्था में हम लोग अपनी योग्यताओं की बृहत् कल्पनाएँ कर लेते हैं। तुम भी उसी भ्रांति में पड़ गये। मैं तुम्हें बुरा नहीं कहती। तुम शौक से लौट आओ, संसार में सभी अपने-अपने स्वार्थ में रत हैं, तुम भी स्वार्थ-चिंतन में मग्न हो जाओ। हाँ, अब मुझे तुम्हारे ऊपर वह घमंड न होगा, जिस पर मैं फूली हुई थी। तुम्हारे पिताजी को अभी यह वृत्तांत मालूम नहीं है। वह सुनेंगे, तो न जाने उनकी क्या दशा होगी। किंतु यह बात अगर तुम्हें अभी नहीं मालूम है, तो मैं बताये देती हूँ कि अब तुम्हें अपनी प्रेम-क्रीड़ा के लिए कोई दूसरा क्षेत्र ढूँढना पड़ेगा; क्योंकि मिस सोफिया की मँगनी मि० क्लार्क से हो गई है और दो-चार दिन में विवाह भी होनेवाला है। यह इसलिए लिखती हूँ कि तुम्हें सोफिया के विषय में कोई भ्रम न रहे और विदित हो जाय कि जिसके लिए तुमने अपने जीवन की और अपने माता-पिता की अभिलाषाओं का खून किया, उसकी दृष्टि में तुम क्या हो!"

विनय के मन में ऐसा उद्वेग हुआ कि इस वक्त सोफिया सामने आ जाती, तो उसे धिक्कारता यही मेरे अनंत हृदयानुराग का उपहार है? तुम्हारे ऊपर मुझे कितना विश्वास था, पर अब ज्ञात हुआ कि वह तुम्हारी प्रेम-क्रीड़ा-मात्र थी। तुम मेरे लिए आकाश की देवी थीं। मैंने तुम्हें एक स्वर्गीय आलोक, दिव्य ज्योति समझ रखा था। आह! मैं अपना धर्म तक तुम्हारे चरणों पर निछावर करने को तैयार था। क्या इसीलिए तुमने मुझे ज्वालाओं के मुख से निकाला था। खैर, जो हुआ, अच्छा हुआ। ईश्वर ने मेरे धर्म की रक्षा की, यह व्यथा भी शांत ही हो जायगी। मैं तुम्हें व्यर्थ ही कोस रहा हूँ। तुमने वही किया, जो इस परिस्थिति में अन्य स्त्रियाँ करतीं। मुझे दुःख इसलिए हो रहा है कि मैं तुमसे कुछ और ही आशाएँ रखता था। यह मेरी भूल थी। मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं था। मुझमें वे गुण कहाँ हैं, जिनका तुम आदर कर सकती; पर यह भी जानता हूँ कि मेरी जितनी भक्ति तुममें थी और अब भी है, उतनी शायद ही किसी की किसी में हो सकती है। क्लार्क विद्वान्, चतुर, योग्य, गुणों का आगार ही क्यों न हो, लेकिन अगर मैंने तुम्हें पहचानने में धोखा नहीं खाया है, तो तुम उसके साथ प्रसन्न न रह सकोगी।

किंतु इस समय उन्हें इस नैराश्य से कहीं अधिक वेदना इस विचार से हो रही थी
[ २०० ]
कि मैं माताजी की नजरों में गिर गया—उन्हें कैसे मालूम हुआ? क्या सोफी ने उन्हें मेरा पत्र तो नहीं दिखा दिया? अगर उसने ऐसा किया है, तो वह मुझ पर इससे अधिक कठोर आघात न कर सकती थी। क्या प्रेम निठुर होकर द्वषात्मक भी हो जाता है? नहीं, सोफी पर यह संदेह करके मैं उस पर अत्याचार न करूँगा। समझ गया, इंदु की सरलता ने यह आग लगाई है। उसने हँसी-हँसी में कह दिया होगा। न जाने उसे कभी बुद्धि होगी या नहीं। उसकी तो दिल्लगी हुई, और यहाँ मुझ पर जो बीत रही है, मैं ही जानता हूँ।

यह सोचसे-सोचते विनय के मन में प्रत्याघात का विचार उत्पन्न हुआ। नैराश्य में प्रेम भी द्वेष का रूप धारण कर लेता है। उनकी प्रबल इच्छा हुई कि सोफिया को एक लंबा पत्र लिखूँ और उसे जी भरकर धिक्कारूँ। वह इस पत्र की कल्पना करने लगे-"त्रियाचरित की कथाएँ पुस्तकों में बहुत पढ़ी थीं, पर कभी उन पर विश्वास न आता था। मुझे यह गुमान ही न होता था कि स्त्री, जिसे परमात्मा ने पवित्र, कोमल तथा देवोपम भावों का आगार बनाया है, इतनी निर्दय और इतनी मलिन-हृदय हो सकती है, पर यह तुम्हारा दोष नहीं, यह तुम्हारे धर्म का दोष है, जहाँ प्रेम-व्रत का कोई आदर्श नहीं है। अगर तुमने हिंदू-धर्म-ग्रंथों का अध्ययन किया है, तो तुमको एक नहीं, अनेक ऐसी देवियों के दर्शन हुए होंगे, जिन्होंने एक बार प्रेम-व्रत धारण कर लेने के बाद जीवन-पर्यंत पर-पुरुष की कल्पना भी नहीं की। हाँ, तुम्हें ऐसी देवियाँ भी मिली होंगी, जिन्होंने प्रेम-व्रत लेकर आजीवन अक्षय वैधव्य का पालन किया। मि० क्लार्क की सहयोगिनी बनकर तुम एक ही छलाँग में विजित से विजेताओं की श्रेणी में पहुँच जाओगी, और बहुत. संभव है, इसी गौरव-कामना ने तुम्हें यह वज्राघात करने पर आरूढ़ किया हो; पर तुम्हारी आँखें बहुत जल्द खुलेंगी और तुम्हें ज्ञात होगा कि तुमने अपना सम्मान बढ़ाया नहीं, खो दिया है।"

इस भाँति विनय ने दुष्कल्पनाओं की धुन में दिल का खूब गुबार निकाला। अगर इन विषाक्त भावों का एक छींटा भी सोफिया पर छिड़क सकता, तो उस विरहिणी की न जाने क्या दशा होती। कदाचित् उसकी जान ही पर बन जाती। पर विनयसिंह को स्वयं अपनी क्षुद्रता पर घृणा हुई—“मेरे मन में ऐसे कुविचार क्यों आ रहे हैं? उसका परम कोमल हृदय ऐसे निर्दय आघातों को सहन नहीं कर सकता। उसे मुझसे प्रेम था। मेरा मन कहता है कि अब भी उसे मेरे प्रति सहानुभूति है। मगर मेरे ही समान वह भी धर्म, कर्तव्य, समाज और प्रथा की बेड़ियों में बँधी हुई है। हो सकता है कि उसके माता-पिता ने उसे मजबूर किया हो और उसने अपने को उनकी इच्छा पर बलिदान कर दिया हो। यह भी हो सकता है कि माताजी ने उसे मेरे प्रेम-मार्ग से हटाने के लिए यह उपाय निकाला हो। वह जितनी ही सहृदय हैं, उतनी ही क्रोधशील भी। मैं बिना जाने-बूझे सोफिया पर मिथ्या दोषारोपण करके अपनी उच्छृखलता का परिचय दे रहा हूँ।" [ २०१ ]
इसी उद्विग्न दशा में करवटें बदलते-बदलते विनय की आँखें झपक गई। पहाड़ी देशों में रातें बड़ी सुहावनी होती हैं। एक ही झपकी में तड़का हो गया। मालूम नहीं, वह कब तक पड़े सोया करते; लेकिन पानी के झांसे मुँह पर पड़े, तो घबराकर उठ बैठे। बादल घिरे हुए थे और हलकी-हलकी फुहार पड़ रही थी। जसवंतनगर चलने का विचार करके उठे थे कि कई आदमियों को घोड़े भगाये अपनी तरफ आते देखा। समझे, शायद वीरपालसिंह और उनके साथी होंगे; पर समीप आये, तो मालूम हुआ कि रियासत की पुलिस के आदमी हैं। डाकिया उनके पास ही सोया हुआ था, पर उसका कहीं पता न था, वह पहले हो उठकर चला गया था।

अफसर ने पूछा—"तुम्हारा ही नाम विनयसिंह है?"

"जी हाँ।"

"कल रात को तुम्हारे साथ कई आदमियों ने यहाँ पड़ाव डाला था?"

“जी नहीं, मेरे साथ केवल यहाँ के डाकघर का एक डाकिया था।"

"तुम वीरपालसिंह को जानते हो?"

"इतना ही जानता हूँ कि वह मुझे रास्ते में मिल गया, वहाँ से कहाँ गया, यह मैं नहीं जानता।"

"तुम्हें यह मालूम था कि वह डाकू है?"

"उसने यहाँ के राजकर्मचारियों के विषय में इसी शब्द का प्रयोग किया था।"

"इसका आशय मैं यह समझता हूँ कि तुम्हें यह बात मालूम थी।"

"आप इसका जो आशय चाहें, समझें।"

“उसने यहाँ से तीन मील पर सरकारी खजाने की गाड़ी लूट ली है और एक सिपाही की हत्या कर डाली है। पुलिस को संदेह है कि यह संगीन वारदात तुम्हारे इशारे से हुई है। इसलिए हम तुम्हें गिरफ्तार करते हैं।"

"यह मेरे ऊपर घोर अन्याय है। मुझे उस डाक और हत्या की जरा भी खबर नहीं है।"

"इसका फैसला अदालत से होगा।"

"कम-से-कम मुझे इतना पूछने का अधिकार तो है कि पुलिस को मुझ पर यह संदेह करने का क्या कारण है?"

“उसी डाकिये का बयान है, जो रात को तुम्हारे साथ यहाँ सोया था।"

विनय ने विस्मित होकर कहा-“यह उसी डाकिये का बयान है!”

"हाँ, उसने घड़ी रात रहे इसकी सूचना दी। अब आपको विदित हो गया होगा कि रियासत की पुलिस आप-जैसे महाशयों से कितनी सतर्क रहती है।”

मानव—चरित्र कितना दुर्बोध और जटिल है; इसका विनय को जीवन में पहली ही बार अनुभव हुआ। इतनी श्रद्धा और भक्ति की आड़ में इतनी कुटिलता और पैशाचिकता!

दो सिपाहियों ने विनय के हाथों में हथकड़ी डाल दी, उन्हें एक घोड़े पर सवार कराया और जसवंतनगर की ओर चले।