रंगभूमि/४४
[४४]
गंगा से लौटते दिन के नौ बज गये। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सवेरा हो गया था, लौटते हुए जाह्नवी ने कहा-"चलो, जरा सूरदास को देखते चलें, न जाने मरा या बचा, सुनती हूँ, घाव गहरा था।"
सोफिया और जाह्नवी, दोनों शफाखाने गई, तो देखा, सूरदास बरामदे में चारपाई पर लेटा हुआ है, भैरो उसके पैताने खड़ा है और सुभागी सिरहाने बैठी पंखा झल रही है। जाह्नवी ने डॉक्टर से पूछा-"इसकी दशा कैसी है, बचने की कोई आशा है?"
डॉक्टर ने कहा-"किसी दूसरे आदमी को यह जख्म लगा होता, तो अब तक मर चुका होता। इसकी सहन-शक्ति अद्भुत है। दूसरों को नस्तर लगाने के समय क्लोरोफार्म देना पड़ता है, इसके कंधे में दो इंच गहरा और दो इञ्च चौड़ा नश्तर दिया गया, पर इसने क्लोरोफार्म न लिया। गोली निकल आई है, लेकिन बच जाय, तो कहें।"
सोफिया को एक रात की दारुण शोक-वेदना ने इतना धुला दिया था कि पहचानना कठिन था, मानों कोई फूल मुरझा गया हो। गति मंद, मुख उदास, नेत्र बुझे हुए, मानों भूत-जगत् में नहीं, विचार-जगत् में विचर रही है। आँखों को जितना रोना था, रो चुकी थीं, अब रोयाँ-रोयाँ रो रहा था। उसने सूरदास के समीप जाकर कहा- "सूरदास, कैसा जी है? रानी जाह्नवी आई हैं।"
सूरदास-"धन्य भाग। अच्छा हूँ।"
जाह्नवी-"पीड़ा बहुत हो रही है?"
सूरदास-"कुछ कष्ट नहीं है। खेलते-खेलते गिर पड़ा हूँ, चोट आ गई है, अच्छा हो जाऊँगा। उधर क्या हुआ, झोपड़ी बची कि गई?"
सोफी-"अभी तो नहीं गई है, लेकिन शायद अब न रहे। हम तो विनय को गंगा की गोद में सौंपे चले आते हैं।"
सूरदास ने क्षीण स्वर में कहा-"भगवान की मरजी, बीरों का यही धरम है। जो गरीबों के लिए जान लड़ा दे, वही सच्चा बीर है।"
जाह्नवी-"तुम साधु हो। ईश्वर से कहो, विनय का फिर इसी देश में जन्म हो।"
सूरदास-“ऐसा ही होगा माताजी, ऐसा ही होगा। अब महान पुरुष हमारे ही देस में जनम लेंगे। जहाँ अन्याय और अधरम होता है, वहीं देवता लोग जाते हैं। उनके संस्कार उन्हें खींच ले जाते हैं। मेरा मन कह रहा है कि कोई महात्मा थोड़े ही दिनों में इस देस में जनम लेनेवाले हैं......!"
डॉक्टर ने आकर कहा-"रानीजी, मैं बहुत खेद के साथ आपसे प्रार्थना करता हूँ कि सूरदास से बातें न करें, नहीं तो जोर पड़ने से इनकी दशा बिगड़ जायगी। ऐसी
हालतों में सबसे बड़ा विचार यह होना चाहिए कि रोगी निर्बल न होने पाये, उसकी शक्ति क्षीण न हो।"
अस्पताल के रोगियों और कर्मचारियों को ज्यों ही मालूम हुआ कि विनयसिंह की माताजी आई हैं, तो सब उनके दर्शनों को जमा हो गये, कितनों ही ने उनको पद-रज माथे पर चढ़ाई। यह सम्मान देखकर जाह्नवी का हृदय गर्व से प्रफुल्लित हो गया। विहसित मुख से सबों को आशीर्वाद देकर यहाँ से चलने लगी, तो सोफिया ने कहा-"माताजी, आपकी आज्ञा हो, तो मैं यहीं रह जाऊँ। सूरदास की दशा चिंताजनक जान पड़ती है। इसकी बातों में वह तत्त्वज्ञान है, जो मृत्यु की सूचना देता है। मैंने इसे होश में कभी आत्मज्ञान की ऐसी बातें करते नहीं सुना।"
रानी ने सोफी को गले लगाकर सहर्ष आज्ञा दे दी। वास्तव में सोफिया सेवा भवन जाना न चाहती थी। वहाँ की एक-एक वस्तु, वहाँ के फूल-पत्ते, यहाँ तक कि वहाँ की वायु भी विनय की याद दिलायेगी। जिस भवन में विनय के साथ रही, उसी में विनय के बिना रहने का खयाल ही उसे तड़पाये देता था।
रानी चली गई, तो सोफिया एक मोढ़ा डालकर सूरदास की चारपाई के पास बैठ गई। सूरदास की आँखें बंद थीं, पर मुख पर मनोहर शांति छाई हुई थी। सोफिया को आज विदित हुआ कि चित्त की शांति ही वास्तविक सौंदर्य है।
सोफी को वहाँ बैठे-बैठे सारा दिन गुजर गया। वह निर्जल, निराहार, मन मारे बैठी हुई सुखद स्मृतियों के स्वप्न देख रही थी, और जब आँखें भर आती थीं, तो आड़ में जाकर रूमाल से आँसू पोछ आती थी। उसे अब सबसे तीव्र वेदना यही थी कि मैंने विनय की कोई इच्छा पूरी न की, उनकी अभिलाषाओं को तृप्त न किया, उन्हें वंचित रखा। उनके प्रेमानुराग की स्मृति उसके हृदय को ऐसी मसोसती थी कि वह विकल होकर तड़पने लगती थी।
संध्या हो गई थी। सोफिया लैंप के साममे बैठी हुई सूरदास को प्रभु मसीह का जीवन-वृत्तांत सुना रही थी। सूरदास ऐसा तन्मय हो रहा था, मानों उसे कोई कष्ट नहीं है। सहसा राजा महेंद्रकुमार आकर खड़े हो गये, और सोफी की ओर हाथ बढ़ा दिया। सोफिया ज्यों-की-त्यों बैठी रहो। राजा साहब से हाथ मिलाने की चेष्टा न की।
सूरदास ने पूछा-"कौन है मिस साहब?"
सोफिया ने कहा- "राजा महेंद्रकुमार हैं।"
सूरदास ने आदर-भाव से उठना चाहा, पर सोफिया ने लिटा दिया और बोली-"हिलो मत, नहीं तो घाव स्तुल जायगा। आराम से पड़े रहो।"
सूरदास-"राजा साहब आये हैं। उनका इतना आदर भी न करूँ? मेरे ऐसे भाग्य तो हुए। कुछ बैठने को है?"
सोफिया-"हाँ, कुर्सी पर बैठ गये।"
राजा साहब ने पूछा--"सूरदास, कैसा जी है?"
सूरदास-"भगवान की दया है।"
राजा साहब जिन भावों को प्रकट करने यहाँ आये थे, वे सोफी के सामसे उनके मुख से निकलते हुए सकुचा रहे थे। कुछ देर तक वह मौन बैठे रहे, अंत को बोले-"सूरदास, मैं तुमसे अपनी भूलों की क्षमा माँगने आया हूँ। अगर मेरे वश की बात होती, तो मैं आज अपने जीवन को तुम्हारे जीवन से बदल लेता।"
सूरदास-"सरकार, ऐसी बात न कहिए; आप राजा हैं, मैं रंक हूँ। आपने जो कुछ किया, दूसरों की भलाई के बिचार से किया। मैंने जो कुछ किया, अपना धरम समझकर किया। मेरे कारन आपको अपजस हुआ, कितने घर नास हुए, यहाँ तक कि इंद्रदत्त और कुँवर विनयसिंह-जैसे दो रतन जान से गये। पर अपना क्या बस है! हम तो खेल खेलते हैं, जीत-हार भगवान के हाथ है। वह जैसा उचित जानते हैं, करते हैं; बस, नीयत ठीक होनी चाहिए।"
राजा-"सूरदास, नीयत को कौन देखता है। मैंने सदैव प्रजा-हित ही पर निगाह रखी, पर आज सारे नगर में एक भी ऐसा प्राणी नहीं है, जो मुझे खोटा, नीच, स्वार्थी, अधर्मी, पापिष्ठ न समझता हो। और तो क्या, मेरी सहधर्मिणी भी मुझसे घणा कर रही है। ऐसी बातों से मन क्यों न विरक्त हो जाय? क्यों न संसार से घृणा हो जाय? मैं तो अब कहीं मुँह दिखाने-योग्य नहीं रहा।"
सूरदास-"इसकी चिंता न कीजिए। हानि, लाभ, जीवन, मरन, जस, अपजस बिधि के हाथ है, हम तो खाली मैदान में खेलने के लिए बनाये गये हैं। सभी खिलाड़ी मन लगाकर खेलते हैं, सभी चाहते हैं कि हमारी जीत हो, लेकिन जीत एक ही की होती है, तो क्या इससे हारनेवाले हिम्मत हार जाते हैं? वे फिर खेलते हैं; फिर हार जाते हैं, तो फिर खेलते हैं। कभी-न-कभी तो उनकी जीत होती ही है। जो आपको आज बुरा समझ रहे हैं, वे कल आपके सामने सिर झुकायेंगे। हाँ, नीयत ठीक रहनी चाहिए। मुझे क्या उनके घरवाले बुरा न कहते होंगे, जो मेरे कारन जान से गये? इंद्रदत्त और कुँवर विनयसिंह-जैसे दो लाल, जिनके हाथों संसार का कितना उपकार होता, संसार से उठ गये। जस-अपजस भगवान के हाथ है, हमारा यहाँ क्या बस है?"
राजा-"आह सूरदास, तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कितनी विपत्ति में पड़ा हुआ हूँ। तुम्हें बुरा कहनेवाले अगर दस-पाँच होंगे, तो तुम्हारा जस गानेवाले असंख्य हैं, यहाँ तक कि हुक्काम भी तुम्हारे दृढ़व्रत और धैर्य का बखान कर रहे हैं। मैं तो दोनों ओर से गया। प्रजा-द्रोही भी ठहरा और राजद्रोही भी। हुक्काम इस सारी दुर्व्यवस्था का अपराध मेरे ही सिर थोप रहे हैं। उनकी समझ में भी मैं अयोग्य, अदूरदर्शी और स्वार्थी हूँ। अब तो यही इच्छा होती है कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं चला जाऊँ।"
सूरदास-"नहीं-नहीं, राजा साहब, निराश होना खिलाड़ियों के धरम के विरुद्ध है। अबकी हार हुई, तो फिर कभी जीत होगी।"
राजा-"मुझे तो विश्वास नहीं होता कि फिर कभी मेरा सम्मान होगा मिस सेवक, आप मेरी दुर्बलता पर हँस रही होंगी, पर मैं बहुत दुखी हूँ।"
सोफिया ने अविश्वास-भाव से कहा-"जनता अत्यंत क्षमाशील होती है। अगर अब भी आप जनता को यह दिखा सकें कि इस दुर्घटना पर आपको दुःख है, तो कदा-चित् प्रजा आपका फिर सम्मान करे।"
राजा ने अभी उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा-"सरकार, नेकनामी और बदनामी बहुत-से आदमियों के हल्ला मचाने से नहीं होती। सच्ची नेकनामी अपने मन में होती है। अगर अपना मन बोले कि मैंने जो कुछ किया, वही मुझे करना चाहिए था, इसके सिवा कोई दूसरी बात करना मेरे लिए उचित न था, तो वही नेकनामी है। अगर आपको इस मार-काट पर दुख है, तो आपका धरम है कि लाट साहब से इसकी लिखा-पढ़ी करें। वह न सुनें, तो जो उनसे बड़ा हाकिम हो, उससे कहें-सुनें, और जब तक सरकार परजा के साथ न्याय न करे, दम न लें। लेकिन अगर आप समझते हैं कि जो कुछ आपने किया, वही आपका धरम था, स्वार्थ के लोभ से आपने कोई बात नहीं की, तो आपको तनिक भी दुख न करना चाहिए।"
सोफी ने पृथ्वी की ओर ताकते हुए कहा-"राजपक्ष लेनेवालों के लिए यह सिद्ध करना कठिन है कि वे स्वार्थ से मुक्त हैं।"
राजा-"मिस सेवक, मैं आपको सच्चे हृदय से विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने अधिकारियों के हाथों सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के लिए उनका पक्ष नहीं ग्रहण किया, और पद का लोभ तो मुझे कभी.रहा ही नहीं। मैं स्वयं नहीं कह सकता कि वह कौन- सी बात थी, जिसने मुझे सरकार की ओर खींचा। संभव है, अनिष्ट का भय हो, या केवल ठकुरसुहाती; पर मेरा कोई स्वार्थ नहीं था। संभव है, मैं उस समाज की आलोचना, उसके कुटिल कटाक्ष और उसके व्यंग्य से डरा होऊँ। मैं स्वयं इसका निश्चय नहीं कर सकता। मेरी धारणा थी कि सरकार का कृपा-पात्र बनकर प्रजा का जितना हित कर सकता हूँ, उतना उसका द्वेषी बनकर नहीं कर सकता। पर आज मुझे मालूम हुआ कि वहाँ भलाई होने की जितनी आशा है, उससे कहीं अधिक बुराई होने का भय है। यश और कीर्ति का मार्ग वही है, जो सूरदास ने ग्रहण किया। सूरदास, आशीर्वाद दो कि ईश्वर मुझे सत्पथ पर चलने की शक्ति प्रदान करें।"
आकाश पर बादल मँडला रहे थे। सूरदास निद्रा में मग्न था। इतनी बातों से उसे थकावट आ गई थी। सुभागी एक टाट का टुकड़ा लिये हुए आई और सूरदास के पैताने बिछाकर लेट रही। शफाखाने के कर्मचारी चले गये। चारों ओर सन्नटा छा गया।
सोफी गाड़ी का इंतजार कर रही थी-“दस बजते होंगे। रानीजी शायद गाड़ी भेजना भूल गई। उन्होंने शाम ही को गाड़ी भेजने का वादा किया था। कैसे जाऊँ? क्या हरज है, यहीं बैठी रहूँ। वहाँ रोने के सिवा और क्या करूँगी। आह! मैंने विनय
का सर्वनाश कर दिया। मेरे ही कारण वह दो बार कर्तव्य-मार्ग से विचलित हुए, मेरे ही कारण उनकी जान पर बनी! अब वह मोहिनी मूर्ति देखने को तरस जाऊँगी। जानती हूँ कि हमारा फिर संयोग होगा, लेकिन नहीं जानती, कब!” उसे वे दिन याद आये, जब भीलों के गाँव में इसी समय वह द्वार पर बैठी उनकी राह जोहा करती थी और वह कम्बल ओढे, नंगे सिर, नंगे पाँव हाथ में एक लकड़ी लिये आते थे और मुस्किरा-कर पूछते थे, मुझे देर तो नहीं हो गई? वह दिन याद आया, जब राजपूताना जाते समय विनय ने उसकी ओर आतुर, किंतु निराश नेत्रों से देखा था। आह! वह दिन
याद आया, जब उसकी ओर ताकने के लिए रानीजी ने उन्हें तीव्र नेत्रों से देखा था और वह सिर झुकाये बाहर चले गये थे। सोफी शोक से विह्वल हो गई। जैसे हवा के झोंके धरती पर बैठी हुई धूल को उठा देते हैं, उसी प्रकार इस नीरव निशा ने उसकी स्मृतियों को जाग्रत कर दिया; सारा हृदय-क्षेत्र स्मृतिमय हो गया। वह बेचैन हो गई, कुर्सी से उठकर टहलने लगी। जी न जाने क्या चाहता था-"कहीं उड़ जाऊँ, मर जाऊँ, कहाँ तक मन को समझाऊँ, कहाँ तक सब्र करूँ! अब न समझाऊँगी, रोऊँगी, तड़पूँगी, खूब जी भरकर! वह, जो मुझ पर प्राण देता था, संसार से उठ जाय, और मैं अपने को समझाऊँ कि अब रोने से क्या होगा? मैं रोऊँगी, इतना रोऊँगी कि आखें फूट जायँगी, हृदय-रक्त आँखों के रास्ते निकलने लगेगा, कंठ बैठ जायगा। आँखों को अब करना ही क्या है! वे क्या देखकर कृतार्थ होंगी! हृदय-रक्त अब प्रवाहित होकर क्या करेगा!"
इतने में किसी की आहट सुनाई दी। मिठुआ और भैरो बरामदे में आये। मिठुआ ने सोफ़ी को सलाम किया और सूरदास की चारपाई के पास जाकर खड़ा हो गया। सूरदास ने चौंककर पूछा-"कौन है, भैरो?"
मिठुआ-"दादा, मैं हूँ।"
सूरदास-"बहुत अच्छे आये बेटा, तुमसे भेंट हो गई। इतनी देर क्यों हुई!"
मिठुआ-"क्या करूँ दादा, बड़े बाबू से साँझ से छुट्टी माँग रहा था, मगर एक-न-एक काम लगा देते थे। डाउन नंबर थी को निकाला, अप नंबर वन को निकाला, फिर पारसल गाड़ी आई, उस पर माल लदवाया, डाउन नंबर ठट्टी को निकालकर तब आने पाया हूँ। इससे तो कुली था, तभी अच्छा था कि जब जी चाहता था, जाता था; जब जी चाहता था, आता था, कोई रोकनेवाला न था । अब तो नहाने-खाने की फुरसत नहीं मिलती, बाबू लोग इधर-उधर दौड़ाते रहते हैं। किसी को नौकर रखने की समाई तो है नहीं, सेत-मेत में काम निकालते हैं।"
सूरदास-"मैं न बुलाता, तो तुम अब भी न आते। इतना भी नहीं सोचते कि अंधा आदमी है, न जाने कैसे होगा, चलकर जरा हाल-चाल पूछता आऊँ। तुमको इस लिए बुलाया है कि मर जाऊँ, तो मेरा किरिया-करम करना, अपने हाथों से पिंडदान देना, बिरादरी को भोज देना और हो सके, तो गया कर आना। बोलो, इतना करोगे?"
भैरो-"भैया, तुम इसकी चिंता मत करो, तुम्हारा किरिया-करम इतनी धूमधाम से होगा कि बिरादरी में कभी किसी का न हुआ होगा।"
सूरदास-"धूमधाम से नाम तो होगा, मगर मुझे पहुँचेगा तो वही, जो मिठुआ देगा।"
मिठुआ-"दादा, मेरी नंगाझोली ले लो, जो मेरे पास घेला भी हो। खाने-भर को तो होता ही नहीं, बचेगा क्या?"
सूरदास-"अरे, तो क्या तुम मेरा किरिया करम भी न करोगे?"
मिठुआ-"कैसे करूँगा दादा, कुछ पल्ले-पास हो, तब न?"
सूरदास-“तो तुमने यह आसरा भो तोड़ दिया। मेरे भाग में तुम्हारी कमाई न जीते जी बदी थी, न मरने के पीछे।"
मिठुआ-"दादा, अब मुँह न खुलवाओ, परदा ढका रहने दो। मुझे चौपट करके मरे जाते हो; उस पर कहते हो, मेरा किरिया-करम कर देना, गया-पराग कर देना। हमारी दस बीघे मौरूसी जमोन थी कि नहीं, उसका मावजा दो पैसा, चार पैसा कुछ तुमको मिला कि नहीं, उसमें से मेरे हाथ क्या लगा? घर में भी मेरा कुछ हिस्सा होता है या नहीं? हाकिमों से बैर न ठानते, तो उस घर के सौ से कम न मिलते। पंडाजी ने कैसे पाँच हजार मार लिये? है उनका घर पाँच हजार का? दरवाजे पर मेरे हाथों के लगाये दो नीम के पेड़ थे। क्या वे पाँच-पाँच रुपये में भी महँगे थे? मुझे तो तुमने मलियामेट कर दिया, कहीं का न रखा। दुनिया भर के लिए अच्छे होगे, मेरो गरदन पर तो तुमने छुरी फेर दी, हलाल कर डाला। मुझे भी तो अभी ब्याह-सगाई करनी है, घर-द्वार बनवाना है। किरिया-करम करने बैतू, तो इसके लिए कहाँ से रुपये लाऊँगा? कमाई में तुम्हारे सक नहीं, मगर कुछ उड़ाया, कुछ जलाया, और अब मुझे बिना छाँह के छोड़े चले जाते हो, बैठने का ठिकाना भी नहीं। अब तक मैं चुप था, नाबालिक था। अब तो मेरे भी हाँथ-पाँव हुए। देखता हूँ, मेरी जमीन का मावजा कैसे नहीं मिलता! साहब लखपती होंगे, अपने घर के होंगे, मेरा हिस्सा कैसे दबा लेंगे? घर में भी मेरा हिस्सा होता है। (झाँककर) मिस साहब फाटक पर खड़ी हैं, घर क्यों नहीं जाती? और सुन ही लेंगी, तो मुझे क्या डर? साहब ने सीधे से दिया, तो दिया; नहीं तो फिर मेरे मन में भी जो आयेगा, करूँगा। एक से दो जानें तो होंगी नहीं; मगर हाँ, उन्हें भी मालूम हो जायगा कि किसी का हक छीन लेना दिल्लगी नहीं है!"
सूरदास भौचक्का-सा रह गया। उसे स्वप्न में भी न सूझा था कि मिठुआ के मुँह से मुझे कभी ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ेंगी। उसे अत्यंत दुःख हुआ, विशेष इसलिए कि ये बातें उस समय कही गई थीं, जब वह शांति और सांत्वना का भूखा था। जब उसे यह आकांक्षा थी कि मेरे आत्मीय जन मेरे पास बैठे हुए मेरे कष्ट-निवारण का उपाय करते होते। यही समय होता है, जब मनुष्य को अपना कीर्ति-गान सुनने की इच्छा होती है, जब उसका जीर्ण हृदय बालकों की भाँति गोद में बैठने के लिए, प्यार
के लिए, मान के लिए, शुश्रूषा के लिए ललचाता है। जिसे उसने बाल्यावस्था से बेटे की तरह पाला, जिसके लिए उसने न जाने क्या-क्या कष्ट सहे, वह अंत समय आकर उससे अपने हिस्से का दावा कर रहा था! आँखों से आंसू निकल आये। बोला-"बेटा, मेरी भूल थी कि तुमसे किरिया-करम करने को कहा। तुम कुछ मत करना। चाहे मैं पिंडदान और जल के बिना रह जाऊँ, पर यह उससे कहीं अच्छा है कि तुम साहब से अपना मावजा माँगों। मैं नहीं जानता था कि तुम इतना कानून पढ़ गये हो, नहीं तो पैसे-पैसे का हिसाब लिखता जाता।"
मिठुआ-"मैं अपने मावजे का दावा जरूर करूँगा। चाहे साहब दें, चाहे सरकार दे, चाहे काला चोर दे, मुझे तो अपने रुपये से काम है।"
सूरदास-'हाँ, सरकार भले हो दे दे, साहब से कोई मतलब नहीं।"
मिठुआ-"मैं तो साहब से लूँगा, वह चाहे जिससे दिलायें। न दिलायेंगे, तो जो कुछ मुझसे हो सकेगा, करूँगा। साहब कुछ लाट तो हैं नहीं। मेरी जायदाद उन्हें हजम न होने पायेगी। तुमको उसका क्या कलक था। सोचा होगा; कौन मेरे बेटा बैठा हुआ है, चुपके से बैठे रहे। मैं चुपका बैठनेवाला नहीं हूँ।"
सूरदास-"मिठू, क्यों मेरा दिल दुखाते हो? उस जमीन के लिए मैंने कौन-सी बात उठा रखी। घर के लिए तो प्राण तक दे दिये। अब और मेरे किये क्या हो सकता था? लेकिन भला बताओ तो, तुम साहब से कैसे रुपये ले लोगे? अदालत में तो तुम उनसे ले नहीं सकते, रुपयेवाले हैं, और अदालत रुपयेवालों की है। हारेंगे भी, तो तुम्हें बिगाड़ देंगे। फिर तुम्हारी जमीन सरकार ने जापते से ली है; तुम्हारा दावा साहब पर चलेगा कैसे?"
मिठुआ-"यह सब पढ़े बैठा हूँ। लगा दूँगा आग, सारा गोदाम जलकर राख हो जायगा। (धीरे से) बम-गोले बनाना जानता हूँ। एक गोला रख दूंगा, तो पुतलीघर में आग लग जायगी। मेरा कोई क्या कर लेगा!"
सूरदास-"भैरो, सुनते हो इसकी बाते, जरा तुम्हीं समझाओ।"
भैरो-'मैं तो रास्ते-भर समझाता आ रहा हूँ; सुनता ही नहीं।"
सूरदास-"तो फिर मैं साहब से कह दूँगा कि इससे होशियार रहें।"
मिठुआ-"तुमको गऊ मारने की हत्या लगे, अगर तुम साहब या किसी और से इस बात की चरचा तक करो। अगर मैं पकड़ा गया, तो तुम्हीं को उसका पाप लगेगा। जीते-जी मेरा बुरा चेता, मरने के बाद काँटे बोना चाहते हो। तुम्हारा मुँह देखना पाप है।"
यह कह कर मिठुआ क्रोध से भरा हुआ चला गया। भैरो रोकता ही रहा, पर उसने न माना। सूरदास आध घण्टे तक मूर्च्छावस्था में पड़ा रहा। इस आघात का घाव गोली से भी घातक था। मिठुआ की कुटिलता, उसके परिणाम का भय, अपना उत्तरदायित्व, साहब को सचेत कर देने का कर्तव्य, यह पहाड़-सी कसम, निकलने का कहीं रास्ता
नहीं, चारों ओर से बँधा हुआ था। अभी इसी असमंजस में पड़ा हुआ था कि मिस्टर जॉन सेवक आये। सोफिया भी उनके साथ फाटक से चली। सोफी ने दूर ही से कहा-"सूरदास, पापा तुमसे मिलने आये हैं।" वास्तव में मिस्टर सेवक सूरदास से मिलने नहीं आये थे, सोफी से सहवेदना प्रकट करने का शिष्टाचार करना था। दिन-भर अवकाश न मिला। मिल से नौ बजे चले, तो याद आई, सेवा-भवन गये, वहाँ मालूम हुआ कि सोफिया शफाखाने में है, गाड़ी इधर फेर दी। सोफिया रानी जाह्नवी की गाड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसे ध्यान भी न था कि पापा आते होंगे। उन्हें देखकर रोने लगी। पापा को मुझसे प्रेम है, इसका उसे हमेशा विश्वास रहा, और यह बात यथार्थ थी। मिस्टर सेवक को सदैव सोफिया की याद आती रहती थी। व्यवसाय में व्यस्त रहने पर भी सोफिया की तरफ से वह निश्चित न थे। अपनी पत्नी से मजबूर थे, जिसका उनके ऊपर पूरा आधिपत्य था। सोफी को रोते देख- कर दयाद्र' हो गये, गले से लगा लिया और तस्कीन देने लगे। उन्हें बार-बार यह कारखाना खोलने पर अफसोस होता था, जो असाध्य रोग की भाँति उनके गले पड़ गया था। इसके कारण पारिवारिक शांति में विघ्न पड़ा, सारा कुनबा तीन-तेरह हो गया, शहर में बदनामी हुई, सारा सम्मान मिट्टी में मिल गया, घर के हजारों रुपये खर्च हो गये और अभी तक नफे की कोई आशा नहीं। अब कारीगर और कुली भी काम छोड़-छोड़कर अपने घर भागे जा रहे थे, उधर शहर और प्रांत में इस कारखाने के विरुद्ध आन्दोलन किया जा रहा था। प्रभु सेवक का गृहत्याग दीपक की भाँति हृदय को जलाता
रहता था। न जाने खुदा को क्या मंजूर था।
मिस्टर सेवक कोई आध घंटे तक सोफिया से अपनी विपत्ति-कथा कहते रहे। अंत में बोले-“सोफी, तुम्हारी मामा को यह संबंध पसंद न था, पर मुझे कोई आपत्ति न थी। कुँवर विनयसिंह-जैसा पुत्र या दामाद पाकर ऐसा कौन है, जो अपने को भाग्यवान्न समझता। धर्म-विरुद्ध होने की मुझे जरा भी परवा न थी। धर्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है। अगर वह हमारी आत्मा को शांति और देह को सुख नहीं प्रदान कर सकता, तो मैं उसे पुराने कोट को भाँति उतार फेकना पसंद करूँगा। जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाय, उससे जितनी जल्द हम अपना गला छुड़ा लें, उतना ही अच्छा। मुझे हमेशा इसका दुःख रहेगा कि परोक्ष या अपरोक्ष रीति से मैं तुम्हारा द्रोही हुआ। अगर मुझे जरा भी मालूम होता कि यह विवाद इतना भयंकर हो जायगा और इसका इतना भीषण परिणाम होगा, तो मैं उस गाँव पर कब्जा करने का नाम भी न लेता। मैंने समझा था कि गाँववाले कुछ विरोध करेंगे, लेकिन धमकाने से ठीक हो जायँगे! यह न जानता था कि समर ठन जायगा और उसमें मेरी ही पराजय होगी। यह क्या बात है सोफी कि आज रानी जाह्नवी ने मुझसे बड़ी शिष्टता और विनय का व्यवहार किया? मैं तो चाहता था कि बाहर ही से तुम्हें बुला लूँ, लेकिन दरबान ने रानीजी से कह दिया और वह तुरत बाहर निकल आई। मैं लज्जा और ग्लानि से गड़ा जाता था
और वह हँस-हँसकर बातें कर रही थीं। बड़ा विशाल हृदय है। पहले का-सा गरूर नाम को न था। सोफी, विनयसिंह की अकाल मृत्यु पर किसे दुःख न होगा; पर उनके आत्म-समर्पण ने सैकड़ों जानें बचा लीं, नहीं तो जनता आग में कूदने को तैयार थी। घोर अनर्थ हो जाता। मि० क्लार्क ने सूरदास पर गोली तो चला दी थी, पर जनता का रुख देखकर सहमे जाते थे कि न जाने क्या हो। वीरात्मा पुरुष था, बड़ा ही दिलेर!"
इस प्रकार सोफिया को परितोप देने के बाद मि० सेवक ने उससे घर चलने के लिए आग्रह किया। सोफिया ने टालकर कहा-“पापा, इस समय मुझे क्षमा कीजिए, सूरदास की हालत बहुत नाजुक है। मेरे रहने से डॉक्टर और अन्य कर्मचारी विशेष ध्यान देते हैं। मैं न हूँगी, तो कोई उसे पूछेगा भी नहीं। आइए, जरा देखिए। आपको आश्चर्य होगा कि इस हालत में भी वह कितना चैतन्य है और कितनी अकलमंदी की बातें करता है! मुझे तो वह मानव-देह में कोई फरिश्ता मालूम होता है।"
सेवक-"मेरे जाने से उसे रंज तो न होगा?"
सोफिया-"कदापि नहीं पापा, इसका विचार ही मन में न लाइए। उसके हृदय में द्वेष और मालिन्य की गंध तक नहीं है।”
दोनों प्राणी सूरसाद के पास गये, तो वह मनस्ताप से विकल हो रहा था। मि० सेवक, बोले- "सूरदास, कैसी तबियत है?"
सूरदास-"साहब, सलाम। बहुत अच्छा हूँ। मेरे धन्य भाग। मैं मरते-मरते बड़ा आदमी हो जाऊँगा।"
सेवक-"नहीं-नहीं सूरदास, ऐसी बातें न करो, तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे।"
सूरदास-(हँसकर) “अब जीकर क्या करूँगा? इस समय मरूँगा, तो बैकुंठ पाऊँगा, फिर न जाने क्या हो। जैसे खेत कटने का एक समय है, उसी तरह मरने का भी एक समय होता है। पक जाने पर खेत न कटे, तो नाज सड़ जायगा, मेरो भी वही दशा होगी। मैं भी कई आदमियों को जानता हूँ, जो आज से दस बरस पहले मरते, तो लोग उनका जस गाते, आज उनकी निंदा हो रही है।"
सेवक-"मेरे हाथों तुम्हारा बड़ा अहित हुआ। इसके लिए मुझे क्षमा करना।"
सूरदास-“मेरा तो आपने कोई अहित नहीं किया, मुझसे और आपसे दुसमनी ही कौन-सी थी। हम और आप आमने-सामने की पालियों में खेले। आपने भरसक जोर लगाया, मैंने भी भरसक जोर लगाया। जिसको जीतना था, जीता; जिसको हारना था, हारा। खिलाड़ियों में बैर नहीं होता। खेल में रोते तो लड़कों को भी लाज आती है। खेल में चोट लग जाय, चाहे जान निकल जाय; पर बैर-भाव न आना चाहिए। मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है।"
सेवक-"सूरदास, अगर इस तत्त्व को, जीवन के इस रहस्य को, मैं भी तुम्हारी भाँति समझ सकता, तो आज यह नौबत न आती। मुझे याद है, तुमने एक बार मेरे
कारखाने को आग से बचाया था। मैं तुम्हारी जगह होता, तो शायद आग में और तेल डाल देता। तुम इस संग्राम में निपुण हो सूरदास, मैं तुम्हारे आगे निरा बालक हूँ। लोकमत के अनुसार मैं जीता और तुम हारे, पर मैं जीतकर भी दुखी हूँ, तुम हार-कर भी सुखी हो। तुम्हारे नाम की पूजा हो रही है, मेरी प्रतिमा बनाकर लोग जला रहे हैं। मैं धन, मान, प्रतिष्ठा रखते हुए भी तुमसे सम्मुख होकर न लड़ सका। सरकार की आड़ से लड़ा। मुझे जब अवसर मिला, मैंने तुम्हारे ऊपर कुटिल आघात किया। इसका मुझे खेद है।"
मरणासन्न मनुष्य का वे लोग भी स्वच्छन्द होकर कीर्ति-गान करते हैं, जिनका जीवन उससे वैर साधने में ही कटा हो; क्योंकि अब उससे किसी हानि की शंका नहीं होती।
सूरदास ने उदार भाव से कहा-"नहीं साहब, आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। धूर्तता तो निबलों का हथियार है। बलवान कभी नीच नहीं होता।"
सेवक-" हाँ सूरदास, होना वहीं चाहिए, जो तुम कहते हो; पर ऐसा होता नहीं। मैंने नीति का कभी पालन नहीं किया। मैं संसार को क्रीड़ा-क्षेत्र नहीं, संग्राम- क्षेत्र समझता रहा, और युद्ध में छल, कपट, गुप्त आघात सभी कुछ किया जाता है। धर्मयुद्ध के दिन अब नहीं रहे।"
सूरदास ने इसका कुछ उत्तर न दिया। वह सोच रहा था कि मिठुआ की बात साहब से कह दूं या नहीं। उसने कड़ी कसम रखाई है। पर कह देना ही उचित है। लौंडा हठी और कुचाली है, उस पर घीसू का साथ, कोई-न-कोई अनीति अवश्य करेगा। कसम रखा देने से तो मुझे हत्या लगती नहीं। कहीं कुछ नटखटी कर बैठा, तो साहब समझेंगे, अंधे ने मरने के बाद भी बैर निभाया। बोला-“साहब, आपसे एक बात कहना चाहता हूँ।"
सेवक-"कहो, शौक से कहो।"
सूरदास ने संक्षित रूप से मिठुआ की अनर्गल बातें मि० सेवक से कह सुनाई और अंत में बोला-"मेरी आपसे इतनी ही बिनती है कि उस पर कड़ी निगाह रखिएगा। अगर अवसर पा गया तो चूकनेवाला नहीं है। तब आपको भी उस पर क्रोध आ ही जायगा, और आप उसे दंड देने का उपाय सोचेंगे। मैं इन दोनों बातों में से एक भी नहीं चाहता।"
सेवक अन्य धनी पुरुषों की भाँति बदमाशों से बहुत डरते थे, सशंक होकर बोले-"सूरदास, तुमने मुझे होशियार कर दिया, इसके लिए तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। मुझमें और तुममें यही अंतर है। मैं तुम्हें कभी यो संचेत न करता। किसी दूसरे के हाथों तुम्हारी गरदन कटते देख कर भी कदाचित् मेरे मन में दया न आती। कसाई भी सदय और निर्दय हो सकते हैं। हम लोग द्वष में निर्दय कसाइयों से भी बढ़ जाते हैं। (सोफिया से अँगरेजी में) बड़ा सत्यप्रिय आदमी है। कदाचित् संसार ऐसे आदमियों के रहने का
स्थान नहीं है। मुझे एक छिपे हुए शत्रु से बचाना अपना कर्तव्य समझता है। यह तो भतीजा है; किंतु पुत्र की बात होती, तो भी मुझे अवश्य सतर्क कर देता।"
सोफिया-"मुझे तो अब विश्वास होता जाता है कि शिक्षा धूतों की स्रष्टा है, प्रकृति सत्पुरुषों की।"
जॉन सेवक को यह बात कुछ रुचिकर न लगी। शिक्षा की इतनी निंदा उन्हें असह्य थी। बोले-“सूरदास, मेरे योग्य कोई और सेवा हो, तो बताओ।"
सूरदास-"कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।"
सेवक-"नहीं-नहीं, जो कुछ कहना चाहते हो, निस्संकोच होकर कहो।"
सूरदास-"ताहिरअली को फिर नौकर रख लीजिएगा। उनके बाल-बच्चे बड़े कष्ट में हैं।"
सेवक-"सूरदास, मुझे अत्यंत खेद है कि मैं तुम्हारे आदेश का पालन न कर सकूँगा। किसी नीयत के बुरे आदमी को आश्रय देना मेरे नियम के विरुद्ध है। मुझे तुम्हारी बात न मानने का बहुत खेद है; पर यह मेरे जीवन का एक प्रधान सिद्धांत है, और उसे तोड़ नहीं सकता।"
सूरदास-"दया कभी नियम-विरुद्ध नहीं होती।"
सेवक-"मैं इतना कर सकता हूँ कि ताहिरअली के बाल-बच्चों का पालन-पोषण करता रहूँ । लेकिन उसे नौकर न रखूँगा।"
सूरदास-"जैसी आपकी इच्छा। किसी तरह उन गरीबों की परवस्ती होनी चाहिए।"
अभी ये बातें हो रही थी कि रानी जाह्नवी की मोटर आ पहुँची। रानी उतरकर सोफिया के पास आई और बोली-"बेटी, क्षमा करना, मुझे बड़ी देर हो गई। तुम घबराई तो नहीं? भिक्षुकों को भोजन कराकर यहाँ आने को घर से निकली, तो कुँवर साहब आ गये। बातों बातों में उनसे झौड़ हो गई। बुढ़ापे में मनुष्य क्यों इतना मायांध हो जाता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। क्यों मि० सेवक, आपका क्या अनुभव है?"
सेवक-"मैंने दोनों ही प्रकार के चरित्र देखे हैं। अगर प्रभु धन को तृण समझता है, तो पिताजी को फीकी चाय, सादी चपातियाँ और धुंधली रोशनी ही पसंद है। इसके प्रतिकूल डॉ० गंगुली हैं कि जिनकी आदमनी खर्च के लिए काफी नहीं होती और राजा महेंद्रकुमारसिंह, जिनके यहाँ धेले तक का हिसाब लिखा जाता है।"
यों बातें करते हुए लोग मोटरों की तरफ चले। मि० सेवक तो अपने बँगले पर गये; सोफिया रानी के साथ सेवा-भवन गई।