रक्षा बंधन/११—हिसाब-किताब

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हिसाब-किताब

( १ )

पं० रामशरण मध्यश्रेणी के आदमी थे। अनाज की आढ़त का काम करते थे। इनका एक विवाह योग्य लड़का था। यद्यपि उसके कई सम्बन्ध आये, पर पण्डित जी को वे पसन्द न हुए। पण्डित जी लोभी आदमी थे, वह किसी धनाढ्य की कन्या से लड़के का विवाह करना चाहते थे।

जब कोई सम्बन्ध करने आता था तो पहले आप उसकी हैसियत इत्यादि पूछते थे तत्पश्चात् प्रश्न करते थे कि लड़की के कितने भाई-बहिन हैं। भाई-बहिनों की संख्या सुनकर यह अनुमान लगाते थे कि उनकी भावी पुत्रवधु के हिस्से में कितना द्रव्य आयगा। जब हिसाब लगाते तो वह हिसाब कुछ अधिक उत्साह-प्रद न होता था। इस कारण वह सम्बन्ध करना अस्वीकार कर देते थे। अन्ततोगत्वा एक दिन एक महाशय आये। उनके ठाठ-बाट देखकर पण्डित जी ने अनुमान लगाया कि यह धनाढ्य व्यक्ति मालूम होता है। वार्तालाप आरम्भ हुआ! पंडित जी ने पूछा "आपकी आमदनी क्या है?"

"मेरी आमदनी पाँच-छः सौ रुपये मासिक की है।"

पण्डित जी ने सोचा जैसे ठाठ-बाट हैं वैसी आय नहीं है।

"आमदनी का द्वार क्या है?"पण्डित जी ने प्रश्न किया। [ ८२ ]"रियासत! मकानात और ज़मींदारी।"

"खूब! लड़की के कितने भाई-बहिन हैं।"

"भाई बहिन कोई नहीं, लड़की अकेली है।"

"आपके केवल एक ही लड़की है और कोई लड़की या लड़का नहीं है?"

"जी नहीं।"

यह सुन कर पण्डित जी के मुंँह में पानी भर आया,आँखे चमकने लगीं। अपनी प्रसन्नता को बलात् दाब कर पण्डित जी ने मुँह बनाया और बोले---"इतनी ही बात जरा घाटे की है।"

"यह तो देवी बात है। इसको क्या किया जाय।"

"आपकी बयस तो पचास के लगभग होगी।"

"जी हाँ छियालिस वर्ष की है?"

"लड़की की वयस?"

"चौदह साल की।"

पण्डित जी ने हिसाब लगाया "चौदह साल से अब कोई दूसरा बच्चा नहीं हुआ तब अब क्या होगा। इस लड़की के पहिले कोई संतान हुई थी?"

“जी हाँ! एक लड़का और लड़की हुए थे, परन्तु वे नहीं रहे।"

पण्डित जी ने मुँह बना कर कहा---"बड़े शोक की बात है।"

"परमात्मा की इच्छा है, और क्या कहा जाय।"

"हाँ जी! उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं होता।"

"यही बात है। हाँ तो लड़के की जन्मकुण्डली दे दें तो बड़ी कृपा हो।"

"जन्मकुण्डली आज तो न दे सकूँगा---आप कल किसी समय पधारने का कष्ट करें तो दे सकूँगा।"

"बहुत अच्छा कल सही। इसो समय?"

"सन्ध्या को पाँच-छः बजे पधारियेगा।"

"बहुत अच्छा।" [ ८३ ]उनके चले जाने पर आप झट पत्नी के पास पहुंँचे और बोले--- "इतने दिन बाद आज एक सम्बन्ध आया है।"

पत्नी उत्सुक होकर बोली---'अच्छा! कहाँ से?"

"--के रहने वाले हैं। पाँच-छः सौ रुपये महीने की रियासत है।"

"खैर उनसे हमें क्या मतलब। हाँ घर अच्छा है।"

"मतलब क्यों नहीं, लड़की अकेली है और कोई बच्चा नहीं है। हमारा लड़का ही रियासत का मालिक होगा।"

पत्नी प्रसन्न होकर बोली---"यह तो बड़ी अच्छी बात है। तो बस पक्का कर लो।"

"कुण्डली मिला कर ब्याह करेंगे। जो कुण्डली न मिली तो?"

"तो फिर भगवान की मरजी। उसमें हम---तुम क्या कर सकते हैं।"

परन्तु पण्डित जी का ऐसा विश्वास नहीं था। उन्होंने सोचा--- "कुण्डली मिलाना तो अपने हाथ की बात है, इसमें भगवान क्या कर सकता है।"

यह सोच कर आप बोले--"अच्छा! कुण्डली ईश्वर चाहेगा तो मिल ही जायगी।"

दूसरे दिन जब लड़की वाले कुण्डली मांगने आये तो आप उनसे बोले "कुण्डली तो नाना के घर में है। बात यह है कि लड़का अधिकतर वहीं रहा है, इस कारण वहीं है। मैंने अाज चिट्ठी डाल दी है---एक सप्ताह में आ जायगी---तब तक आप लड़की को कुण्डली भेज दें।

"लड़की की कुण्डली तो हम साथ ही लाये हैं---यदि आप चाहें तो ले लें।"

पण्डित जी बोले---"हाँ, हाँ, लाइये!"

"बात यह है कि मैं स्पष्ट आदमी हूँ। सब काम साफ और शुद्ध करता हूं।"

"क्या सुन्दर बात कही है आपने! यही मेरा भी स्वभाव हैं। [ ८४ ]सफाई से बढ़ कर और कोई चीज नहीं। तो कुण्डली दे जाइये। लड़के की कुण्डली में आते ही भेज दूँगा। पता दे जाइये अपना।"

उन्होंने लड़की की कुण्डली और लड़के वाले का पता ले लिया।

अब पण्डित जी बड़े प्रसन्न थे। सोचते थे हमने किस युक्ति से लड़की की कुण्डली ले ली। दूसरे ही दिन आपने अपने ज्योतिषी जी को बुलवाया और उन्हें लड़की की कुण्डली दिखाई। ज्योतिषी जो कुण्डली देख कर बोले---"लड़की के ग्रह तो बड़े सुन्दर पड़े हैं---राजयोग पड़ा हुआ है।"

"सो तो पड़ेना ही चाहिए। अच्छा हमारे लड़के की भी कुण्डली ऐसी बना दीजिए कि लड़की की कुण्डली से कमजोर न रहे और मिल भी जाय।"

ज्योतिषी जी ने स्वीकार कर लिया।

( २ )

चार दिन पश्चात् ज्योतिषी जी कुण्डली बना कर ले आये। कुण्डली देकर बोले---"बड़ी कठिनता से बनी है, परन्तु महीना, तिथि तथा समय बदल गया---सम्वत् वही रहा।"

"कोई चिन्ता नहीं। मिला कर बनाई है।"

"और क्या इसीलिए तो कठिनता पड़ी।"

"खैर बन तो गई।

"हाँ सो तो बन गई।"

"बस, इतना ही काफी है।"

"मैंने लड़के की कुण्डली में भी राजयोग कर दिया है और लड़का मंगली था सो वह योग भी हटा दिया।"

"बड़ा अच्छा किया। इसी की आवश्यकता थी।"

आपने झट दूसरे दिन जन्म-कुण्डली डाक द्वारा भेज दी। [ ८५ ]एक सप्ताह पश्चात लड़की वाले पुनः आए। पण्डित जी ने पूछा---"कुण्डली मिल गई?"

"हाँ बहुत अच्छी मिल गई है।"

"हाँ मैंने भी मिलवा ली---ठीक मिलती है।"

इसके पश्चात विवाह पक्का हुआ। लेन-देन का प्रश्न आने पर पण्डित जी बोले---"मैं ठहरा कर विवाह करने के विरुद्ध हूँ। आप हमारी और पनी हैसियत देखकर काम करें, चार आदमी हँसे नहीं, बस इतना चाहता हूं।"

"सो तो ईश्वर चाहे कदापि न होगा। इससे आप निश्चित रहें। मेरे भी चार नाते-रिश्तेदार हैं। मुझे उनका भी तो ख्याल है।"

"बेशक! होना ही चाहिए।"

विवाह पक्का हो गया। पण्डित जी ने प्राप्त रीति से यह पता भी लगवा लिया कि लड़की वाले की पाँच-छः सौ रुपये मासिक की रियासत है और उनके केवल एक लड़की ही है।

विवाह की तिथि निश्चित हो गई। समय समय पर सब रस्में भी पूरी हुई। परन्तु रस्मों में जो देन-लेन किया गया वह विशेष उत्साहप्रद नहीं था। पत्नी ने इस बात की शिकायत पण्डित जी से की तो वह बोले---"सब ठीक है, बोलो नहीं। छाती पर नहीं धर ले जायँगे अन्त की तो सब हमारा ही होगा। न दें इस समय---कंजूस स्वभाव वाले ऐसे ही होते हैं--परन्तु अन्त को तो देना ही पड़ेगा।"

यह सुन कर पत्नी को भी सन्तोष हो गया।

निश्चित तिथि पर विवाह हुआ। विवाह में भी लेन-देन साधारण ही रहा। पण्डित जी ने उस समय भी यही सोचकर सन्तोष किया---"आखिर ले कहाँ जायेंगे---मिलेगा सब हमी को। न इस समय सही कुछ दिन बाद सही। लड़के को ससुराल में ही बसा दूंँगा---जाते कहाँ हैं बच्चा! सारी कंजूसी भुला दूंँगा।"

विवाह होकर जब लड़की घर आई तो पत्नी को बड़ी निराशा [ ८६ ]हुई। लड़की रूपवान तो जरा भी न थी साथ ही उसका स्वास्थ्य भी अच्छा न था। पत्नी ने यह समाचार पति को दिया।

पण्डित जी बोले--"खैर रूपवान नहीं है तो न सही! परन्तु स्वास्थ्य ठीक होना चाहिए।"

"ऐसा कोई बहुत गड़बड़ भी नहीं है परन्तु बहुत तन्दुरुस्त नहीं है।"

"ऐसी काठी ही होगी। बस एक लड़का हो जाय, फर चाहे मर भी जाय तो चिन्ता नहीं।"

"हाँ लड़का तो भगवान चाहे साल दो साल में हो ही जायगा।"

"बस काफी है। हाँ एक काम करना होगा।"

"वह क्या?"

"लड़के को सुसराल में ही रखना होगा।"

"यह क्यों?"

"वहाँ रहेगा तो कोई रोजगार-व्यापार कर लेगा---रुपया वही देंगे?"

"दे देंगे?"

"जब उनके कोई है नहीं तब देंगे नहीं तो जाएंँगे कहाँ?"

"हाँ यह बात भी ठीक है।"

"बड़े भाग्य से यह सम्बन्ध मिला है। मैंने थोड़ी बुद्धिमानी से काम लिया न कहोगी। इतने सम्बन्ध आये, पर मैंने सब अस्वीकार कर दिए। स्वीकार कर लेता तो यह बढ़िया सम्बन्ध कहां मिलता।"

"ठीक बात है। इसीलिए तो कहा है कि धीरज से काम करना अच्छा होता है।"

"लड़की बिदा हो जाय तो एक महीने बाद मैं लड़के को वहीं भेज दूंँगा। अपना वहीं रहेगा और वहीं कोई रोजगार कर लेगा।"

"रोजगार के लिए रुपया भी देना पड़ेगा?"

"हम क्यों देंगे, वही देंगे! हमसे मांगने का उनका साहस पड़ेगा?"

"यदि माँगा तो?" [ ८७ ]"तो ऐसा उत्तर दूंगा कि याद करेंगें। तुम देखती तो जाओ मैं दो चार बरस में ही लड़के को वहाँ का मालिक बना दूंँगा।"

( ३ )

कुछ दिन पश्चात् पण्डित रामशरण ने लड़के को ससुराल भेज दिया और अपने सम्बन्धी को पत्र लिखा। "प्रिय भाई साहब, चिरंजीव कृष्ण शरण को आपके पास भेजता हूँ। यह मेरे वश का नहीं है। दुकान का काम नहीं देखता, इधर उधर घूमने-फिरने में समय बर्बाद करता रहता है। यहाँ इसकी संगत भी कुछ ऐसे लोगों से हो गई है जिनका चरित्र अच्छा नहीं है। इन सब बातों को ध्यान में रख कर मैं इसे आप के पास भेजता हूँ। आप इसे किसी काम में लगाइये। वहाँ रह कर यह सुधर जायगा। योग्य सेवा लिखते रहें।'

भवदीयः---रामशरण

कृष्ण शरण ससुराल पहुंँच गया। उसके श्वसुर ने पण्डित राम शरण को लिखा---

"प्रिय भाई जी, चिरंजीव कृष्णशरण आगया है। आप ने बड़ा अच्छा किया जो चिरंजीव को यहाँ भेज दिया। यहाँ कुछ दिन रहकर ठीक हो जायगा। प्रकट में तो उसका व्यवहार ऐसा नहीं है जो यह कहा जा सके कि वह आप के प्रतिकूल चलता होगा। खैर, जो भी हो! यहाँ महीना-दो महीना रहने से सब ठीक हो जायगा।

योग्य सेवा लिखते रहें।"

भवदीय---शंकर प्रसाद

यह पत्र पाकर पण्डित रामशरण बहुत हँसे। पत्नी से बोले--- "लिखते हैं महीना दो महीना रहने से, यह नहीं कहते कि अब वह वहीं रहेगा।"

"वह रक्खेंगे तब तो रहेगा।" पत्नी ने कहा।

"रक्खेंगे नहीं तो जायगे कहाँ। कृष्णशरण जब यहाँ आने को [ ८८ ] राजी होगा तभी तो भेजेंगे, धक्के देकर थोड़े ही निकाल देंगे।"

"और वह जो अपने आप चला आया?"

"मैंने उसे काफी सिखा पढ़ा दिया है वह वहाँ से टलने वाला नहीं है।"

इस प्रकार पांच महीने और व्यतीत हो गये। पण्डित रामशरण समय समय पर लड़के को यही परामर्श देते रहे कि अभी वहीं रहो और किसी कार्य में लगने का प्रयत्न करो।

कृष्ण शरण उत्तर देता था कि कार्य में लगाने के लिए उसने कई बार अपने श्वसुर से कहा और उन्होंने यही उत्तर दिया कि जल्दी क्या है। कोई काम सोचकर निश्चित किया जायगा।

पण्डित जी प्रत्येक बार हँस कर यही कहते थे—बच्चा कब तक टालेंगे।"

पाँच मास व्यतीत हो जाने पर एक दिन उन्हें शंकर का पत्र मिला। उसमें लिखा था—प्रिय भाई जी, आपको यह जान कर अत्यन्त प्रसन्नता होगी कि चिरंजीवी सौभाग्यवती चम्पादेवी को परसों सन्ध्या के समय शुभ मुहूर्त तथा लग्न में भाई की प्राप्ति हुई है। सूचनार्थ निवेदन है। योग्य सेवा लिखते रहें।

भवदीय

शंकर प्रसाद

चम्पा देवी कृष्णशरण को पत्नी का नाम था। यह पत्र पढ़कर पण्डितजी की आँखों के नीचे अँधेरा छा गया। कुछ देर बाद जब सावधान हुए तो पत्नी के पास पहुंचकर बोले—"किस्तू की माँ, तुम्हारे समधी के लड़का हुआ है।"

किस्नू की माँ घबराकर बोली—"क्या ?"

"तुम्हारी बहू के भाई हुआ है।"

"कब?"

"परसों" [ ८९ ]"व्याह को छः महीने हुए। इस से तो मालूम होता है कि व्याह के समय किस्नू की सास गर्भवती थी।"

"हाँ"

"यह बात उन्होंने नहीं बताई—छिपा गये।"

"बड़ी दगा की ससुर ने। हमने देन-लेन में भी कुछ नहीं किया। हम यह सोच कर चुप रहे कि सब अपना ही तो है। बड़ा धोखा खाया।"

"अब किस्नू को बुला लो। अब गुजर नहीं होगा। भाग में यही बदा था न लड़की ढंग की मिली न और कुछ मिला।"

"मैं खुद जाऊँगा। जरा उनसे दो-दो बातें तो कर आऊँ।"

रामशरण दो चार दिन बाद समधियाने पहुँचे। समधी से आप बोले—"आपने लड़के को किसी काम में नहीं लगाया।"

समधी ने उत्तर दिया—"किस काम में लगाऊँ, समझ में नहीं आता। अब तो बिलकुल ठीक है, यहाँ तो कोई ऐसी बात नहीं की जिससे हमें कुछ शिकायत होती। आप इसे ले जाइये—वहीं अपनी दुकान पर बिठाइये। वह काम इसका समझा हुआ है। किसी दूसरे काम का अनुभव इसे नहीं है और बिना अनुभव के काम नहीं कर सकता।"

रामशरण चुप हो गए। कोई उत्तर ही समझ में नहीं आया।

कृष्ण शरण ने उनसे अकेले में कहा—"अब यहाँ मेरा रहना उचित नहीं है। जब से लड़का हुआ है तबसे मेरे साथ इनका व्ययहार भो रूखा हो गया।"

"सो तो हो ही जायगा। जो मुझे यह पता होता कि बच्चा होने वाला है तो कदापि विवाह न करता और करता तो पहले काफी रकम धरा लेता। हम तो धोखे में ही मारे गये।"

पण्डित रामशरण लड़के को लेकर लौटे। चलते समय उनको क्रोध शान्त करने का उन्हें कोई अवसर नहीं मिला था। उन्हें और कुछ तो सूझा नहीं। दांत किटाकिटा कर बोले—तुमने समझा होगा कि जन्मपत्र मिलाया है, परन्तु वह जन्मपत्र असली नहीं था।" [ ९० ]शङ्कर दयाल हाथ जोड़ कर बोला—"तो क्या चिन्ता है, मैंने भी तो लड़की की नकली जन्मपत्री आपको दी थी ! हिसाब किताब बराबर न आपको शिकायत न मुझे।"

रामशरण का मुँह धुआं हो गया। यह बार भी उलटा उन्हीं पर पड़ा। रोते-पीटते घर वापिस आये।