रक्षा बंधन/१४—कम्यूनिस्ट सभा
( १ )
होली के अवसर पर जबकि चारों ओर अबीर-गुलाल की धूम मची थी, कुछ कम्यूनिस्ट लोग एक कमरे में जमा थे। यद्यपि इनके वस्त्र भी होली के रंग में रंँगे हुए थे, पर इनके मुखमण्डल पर होली की मुद्रा का चिन्ह भी नहीं था। ऐसा प्रतीत होता था कि किसी बड़ी गम्भीर समस्या पर विचार हो रहा है।
सहसा एक महाशय बोले---
"जब तक कम्यूनिज्म स्थापित नहीं" होता तब तक ये बातें बन्द नहीं हो सकतीं।'
"बन्द हों चाहे न हों, परन्तु हम लोगों को तो विरोध करना ही चाहिए।" दूसरे ने कहा।
"हम लोगों को होली में भाग न लेना चाहिए।" तीसरा बोला।
"हाँ? साथ ही एक सभा करके होली का विरोध करना चाहिए।"
"सभा तो खैर होनी ही चाहिए परन्तु और कुछ भी होना चाहिए।"
"और क्या होना चाहिए?"
कोई ऐसा कार्य जो प्रभावोत्पादक हो।"
सब लोग सोचने लगे परन्तु साम्यवादी मस्तिष्क होने के कारण किसी को कुछ न सूझा। साम्यवादी मस्तिष्क की यही विशेषता है कि वह ऐसी ही बात सोचेगा जो सबको सूझ जाय। जो बात सर्वसाधारण की सूझ के परे होती है वह साम्यवादी मस्तिष्क को कभी सूझ ही नहीं सकती।
एक महाशय ने पूछी---"रूस में तो होली होती नहीं।"
"जी नहीं।"
"तब तो केवल यही हो सकता है कि या तो इसमें होली खेलने की प्रथा स्थापित हो अथवा हिन्दुस्तान में होली बन्द कर दी जाय।इनमें से कौन सा कार्य सरल है?"
"दोनों कार्य कठिन हैं।"
"यह बात ठीक है! मान लिया कि दोनों कठिन हैं।"
"यह बात आप साम्यवाद के विरुद्ध कर रहे हैं कि थोड़े से व्यक्ति एक बात पर विचार कर रहे हैं। सबको विचार करने का अवसर देना चाहिए।"
"तो सभा का आयोजन किया जाय, उससे सब लोग विचार कर लेंगे।"
"हाँ, यह ठीक है। ऐसा ही होना चाहिए।" अतः दूसरे दिन संध्या समय एक सभा की गई। अपनेराम भी उसमें सम्मिलित हुए, यद्यपि अपने राम साम्यवादी नहीं है; परन्तु कुछ साम्यवादी मित्रों की कदाचित यह आशा है कि आगे चलकर अपनेराम भी उनके गोल में सम्मिलित हो जायेंगे---इसी कारण वे अपनेराम के साथ खास रियायत करते हैं।"
खैर साहब, सभा के समय के पन्द्रह मिनट पूर्व अपनेराम सभास्थल में जा पहुंँचे। कुछ लोग आ गये थे और कुछ आ रहे थे। अपनेराम एक कोने में जा बैठे।
सभा का समय हो गया; परन्तु मन्त्री जी गायब थे। अपनेराम ने पूछा---"क्या देर-दार है?"
"जरा मन्त्री जी आ जाए तब कार्यवाही आरम्भ हो।" "मन्त्री जी को इतना विलम्ब क्यों हुआ? उन्हें तो सबसे पहले आना था।
एक महाशय बोले।
अपनेराम ने कहा---"सबसे पहले आ जाना साम्यवाद के विरुद्ध है।"
"क्यों? विरुद्ध क्यों है?"
"मन्त्री जी में कौन से सुर्खाव के पर लगे हैं जो वह पहले ही आकर डट जायँ? साम्यवाद के अर्थ तो यह हैं कि सब एक साथ आवें और सब एक साथ जायंँ।"
"परन्तु यह भी तो नहीं हो रहा है। सब साथ कहाँ आ रहे हैं?"
"साम्यवादी सिद्धान्त को मानते हैं---व्यवहार में यदि गड़बड़ी होती है तो उसके जिम्मेदार साम्यवादी नहीं हैं।"
एक साम्यवादी महाशय बोल उठे---
"नहीं ऐसी बात तो नहीं है। हम लोग जो कहते हैं उसे व्यवहार में लाने का प्रयत्न भी करते हैं।"
इसी समय मन्त्री जी आ गये।
"लीजिए मन्त्री जी आ गये। अब कार्य आरम्भ हो जायगा।"
मन्त्री के एक हाथ में कुछ कागज-पत्र थे जिन्हें उन्होंने मेज पर रख दिया और एक बार सभा स्थल का सिंहावलोकन किया। इसके पश्चात् मन्त्री जी कुछ सहकारियों से खुसुर-फुसुर करने लगे। कुछ वार्तालाप करके वह अपनेराम के पास आये और बोले---"सभापति के लिये आपका नाम उपस्थित करते हैं।"
"क्या?
"आप सभापति बन जायँ!"
"यह आशीर्वाद दे रहे हैं या प्रार्थना कर रहे हैं?"
"नहीं, सभापति बनने के लिए प्रार्थना कर रहे हैं।"
"परन्तु आपको उचित है कि किसी कम्यूनिस्ट को सभापति बनाएं।"
"नहीं, यह कार्य आप ही को करना होगा।" "कदाचित कम्यूनिस्ट सब बराबर हैं, इस कारण उनमें से कोई सभापति नहीं बनाया जा सकता!"
"नहीं, ऐसी बात तो नहीं!"
"तब फिर उन्हीं में से किसी को बना दीजिए।"
"इस योग्य यहाँ कोई है नहीं।"
"क्या कहा! कामरेडों में कोई सभापति बनने योग्य नहीं। यह आप अपनी ओर से कह रहे हैं या सब की सलाह से?"
"इस मामले में सलाह लेने की क्या आवश्यकता है।"
"बिना सलाह के आप सब कामरेडों को सभापतित्व की योग्यता से खारिज दिये दे रहे हैं?"
"जी हाँ! आप ऐसा ही समझ लीजिए। शीघ्रता कीजिए, बड़ा विलम्ब हो रहा है।"
अपनेराम ने देखा कि अब तो आ ही फँसे हैं, इसलिये सभापति बने बिना कल्याण नहीं। अतः अपनेराम ने स्वीकार कर लिया।
अपनेराम के लिए सभापति का प्रस्ताव होने पर अपनेराम सभा- पति के आसन पर विराजमान हो गये। मन्त्री जी ने बोलने वालों की सूची पेश की। कई नाम थे।
पहले एक महोदय ने एक कविता पढ़ी। उसमें यही कहा गया था कि ऐसे कुसमय में जबकि अन्न-वस्त्र मिलता नहीं--होली मनाना अनुचित है इस कविता पर खूब तालियाँ पिटीं। एक महोदय बोले- "इसे फिर से पढ़िये!"
अपनेराम ने कहा---'यदि आप कविता दो बार पढ़वायेंगे तो भाषण भी दो बार दिये जायेंगे।'
"भाषणों पर यह नियम लागू नहीं होता।" मन्त्री जी बोले।
"होना चाहिए! अन्यथा कम्यूनिस्ट सिद्धान्त ही बदल जायगा। सब को समान अधिकार मिलने चाहिये!"
"यदि अपनेराम के सभापतित्व में कोई श्रोता किसी भाषरण को सुन कर बोल उठा--'यह भाषण दोबारा होना चाहिये' तो अपने राम उसे दोबारा बोलने की आज्ञा दे देंगे।"
"परन्तु भाषण याद कैसे रहेगा? कविता तो लिखी रहती है।"
"खैर मुझे इससे बहस नहीं है। मैं दोबारा आज्ञा दे दूंगा।"
खैर साहब पहले एक महाशय ने आकर बोलना प्रारम्भ किया----"सज्जनो यद्यपि रूस में होली नहीं होती,परन्तु तब भी हम लोग अपना भारतीय त्योहार मान कर इसे मनाते हैं।"
"न मनाना चाहिये।" एक कामरेड ने आवाज लगाई।
"क्यों?" एक ने प्रश्न किया।
"क्योंकि इस समय देश में सुख शान्ति नहीं है।"
एक महोदय खड़े होकर बोले----"मेरी राय में तो होली मनाना चाहिये। सुख-शान्ति ऐसे ही अवसरों पर मिलती है।"
हमने कहा---"अच्छा तो आपको सुख-शान्ति की तलाश है!"
"मुझे ही क्या, संसार उसकी खोज में हैं। परन्तु सुख शान्ति कुछ थोड़े से धनीमानी सज्जनों को ही मिलती है, सर्व-साधारण को नहीं मिलती।"
"धनीमानी सज्जनों को सुख-शान्ति! यह आपसे किसने कहा?"
"लोगों का खयाल तो ऐसा ही है"
"बिल्कुल गलत खयाल है। धनीमानी सज्जनों को जितनी चिन्ता सवार रहती है उतनी निर्धन को नहीं रहती।"
"क्या?" वक्ता ने पूछा।
"धनी को दुनिया भर की चिन्ता रहती है। किसी का देना है, किसी से पावना है, किसी से मिलना है, किसी से बात करना है---ऐसे बीसों झंझट लगे रहते हैं। निर्धन को ऐसी कोई चिन्ता नहीं रहती।" अपने राम ने कहा।
वक्ता ने पुनः कहना आरम्भ किया---"आप सभापति जी की बात पर ध्यान न देकर मेरी बात पर ध्यान दें। सभापति जी इन बातों को नहीं समझ सकते। हाँ तो ऐसे कुसमय में होली मनाना अनुचित है। जितना पैसा रंग-गुलाल में खर्च किया जायेगा उतना यदि किसी अच्छे काम में लगाया जाय तो राष्ट्र की सेवा हो जाय।"
"मेरी समझ में वह पैसा कम्यूनिस्टों को दान कर दिया जाय!" एक कामरेड महाशय बोले।
अपने राम बोले---"हियर! हियर! इससे बढ़के और पुण्य क्या होगा! परन्तु क्या कामरेड लोग यह आश्वासन दे सकते हैं कि जो पैसा पुण्य करके आप लोगों को देगा उसे अगले जन्म में वह पैसा---छः सात गुना होकर मिलेगा?"
"हम लोग तो अगला जन्म मानते ही नहीं।"
"तब तो आपको पुण्य-दान मिल चुका। दान लेना हो तो अगला जन्म अवश्य मानिए।"
"और दान देने वाला छै गुना सातगुना कैसे मांग सकता है? इतनी सूदखोरी उचित नहीं।"
"यह सूदखोरी नहीं, ब्लैक मार्केटिंग है। एक रुपया देकर सात मिलने की आशा रखना क्या कहलाएगा?"
"अपने शास्त्रों में तो यही लिखा हैं।" अपनेराम ने कहा।
"शास्त्रों की निर्धारित की हुई ब्याज की दर मान्य नहीं हो सकती।"
"यह दर तो ईश्वर की ओर से नियुक्त की गई है।"
"इसीलिये तो हम लोग ईश्वर को नहीं मानते। ईश्वर सबसे बड़ा व्याज लेना वाला है। जुवारियों के लिये सुना था कि बड़ा लम्बा सूद देते हैं, सबेरे सौ ले जाते हैं तो शाम को एक सौ पाँच दे जाते हैं। परन्तु ईश्वर ने उनके भी कान कतर लिए।"
उनके पश्चात् एक अन्य सज्जन आये उन्होंने कहना आरम्भ किया---"सज्जनो! मैं ये व्यर्थ की बातें पसन्द नहीं करता। मैं तो सीधी बात कहता हूँ कि होली का त्योहार बन्द कर दिया जाए, यद्यपि हमारी घरवाली बन्द करने के विरुद्ध है।"
"क्यों?" प्रश्न किया गया। "इसलिये कि वह कम्यूनिस्ट नहीं है।'
यह सुनते ही अपनेराम ने कहा---"खूब याद आया! जिन कामरेडों की स्त्रियां कम्यूनिस्ट हों वे कृपया अपने हाथ उठा दें।"
एक भी हाथ नहीं उठा।
अपने राम ने कहा---"एक भी कामरेड की पत्नी कम्यूनिस्ट नहीं है। यह बड़ी बेजा बात है, क्योंकि इस प्रकार आप लोगों का आधा अंग ही कम्यूनिस्ट है।"
“खैर!"
"खैर वैर कुछ नहीं। मैं तभी सभापति हो सकता हूं जब कम्यूनिस्टों का सम्पूर्ण अंग कम्यूनिस्ट हो।"
"खैर, यह तो अभी फिलहाल हो नहीं सकती।"
"तो अपने राम भी ऐसे अधूरे कम्यूनिस्टों की सभा का सभापतित्व नहीं कर सकते।"
यह कह कर अपने राम वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हुए।