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रक्षा बंधन/१-भक्त की टेर

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रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ १ से – ८ तक

 

भक्त की टेर

(१)

कुछ लोग भक्ति में विभोर होकर कीर्तन करते हैं और कुछ लोगों ने इसे संध्या की बैठकबाजी तथा मनोरंजन का साधन बना रक्खा है। अधिक संख्या ऐसों की ही है। परन्तु यह तो मानना ही पड़ेगा कि, धार्मिक दृष्टि से, यह मनोरंजनों की अपेक्षा उत्कृष्ट है।

रायसाहब कन्हैयालाल भी ऐसे लोगों में थे जिन्होंने कीर्त्तन को अपना मनोरंजन बना रक्खा है। उनके घर में कृष्ण मन्दिर था। कृष्ण-मन्दिर में ही कीर्त्तन होता था। रायसाहब के कुछ परिचित तथा कुछ वेतन-भोगी लोग सन्ध्या को ७ बजे आ जाते थे और नौ बजे तक कीर्त्तन करते थे। चलते समय उन्हें एक एक दोना प्रसाद मिलता था। कुछ लोक तो केवल प्रसाद के लालच से ही आकर सम्मिलित हो जाते थे। मनोरंजन का मनोरंजन और प्रसाद घाते में। कभी-कभी पास-पड़ौस की कुछ महिलायें भी आ जाती थीं। जिस दिन महिलाओं का सहयोग प्राप्त हो जाता था उस दिन कीर्त्तन करने वाले अपना पूरा जोर लगा देते थे। कुछ लोगों के लिए महिलाओं की उपस्थिति स्फूर्ति-दायक होती है।

एक दिन कीर्त्तन करने वाले रायसाहब से बोले "कृष्णाष्टमी आ रही है।"

"हाँ! खूब धूम से मनायेंगे।"

"इस बार कुछ नवीनता होनी चाहिए।"

"कैसी नवीनता! झाँकी में नवीनता?"

"झाँकी में तो कुछ न कुछ नवीनता हो ही जाती है। कीर्त्तन में कुछ नवीनता होनी चाहिए।"

"कीर्त्तन में क्या नवीनता हो सकती है—समझ में नहीं आता।"

"इस बार कोई कीर्त्तन करने वाली मण्डली बुलवाई जाय!—की मण्डली के बड़े नाम हैं, ऐसा कीर्त्तन करते हैं कि आनन्द आ जाता है।"

"तो क्या वह मण्डली बुलवाई जाय?"

"मेरी तो यही सम्मति है।" ढोल बजाने वाला बोला। "उनके साथ ढोलक बजाने वाला है! क्या ढोलक बजाता है—वाहवा! कमाल करता है। जी चाहता है खाली ढोलक ही सुना करो।"

"उनके साथ सभी आदमी अच्छे हैं। बाजा बजाने वाला क्या मामूली है?"

"वह भी बहुत बढ़िया है।"

रायसाहब बोले—"अच्छा कल उनको लिखेंगे, पूरा पता मालूम है?"

"हाँ मालूम है। लेकिन चिट्ठी से काम न होगा। चिट्ठी आने-जाने में देर हो जाएगी और तब तक सम्भव है कोई दूसरा उसे हथिया ले। इसलिए किसी आदमी को भेज दीजिए। वह जाकर बयाना दे आवे।"

यह राय अन्य लोगों को भी पसन्द आई। राय साहब ने यह राय मान ली। दूसरे दिन एक व्यक्ति मण्डली ठीक करने के लिए भेज दिया गया।

पाँच दिन पश्चात् वह आदमी लौटा। रायसाहब ने पूछा—"कहो ठीक कर आये?"

"ठीक क्या कर आया! उनके तो बड़े मिजाज हैं। सौ रुपये रोज और पूरी मण्डली का सेकेण्ड क्लास का किराया माँगते हैं।"

"फिर तुमने क्या किया?"

"कुछ नहीं। मैं कह आया हूँ कि यदि हमारे रायसाहब को स्वीकार होगा तो आपको तार से इत्तला दी जायगी। हाँ तार से ही सेकेण्ड क्लास का किराया और सौ रुपये पेशगी भेजने पड़ेंगे।"

"कितने आदमी आयेंगे?"

"पाँच आदमी! एक बाजे वाला, ढोलकिया, और तीन कीर्त्तन करने वाले। हाँ उनके साथ एक नौकर भी होगा, उसका थर्ड क्लास का किराया देना होगा।"

"यदि छठी तक उन्हें रक्खा गया तो छः सौ तो वह हुए और दो सौ के लगभग रेलभाड़ा—इस प्रकार आठ सौ का खर्चा है।"

"जी हाँ।"

रायसाहब कुछ क्षण सोच कर बोले—"अच्छा बुला लिया जाय।"

"तो आज दो सौ रुपये तार से भेज देना चाहिए। सौ रुपये पेशगी और सौ रुपये रेल-भाड़ा।"

"अच्छी बात है आज रुपये भेज दिए जायँगे।"

राय साहब ने उसी दिन दो सौ रुपये तार द्वारा भेजवा दिए।

(२)

दूसरे दिन नगर भर में यह समाचार फैल गया कि रायसाहब के यहाँ—की विख्यात कीर्त्तन-मण्डली आ रही है।

रायसाहब के परामर्शदाताओं ने यह समाचार रायसाहब को दिया।

"शहर भर में मण्डली आने की चर्चा है। भीड़ बहुत होगी।"

"भई हमारा तो प्राइवेट मामला है। हम बाहर वालों को न आने देंगे।" राय साहब बोले।

"यह तो कुछ अनुचित होगा राय साहब सोच लीजिए।"

"इसमें अनुचित क्या। हमारे यहाँ इतनी जगह ही नहीं कि बाहर की जनता समा सके।"

"हाँ जगह तो नहीं है, परन्तु कुछ प्रबन्ध तो करना ही पड़ेगा।"

"प्रबन्ध कैसा?"

"कोई बड़ा स्थान——।"

"कीर्त्तन तो भगवान के सामने होगा। मैं भगवान को यहाँ से उठा कर कहीं अन्यत्र नहीं ले जा सकता। भगवान यहाँ प्रतिष्ठित हो चुके हैं अतः यहीं रहेंगे।"

"समझ लीजिए! भीड़ इकट्ठी अवश्य होगी।"

"मैं दरवाजे पर बोर्ड लगवा दूँगा कि यह प्राइवेट कीर्त्तन हैं अनिमंत्रित लोग आने का कष्ट न उठावें। बल्कि स्थानीय समाचारपत्र में भी निकलवा दूँगा।"

"हाँ यदि ऐसा कर दिया जाय तो सम्भव है भीड़ न हो।"

"ऐसा तो करना ही पड़ेगा—अन्यथा मैं इतने लोगों को बिठाऊँगा कहाँ। मेरा मन्दिर कोई सार्वजनिक मन्दिर नहीं है—का मन्दिर सार्वजनिक है—वहाँ लोग जा सकते हैं।"

"परन्तु वहाँ तो इस साल कदाचित कुछ न होगा।"

"क्यों?"

"उनके यहाँ कोई मृत्यु हो गई है चार-पाँच महीने हुए।"

एक व्यक्ति बोल उठा—"ठाकुर जी के उत्सव से और मृत्यु से क्या सम्बन्ध! क्या घरवालों के साथ ठाकुर जी भी शोक मनायेंगे।"

"मनाना पड़ेगा। जब ठाकुर जी उनके घर में रहते हैं, उनका अन्न खाते हैं तब उन्हें उनके दुःख-सुख में भी भाग लेना पड़ेगा।"

"यह ठीक रहा। जब घर वाले खुशी मनावें तब ठाकुर जी भी खुशी मनावें और जब घर वाले मातम करें तब ठाकुर जी भी मातम करें।"

"क्यों भई जब घर वाले स्वर्गीय का स्मरण करके रोते होंगे। तब ठाकुर जी भी रोने लगते होंगे?"

"घर वाले कम रोते होंगे, ठाकुर जी ज्यादा रोते होंगे।"

राय साहब ने हँसकर पूछा—"क्यों? ठाकुर जी ज्यादा क्यों रोयेंगे।"

"यह सोचकर बहुत रोते होंगे कि अच्छी जगह आ फँसे। जहाँ घर वालों का मुँह देख कर हँसना-रोना पड़ता है।"

"तो ठाकुर जी ऐसी जगह फँसते क्यों हैं?"

"ठाकुर जी इतने सीधे हैं कि जो जहाँ पकड़ कर बिठा देता है वहीं धरे रहते हैं, फिर चाहे जितना रोना-झींकना पड़े परन्तु वहाँ से हिलने ही नहीं देते।"

"अच्छा भाई होगा। ठाकुर जी का प्रसङ्ग लेकर मजाक उचित नहीं। हमें दुनियाँ से क्या मतलब हमें तो अपने काम से काम है। हम तो अख़बार में छपवा देंगे और द्वार पर बोर्ड भी लगा देंगे।"

"जब जगह ही नहीं है तब तो यह करना ही पड़ेगा।"

इसके तीसरे दिन स्थानीय समाचार पत्र में निकला:—"सर्व साधारण की जानकारी के लिए सूचित किया जाता है कि राय साहब के यहाँ जन्माष्टमी पर जो कीर्त्तन होगा वह प्राइवेट रूप से होगा। उसमें केवल निमन्त्रित लोग ही सम्मिलित हो सकेंगे। अतः कृपा करके अनिमन्त्रित सज्जन पधारने का कष्ट न उठावें। अन्यथा स्थान संकोच के कारण उन्हें निराश होकर लौट जाना पड़ेगा।"

इस समाचार के निकलने पर जनता में काफी टीका-टिप्पणी हुई। कुछ लोगों ने इस समाचार के औचित्य पर सन्तोष प्रकट किया, परन्तु अधिकांश को असन्तोष हुआ।

(३)

जन्माष्टमी का दिन आ गया। रात के नौ बजे से ही रायसाहब के द्वार पर भीड़ जमा होने लगी। एक दोना प्रसाद और एक कुल्हिया पंचामृत पाने के लिए स्त्री-पुरुष की भीड़ जमा थी।

भीड़ देख कर रायसाहब घबराये। एक मित्र से बोले—"आदमी बहुत जमा हो गया है।"

"इनमें से अधिकांश तो केवल प्रसाद लेने के लिए खड़े हैं, प्रसाद लेकर चले जायेंगे।"

"परन्तु इतने आदमियों के लिए तो हमने प्रसाद का प्रबन्ध किया नहीं। और साल तो इतने आदमी नहीं आते थे।"

"इस वर्ष मण्डली आने के कारण आपका काफी विज्ञापन हो गया है इसलिए इतनी भीड़ जमा है। पहिले इतने आदमी नहीं जानते थे कि आप के यहाँ भी अष्टमी इतने धूम धाम से मनाई जाती है।"

"सबको प्रसाद नहीं मिलेगा तो बदनामी हो जायगी।"

"हाँ यह बात तो है।"

"तब क्या होना चाहिए।"

"जल्दी से प्रसाद बनवा लीजिए।"

"इतनी जल्दी प्रसाद कहाँ से बन सकता है। प्रसाद का सब सामान फल इत्यादि कच्चा दूध और दही यह इस समय कहाँ मिलेगा?"

"कच्चा दूध तो नहीं मिलेगा। सन्ध्या को मिल सकता था।"

"फल भी नहीं मिलेंगे।"

"हाँ है तो कठिन समस्या।

"तब क्या हो। बादल तो छाये हैं परन्तु वर्षा होने के लक्षण नहीं हैं। यदि वर्षा होने लगे तो यह भीड़ हुर्र हो जाय!"

"खैर देखा जायगा, कीर्तन तो प्रारम्भ करवाइये।"

रायसाहब सोचने लगे कि मण्डली बुलवा कर खामखाह एक मुसीबत मोल ले ली।

कीर्तन आरम्भ हुआ; परन्तु रायसाहब को इस समय उसके प्रति कोई अनुराग नहीं था। उनका ध्यान अपनी बदनामी हो जाने के भय में लगा हुआ था। उन्हें ठाकुरजी पर भी रोष हो रहा था कि हमारी आबरू बचाने के लिए वर्षा भी नहीं करते, बैठे मुँह ताक रहे हैं। ठाकुरजी के सामने खड़े होकर मन ही मन बोले—"ऐसे में मूसलाधार बरसा दो—बैठे देख क्या रहे हो? भक्त की आबरू बचाने के लिए कुछ भी न करोगे?"

परन्तु ठाकुरजी तो रायसाहब की भक्ति से भली भाँति परिचित थे। अतः रायसाहब की प्रार्थना से उनके चेहरे पर शिकन भी न आई।

रायसाहब ने पुनः प्रार्थना की—"देखो तुम्हारे मनोरंजन के लिए हमने कितनी बढ़िया मण्डली बुलवाई है इसका तो कुछ ख्याल करो।"

परन्तु ठाकुर जी की वही निर्निमेष दृष्टि तथा मुख पर मन्द मुस्कान।

कीर्त्तन चल रहा था। निमंत्रित श्रोतागण झूम-झूम कर कीर्त्तन में योग दे रहे थे। उन्हें क्या पता कि रायसाहब के हृदय पर क्या बीत रही है। रायसाहब दाँत किटकिटा कर अपने अन्तरंग आदमियों से कहते थे। कितने असभ्य तथा दरिद्री हैं लोग! मना कर देने पर आकर जमा हो गये—थोड़े से प्रसाद के लिए।

इस अवस्था में जन्म का समय आ गया। अभी तक द्वार बन्द था, जन्म हो जाने पर द्वार खुलने वाला था। पुजारी ने ठाकुरजी का जन्म करवाया! जन्म के समय रायसाहब के हृदय की धड़कन बढ़ गई—यह सोचकर कि अब द्वार खोलकर प्रसाद बाँटना होगा, देखो क्या बीतती है। कुछ भी हो ठाकुरजी ने इस समय अपने भक्त के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। वर्षा कर देते तो यह मुसीबत टल जाती।

सहसा द्वार खुलने के पहिले ही बूँदाबाँदी आरम्भ हो गई और जब द्वार खुलने का समय आया, तो मूसलाधार वर्षा आरम्भ हो गई।

रायसाहब प्रसन्न होकर बोले—"भक्त की टेर भगवान ने सुन ली—अब खोल दो द्वार!"

परन्तु जैसे ही द्वार खुला कि जनता की भीड़ मन्दिर में घुस आई; आदमी पर आदमी गिरने लगा। कुछ लोग कीर्त्तन करने वालों पर गिरे—कीर्त्तन वाले बाजा और ढोलक उठाकर भागे।

रायसाहब तथा उनके कर्मचारी भीड़ को रोकने की चेष्टा कर रहे थे परन्तु पानी से बचने के लिए लोग पिले पड़ते थे।

सहसा बिजली फेल हो गई और अन्धेरागुप हो गया।

XXXX

जब आध घन्टे पश्चात् पुनः बिजली आई तो वर्षा बन्द हो चुकी थी। बाहरी आदमी सब चले गये थे। रायसाहब की एक आँख सूझ आई थी, उनके एक कर्मचारी के आगे के दाँत टूट गये थे तथा अन्यों के भी हल्की चोटें पहुँची थीं।

रायसाहब ठाकुरजी की ओर देखकर बोले—"वाह महाराज आबरू तो बचा दी; परन्तु इतनी दुर्दशा करवा कर द्वार खुलने के आध घन्टे पहले वृष्टि करवा देते—इतनी भी अक्ल न आई।"

रायसाहब का एक कर्मचारी बोला—"रायसाहब थोड़ी गलती हम लोगों ने भी की। वर्षा आरम्भ होते ही द्वार खोल दिया, यदि दस-पन्द्रह मिनट ठहर जाते तो भीड़ सब भाग जाती। द्वार खुल जाने से वह सब यहीं पिल पड़ी।"

रायसाहब ने मन में कहा—"हाँ, यह भूल तो अवश्य हो गई।" यह सोचकर उन्होंने ठाकुरजी की ओर देखा। उधर वही निर्निमेष दृष्टि तथा मन्द मुस्कान थी।