रक्षा बंधन/९-वोटर

विकिस्रोत से

[ ६५ ]वोटर

सीरामऊ एक मध्यम श्रेणी का गाँव है। गाँव में ठाकुर-ब्राह्मणों की बस्ती अधिक है––कुछ अछूत जातियों के घर हैं, कुछ अहीर हैं––वैश्यों के दो-चार घर हैं और चार-पाँच घर मुसलमानों के हैं। इन मुसलमानों का रहन-सहन अधिकांश हिन्दुओं जैसा है। यहाँ के मुसलमानों को अपने मुसलमान होने का ज्ञान तो है परन्तु वे केवल इतना जानते हैं कोई खुदा है जो इस दुनिया का मालिक है। मुहम्मद साहब उसके नबी हैं। मुहम्मद साहब की शिफारिश से अल्लह मियाँ गुनहगारों के गुनाह माफ कर देगा। बिहिश्त-दोज़ख, रोजा-नमाज़, गुनाह साहब का इन्हें बहुत ही स्थूल ज्ञान है। वे यह तो समझते हैं कि मुसलमानी मजहब हिन्दू मजहब के कुछ खिलाफ है। मुसलमानी मजहब में बड़ी छूट है––इतने झगड़े नहीं हैं जितने हिन्दू मजहब में। इसलिए वे हिन्दुओं से अधिक स्वाधीन हैं। हिन्दुओं के प्रति उनका पार्थक्यभाव तो है परन्तु विरोध भाव नहीं है; क्योंकि हिन्दू अधिक संख्या में होते हुए भी उनसे मित्रता का व्यवहार करते हैं।

रात के समय जब इन मुसलमानों को एक साथ बैठने का अवसर मिला तो गप्पें लड़ने लगीं। एक बोला––"आज कल बोटन का बड़ा जोर है।"

"हाँ परसों हम सन्तोखीपुर की बजार गये थे वहाँ कुछ मुसलमान भाई पूछते थे कि तुम किसे वोट दोगे––हमें कुछ मालूम नहीं था, सो [ ६६ ]हमने कह दिया जिसे आप लोग देंगे। और क्या कहता?" करीम नामक व्यक्ति बोला।

"ठीक है। हमने तो एक दफा वोट डाला था, बहुत दिन हुए। अच्छी तरह याद नहीं कि कैसा क्या हुआ था––डिस्टक बोरड की तरह होते होंगे।"

"जब बखत आवेगा तब सब मालूम हो जायगा।"

"हमारा तो गाँव जिसे देगा––उसी को हम भी देंगे। गाँव के खिलाफ थोड़ा ही जा सकते हैं।"

"ठीक बात है गाँव के खिलाफ चलकर रहेंगे कहाँ?"

"सुना है––खुदा जाने सच है कि झूठ कि एक सुसलमानों की तरफ से खड़े होंगे और एक काँग्रेस की तरफ से।"

करीम के कान खड़े हुए, उसने पूछा––"यह क्या कहा––काँग्रेस की तरफ से?"

"हाँ सुना है कि एक मुसलमान तो मुसलमानों की तरफ से खड़ा होगा और एक काँग्रेस की तरफ से।"

"तो भइया एक बात है गाँव वाले तो काँग्रेस वालों को देंगे।"

"हाँ सो तो बनी बनाई बात है।"

"तब तो हमारी मुस्किल है। हमें मुसलमानों की तरफ़ वाले को देना चाहिए।"

"हाँ––यह भी ठीक कहते हो।"

"अरे तो इस मामले में हिन्दू लोग जोर नहीं देंगे।"

"हाँ जोर तो न देना चाहिए। हम मुसलमानों का मामला हम मुसलमान जाने। हम लोग तो उनके मामले में दखल नहीं देते।"

"मगर एक बात जरूर है––काँग्रेस का बड़ा जोर है।"

करीम ने पूछा––"काहे चचा तो हिन्दू तो किसी हिन्दू को वोट देंगे।"

"हाँ सो तो देंगे ही।" [ ६७ ]

"तब तो हमें मुसलमान को वोट देना पड़ेगा। हम हिन्दू को वोट काहे को दें।"

प्रौढ़ चचा हँस कर बोला––"अरे तुम समझे नहीं! हम तो मुसलमान को ही देंगे।"

"तुमने कहा न कि काँग्रेस की तरफ से खड़ा होगा।"

"होयगा वह भी मुसलमान ही हिन्दू नहीं होगा।"

"क्या मतलब मैं समझा नहीं।"

"तुम गावदी ही रहे। अरे भइया दो मुसलमान खड़े होंगे, एक मुसलमीन की तरफ से और एक काँग्रेस की तरफ से।"

"अच्छा काँग्रेस की तरफ से भी मुसलमान ही खड़ा होगा।"

"हाँ!"

"तब फिर क्या खौफ है। गाँव वाले जिस मुसलमान को कहेंगे, उसे वोट दे देंगे।"

"सो तो करना ही पड़ेगा।"

"गाँव के खिलाफ नहीं जा सकते।"

"यही तो मुस्किल है।"

(२)

चुनाव का दिन निकट आ गया। एक दिन एक मुसलमान कान्स्टेबिल गश्त करता हुआ सीरामऊ भी आ निकला। मुसलमानों ने उसका स्वागत किया। खाना-वाना खाने के बाद मु॰ कान्स्टेबिल बोला––"तुम किसे वोट देओगे?"

"अब हम यह सब क्या जानें! जिसे आप कहें उसे दे दें।"

"मुसलिम लीग के आदमी को देना।"

"मुसलिम लीग क्या है?"

"मुसलिम लीग मुसलमानों की एक जमात है। वह पाकिस्तान बनवायगी।" [ ६८ ]

"पाकिस्तान क्या?"

"पाकिस्तान माने मुसलमानी राज! काँग्रेस माने हिन्दू––राज।"

"अच्छा।"

"हाँ! हिन्दुओं के बहकावे में न आजाना।"

"लेकिन एक बात तो बताओ खाँ साहब! जब कांग्रेस-राज हिन्दू-राज है तब मुसलमान उसकी तरफ से कैसे खड़े होते हैं?"

"यह उनकी अकल और क्या कहा जाय। मुसलमान होकर हिन्दू-राज पसन्द कर रहे हैं।"

"यह तो बड़े ताज्जुब की बात है।"

"खैर! ताज्जुब की यह दुनिया ही है। तुम मुसलिम लीग के आदमी को वोट देना। उनका नाम....है। याद रखना भूल न जाना।"

सब ने तीन-चार बार नाम को रट कर याद करने के पश्चात् कहा––"यह अच्छा बता दिया खाँ साहब!"

प्रौढ़ व्यक्ति बोला––"मगर दारोगा जी तो हिन्दू हैं, वह तो नाराज न होंगे।"

"वह इस मामले में नहीं बोल सकते।"

"अच्छा!"

"हाँ! इनमें इतनी हिम्मत कहाँ? अभी कोई मुसलमान दारोगा होता तो देखते। यह हिम्मत मुसलमान में ही होती हैं। हाँ तो याद रखना।"

"याद रक्खेंगे खाँ साहब!"

"गाँव वाले हिन्दू बहकावें तो उनकी बातों में मत आजाना!"

"अब जब आपका हुकुम लग गया तब गाँव वाले चाहे जो कहें।"

खाँ साहब तो यह पट्टी पढ़ा कर चल दिया। इधर इनमें खिचड़ी पकने लगी।

"अब आयी मुसीबत!"

"काहे!" [ ६९ ]

"खाँ साहब––मुसलिम––वह क्या कहा था––याद नहीं आता।"

"कुछ लीग-लीग कहते थे।"

"हाँ वही मुसलिम लीग! खाँ साहब उसके आदमी के लिए कह गये हैं, गाँव वाले काँग्रेस वाले को कहेंगे।"

"हाँ यह तो है।"

खाँ साहब पुलिस के आदमी हैं, दुश्मनी बाँध लेंगे।"

"और क्या।"

"इधर गाँव वालों की बात न मानेंगे तो यह बिगड़ेंगे। रात-दिन इन्हीं के साथ रहना है।"

"यही तो मुस्किल है।"

दूसरे गाँव के ठाकुर मुखिया ने इन सबको बुलवाया। इनके पहुँचने पर उसने पूछा––'कहो अल्लाहबकस मियाँ––किसे वोट देने का इरादा है।"

"अब हम क्या बतावें मुखिया––जिसे कहो उसे देदें।"

“भई हमारी राय तो––को देने की है।"

"खाँ साहब मुसलिम लीग वाले को देने कह गये हैं।"

"कौन खाँ साहब?"

"अरे वही थानेवाले।"

"अच्छा वह मियाँ! उनको कहने दो।"

"पुलिस के आदमी हैं।"

"तो क्या करेंगे। न जाने कहाँ के रहने वाले हैं। साल-छः महीने में बदलकर चले जायेंगे––कौन उनकी यहाँ जिमींदारी है।"

"हाँ यह तो आप ठीक कहते हो।"

"और हमारे साथ तुम्हें जिन्दगी काटनी है।"

"हाँ मुखिया दाऊ! मरने-जीने के साथी तो आप लोग ही हैं।"

"तो बस यह समझ लेओ।"

"सो हम आप से बाहर नहीं हैं जिसे हुकुम देओगे उसे देंगे।"

"बस यही पूछना था––अच्छा-यह नाम याद रखना––समझे?" [ ७० ]

"सुनो मियाँ––यह नाम याद कर लो।" एक ने अन्य से कहा।"

"याद है और भूल जाएँगे तो चलते बखत मुखिया दाऊ से पूछ लेंगे।"

"और क्या। और वोट डालने की जगह भी आदमी रहेंगे––उनसे पूछ लेना।"

"हाँ! वह सब हो जायगा।"

यह कहकर वे लोग चल दिए।

(३)

रास्ते में सब बातें करते हुए चले––अल्लाहबख्श बोला––"गाँव के खिलाफ कैसे जा सकते हैं।"

"और यह बात मुखिया ने ठीक कही––खाँ साहब तो चले जाएँगे"

"हाँ ये लोग तो बदलते ही रहते हैं।"

"हमें तो गाँव के साथ चलना है, जिनका हमारा हर बखत का साथ है।"

"सो तो हई है।"

परन्तु करीम को ये बातें नहीं जँच रही थीं। उसका लक्ष्य केवल यह था कि मुसलमान भाइयों के खड़े किए हुए आदमी को देना चाहिए। उससे मुसलमानी राज हो जाएगा। अतः वह गुम-सुम चल रहा था इन लोगों की बातों में योग नहीं दे रहा था।

अन्त को पोलिंग दिवस आ गया। मुसलिम लीग तथा काँग्रेस के आदमी घूमने लगे। ये सब लोग भी वोट डालने चले। दोनों पक्षों से हाँ-हाँ करते हुए हँसते-खेलते जा रहे थे––केवल करीम गहरे विचार में था। वह अभी कुछ निश्चय नहीं कर पाया था कि क्या करे।

पोलिंग स्टेशन पर पहुँचने पर करीम ने देखा कि एक ओर लीग का तम्बू लगा है और दूसरी ओर काँग्रेस का। काँग्रेस के तम्बू में केवल [ ७१ ]पानी पीने का इन्तजाम है––मुसलमानी तम्बू में पलेटें चल रही थीं। वह अपने साथियों से बोला––"हम जरा उधर घूम आवें! तुम लोग यहीं मिलना।"

उसके साथी दोनों तम्बुओं के बीच में टहल रहे थे, कभी लीग के तम्बू को देखते थे कभी काँग्रेस के। जिस ओर के आदमी बुलाते थे उस ओर मुस्करा कर कह देते थे––"आ जाएँगे! ऐसे जरा टहल रहे हैं।"

इधर करीम ने एक पलेट साफ की, पानी पिया और पान खाया।

इसी समय एक वालंटियर बोला––"चलो तुम्हारा वोट डलवादें।"

करीम बोला––"चलो!"

रास्ते में सोचता जा रहा था कि कहदेंगे जबरदस्ती पकड़ ले गये।

जब अन्दर पहुँचा तो कलेजा धड़कने लगा। सुना था अन्दर डिप्टी साहब होंगे। पुलिस होगी। पुलिस को भी देखा, डिप्टी साहब भी जरूर ही होंगे। मुँह सूख गया।

जिस समय उससे प्रश्न किया गया कि किसे वोट देओगे तो वह दोनों नाम भूल गया। वह भयभीत नेत्रों से मुँह ताकने लगा।

फिर प्रश्न किया गया––"किसे वोट देओगे! जल्दी बोलो।"

करीम का दिमाग चकराने लगा। इसी समय एक ने राष्ट्रीय मुसलमान का नाम लेकर कहा––को वोट दोगे?

करीम ने प्राण ऐसे पाये! जल्दी से बोला––"हाँ! हाँ! इन्हीं को।"

क्लर्क ने क्रास लगाकर वोट-बक्स के अन्दर डाल दिया।

वह लौटने लगा तो एक मुसलिम लीगी बोला––"तुमने तो काँग्रेस के मुसलमान को वोट दिया।"

"म्याँ कुछ बोलो नहीं।"

"तुमने बताया भी नहीं। हम भूल गये।" [ ७२ ]

"बड़े गँवार हो।"

बाहर आकर जब अपने साथियों से मिला तो उन्होंने पूछा––

"किसे वोट दिया?"

करीम बोला––"कुछ पूछो नहीं। हम घबड़ा गये।"

"वोट किसे दिया।"

"काँग्रेस के आदमी को।"

"ठीक है! गये मुसलिम लीग के आदमी के साथ और वोट काँग्रेस को दिया!"

"हाँ! हाँ! लीग वाले ज़बरदस्ती पकड़ ले गये। वहाँ जाकर हमने काँग्रेस के मुसलमान को वोट दिया।"

परन्तु उसकी बात पर किसी ने विश्वास नहीं किया। करीम को यह अफसोस है कि उसका वोट मुस्लिम लीग को नहीं मिला और अन्य लोगों को यह सन्देह है कि उसने मुसलिम लीगी उम्मीदवार को वोट दिया।