राजा और प्रजा/५ कण्ठ-रोध

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कण्ठ-रोध।*[१]

इस समय हम जिस भाषामें प्रबन्ध पढ़नेके लिये उद्यत हुए हैं वह भाषा यद्यपि बंगालियोंकी भाषा है, दुर्बलोंकी भाषा है, विजितजातिकी भाषा है तथापि उस भाषासे हमारे शासक लोग डरते हैं। इसका एक कारण है, वे लोग यह भाषा नहीं जानते और जहाँ अज्ञानका अन्धकार होता है वहीं अन्य आशंकाके प्रेतका निवास होता है।

कारण चाहे कुछ ही क्यों न हो लेकिन जो भाषा हमारे शासक लोग नहीं जानते और जिस भाषासे वे लोग मन ही मन डरते हैं उस भाषामें उन लोगोंके साथ बातचीत करनेमें हमें उनसे भी अधिक डर लगता है। क्योंकि इस बातका विचार उन्हीं लोगोंके हाथमें है कि हम लोग किस भावसे कौनसी बात कहते हैं और हम लोगोंकी बातें असह्य वेदनाके कारण मुँहसे निकलती हैं अथवा दुःसह स्पर्धाके कारण। और इस विचारका फल कुछ ऐसा वैसा नहीं है।

हम लोग विद्रोही नहीं है, बहादुर नहीं हैं और समझते हैं कि शायद नासमझ भी नहीं हैं। हम लोग यह भी नहीं चाहते कि उठा हुआ राजदण्ड हम लोगोंपर गिर पड़े और हम अकस्मात् अकालमृत्युके मुँहमें जा पड़ें। लेकिन हम स्पष्ट रूपसे यह बात नहीं जानते [ ८३ ] कि राजकीय दण्ड धारण करनेवाला पुरुष भाषाके किस कोनेपर घात लगाए बैठा है। और न शासक ही इस बातको अच्छी तरह जानते हैं कि किस स्थानपर वक्ताके पैर रखते ही हमारा दण्ड आकर उसको जमीनपर गिरा देगा। इसलिये स्वभावतः ही उन शासकोंका शासनदण्ड आनुमानिक आशंकाके वेग और अन्ध भावसे चलकर कानूनकी न्यायसीमाका उल्लंघन करता हुआ अचानक उल्कापातकी तरह बैमोके और बेवक्त दुर्बल जीवोंकी अन्तरिन्द्रियको चकित कर सकता है। ऐसे अवसरपर बिलकुल चुपचाप बैठ रहना ही सबसे बढ़कर बुद्धिमत्ताका कार्य है और इस बातके भी कुछ लक्षण अब दिखाई देते हैं कि हमारे इस अभागे देशमें बहुतसे लोग कर्त्तव्य-क्षेत्रसे बहुत दूर छिपे रहकर आपत्तिसे बचानेवाली इस सद्बुद्धिका अवलम्बन करेंगे। और देश के कुछ ऐसे बुरे दिन आ रहे हैं कि हमारे देशके जो बड़े बड़े विक्रमशाली व्याख्यानदाता विलायती सिंहनादसे श्वेत द्वैपायनोंके या गोरे अँगरेजोंके हृदयमें भी सहसा विभ्रम उत्पन्न कर सकते हैं उनमेंसे बहुतसे लोग किसी गुफामें छिपकर चुप रहनेका अभ्यास करने लगेंगे। उस समय ऐसे दुस्साहसिक देशभाई दुर्लभ हो जायँगे जो इस अभागे देशकी वेदनाका निवेदन करनेके लिये राजद्वारतक जा सकें। यद्यपि शास्त्रमें कहा है कि "राजद्वारे स्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः" लेकिन फिर भी ऐसी दशामें जब कि स्मशान और राजद्वार इतने अधिक निकटवर्ती हो गए हैं तब उन डरे हुए भाइयों को कुछ क्षमा ही करना पड़ेगा।

हम लोगोंका ऐसा स्वभाव ही नहीं है कि यदि राजा विमुख हो जाय तो हम लोग उससे न डरें। लेकिन इसी प्रश्नने हम लोगोंको बहुत अधिक उद्विग्न कर दिया है कि राजा क्यों इस बातको इतना अधिक प्रकट करने लग गया है कि हम तुम लोगों (प्रजा) से डर रहे हैं। [ ८४ ]यद्यपि अँगरेज हम लोगोंके एकेश्वर राजा हैं और उनकी शक्ति भी अपरिमित है, तथापि वे लोग इस देशमें डरते डरते ही वास करते हैं। क्षण क्षणपर उनके इस डरका पता पाकर हम लोग विस्मित होते हैं। बहुत दूरपर बैठे हुए रूसके पैरोंकी आहटका केवल अनुमान करके ही वे लोग जिस प्रकार चकित हो जाते हैं उसका हम लोग बहुत ही दुःखके साथ अनुभव करते हैं। क्योंकि जब जब उनका हृदय काँपता है तब तब हमारी भारत-लक्ष्मीके शून्यप्राय भांडारमें भूकम्प उपस्थित हो जाता है और इस दीन पीड़ित और कंगाल देशके लोगोंकी भूख मिटानेवाला अन्न क्षण भरमें तोपका गोला बन जाता हैं-हमारे लिये यह लघुपाक खाद्य पदार्थ नहीं है।

बाहरके प्रबल शत्रुके सम्बन्धमें इस प्रकारकी सचकित सतर्कताका समूलक कारण हो भी सकता है, उसकी भीतरी बातें और जटिल तत्त्व हम लोग नहीं समझते।

लेकिन इधर थोड़े दिनोंसे लगातार एकके बाद एक जो कई अभावनीय घटनाएँ हो गई हैं उनसे हमें सहसा यह मालूम हुआ है कि हम लोग बिना कोई चेष्टा किए और बिना किसी कारणके भय उत्पन्न कर रहे हैं। हम लोग भयंकर हैं! आश्चर्य! पहले हमें कभी इस बातका सन्देह भी नहीं हुआ था।

इतनेमें ही हम लोगोंने देखा कि सरकार बहुत ही चकित भावसे अपनी पुरानी दण्डशालामेंसे कई अव्यवहृत कठोर नियमोंक प्रबल लोहेके सिक्कड़ बाहर निकालकर उनका मोरचा छुड़ानेके लिये बैठी है। प्रचलित कानूनके मोटे रस्सोंसे भी अब वह हम लोगोंको बाँधकर नहीं रख सकती-हम लोग बहुत ही भयंकर हो गए हैं। [ ८५ ]एक दिन हमने सुना कि अपराधीको अच्छी तरह समझ-बूझकर पकड़नेमें असमर्थ होकर हमारी क्रुद्ध सरकारने गवाह, सबूत, विचार, विवेचना आदिके लिये विलम्ब न करके अचानक सारे पूना शहरकी छातीपर राजदण्डका पत्थर रख दिया। हमने सोचा कि पूना बड़ा भयंकर शहर है! भीतर ही भीतर न जाने उसने कौनसा बड़ा भारी उपद्रव डाला है!

लेकिन आजतक उस भारी उपद्रवका किसीको कुछ भी पता न लगा।

हम चुपचाप बैठे हुए अभी यही सोच रहे थे कि यह बात सचमुच हुई है या हम स्वप्न देख रहे हैं कि इतनेमें तारसे खबर आई कि राजप्रासादके गुप्त शिखरसे एक अज्ञात अपरिचित और वीभत्स कानून बिजलीकी तरह आ गिरा और नाटू भाइयोंको देखते देखते न जाने कहाँ उड़ा ले गया। देखते देखते सारे बम्बई प्रदेशके ऊपर धना काला बादल छा गया और जबरदस्त शासनकी गड़गड़ाहट, वज्रपात और शिलावृष्टिकी नौबत देखकर हमने सोचा कि यह तो नहीं मालूम कि अन्दर ही अन्दर वहाँ क्या हो रहा है लेकिन इतना बहुत अच्छी तरह दिखाई दे रहा है कि बात साधारण नहीं है! मराठे लोग बहुत भयंकर हैं!

एक ओर पुराने कानूनके सिक्कड़का मोरचा साफ हुआ और दूसरी और राजकीय कारखानेमें नए सिक्कड़ बनानेके लिये भीषण हथौड़ेका शब्द हो रहा है! इस शब्दसे सारा भारत काँप उठा है! लोगोंमें भयंकर धूम मच गई है! हम लोग बड़े ही भयंकर हैं!

अबतक हम लोग इस विपुला पृथ्वीको अचला समझा करते थे क्योंकि इस प्रबला पृथ्वीके ऊपर हम लोग जितने निर्भर हैं और उसके [ ८६ ] प्रति हमने जितने उपद्रव किए हैं उन सबको उसने अपनी प्रकाण्ड शक्तिसे चुपचाप और अनायास ही सह लिया है। किन्तु एक दिन नई वर्षाके दुर्योगमें मेघावृत्त दोपहरको हम लोगोंकी वही चिर-निर्भर भूमि अचानक न जाने किस गूढ आशंकासे काँपने लगी। हमने देखा कि उसकी उस क्षण भरकी चंचलताके कारण हम लोगोंके बहुत दिनोंके प्रिय और पुराने वासस्थान मिट्टीमें मिल गए।

यदि सरकारको अचला नीति भी अचानक साधारण अथवा अनिश्य आतंकसे विचलित और विदीर्ण होकर हम लोगोंको खानेके लिये तैयार हो जाय, तो उसकी शक्ति और नीतिकी दृढ़ताके सम्बन्धमें हम लोगोंका बहुत दिनोंसे जो विश्वास चला आता है सहसा उस विश्वासपर बड़ा भारी धक्का लगता है। उस धक्केसे प्रजाके मनमें भयका संचार होना सम्भव है लेकिन उसके साथ ही यह बात भी बहुत स्वाभाविक है कि सरकारको स्वयं अपने लिये भी अचानक बहुत कुछ सोच विचार करना पड़े। यह प्रश्न सहसा आप ही आप मनमें उठता है कि हम न जाने क्या हैं!

इससे हम लोगोंकी थोड़ी बहुत तसल्ली होती है। क्योंकि जो जाति पूरी तरहसे निस्तेज और निःसत्व हो गई हो, उसके प्रति बलका प्रयोग करना जिस प्रकार अनावश्यक है उसी प्रकार उसके प्रति श्रद्धा करना भी असम्भव है। जब हम लोग यह देखते हैं कि हमें दमन करनेके लिये विशेष प्रयत्न हो रहा है तब न्याय और अन्याय, विचार और अविचारका तर्क दूर हो जाता है और हमारे मनमें स्वभावतः यह बात आती है कि शायद हम लोगोंमें किसी शक्तिकी संभावना है और केवल मूढ़ताके कारण हम सब अवसरोंपर उस शक्तिको काममें नहीं ला सकते। ऐसी दशामें जब कि सरकार चारों तरफ तोपें लगा [ ८७ ] रही है तो यह बात निश्चय है कि हम लोग मच्छड़ नहीं हैं! कमसे कम मरे हुए मच्छड नहीं हैं!

हमारी जातिमें यदि कुछ प्राण अथवा कुछ शक्तिके संचारकी संभावना हो तो हमारे लिये यह बहुत ही आनन्दकी बात है। इस बातको अस्वीकृत करना ऐसी स्पष्ट कपटता है कि पालिसीके रूपमें तो वह अनावश्यक और प्रवंचनाके रूपमें बिलकुल व्यर्थ है। इसलिये जब हम यह देखते हैं कि सरकार हम लोगोंकी उस शक्तिको स्वीकृत करती है तो हमारे निराश चित्तमें थोड़ेसे गर्वका संचार हुए बिना नहीं रह सकता! लेकिन दुःखका विषय यह है कि यह गर्व हम लोगोंके लिये सांघातिक है। जिस प्रकार सीपमें मोतीका होना सीपके लिये बुरा होता है उसी तरह हम लोगोंमें इस गर्वका होना भी बुरा है। कोई चालाक गोताखोर हम लोगोंके पेटमें छुरी भोंककर यह गर्व निकाल लेगा और इसे अपने राजमुकुटमें लगा लेगा । अँगरेज अपने आद को देखते हुए हम लोगोंका जो अनुचित सम्मान करते हैं वह सम्मान हम लोगोंके लिये परिहासके साथ ही साथ मृत्यु भी हो सकता है। गवर्नमेन्ट हम लोगों में जिस बलके होनेका सन्देह करके हम लोगोंके साथ बल प्रयोग करती है वह बल यदि हम लोगोंमें न हुआ तो उसके भारी दण्डसे हम लोग नष्ट हो जायँगे और यदि वह बल हम लोगोंमें सचमुच हुआ तो उस दण्डकी मारसे हमारा वह बल बराबर दृढ़ और अन्दर ही अन्दर प्रबल होता जायगा।

हम लोग तो अपने आपको जानते हैं, लेकिन अँगरेज हम लोगोंको नहीं जानते। उनके इस न जाननेके सैकड़ों कारण हैं जिनका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं है। साफ़ बात यही है कि वे हम लोगोंको नहीं जानते। हम लोग पूर्वके रहनेवाले हैं और वे पश्चि[ ८८ ] सके। हम लोगोंमें किस बातका क्या परिणाम होता है, हमें किस जगह चोट लगनेसे कहाँ पीड़ा होती है, इस बातको वे लोग अच्छी तरह नहीं समझ सकते। इसीलिये उन लोगोंको भय है। हम लोगोंमें भयंकरताका और कोई लक्षण नहीं है, केवल एक लक्षण है और वह यह कि हम लोग अज्ञात हैं। हम लोग स्तन्यपायी उद्भिदभोनी जीव हैं, हम लोग शान्त सहनशील और उदासीन हैं; लेकिन फिर भी हम लोगोंका विश्वास नहीं करना चाहिए। क्योंकि हम लोग पूर्वके रहनेवाले और दुर्जेय हैं।

यदि सचमुच यही बात हो तो हम अपने शासकोंसे कहते हैं कि आप लोग क्यों हम लोगोंको और भी अधिक अज्ञेय करते जा रहे हैं? यदि आप रस्सीको साँप समझ रहे हों तो क्यों चटपट घरका दीआ बुझाकर अपना भय और भी बढ़ा रहे हैं, जिस एक मात्र उपायसे हम लोग आत्मप्रकाश कर सकते हैं, आपको अपना परिचय दे सकते हैं, उस उपायको रोकनेसे आपको क्या लाभ होगा?

गदरसे पहले हाथों हाथ जो रोटी वितरण की गई थी, उसमें एक अक्षर भी नहीं लिखा था, फिर भी उससे गदर हो गया था। तब ऐसे निर्वाक निरक्षर समाचारपत्र ही क्या वास्तवमें भयंकर नहीं हैं? साँपकी गति बिलकुल गुप्त होती है और उसके काटनेमें कोई शब्द नहीं होता, लेकिन क्या केवल इसीलिये साँप निदारुण नहीं होता? समाचारपत्र जितने ही अधिक और जितने ही अबाध होंगे स्वाभाविक नियमके अनुसार देश आत्मगोपन करनेमें उतना ही अधिक असमर्थ होगा। यदि कभी अमावस्याकी किसी गहरी अँधेरी रातमें हम लोगोंकी अबला भारतभूमि दुराशाके दुस्साहससे पागल होकर विप्लव-अभिसारकी यात्रा करे तो संभव है कि सिंहद्वारका कुत्ता [ ८९ ] न भी भूँके, राजाके पहरेदार न भी जागें, नगररक्षक कोतवाल उसे न भी पहचाने, लेकिन स्वयं उसके ही शरीरके कंकण, किंकिंणि, नूपुर और केयूर, उसकी विचित्र भाषाके विचित्र समाचारपत्र कुछ न कुछ बज ही उठेंगे, मना करनेसे न मानेंगे। पहरेदार यदि अपने हाथमे उन मुखर आभूषणोंकी ध्वनि रोक देगा, तो इससे केवल यही होगा कि उसे सोनेका अच्छा अवसर मिल जायगा लेकिन हम यह नहीं जानते कि उससे पहरेके काममें क्या सुभीता होगा!

लेकिन पहरा देनेका भार जिन जागे हुए लोगोंके हाथमें है पहरा देनेकी प्रणाली भी वे ही लोग स्थिर करते हैं। इस विषयमें विज्ञोंकी तरह परामर्श देना हमारे लिये बड़ी भारी धृष्टता है और संभवतः वह निरापद भी नहीं है। इसलिये मातृभाषाके हमारे इस दुर्बल उद्यममें दुश्चेष्टा नहीं है। तो फिर हम लोग यह क्षीण क्षुद्र व्यर्थ और विपत्तिजनक वाचालता क्यों करते हैं? केवल इसी बातका स्मरण करके कि एक दुर्बलके लिये किसी प्रबलका भय कितना भयंकर होता है!

यदि इस स्थानपर एक छोटासा दृष्टान्त दे दिया जाय तो कदाचित् वह कुछ अप्रासंगिक न होगा। थोड़े दिन हुए कि कुछ निम्न श्रेणीके अविवेचक मुसलमानोंके एक दलन कलकत्तेकी सड़कोंपर ढेले फेंककर उपद्रव करनेकी चेष्टा की थी। इसमें आश्चर्यकी बात यही है कि उपद्रवका लक्ष्य विशेषतः अँगरेजोंपर ही था। उन मुसलमानोंको दण्ड भी यथेष्ट मिल गया। लोग कहते हैं कि जो ईंटे मारता है उसे पत्थर खाने पड़ते हैं, लेकिन उन भूखेको ईंटें मारकर पत्थरसे भी कहीं बढ़कर कड़े कड़े पदार्थ खाने पड़े। उन्होंने अपराध किया और उसका दण्ड पाया; लेकिन आजतक स्पष्ट रूपसे यह समझमें न आया कि इसके अन्दर बात क्या थी। छोटी श्रेणीके ये मुसलमान [ ९० ] लोग न तो समाचारपत्र ही पढ़ते थे और न लेख ही लिखते थे। एक छोटी मोटी घटना हो गई, लेकिन इस मूक, निर्वाक् प्रजा-सम्प्रदायके मनकी कुछ भी समझाई न दी। इस बातका रहस्य नहीं खुला, इसीलिये सर्व साधारणके मनमें उसके सम्बन्धमें एक झूठा और कृत्रिम गौरव उत्पन्न हुआ। हरिसन रोडसे लेकर तुर्कोंके अर्द्धचन्द्र-शिखरी राजप्रसाद तक इसके सम्बन्धमें तरह तरहके संभव और असंभव और कल्पनाएँ होने लगीं। इस बातका कुछ भी रहस्य नहीं खुला, इसी लिये आतंक-चकित अँगरेजी समाचारपत्रों से किसीने कहा कि यह कांग्रेसके साथ मिले हुए राष्ट्रविष्टवकी सूचना है। किसीने कहा कि मुसलमानोंकी बस्ती बिलकुल नष्टभ्रष्ट कर दी जाय और किसीने कहा कि ऐसी भयंकर विपत्तिके समय बड़े लाटका शीतल पहाड़पर आनन्दसे बैठे रहना उचित नहीं हुआ।

रहस्य ही अनिश्चित भयका प्रधान आश्रयस्थान है और किसी प्रबल व्यक्तिका अनिश्चित भय एक दुर्बल व्यक्ति के लिये निश्चित मृत्यु है! रुद्धवाक् समाचारपत्रोंके बीचमें रहस्यके अन्धकारसे आन्छन्न होकर रहना हम लोगोंके लिये बहुत ही भयंकर अवस्था है। उस अवस्थामें हम लोगोंकी सारी क्रियाएँ और बातें हमारे शासकोंको संशयके अंधकारमें बहुत ही कृष्ण वर्णकी दिखाई देंगी, बहुत कठिनतासे दूर होनेवाले अविश्वासके कारण राजदण्डकी धार दिनपर दिन बराबर तेज होती जायगी और प्रजाका हृदय विषादके भारसे दबकर और निर्वाक् निराशाके कारण विपतिक्त होता जायगा। हम लोग अँगरेजोंकी एकान्त अधीन प्रजा हैं, लेकिन प्रकृतिका नियम अँगरेजोंका दासत्व नहीं कर सकता! यदि आघात किया जायगा तो हमें वेदना होगी। उस समय अँगरेज लोग हजार आँखें लाल करें लेकिन फिर भी वे इस नियमको [ ९१ ] देशान्तरित न कर सकेंगे। वे क्रोध करके आघातकी मात्रा बढ़ा सकते हैं, लेकिन उसके साथ ही साथ वेदनाकी मात्रा भी बढ़ती जायगी। क्योंकि यह प्रकृतिका नियम है। पिनल कोड उसे रोक नहीं सकता। यदि मनकी जलन वाक्योंके रूपमें बाहर न निकले तो वह अन्दर ही अन्दर जमा होती रहेगी। इस प्रकारकी अस्वास्थ्यकर और अस्वाभाविक अवस्थामें राजा और प्रजाका सम्बन्ध जैसा विकृत हो जायगा उसकी कल्पना करके हम बहुत ही डर रहे हैं।

लेकिन यह अनिर्दिष्ट संशयकी अवस्था ही सबसे बढ़कर अमंगलजनक नहीं है। हम लोगोंके लिये इससे भी बढ़कर एक और अशुभ बात हैं। यह बात हम लोगोंने अँगरेजोंसे ही सीखी है कि मनुष्यके चरित्रपर पराधीनताका बहुत ही अवनतिकारक परिणाम होता है। असत्याचरण और कपटता अधीनजातिके लिये आत्मरक्षाका अस्त्र हो जाती है और उसके आत्मसम्मान तथा मनुष्यत्वको अवश्य ही नष्ट कर देती है। स्वाधीनतापूजक अँगरेज अपनी प्रजाकी अधीन दशासे उस हीनताके कलंकको यथासंभव दूर करके हम लोगोंको मनुष्यत्वकी शिक्षा देनेमें प्रवृत्त हुए थे। उन्होंने पद पदपर हमें यह स्मरण नहीं दिलाया था कि तुम लोग विजित हो और हम विजेता हैं, तुम लोग निर्बल हो और हम लोग सबल हैं। उन्होंने इस बातको मनसे यहाँतक भुला दिया था कि हम लोग सोचने लगे थे कि अपने हृदयके भावोंको प्रकट करनेकी स्वाधीनता हम लोगोंके मनुष्यत्वका स्वाभाविक अधिकार है।

आज हम सहसा जागकर देखते हैं कि दुर्बलका कोई अधिकार ही नहीं है। हम लोग जिस बातको मनुष्यमात्रके लिये प्राप्य समझते थे वह दुर्बलके प्रति प्रबलका मनमाना अनुग्रह मात्र है। आज हम इस सभास्थलमें खड़े होकर जो केवल शब्दोच्चारण कर रहे हैं सो इससे [ ९२ ] हमें मनुष्योचित गर्वके अनुभव करनेका कोई कारण नहीं है। अपराध करने और विचार होनेसे पहले ही हम अपने आपको जो कारागारमें प्रतिष्ठित नहीं देखते हैं, इससे भी हमारा कोई गौरव नहीं है।

यह बात एक हिसाबसे ठीक है, लेकिन इस ठीक बातका सदा अनुभव करते रहना राजा और प्रजा दोनोंमेंसे एकके लिये भी हितकारक नहीं है। अवस्थाकी पृथक्तामें हृदयका सम्बन्ध स्थापित करके असमानताके बीचमें भी मनुष्य अपने मनुष्यत्वकी रक्षा करनेकी चेष्टा करता है।

शासितों और शासकोंके बीचमें जो शासन-शृंखला है वह यदि सदा झनझनाई न जाया करे, बल्कि आत्मीय सम्बन्धके बंधनसे ढककर रक्खी जाया करे तो उससे अधीन जाति परका भार कुछ घट जाता है।

छापेखानेकी स्वाधीनता भी इसी प्रकारकी एक ढकनेवाली चीज है। इसने हमारी अवस्थाकी हीनताको छिपा रखा था। हम लोग जेता जातिकी अनेक शक्तियोंसे वंचित होनेपर भी इस स्वाधीनतासूत्रके कारण अंतरंग भावसे उन जेताओंके निकटवर्ती हो गए थे। हम लोग दुर्बल जातिका हीन भय और कपटता भूलकर मुक्त हृदय और उन्नत मस्तकसे सत्य और स्पष्ट बात कहना सीख रहे थे।

यद्यपि उच्चतर राजकार्योंमें हम लोगोंको कुछ भी स्वाधीनता नहीं थी, तो भी हम लोग निर्भीक भावसे परामर्श देकर, स्पष्ट वाक्योंमें समालोचना करके अपने आपको भारत राज्यके विशाल शासनकार्यका एक अंग समझते थे। यह इस बातका विवेचन करनेका अवसर नहीं है कि इसके अन्य अच्छे अथवा बुरे परिणाम क्या थे। लेकिन इसमें [ ९३ ] सन्देह नहीं है कि इससे हम लोगोंका आत्मसम्मान बढ़ गया था। हम लोग जानते थे कि हम लोगोंके देशके शासनका जो बहुत बड़ा काम है उसमें हम लोग बिलकुल अकर्मण्य और निश्चेष्ट नहीं हैं, उसमें हम लोगोंका भी कुछ कर्त्तव्य है, हम लोगोंका भी कुछ दायित्व है। ऐसी दशामें जब कि इस शासन कार्य्यपर ही प्रधानतः हम लोगोंका सुख दुःख और शुभ अशुभ निर्भर करता है तब यदि उसके साथ हम लोगोंका किसी प्रकारके मन्तव्य अथवा वक्तव्य बन्धनका संबंध न रहे तो हम लोगोंकी दीनता और हीनताकी कोई सीमा नहीं रह जाती। विशेषतः हम लोगोंने अँगरेजी विद्यालयोंमें शिक्षा पाई है, अँगरेजी साहित्य पढ़नेके कारण अँगरेज़ कर्मवीरों के दृष्टान्त हम लोगोंके अन्तःकरणमें प्रतिष्ठित हुए हैं और हम लोगोंने उस परम गौरवका अनुभव किया है कि सब प्रकारके कामों में अपने कल्याणके लिये हमें स्वतंत्र अधिकार है। आज यदि हम अचानक अपने भावोंको प्रकट करनेकी उस स्वतंत्रतासे वंचित हो जायँ, राजकार्य्य चलानेके साथ हम लोगोंका समालोचनावाला जो थोड़ासा सम्बन्ध है वह एक ही आघातमें टूट जाय और हम लोग निश्चेष्ट उदासीनतामें निमग्न हो जायँ, कपट और मिथ्या बातोंके द्वारा प्रबल राजपदके नीचे अपने मनुष्यत्वका पूरा पूरा बलिदान कर दें, तो पराधीनताकी सारी हीनताओंमें उच्च-शिक्षा-प्राप्त आकांक्षाकी वाक्यहीन व्यर्थ वेदना मिल जायगी और हम लोगोंकी दुर्दशाकी पराकाष्ठा हो जायगी। जिस सम्बन्धमें आदान-प्रदानका एक छोटासा मार्ग खुला हुआ था, भय उस मार्गको रोककर खड़ा हो जायगा। राजाके प्रति प्रजाका वह भय गौरवजनक नहीं है और प्रजाके प्रति राजाका वह भय भी उतना ही अधिक शोचनीय है। [ ९४ ]यदि समाचारपत्रोंकी स्वाधीनताका यह परदा उठा दिया जाय तो हम लोगोंकी पराधीनताका सारा कठिन कंकाल क्षण भरमें बाहर निकल पड़े। आजकलके कुछ जबरदस्त अँगरेज लेखक कहते हैं कि जो बात सत्य है उसका प्रकट हो जाना ही अच्छा है। लेकिन हम पूछते हैं कि क्या अँगरेजी शासनका यह कठिन और शुष्क पराधीनताका कंकाल मात्र ही सत्य है? और इसके ऊपर जीवनके लावण्यका जो परदा था और स्वाधीन गतिकी विचित्र लीलाकी जो मनोहर श्री दिखलाई गई थी क्या वही मिथ्या और माया थी? दो सौ वर्षके परिचयके उपरान्त क्या हम लोगोंके मानव-सम्बन्धका यही अवशेष है?


  1. * जिस समय 'सिडिशन बिल' पास हुआ था उस समय यह निबन्ध कलकत्तेके टाउन हाल में पढ़ा गया था।