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रामचरितमानस/गोस्वामी तुलसीदासजी का जीवन-चरित्र

विकिस्रोत से
रामचरितमानस
तुलसीदास, संपादक महावीर प्रसाद मालवीय वैद्य 'वीर'

प्रयाग: बेलवेडियर प्रेस, पृष्ठ चित्र से – - तक

 

सटीक रामचरितमानस

कवि सम्राट तुलसीदासजी।
रामचरितमानस सुकवि, मुर्तिमान विश्वास।
ज्ञान शिरोमणि भक्तवर, ये हैं तुलसीदास॥

वेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।
जी-पृष्ठ १
 

गोस्वामी तुलसीदासजी
का

जीवन-चरित्र

जिस प्रकार भारतवर्ष के पूर्वकालीन आचार्य वाल्मीकि, अगस्त्य, कपिल, गौसम, वशिष्ठ और व्यासादि महर्षियों एवम् कालिदास, भव भूति, दण्डी, बाण, माघ श्रादि महाकवियों ने अपने सुललित काव्यों द्वारा राजनीति, समाज-नीति, धर्म-नीति और वेदान्त-विज्ञान के विलक्षण चमत्कारों को प्रत्यक्ष कर जन-समाज का अनन्त उपकार किया है, उसी प्रकार मध्यवर्ती काल में महात्मा सूरदास, तुलसीदास और गुरु नानकशाह श्रादि भगवद्भको ने अपनी रसमयी ओजस्वी कविता द्वारा मातृभूमि की अच्छी सेवा की है। उनके प्रसाद-पूर्ण कार्यों से असंख्यों हृदय पवित्र हो चुके और होते जा रहे हैं।

उन महापुरुषों में से आज हम महर्षि-शिरोमणि कवि सम्राट गोस्वामी तुलसीदासजी के जीवन चरित्र को लिख कर अपनी लेखनी पवित्र करना चाहते हैं महात्माओं के जीवन चरित्रों में प्रायः कुछ न कुछ आश्चर्यजनक घटनाएँ अवश्य ही पाई जाती हैं और चरित्र लेखक लोग प्रचलित कथाओं तथा सुनी सुनाई किम्बिदन्तियों को भी अपने लेखों में स्थान दे देते हैं। यद्यपि आश्चर्यजनक और अनैसर्गिक घटनाएँ उनकी महिमा को नहीं बढ़ाती, तो भी उनका उल्लेख करना लेखकगण अनुचित नहीं मानते। ऐसी दशा में अधिकांश अनुमान ही से काम लिया जाता है। यही बात गोसाँईजी के सम्बन्ध में भी समझिये। इनकी पूर्ण स्वतन्त्र जीवनी अबतक किसी को प्राप्त नहीं हो सकी; कतिपय धुरन्धर हिन्दी लेखकों ने कुछ लिखी लिखाई और सुनी सुनाई बातों के आधार पर जिस तरह उसे लिखने का प्रयत्न किया है तदनुसार हम भी उन घटनाओं का संग्रह करके इसके सम्पादन का प्रयत्न करेंगे।

भिन्न भिन्न लेखकों के कथनानुसार गोसाँईजी के जन्मकाल, जन्मस्थान, कुल और शिक्षा आदि किसी बात का ठीक निश्चय नहीं होता। कोई कुछ कहता है तो कोई कुछ। सुना जाता है पसका ग्राम निवासी बेणीमाधव कवि ने काव्य में गोस्वामीजी की जीवनी विस्तार पूर्वक लिया था। किन्तु अब वह मिलती नहीं। नामाजी ने अपने भक्तमाल में गोस्वामीजी की स्तुति की है। नामा जी के शिष्य प्रियादासजी ने भक्तमाल की टीका में कुछ विस्तार करके थोड़े चरित्रों का परिचय दिया है। गोस्वामीजी के शिष्य महात्मा रघुवरदासजी ने दोहा चौपाइयों में 'तुलसीचरित' नाम का एक बहुत बड़ा ग्रन्थ लिखा। उसमें उन्होंने गोसाँईजी के विशेष विशेष चरितों का खूब विस्तार से वर्णन किया है। इस ग्रन्थ के चार खंड हैं और एक लाख तेतीस हजार नौ सौ बासठ छन्दों में पूरा होना कहा जाता है। तुलसीचरित के सम्बन्ध में बाबू शिवनन्दनसहाय ने अपना मत इस प्रकार व्यक्त कया है–

"हमें ज्ञात हुआ है कि केसरिया-चम्पारन निवासी बाबू इन्द्रदेव नारायण को गोसाँईजी के किसी चेले की एक लाख दोहे चौपाइयों में लिखी हुई गोसाँईजी की जीवनी प्राप्त हुई है। सुनते हैं गोसाई जी ने पहले उसका प्रचार न होने का शाप दिया था, किन्तु लोगों के अनुनय विनय से शाप-मोचन का समय सम्वत् १९६७ निर्धारित कर दिया। तब तक उसकी रक्षा का भार उसी प्रेत को सौंपा गया, जिसने गोसाईजी को श्रीहनूमानजी से मिलने का उपाय बताकर श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन की राह दिखाई थी। यह पुस्तक भूटान में किसी ब्राह्मण के घर पड़ी रही। एक मुंशीजी उस (ब्राह्मण) के बालकों के शिक्षक थे। बालकों से उस पुस्तक का पता पाकर उन्होंने उसकी पूरी नकल कर डाली। इस गुरुतर अपराध से क्रोधित हो वह ब्राह्मण उनके वध के निमित्त उद्यत हुआ, तो मुंशीजी वहाँ से चम्पत हो गये। यही पुस्तक किसी प्रकार अलवर पहुँची और फिर पूर्वोक्त बाबू साहय के हाथ लगी। विद्वद्वर मिश्र-बन्धुओं के लिखे 'नवरत्न' की समालोचना के समय बाबू इन्द्रदेवनारायण ने 'मर्यादा' में कदाचित् इसी अन्य के दो एक पृष्ठ प्रकाशित किये थे। अभीतक यह पूर्ण जीवनी अथवा इसका कोई विशेष अंश सर्वसाधारण के सन्मुख उपस्थित नहीं किया गया है, जिससे लोगों को इस पर विचार करने का अवसर मिलता।"

काशीनागरीप्रचारिणी–सभा के मंत्री ने रघुबरदास के प्रत्येक सिद्धान्त जो प्रकट हुए हैं अपनी जीवनी में उनका संग्रह किया है और प्रकाशिन दोहा चौपाइयों को भी यथातथ्य उद्धृत किया है।

डाक्टर ग्रिअर्सन ने बड़े परिश्रम और खोज के साथ गोस्वामीजी के जीवनचरित्र सम्बन्धी अनेक किम्वदन्तियों का संग्रह किया है और एक चित्र भी प्रकाशित किया है जो वृद्धावस्था का कल्पित जान पड़ता है।

पं॰ रणछोड़लाल व्यास ने 'तुलसी-जीवनी' लिखा है, उसमें गोस्वामीजी का एक चित्र दिया है। उस चित्र को ब्यासजी ने बादशाह जहाँगीर का बनवाया बतलाया है। यह चित्र लगभग ७०-७५ वर्ष की अवस्था का और सद्यारोगमुक्त हुए अवसर का लिया हुमा मालूम होता है। बादशाह अकबर के बनाये चित्र से यह मिलता है, अन्तर केवल अवस्था का है।

हिन्दी-नवरत्न में मिश्रबन्धुओं ने गोस्वामीजी का जीवनचरित्र लिख कर उनके काव्यों की समालोचना की है और उसके साथ तुलसीदासजी का एक कल्पित चित्र भी प्रकाशित किया है।

अवधवासी लाला सीताराम बी॰ ए॰ ने राजापुर में गोस्वामीजी के हाथ की लिखी अयोध्याकाण्ड की प्रति जो अबतक वर्तमान है, उसकी प्रतिलिपि छपाई है। उन्हों ने उसमें गोसाई जी का एक चित्र दिया है, कहा जाता है कि उसको बादशाह अकबर ने अपने चित्रकारों से बनवाया था। इस चित्र के देखने से पैंतीस छत्तीस वर्ष की अवस्था का लिया हुआ अनुमान होता है और उस समयगोस्वामीजी जटाजूटधारी तपश्चर्या में अनुरक्त थे। पिछले चित्रों में शिखा के अतिरिक्त जटा, दाढ़ी और मूछ के बालों का पता नहीं हैं जिससे अनुमान होता है कि तपस्या पूर्ण हो जाने के अनन्तर वे भद्र होते थे।

काशी में नगवा के संकटमोचन का मन्दिर, जिसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि इसको स्वयम गोसाँईजी ने बनवाया और हनुमानजी की मूर्ति प्रतिष्ठित कराया था। उस मन्दिर में गोस्वामीजी का एक चित्र लगभग ७0-७५ वर्ष की अवस्था का लगा है। उसको किसने बनवाया था, इस बात का हमें कोई पता नहीं है। उस चित्र में श्वेत बालों की लम्बी दाढ़ी और केश दिखाये गये है, किन्तु यह चित्र भी कल्पित ही जान पड़ता है।

गोस्वामीजी के जीवनचरित सम्बन्धी जिन जिन घटनाओं का महात्मा रघुवरदासजी ने उल्लेख किया है वे दूसरे प्रन्थों में नहीं मिलती। इसमें सन्देह नहीं कि औरों की अपेक्षा रघुवरदासजी की बातें अधिक प्रमाणिक हैं। क्योंकि वे गोस्वामीजी के शिष्य और उनके समकालीन तथा चरित्र से पूर्ण अभिज्ञ थे। उन्होंने 'तुलसी चरित' में लिखा है कि सरवार देश के कसेयाँ ग्राम में गोस्वामीजी के परपितामह परशुराम मिश्र का जन्म हुआ था। एक बार वे तीर्थयात्रा के लिये निकले और घूमते घामते चित्रकूट आये। वहाँ हनुमानजी ने स्वप्न में उन्हें आदेश दिया कि तुम इस प्रान्त में निवास करो तो तुम्हारी चौथी पीढ़ी में एक विश्व विख्यात तपोराशि महापुरुष का जन्म होगा। इस स्वप्नादेश के अनुसार परशुरामजी ने उस प्रान्त के राजा के समीप जाकर निवेदन किया, उसने सब हाल सुन कर उन्हें सम्मानपूर्वक राजापुर में बसने के लिये स्थान दिया और वे गृह निर्माण कराकर सपत्नांक वहाँ रहने लगे। अनन्तर बहुत से मारवाड़ी उनके शिष्य हुए। उन शिष्यों द्वारा उन्हें विपुल धरती, धन और ऐश्वर्य का लाभ हुआ। अन्त समय उन्होंने काशीपुरी में जा शरीर त्याग किया।

परशुराम मिश्र के पुत्र शंकर मिश्र अच्छे विद्वान और बड़े प्रतापी हुए। कहते हैं उनको वाकसिद्धि का वर प्राप्त था। राजा और राज्यवर्ग के सभी मनुष्य उनके शिष्य हो गये। राजा से इन्हें बहुत भूमि मिली और अन्यान्य शिष्यों से भी अनन्त धन-धान्य की प्राप्ति हुई। इनके दूसरे विवाह से सन्त मिश्र तथा रुद्रनाथ मिश्र दो पुत्र हुए। रुद्रनाथ के चार पुत्र हुए, उनमें जेठे पुत्र का नाम मुरारी मिश्र था, इन्हीं सौभाग्य मूर्ति महाराज मुरारी मिश्र के तुलसीदासजी पुत्र हैं। मुरारी मिश्र के चार बेटे हुए–गणपति, महेश, तुलाराम और मङ्गल। तुलाराम ही भकचूड़ामणि कवि सम्राट गोस्वामी तुलसीदासजी हैं।

जन्म-काल।

जन्मसमय के सम्बन्ध में कोई कुछ कहता है तो कोई कुछ। इतना अधिक मतभेद है कि निश्चयपूर्वक किसी एक काल को प्रधानता देने में कठिनता अवश्य है। बाबू इन्द्रदेव नारायण ने सम्वत् १५५४ जन्मकाल लिखा है। शिवसिंहसरोज में सम्वत् १५८३ और पंडित रामगुलाम, द्विवेदी ने सम्वत् १५८९ विक्रमाब्द का उल्लेख किया है। ग्रिअर्सन साहब और मिश्रबन्धु आदि अधिकांश विद्वानों ने सम्वत् १५८९ को ही जन्म-काल माना है। प्रथम के अनुसार १२७ वर्ष, दूसरे के अनुसार ९७ वर्ष और तीसरे के अनुसार ९१ वर्ष की आयु गोस्वमीजी की मानी जाती हैं।

जन्मस्थान।

जिस प्रकार जन्मकान के सम्बन्ध में मतभेद है, उसी तरह जन्मस्थान के निर्णय में भी बहुमत है। कोई राजापुर को, कोई तारी को और कोई हाजीपुर को प्रधानता देते हैं। यद्यपि राजापुर में गोसाईजी की कुटी थी और कुछ ही दिन हुए उक्त स्थान पर उनके स्मारक के लिये एक विशाल मन्दिर चन्दे से निर्माण हुआ है। उस मन्दिर में गोसाँईजी के हाथ का लिखा अयोध्याकांड अबतक विद्यमान है, तो भी वहाँ के कुछ वृद्ध अनुभवी मनुष्य कहते हैं कि या गोस्वामीजी का जन्मस्थान नहीं है वरन् विरक्त होने पर वे यहाँ कुछ दिन रहे थे और प्रायः आया करते थे। कहते हैं कि गोसाँईजी के हाथ का लिखा रामचरितमानस सातोकाण्ड यहाँ था। किसी दुष्ट ने उसे चुरा लिया। जब उसका पीछा किया गया, तब उसने पुस्तक को यमुना नदी में फेंक दिया। बड़ी खोज से वह जल के बाहर निकाली गयी। उसके छे काण्ड तो गल गये, केवल अयोध्याकाण्ड कुछ पढ़ने योग्य बच गया। उसके पृष्ठों पर पानी के धब्बे अबतक वर्तमान हैं और कहीं कही अक्षरों की ऐसी लीपापोती हो गयी है कि वे बड़ी कठिनता से पढ़े जाते हैं।

जाति।

जाति के सम्बन्ध में भी मतभेद है। कोई कान्यकुब्ज और कोई सरयूपारौण कहता है। भक्तकल्पद्रुम के कर्त्ता राजा रामप्रताप और मिश्रबन्धुओं में कान्यकुब्ज माना है। पंडित रामगुलाम द्विवेदी, ठाकुर शिवसिंह और डाक्टर ग्रिअर्सन आदि ने तो पाराशर गोत्र मे सरयूपारी दूबे कहा है। काशीनागरी-प्रचारिणी सभा के सदस्यों और महात्मा रघुवरदास ने भी सरयूपारीण ही वर्णन किया है। अन्तर केवल इतना है कि रघुवरदास ने दूबे नहीं, मिश्र कहा है। अधिक मत सरयूपारीण ही को और है, इससे यही प्रमाणिक प्रतीत होता है।

माता और पिता।

माता पिता का नाम भी मतभेद से खाली नहीं है। कुछ लोग इनके पिता का नाम आत्मराम दूबे और माता का नाम हुलसी कहते हैं। माता का नाम बहुत सम्भव है कि यही रहा हो, क्योंकि रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने लिखा है–"तुलसिदास हित हिय हुलसी सी" इसी आधार पर बहुतों का अनुमान है कि माता का नाम हुलसी था। परन्तु अपने किसी ग्रन्थ में गोसाँईजी ने पिता का नाम प्रत्यक्ष वा संकेत द्वारा कहीं भी प्रकट नहीं किया है। जिन जिन लेखकों ने सुनी सुनाई बातों के आधार पर आत्माराम दूबे उनके पिता का नाम कहा है, उनके समक्ष महात्मा रघुवरदास का कथन विशेष विश्वास के योग्य है। तुलसीचरित में उन्होंने गोस्वमीजी के पिता का नाम मुरारी मिश्र लिखा है, इसलिये आत्माराम दूबे उनके पिता का नाम नहीं था।

विनयपत्रिका में गोसाँईजी ने अपने माता-पिता के सम्बन्ध में लिखा है कि–जननि जनक तजे जनमि करम बिनु, विधि सिरजेउ अवडेरे। पुनः–त्वच तजत कुटिलकीट ज्यों, तज्यो मातु-पिताहु" इसी प्रकार कवित्त रामायण में लिखते हैं– "मातु पिता लग जाइ तज्यो विधिहू न लिख्यो कछु भूलि भलाई। पुनः–वारे ते ललात बिललात द्वार बार दीन, जानत हौ चारि फल चारि जनक को!" इत्यादि पदो के आधार पर बहुतेरे विद्वान तर्क बल से तरह तरह के निष्कर्ष निकालते हैं कि इनके माता-पिता अत्यन्त गरीब थे। किसी का यह भी कहना है कि अभुक्तमूल में उत्पन्न होने के कारण जन्मते ही माता-पिता ने उन्हें फेंक दिया और किसी साधु ने लेजाकर पालन पोषण किया। परन्तु ये बातें असंगत सी जान पड़ती हैं, इस सम्बन्ध में मेरा तो यह अनुमान है कि इस तरह की बातें गोस्वामीजी ने केवल दैन्यभाव दर्शाने के लिये कहा है। उनका यह कथन वैसा ही जान पड़ता है जिस प्रकार रामचरितमानस में उन्होंने शपथपूर्वक अपने को काव्यगुण से अनभिज्ञ कहा है कि– "कवित विवेक एक नहिँ मोरे। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे" तो या इससे यह मान लेने योग्य है कि ये काव्य के ज्ञान से रहित थे?

यदि 'जननि जनक तज्यो' का तात्पर्य यही मान लिया जाय कि बचपन ही में माता-पिता ने उन्हें त्याग दिया था तो अनुमान यह कहता है कि बाल्यावस्था ही में माता-पिता स्वर्गवासी हुए होंगे। आश्रयहीन होने से गोसाँईजी साधुमंडली में रहने लगे। हनुमानबाहुक के–"बालपने सुधमन राम सनमुख भयो, रामनाम लेत माँगि खात टूकटाक हौं। पर्योलोकरिति में पुनीत प्रीति रामराय, मोहबस बैठो तोरितरकि तराक हौं॥ खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो, अञ्जनीकुमार सोध्यो रामपानि पाका हौं। तुलसी गोसाँई भयो भोंड़े दिन भूलि गयो, तोको फल पावत निदान परिपाक हौं॥४०॥" इस कवित्त के अनुसार सम्भव है कि विवाह कर गृहस्थाश्रमी हो फिर लोक व्यवहार में फंस गये हों और स्त्री के उपदेश से विरक्त होकर पुनः हरिभजन में लीन हुए हों। इस अनुमान से बातों की लड़ी कुछ मिल जाती है; परन्तु रघुबरदास ने इनके पिता को खूब धनी लिखा है और यह भी कहा है कि उन्होंने गोसाँईजी का तीसरा विवाह ६०००) तिलक लेकर किया था। ऐसी दशा में बाल्यकाल में माता-पिता के त्यागने की बात मिथ्या सिद्ध होती है।

विवाह और वैराग्य।

गोसाँईजी का प्रथम विवाह दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। उसके गर्भ से तारक नाम का एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जो बचपन ही में परलोकगामी हो गया और वह स्त्री भी मर गयी। दूसरे विवाह की पत्नी गत हो जाने पर तीसरा विवाह कञ्चनपुर निवासी लछमन उपाध्याय की कन्या बुद्धिमती के साथ हुआ। यह स्त्री अत्यन्त रूपवती और विदुषी थी। गोसाँईजी उस पर बड़ा प्रेम रखते थे। एक दिन किसी कार्य से ये पास के दूसरे ग्राम में गये थे और बुद्धिमती अपने पिता के घर चली गयी। जब ये घर आये और सुना कि वह पिता के घर गयी है तब पत्नी-वियोग से अधीर हो उस अंधेरी रात में श्वसुर के राजा पहुँचे। इमका आगमन सुन कर स्त्री मन में भयभीत हुई और आश्चर्य से कहा–नाथ! आपका जितना प्रेम मेरे अस्थि चर्ममय शरीर से है यदि वैसी प्रीति रघुनाथजी में होती तो संसार छूट जाता। स्त्री की बात गोसाँईजी के लिये जादू का काम कर गयी। उनके हृदय से अशानान्धकार दूर हो कर वैराग्य-सूर्य का उदय हो आया। तुरन्त वहाँ से चल पड़े और काशीपुरी में आकर हरिस्मरण करने लगे।

तपस्या और प्रेत का सम्भाषण।

बाबा रामायण शरण से सुनने में आया था कि गोसाँईजी ने प्रथमवार पचासी करोड़ राम-नाम जपने का संकल्प कर उसे पूर्ण किया। प्रतिदिन शौच के लिये गङ्गा पार जाया करते थे। शौच के अनन्तर लोटे में जो जल बचता वह स्वभावतः एक वृक्ष की जड़ में डाल दिया करते थे। उस वृक्ष में बहुत काल से एक प्रेत निवास करता था, वह एक दिन प्रसन्न होकर बोला कि आपने जल से मुझे खूब ही तृप्त किया है इसके बदले में मुझसे माँगने योग्य जो वस्तु हो माँगिये, में उसे देने को तैयार हूँ। गोस्वामीजी ने कहा–मुझे और कुछ न चाहिये रघुनाथजी के दर्शन करा दो। यह सुन कर प्रेत बोला कि यद्यपि यह बात मेरी शक्ति से बाहर है, तो भी एक उपाय मैं बतलाता हूँ। यदि उसके अनुसार आप उद्योग करेंगे तो बहुत सम्भव है कि दर्शन हो जायगा। अमुकस्थान में प्रतिदिन रामायण की कथा होती है, वहाँ हनुमानजी आते हैं। वे कोढ़ी के घिनावने रूप में सब से पहले आते हैं और पीछे जाते हैं तथा सब दूर बैठ कर कथा श्रवण करते हैं। आप उनसे परिचय करके प्रार्थना कीजिये तो उनकी कृपा से कामना पूर्ण हो सकती है। गोस्वामोजी पूर्व ही से हनुमानजी को अपना इष्टदेव और सहायक मानते थे। प्रेत के द्वारा उनका पता पाकर उन्हें अपार आनन्द हुआ।

हनूमानजी का मिलना।

प्रेत के आदेशानुसार ठीक समय पर गोसाँईजो कथा स्थान में गये। वहाँ देखा कि एक कुष्टी मनुष्य सब से पीछे दूर बैठा है। जब कथा समाप्त हुई और सब श्रोता क्रमशः विदा हो गये, तय कोढ़ी रूपधारी हनूमानजी भी चले। उनके पीछे चुपचाप गोस्वामोजी हो लिये। एकान्त में पहुँचने पर गोसाँईजी ने पवननन्दन के पाँव पकड़ लिये और विनती करने लगे। हनुमानजी ने भुलावा देकर बार बार उनसे पैर छुड़ाने की चेष्टा की, परन्तु जब देखा कि इससे छुटकारा न होगा, तब प्रत्यक्ष होकर बोले कि तुम क्या चाहते हो? गोसाँईजी ने कहा – स्वामिन्! मुझे रघुनाथजी के दर्शन करा दीजिये। पवनकुमार ने आज्ञा दी कि, चित्रकूट चलो वहाँ तुमको रघुनाथजी के दर्शन होंगे।

चित्रकूट में रामदर्शन।

हनूमानजी के आदेशानुसार गोसाँईजी चित्रकूट आये। एक दिन स्वाभावतः वन में विचरण कर रहे थे। वहाँ देखा कि श्यामल-गौर वर्ण दो राजकुमार घोड़े पर सवार हाथ में धनुष-बाण धारण कर एक हरिण का पीछा किये घोड़ा दौड़ाये चले जा रहे हैं। उन राजकुमारों की अनुपम छवि देख गोस्वामीजी का मन मोहित हो गया, किन्तु वे यह नहीं जान सके कि रामचन्द्र और लक्ष्मण यही हैं। पीछे हनुमानजी ने आकर कहा कि दोनों राजकुमार जो वन में तुम्हें दिखाई दिये हैं श्यामल रामचन्द्रजी और गौर लक्षणलाल थे। तुम धन्य हो जो स्वामी का दर्शन पा गये। यह सुन कर गोसाँईजो को बड़ी प्रसन्नता हुई।

प्रियादाल और भक्त कल्पद्रुम के लेखक ने इसी प्रकार दर्शन होना वर्णन किया है; किन्तु ग्रियर्सन साहब ने दूसरे ही प्रकार से उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि एक बार गोस्वामीजी बस्ती के बाहर जा रहे थे, वहाँ देखा कि रामलीला हो रही है। लङ्का जीत कर राम, लक्ष्मण, सीताजी विभीषण-सुग्रीवादि के सहित अयोध्या को प्रस्थान कर रहे हैं। लीला समाप्त हो जाने पर गोसाँईजी बस्ती की ओर चले। रास्ते में ब्राह्मण के वेश में हनुमानजी मिले। गोस्वामीजी ने उनसे कहा यहाँ बहुत अच्छी रामलीला होती है। ब्राह्मण ने कहा-तुम पागल हुए हो, आश्विन कार्तिक मास के सिवा कहीं आज कल भी रामलीला होती है। उस ब्राह्मण को साथ लिये गोसाँईजी लीला का स्थान दिखाने चले। वहाँ पहुँचने पर किसी प्रकार का चिह्न या कोई मनुष्य नहीं दिखाई पड़ा। गोस्वामीजी लज्जित हुए और अपनी भूल पर उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ, सोचते विचारते अपनी कुटी पर लौट आये। कुछ खाया पिया नहीं और मन में अत्यन्त दुखी हो रोते ही रोते सो गये। स्वप्न में दर्शन देकर हनूमानजी ने कहा – पछताओ मत। कलियुग में किसी को प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता, तुम बड़े ही भाग्यशाली हो जो भगवान के दर्शन हुए; शोक त्याग कर भगवान रामचन्द्रजी का सानन्द भजन करो। इससे गोस्वामीजी को परम सन्तोष हुआ।

किसी किसी के मुख से यह भी किम्बदन्ती सुनने में आई है कि हनूमानजी ने कहा कि तुम चन्दन घिस कर रामघाट मन्दाकिनी के तट पर बैठ जाओ और जितने सन्त महात्मा स्नान के लिये आवें और तुमसे चन्दन के लिये कहें उनके मस्तक पर तिलक लगा दिया करो तो उनमें रघुनाथजी भी आवेंगे और तुमसे चन्दन लगवावेंगे। गोस्वामीजी चन्दन लेकर रामघाट पर बैठ गये और रघुनाथजी ने यात्री के रूप में तिलक लगवाये, किन्तु गोस्वामीजी उन्हें पहचान नहीं सके। जब पीछे हनूमानजी ने परिचय दिया, तब ज्ञात हुआ कि रघुनाथजी तिलक लगवा गये। उसी समय यह दोहा कहा–

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन्ह की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसत, तिलक देत रघुबीर।

रामदर्शन होने के अनन्तर गोसाँईजी ने काशी की ओर प्रस्थान किया।

दैवयोग से पत्नी-मिलाप।

अँधेरा हो जाने पर कञ्चनपुर गाँव में पहुंचे और श्वसुर के दरवाजे पर ठहर गये, किन्तु रात्रि में उन्हें इस बात का निश्चय नहीं हुआ कि मैं श्वसुर के घर टिक रहा हूँ। गोस्वामीजी की स्त्री भी वृद्धा हो चली थी। द्वार पर महात्मा को देख अतिथि-सेवा के नाते उसने धरती साफ कर चौका लगा दिया और भोजनादि की सामग्री ले आई। अनन्तर पूछताछ करने से उसको मालूम हो गया कि मेरे स्वामी यही हैं। प्रातःकाल शौचस्नान से निवृत हो जब गोस्वामीजी पूजा करने लगे तब स्त्री ने कहा – महाराज! कपूर दसाँग आदि पूजन का सामान ले आऊँ? तुलसीदासजी ने कहा – यह सब हमारी झोली में है, ले आने की आवश्यकता नहीं। यह सुन कर स्त्री ने अपना परिचय देकर कहा–स्वामिन्! सेवा के लिये मुझे साथ चलने की आज्ञा दीजिये, किन्तु गोसाँईजी ने स्त्री की यह प्रार्थना अस्वीकार कर दी। इस पर उसने कहा–

खरिया खरी कपूर लौं, उचित न पिय तिय त्याग।
कै खरिया मोहि मेलिकै, अचल करहु अनुराग॥

यह सुन कर गोस्वामीजी के मन में बड़ा संकोच हुआ और प्रसन्नता पूर्वक झोली की सब चीज़ ब्राह्मणों को बाँट दी और वहाँ से चल कर काशी आये।

काशी में बासस्थान।

गृह त्याग कर विरक्त होने पर गोसाँईजी चित्रकूट, अयोध्या और काशीपुरी में अधिकांश निवास करते थे। चित्रकूट में पर्णकुटी के समीप उनकी गुफा अबतक वर्तमान है और अयोध्यापुरी में मनीराम की छावनी के अन्तर्गत उनके ठहरने का स्थान कहा जाता है। काशी में उन्होंने अधिक काल पर्यन्त निवास किया था और पाँच स्थान उनके प्रसिद्ध हैं। (१) हनुमानफाटक, (२) प्रह्लाद्घाट, (३) सङ्कटमोचन, (४) गोपालमन्दिर, (५) अस्सीघाट।

(१)—पहले हनुमानफाटक में कुछ दिन रहे थे, परन्तु मुसलमानों के उपद्रव से उन्हें वह स्थान त्याग देना पड़ा।

(२)—प्रह्लाद्घाट पर पं॰ गङ्गाराम ज्योतिषी के घर ठहरते थे। कहा जाता है कि पं॰ गङ्गाराम गहरवार क्षत्रिय राजघाट के राजा (जो वतमान में कोट रूप हो गया है) के ज्योतिषी थे। वे बड़े ही सज्जन और तुलसीदासजी के भक्त थे। गोस्वामाजी उन पर स्नेह रखते थे। रामाना-प्रश्नावली में प्रथम सर्ग के अन्त में उन्होंने श्लेष से गङ्गाराम का नाम लिया है। यथा–

"दो-सगुन प्रथम उनचास सुभ, तुलसी अति अभिराम।
सब प्रसन्न सुर भूमिसुर, गो गन गङ्गाराम॥"

इससे प्रकट होता है कि पं॰ गङ्गाराम गोसाँईजी के प्रीति भाजन थे। एक दिन राजघाट के राजा का कुमार पन में शिकार खेलने गया और नौकरों ने आकर राजा को खबर दी कि कुमार को शेर खा गया। दरवार में उस समय पं॰ गङ्गाराम विद्यमान थे, राजा ने शोक-सन्तप्त हृदय से प्रश्न किया। पं॰ गङ्गाराम ने कहा – घबराने की कोई बात नहीं, कुमार जीवित है। यह कहना ज्योतिषीजी के लिये विष हो गया। राजा ने आज्ञा दी कि यदि आप का उत्तर सत्य होगा और कुमार सकुशल कल्ह सन्ध्या तक आजायगे तो इस खुशी के बदले तुम्हे एक लाख मुद्रा पुरस्कार दिया जायगा। कदाचित कुमार मृतक हो गये होंगे तो इस मिथ्या प्रश्नोत्तर के कारण तुम अवश्य ही तोप से उड़वा दिये जाओगे। गङ्गाराम राजा को बहुत आश्वासन देकर घर आये और बड़े दुःख के साथ सारा वृत्तान्त गोस्वामीजी से निवेदन किया। गोस्वामीजी ने तत्क्षण रामशलाका (प्रश्नावली) बनायी और उससे प्रश्न निकाल कर कहा – घबराओ मत, कल्ह ठीक समय पर कुमार आ जायगा। वैसा ही हुआ, दूसरे दिन राजकुमार आ गया। राजा ने प्रसन्न होकर पं॰ गङ्गाराम को एक लक्ष मुद्रा पुरस्कार में दिया। गङ्गाराम ने सब रुपया गोसाँईजी के चरणों में अर्पण किया, उसमें बारह हज़ार रुपया बहुत आग्रह करने पर उन्होंने स्वीकार किया और शेष गङ्गाराम को अपने गृहकार्य में लगाने की आशा दी। कहा जाता है कि उन रुपयों से काशी में गोसाँईजी ने भिन्न भिन्न स्थानों में हनूमानजी के बारह मन्दिर बनवाये।

(३)—सङ्कटमोचन भगवान पर एक मन्दिर बनवा कर उसमें हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना करवायी। कहते हैं यह मन्दिर उन्हीं बारहों में से एक है

(४)—गोपालमन्दिर में श्रीमुकुन्दरायजी के बाड़ा में दक्षिण-पश्चिम के कोण पर एक कोठरी है। उसमें गोसाँईजी रहते थे, वह कोठरी अब सदा बन्द रहती है केवल श्रावण शुक्ल, ७ को खुलती है। उस दिन लोग वहाँ जाकर दर्शन और पूजन करते हैं। उक्ततिथि के अतिरिक्त बारहों महीने में झरोखे से दर्शन होता है। अधिकांश विद्वानों का मत है कि विनयपत्रिका इसी स्थान में गोस्वामीजी ने लिखी थी। यहाँ भी जब वल्लभकुलवालों ने उनसे व्यर्थ का द्वेष किया, तब वे इस स्थान को त्याग अस्सीघाट पर चले गये और अन्त तक वहीं रहे।

(५)—अस्सी पर तुलसीदासजी का घाट प्रसिद्ध है। यहाँ भी उन्होंने हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की है। मन्दिर के बाहर एक वीसायन्त्र लिखा है जो अब पढ़ा नहीं जाता। यहाँ गोसाँईजी की एक गुफा है। इस स्थान में उन्होंने रामलीला करानी आरम्भ की जो अबतक होती है और तुलसीदास की रामलीला के नाम से प्रसिद्ध है। कहते हैं रामलीला के अतिरिक्त यहाँ वे कृष्णलीला भी करवाते थे। कार्तिक बदी ५ को 'कालियदमनलीला' अस्सी घाट पर अबतक अच्छी रीति से होती है।

गुरु का नाम।

तुलसीचरित में रघुवरदास ने गोस्वामीजी के गुरु का नाम 'श्रीरामदास' लिखा है; परन्तु अधिकांश लोगों को सम्मति है कि इनके गुरु 'श्रीनरहरिदासजी' थे। रामचरितमानस के आदि में "कृपासिन्धु नर रूप हरि" का लोग नरहरि अर्थ करते हैं। सम्भव है कि एक विद्यागुरु रहे हो और दूसरे दीक्षागुरु। डाक्टर ग्रिअर्सन ने इनकी गुरु-परम्परा की खोज करके एक सूची प्रकाशित की है। तुलसीजीवनी और सभा की प्रति में उसका यथातथ्य उल्लेख है। वह इस प्रकार है–

१ श्रीमन्नारायण १५ श्रीलोकाचार्य २९ श्रीपूर्णानन्द
२ श्रीलक्ष्मी १६ श्रीपाराशराचार्य ३० श्रीहर्यानन्द
३ श्रीधर मुनि १७ श्रीवाकाचार्य ३१ श्रीश्रव्यानन्द
४ श्रीसेनापतिमुनि १८ श्रीलोकाचार्य ३२ श्रीहरिवर्यानन्द
५ श्रीकारिसूनु मुनि १६ श्रीदेवाधिपाचार्य ३३ श्रीराघवानन्द
६ श्रीसैन्यनाथ मुनि २० श्रीशैलेशाचार्य ३४ श्रीरामानन्द
७ श्रीनाथ मुनि २१ श्रीपुरुषोत्तमाचार्य ३५ श्रीसुरसुरानन्द
८ श्रीपुण्डरीक २२ श्रीगङ्गाधरानन्द ३६ श्रीमाधवानन्द
९ श्रीराम मिश्र २३ श्रीरामेश्वरानन्द ३७ श्रीगरीबानन्द
१० श्रीपाराङ्कुश २४ श्रीद्वारानन्द ३८ श्रीलक्ष्मीदासजी
११ श्रीयामुनाचार्य २५ श्रीदेवानन्द ३९ श्रीगोपालदासजी
१२ श्रीरामानुज स्वामी २६ श्रीशामानन्द ४० श्रीनरहरिदासजी
१३ श्रीशठकोपाचार्य २७ श्रीश्रुतानन्द ४१ श्रीतुलसीदासजी
१४ श्रीकूरेशाचार्य २८ श्रोनित्यानन्द

चोरों का उपद्रव।

कहा जाता है कि एक दिन चार चोर रात में चोरी करने की इच्छा से गोसाँईजी के स्थान में आये। उन चोरों को दिखाई दिया कि एक श्यामल भीमकाय मनुष्य हाथ में धनुष-बाण लिये खड़ा है। वे सब डर कर लौट गये। इसी तरह दूसरे दिन आये तो देखा कि वही मनुष्य पहरा दे रहा है। चोरों ने दूसरे दिन सवेरे गोसाँईजी के पास जा सब भेद प्रकट करके पूछा – महाराज! रात मै वह पहरा देनेवाला श्यामल मनुष्य कौन है? सुनते ही गोस्वामीजी समझ गये कि मेरी इस तुच्छ वस्तुओं की रखवाली के निमित्त स्वामी को इतना बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है। उन्हें बड़ ग्लानि हुई और नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। जितनी मूल्यवान सामग्रियाँ उनके पास थी सब ब्राह्मणों को दे दी। मन में सोचा कि न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। यह लीला देख चोरों को महान् आश्चर्य हुआ और अपनी करनी पर पश्चाताप करने लगे। अन्त को वे भी दुराचार से छूट कर परम त्यागी हो गये और हरिभक्ति में लीन होकर समय बिताने लगे।

मुर्दे को जीवित करना।

एक बार गोसाँईजी गंगा स्नान करके कुटी की ओर आ रहे थे कि राह में एक स्त्री ने अत्यन्त दीन भाव से धरती पर अपना मस्तक रख उन्हें दंडवत प्रणाम किया। उन्होंने कहा 'सौभाग्यवती' रह। उस स्त्री ने कहा – महाराज! मेरे पतिदेव स्वर्गगामी हो गये, मैं उनके शव के साथ सती होने के लिये जा रही हूँ। अब मुझे सोहाग कहाँ? पर आपका आशीर्वाद झूठा नहीं हो सकता, यह कहते हुए करुणा से वह आँसू बहाने लगी। गोस्वामीजी के हदय में दया का स्रोत उमड़ पाया, वे तुरन्त शव के समीप गये अपने कमण्डलु का जल उस मुर्दे पर छिड़क कर बोले – बेटी! रामनाम उचारण कर, व्यर्थ ही क्यों सो रहा है? कहते हैं वह मृतक जीवित होकर उठ बैठा। जब यह खबर लोगों में फैली, तब झुंड के झुंड मनुष्य दर्शनार्थ आने लगे। इस भीड़ भाड़ से भजन में विघ्न पड़ते देख गोसाँईजी गुफा बनाकर उसमें रहने लंगे, दिन में एक बार बाहर निकल कर सबको दर्शन दे दिया करते थे। कहते हैं तीन बालक प्रति दिन समय पर गोस्वामोजी का दर्शन करने आया करते थे। एक दिन समय बीत गया और वे गुफा से बाहर नहीं निकले। लोगों को निराशा उत्पन्न हुई कि आज गोसाँईजी गुफा के बाहर न निकलेंगे अतएव दर्शन न होगा। सब अपने अपने घर को चलना ही चाहते थे कि इतने में वे तीनों बालक मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़े। उनके मूर्छित होने से बड़ा हल्ला हुआ और उसे सुन गोसाँईजी गुफा से बाहर निकल आये। उन बालकों को चरणामृत देकर सचेत किया। सब लोग बालकों के प्रेम की प्रशंसा करते हुए अपने अपने स्थान को लौट गये।

बादशाह की कैद।

मुर्दा जिलाने की खबर बादशाह जहाँगीर के कान तक पहुँची। उसने गोस्वामीजी को दिल्ली में बुलवा भेजा और कहा कि-सुना जाता है आपने मुर्दे को जिला दिया है। कृपा कर मुझे अपनी कोई करामात दिखाइये। गोसाँईजी ने कहा – वह राम नाप की महिमा है; किन्तु मैं कोई करामात नहीं जानता। इस उत्तर से बादशाह को सन्तोष नहीं हुआ, उसने सोचा कि यह अपने को छिपाता है। अप्रसन्न होकर दिल्लीश्वर ने उन्हें जेलखाने में बन्द करवा दिया। तब गोस्वामीजी ने हनूमानजी की वन्दना आरम्भ की और ऐसी करुणा भरी वाणी से निवेदन किया कि हनूमानजी कारागार में प्रकट हो दर्शन दिये। उन्हें रात्रि में धीरज धारण करने का आदेश दिया। सवेरा होते ही सारी दिल्ली में वानरी सेना से आतङ्क छा गया। शाही महल ले लेकर कंगाल की झोपड़ी पर्यन्त ऐसा कोई भी स्थान नहीं बच रहा कि जहाँ उद्धत बन्दरों का उपद्रव न मच गया हो। कोई बचाव न देख बादशाह घबराया, वह मन में ताड़ गया कि यह उसी फ़कीर की करामात है। स्वयम् जेलखाने में दौड़ा आया और पाँव पड़कर क्षमा के लिये प्रार्थना की। उसकी विनती से प्रसन्न हो गोसाँईजी ने दो पद्य निर्माण कर पवनकुमार से क्षमा करने के लिये विनय किया। गोस्वामीजी ने बादशाह को दूसरी दिल्ली बसाकर वहाँ राजधानी बनाने का आदेश दिया। बादशाह ने वैसाही किया, फिर तो वह गोस्वामीजी पर बड़ा स्नेह रखता और अत्यन्त पूज्यष्टि से उन्हें देखने लगा। एक बार गोसाँईजी को रोगग्रस्त होना सुनकर वह उनसे मिलने काशीजी आया था। हमारी अनुवादित विनय पत्रिका जो इसी प्रेस में छपी है, उसमें ३२ से ३५वे पद्य पर्यन्त पढ़ जाइये। वहाँ इसका विस्तृत वर्णन है।

वृन्दावन की यात्रा।

एक बार तीर्थाटन के निमित प्रस्थान कर गोसाई जी अयोध्या से वराहक्षेत्र होते हुए नैमिषारण्य में आये। वहाँ से चल कर कुछ दिन पसका और सिवार गाँव में निवास किया। फिर लखनऊ आये और एक निरक्षर जाट पर प्रसन्न हो उसे आशीर्वाद देकर श्रेष्ठ कवि बना दिया। मढ़िआउँ ग्राम में भीष्म नामक एक भक्त रहते थे, उनके बनाये तखशिख को सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। चनहट गाँव से होते हुए मार्ग में एक कुएं का जल पान किया और उसके गुणों की प्रशंसा की। मलिहाबाद में आकर ठहरगये, यहाँ एक भार बड़े हरिभक्त और रामयश के प्रेमी रहते थे। कहते हैं गोस्वामीजी ने अपने हाथ की लिखी रामायण उन्हें दी जो अबतक विद्यमान है। इस पुस्तक के विषय में मिश्रबन्धुओं ने हिन्दी-नवरत्न में लिखा है कि – "यह रामायण वहाँ के महन्त जनार्दन दासजी के पास अद्यावधि वर्तमान है। इस पुस्तक को एक बार लगभग आध घंटे तक हमने भी देखा; परन्तु हमको इसके गोस्वामाजी के लिखित होने में सन्देह है। इनकी लिखी हुई अयोध्याकाण्ड अबतक राजापुर में गोस्वामीजी की कुटी पर वर्तमान है। उसके अक्षरों का फोटो हमने देखा है। इन अक्षरों से मलिहाबादवाली पुस्तक के अक्षर नहीं मिलते और केवल आध ही घंटा में ढूँढ़ने पर हमें उसमें गङ्गा उत्पत्ति की कथावाला क्षेपक भी मिला।" मलिहाबाद से चल कर प्रभाती में स्नान करके वाल्मीकिजी के आश्रम में गये। फिर वहाँ से चल कर रसूलाबाद के पास कोटरा गाँव में अनन्यमाधवदास से मिले, वहाँ से सण्डोला होते हुए वृन्दावन आये।

उस दिन नामाजी के यहाँ वैष्णवों का भण्डारा था। यह सुन कर गोसाँईजी बिना बुलाये ही वहाँ चले गये। उस समय पङ्कति बैठ चुकी थी और सब के सामने पत्तल पर सुआर लोग प्रसाद परस रहे थे। गोस्वामीजी को किसी ने नहीं पहचाना, ये बाहर ही खड़े रहे। जब परसने वाले सामने आये, तब इन्होंने एक साधु का जूता हाथ से उठा कर उसी में अपने वास्ते खीर डाल देने के लिये कहां। इनके वेश और तेज को देख लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ और परसनेवाले ठिठक गये। तब गोस्वामीजी ने यह दोहा कहा –

तुलसी जाके मुखन्ह ते, धोखेउ निकरत राम।
ताके पग की पगतरी, मेरे तन को चाम॥

नाम सुनते ही नामाजी ने दौड़ कर उन्हे गले लगा लिया और बड़े आदर के साथ ले जाकर सुन्दर आसन पर बैठाया। नामाजी ने कहा कि आज हमें सन्तों के सुमेरु मिल गये। सन्मानपूर्वक भोजन कराया। प्रियादासजी और न्यूनाधिक रूप में प्रायः सभी लेखकों ने इस बात का जिक्र किया है कि किसी मन्दिर में कृष्णमूर्ति को गोसाँईजी ने राममूर्ति कह कर दंडवत किया और वह मूर्ति वास्तव में धनुष-बाणधारी हो गयी। परन्तु यह बात कहाँ तक ठीक है कुछ नहीं कहा जा सकता। श्रीकृष्णचन्द्र भगवान में गोस्वामीजी का प्रेम था, उन्होंने कृष्ण गीतावली बनाया है और कृष्णलीला करवाते थे। फिर यह बात समझ में नहीं आती कि ऐसा उन्होंने किस कारण से किया था।

मीराबाई का पत्र।[]

मेवाड़ के राजकुमार भोजराज की पत्नी मीराबाई भगवद्भक्ति परायणा थी। उनका समय अधिकांश सत्संग ही में व्यतीत होता था और वे सदा हरि-कीर्तन में अनुरक रहती थी। लोकनिन्दा के विचार से राणाजी को मीरा की यह चाल बहुत बुरी लगती थी। उन्हों ने बहुत समझाया बुझाया, पर मीरा ने उनके कथन पर कुछ ध्यान नहीं दिया और अपने सिद्धान्त में अटल बनी रही। अन्त में मीरा को मार डालने के लिये राणा ने बहुतेरा प्रयत्न किया; परन्तु हरि कृपा से वे सब निष्फल हुए और मीरा का बाल बाँका नहीं हुआ। कुटुम्बियों के तांडव से मीराबाई को बड़ा कष्ट होने लगा, तुलसीदासजी का निर्मल यश उन्हों ने सुन रक्खा था। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि गोसाँईजी वृन्दावन में विद्यमान हैं, तब नीचे लिखा पद्य अपने किसी विश्वासी मनुष्य के हाथ गोस्वामीजी की सेवा में प्रेषित किया।

स्वस्तिश्री तुलसी गुण भूपण दूपण हरण गुसाँई।
बारहि बार प्रणाम करत हौं, हरहु शोक समुदाई॥१॥
घर के स्वजन हमारे जेते, सबन्हि उपाधि बढ़ाई।
साधु सङ्ग मिलि भजन करत मोहि, देत कलेस महाई॥२॥

बालपने से मीरा कीन्ही, गिरधरलाल मिताई।
सो तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ, लगी लगन बरियाई॥३॥
मेरे मातु पिता समान हो, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित परियो है, तो लिखिये समुझाई॥४॥

इसके उत्तर में गोसाँईजी ने यह पद लिख भेजा–

जाके प्रिय न रामन्वैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि परम सनेही॥१॥
तज्यो पिता प्रहलाद विभीषन बन्धु भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो नाह ब्रजबनितन्ह, भे जग मङ्गलकारी॥२॥
नातो नेह राम के मनियत, सुहृद सुसेब्य जहालौं।
अञ्जन कहा आँखि जेहि फूटइ, बहुतक कहहैं कहांलौ॥३॥
तुलसी सोइ आपनो सकल विधि, पूज्य प्रान से प्यारो।
जासों होइ सनेह राम सों, एतो मतो हमारी॥४॥

कहा जाता है इस उत्तर को पाकर मीराबाई महल त्याग कर तीर्थाटन के लिये निकल गयी और अपना शेष जीवन एकान्त पास पर भजन में बिताया।

मीरा का स्वर्गवास सम्वत् १६०३ में हुआ था और यह बात उससे कुछ पहले की होगी। कम से कम यदि दश वर्ष पूर्व की बात मानी जावे तो पण्डित रामगुलामजी द्विवेदी के मतानुसार गोसाँईजी की अवस्था उस समय ४ वर्ष की रही होगी। इस कारण इस पत्रा-लाप के सम्बन्ध में बड़ा सन्देह होता है। हाँ – यदि इन्द्रदेवनारायण का कथन ठीक माना जाय तो उस समय तक गोसाईजी की अवस्था ४२ वर्ष की मानी जा सकती है। जो हो, यह आख्यायिका जगत्प्रसिद्ध है, इसीसे हमने भी इसका उल्लेख मान कर दिया है।

वृन्दावन से प्रस्थान करके गोस्वामीजी अकबर के प्रसिद्ध वज़ीर नवाब खानखाना और आमेर के महाराज मानसिंह से मिलते हुए यमुनातट का मार्ग पकड़े चित्रकूट की ओर आ रहे थे। जिला लालवन में यमुनानदी के किनारे पर एक स्थान 'केशौसा' है जहां चम्बल, यहून, सेंध और कुवारि नाम की नदियाँ यमुना में मिली हैं। इस कारण यह स्थान पंचनद भी कहलाता है। इस तपोभूमि में चिरकाल से साधु महात्माओं की मंडली रहती आई है। यहाँ कितने ही प्रसिद्ध महात्माओं की समाधियाँ और देवमन्दिर हैं। जब गोस्वामीजी इस स्थान के समीप पहुँचे, तब सूर्य भगवान अपनी किरण समेट अस्ताचल में अवश्य हो चुके थे। वहीं गोसाँईजी ने ठहर जाने का विचार किया, इतने में उस स्थान के प्रधान महात्मा वंजूवन से भेंट हुई। वे बड़े आग्रह और सम्मान पूर्वक गोसाँईजी को आश्रम में लिवा गये और आसन देकर बहु प्रकार आदर सत्कार किया। दूसरे दिन भी विश्राम के लिये अनुनय विनय करके ठहराया।

केशौला के पास में जगम्मनपुर नाम की एक छोटी सी रियासत है। उस समय वहाँ उदोतशाह राजा थे उन्होंने गोस्वामीजी की महिमा सुन रक्खी थी। उनका केशौसा में पधारना सुन कर राजा उदोतशाह वहाँ गये और बड़ी प्रार्थना करके उन्हें अपनी राजधानी में लिवा आये। राजा ने भक्तिपूर्वक गोस्वामीजी की ऐसी सेवा की जिससे वे उदोतशाह पर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा को तीन वस्तुएँ प्रदान की। एक दक्षिणावर्ती शङ्ख, एकमुखी रुद्राक्ष और सालिग्राम शिला (लक्ष्मी . नारायण) ये तीनों पदार्थ राजभण्डार में अबतक सुरक्षित हैं। राजा उदोतशाह के समय में गोस्वामीजी के पधारने का हाल लेखबद्ध करा कर रक्खा गया था, वह अबतक वर्तमान है। श्रीलक्ष्मीनारायण का उत्सव उसी समय से आश्विन शुक्ल १४ को मनाया जाने लगा, यह उत्सव अबतक प्रतिवर्ष होता जा रहा है।

हमें इस घटना का पता इस प्रकार लगा कि हमारे लघपन्धु पं॰ बेनीप्रसाद मालवीय जो इस समय मुरादाबाद पुलिस ट्रैनिङ्ग स्कूल के प्रोफेसर हैं, सन् १९१८ ई॰ में वे थाना रामपुरा के इनचार्ज थे। इसी थाने के अन्तर्गत जगम्मनपुर रियासत है। उन्होंने पूर्वोक्त तीन वस्तुओं को एवम् उस समय का लिखा लेख स्वयम् देखा था। जब गोस्वामीजी की जीवनी लिखने का हमें शुभ अवसर प्राप्त हुआ, तब हमने विस्तृत समाचार मँगवाने के लिये उन्हें मुरादाबाद पत्र लिखा। उन्होंने उक्त राज्य के मैनेजर से खुलासा हाल लिख भेजने की प्रार्थना की। नायब दीवान चौबे कन्हैयालालजी ने कृपा कर उपर्युक्त समाचार लिख भेजा इसके लिये हम आप को हार्दिक धन्यवाद देते हैं। जगम्मनपुर से चल कर गोस्वामीजी चित्रकूट होते हुए काशी लौट आये।

हत्या छुड़ाना।

एक दिन एक हत्यारा पुकारता फिरता था कि मैं हत्यारा हूँ, कोई राम का प्यारा राम के नाम पर मुझे भोजन करा दे। हत्यारे के मुख से राम-नाम का पुकार सुन कर गोस्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए। समीप में बुला कर महाप्रसाद दिया और कहा कि राम-नाम के प्रभाव से तुम्हारी हत्या छुट गयी। इस पर काशी के पंडितों ने बड़ा हो हल्ला मचाया। सब मिल कर गोसाँईजी के पास गये और पूछा कि इसकी हत्या बिना प्रायश्चित्त किये किस प्रकार छूट गयी जिससे आप ने इसको अपने साथ बिठा कर भोजन कराया? गोस्वामीजी ने कहा आप लोग राम-नाम की महिमा ग्रन्थों में देखते हैं, परन्तु उस पर विश्वास नहीं रखते, यही कच्चाई है। राम-नाम उच्चारण करने से यह सर्वथा शुद्ध हो गया। अब इसमें हत्या का लेशमात्र दोष नहीं है। उन लोगों ने कहा कि आप की बात को हमलोग तभी सत्य मानेगे, जब विश्वनाथजी के मन्दिर में पत्थर के नन्दी इसके हाथ का छुआ व्यजन भोजन करेंगे। ऐसा ही किया गया और कपड़ ओट के भीतर भोजन की थाली हत्यारे ने नन्दी के सामने रख दी। थोड़ी देर में देखा गया तो थाली साफ। यह अद्भुत दृश्य देख कर अभिमानी पण्डित शरमा गये। कितने लोगों को इस घटना से राम-नाम में पूर्ण विश्वास उत्पन्न हुआ और वे हरिभक्त होकर नाम-स्मरण करने लगे। कहते हैं इस पर कलि ने प्रत्यक्ष रूप से गोस्वामीजी को धमकाया, उन्होंने हनुमानजी से प्रार्थना की, पवनकुमार ने विनयपत्रिका लिखने का आदेश किया, तय गोसाँईजी ने विनय-पत्रिका बनायी। इसका आभास विनय पत्रिका के २२० पद में मिलता है।

जगदीश की यात्रा।

जगदीश की यात्रा करके प्रथम गोसाँईजी बलिया के भृगुआश्रम, हंसनगर, परसिया आदि अस्थानों से होते हुए गायघाट आये। वहाँ के गजा गम्भीरदेव ने उनका अच्छा आतिथ्य-सत्कार किया। वे ब्रह्मपुर में ब्रह्मेश्वरनाथ महादेव का दर्शन कर कान्तगाँव में आये। उस ग्राम के सारे मनुष्य राक्षसी प्रकृतिवाले थे, इस कारण सध्या हो जाने पर भी वहाँ भोजन और विश्राम करना उचित न समझ कर आगे बढ़े। थोड़ी दूर चले जाने पर उसी गाँव का रहनेवाला साँवरू का लड़का मँगरू अहीर मिला। वह बड़ी नम्रता से प्रार्थना करके गोसाँईजी को अपनी गोशाले में लिवा ले गया और वहाँ आसन कराया। मँगरू ने बड़ी श्रद्धा से हर प्रकार की सेवा की और भोग लगाने के लिये पर्याप्त दूध ले आया। उस दूध का गोस्वामीजी ने खोया बना कर भोग लगाया और रात्रि में वही विश्राम किया। मँगरू के सच्चे सत्कार से और सन्त-महात्माओं में उसकी प्रीति देख गोसाँईजी बहुत प्रसन्न हुए। जब सबेरे वहाँ से प्रस्थान करने लगे, तब मँगरू ने बड़ी नम्रता से दंडवत किया और सामने हाथ जोड़ कर खड़ा रहा। गोस्वामीजी ने कहा-क्या चाहते हो? उसने कहा-महाराज आप के आशीर्वाद से सब परिपूर्ण है, किन्तु कोई सन्तान नहीं है। गोसाँईजी ने कहा कि इस गाँव के सब मनुष्य चोरी ठगी आदि घोर अत्याचार करते हैं। यदि तुम यह प्रतिज्ञा करो कि तुम और तुम्हारे कुटुम्बी चोरी ठगहारी न करेंगे तो शीघ्र ही तुम्हें सन्तान का सुख प्राप्त होगा। मँगरू ने वैसी ही प्रतिज्ञा की और कुछ ही दिन बाद उसके पुत्र हुआ। सुना जाता है कि बलिया और शाहाबाद जिले में मँगरू के वंशजों को अतिथि-सेवा अबतक प्रसिद्ध है। यद्यपि यहाँ के अहीर चोरी ठगहारी करने में अब भी प्रख्यात हैं, किन्तु मँगरू के वंशज इस दोष से सर्वथा मुक्त कहे जाते हैं।

वहाँ से चल कर गोसाँईजी वेलापतौत आये। गोविन्द मिश्र और रघुनाथसिंह क्षत्रिय ने उन्हें बड़े सत्कार से ठहराया। वेलापतौत का नाम बदल कर गोस्वामीजी ने रघुनाथपुर रख दिया जो अब तक इसी नाम से प्रसिद्ध है। वहाँ से चल कर कुछ दिन के बाद वे जगन्नाथपुरी के समीप जा पहुँचे। नील चक्र का दर्शन होते ही वहीं बैठ गये। कहते हैं कि उनको यहीं जगदीश भगवान का दर्शन हुआ था। वह स्थान अब तक 'तुलसीचौक' के नाम से प्रसिद्ध है और जगन्नाथजी के दर्शनार्थ जानेवाले यात्री इस स्थान में दर्शन के लिये पधारते हैं। कुछ दिन बाद गोस्वामीजी फिर काशी लौट आये।

भिन्न भिन्न किम्बदन्तियाँ।

यों तो महात्मा-पुरुष विलक्षण होते ही हैं और उनके अनुयायी भक्तगण उनके चरित्रों की विलक्षणता को इतनी चढ़ा बढ़ा कर प्रचार करते हैं कि उसका निर्णय करना अत्यन्त दुर्गम हो जाता है। बहुत सम्भव है कि इन किम्बदन्तियों में भी कुछ ऐसी बाते हो, पर जो सुनने में आती हैं उनमें कुछ महत्व-सूचक बातों का हम उल्लेख करते हैं।

(१)–कहा जाता है कि एक बार चित्रकूट जाते समय रास्ते में किसी राजा की प्रार्थना से प्रसन्न हो उसकी कन्या को अपने अशीर्वाद से गोसाँईजी ने पुत्र कर दिया था। "रामनाम मनि विषय व्याल के। मेटत कठिन कुलङ्क माल के" इस चौपाई को पढ़ कर जल छिडकते ही वह कन्या पुत्र रूप में परिवर्तित हो गयी।

(२)–सारन जिला में एक भौरिवा ग्राम है। वहाँ हरीराम ब्रह्म का स्थान है। कनकशाही विसेनों के उपद्रव से तंग आकर हरीराम ने आत्महत्या कर डाली और ब्रह्म हुए। हरीराम के जनेऊ में गोसाँईजी भी उपस्थित थे, ऐसा कहा जाता है।

(३)–कहते हैं रामचरिममानस के बन जाने पर काशी के कुछ पंडितों ने उसे भाषा-काव्य कह कर तिरस्कार किया। एक ने जाकर गोसाँईजो से कहा कि आप तो संस्कृत के विद्वान और कवि हैं, फिर गँवारी भाषा में ग्रन्थ क्यों बनाया? इस पर गोसाँईजी ने यह दोहा कहा–

मनि-भाजन विष पारई, पूरन अमी निहारि।
का छाढ़िय का संग्रहिय, कहहु विवेक विचारि ॥

अर्थात् मणि के पात्र में विष भरा हो और मट्टी की परई में अमृत देखने में आये तो ज्ञान से विचार कर कहिये कि किसे त्यागना चाहिये और किसको ग्रहण करना चाहिये। उस पंडित ने कहा यह कैसे? गोसाँईजी ने उत्तर दिया कि निस्सन्देह मेरी भाषा गँवारी है, पर संस्कृत के नायिकाभेद वर्णन से अच्छी ही है। इस उत्तर से उस अहंकारी पंडित को सन्तोष नहीं हुआ। उसका दुराग्रह देख गोसाँईजी ने 'ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई' यह चौपाई का चरण लिख कर दिया और कहा कि आप या दूसरे विद्वान इसका दूसरा चरण ठीक लिख दें तो मैं अपनी कविता को बेकाम की मान लूँगा। बहुनों ने पूति की; पर जब गोसाँई जी ने 'चोर नारि जिमि प्रगट न रोई' लिख कर अर्द्धाली पूरी कर दी तप सब की पूर्तियाँ फीकी पड़ गयीं और वे सब लज्जित हो गये।

(१)–एक बार गोसाँईजी जनकपुर गये थे। वहाँ के ब्राह्मणों को श्रीरामचन्द्रजी के समय से कहा जाता है, बारहगाँव माफी मिले थे। पटने के सूबेदार ने उन गाँवों को छीन लिया। तुलसीदासजी ने ब्राह्मणों की प्रार्थना पर हनूमान जी से विनती की, और पवनकुमार के अनुग्रह से उन ब्राह्मणों के पट्टे लौटा दिये।

(५)–ब्रज में महात्मा सूरदास से इनकी भेट हुई थी।

(६)–स्वामी दरियानन्द और मलूकदास से भी साक्षात्कार हुआ था।

(७)–ओड़छे के केशवदास कवि को इन्होंने प्रेतयोनि से मुक्त किया था।

(८)–कहा जाता है कि कविगङ्ग इनसे मिलने के लिये काशी आये थे।

(९)–बादशाह जहाँगीर एक बार इन्हें रोग ग्रस्त सुन कर मिलने के लिये काशी आया था और उस समय रुग्नावस्था का चित्र अपने मुसब्बरों से तैयार कराया था।

(१०)–अयोध्या का रहनेवाला एक भंगी काशी आया था। उसको अवधवासी जान कर गोस्वामीजी ने प्रेम-विह्वल हो उसका बड़ा सम्मान किया।

(११)–प्रयाग के मुरारिदेवजी से एक वार गोसाँईजी मिले थे।

(१२)–सण्डीले के स्वामी नन्दलालजी ने एक बार चित्रकूट में आकर गोस्वामीजी से मिले थे और उन्होंने अपने हाथ का लिखा उन्हें रामकवच दिया था।

(१३)–एकबार गोस्वामीजी की बाहुओं में वातव्याधि की भीषण पीड़ा उत्पन्न हुई। जब वह किसी भी उपाय से शान्त नहीं हुई तब उन्होंने ४४ पद्यों का हनुमानवाहक नामक ग्रन्थ बनाकर हनूमानजी की स्तुति की थी। उससे वह पीड़ा दूर हो गयी।

गोस्वामीजी के स्नेही और मित्र।

काशी के खत्री टोडरमल, पंडित गंगाराम जोशी, खानखाना, महाराजा मानसिंह, मधुसूदन सरस्वती और नामादासजी इनके स्नेही और मित्र थे। अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि नन्ददास को बैजनाथदास ने इनका गुरुभाई लिखा है, परन्तु इसका कोई ठीक प्रमाण नहीं मिलता। वे तुलसीदास सनाढ्य ब्राह्मण थे जैसा कि नन्ददास के जीवनचरित्र से सष्ट होता है। टोडरमल काशी के एक बड़े जमीदार थे, वे राजा की पदवी से प्रतिष्ठित थे। टोडर की ईश्वर में प्रीति थी और गोसाँईजी को गुरुदेव की तरह मानते थे। गिअर्सन साहब ने इन्हें बादशाह अकबर के प्रसिद्ध मंत्री महाराज टोडरमल अनुमान किया है, परन्तु ऐसा नहीं है। काशी के राजा टोडरमल खन्ना भिन्न व्यक्ति थे और यही गोस्वामीजी के स्नेही थे।

काशी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक टोडर की ज़मीदारी पाँच महलों में थी। उनके नाम हैं ये – भदैनी, नदेसर, शिवपुर, छीतपुर और लहरतारा। भदैनी, अब काशिराज के पास है, इसी महल्ले में अस्सीघाट है। नदेसर भी काशीनरेश के अधिकार में है। शिवपुर पञ्चकोश में है, यहाँ पाँचों पाण्डवों का मन्दिर और द्रौपदीकुण्ड है जिसका जीर्णोद्धार राजा टोडरमल ने कराया था। छीतूपुर भदैनी के पश्चिम भाग में है। लहरतारा बनारस छावनी (सिकरौर स्टेशन) के समीप में है।

राजा टोडरमल को द्वन्द्व के कारण गोसाँइयों ने तलवार से काट डाला। टोडर की मृत्यु से गोसाँईजी को बड़ा खेद हुआ। कहा जाता है कि उनके मरने पर गोसाँईजी ने निम्न दोहे कहे–

चार गाँव को ठाकुरो, मन को महा महीप।
तुलसी या कलिकाल में, अथये टोडर भूप॥१॥
तुलसी रामसनेह को, सिर पर भारी भार।
टोडर काँधा ना दियो, सब कहि रहे उतार॥२॥
तुलसी उर थाला विमल, टोड़र गुन-गन बाग।
ये दोउ नैनन्ह सींचिहौं, समुक्षि समुक्षि अनुराग॥३॥
रामधाम टोड़र गये, तुलसी भये असोच।
जियवो मीत पुनीत बिनु, यही जानि सोच॥४॥

राजा टोडरमल के दो लड़के थे। एक का आनन्दराम और दुसरे का बलिभद्र नाम था। बलिमद्र टोडर के सामने ही परलोकवासी हो गया उसके पुत्र का नाम कँघई था । टोडर के मरने पर आनन्दराम और कंघई में जायदाद के लिये झगड़ा हुआ; उसमें गोस्वामीजी पंच हुए थे। उन्होंने एक पंचायती फैसला लिखा था, वह ग्यारह पीढ़ी पर्यन्त टोडर के वंशजों के अधीन रहा। ग्यारहवीं पीढ़ी में पृथ्वीपाल सिंह ने उसको महाराज काशीनरेश के हवाले कर दिया। वह अबतक उनके यहाँ सुरक्षित है। टोडर के वंशज अबतक अस्सी पर निवास करते हैं। वह पञ्चनामा कुछ नागरी अक्षरों में और कुछ फारसी अक्षरों में लिखा है, परन्तु हम उसका प्रतिलिपि हिन्दी वर्णी मै पाठकों के सामने रखते हैं।

पञ्चनामे की प्रतिलिपि।

श्रीजानकीवल्लभो विजयते
द्विश्शरं नाभिशंघत्ते द्वित्स्थापयति नाश्रितान्। द्विर्ददाति न चार्थिभ्यो रामो द्विनैव भापते॥३॥
तुलसी जान्यो दशरथहि, धरम न सत्य समान। राम तजे जेहि लागि बिनु, राम परिहरे प्रान॥२॥
धर्म्मो जयति नाघर्म्मस्स्यर्त्य जयति नानृतम्। क्षमा जयति न क्रोधो विष्णुर्जयति नासुरः॥३॥
अल्लाहो अकबर।

चूँ अनंदराम बिन टोडर बिन देओराय व कन्हई बिन बलिभद्र बिन टोडर मजकूर दर हुज़र आमदः करार दादन्द कि दर मवाज़िए मतरूकः कि तफ़सीलि आँदर हिन्द्वी मजकूर अस्त बिल मुनासफः बतराजीए जानिवैन करार दादेम व यक सद पिंजाह,विधा ज़मीन ज़्यादः किस्मत मुनासिफः खुद

दर मौजे भदैनी अनन्दराम मजकूर व कन्हई बिन रामभद्र मज़कूर तजवीज़ नमूदः बर मानी राजीगश्तः अतराफ सहीह शरई नमूदन्द विनावर आँ मुहर करदः शुद।

श्री परमेश्वर

संवत १६६९ समए कुआर सुदि तेरसी धार शुभ दीने लिपीतं पत्र अनन्दराम तथा कन्हई (शहीद ब माफिह जलाल मकबूली बखतही) (शहीद ब माफिहताहिर इवन् खाजे दौलते कानूनगोय)

मुहर सादुल्लाह बिन ... ...
किस्मत आनन्दराम किस्मत कन्हई
करिया करिया करिया करिया
भदैनी दो हिस्सा लहरतारा दरोबिस्त भदैनी सेह हिस्सा शिवपुर दरोविस्त
करिया करिया
नैपुरा हिस्सै टोडर तमाम नदेसर हिस्सै टोडर तमाम
करिया अन्हरूला (अस्पष्ट)
चित्तपुरा खुर्द हिस्सै टोडर तमाम

परलोक गमन।

यह दोहा प्रसिद्ध है–

सम्वत् सोरह सौ असी, असी गङ्ग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तजे शरीर॥

अर्थात् मि॰ श्रावण शुक्ल ७ सम्वत् १६८० को गंगाजी के अल्सीघाट पर गोस्वामी तुलसीदासजी ने शरीर त्याग किया। कवित्त रामायण में गोसाँईजी ने लिखा है कि – "बीसी विश्वनाथ की विषाद बड़ो बारानसी, बूझिये न ऐसी गति शङ्कर सहर की। शङ्कर सरोष महामारिहि ते जानियत, साहिब सरोष दुनी दिन दिन दारिदी।" इन पद्यों से विदित होता है कि काशी में महामारी फैली थी, उस समय रुद्रबीसी भोग रही थी। ज्योतिष की गणना से वह समय सम्वत् १६६५ से १६८५ तक का निकलता है। इसी के आधार पर डाक्टर ग्रिअर्सन ने अनुमान किया है कि अन्त समय में गोसाँईजी महामारी से पीड़ित हुए थे, उनकी कोख में गिलटी निकल आई थी और ज्वर भी हुआ था। परन्तु अधिकांश जीवनी लेखक ग्रियर्सन साहब के इस तर्क से सहमत नहीं हैं, वे कहते हैं अन्त समय में गोसाँईजी को कदापि प्लेग की बीमारी नहीं हुई थी।

बादशाह जहाँगीर के बनवाये चित्र में सद्यः रोगमुक्त होने का चिह्न वर्तमान है और वह सम्वत् १६६५ और १६६९ के बीच गोसाँईजी से मिलने काशी आया था। सम्भव है कि उस समय वे महामारी से ग्रसित होकर अच्छे हुए हो जिसे सुन कर स्नेहवश बादशाह उन्हें देखने आया था। जो हो, पर अन्त समय में गोसाँई जी को महामारी नहीं हुई थी। जब स्वर्गारोहण का समय समीप आया, तब वे गङ्गाजी के तट पर जा आसीन हो रामनाम का जाप करने लगे। ठीक यात्रा के समय यह दोहा कह कर परमधाम सिधारे।

रामनाम जस बरनि के, भयउ चहत अब मौन।
तुलसी के मुख दीजिये, अबही तुलसी मौन॥

गोस्वामीजी के ग्रन्थ।

इनके ग्रन्थों की संख्या में भी बड़ा मतभेद है। हिन्दी-नवरत्न में मिश्रबन्धुओं ने २५ ग्रन्थ, तुलसी जीवनी के लेखक ने ३१ ग्रन्थ; शिवसिंह सरोज ने २२ ग्रन्थों की गणना की है। फणेश कवि और महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर द्विवेदी आदि विद्वानों ने भिन्न भिन्न संख्यायें निर्धारित की हैं। मिर्जापुर-निवासी प्रसिद्ध रामायणी स्वर्गीय पं॰ रामगुलाम द्विवेदी ने छोटे बड़े सब मिलाकर गोसाँईजी के बनाये १२ ग्रन्थ गिनाये हैं। द्विवेदीजी ने रामायण को क्षेपक के जंजाल से मुक्त करने में सर्वप्रथम सराहनीय परिश्रम किया था। केवल रामायण ही नहीं उन्होंने सभी ग्रन्थों के मूल पाठ खोज निकालने में भगीरथ प्रयत्न किया और अपने उद्योग में पूर्ण सफल हुए थे। एक घनाक्षरी में उन बारहों ग्रन्थों की गणना उन्हों ने इस प्रकार की है।

"रामलला नहछू विरागसन्दीपिन हूँ, बरवै बनाय विरमाई मति साँई की।
पारबती जानकी के मङ्गुल ललित गाय, रम्य रामभाना रची कामधेनु नाँई की।
दोहा औ कवित्त गीतबद्ध कृष्नकथा कहीं, रामायन विनय महें बात सब साँई की।
जग में सेहानी जगदीश हू के मन मानी, सन्त सुखदानी बानी तुलसी गोसाँई की ॥"

(१) रामलला नहछू (५) जानकी-मङ्गल (९) गीतावली-रामायण
(२) वैराग्यसन्दीपनी (६) रामाज्ञा-प्रश्नावली (१०) कृष्ण गीतावली
(३) बरवै-रामायण (७) दोहावली (११) रामचरितमानस
(४) पार्वती मंगल (८) कवित्त-रामायण (१२) विनय-पत्रिका

इन्हीं बारहों ग्रन्थों को काशी नगरीप्रचारिणी सभा के सदस्यों ने भी मुख्य गिनाया है। एक तुलसी नाम के कायस्थ हो गये हैं और दूसरे तुलसीदास नामक सनाढ्य ब्राह्मण अच्छे कवि हुए हैं। इन्हीं दोनों कवियों के ग्रन्थों के भ्रम में पड़ कर लोगों ने गोसाँईजी का महत्व बढ़ाने के लिये उनकी संख्या बढ़ा कर ३०-३२ से अधिक पहुँचा दी है। गोस्वामीजी पर बहुत से ग्रन्थों का बोझ लादना मेरी समझ में उचित नहीं है, क्योंकि उनका महत्व बढ़ाने वाले और कोई ग्रन्थ चाहे न भी हों तो रामचरितमानस और विनय पत्रिका यही दोनों पर्याप्त हैं। गोसाँईजी के बारहो ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय हम पाठकों को कराते हैं और ये सब तुलसी ग्रंथावली के नाम से मोटे अक्षरों में बेलवेडियर प्रेस प्रयाग में छपे हैं।

(१) रामलला नहछू – वह २० सोहर छन्दों का छोटा सा ग्रन्थ है। पण्डित रामगुलामजी ने लिखा है कि चारों भाइयों के यज्ञोपवीत के समय का यह नहछू है, क्योंकि विवाद के समय रघुनाथजी बारात के पहले ही जनकपुर में विराजमान थे इससे अयोध्या में नहछू होना सम्भव नहीं है।

(२) वैराग्य सन्दीपनी – यह भी छोटा सा ग्रन्थ दोहा चौपाइयों में बना है। इसमें तीन प्रकाश हैं। प्रथम सन्तस्वभाव वर्णन ३३ छन्दों का है दूसरा सन्तमहिमा वर्णन ९ छन्दों में और तीसरा शान्ति वर्णन २० छन्दों का है। सब मिला कर ६२ छन्द संख्या है। विषय नाम ही से प्रकट है।

(३) बरवै-रामायण – यह बरवा छन्दों में निर्मित है। संक्षिप्त रूप से सातों कांड की कथा का वर्णन है। छन्द संख्या ६९ है। पं॰ शिवलाल पाठक ने लिखा है कि बरवा-रामायण बड़ा ग्रन्थ था, किन्तु वह पूरा मिलता नहीं। जान पड़ता है यह पाठकजी का अनुमान ही अनुमान है, कोई प्रमाण उन्होंने नहीं उपस्थित किया।

(४) पार्वतीमङ्गल – यह फोगुन सुदी ५ गुरुवार सम्वत् १६४३ में बना था। इसमें शिव-पार्वती का विवाह विस्तार से वर्णन हुआ है। ७४ मङ्गल और १६ हरिगीतिका छन्द इसमें है।

(५) जानकी-मङ्गल – इसमें राम-जानकी के विवाहउत्सव का वर्णन है, परन्तु रामचरितमानस की कथा से इसमें कुछ भिन्नता है। फुलवाड़ी की कथा का वर्णन नहीं है और परशुरामजी का आगमन विवाहोपरान्त कहा गया है। इसमें ९६ मङ्गल और २४ हरिगीतिका छन्द है।

(६) रामाज्ञा-प्रश्नावली – इसमें सात सर्ग हैं और प्रत्येक सग में ४९-४९ दोहे हैं। सात-सात दोहों का एक एक सप्तक है। प्रति सर्ग सात सात सप्तक के हैं। रामायण के सातों कांड की कथा का वर्णन है। इस ग्रन्थ को गोसाँईजी ने शगुन विचारने के लिये बनाया था और इससे शगुनों का उत्तर बहुत यथार्थ निकलता है। इसमें सब ३४३१ दोहे हैं।

(७) दोहावली – इसमें राजनीति, समाजनीति, धर्मनीति, वेदान्त, नाम महिमा और कलि की कुटिलता आदि का वर्णन है। इसकी रचनाशैली से प्रकट होता है कि गोसाँईजी ने समय समय पर जो दोहा और सोरठा कहा था, ग्रन्थ का रूप देते समय उनका संग्रह किया है। इसमें कितने ही दोहे रामचरितमानस के यथा-तथ्य उद्धृत किये गये हैं। सब ५७३ दोहे सोरठे हैं।

(८) कवित्त रामायण – यह ग्रन्थ घनाक्षरी, सवैया, झूलना और छप्पै छन्द्रों में पूरा हुआ है। इसकी रचना वैसवाड़ी मिश्रित ब्रजभाषा में हुई है। इसके छन्द भी समय समय पर बने थे और वे ही पीछे ग्रन्थ के रूप में किये गये हैं। सातो कांड ३६९ कवित्तों में पूर्ण हुए हैं, हनुमान बाहुक भी इसी के अन्तर्गत है। उत्तरकांड में अपनी दीनता प्रदर्शित करने के लिये गोसाँईजी ने अपने सम्बन्ध में बहुत हो तुच्छता दिखायी है, उसके आधार पर कतिपय चरित्र-लेखकों ने तरह तरह के अनुमान बाँध कर उन्हें जन्म का दरिद्री ठहराया है।

(९) गीतावली रामायण – इसकी रचना ब्रजभाषा में हुई है और बड़ी ही मधुर तथा कर्ण-सुखद है। वर्णन राग रागिनियों में सर्वथा स्वाभाविक और हृदयग्राही है। रामायाण के सातों कांडो की कथा माधुर्य-पूर्ण गान की गयी है। इसमें सब ३३१ पद हैं।

(१०) कृष्णगीतावली श्रीकृष्णचन्द्र भगवान का गुण ब्रजभाषा के ६१ पदों में गान किया गया है। इसकी रचना माधुर्यगान-पूर्ण है।

(११) रामचरित मानस-रामायण – रामायण को कौन नहीं जानता? इस लोकोपकारी अनुपम ग्रन्थ की गोसाँईजी ने मि॰ चैत्र शुक्ल मङ्गलवार सम्वत १६३१ में निर्माण करना आरम्भ किया। इसका नाम गोस्वामी जी ने 'रामचरितमानस' रक्खा है, पर वह जगत में रामायण के नाम से प्रसिद्ध हो रहा है। इसकी भाषा वैसवाड़ी और अवधी है; गोस्वामी तुलसीदासजी जिसको 'भाषा' कहते हैं उसमें 'श्री' को छोड़ तालव्य 'श' और 'ण' का कहीं प्रयोग नहीं है । वे 'ख' के स्थान में मूर्धन्य 'ष' और ब को आजकल के 'व' की तरह लिखते थे। इसी प्रकार 'क्ष' के स्थान में 'छ' या 'ष' तथा 'ज्ञ' के स्थान में 'ग्य' लिखा करते थे। उनकी अवधी वर्णमाला के कुल ४१ अक्षर हैं। यथा –

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, । क, ख, ग, घ। च, छ, ज, झ,। ट, ठ, ड, ढ, ड़, ढ़। त, थ, द ध, न । प, फ, ब, भ, म । य, र, ल, व, स, ह।

गोसाँईजी बड़े और अच्छे अक्षर लिखते थे। उनके हाथ की लिखी वाल्मीकीय रामायण की एक प्रति काशी के सरकारी सरस्वती-भवन में रक्खी है। राजापुर में अयोध्याकाण्ड उन्हीं के हाथ का लिखा अंब तक वर्तमान है। रामचरित मानस की रचना में उन्होंने ब्रजभाषा, संस्कृत, प्राकृत, मागधी, अवधी, वैसवाड़ी, बुन्देलखण्डी, फारसी और अरबी भाषा के शब्दों को सम्मिलित किया है। गोसाँईजी के समय की लिपिप्रणाली और वर्तमान काल की लिपिप्रणाली से बड़ा अन्तर है। इसकी पुष्टता राजापुर के अयोध्या कांड को देखने से बहुत कुछ होती है। यही कारण है कि वर्तमान के संशोधक गण बिना सोचे समझे संशोधन कर अनेक पाठ-प्रमाद उत्पन्न कर दिये हैं। हर्ष की बात है कि कतिपय हिन्दी भाषा के उत्साही सज्जनों ने विशेष शुद्ध पाठ का संस्करण निकालना आरम्भ कर दिया है और उन प्रतियों का जनता में आदर भी बढ़ रहा है।

रामचरितमानस का सम्मान सभी मत के लोग करते हैं। भारतवर्ष के सिवा यह अन्यान्य देशों में अनुवादित होकर आदर को दृष्टि से देखा जा रहा है। इसमें धर्मनीति, समाजनीति, गजनीति सदाचार और व्यवहारिक बातें सरल भाषा में इस ढंग से लिखी गयी है कि वे वैष्णव, शैव, शक्ति आदि किसी मतावलम्बी के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं जान पड़ती। भारत में तो पंजाब से बिहार तक और विन्ध्याचल से हिमालय पर्यन्त रामायण घर घर विराजती हैं। असंख्यों मनुष्य केवल रामायण के पाठ से ज्ञानी और वैराग्यवान होते जा रहे हैं।

इस ग्रन्थ के आदि में ४२ दोहा पर्यन्त गोस्वामीजीने वन्दना की है। इतनी वृहद और विलक्षण वन्दना दूसरे किसी ग्रन्थ में किसी कवि की देखने में नहीं आई है।

इसमें शिव-पार्वती, कागभुशुण्ड-गरुड़ और याज्ञवल्क्य-भारद्वाज सम्वाद में रामयश वर्णित है। नाम महिमा, मानस निरूपण, भगवान रामचन्द्रजी के जन्म लेने का कारण, ईश्वरावतार, बाललीला, धनुषयज्ञ, विवाहोत्सव, वनयात्रा, अयोध्यापुर-वासियों का वियोग, महाराजा दसरथ का पुत्र वियोग से तन-त्याग, भरतजी का भायपाचार, पादुका लेकर अयोध्या को लौटना, मुनि-मिलन, खरदूषण वध, सीताहरण, जटायु संहार, सुग्रीव की मित्रता, बाली निपात, हनूमानजी का समुद्र लाँघना, लङ्कादहन, सीताजी की खोज लेकर लौटना, रामचन्द्रजी का वानरी सेना के सहित प्रस्थान, सेतु बन्ध, रावणादि राक्षसों का संहार, विभीषण को तिलक, अयोध्या को लौटना, राजतिलक और राजनीति का खूब मनोहारी विस्तार के साथ वर्णन है। साथ ही भक्ति, ज्ञान वैराग्य और सदाचार का बहुत अच्छी तरह निरूपण किया गया है।

रामायण के विषय में यह कहावत प्रसिद्ध है कि गोस्वामीजी ने पहले संस्कृत में रामायण बनायी। उसको ब्राह्मण का रूप बनाकर शिवजी देखने के बहाने मांग लेगये। जब समय पर ब्राह्मण ने पुस्तक नहीं लौटाई तक गोसाँईजी को सन्देह हुआ। वे अनशन व्रत धारण कर विश्वनाथजी के मन्दिर में यह कह कर बैठे कि आप की नगरी में हमारा सर्वस्व लुट गया, यदि न लौटाइयेगा तो प्राण विसर्जन करूंगा। रात्रि में जब उन्हें निद्रा आयी, स्वप्न में शिवजी ने आदेश दिया कि तुम भाषा में रामायण बनाओ और हम तुम्हारी सहायता करेंगे तथा लोक में उसका खूब प्रचार होगा। यह आदेश पाकर गोसाँईजी ने अयोध्या की ओर प्रस्थान किया, किन्तु रामायण खो जाने की चिन्ता मन से सर्वथा दूर नहीं हुई। मार्ग में सन्ध्या हो जाने पर एक गिरिजामन्दिर में ठहर गये, खिन्नता से निद्रा नहीं आई। रात्रि में वृद्धा ब्राह्मणी के रूप में पार्वतीजी सामने आई और बोली – जो आदेश तुम्हें शिवजी ने दिया है खेद त्याग उसे विश्वास पूर्वक करो। उनका कहना कभी झूठा नहीं हो सकता और हम भी इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेंगी। इतना कह कर वह मूर्ति तिरोहित हो गयी। गोस्वामी जी ने सोचा कि इस तरह उपदेश देनेवाली माता पार्वती के सिवा अन्य कोई स्त्री नहीं हो सकती। वे प्रसन्न मन से अयोध्यापुरी में आये और रामायण की रचना प्रारम्भ कर दी। कहते हैं इस का आभास रामचरितमानस के निम्न दोहे में उन्होंने सूचित किया है –

सपनेहुँ साँचेहु मोहि पर, जौं हर-गौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो-कहहुँ, सब भाषा भनिति प्रभाउ॥

यह किम्बदन्ती प्रसिद्ध है कि अरण्यकाण्ड तक रामायण की रचना उन्होंने अयोध्यापुरी में की, आगे किसी कारण से काशी में चले आये और किष्किन्धा काण्ड से लेकर उत्तर काण्ड पर्यन्त यहीं पूरा किया। इसके प्रमाण में यह उदाहरण पेश किया जाता है कि इसी से किष्किन्धा के आरम्भ में काशी का मंगलाचरण किया गया है।

यथा सो॰ — मुक्ति जन्म महि जानि, ज्ञानखानि अघ हानि कर।
जहँ बस शम्भु-भवानि, सो कासी खेइय कस न॥
जरत सकल सुर-वृन्द, विषम गरल जेहि पान किय।
तेहि न भजसि मन-मन्द, को कृपाल शंकर सरिस॥

कहते हैं रामचरितमानस के बन जाने पर काशी के पंडितों ने बड़ा विरोध किया, परन्तु गोसाँईजी ने किसी के विरोध की तिल भर भी परवाह नहीं की। वे अपने सिद्धान्त पर अटल रहे। पंडितों ने सभा कर के यह निश्चय किया कि हम लोग तो इस भाषा के ग्रन्थ को तभी मान्य समझेगे जब विश्वनाथजी इस पर सही कर देंगे। उनके प्रस्तावानुसार गोसाँईजी ने पुस्तक मन्दिर में रख दी और सवेरे देखा गया तो उस पर विश्वनाथजी ने स्वीकृति लिख दी थी। सब को यह देख महान माश्चर्य हुआ और विरोधी वर्ग लज्जित होकर फिर आदर करने लगा।

इसमें सन्देह नहीं, रामायण-काव्य की जितनी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है। लेखनशक्ति का चमत्कार, दार्शनिक विद्वत्ता, चरित्र चित्रण की अलौकिक शक्ति, भाव को गम्भीरता, अध्यात्मिक तत्वों की सरल विवेचना और प्राकृत दृश्य वर्णन की अभूतपूर्वयोग्यता आदि कहाँ तक कहें, एक आदर्श काव्य में जो जो गुण होने चाहिये वह सब रामायण में है। इसी कारण इसका प्रचार चरमसीमा तक पहुंच गया है और केवल हिन्दी साहित्य में नहीं, वरन् संसार के साहित्य में यह ग्रन्थ अद्वितीय माना जाता है

(१२) []विनयपत्रिका –– इस पुस्तक की रचना गोसाँईजी ने अत्यन्त अधीन होकर राग रागिनियों में की हैं। बहुतों का विश्वास है कि तुलसीदासजी का यह अन्तिम ग्रंथ है और जैसी कवित्वशक्ति उन्होंने इसमें प्रदर्शित की है वैसी दूसरे ग्रन्थों में नहीं। कहने के लिये तो यह भाषा का ग्रन्थ है, परन्तु इसमें वेदान्त के गूढ़ रहस्य कूट कूट कर भरे हैं। ईश्वर प्रार्थना, भक्त-हृदयोद्गार और आदर्श जीवन बनाने के उपदेश का यह ग्रन्थ भाण्डार है। भक्ति विषय में तो आज तक ऐसा ग्रन्थ नहीं लिखा गया। इस पुस्तक को यदि रामचरितमानस से बढ़ कर कहा जाय तो भी कुछ अत्युक्ति न होगी। हनूमानजी के द्वारा इसको रघुनाथजी ने स्वीकार किया है। गोसाँईजी ने अन्त के २७९ घ पद में इस प्रकार लिखा है।

मारुति मन रुचि भरत की लजि लखन कही है। कलिकालाहु नाथ नाम सों, प्रतीति प्रीति एक किङ्कर की निबड़ी है॥१॥

सकल सभा मुनि लेइ उठी, जानि रीति रही है। कया गरीबनिवाज की, देखत गरीब को साहेब बाँह गही है॥२॥

बिहँसि राम कहेउ सत्य है, सुधि मैं हूँ सही है। मुदित माथ नावत बनी, तुलसी अनाथ की परी रघुनाथ सही है॥३॥

भावार्थ।

हनूमानजी और भरतजी के मन की इच्छा लख कर लक्ष्मणजी ने (भरे दरबार में तुलसी की बात) कही है। हे नाथ! कलिकाल में भी आप के नाम से विश्वास और प्रीति एक सेवक की पूरी पड़ी है॥१॥

सम्पूर्ण सभा के लोग सुन कर साथ ही बोल उठे कि, हाँ – उस भक्त की रीति हम लोगों की जानी हुई है। गरीवनेवाज (रामचन्द्रजी) की कृपा पेसी ही है, देखता हूँ स्वामी ने उसकी बौंह पकड़ी है (फिर उसकी प्रीति क्यों न निहहेगी?)॥२॥

रामचन्द्रजी ने हंस कर कहा – सत्य है, मैंने भी (सीताजी से) सबर पाई है। तुलसी अनाथ की बन गयी (विनयपत्रिका पर) रघुनाथजी की सही हो गयी, अब यह जन प्रसन्नता से चरणों में मस्तक नवाता है॥३॥

इति शुभम्

हिन्दी महाभारत

हमारी यह पुस्तक थोड़े दिनों से छप कर तैयार हो गई है। इस पुस्तक में रंगीन चित्र और सादे कुल ९ हैं। पर हैं ये सब सुन्दर, भावपूर्ण और नवीन। इसके लेखक हैं पं॰ महावीर प्रसाद मालवीय।

कुल महाभात का सरल हिन्दी में रोचकता से ऐसा अच्छा वर्णन आप कहीं न पावेंगे। मूल्य सजिल्द पुस्तक का केवल ३)

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मनेजर, बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।

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काव्यनिर्णय

भाषा-साहित्य के प्राचार्य कविवर भिखारी दासजी के निर्माण किये हुए ग्रन्थों में काव्यनिर्णय का सर्वोत्कृष्ट स्थान है। इसमें लक्षणा, व्यञ्जना, रस, भाव, अनुभाव, अपराङ्क, ध्वनि, गुणीभूत व्यङ्ग, अलंकार, चित्रकाव्य और गुण दोषादि का विस्तार से वर्णन है जिसके अध्ययन से काव्य के प्रत्येक अङ्कों का ज्ञान प्राप्त होता है। इसको हमने प्राचीन प्रतियों से मिलान कराकर-शुद्धता पूर्वक और सटीक प्रकाशित किया है। अर्थ सरल भाषा में सब के, समझने योग्य दिया गया है। इसके टीकाकार सम्पादक मनोरमा पंडित महावीर प्रसाद मालवीय वैद्य "वीर" कवि हैं उन्होंने अन्यान्य साहित्यिक ग्रन्थों की टीकाएँ की हैं जो हिन्दीसन्सार में आदर की दृष्टि से देखी जा रही है। टीका टिप्पणी के अतिरिक्त दास कवि का जीवन चरित्र और उनके बनाये अन्य ग्रन्थों का भी परिचय दिया गया है। विस्तृत विषय-सूची लगाई गयी है। सारांश यह कि पुस्तक को सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने में कोई बात उठा नहीं रक्खी गई है। लगभग ३२५ पृष्ठों में यह ग्रन्थ समाप्त हुआ है। इतने पर भी विद्यार्थियों और काव्य प्रेमियों के लाभार्थ सजिल्द प्रति का मूल्य केवल १) रक्खा गया है काव्यनिर्णय का इतना सस्ता, सटीक और शुद्ध संस्करण अद्यावधि कहीं भी नहीं प्रकाशित हुआ है। यदि आप कविता के प्रेमी हैं और काव्य के गूढ़ विषयों को जानने की इच्छा रखते हैं तो आज ही एक कार्ड लिखकर इस ग्रन्थ-रत्न को अवश्य मंगवाइये।

मैनेजर

बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।


गोस्वामी तुलसीदास जी की
सजिल्द सचित्र और सटीक
विनय पत्रिका
[टीकाकार – पं॰ महावीर प्रसाद मालवीय]

यह विनय पत्रिका अत्यन्त शुद्ध और सरल टीका सहित ख़ूब बड़े बड़े अक्षरों में छपी है और शंका समाधान रस भाव ध्वनि तथा अलङ्कारों से युक्त चिकने काग़ज़ पर मुद्रित हुई है। ५ रङ्गीन और सादे चित्र भी हैं अति मनोहर जिल्द और अंत में रागों का परिचय बड़ी ख़ूबी से दिया है। वेजिल्द का मूल्य २॥) और जिल्ददार का ३) डाक ख़र्च अलग।

[विनय-कोश यानी अकारादि क्रम से संग्रहीत यिनय पत्रिका के शब्दों का कोश मूल्य २)]

दोनों पुस्तकें साथ लेने वालों को ≈) फौ रुपया कमीशन मिलेगा।

पता–
मैनेजर,

बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।

सटीक रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदासजी (अवस्था ९० वर्ष)
रामचरण वन्दन करत, हृदय अटल विश्वास।
भक्तशिरोमणि पूज्यवर, अर्चक तुलसीदास॥

वेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।
पृष्ठ १
 

  1. इनकी बाणी व शब्दावली में जीवन चरित्र के बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग से ॥) में प्राप्त हो सकती है।
  2. यह पुस्तक टीका सहित सजिल्द बेलवेडियर प्रेस, प्रयाग से ३) को मँगाइए।