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रामचरितमानस/बालकाण्ड/मानस का साङ्गरूपक वर्णन

विकिस्रोत से
रामचरितमानस
तुलसीदास, संपादक महावीर प्रसाद मालवीय वैद्य 'वीर'

प्रयाग: बेलवेडियर प्रेस, पृष्ठ ४९ से – १२७ तक

 

उन्होंने पार्वतीजी से वर्णन किया। इसी ले हृदय में खोज कर प्रसन्ता-पूर्वक शिवजी ने सुन्दर 'रामचरितमानस' नाम रक्खा॥६॥

रामचरितमानस नाम रखने का समर्थन हेतुसूचक बात कह कर करना कि शिवजी ने अपने मानस में बनाकर रख लिया था इससे रामचरितमानस नाम रकखा 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है।

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सजन मन लाई॥७॥

वही सुहावनी सुख देनेवाली कथा मैं कहता हूँ, हे सज्जनो! मन लगा कर आदर के साथ सुनिए॥७॥


दो॰ – जस मानस जेहि बिधि भयउ, जग प्रचार जेहि हेतु॥
अब सोइ कहउँ प्रसङ्ग सब, सुमिरि उमा बृषकेतु॥३५॥

यह मानस जैसा है, जिस तरह हुआ और जिस कारण इसका संसार में प्रचार हुआ है, अब वह प्रसङ्ग शिव-पार्वतीजी को स्मरण करके कहता हूँ॥३५॥

तीन बातों की विवेचना करने का विचार कविजी प्रगट करते हैं। (१) जैसा मानस है अर्थात् मानस का स्वरूप (२) जिस प्रकार से उत्पन्न हुआ है। (३) जिस कारण इसका जगत् में प्रचार हुआ है। ये तीनों बातें आगे मानस प्रकरण में मिलगी।

चौ॰ – सम्भु प्रसाद सुमतिहिय हुलसी। रानचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥१॥

शिवजी की कृपा से हृदय में सुन्दर बुद्धि विकसित (प्रसन्न) हुई, जिससे तुलसी रामचरितमानस का कवि हुआ। अपनी मति के अनुसार मनोहर रचना करता है, हे सज्जनो! सावधानी से सुन कर सुधार लीजिए॥२॥

पहले कह आये हैं कि मैं कवि नहीं हूँ और यहाँ कहते हैं कि शिव जी की कृपा से हृदय में सुशिद्धि हुलसित हुई, तब रामचरितमानस का तुलसी कवि हुआ है। शङ्कर के प्रलाद गुण से तुलसीदास का कवित्त रचना में गुणवान होना 'प्रथम उल्लाल अलंकार' है। सज्जन वृन्द से सुधारने की प्रार्थना करने में अपनी लघुता व्यञ्जित करना अगूढ़ व्यङ्ग है।

सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस घर बारी। मधुर मनोहर मङ्गलकारी॥२॥

सबुद्धि धरती रूपिणी है, हृदय (पानी ठहरने का) गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र रूप हैं और सज्जन मेघ है। वे रामचन्द्र जी का सुन्दर यश रूपी अच्छा मीठा, मनोहर और कल्याणकारी जल बरसते हैं॥२॥

यहाँ से कविजी उपमान-मानसरोवर के समस्त अङ्गों का आरोप उपमेय-रामचरितमानस में करके माङ्ग रूपक वर्णन करते हैं। मानस प्रकरण में साद्यन्त इसी अलंकार की प्रधानता है। पानी के गुण चार हैं, स्वच्छ, मधुर, शीतल और लोक का महल [कृषि वृद्धि] करना, रामचरित रूपी जल में इन गुणों का उल्लेख नीचे की चौपाइयों में करते हैं।

लीला सगुन जो कहहिँ बखानी। सोइ स्वच्छता करई मलहानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥३॥

जो सगुण-ब्रह्म की लीला बखान कर कहते हैं, वही मैल [पाप] को नष्ट करनेवाली जल की निर्मलता है। प्रेमलक्षणा-भक्ति जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, वही मीठापन और अच्छी शीतलता है॥३॥

सो जल सुकृत-सालि हित होई। रामभगत जन जीवन साई॥
मेधा महि गत से जल पावन। सकिलि स्रवन मगचलेउ सुहावन॥४॥

वह जल पुण्य-रूपी धान के लिए हितकारी होता है और वही रामभक्त जनों का जीवनाधार है। बुद्धि रूप पृथ्वी पर प्राप्त होकर वह पवित्र सुहावना जल कानरूपी रास्ते में बटुर कर चलता है॥४॥

भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥५॥

सुन्दर मानस रूपी (हृदय) श्रेष्ठ स्थल में भर कर थिरोता है, पुराना होकर सुन्दर रुचिकारी, शीतल और आनन्द देनेवाला होता है॥५॥

'मानस' शब्द श्लेषार्थी है। मन और मानसरोवर दोनों अर्थ निकलता है। जल पहले तालाब में पहुँच कर स्वच्छ नहीं होता, कुछ काल थिराने पर निर्मल, शीतल, सुखद और रुचिकर होता है। इस कथन में समायोक्ति है।

दो॰ – सुठि सुन्दर सम्बाद बर, बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर, घाट मनोहर चारि॥३६॥

अत्यन्त सुन्दर श्रेष्ठ सम्वाद जो बुद्धि से विचार कर रचे गये हैं, वे ही इस पवित्र शोभन सरोवर के मनोहर चार घाट है॥३६॥

शिव-पार्वती, कागभुशुण्ड गरुड़, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास-श्रोतागण यही चारों सम्वाद हैं। क्रमशः ज्ञान, उपासना, कर्मकाण्ड एवम् दैन्य घाट चारों में कहे जाते हैं। तालाबों में प्रसिद्ध ये चार घाट होते हैं। जसे – राजघाट, पंचायतीघाट, पनिघट और गौ घाट। यहाँ भी यही क्रम जानना चाहिए। इस दोहा का अर्थ करने में विद्वानों ने खूब विस्तार किया है।

चौ॰ – सप्त प्रबन्ध सुजग सोपाना। ज्ञान-नयन निरखत मन माना॥
रघुपति-महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइबर बारि अगाधा॥१॥

सातों कांड सुन्दर सीढ़ियाँ हैं जिन्हें ज्ञान रूपी नेत्रों से निहार कर मन प्रसन्न होता है। रघुनाथजी की अपरिमित निर्गुण महिमा वर्णन करूँगा, वही इस श्रेष्ठ जल की गहराई है॥१॥

ग्रन्थकार सातों निबन्धों को इस मानस की साढ़ी गिनाते हैं, पर जो आठवाँ कांड बलात् जोड़ते हैं, वे देखें कि उनकी करतूत कविजी के संकल्प से सर्वथा विपरीत है। इन सातों में रामचन्द्रजी की निर्गुण महिमा कथन, अगाधता है, जो 'सतपंच' चौपाई मैं १०५ या ५०० चौपाइयों को मुख्य गिना कर शेष को तुच्छ प्रदर्शित करते हैं वे कितना बड़ा अनर्थ कर रहे हैं।

राम-सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइन सघन चारु चौपाई। जुगुति मञ्जु मनि सीप सुहाई॥२॥

रामचन्द्र और सीताजी का यश अमृत के समान मीठा जल है और मन को रमानेवाली उपमाएँ लहरों का आनन्द है। सुन्दर चौपाइयाँ धनी पुरइन (कमल पत्र) हैं और मनोहर युक्तियाँ मणि उत्पन्न करनेवाली सुहावनी सीपी हैं॥२॥

जैसे लहरों को देख कर प्रसन्नता होती है, वैसे उपमानो से मनोविनोद होता है। जिस तरह कमलपत्र से जल ढंका रहता है, वैसे ही चौपाइयों में रामयश रूपी जल छिपाहै। मानस की सुन्दर सीपियों में मोती उपजती है, उसी तरह युक्ति रूपी सीपी में हरिचरित्र रूपी मनोहर मणि उत्पन्न होती है।

छन्द सोरठा सुन्दर दोहा। सोइ बहु रङ्ग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरन्द सुबासा॥३॥

सुन्दर, छन्द, सोरठा और दोहे बहुत रंग के कमलों के समुदाय शोभित हैं। अनुपम अर्थ सुन्दर भाव और अच्छी भाषा (वाणी) वह क्रमशः फूलों की धूलि, पुष्प-रस और सुहा-नेवाली सुगन्धि है॥३॥

पहले अनुपम-अर्थ, सुभाव और सुभाषा कह कर फिर उसी क्रम से पराग, मकरन्द और सुगन्ध वर्णन करना 'यथा संख्य अलंकार' है।

सुकृत पुज मञ्जुल अलिमाला। ज्ञान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहु भाँती॥४॥

पुण्यों की राशि मनोहर भ्रमरों के झुण्ड हैं, शान, वैरोग्य और विचार राजहंस हैं। कविता को ध्वनि, वक्रोक्ति, गुण और जाति वे बहुत तरह की मनाहारिणी मछलियाँ हैं॥४॥

जैसे फूलों पर उड़नेवाले भौंरे और मानसविहारी मराल सहज में दृष्टिगोचर होते हैं, वैसे धर्म सम्बन्धी बातें, विज्ञान, वैराग्यदि कथन सुगमता से प्रत्यक्ष होते हैं, किन्तु जैसे मछली पानी के भीतर रहती है, वह सवा और सहज में नहीं दिखाई देती, वैसे काव्य की ध्वनि, वक्रोत्ति, गुण एवम् जाति ध्यान से विचारने पर प्रकट होती है।

अरथ धरम कमादिक चारों। कहब ज्ञान बिज्ञान बिचारी॥
नवरंस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा॥५॥

अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फल और जो ज्ञान, विज्ञान, नवरस, जप, तप, योग तथा वैराग्य विचार कर कहेंगे, वे सब सुन्दर तालाब के जलजीव हैं॥५॥

काव्य के नव रस ये हैं – शृंगार, हास्य, करुण, रोद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त रसों की व्याख्या मानस-पिंगल में देखो।

सुकृती साधु नाम गुन गानो। ते बिचित्र जल बिहँग समाना॥
सन्तसभा चहुँ दिसि अँबराई। स्रद्धा रितु बसन्त सम गाई॥६॥

पुण्यात्मा सज्जनों के नाम और गुणों का गान, इसके जलविहंग के समान अद्भुन पक्षी हैं। सम्मों की मण्डली मानस के चारों ओर आम का बगीचा है और श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान वणिन है॥६॥

भगति निरूपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम जम नियम फूल फल ज्ञाना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥७॥

अनेक प्रकार भक्ति का वर्णन क्षमा, दया और इन्द्रियविग्रह का आदेश सन्त रूपी आम के वृक्ष पर लता-पण्डप तना है! समदर्शिता विषयों से संयम उपासनादि के नियम फूल तथा ज्ञान फल रूप है, वेद कहते हैं कि भगवान के चरणों की प्रीति ही रस रूप है॥७॥

जैसे वृक्षों पर बेलियां फैल कर घिनान रूप होकर साहनी है, वैसे सन्तों में क्षमा, दया, दम और भक्तिनिरूपण शोभनीय लतायें हैं। सभा की प्रति में 'क्षमा दया द्रुम लता विताना और हरि पद रस बर वेद वखाना' पाठ है।

औरउ कथा अनेक प्रसङ्गा। तेइ सुक पिक बहु बरन विहङ्गा॥८॥

और भी अनेक प्रसङ्ग को कथाएँ जो रामचरितमानस में – वर्णन हुई हैं वेही नाना रंग के तेति और कोकिल पक्षी हैं॥८॥

दो॰ – पुलक बाटिका-बाग बन, सुख सुविहङ्गविहारु।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥३७॥

हर्ष से रोमाञ्च होना वाटिका बाग और वन है, सुन्दर पक्षियों का प्रसन्नता-पूर्वक विचरण सुख है। मन रूपी सुहावना माली स्नेह रूपी जल और मनोहर नेत्र रूपी पात्रों से सोचता है॥३॥

एक पुलक को वाटिका, बाग और वन वर्णन करना 'द्वितीय उल्लेख अलंकार' है।

चौ॰ – जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिँ सादर नर नारी। तेइ सुर बर मानस अधिकारी॥१॥

जो इस चरित को संभाल कर शुद्धतापूर्वक गान करते हैं, वे ही इस सरोवर के चतुर रक्षक हैं। जो स्त्री या पुरुष आदर के साथ निरन्तर सुनते हैं, वे ही मानस के अधिकारी श्रेष्ठ देवता रूप हैं॥१॥

अति-खल जे विषयी बक कागा। एहि सर निकट न जाहिँ अभागा॥
सम्बुक भेक सिवार समाना। इहाँ न विषय कथा-रस नाना॥२॥

जो अत्यन्त दुष्ट अभागे विषयी बगुला और कौए के समान हैं, वे इस सरोवर के पास नहीं जाते। घोंघा, मेढक और सेवार के समान यहाँ विषय की वार्ता नायिका भेद आदि नहीं है, यहाँ वो नाना प्रकार हरिकीर्तन का आनन्द है॥२॥

'अभागा' में शाब्दी व्यंग है कि उनका भाग विषय-चर्चा घोंघे, मेढक आदि विषयी प्राणियों को मानस के समीप न आ सकने में हेतुसूचक कारण दिखा कर अर्थ समर्थन करना 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है।

तेहि कारन आवत हिय हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत एहि सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥३॥

इसी कारण बेचारे कौए और बगुले रूपी विषयी प्राणी यहाँ आते हुए हृदय में हार जाते हैं। हम सरोवर के समीप आने में बड़ी कठिनता है, बिना रामचन्द्रजी की कृपा से आया नहीं जाता॥३॥

कठिन कुसङ्ग कुपन्थ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि व्याला॥
गृह कारज नाना जञ्जाला। तेइ अति दुर्गम सैल बिसाला॥४॥

कठिन कुसङ्ग भीषण बुरा रास्ता है और इन (कुसङ्गियों) के वनन व्याघ्र, सिंह और सर्प (मार्ग के वाधा रूप) हैं। नाना प्रकार के गृह-कार्यो की उलझन अत्यन्त अगम और विशाल पर्वत है॥४॥

बन बहु विषम मोह मद माना। नदी कुतर्क भयङ्कर नाना॥५॥

मोह, मद और अभिमान बड़ा भीषण जङ्गल है, नाना प्रकार के वितण्डावाद भयङ्कर नदियाँ हैं॥५॥

दो॰ – जे स्रद्धा सम्बल रहित, नहिँ सन्तन्ह कर साथ।
तिन्ह कहँ मानस अगम अति, जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥३८॥

जो श्रद्धा कपी राहख़र्च से खाली हैं, जिन्हें सन्तों का साथ नहीं और रघुनाथजी प्रिय नहीं, उनके लिए मानस में पहुँचना कठिन है॥३८॥

मानसयाना के रास्ते में बड़ा भीषण जंगल, पहाड़, और नदियाँ पड़ती हैं और व्याघ्र,सर्प आदि तरह तरह के हिंसक जीव मिलते हैं जिनका वर्णन ऊपर हो चुका है। या तो काफी खर्च हो अथवा किसी धनी अमीर का साथ हो, तब उस विकट मार्ग को जानवाला तय कर सकता है। उसी तरह रामचरितमानस में आने के लिए श्रद्धारूपी राहखर्च हो या सन्त रूपी धनवानों का संग हो अथवा रघुनाथजी जिसे प्यारे हैं। वही आ सकता है अन्यथा नहीं।

चौ॰ – जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहि नीद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ विषम उर लागा। गयहुन मज्ज न पाव अभागा॥१॥

फिर विषयी मनुष्यों में यदि कोई कष्ट उठा कर जाय भी तो उसको नींद रूपी जड़ैया होती है। उसके हृदय में मूर्खता रूपी भीषण जाड़ा लगता है, जिससे वह अभागा जा कर भी स्नान नहीं कर पाता॥१॥

करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौँ बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निन्दा करि ताहि बुझावा॥२॥

सरोवर में स्नान और जलपान किया नहीं जाता, इससे अभिमान सहित वह लौट आता है। फिर यदि कोई पूछने आया तो मानस की निन्दा करके उसको समझाता है॥२॥

मानसरोवर में जानेवाले और रामचरितमानस में आनेवाले दोनों यात्रियों में पूरी पूरी एकरूपता दिखाने का भाव है। जैसे बिना श्रद्धा के मानसरोवर में पहुँचकर शीत के भय से स्नानादि न कर लौट आता और निन्दा करता है। वैसे श्रद्धाहीन प्राणी रामचरितमानस में दैवयोग से आ जाय तो मूर्खता रूपी जाड़ा छूटता नहीं, न मन लगा कर सुनता है, न समझता है, कोरा लौट जाता है। जब कोई पूछता है कि कहो क्या सुना? तब मानस को निन्दा कर उसे समझाता है, सुना क्या? खाक! उसमें रूखी पुरानी बाते भरी हैं। न नवयौवना बाला की रसीली कथा है और न कोई तिलिस्म का ही वर्णन है, जिससे मनारजन हो।

सकल विघ्न ब्यापहिँ नहिँ तेही। राम सुकृपा बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर मज्जन सर करई। महाघोर त्रय ताप न जरई॥३॥

पर ये सम्पूर्ण विघ्न उसको नहीं व्यापते जिसे रामचन्द्रजी सुन्दर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदर-पूर्वक मानस में स्नान करता है और महा भयङ्कर तीनों तापों से नहीं जलता॥३॥

दैहिक दैविक और भौतिक यही तीन प्रकार ताप हैं।

ते नर यह सर तजहिँ न काऊ। जिन्ह के राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहि सर भाई। सो सतसङ्ग करउ मन लाई॥४॥

वे मनुष्य इस मानस को कभी नहीं छोड़ते, जिन्हें रामचन्द्रजी के चरणों में अच्छी प्रीति है। भाइयो! जो कोई इस रामचरितमानस में स्नान करना चाहे वह मन लगा कर सत्सङ्ग करे॥४॥

जिस प्रकार से उत्पन्न हुआ और जैसा मानस है, इन दोनों बातों का विवेचन यहाँ पर्यन्त हुआ, वह नीचे की चौपाई 'अस मानस' से प्रकट है। अय जिस प्रकार जगत में फैला आगे ४३ दोहा तक उसके सम्बन्ध में कहेंगे। गुटका में 'जिन्ह के राम' चरन भल चाऊ पाठ है।

अस मानस मानस चष चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदय आनन्द उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥५॥

ऐसे मानस को अन्तःकरण के नेत्रों से देखने पर और उसमें स्नान करने से कवि की बुद्धि निर्मल हो गई। हृदय में आनन्द और उत्साह हुआ जिससे प्रेम एवम् हर्ष का स्रोत उमड़ पड़ा॥५॥

'मानस' शब्द दो बार आया है किन्तु अर्थ दोनों का भिन्न भिन्न है एक रामचरितमानस का बोधक और दूसरा अन्तःकरण (हृदय) का ज्ञापक होने से 'यमक अलंकार' है।

चली सुभग कबिता सरिता सी। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
सरजू नाम सुमङ्गल मूला। लोक बेद मत मञ्जुल कूला॥६॥

सुन्दर कविता नदी के समान बह चली जिसमें रामचन्द्रजी का निर्मल यश जल के समान भरा है। जिसका सरयू नाम है वह श्रेष्ठ मंगलों की जड़ है, लोक-मत और वेद-मत इसके दोनों रमणीय किनारे हैं॥६॥

नदी पुनीत सुमानस नन्दिनि। कलिमल त्रिन तरु मूल निकन्दिनि॥७॥

पवित्र (सरयू) नदी सुन्दर मानसरोवर की कन्या, जो कलि के पाप रूपी तृण और वृत को निर्मूल करनेवाली है॥७॥

जब नदियां बढ़ती है तब किनारे के घास, पेड़ आदि को जड़ से ढाह कर बहाती हैं, उसी तरह कविता रूपी सरयू नदी कलिमल रूपी तृण तरु को निर्मूल करती है।

दो॰ – स्रोता त्रिविधि समाज पुर, ग्राम नगर दुहुँ कूल।
सन्त सभा अनुपम अवध, सकल सुमङ्गल मूल॥३॥

तीनों प्रकार के श्रोताओं के समुदाय दोनों किनारे के पुर, गाँव और नगर हैं। सम्पूर्ण श्रेष्ठ मंगलों की जड़ सन्त-मण्डली अयोध्यापुरी है॥३६॥

सरयू नदी के दोनों किनारे पर बहुत सी पुरहाई, गाँव, नगर और अयोध्यापुरी बसी है। कविता नदी के तीन प्रकार (विषयी, साधक, सिद्ध, अथवा आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु) श्रोतागण पुर, गाँच, नगर हैं और सन्त-समाज अपूर्व अयोध्या है।

चौ॰ – रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जस पावन। मिलेउ महानद सोन सुहावन॥१॥

यह सुन्दर कीर्ति कविता रूपी सुहावनी सरयू नदी जाकर रामभक्ति रूपी गंगा में मिली है। छोटे भाई लक्ष्मण के सहित रामचन्द्रजी का पवित्र शोभायमान युद्ध यश रूपी महानद सोनभद्र उसमें आ मिला है॥१॥

जुग घिच भगति देव धुनि धारा। सोहति सहित सुधिरति बिचारा॥
त्रिविधि ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिन्धु समुहानी॥२॥

(सरयू और सोनभद्र। दोनों के बीच में भक्ति रूपी देवनदी की धारा ऐसी मालूम होती है मानों वह सुन्दर वैराग्य और ज्ञान के सहित सोहती हो। यह तिमुहानी (तीनों नदियों का संगम) तीन तापों को भयभीत करनेवाली है और रामचन्द्रजी के स्वरूप रूपी सागर के सामने मिलने को जा रही है॥२॥

मानस-मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन-मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा विचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥३॥

कविता रूपी सरयूनदी को जड़ रामचरितमानस है और वह (कवितानदी) रामभक्ति रूपी गङ्गानदी में मिली है, जो सुनने से सज्जनों के मन को पवित्र करेगी। बीच बीच में भिन्न भिन्न अनोखी कथाएँ मानों नदी के किनारे किनारे के वन और बाग हैं॥३॥ यहाँ अधिक अभेदरूपक का भाव है, क्योंकि सरयू नदी स्नान करने पर पवित्र करती है, किन्तु कविता नदी सुनते ही शुद्ध कर देती है।

रामचरितमानस के बीच बीच में अन्य अनोखी कथाएँ, जैसे – सनी का मोह और तनत्याग, नारदमोह, भानुप्रताप का सर्वनारा, रावणजन्म और दिग्विजय आदि भोषण वन रूप हैं। याज्ञवल्क्य भरद्वाज सम्वाद, पार्वतीजन्म, शिव-पार्वती विवाह एवम् सम्वाद, स्वायम्भुव मनु की तपश्चर्या, कागभुशुण्ड-गरुड़ सम्बाद इत्यादि बाग रूपी सुखद सुहावनी कथाएँ हैं।

उमा-महेस-बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहु भाँती॥
रघुबर-जनम अनन्द-बधाई। भँवर तरङ्ग मनोहरताई॥

शिव-पार्वती के विवाह में बरातियों की कथाएँ बहु प्रसार के असंख्यों जलजीव के समान हैं। रघुनाथजी के जन्म का आनन्द भँवर है और बधावा लहरों की सुन्दरता है॥४॥

भँवर में जो पड़ता है, वह एक ही स्थान में चार खाना रहता है, इस भँवर में पड़ कर एक मास पर्यन्त सूर्य एक ही स्थान में ठहरे रहे पर किसी ने जाना नहीँ। गृह गृह के बाजे बधावे शुभ-तरङ्ग हैं।

दो॰ – बालचरित चहुँ बन्धु के, बनज बिपुल बहु रङ्ग।
नृप-रानी-परिजन सुकृत, मधुकर बारि बिहङ्ग॥४०॥

चारों भाइयों के बालचरित्र बहुत रंग के असंख्यों कमल हैं। राजा और रानी के सुकृत भ्रमर और कुटुम्बीजनों के पुण्य जलपक्षी के समान हैं॥४०॥

भ्रमर पुष्परस पान करता है, इसलिये राजा रानी के सुकृत को मधुकर की ममता और जल-विहङ्ग जल थल दोनों में विहार करते हैं, अतः परिजनों का विहङ्ग की समता क्रम से दी गयी है।

चौ॰ – सीय-स्वयम्बर-कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुमल उतर सबिबेका॥१॥

सीताजी के स्वयम्वर की सुहावनी कथा इस नदी की मनोहर शोमा फैल रही है। अनेक प्रकार के सुन्दर (दक्षतापूर्ण) प्रश्न इस नदी की नौकाएँ और कुशलता पूर्वक जानकारी के साथ उत्तर ही मलाह हैं॥१॥

सुनि अनुकथन परसपर होई। पथिक-समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबन्ध राम बर बानी॥२॥

सुन कर पीछे जो आपस में कहा सुनी होती है, वही इस नदी के (पार जानेवाले) यात्रियों का समूह सोहरहा है। परशुरामजी का रिसियाना भयङ्कर धारा है और रामचन्द्रजी की सुन्दर वाणी अच्छा बँधा हुआ (पक्का) घाट है॥२॥

सानुज राम-बिबाह-उछाहू। सो सुन उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिँ पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥३॥

छोटे भाइयों के सहित रामचन्दजी के विवाह का जो उत्साह है, वह नदी का मंगलकारी उमड़ना; सब को आनन्द देनेवाला है। जो प्रसन्न होकर कहते हैं और सुन कर पुलकायमान होते हैं, वे पुण्यात्मा प्रसन्न मन स्नान करते हैं॥३॥

राम तिलक हित मङ्गल साजा। परब जोग जनु जुरेउ समाजा॥
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥४॥

रामचन्द्रजी के राजतिलक के लिए मांगलीक साज सजे, जिसमें जन-समूह इकट्ठे हुए, वही मानों पर्वयोग स्नान का मुहूर्त जैसे रामनामी कार्तिक की पूर्णिमा आदि है। केकई की दुर्बुद्धि काई है जिसके फल से गहरी विपत्ति पड़ी॥४॥

दो॰ – समन अमित उतपात सब, भरत चरित जप जाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन, ते जल मल बक काग॥४१॥

बेपरिमाण सब उत्पादों को नाश करने के लिए भरतजी का चरित्र जप-यज्ञ है। कलि के पाप और दुष्टों के दोषों का वर्णन पानी की मैल बगुले और कौए हैं॥४१॥

चौ॰ – कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैल-सुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु-जनम-उछाहू॥१॥

यह कीर्तिरूपी नदी बड़ी ही पवित्र और छहों ऋतुत्रों के समय में सुन्दर सुहावनी लगती है। हिमालय की कन्या पार्वती और शिवजी का विवाह हेमन्तऋतु है और प्रभु रामचन्द्रजी के जन्म का उत्साह सुखदाई शिशिर ऋतु है॥१॥

बरनब राम विवाह समाजू। सो मुद-मङ्गल मय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम-बन-गवनू। पन्थ-कथा खर-आतप-पवनू॥२॥

रामचन्द्रजी के विवाह का उत्सव वर्णन करूँगा, वह आनन्द मङ्गलरूप ऋतुराज वसन्त है। रामचन्द्रजी की वनयात्रा असहनीय ग्रीष्मऋतु है और रास्ते का वृत्तान्त कथन कठिन धूप और लू है॥२॥

बरषा घोर निसाचर रारी। सुर-कुल-सालि सुमङ्गल-कारी॥
राम-राजसुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥३॥ ॥

राक्षसों के साथ भीषण युद्ध वर्णन वर्षा ऋतु है। जो देवकुल रूपी धान के लिए सुन्दर मंगलकारी है। रामचन्द्रजी के राज्यकाल का सुख, अच्छी नीति और बड़ाई सुहावनी सुखदायिनी और निर्मल, शरदऋतु है॥३॥

अगहने पूस हेमन्त, माध-फाल्गुण शिशिर, चैत्र वैषाख वसन्त, ज्येष्ठ-अषाढ़ ग्रीष्म, श्रावण-भादों वर्षा, पाश्विन-कार्तिक मास शरदऋतु का भोग काल हैं।

सती-सिरोमनि सिय-गुन-गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई ॥४॥

इस अनुपम जल का निर्मल गुण सतियों की शिरोमणि सीताजी के गुणों की कथा है। भरतजी का स्वभाव जो सदा एक समान रहता है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, यह सुन्दर शीतलता गुण है॥४॥

दो॰ – अवलोकनि बोलनि मिलनि, प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहुँ बन्धु की, जलमाधुरी सुबास॥४२॥

चारों भाइयों का आपस में निहारना, बोलना, मिलना हँसना, प्रीति और सुन्दर भाई चारा वही जल मीठापन और सुगन्ध-गुण है॥४२॥

चौ॰ – आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न खोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पियास मनामल-हारी॥१॥

मेरी आर्ति, विनती और दीनता, इस स्वच्छ जल का हलकापन गुण हैं, किन्तु इससे लालित्य में दोष नहीं आया है। यह विलक्षण जल सुनते ही गुण करता है, आशा रूपी प्यास और मन के मैल को दूर कर देता है॥१॥

पानी का श्रेष्ठ गुण निर्मलता, शीतलता, मधुरता, सुगन्ध, हलकापन, मलहारिता और पिपासाशामकता है। येही ऊपर गिनाये गये हैं। हलकापन भी और निर्दोष भी! इस वाक्य में 'विरोधाभास अलंकार' है।

राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि-कलुष गलानी॥
भव स्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥२॥

रामचन्द्रजी के प्रति सुन्दर प्रेम को यह पानी पुष्ट करता है और कलि के पापा से उत्पन्न मनस्ताप को हर लेता है। संसार की थकावट को यह सोखनेवाला, सन्तोष को भी सन्तुष्टकारक और पाप, दुःख, दारिद्रय, दोषों का नलानेवाला है॥२॥

काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किये ते। मिटिहि पाप परिताप हिये ते॥३॥

काम, क्रोध, मद, मोह का नसानेवाला और निर्मल ज्ञान वैराग्य का बढ़ानेवाला है। आदर-पूर्वक स्नान और पान करने पर हृदय से पाप एवम् सन्ताप मिट जायगे॥३॥

सभा की प्रति में 'मिटहिँ' पाठ है।

जिन्ह एहि बारि न मानस धोये। ते कायर कलिकाल बिगोये॥
तृषित निरखि रबि-कर-भव-बारी। फिरिहहिँ मृग जिमि जीव दुखारी॥४॥

जिन्होंने इस जल से अपने मनको नहीं धोया, उन कायरों को कलिकाल ने बिगाड़ दिया। वे प्राणी आशारूपी प्यास बुझाने के लिए संसारी विषयों की तृष्णा में दौड़ कर ऐसे दुखी होंगे, जैसे प्यासा मृग, सूर्य की किरणों को देख कर (उसमें जल अनुमान कर) दौड़ता और व्यर्थ ही मूर्खता से प्राण गँवाता है॥४॥

दो॰ – मति अनुहारि लुबारि गुन, गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी-सङ्करहि, कह कबि कथा सुहाइ॥

अपनी बुद्धि के अनुसार सुन्दर जल के गुणों की गणना कर और मन को स्नान कराकर पार्वती-शङ्कर का स्मरण कर के कवि सुहावनी कथा कहता है।

यहाँ पर्यन्त मानस का साङ्गरूपक वर्णन हुआ और संसार में इसके प्रचार का कारण कहा गया, अब कथा प्रसङ्ग का प्रारम्भ होता है।

अब रघुपति-पद-पङ्करुह, हिय धरि पाइ प्रसाद।
कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर, मिलन सुभग सम्बाद॥४३॥

अब रघुनाथजी के चरण कमलों को हृदय में रख कर और प्रसन्नता पा कर मैं दोनों मुनिवरों के मिलने का सुन्दर सम्वाद कहता हूँ॥४३॥

चौ॰ – भरद्वाज मुनि बसहिँ प्रयागा। तिन्हहिँ राम-पद अति अनुरागा॥
तापस सम-दम-दया निधाना। परमारथ-पथ परम सुजाना॥१॥

भरद्वाज मुनि प्रयाग में रहते हैं, उन्हें रामचन्द्रजी के चरणों में बड़ा प्रेम है। वे तपस्वी, शान्त, इन्द्रियों को वश में करनेवाले, दया के स्थान और परमार्थ की राह में अत्यन्त चतुर हैं॥१॥

माघ मकर-गत-रबि जब हाई। तीरथपतिहि आव सब कोई॥
देवदनुज-किन्नर-नर-स्रेनी। सादर मज्जहिँ सकल त्रिबेनी॥२॥

माघ के महीने में जब सूर्य मकर राशि पर पहुँचते हैं, तब सब कोई तीर्थराज में आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के झुण्ड सभी आदर-पूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥२॥

पूजहिँ माधव-पद-जलजाता। परसि अषयवट हरषहिँ गाता॥
भरद्वाज-आश्रम अति पावन। परम-रम्य मुनिबर मन भावन॥३॥

भगवान् माधव के चरण कमलों को पूजते हैं और अक्षयवट को छू कर मन में प्रसन्न होते हैं । वहाँ अत्यन्त पवित्र मुनिवरों के मन में सुहानेवाला खूब ही रमणीय भरद्वाजजी का आश्रम है॥३॥

'गीत' शब्द में मन या हृदय की लक्षणा है, क्योंकि हर्ष का स्थान हदय या मन है गात नहीं।

तहाँ होइ मुनि-रिषय-समाजा। जाहिँ जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि-गुन-गाहा॥४॥

तीर्थराज मैं जो स्नान करने जाते हैं, वहाँ (भरद्वाजजी के श्राश्रम में) मुनि और ऋषियों का जमाव होता है। प्रातःकाल उत्साह सहित स्नान करते हैं और आपस में भगवान के गुणों की कथा कहते हैं॥४॥

सभा को प्रात में 'जाहिँ जे मज़महिँ' पाठ है।

दो॰ – ब्रह्म निरूपन धर्म-बिधि, बरनहिं तत्व-विभाग।
कहहिं भगति भगवन्त कै, सज्जुत-ज्ञान-विराग॥४४॥

ब्रह्म-विचार, धर्म-विधान और वास्तविक स्थिति (सारवस्तु) का अलग अलग वर्णन करते हैं। ज्ञान-वैराग्य से मिली हुई भगवान की भक्ति कहते हैं॥४॥

चौ॰ – एहि प्रकार भरिभाघ नहाहीँ। पुनि सब निज निज आस्रम जाहीँ॥
प्रति सम्बत अति होइ अनन्दा। मकर मज्जि गवनहिँ मुनिबृन्दा॥१॥

इस प्रकार माघ भर स्नान करते हैं, फिर सब अपने अपने स्थान को चले जाते हैं। हर साल बड़ा आनन्द होता है, मुनि-समूह मकर नहा कर प्रस्थान करते हैं॥१॥

एक बार भरि मकर नहाये। सब मुनीस आस्रमन्ह सिधाये॥
जागबलिकमुनिपरमबिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥२॥

एक बार मकर भर स्नान करके सब सुनीश्वर अपने अपने आश्रमों को गये। अत्युत्तम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि के पाँव पकड़ कर भरद्वाजजी ने रोक लिया॥२॥

सादर चरन-सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि-सुजस बखानी। बोले अति पुनीत मृदु-बानी॥३॥

आदर के साथ चरण-कमलों को धो कर बहुत ही स्वच्छ आसन पर बैठाया। पूजा कर के मुनि का सुयश बखान किया और अत्यन्त पवित्र कोमल वाणी से कहा॥३॥

नाथ एक संसय बड़ मोरे। करगत वेद-तत्त्व सब तोरे॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौँ न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥४॥

हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा सन्देह है और वेदों की सब यथार्थज्ञता आप की मुट्ठी में है। पर वह कहते हुए मुझे डर और लज्जा लगती है, यदि न कहूँ तो धड़ा अकाज होगा॥४॥

दो॰ – सन्त कहहिँ अस नीति प्रभु, स्रुति-पुरान-मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर, गुरु सन किये दुराव॥४॥

हे स्वामिन्! सन्तजन ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनि भी गाते हैं कि गुरु से छिपाय करने पर हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता॥४५॥

चौ॰ – असबिचारि प्रगदउँ निजमोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम नाम कर अमित प्रभावा। सन्त पुरान उपनिषद गावा॥१॥

ऐसा समझ कर अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ, हे नाथ! इस दास पर कृपा कर के उसको दूर कीजिए। उपनिषद्, (ब्रह्मविद्या जिसमें आत्मा, परमात्मा आदि का निरूपण रहता है) पुराण और सन्त, राम-नाम की अतिशय महिमा गाते हैं॥१॥

सन्तत जपत सम्भु अबिनासी। सिव भगवान ज्ञान-गुन-रासी॥
आकर चारिजीव जग अहहीँ। कासी मरत परम-पद लहहीँ॥२॥

जिसको नित्य, कल्याणरूप; ज्ञान और गुण की राशि शङ्कर भगवान् जपते हैं। चार जाति के जीव संसार में हैं, वे काशी में मरने पर मोक्ष-पद पाते हैं॥२॥

सोपि राम-महिमा मुनिराया। सिव उपदेस करत करि दाया॥
राम कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिय बुझाइ कृपानिधि मोही॥३॥

हे मुनिराज! वह निश्चय राम-नाम की महिमा है, शिवजी दया कर के (मरते समय प्राणियों को) उपदेश करते हैं। स्वामिन्! मैं आप से पूछता हूँ रामचन्द्र कौन हैं? दयानिधे! मुझे समझा कर काहिए॥३॥

एक राम अवधेस-कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरह दुख लहेउ अपारा। भयउ रोष रन रावन मारा॥४॥

एक रामचन्द्र अयोध्यानरेश (दशरथ) के पुत्र हैं, उनका चरित्र संसार में विख्यात है। उन्होंने स्त्री-वियोग से बड़ा दुःख पाया, क्रोध होने पर युद्ध में रावण को मारा॥४॥

दो॰ – प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ, जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्वज्ञ तुम्ह, कहहु बिबेक बिचारि॥४६॥

हे प्रभो! वही रामचन्द्र हैं जिनको शिवजी जपते हैं या वे कोई दूसरे हैं? आप सत्य के धाम और सब जाननेवाले हैं, अपने ज्ञान से विचार कर कहिए॥४॥

चौ॰ – जैसे मिटइ मोह भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबंलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहिँ विदित रघुपति प्रभुताई॥१॥

हे नाथ! जिस प्रकार यह अज्ञान से उत्पन्न हुआ मेरा भारी भ्रम दूर हो, वह कथा विस्तारपूर्वक कहिए। याज्ञवल्क्यजी मुस्कुरा कर बोले-आप को रधुनाथजी की महिमा मालूम है॥१॥

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनइ राम-गुन-गूढ़ा। कीन्हेहु प्रस्न मनहुँ अति मूढा॥२॥

आप मन, कर्म और वचन से रामभक्त हैं, आप की चतुराई मैं जानता हूँ। रामचन्द्रजी के छिपे हुए गुणों को आप सुनना चाहते हैं, इसीसे ऐसा प्रश्न करते हैं, मानो बहुत अनजान हैं॥२॥

भरद्वाजजी रामचन्द्रजी की महिमा भली भाँति जानते हैं, किन्तु उन्हें याज्ञवल्क्यजी के मुख से रामचरित सुनने की अभिलापा है, इसलिए अपनी जानकारी छिपा कर अज्ञात की तरह उन्होंने प्रश्न किया है। इसको याज्ञवल्स्यजी समझ गये और स्पष्ट कह कर उनके हार्दिक प्रेम से प्रसन्न हो रामयश वर्णन करने को उद्यत हुए।

तात सुनहु सादर मन लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोह महिषेस बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥३॥

हे तात! मन लगा कर आदर के साथ सुनिए, मैं रामचन्द्रजी की सुहावनी कथा कहता हूँ। महा अज्ञानरूपी विशाल महिषासुर का दमन करने के लिए रामकथा भयङ्कर कालिका रूपी है॥३॥

रामकथा ससि-किरन समाना। सन्त चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥४॥

रामचन्द्रजी की कथा चन्द्रमा की किरणों के समान है, जिसको सन्त रूपी चकोर पान करते हैं। ऐसा ही सन्देह पार्वतीजी ने किया था, तब महादेवजी ने बखान कर (विस्तारपूर्वक) कहा॥४॥

दो॰ – कहउँ सो मति अनुहारि अब, उमा-सम्भु सम्बाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि, सुनु मुनि मिदिहि बिषाद॥४७॥

अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार शिव-पार्वती सम्बाद कहता हूँ, जिस समय और जिस कारण हुआ, हे मुनि! यह सुनिय, विषाद नष्ट हो जायगा॥४७॥

गुटका में 'भयउ समय जेहि हेतु अब' पाठ है।

चौ॰ – एक बार त्रेताजुग माहीं। सम्भु गये कुम्भज रिषि पाहीं॥
सङ्ग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥१॥

एक बार त्रेतायुग में शिवजी अगस्त्यमुनि के पास गये। उनके साथ में जगन्माता भवानी सतीजी थीं, ऋषि ने सर्वेश्वर जान कर उनकी पूजा की॥१॥

रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुख मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही सम्भु अधिकारी पाई॥२॥

मुनिवर्य्य अगस्त्य ने रामचन्द्रजी के चरित्र वर्णन किये, शिवजी ने बड़ी प्रसन्नता से सुना। ऋषि ने सुहावनी हरिभक्ति पूछी, शिवजी ने उन्हें अधिकारी जान कर कही॥२॥

अनधिकारी से रामभकि न कहना चाहिये यह व्यङ्गार्थ, वाच्यार्थ के बराबर तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है।

कहत सुनत रघुपति-गुन-गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा माँगि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥३॥

रघुनाथजी के गुणों की कथा कहते सुनते कैलासपति वहाँ कुछ दिन रहे। फिर मुनि से विदा लेकर शिवजी दक्षतनया (सतीजी) के सहित घर चले॥३॥

तेहि अवसर भञ्जन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राज उदासी। दंडकबन बिचरत अबिनासी॥४॥

उसी समय पृथ्वी का भार दूर करने के लिए विष्णु भगवान् ने रघुकुल में जन्म लिया था। वे अविनाशी परमात्मा, पिता का आशा मान कर राज्य को त्याग उदासीन होकर दण्डकारण्य में विचरण करते थे॥४॥

दो॰ – हृदय विचारत जात हर, केहि बिधि दरसन होइ।
गुपुत-रूप अवतरेउ प्रभु, गये जान सब कोई॥

शिवजी मन में विचारते जाते हैं कि किस प्रकार से दर्शन हो, प्रभु रामचन्द्रजी ने गुप्त रूप से (महत्व छिपा कर) जन्म लिया है, मेरे समीप जाने से उन्हें सब कोई जान जायेंगे।

शिवजी का – मन में शङ्का निवारणार्थ – विचार करना कि समीप जाऊँगा तो स्वामी को इच्छा के विपरीत कार्य होगा और नहीं जाऊँगा तो दर्शन न होगा 'वितर्क सञ्चारीभाव' है।

सो॰ – सङ्कर उर अतिछाभ, सती न जानइ मरम सोइ।
तुलसी दरसन लोभ, मन डर लोचन लालची॥४८॥

शिवजी के मन में बड़ी खलबली उत्पन्न हुई, परन्तु इस भेद को सतीजी नहीं जान सकी। तुलसीदासजी कहते हैं कि शङ्करजी (समीप जाने से) मन में उरते हैं; किन्तु दर्शन के लोभी नेत्र लालच में फंसे हैं॥४॥

पास में आकर दर्शन न होना बड़ी हानि है और समीप जा कर दण्ड प्रणाम करने से राक्षस उन्हें पहचान लेंगे तो स्वामी का कार्य बिगड़ जायगा। इस असमञ्जस में पड़ कर न आगे जा सकते हैं और न परिचय के साथ दर्शन ही कर सकते हैं। पर सती इस रहस्य को नहीं जानती।

चौ॰ – रावन मरन मनुज कर जाँचा। प्रभु बिधि बचन कीन्ह चह साँचा॥
जौँ नहिँ जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचार न बनत बनावा॥१॥

रावण ने मरण का वर मनुष्य के हाथ से मांगा है, प्रभु रामचन्द्रजी ब्रह्मा की बात सच्ची करना चाहते हैं। यदि न जाऊँ तो पश्चात्ताप बना रहेगा, इस तरह विचार करते हैं, पर कोई बात ठीक नहीं ठहरती है॥१॥

एहि बिधि भये सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि सङ्गा। भयउ तुरत से कपट-कुरङ्गा॥२॥

इस प्रकार शिवजी सोच के वश में हुए, उसी समय नीच रावण ने जा कर मारीच को साथ लिया और वह तुरन्त कपट का मृग बना॥२॥

करि छल मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रमाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बन्धु सहित प्रभु आये। आस्रम देखि नयन जल छाये॥३॥

उस मूर्ख ने छल कर के जानकीजी को हर लिया, प्रभु रामचन्द्रजी की जैसी महिमा है वैसी उसको मालूम न थी। हरिण को मार कर भाई के सहित रघुनाथजी आश्रम में आये, (वहाँ सीताजी को न) देख कर उनकी आँखों में जल भर आया॥३॥

बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जा के। देखा प्रगट दुसह दुख ताके॥४॥

विरह से व्याकुल मनुष्य की तरह दोनों भाई रघुनाथजी वन में सीताजी को ढ़ूँढ़ते फिरते हैं। जिनको कभी संयोग वियोग नहीं होता, उनको प्रत्यक्ष असहनीय दुःख में (शिवजी ने) देखा॥४॥

दो॰ – अति बिचित्र रघुपति चरित, जानहिँ परम सुजान।
जे मतिमन्द बिमोहबस, हृदय धरहिँ कछु आन॥४९॥

रघुनाथजी का चरित बहुत ही विलक्षण है, इसको परम सुजान (ज्ञानी) ही जानते हैं। जो नीच बुद्धि अज्ञान के वश में हैं, वे मन में कुछ और ही समझ रखते हैं॥४॥

'अति विचित्र' शब्द में यह ध्वनि है कि सती जैसी महान् विदुषी देवी को भी जिस चरित्र के देखने से मोह उत्पन्न हो गया, फिर परम सुजान के सिवा साधारण बुद्धिवाले उसे ठीक ठीक कैसे समझ सकते हैं? यह सहज ही अनुमेय है।

चौ॰ – सम्भु समय तेहि रामहिँ देखा। उपजा हिय अति हरष बिसेखा॥
भरि लोचन छबिसिन्धु निहारी। कुसमय जानि न कीन्ह चिन्हारी॥१॥

उसी समय शिवजी ने रामचन्द्रजी को देखा, उनके हृदय में बहुत बड़ा आनन्द उत्पन्न हुआ। शोभा-सागर (रघुनाथजी) की आँख भर देख कर बेमौका समझ कर चिन्हारी नहीं किया॥१॥

जय सच्चिदानन्द जग-पावन। अस कहि चलेउ मनोज-नसावन॥
चले जात सिव सती-समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥२॥

जगत् को पवित्र करनेवाले सच्चिदानन्द भगवान् की जय हो, ऐसा कह कामदेव को नष्ट करनेवाले चले। कृपा निधान शिवजी सती के सहित चले जाते हैं, पर उनका शरीर बार बार पुलकायमान हो रहा है॥२॥

सती सो दसा सम्भु कै देखी। उर उपजा सन्देह बिसेखी॥
सङ्कर जगतबन्ध जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावहिँ सीसा॥३॥

सती ने शिवजी की वह दशा देखी, उनके हृदय में बड़ा सन्देह उत्पन्न हुआ। वे मन में सोचने लगी कि शङ्करंजी जगत्पूज्य जगदीश्वर हैं, इन को देवता, मुनि और मनुष्य सब मस्तक नवाते हैं॥३॥

तिन्ह नृप-सुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानन्द परधामा।
भये मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥४॥

उन्होंने राजपुत्र को सच्चिदानन्द वैकुण्ठनाथ (साकेत विहारी) कह कर प्रणाम किया। उनकी छवि निहार कर मग्न हुए हैं, अबतक हृदय में प्रीति नहीं रुकती है॥४॥

सतीजी के मन में सन्देह के कारण तरह तरह के विचारों का उठना, 'वितर्क सञ्चारी भाव' है।

दो॰ – ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज, अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत बेद॥५०॥

जो ब्रह्म, सर्वव्यापी, निर्मल, अजन्मा, अंगहीन, इच्छारहित, भेदशून्य (समान) है। जिनको वेद नहीं मानते, क्या वह शरीर धारण कर मनुष्य हो सकता है? (कदापि नहीं)॥५०॥

चौ॰ – बिनु जो सुर-हित नर-तनु-धारी। सोउ सरबज्ञ जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अज्ञ इव नारी। ज्ञान-धाम श्रीपति असुरारी॥१॥

जो विष्णु देवताओं की भलाई के लिए मनुष्य देह धारण करते हैं, वे भी शिवजी की तरह सब जाननेवाले हैं। लक्ष्मीपति, शान के धाम और दैत्यों के शत्रु हैं, क्या वे अज्ञानियों के समान स्त्री को ढूँढ़ते फिरेंगे? (कदापि नहीं)॥१॥

विष्णु के अवतार नहीं, ये कोई मनुष्य राजा के पुत्र हैं। सती के हृदय में यह आश्चर्य स्थायीभाव है।

सम्भु गिरा पुनि मृषा न होई। सिव सरबज्ञ जान सब कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदय प्रबोध प्रचारा॥२॥

फिर शिवजी के वचन झूठे नहीं होंगे, सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। ऐसा मन में अपार सन्देह हुआ, जिससे हृदय में ज्ञान का पसार नहीं होता है॥२॥

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अन्तरजामी सब जानी॥
सुनहु सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिय उर काऊ॥३॥

यद्यपि सती ने प्रकट नहीं कहा, (मन ही मन तर्क वितर्क कर रही थीं) पर हृदय की बात जाननेवाले शिवजी सब जान गये। उन्होंने कहा – हे भवानी! सुनो, तुम्हारा स्त्री का स्वभाव है, ऐसा सन्देह कभी मन में न लाना चाहिए॥३॥

गुटका में 'संसय अस न धरिय तन काऊ' पाठ है, किन्तु लक्षणा द्वारा 'तन' शब्द का मन ही अर्थ होगा, क्योंकि सन्देह करने या रखने का स्थान हृदय है, तन नहीं।

जासु कथा कुम्भज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहिँ सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥१॥

जिनकी कथा का अगस्त्य मुनि ने गान किया है और जिनकी भक्ति मैंने ऋषि को सुनाई है, ये वही रघुनाथजी मेरे इष्टदेव हैं, जिनकी धीर मुनि सदा सेवा करते हैं॥४॥

हरिगीतिका - छन्द।

मुनिधीर जोगी सिद्ध सन्तत, बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम, जासु कीरति गावहीं।
सोइ राम व्यापक ब्रह्म भुवन-निकाय-पति मायाधनी।
अवतरेउ अपने भगत-हित निजतन्त्र नित रघुकुल-मनी॥२॥

जिनका धीरमुनि, योगीजन और सिद्ध लोग निर्मल मन से निरन्तर ध्यान करते हैं। जिनकी कीर्ति वेद, पुराण और शास्त्र 'इति नहीं' कह कर गाते हैं। वे ही मायानाथ, समस्त लोकों के स्वामी व्यापक ब्रह्म रामचन्द्र जी हैं। रघुकुल के रत्नरूप भगवान ने अपने भक्तों की भलाई के लिए स्वेच्छानुसार जन्म लिया है॥२॥

सो॰ – लाग न उर उपदेस, जदपि कहेउ सिव बार बहु।
बोले बिहँसि महेस, हरि-माया-बल जानि जिय॥५१॥

यद्यपि शिवजी ने बहुत बार कहा, तो भी हृदय में वह उपदेश न लगा अर्थात् वह शिक्षा सती के लिए कारगर न हुई। तब भगवान् की माया का बल मन में जान कर शिवजी हँस कर बोले॥५१॥

चौ॰ – जौँ तुम्हरे मन अति सन्देहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तबलगि बैठ अहउँ बट छाहीँ। जबलगि तुम्ह अइहहु मोहि पाहीं॥१॥

यदि तुम्हारे मन में बहुत ही सन्देह है तो जा कर परीक्षा क्यों नहीं कर लेती। जब तक तुम मेरे पास लौट न आओगी, तब तक मैं बड़ की छाया में बैठा रहूँगा॥१॥

जैसे जाइ मोह-भ्रम-भारी। करेहु सो जतन बिबेक बिचारी॥
चली सती सिव आयसु पाई। करइ विचार करउँ का भाई॥२॥

जिस तरह अज्ञान से उत्पन्न तुम्हारा यह भारी भ्रम दूर हो, वह यत्न विचार के साथ (समझदारी से) करना। शिवजी की आज्ञा पा कर सती चली, वे मन में सोचने लगीं कि – भाई! क्या करूँ?॥२॥

इहाँ सम्भु अस मन अनुमाना। दच्छ-सुत्ता कहँ नहि कल्याना॥
मोरेहु कहे न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत मलाई नाहीं॥३॥

शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्ष की कन्या (सती) का कल्याण नहीं है। मेरे कहने पर भी इनका सन्देह नहीं जाता है तो विधाता उलटे हुए हैं। अब इनकी कुशल नहीं है॥३॥

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तरक बढ़ावइ साखा॥
अस कहि जपन लगे हरि-नामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा॥४॥

जो रामचन्द्रजी ने रच रक्खा है वही होगा, तर्क कर के कौन शाखा बढ़ावे। ऐसा कह कर वे भगवान् का नाम जपने लगे और सती वहाँ गई, जहाँ सुख के धाम स्वामी थे॥४॥

दो॰ – पुनि पुनि हृदय बिचार करि, धरि सीता कर रूप।
आगे होइ चलि पन्थ तेहि, जेहि आवत नर-भूप॥३२॥

बार बार हृदय में विचार कर सीताजी का रूप धारण किया और जिस रास्ते से मनुष्यों के राजा (रामचन्द्रजी) आते थे, उसमें आगे होकर चलीं॥५२॥

सतीजी ने सोचा कि इस समय रामचन्द्र जानकी के विरह में व्याकुल हैं, यदि मैं सीता का रूप धारण कर उनके सामने चलूँ तो सहज में परीक्षा हो जायगी। इसलिये अपना असली रूप छिपा कर रामचन्द्रजी को ठगने के लिए सीताजी का रूप बना कर आगे चली, यह 'युक्ति अलंकार' है।

चौ॰ – लछिमन दीख उमा-कृत-बेषा। चकित मये भ्रम हृदय बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गम्भीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥१॥

लक्ष्मणजी ने उमा को कृत्रिम वेष में देखा, उनके हृदयमें बड़ा आश्चर्य और भ्रम हुआ। वे अत्यन्त मतिधीर गम्भीर प्रभु की महिमा (सर्वज्ञता) को जानते हैं, इसलिए कुछ कह नहीं सकते॥१॥

आश्चर्य – इस बात का हुआ कि ये अकेली वन में कैसे घूम रही हैं। भ्रम – यह हुआ कि किसी कारण से शिवजी ने क्या इनका त्याग तो नहीं कर दिया है, अथवा इन पर कोई गहरी विपत्ति तो नहीं आ पड़ी है?

सती कपट जानेउ सुर-स्वामी। सबदरसी सबअन्तर-जामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अज्ञाना। सोइ सरबज्ञ राम भगवाना॥२॥

सब देखनेवाले और सब के हृदय की बात जाननेवाले देवताओं के स्वामी सती के कपट को जान गये। जिनका स्मरण करने से अज्ञान मिट जाता है, वेही सर्वज्ञ भगवान् रामचन्द्रजी हैं॥२॥

सती कीन्ह चह तहउँ दुराऊ। देखहु नारि-सुभाउ-प्रभाऊ॥
निज-माया-बल हृदय बखानी। बाले बिहँसि राम मृदु-बानी॥३॥

सती वहाँ भी छिपाव करना चाहती है, स्त्री के स्वभाव की महिमा देखिए। अपनी माया का बल मन में व ज्ञान कर रामचन्द्रजी कोमल वाणी से बोले॥३॥

जोरि पानि प्रभु कोन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥४॥

प्रभु रामचन्द्रजी ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और पिता के सहित अपना नाम लिया। फिर बोले कि शिवजी कहाँ हैं? आप अकेली किस कारण वन में फिरती हैं॥४॥

सती ने अपना हाल छिपाने के लिए सीताजी का रूप लिया था, वह रामचन्द्रजी जान जान गये। प्रणाम कर पिता सहित अपना नाम कह कर परिचय दिया 'विहित अलंकार' है। पिता का नाम लेने में व्यञ्जनामूलक गूढ़ व्यङ्ग है कि मैं राजा दशरथजी का पुत्र राम हूँ, शिव नहीं। वन में अकेली क्यों फिरती हो? इस वाक्य में यह व्यङ्ग है कि मैं इस जङ्गल में इस लिए घूम रहा हूँ कि जानकी को किसी राक्षस ने हर लिया है। पर आप अकेली क्यों घूमती हैं, क्या शङ्करजी को किसी ने चुराया है?

दो॰ – राम-बचन-मृदु गूढ़ सुनि, उपजा अति सङ्कोच।
सती सभीत महेस पहिँ, चली हृदय बड़ सेाच॥५३॥

रामचन्द्रजी के कोमल और गूढ़ वचनों को सुन कर बड़ी लज्जा उत्पन्न हुई। सती भयभीत होकर महेश के पास चलीं, उनके हृदय में भारी सोच हुआ॥५३॥

चौ॰ – मैं सङ्कर कर कहा न माना। निज अज्ञान राम पर आना॥
जाइ उतर अब देइहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन-दाहा॥१॥

मैंने शिवजी का कहना नहीं माना और अपनी नासमझी रामचन्द्रजी में आरोप की। अब जा कर क्या उत्तर दूंगी? हृदय में बड़ी भीषण जलन उत्पन्न हुई॥१॥

जाना राम सती दुख पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सती दीख कौतुक मग जाता। आगे राम सहित श्री भ्राता॥२॥

रामचन्द्रजी समझ गये कि सत्ती को दुःख हुआ है, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट रूप से सूचित किया। सती ने यह खेल देखा कि आगे रास्ते में सीताजी और भाई लक्षमण के सहित रामचन्द्रजी चले जा रहे हैं॥२॥

शङ्का – जब सतीजी रामचन्द्रजी को पहचान गई और लज्जासे भयभीत हो शोक के साथ शिवजी के पास चली, तब रामचन्द्रजी ने अपना प्रभाव क्यों दिखाया? उत्तर – रामचन्द्रजी अन्तर्यामी हैं, वे सती के मन का सन्देह जानते है कि उनके हृदय में इस बात की प्रबल शङ्का है "ब्रह्म जो व्यापक विरज अज, अकल अनीह अभेद। सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत वेद" उसका अभी पूरा समाधान नहीं हुआ, क्योंकि केवल सीताजी के रुप में सती को पहचान लेना संशय निर्मूल होने के लिए काफी नहीं है। कितने ही योगी तपी ऐसा कर सकते हैं। इसलिए अपना अनन्त प्रभाव पूर्णरूप से प्रत्यक्ष दिखाया।

फिरि चितवा पाछे प्रभु देखा। सहित बन्धु सिय सुन्दर बेखा॥
जहँ चितवहिँ तहँ प्रभु आसीना। सेवहिँ सिद्ध मुनीस प्रबीना॥३॥

फिर पीछे देखा तो भाई और सीताजी के सहित सुन्दर वेष में प्रभु रामचन्द्रजी चले आते हैं। जिस ओर देखती है, वहीं रामचन्द्रजी विराजमान हैं और प्रवीण सिद्ध तथा मुनीश्वर लोग उनकी सेवा करते हैं॥३॥

एक रामचन्द्रजी को युक्ति से बहुत स्थानों में वर्णन करना 'तृतीय विशेष अलंकार' है।

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तेँ एका॥
बन्दत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥४॥

अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु को देखा, एक से दूसरे अपार महिमावाले हैं। तरह तरह के वेष में देवताओं को देखा, वे सब प्रभु रामचन्द्रजी के चरणों की वन्दना और सेवा करते हैं॥४॥

दो॰ – सती बिधात्री इन्दिरा, देखी अमित अनूप।
जेहि जेहि बेष अज़ादि सुर, तेहि तेहि तनु अनुरूप॥५४॥

असंख्यों अपूर्व सती, सरस्वती और लक्ष्मी देखी, जिस जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता हैं, उसी उसी शरीर के अनुरूप उनकी शक्तियाँ हैं॥५४॥

चौ॰ – देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जे संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥१॥

उन्होंने जहाँ तहाँ जितने रघुनाथजी को देखा, उतने ही उतने सम्पूर्ण देवता शक्तियोँ के सहित दिखाई पड़े। जितने जड़ चेतन अनेक प्रकार के जीव संसार में हैं, सब को (नाना रूपों में) देखा॥१॥

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेखा। राम-रूप दूसर नहिँ देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥२॥

बहुत वेष के देवता प्रभु रामचन्द्रजी की पूजा करते हैं, पर रामचन्द्रजी का रूप दूसरा नहीं देखा। सीताजी के सहित बहुतेरे रघुनाथजी देखे, किन्तु उनका रूप घना नहीं (एक ही शोभावाले) दिखाई दिए॥२॥

सोइ रघुबर सोइ लछिमन सीता। देखि सती अति भई सभीता॥
हृदय कम्प तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूँदि बैठी मग माहीँ॥३॥

उन्हीं रघुनाथजी, उन्हीं लक्ष्मण और उन्हीं सीताजी को देख कर सती बहुत ही भयभीत हुईं। उनका हृदय काँपने लगा और शरीर की कुछ सुध नहीं रह गई, वे आँख मूंद कर रास्ते में बैठ गई॥३॥

इस वर्णन में सती का आश्चर्य्य स्थायीभाव है। राम-लक्ष्मण जानकी आलम्बन विभाव हैं। अनेक ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवता, सिद्धादि के भिन्न भिन्न रूपों में दर्शन उद्दीपन विभाव है। हृदयकम्प, स्तम्भ, नेत्र बन्द करना अनुभाव है। मोह, जड़ता आदि सञ्चारी भावों से पुष्ट होकर 'अद्भुत रस' हुआ है।

बहुरि बिलोकेउ नयन उधारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम-पद सीसा। चली तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥४॥

फिर दक्ष की कन्या ने आँख खोल कर देखा, तो उन्हें वहाँ कुछ न देख पड़ा। बार बार रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवा कर जहाँ शिवजी थे वहाँ चलीं॥४॥

दो॰ – गई समीप महेस तब, हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन विधि, कहहु सत्य सब बात॥५५॥

जब वे शिवजी के पास गईं, तब उन्होंने हँस कर कुशल समाचार पूछा कि सब सच्ची बात कहो, तुमने किस तरह परीक्षा ली?॥५५॥

चौ॰ – सती समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय-बस प्रभु सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाँई। कीन्ह प्रनाम तुम्हारिहि नाँई॥१॥

रघुनाथजी की महिमा को समझ कर सती ने भय के मारे स्वामी से छिपाव किया। उन्होंने कहा – हे स्वामिन! मैं ने कुछ परीक्षा नहीं ली, आप ही की तरह प्रणाम किया॥१॥

शिवजी को सन्देह हुआ कि इन्होंने अनुचित प्रकार से तो कोई परीक्षा नहीं ली, इससे उन्होंने कहा, सब सत्य कहो। पर सती ने भय से सत्य को छिपा कर असत्य बातें कह कर शङ्का दूर करने की चेष्टा की, यह 'छेकापह्नुति अलंकार' है।

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरे मन प्रतीति अति सोई॥
तब सङ्कर देखेउ धरि ध्याना। सती जो कीन्ह चरित सब जाना॥२॥

जो आपने कहा वह झूठ न होगा, मेरे मन में उसका बड़ा विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान धर कर देखा, सती ने जो किया था वह सब करतूत जान गये॥२॥

बहुरि राम-मायहि सिर नावा। प्रेरि सतिहि जेहि झूठ कहावा॥
हरि-इच्छा भावी बलवाना। हृदय बिचारत सम्भु सुजाना॥३॥

फिर रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके लती ले झूठ कहलाया। सुजान शङ्करजी मन में विचारते हैं कि ईश्वर की इच्छा रूपी भावी जबर्दस्त है॥३॥

सती कीन्ह सीता कर वेषा। सिव-उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौँ अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति-पथ होइ अनीती॥४॥

सती ने सीताजी का रूप बनाया, शिवजी के मन में इसका बहुत ही खेद हुआ। यदि अब मैं सती से प्रेम करता हूँ तो भक्ति का सत्ता मिट जायगा और नीति के विपरीत कार्य (दुराचार) होगा॥४॥ शिवजी का चिन्ता से मनोभङ्ग होना कि क्या करूँ, क्या न करूँ 'विषादसञ्चारी भाव' है। जिनको मैं अपनी इष्टदेवी मानता हूँ, उनका रूप लेकर सती ने महान अनर्थ किया, अब इनसे स्त्री-भाव की प्रीति करने से भक्ति-मार्ग नष्ट होगा 'वितर्क सञ्चारीभाव' है।

दो॰ – परम-प्रेम तजि जाइ नहिँ, किये प्रेम बड़ पाप।
प्रगटि न कहत महेस कछु, हृदय अधिक सन्ताप॥५६॥

(सती के प्रति) अतिशय प्रीति छोड़ी नहीं जा सकती और प्रेम करने में बड़ा पाप है। शिवजी प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं कहते हैं, पर उनके हृदय में बहुत ही दुःख है॥५६॥

"परम-प्रेम" शब्द के दो अर्थ हैं। पहला सती के प्रति और दूसरा भक्ति के प्रति, अर्थात् भक्ति परम प्यारी है वह छोड़ी नहीं जा सकती और सती से प्रेम करने में बड़ा पाप है, इस तरह यह 'श्लेष अलकार' है। सभा की प्रति में 'परम पुनीत न जाइ तजि' पाठ है।

चौ॰ – तब सङ्कर प्रमु-पद सिर नावा। सुमिरत राम हृदय अस आवा॥
एहि तन सतिहि भेँट मोहि नाहीँ। सिव सङ्कल्प कीन्ह मन माहीं॥१॥

तब शङ्करजी ने स्वामी के चरणों में मस्तक नवाया और रामचन्द्रजी का स्मरण करते ही ऐसा मन में आया कि सती के इस शरीर से मुझ ले भेंट नहीं, शिवजी ने मन में ऐसी प्रतिज्ञा कर ली॥१॥

अस बिचारि सङ्कर मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भइ गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दिढ़ाई॥२॥

मतिधीर शङ्करजी ऐसा विचार कर रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने स्थान को चले। चलते समय सुन्दर आकाश-वाणी हुई कि, हे महेश! तुम्हारी जय हो, आप ने अच्छी भक्ति की दृढ़ता की अर्थात् भक्ति की रक्षा के लिए सती का त्याग कर दिया!॥२॥

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। राम भगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभ-गिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि संमेत सकोचा॥३॥

ऐसी प्रतिज्ञा आप के बिना दूसरा कौन कर सकता है? आप रामभक्त, समर्थ और भगवान हैं। आकाश-वाणी को सुन कर सती के हृदय में सोच हुआ, उन्होंने लजाते हुए शिवजी से पूछा॥३॥

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्य-धाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सती पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर-आराती॥४॥

हे कृपालु दीनदयालु स्वामिन्! आप सत्य के स्थान हैं – कहिए, कौन सी प्रतिज्ञा की है। यद्यपि सती ने बहुत तरह से पूछा, तथापि त्रिपुर दैत्य के शत्रु ने नहीं कहा॥४॥

'त्रिपुर-आराती, शब्द में लक्षणामूलक गूढ़ व्यङ्ग है कि जो कठिन दुर्जय त्रिपुर जैसे दैत्य के बैरी हैं, वे अपराधिनी सती की प्रार्थना पर कैसे दयालु हो सकते हैं?

दो॰ – सतीहृदय अनुमान किय, सब जानेउँ सरबज्ञ।
कीन्ह कपट मैं सम्भु सन, नारि सहज जड़ अज्ञ॥

सती ने मन में विचार किया कि सर्वज्ञ स्वामी सब जान गये। मैं ने शिवजी से छल किया, स्त्रियाँ स्वभाव से मूर्ख और नासमझ होती हैं।

सो॰ – जल पय सरिस बिकाइ, देखहु प्रीति कि रीति मलि।
बिलग होत रस जाइ, कपट खटाई परतहीं॥५७॥

प्रीति की अच्छी रीति देखिये कि पानी दूध के समान विकता है। पर कपट रूपी खटाई के पड़ते ही (दृध पानी दोनों) अलग होजाते हैं और स्वाद जाता रहता है॥५७॥

पानी दूध में मिलने से दूध के भाव बिकता है, यह उपमान वाक्य है। बिना वाचक पद के प्रीति से समता दिखाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव झलकता है कि प्रीति के बीच कपट आने से वह अलग हो जाती है, जैसे दूध में खटाई पड़ने से दूध और पानी अलग हो जाता है। यह 'दृष्टान्त अलंकार' है। सभा की प्रति में 'विलग होइ रस लाइ, कपट खटाई परत पुनि' पाठ है।

चौ॰ – हृदय सोच समुझत निज करनी। चिन्ता अमित जाइ नहिँ बरनी॥
कृपासिन्धु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥१॥

अपनी करनी समझ कर हृदय में अपार सोच और चिन्ता हुई, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वे जान गई कि शिवजी बड़े ही गम्भीर कृपा-सागर हैं, इससे मेरा अपराधप्रकट नहीं कहा॥१॥

सङ्कर-रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदय अंकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइअवाँ इव उर अधिकाई॥२॥

शंकरजी का रुख देख कर भवानी हृदय में व्याकुल हुई कि स्वामी ने मुझे तज दिया। अपना पाप समझ कर उनसे कुछ कहा नहीं जाता, आँवा के समान छाती बेहद जल रही है॥२॥

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कही कथा सुन्दर सुख-हेतू॥
बरनत पन्थ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥३॥

सती को सोच युक्त जान कर शिवजी ने उनकी प्रसन्नता के लिए सुन्दर कथाओं का वर्णन किया। रास्ते में अनेक प्रकार का इतिहास कहते हुए लोकों के स्वामी कैलास पहुँचे।

तहँ पुनि समुझि समुझि पन आपन। बइठे बट तर करि कमलासन॥
सङ्कर सहज-सरूप सँभारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥४॥

फिर वहाँ शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को समझ बड़ के नीचे पद्मासन लगा कर बैठे। शंकरजी ने अपना स्वाभाविक स्वरूप सँभाला, उनको अखण्ड अपार समाधि लगी॥४॥

दो॰ – सत्ती बसहि कैलास तब, अधिक सोच मन माहिँ।
मरम न कोऊ जान कछु, जुग सम दिवस सिगहिँ॥५८॥

तब सती कैलास में रहने लगीं, उनके मन में बड़ा सोच था। इसका भेद कोई कुछ नहीं जानता, उनका दिन युग के समान बीतता है॥५॥

चौ॰ – नित नव सोच सती उरमारा। कब जइहउँ दुख-सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पति-वचन मृषा करि जाना॥१॥

सती के हृदय में नित्य नया बड़ा भारी सोच है कि दुःख-सागर से कब पार पाऊँगी। मैं ने जो रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचन को झूठ करके समझा॥१॥

सो फल मोहि बिधाता दीन्हा। जो कछु उचित रहा सेाइ कीन्हा॥
अब विधिअसबूझिय नहिँ तोही। सङ्कर-बिमुख जिआवसि मोही॥२॥

वह फल विधाता ने मुझे दिया, जो कि उचित था वही किया। पर हे ब्रह्मा! अब तुम्हें ऐसा न विचारना चाहिये कि शङ्करजी के प्रतिकूल होने पर मुझे जिलाते हो॥२॥

कहि न जोड़ कछु हृदय गलानी। मन महँ रामहिँ सुमिरि सयानी॥
जौँ प्रभु दीनदयाल कहावा। आरति-हरन बेद जस गावा॥३॥

उनके हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती, सयानी सती मन में रामचन्द्रजी का स्मरण कर विनती करती हैं कि हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेद यश गाते हैं कि आप दुःख हरनेवाले हैं॥३॥

सयानी शब्द साभिप्राय है, क्योंकि चतुर ही रामचन्द्रजी का स्मरण करते हैं।

तो मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटइ बेगि देह यह मोरी॥
जौँ मेरे सिव-चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य व्रत एहू॥४॥

तो मैं हाथ जोड़ कर विनती करती हूँ कि यदि मन, क्रम और वचन से शिवजी के चरणों में मेरा सदा व्रत स्नेह हो तो मेरी यह देह तुरन्त छूट जाय॥४॥

दो॰ – तौ सबदरसी सुनिय प्रभु, करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरन जेहि बिनहिँ स्रम, दुसह बिपत्ति बिहाइ॥५९॥

तो हे प्रभो! सुनिए, आप सब देखनेवाले हैं, शीघ्र ही वह उपाय कीजिए जिससे मेरी मृत्यु हो और बिना परिश्रम ही असहनीय विपत्ति छूट जाय॥५९॥

चौ॰ – एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुख भारी॥
बीते सम्बत सहस-सतासी। तजी समाधि सम्भु अबिनासी॥१॥

इस तरह प्रजापति की पुत्री दुःखित हैं, उनका बड़ा भीषण दुःख कहने योग्य नहीं है। सत्तासी हज़ार वर्ष बीत गये, तब अविनाशी शिवजी ने समाधि छोड़ी॥१॥

'प्रजेशकुमारी' शब्द साभिप्राय है, शङ्कर-विमुखी की कन्या का दुखी होना योग्य ही है।

राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सती जगतपति जागे॥
जाइ सम्भु-पद बन्दन कीन्हा। सन्मुख सङ्कर आसन दीन्हा॥२॥

शिवजी राम-नाम स्मरण करने लगे, तब सती ने जाना कि जगत् के स्वामी जगे। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया, शङ्करजी ने बैठने के लिए उन्हें सामने आसन दिया॥२॥

पूर्व प्रतिक्षानुसार वाम भाग में आसन न देकर सामने बैठने को कहा।

लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भये तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति-नायक॥३॥

भगवान् की रसीली कथा कहने लगे, उस समय दक्ष प्रजापति हुए थे। ब्रह्माजी ने उनको सब तरह योग्य अनुमान कर दक्ष को प्रजापतियों का मालिक बना दिया॥३॥

बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमान हृदय तब आवा॥
नहिँ कोउ अस जनमा जग माहीँ। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥४॥

जब दक्ष ने बड़ा आधिपत्य (मलिकई) पाया, तब उनके हृदय में बहुत ही अभिमान आ गया। ऐसा संसार में कोई नहीं जन्मा कि प्रभुता पा कर जिसको मद न हो॥४॥

जय दक्ष ने बड़ा अधिकार पाया, तब उन्हें बेहद घमंड हुआ। इसका विशेष सिद्धान्त से समर्थन करना कि ऐसा तो संसार में कोई जन्मा ही नहीं कि महत्व पा कर उसे गर्व न हुआ हो 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है।

दो॰ – दच्छ लिये मुनि बोलि सब, करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर सकल सुर, जे पावत मख भाग ॥६०॥

दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ में भाग पाते हैं, उन सब को आदर के साथ निमन्त्रित किया॥६०॥

चौ॰ – किन्नर नाग सिद्ध गन्धर्वा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरञ्चि महेस बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥१॥

किन्नर, नाग, सिद्ध और गन्धर्व आदि सभी देवता अपनी अपनी स्त्रियों के सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और शिवजी को छोड़ कर सब देवता अपना अपना विमान सजाकर चले॥१॥

सती बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुन्दर विधि नाना॥
सुर-सुन्दरी करहिँ कल गाना। सुनत स्रवन छूटहिँ मुनि ध्याना॥२॥

सती ने देखा कि आकाश में नाना प्रकार के सुन्दर विमान चले जाते हैं। उनमें देवताओं की सुन्दरियाँ मनोहर गान करती हैं, जिसको सुनते ही मुनियों के ध्यान छूट जाते हैं॥२॥

पूछेउ तब सिव कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौँ महेस मोहि आयसु देहौँ। कछु दिन जाइ रहउँ मिस एहीँ॥३॥

तब शिवजी से पूछा, उन्होंने बखान कर कहा, पिता के घर यज्ञोत्सव, सुन कर कुछ प्रसन्न हुई। मन में सोचा कि यदि शङ्करजी आशा दें, तो कुछ दिन इसी बहाने जा कर पिता के यहाँ रहूँ॥३॥

पति-परित्याग हृदय दुख भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बाली सती मनोहर बानी। भय सङ्कोच प्रेम रस सानी॥४॥

पति के त्याग देने का हृदय में भारी दुःख है, पर अपना अपराध समझ कर कहती नहीं। भय लाज और प्रेम-रस से मिली हुई मनोहर वाणी से सती बोली॥२॥

दो॰ – पिता भवन उत्सव परम, जौँ प्रभु आयसु होइ।
तो मैँ जाउँ कृपायतन, सादर देखन सोइ॥६१॥

हे कृपा के स्थान प्रभो! मेरे पिता के घर परमोत्सव है, यदि आशा हो तो मैं आदर के साथ उसे देखने जाऊँ॥६१॥

चौ॰ – कहेहु नीक मोरे मन भावा। यह अनुचित नहिँ नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाई। हमरे बयर तुम्हहुँ बिसराई॥१॥

शिवजी ने कहा – अच्छा कहती हो, मेरे मन को सुहाता है, पर अनुचित तो यह है कि उन्होंने नेवता नहीं भेजा। दक्ष ने अपनी सब लड़कियों को बुलाया; किन्तु हमारे बैर से तुम्हें भी भुला दिया॥१॥

ब्रह्म-सभा हम सन दुख माना। तेहि तेँ अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौँ बिनु बोले जाहु भवानी। रहइ न सील सनेह न कानी॥२॥

ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हुए थे, उसी से अब (यज्ञ में) भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो 'तुम बिना बुलाये जाओगी तो शील न रहेगा, न स्नेह और न मर्यादा ही रह जायगी॥२॥

जदपि मित्र-प्रभु-पितु-गुरु गेहा। जाइय बिनु बोले न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गये कल्यान न होई॥३॥

यद्यपि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के स्थान में बिना बोलाये जाना चाहिए, इसमें सन्देह नहीं तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो तो वहाँ (इन स्थानों में भी) जाने से कल्याण नहीं होता॥३॥

भाँति अनेक सम्भु समुझावा। भावी बस न ज्ञान उर आवा॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहि बोलाये। नहिँ मलि बात हमारे भाये॥४॥

अनेक प्रकार से शिवजी ने समझाया, पर होनहार के वश सती के हृदय में समझ न आई। प्रभु शङ्करजी ने कहा – जो बिना बुलाये जाओगी तो मेरे विचार से बात अच्छी न होगी॥४॥

दो॰ – करि देखा हर जतन बहु, रहइ न दच्छकुमारि।
दिये मुख्य गन सङ्ग तब, बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥६२॥

शिवजी ने बहुत यत्न कर के देखा कि दक्ष की कन्या न रुकेगी, तब उन्होंने मुख्य सेवकों को साथ में कर के विदा कर दिया॥६२॥

'दक्षकुमारि' और 'त्रिपुरारि' संज्ञाएँ साभिप्राय हैं। दक्ष जैसे हठी की कन्या अपना हठ कैसे छोड़ सकती है? त्रिपुर जैसे भीषण दानव के संहारकर्ता, सती का नाश जानते हुए भी मन में क्षोभ न लाये, तुरन्त विदा कर दिया 'परिकराङ्कुर अलंकार' है । गुटका में 'कहि देखा हर जतन बहु' पाठ है।

चौ॰ – पिता-भवन जब गई भवानी। दच्छ-त्रास काहु न सनमानी॥
सादर भलेहि मिली एक माता। भगिनी मिलीँ बहुत मुसुकाता॥१॥

जय भवानी पिता के घर गई तब दक्ष के डर से किसी ने उनका सत्कार नहीं किया। एक माता भले ही आदर के साथ मिलों और बहिने बहुत मुस्कुराती हुई मिली॥१॥

बहनों के मुस्कुराने में तिरस्कार-सूचक व्यङ्ग है कि देखो सती बिना पिताजी के धुलाये आप ही आप अनादर सहने को आई है।

दच्छ न कछु पूंछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
सती जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दोख सम्भु कर भागा॥२॥

दक्ष ने कुछ कुशलता न पूछी वरन् सती को देख कर उनका सारा शरीर (क्रोध से) जल गया। तब सती ने जा कर यक्ष को देखा, वहाँ कहीँ शिवजी का भाग नहीं दिखाई दिया॥२॥

तब चित्त चढ़ेउ जो सङ्कर कहेऊ। प्रभु-अपमान समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुख न हृदय अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥३॥

तब जो शिवजी ने कहा था वह बात मन में याद आई और स्वामी का अनादर समझ कर हृदय जल गया। पिछला (पति के त्यागने का) ऐसा दुःख हृदय में नहीं फैला था जैसा यह (पिता से अपमानित होने का) महान खेद हुआ॥३॥

जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तेँ कठिन जाति-अपमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननी कीन्ह प्रबोधा॥४॥

यद्यपि संसार में अनेक तरह के भयङ्कर दुःख हैं, पर जाति से अपमानित होना सब से कठोर क्लेश हैं। यह सोच कर सती को बड़ा क्रोध हुआ, माता ने अनेक प्रकार समझाया-बुझाया (किन्तु उन्हें सन्तोष न हुआ)॥४॥

पहले एक साधारण बात कही कि पति परित्याग का ऐसा दुःख नहीं हुआ, जैसा पिता के अपमान से क्लेश हुआ फिर इसका विशेष सिद्धान्त से समर्थन करना कि यद्यपि नाना दुःख संसार में हैं, पर जात्यापमान सब से भीषण है, 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है।

दो॰ – सिव अपमान न जाइ सहि, हृदय न होइ प्रबोध।
सकल समाहि हठि हटकि तब, बोली बचन सक्रोध॥६३॥

शिवजी का अपमान सहा नहीं जाता, इससे मन को सन्तोष नहीं होता है, तब सारी समा को हठ से रोक कर क्रोध-पूर्वक वचन बोलीं॥६३॥

चौ॰ – सुनहु सभासद सकल मुनिन्दा। कही सुनी जिन्ह सङ्कर निन्दा॥
सो फल तुरत लहब सब काहू। भली भाँति पछिताब पित्ताहू॥१॥

हे सम्पूर्ण सभासदो और मुनीश्वरो! सुनिए, जिन्होंने शिवजी की निन्दा कही और सुनी है उसका फल उन सब को तुरन्त मिलेगा। मेरे पिता भी अच्छी तरह पछतायेंगे॥१॥

सन्त-सम्भु-श्रीपति अपबादा। सुनिय जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काढ़िय तासु जीभ जो बसाई। स्रवन मूँदि न त चलिय पराई॥२॥

सन्त, शिवजी और विष्णु भगवान् की निन्दा जहाँ सुनिए वहाँ ऐसी मर्यादा है कि जो वश चले तो निन्दक की जीभ निकाल कर फेक दे, नहीं तो कान मूँद कर भाग जाय॥२॥

सभा की प्रति में 'काटिय तासु जीभ जो बसाई' पाठ है।

जगदातमा महेस पुरारी। जगत-जनक सब के हितकारी॥
पिता-मन्दमति निन्दत तेही। दच्छ-सुक्र-सम्भव यह देही॥३॥

त्रिपुर-दैत्य के वैरी महेश्वर जगत् की आत्मा, संसार के पिता और सब के कल्याणकर्ता हैं। नीव बुद्धि पिता उनकी निन्दा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष के वीर्य से उत्पन्न है॥३॥

निन्दक के वीर्य से उत्पन्न शरीर में जीवित रहना निन्ध है, यह व्यङ्गार्थ और वाच्यार्थ बराबर होने से तुल्य प्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है।

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चन्द्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग-अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥४॥

इसलिए मैं चन्द्रमा मस्तक पर धारण करनेवाले धर्मध्वज शङ्करजी को हृदय में रखकर तुरन्त देह त्याग दूँगी। ऐसा कह कर योगाग्नि से शरीर भस्म कर दिया, सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया।॥४॥

दो॰ – सती मरन सुनि सम्भु गन, लगे करन मख खीस।
जग्य-बिधन्स बिलोकि भृगु, रच्छा कोन्हि मुनीस॥६४॥

सती का मरना सुन कर शिवजी के गण यज्ञ का नाश करने लगे। यज्ञ का विध्वंस होते देख कर भृगु मुनीश्वर ने मन्त्र के बल से रक्षा की॥६४॥

चौ॰ – समाचार सब सङ्कर पाये। बीरभद्र करि कोप पठाये॥
जग्य बिधन्स जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फल दीन्हा॥१॥

ये सब समाचार शिवजी को मिले, उन्होंने क्रोध कर के वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने जा कर यज्ञ का सत्यानाश किया और सब देवताओं को यथोचित फल दिया॥१॥

भइ जग बिदित दच्छ-गति सोई। जसि कछु सम्भु-बिमुख कै होई॥
यह इतिहास सकल जग जाना। तात संछेप बखाना॥

दक्ष की वही गति संसार में प्रसिद्ध हुई, जैसी कुछ शिव-द्रोही की होती है। यह इतिहास सारा जगत जानता है, इससे मैं ने संक्षेप में वर्णन किया॥२॥

सती मरत हरि सन बर माँगा। जनम जनम सिव-पद अनुरागा॥
तेहि कारन हिमगिरि-गृह जाई। जनमी पारबती तनु पाई॥३॥

मरते समय सती ने भगवान से बर माँगा कि शिवजी के चरणों में मेरा जन्म जन्मान्तर प्रेम बना रहे। इस कारण हिमाचल के घर जाकर पार्वती का शरीर पा कर पैदा हुई॥३॥

सती ने यह सोचा कि पति के उपास्यदेव के साथ मैंने अपराध किया है, बिना उनके क्षमा किए शिवजी प्रसन्न न होंगे, इसीसे भगवान् से वर माँगा और अन्त में भगवान् ने शिवजी से प्रार्थना कर पार्वती के साथ विवाह करने को उन्हें राजी किया।

जब तेँ उमा सैल-गृह-जाई। सकल सिद्धि सम्पति तहँ छाई॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआस्त्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हें॥४॥

जब से हिमवान-पर्वत के घर पार्वतीजी ने जन्म लिया, तब से वहाँ सम्पूर्ण सिद्धि और सम्पत्ति का निवास हो गया। जहाँ तहाँ मुनियों ने सुन्दर आश्रम बनाया, हिमाचल ने उन्हें उचित स्थान दिया॥४॥

दो॰ – सदा सुमन फल सहित सब, द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटी सुन्दर सैल पर, मनि-आकर बहु भाँति॥६५॥

नाना प्रकार के सब नवीन वृक्ष सदा फूल फल सहित रहने लगे। बहुत तरह के रनों की सुन्दर लाने पहाड़ पर प्रकट हुई॥६५॥

चौ॰ – सरिता सब पुनीत जल बहहीँ। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीँ॥
सहज-बयर सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिँ अनुरागा॥१॥

सब नदियाँ पवित्र जल बहती है, पक्षी, मृग और भ्रमर सब सुखी रहते हैं। सब जीवों ने स्वाभाविक वैर त्याग दिया। पहाड़ पर वे सब परस्पर प्रेम करते हैं॥१॥

सोह सैल गिरिजा गृह आये। जिमि जन रामप्रगति के पाये॥
नित नूतन मङ्गल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिँ जस जासू॥२॥

घर में पार्वतीजी के आने से पर्वत ऐसा शोभित हो रहा है, जैसे मनुष्य रामचन्द्रजी को भक्ति प्राप्त होने से शोभायमान होता है। उसके भवन में नित्य नया मङ्गल होता है जिसका यश गान ब्रह्मा आदि देवता भी करते हैं॥२॥

नारद समाचार सब पाये। कौतुकहीं गिरि-गेह सिधाये॥
सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसन दीन्हा॥३॥

नारदजी ये सब समाचार पाकर प्रसन्नता से हिमवान के घर चल कर आये। पर्वतराज ने उनका बड़ा आदर किया, पाँव धोकर सुन्दर आसन दिया॥३॥

नारि सहित मुनि-पद सिर नावा। चरन-सलिल सब भवन सिंचावा॥
निज सौभाग्य बहुत विधि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥४॥

उनके चरणोदक से सारा घर सिँचवाया, फिर स्त्री के सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया। बहुत तरह से अपने भाग्य की बड़ाई कर के कन्या को बुला कर मुनि के चरणों पर डाल कर प्रणाम कराया था॥।४॥

दो॰ – त्रिकालभ्य सर्वग्य तुम्ह, गति सर्वत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के दोष गुन, मुनिबर हृदय बिचारि॥६६॥

हिमवान ने कहा – हे मुनिवर! आप को सब जगह पहुँच है और आप त्रिकालदर्शी एवम् सर्वज्ञ है। हृदय में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥६६॥

चौ॰ – कह मुनि बिहँसि गूढ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल-गुन-खानी॥
सुन्दर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अम्बिका भवानी॥१॥

मुनि हँस कर अभिप्राय से भरी कोमल वाणी कहने लगे, आपकी कन्या सम्पूर्ण गुणों की खानि है। यह स्वभाव से ही सुन्दर, सुशीला और सयानी है। इसका नाम उमा, अम्बिका तथा भवानी है॥१॥

सब लच्छन्न-सम्पन्न कुमारी। होइहि सन्तत पियहि पियारी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि ते जस पइहहि पितु-माता॥२॥

यह कन्या सब लक्षणों से भाग्यवती है और अपने स्वामी को निरन्तर प्यारी होगी। इसका सोहाग सदा अचल रहेगा, इससे माता-पिता यश पावेंगे॥२॥

होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीँ॥
एहि कर नाम सुमिरि संसारा। तिय चढ़िहहिं पतिव्रत असि धारा॥३॥

सम्पूर्ण जगत् में पूज्य होगी, इसकी सेवा करने से कुछ दुर्लभ न रहेगा। संसार में स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रता रूपी तलवार की धार पर चढ़ेगी॥३॥

सैल सुलच्छनि सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ-चारी॥
अगुन अमान मातु-पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥४॥

हे पर्वतराज! तुम्हारी पुत्री सुन्दर लक्षणवाली है, अब उसमें जो दो चार दोष है वह सुनिए। निर्गुणी, मानरहित, माता-पिता से हीन, निरपेक्ष (त्यागो) और समस्त सन्देहों से शुन्य॥४॥

दो॰ – जोगी जटिल अकाम-मन, नगन अमङ्गल-बेख।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि, परी हस्त असि रेख॥६७॥

योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नगा और अमङ्गल बेषवाला, ऐसा स्वामी इसको मिलेगा, हाथ में ऐसी रेखा पड़ी है॥६७॥

चौ॰ – सुनि मुनि-गिरा सत्य जिय जानी। दुख-दम्पतिहि उमा-हरखानी॥
नारदहू यह भेद न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥१५॥

मुनि की बात सुन कर और उसको मन में सच जान कर स्त्री के सहित हिमवान को दुःख हुआ, पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। इस भेद को नारदजी ने भी नहीं जाना। दशा एक सी है पर दोनों ओर की समझ भित्र भिन्न है॥१॥

हिमवान और मैना की आँखों में पुत्री के स्नेह वश करुणा से आँख भर आया और पार्वतीजी के हृदय में स्वामी के चरणों में प्रीति उमड़ी, हर्ष से नेत्रों में जल भर आया प्रत्यक्ष में हिमवान, मैना, सहेलियाँ और पार्वती सब की आँखों में पानी भरा हुआ एक समान दशा है किन्तु समझदारी भिन्न 'मिलीत अलंकार' है, क्योंकि इसका पता योगिराज नारदजी को भी नहीं चला।

सकल सखी गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाखा। उमा सो वचन हृदय धरि राखा॥२॥

सारी सखियाँ, पार्वती, हिमवान और मैना के शरीर पुलकित एवम् नेत्रों में जल भरे हैं। देवर्षि नारदजी की वाणी मिथ्या न होगी (ऐसा समझ कर) पार्वतीजी ने उस बचन को हदय में रख लिया॥२॥

उपजेउ सिव-पद-कमल सनेहू। मिलन कठिन भा मन सन्देहू॥
जानि कुअवसर प्रीति दुराई। सखी-उछङ्ग बैठि पुनि जाई॥३॥

शिवजी के चरण-कमलों में प्रीति उत्पन्न हुई, किन्तु मिलने का कठिन सन्देह मन में हुआ। कुसमय समझ कर स्नेह को छिपाया, फिर सखी की गोदी में जा बैठीं॥३॥

गुरुजनों की लाज से चतुराई पूर्वक प्रीति को छिपाना 'अवहित्य सञ्चारीभाव' है और अपनी पूर्वकृत् दुर्नीति के विचार से मिलने का सन्देह 'शङ्का सञ्चारीभाव' है।

झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिँ दम्पति सखी सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिय उपाऊ॥४॥

नारदजी की वाणी झूठी न होगी, (यह सोचकर) सयानी सखियाँ और मैना के सहित हिमवान चिन्ता करने लगे। शैतराज ने हदय में धीरज धारण करके कहा – हे नाथ! कहिए, क्या उपाय किया जाय?॥४॥

दो॰ – कह मुनीस हिमवन्त सुनु, जो विधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि, कोउ न मेटनिहार॥६८॥

मुनीश्वर ने कहा – हे हिमवन्त! सुनिए, ब्रह्मा ने जो लखाट में लिखा है, उसको देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग और मुनि कोई मिटानेवाला नहीं है॥६८॥

चौ॰ – तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करइ जौँ दैव सहाई॥
जस घर मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीँ। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीँ॥१॥

तो भी मैं एक उपाय कहता हूँ, यदि ईश्वर सहायता करेगा तो वह हो सकता है। जैसा वर मैंने आप से कहा है, उमा को वैसा ही मिलेगा इस में सन्देह नहीं॥१॥

जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिँ मैं अनुमाने॥
जौँ बिबाह सङ्कर सन होई। दोषउ गुन सम कह सब कोई॥२॥

मैं ने जिन जिन दोषों का वर्णन किया उन सब का अनुमान शिवजी में करता हूँ। यदि शङ्कर से विवाह हो तो उनके दोषों को भी सब कोई गुण के समान कहते हैं॥२॥

जौँ अहि-सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोष न धरहीँ॥
भानु-कृसानु सर्ब-रस खाहीँ। तिन्ह कहँ मन्द कहत कोउ नाहीँ॥३॥

यदि विष्णु भगवान् शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं विज्ञजन उनको कुछ दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्नि (भले बुरे) सब रस खाते हैं, पर उन्हें कोई खराब नहीं कहता॥३॥

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहँ नहिँ दोष गोसाँई। रवि पावक सुरसरि की नाँई॥४॥

पवित्र और अपवित्र सब जन गाजी में बहता है, पर गंगामी को कोई अपवित्र नहीं कहता। हे स्वामिन्। सूर्य, अग्नि और गङ्गाजी के समान समर्थ को दोष नहीं है॥४॥

दो॰ – जौँ ऐसहि इसिषा करहिँ, नर विवेक अभिमान।
परहिँ कलप भरि नरक महँ, जीव कि ईस समान॥६६॥

यदि ऐसी ही बराबरी की इच्छा ज्ञान के घमण्ड से मनुष्य करेंगे तो वे कल्प भर नरक में पड़ेंगे, क्या जीभ ईश्वर के समान हो सकता है? (कदापि नहीं)॥६९॥

सभा की प्रति में 'जौ अस हिसिया करहिं नर, जड़ बिबेक अभिमान' पाठ है।

चौ॰ – सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न सन्त करहिँ तेहि पाना॥
सुरसरि मिले सो पावन जैसे। ईस अनीसहि अन्तर तैसे॥१॥

गंगाजल से बनाई हुई मदिरा को जानते हुए भी सज्जन लोग उसे कभी पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव का ऐसा ही अन्तर है॥१॥

सम्भु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाह सब विधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिँ महेसू। आसुतोष पुनि किये कलेसू॥२॥

भगवान् शिवजी सहज ही समर्थ हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याणा है। यद्यपि शिवजी कठिनाई से आराधन करने योग्य हैं, फिर भी क्लेश करने से वे जल्दी प्रसन्न होते हैं॥२॥

जौँ तप करइ कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेदि सकहिँ त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कह सिव, तजि दूसर नाहीँ॥३॥

यदि तुम्हारी कन्या तपस्या करे तो त्रिपुर दैत्य के वैरी रुद्र भगवान् होनहार को भी मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में असंख्यों पर हैं, पर इसको शिवजी को छोड़ कर दूसरा वर नहीं है॥३॥

बर-दायक प्रनतारति-भञ्जन। कृपासिन्धु सेवक-मन-रञ्जन॥
इच्छित-फल बिनु सिव अवराधे। लहिय न कोटि जोगजप साधे॥४॥

वे वर देनेवाले, शरणागतों के दुःख नाशक, दया के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करनेवाले हैं। बिना शिवजी की आराधना के करोड़ों जप योगों की साधना करने पर भी वाञ्छित फल नहीं मिलता॥४॥

दो॰ – अस कहि नारद सुमिरि हरि, गिरिजहि दोन्हि असीस।
होइहि अब कल्यान सब, संसय तजहु गिरीस॥७॥

ऐसा कह कर भगवान को स्मरण करके नारदजी ने गिरिजा को आशीर्वाद दिया और कहा कि – हे गिरिराज! तुम सन्देह त्याग दो, (शिवजी की आराधना से इसका) सब कल्याण होगा॥।७०॥

सभा की प्रति में 'हाइहि यह कल्यान अर' पाठ है।

दो॰ – अस कहि ब्रह्म-भवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकन्त पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि-बैना॥१॥

ऐसा कह कर मुनि ब्रह्मधाम को गये, आगे जैसा चरित्र हुआ वह सुनिए। पति को अकेले में पा कर मैना कहने लगी – हे नाथ! मैं ने मुनि की बातें नहीं समझ पाई॥१॥

गुटका में 'नाथ न मैं बूझे मुनि बैना' पाठ है।

जौँ घर बर कुल होइ अनूपा। करिय बिबाह सुता-अनुरूपा।
न त कन्या बरु रहउ कुँआरी। कन्त उमा मम प्रान-पियारी॥२॥

जो घर, वर और कुल उत्तम हो तो कन्या के अनुकूल (वर के साथ) विवाह कीजिए। हे कन्त! नहीं तो चाहे कन्या बिना ब्याही रहे (पर अयोग्य वर के साथ शादी करना उचित नहीं, क्योंकि) पार्वती मुझे प्राण के समान प्यारी है॥२॥

जौँ न मिलिहि बर गिरजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सब लागू॥
सोइ बिचारि पति करहु बिबाहू। जेहि न बहोरि होइ उर दाहू॥३॥

यदि पार्वती के योग्य, वर न मिलेगा तो सब लोग कहेंगे पर्वत स्वभाव ही से जड़ (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामिन्! इस बात को समझ कर विवाह कीजिए, जिसमें फिर पीछे हृदय में सन्ताप न हो॥३॥

अस कहि परी चरन धरि सासा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक प्रगटइ ससि माहीँ। नारद बचन अन्यथा नाहीं॥४॥

ऐसा कह कर चरणों पर मस्तक रख कर गिर पड़ी, तब हिमवान स्नेह के साथ बोले। चन्द्रमा में चाहे अग्नि प्रकट हो, तो हो जाय, पर नारदजी की बात झूठी न हेागी॥४॥

देवर्षि नारदजी परम योगेश्वर हैं, उनका बचन स्वभावतः मिथ्या नहीं हो सकता। परन्तु हिमवान का यह कहना कि चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो अर्थात् यह असम्भव सम्भव हो जाय, तो भी नारद की बात झूठ नहीं हो सकती। सामान्य का विशेष से समर्थन 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है।

दो॰ – प्रिया सोच परिहरहु सब, सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबती निरमयउ जेहि, साइ करिहि कल्यान॥७१॥

हे प्रिये! सब सोच छोड़ कर श्रीभगवान् का स्मरण करो। जिन्होंने पार्वती को उत्पन्न किया है, वेही कल्याण करेंगे॥७॥

साहस-पूर्वक ईश्वर पर भरोसा कर चित्त को दृढ़ करना 'धृति सञ्चारी भाव' है। सभा की प्रति में 'सोह करिअहि कल्यान' पाठ है।

चौ॰ – अब जौँ तुम्हहिँ सुता पर नेहू। तो अस जाइ सिखावन देहू॥
करइ सो तप जैहि मिलहि महेसू। आन उपाय न मिटिहि कलेसू॥१॥

अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है तो जा कर ऐसी शिक्षा दे कि वह तप करे, जिससे शिवजी मिले, दूसरे उपायों से क्लेश न मिटेगा॥१॥

नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुन्दर सब-गुन-निधि-बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असङ्का। सबहि भाँति सङ्कर अकलङ्का॥२॥

नारदजी के बचन साभिप्राय और कारण से युक्त हैं, शिवजी सुन्दर सब गुणों के स्थान हैं। ऐसा समझ कर तुम मिथ्या सन्देह त्याग करो, शंकरजी सभी भाँति निष्कलंक है॥२॥

सुनि पति-बचन हरषि मन माहीँ। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीँ॥
उमहि बिलोकि नयन भरि बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥३॥

पति की बात सुन मनमें प्रसन्न होकर उठी और तुरन्त पार्वतीजी के पास गई। उमाजी को देख आँखों में जल भर कर स्नेह के साथ गोद में बिठा लिया॥३॥

बारहिँ बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥
जगत-मातु सर्बज्ञ भवानी। मातु-सुखद बोली मृदु-बानी॥४॥

बारबार हृदय से लगा लेती हैं, अत्यधिक प्रेम से गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता है। जगन्माता भवानी सब जाननेवाली हैं, (उनके हृदयका असमञ्जस जान कर) माता को सुख देनेवाली कोमल वाणी से बोली॥४॥

मैना के हृदय में पतिविषयक रतिभाव है। उनकी सुकुमार अवस्था देख कर और तपश्चर्या की कठिनाइयों का अनुमान कर मन में स्नेह से विह्वल हो उठी, वाणी रुक गई, कुछ कह नहीं सकती।

दो॰ – सुनहि मातु मैं दीख अस, सपन सुनावउँ ताहि।
सुन्दर गौर सुबिप्र-बर अस उपदेसेउ मोहि॥७२॥

हे माताजी! सुनिए, मैं ने यह स्वप्न देखा है, वह तुम्हें सुनाती हूँ। सुन्दर, गौर, अच्छे श्रेष्ठ ब्राह्मण ने मुझे ऐसा उपदेश दिया है॥७२॥

चौ॰ – करहि जाइ तप सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु-पितहि पुनि यह मत भावा। तप-सुख प्रद दुख-दोष-नसावा॥१॥

हे शैलकन्या! जा कर तपस्या कर, नारदजी ने जो कहा है उसको सच समझ। फिर तेरे माता-पिता के मन में यह सम्मति भाई है, तप सुख देनेवला और दुःख दोष का नसानेवाला है॥१॥

माता के मन का अभिप्राय जान कर स्वप्न के बहाने तात्पर्य्य सूचित करके उनके मन का असमञ्जस दूर करना 'सूक्षम अलंकार' है।

तप-बल रचइ प्रपञ्च बिधाता। तप-बल विष्नु सकल-जग-त्राता॥
तप-अल सम्भु करहि संहारा। तप-बल सेष धरहिँ महि भारा॥२॥

तप के बल से ब्रह्मा संसार की रचना करते हैं, तप के बल से विष्णु सारे जगत् का पालन करते हैं, तप के बल से रुद्र संहार करते और तप के बल से शेषनाग पृथ्वी का बोझ धारण करते हैं॥२॥

तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तप अस जिय जानी॥
सुनत बचन बिसमित महँतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥३॥

हे भवानी! सब सृष्टि तप के ही सहारे पर है, ऐसा मन में समझ, तू जा कर तपस्या कर। यह वचन सुन कर माता को बड़ा आश्चर्य हुआ और हिमवान को बुला कर वह स्वम उनसे कह सुनाया॥३॥

मातु-पितहि बहु बिधि समुझाई। चली उमा तप-हित हरषाई॥
प्रिय परिवार पिता अरु माता। भये विकल मुख आव न बाता॥४॥

माता-पिता को बहुत तरह समझा कर प्रसन्नता-पूर्वक पार्वतीजी तप के लिये चलीं। प्यारे कुटुम्बीजन, पिता और माता व्याकुल हो गये, मुख से बात नहीं आती है॥४॥

दो॰ – बेदसिरा-मुनि आइ तब, सबहिँ कहा समुझाइ।
पारबती महिमा सुनत, रहे प्रबोधहि पाइ॥७३॥

तब वेदशिरा मुनि ने आ कर सब को समझा कर कहा। पार्वतीजी की महिमा को सुन कर सभी के मन में सन्तोष हुआ॥७३॥

चौ॰ – उर धरि उमा प्रान-पति-चरना। जाइ बिपिन लागी तप करना॥
अति सुकुमारि न तनु तप जोगू। पति-पद सुमिरि तजे सब भोगू॥१॥

प्राणपति के चरणों को हृदय में रख कर पार्वतीजी वन में जा कर तप करने लगी। उनका अत्यन्त कोमल शरीर तपस्या के योग्य नहीं है, तो भी स्वामी के चरणों का स्मरण कर उन्होंने सब भोग तज दिये॥१॥

नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहि मन लागा॥
सम्बत सहस मूल फल खाये। साग खाइ सत बरष गँवाये॥२॥

स्वामी के चरणों में नित्य नया प्रेम उत्पन्न हो रहा है, तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सुध भूल गई। एक हजार वर्ष मूल-फल खाया और सौ वर्ष साग खा कर बिताया॥२॥

कछु दिन भोजन बारि बतासा। किये कठिन कछु दिन उपवासा॥
बेल-पाति महि पर सुखाई। तीनि सहस सम्बत से खाई॥३॥

कुछ दिन जल और वायुका भोजन और कुछ दिन कठोर उपवास किया। पृथ्वी पर गिरी दुई सूखी बेल की पत्तियों को तीन हजार वर्ष तक खाया॥३॥

पुनि परिहरे सुखाने सुखाने परना। उमहिँ नाम तय भयउ अपरना॥
देखि उमहिँ तप-खीन-सरीरा। ब्रह्म-गिरा भइ गगन गँभीरा॥४॥

फिर सूखे पत्तों को भी त्याग दिया, तब उमा का नाम अपर्णा हुआ। तपस्या से पार्वतीजी का खिन्न शरीर देख कर आकाश से गम्भीर ब्रह्म-वाणी हुई॥४॥

दो॰ – भयउ मनोरथ सुफल तव, सुनु गिरिराज-कुमारि।
परिहरु दुसह कलेस सन्न, अब मिलिहहि त्रिपुरारि॥७४॥

हे पर्वतराज की कन्या! सुन तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू सब असहनीय कष्टों को छोड़ दे, अब तुझे शिवजी मिलेंगे॥७४॥

चौ॰ – अस तप काहु न कीन्ह भवानी। भये अनेक धीर मुनि ज्ञानी॥
अब उर धरहु ब्रह्म-बर-बानी। सत्य सदा सन्तत सुचि जानी॥१॥

हे भवानी! असंख्योँ धीरमुनि ज्ञानी हुए हैं, पर ऐसा तप किसी ने नहीं किया। अब तुम श्रेष्ठ ब्रह्म वाणी को सदा सत्य और निरन्तर पवित्र जान कर अपने हदय में रक्खो॥१॥

आवहिँ पिता बुलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जायहु तबहीं॥
मिलहिँ तुम्हहिँ जब सप्त-रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥२॥

जब तुम्हारे पिता बुलाने आवें तब हठ छोड़ कर घर जाना। जब तुम्हें सप्त ऋषीश्वर मिलें, तब मेरी बात को ठीक (शिवजी के प्राप्त होने का समय) समझना॥२॥

सुनत गिरा विधि गगन बखानी। पुलकगात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित सुन्दर मैं गावा। सुनहु सम्भु कर चरित सुहावा॥३॥

इस तरह आकाश से बखानी हुई ब्रह्मा की वाणी को सुन कर पार्वतीजी प्रसन्न हुईं और उनका शरीर प्रेम से पुलकित हो गया। याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि मैं ने उमा का सुंदर चरित्र गान किया, अब शिवजी की सुहावनी कथा सुनिये॥३॥

जब तेँ सती जाइ तनु त्यागा। तब तेँ सिव-मन भयउ बिरागा॥
जपहिँ सदा रघुनायक-नामा। जहँ तहँ सुनहिँ राम-गुन-ग्रामा॥४॥

जब से सती ने जाकर वन त्याग किया, तब से शिवजी के मन में विराग हुआ। सदा रघुनाथजी का नाम जपते हैं और जहाँ तहाँ रामचन्द्रजी के गुणों की कथा सुनते हैं॥४॥

शङ्का – क्या पहले शिवजी में वैराग्य नहीं था? जो कहते हैं कि जब से सती ने तनु त्यागा, तब से शिवजी के मन में विराग हुआ। उत्तर – यहाँ कैलास पर रहने से मन उचटने की बात है, क्योंकि सतीजी के साथ तरह तरह का सत्संग और हरिकथा होती थी। इस विक्षेप से उचाट हुआ, तब कैलास छोड़ कर जहाँ तहाँ विचरने और राम-गुण ग्राम सुनने लगे।

दो॰ – चिदानन्द सुख-धाम सिब, बिगत मोह-मद-काम।
बिचरहिँ महि धरि हृदय हरि, सकल-लोक-अभिराम॥७५॥

चैतन्य और आनन्दमय सुख के धाम शिवजी मोह, मद और काम से रहित सम्पूर्ण लोकों के आनन्द देनेवाले भगवान को हृदय में धर कर पृथ्वी पर विचरण करते हैं॥७५॥

चौ॰ – कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिँ ज्ञाना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत-बिरह-दुख दुखित-सुजाना॥१॥

कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते हैं, कहीं रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करते हैं। यद्यपि सुजान भगवान् शिवजी निष्काम है, तो भी भक्त (सती) के वियोग से उत्पन्न दुःख से दुखी हैं॥१॥

एहि विधि गयउ काल बहु बीती। नित नइ होइ राम-पद-प्रीती॥
नेम प्रेम सङ्कर कर देखा। अबिचल हृदय भगति कै रेखा॥२॥

इसी तरह बहुत समय बीत गया। रामचन्द्रजी के चरणों में नित्य नवीन प्रीति होती है। शङ्करजी का नेम प्रेम और उनके हृदय में अटल भक्ति की लकीर देख कर॥२॥

प्रगटे राम कृतज्ञ कृपाला। रूप-सील-निधि तेज बिसाला॥
बहु प्रकार सङ्करहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रत को निरबाहा॥३॥

कृतज्ञ, (किये हुए उपकार को जाननेवाले) कृपालु, रूप-शील के सागर, महान तेजस्वी रामचन्द्रजी प्रकट हुए। उन्होंने बहुत तरह शिवजी की सराहना की और कहा कि आप के बिना ऐसा कठिन व्रत कौन निवाह सकता है॥३॥

बहु बिधि राम सिवहि ससुझावा। पारबती कर जनम सुनावा॥
अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥४॥

रामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया। अत्यन्त पवित्र गिरिजा की करनी कृपानिधान (रामचन्द्रजी) ने विस्तार के साथ वर्णन की॥४॥

बहुत तरह समझाना यह कि – आपने भक्ति की रक्षा के लिये सती को त्याग कर इस कठिन प्रतिक्षा का पूर्ण रीति से पालन किया। आप के विरह से सती ने शरीर त्याग दिया। अब वह पार्वती होकर जन्मी है। आप की कृपा के लिये उसने बड़ा ही उग्र तप किया, जिससे प्रसन्न हो ब्रह्मा ने वर दिया कि तुम्हें शिवजी मिलेंगे, इत्यादि।

दो॰ – अब बिनती मम सुनहु सिव, जौँ मो पर निज-नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि, यह मोहि माँगे देहु॥७६॥

हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है तो अब मेरी विनती सुनिये। यह मांगने पर मुझे दीजिये कि जाकर शैल-कन्या (पार्वती) को विवाहिये॥७६॥

चौ॰ – कह सिव जदपि उचित अस-नाहीँ। नाथ बचन पुनिमेटि न जाहीं॥
सिर धरि आयसु करिय तुन्हारा। परम धरम यह नाथ हमारा॥१॥

शिवजी ने कहा – हे नाथ! इस तरह का (आप का विनय करना और वर माँगना) उचित नहीं है, फिर (जब कि) आप की आज्ञा मुझ से मेटी नहीं जा सकती। स्वामिन्! मेरा यह परम-धर्म है कि आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करूँ॥१॥

बहुत लोग यह अर्थ करते हैं कि शिवजी ने कहा – हे नाथ! यद्यपि पार्वती के साथ विवाह करना उचित नहीं है, फिर आप की बात मेटी नहीं जा सकती अर्थात् आप के कहने पर लाचार हो कर मुझे ब्याह करना पड़ेगा। पर यह अर्थ नहीं, अनर्थ है। इस अर्थ से और नीचे की चौपाइयों से बिल्कुल विरोध है। शिवजी यहाँ सेवक भाव से कहते हैं कि आप स्वामी हैं और मैं दास हूँ। सेवक से स्वामी विनय करे, यह कदापि उचित नहीं है। स्वामी को आज्ञा करनी चाहिये और सेवक का परम धर्म उसका पालन करना है 'उचित कि अनुचित किये विचारू। धरम जाइ सिर पातक भारू।' स्वामी की आज्ञा को शिवजी कभी अनुचित नहीं कह सकते।

मातु-पिता-गुरु-प्रभु कै बानी। बिनहि बिचार करिय सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अज्ञा सिर पर नाथ तुम्हारी॥२॥

पिता, गुरु और स्वामी की बात बिना विचारे माङ्गलिक जान कर करनी चाहिये। हे नाथ! आप तो सब तरह परम हितकारी हैं। आप की आज्ञा मेरे सिर पर है॥२॥

प्रभु तोषेउ सुनि सङ्कर बचना। भगति-विवेक-धर्मजुत रचना॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर रोखेउ हम जो कहेऊ॥३॥

शिवजी के वचनों की रचना, भक्ति, ज्ञान और धर्ममय है, उसको सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी सन्तुष्ट हुए और कहा – हे शङ्कर! आप की प्रतिज्ञा पूरी हुई, अब हमने जो कहा है उसको हदय में रखना॥३॥

अन्तरधान भये अस भाखी। सङ्कर सेाइ मूरति उर राखी॥
तबहिँ सप्तरिषि सिव पहिँ आये। बोले प्रभु अति बचन सुहाये॥४॥

ऐसा कह कर रामचन्द्रजी अदृश्य हो गये और शङ्करजी ने उनकी वह मूर्ति हृदय में रख ली। तब सप्तऋषि शिवजी के पास आये। प्रभु महादेवजी ऋषियों से अत्यन्त सुहावने वचन बोले॥३॥

दो॰ – पारबती पहिँ जाइ तुम्ह, प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठयहु भवन, दूरि करेहु सन्देहु॥७७॥

आप लोग पार्वती के पास जा कर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिये (यदि सच्ची प्रीति है तो उनका) सन्देह दूर कर देना और पर्वतराम को कह कर भेजना कि वे उन्हें घर बुला लावें॥७७॥

कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, यमदग्नि और वशिष्ठ ये सप्तर्षि कहे जाते हैं।

चौ॰ – रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिवन्त तपस्या जैसी।
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तप भारी॥१॥

ऋषियों ने गौरी को कैसी देखा जैसी मूर्तिमान तपस्या हो। मुनियों ने कहा – हे शैलकुमारी! किस कारण इतना बड़ा तप करती हो?॥१॥

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरम सब कहहू।
सुनत रिषिन्ह के बचन भवानी। बोली गूढ़ मनोहर बानी॥२॥

तुम किस की आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हम से सब सच्चा भेद कहो। इस तरह मुनियों के बचन सुन कर भवानी अभिप्राय-गर्भित मनोहर वाणी बोली॥२॥

कहत मरम मन अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥
मन हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥३॥

असली बात कहने में मन बहुत लजाता है, आप लोग मेरी मूर्खता को सुन कर हँसेंगे। मन हठ में पड़ा है, वह सिखाना नहीं सुनता। पानी पर भीत उठाना चाहता है॥३॥

कहना तो यह है कि मैं योगिराज शिव भगवान् से अपना विवाह करना चाहती हूँ, पर इस प्रस्तुत वृत्तान्त को न कह कर यह कहना कि पानी पर भीत उठाना चाहती हूँ 'ललित अलंकार' है।

नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पङ्खन्ह हम चहहिँ उड़ाना॥
देखहु मुनि अबिबेक हमारा। चाहिय सदा सिवहि भरतारा॥४॥

जो नारदजी ने कहा उसको सच जान कर हम बिना पंखों के उड़ना चाहती हैं। हे मुनिवरो! मेरी अज्ञानता को देखिये कि मैं सदा शिवजी को पति बनाना चाहती हूँ॥४॥

दो॰ – सुनत बचन बिहँसे रिषय, गिरि-सम्भव तव देह।
नारद कर उपदेस सुनि, कहहु बसेउ को गेह॥७८॥

पार्वतीजी की बात सुन कर ऋषि लोग हँसे और उन्होंने कहा कि आखिरकार तुम्हारी देह पर्वत से उत्पन्न हुई है। भला! यह तो कहो, नारद का उपदेश सुन कर कौन घर में बसा अथवा किसका घर बसा?॥७८॥

'गिरि सम्भव' शब्द में लक्षणामूलक व्यङ्ग है कि जड़ की कन्या क्यों न जड़ना करे।

चौ॰ – दच्छ-सुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवन न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घर उन्ह घाला। कनककसिपुकर पुनि अस हाला॥१॥

उन्हाने जा कर दक्षप्रजापति के पुत्रों को उपदेश दिया, फिर उन सबने लौट कर घर नहीं देखा। उन्होंने चित्रकेतु के घर का नाश किया, फिर हिरण्यकशिपु का यही हाल हुआ॥१॥

दक्षप्रजापति ने अपने एक हजार पुत्रों को सृष्टिरचना का आदेश कर भेजा। पश्चिम दिशा में जा कर वे सब सृष्टि रचने लगे। नारद उनके पास गये और उपदेश दिया। नारद की शिक्षा से सभी दक्ष-पुत्र वन को चले गये; घर नहीं लौटे। जय दक्ष को यह समाचार मिला तब वे दुखी हुए और पुनः हज़ार पुत्र उत्पन्न करके भेजा। नारद ने उनकी भी यही दशा की।

राजाचित्रकेतु के एक करोड़ रानियाँ थीं, पर पुत्र एक भी न था। अङ्गिरा ऋषि के आशीर्वाद से एक पुत्र हुआ। जब वह एक वर्ष का हुआ तब सौतेली माताओं ने विष देकर उसे मार डाला, जिससे राजा बहुत ही शोकातुर हुए। नारद वहाँ गये; पुत्र की जीवात्मा को योगबल से शरीर में प्रवेश करा दिया, लड़का उठ बैठा। वह कहने लगा – राजन्! सुनो, मैं पूर्वजन्म में राजा था, विरक्त होकर वन में तप करने गया। वहाँ एक स्त्री ने मुझे एक फल दिया, उसमें लाखों चीटियाँ भरी थी, मैं ने बिना जाने भून डाला। वे सब जल मरी। वे ही करोड़ चीटियाँ तुम्हारी रानी हुई और जिसने मुझे फल दिया था वह मेरी माता हुई। विमाताओं ने विष दे कर अपना बदला लिया। न आप मेरे पिता और न मैं आप का पुत्र, यह सब माया का प्रपञ्च है। यह कह कर उसकी आत्मा अन्तर्हित हो गई, राजा विरक्त हो घर त्याग वन में चला गया।

हिरण्यकशिपु की स्त्री कौटुरा गर्भवती थी। नारद ने उसे उपदेश दिया। स्त्री पर तो उपदेश का प्रभाव नहीं पड़ा, पर गर्भस्थित बालक को ज्ञान हुआ। उस बालक ने प्रह्लाद होकर जन्म लिया। पिता के लाख विरोध करने पर हठ नहीं छोड़ा। अन्त में उसके हठ से हिरण्यकशिपु का नाश ही हो गया। इसी काण्ड के २५ वें दोहे के आगे दूसरी चौपाई के नीचे प्रह्लाद के चरित्र की संक्षिप्त टिप्पणी और भी की गई है, उसको देखो।

नारद सिख जे सुनहिँ नर नारी। अवसि होहिँ तजि भवन भिखारी॥
मन कपटी तन-सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥२॥

जो स्त्री-पुरुष नारद की शिक्षा सुनते हैं; वे अवश्य ही घरत्याग कर मङ्गन हो जाते हैं। उनका मन कपटी है, केवल शरीर पर सज्जनों का चिह्न है, अपने समान सभी को करना चाहते हैं॥२॥

प्रत्यक्ष तो नारदजी की निन्दा प्रकट होती है, पर समझने से प्रशंसा है कि नारद के उपदेश से स्त्री-पुरुष विरक्त हो जाते हैं। वे ऐसे सज्जन हैं कि सब को अपने समान देवर्षि बनाने की ताक में रहते हैं। यह 'ब्याजस्तुति अलंकार' है।

तेहि के बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगम्बर ब्याली॥३॥

उनके वचनों का विश्वास मान कर तुम स्वाभाविक उदासीन, गुण-हीन, निर्लज्ज, बुरे भेषधाले, मुण्डों की माला पहने, अकुलीन, बिना घर का, नङ्गा और शरीर में साँप लपेटनेवाले को पति बनाना चाहती हो॥३॥

प्रत्यक्ष निन्दा है; पर समझने से शिवजी की प्रशंसा है, यह भी 'ब्याजस्तुति' है। श्रद्धेय शिवजी के विषय में मुनियों का अयथार्थ घृणा प्रदर्शित करना 'वीभत्स रसाभास' है।

कहहु कवन सुख अस बर पाये। भल भूलिहु ठग के बौराये॥
पञ्ज कहे सिव सती बिबाही। पुनि अवडेरि मरायेन्हि ताही॥४॥

ऐसा वर मिलने से कहो कौन सुख है? भले तुम ठगके कहने से पागल हुई हो। पञ्चों के कहने से सती शिव के साथ ब्याही गई, फिर उसको पेंच में डाल कर उन्होंने मरवा ही डाला॥४॥

दो॰ – अब सुख सोवत सोच नहिँ, भीख माँगि भव खाहिँ।
सहज-एकाकिन्ह के भवन, कबहुँ कि नारि खटोहिँ॥७९॥

शिव को कुछ सोच नहीं, अब भीख माँग कर खाते हैं और सुखसे सोते हैं। स्वभाव से ही अकेले रहनेवालों के घर क्या कभी स्त्री टिक सकती है? (कदापि नहीं)॥७९॥

पूज्यदेव शङ्करजी और नारद मुनि के कर्म का उपहास वर्णन किया जाना 'हास्य रसाभास' है।

चौ॰ – अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहँ बर नीक बिचारा॥
अति-सुन्दर सुचिसुखद सुसीला। गावहिँ बेद जासु जस लीला॥१॥

अब भी हमारा कहना मानो तो तुम्हारे लिए हम लोगों ने अच्छा बर विचारा है। अत्यन्त सुन्दर, पवित्र, सुखदायक, सुशील और जिनके यश की लीला बेद गाते हैं॥१॥

दूषनरहित सकल-गुन-रासो। श्रीपति पुर-बैकुंठ-निवासी॥
अस बर तुम्हहिँ मिलाउब आनी। सुनत बिहँसि कह बचन मवानी॥२॥

निर्दोष, सम्पूर्ण गुणों की राशि, लक्ष्मी के स्वामी और बैकुण्ठ-पुर के रहनेवाले, ऐसा कर तुम्हें ला कर मिलावेंगे। संप्तर्षियों की बात सुनते ही भवानी हँस कर बोलीं॥२॥

ऊपर क्रम से निर्गुण, निर्लज्ज, कुवेष, कपाली, अकुल, अगेह, दिगम्बर और व्याली ये आठ दोष शिवजी के गिनाये हैं। उसी प्रकार भङ्गक्रम से जिनके यश की कथा वेद गाते हैं, सब गुणों की राशि, अति सुन्दर वैकुण्ठवासी लक्ष्मीनाथ, पवित्र, निर्दोष, सुखद, ये आठ गुण विष्णु के कथन करने में 'यथासंख्य अलंकार' है।

सत्य कहेहु गिरि-भव तनु एहा। हठ न छूट छूटइ बरु दोहा॥
कनकउ पुनि पषान तेँ होई। जारेहु सहज न परिहर सेाई॥३॥

आप लोग सच कहते हैं; मेरा यह शरीर पहाड़ से उत्पन्न है, इसी से हठ न छूटेगा चाहे देह छूट जाय। फिर सोना भी तो पत्थर ही से पैदा होता है, वह जलाने पर भी अपना स्वभाव (रङ्ग) नहीं त्यागता॥३॥

पर्वत जड़ है, उससे उपजी वस्तुओं में भी जड़ता का आना स्वाभाविक है। यह व्यङ्ग वाच्यार्थ के बराबर ही चमत्कृत होने से तुल्यप्रधान है।

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवन उजरउ नहिँ डरऊँ॥
गुरु के बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥४॥

नारदजी के उपदेश को मैं न छोडूंगी, घर बसे या उजड़े इससे नहीं डरती हूँ। गुरु के वचनों में जिसे विश्वास नहीं है, उसको सुख की सिद्धि स्वप्न में भी सुलभ नहीं होती॥४॥

दो॰ – महादेव अवगुन अवगुन भवन, बिष्नु सकल-गुन-धाम।
जेहि कर मन रम जाहि सन, तेहि तेही सन काम ॥८०॥

महादेव अवगुणों के घर हैं और विष्णु सम्पूर्ण गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिससे रमता है, उसको उसी से काम है॥८०॥

चौ॰ – जौँ तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जनम सम्भु हित हारा। को गुनदूषन करइ विचारा॥१॥

हे मुनीश्वरो! जो आप लोग पहले मिले होते तो मैं आप ही की शिक्षा सुनती और शिरोधार्य करती। पर अब मैं ने अपना जन्म शङ्करजी के लिए हार दिया, गुण दोष का विचार कौन करे?॥१॥

जौँ तुम्हरे हठ हृदय बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किये बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलस नाहीँ। वर-कन्या अनेक जग माहीं॥२॥

यदि आप लोगों के मन में बहुत ही हठ है, वरच्छा (वर कन्या के सम्बन्ध में विवाह की बातचीत पक्की) किये बिना नहीं रहा जाता है, तो वर कन्या असंख्यों संसार में भरे हैं, खेलवाड़ियों को आलस्य नहीं (जा कर सगाई कराइये)॥२॥

जनम कोटि लगि रगरि हमारी। बरउँ सम्मु न त रहउँ कुँआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिँ सत बार महेसू॥३॥

करोड़ो जन्म तक हमारी रगड़ है कि शिवजी से विवाह करूँगी नहीं तो कुँवारी रहूँगी। नारदजी के उपदेश को न छोडूंगी चाहे सैकड़ों बार आप ही शिवजी क्यों न कहे॥३॥

मैं पाँ परउँ कहइ जगदम्बा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलम्बा॥
देखि प्रेम बोले मुनि ज्ञानी। जय जय जगदम्बिके भवानी॥४॥

जगत् की माता पार्वतीजी कहती हैं कि मैं पाँव पड़ती हूँ, बड़ी देरी हुई, आप लोग अपने घर जाइये। इस तरह अचल प्रेम देख कर ज्ञानीमुनि बोले – हे जगन्माता भवानी! आप की जय हो! जय हो!॥४॥

सप्तर्षि आदर के योग्य महाज्ञानी हैं, किन्तु पतिनिन्दा के दोष से पार्वतीजी का उनके प्रति अश्रद्धा प्रकट कर शीघ्र चले जाने की प्रार्थना करना 'तिरस्कार अलंकार' है।

दो॰ – तुम्ह माया भगवान सिव, सकल जगत पितु मातु।
नाइ चरन सिर मुनि चले, पुनि पुनि हरषित गातु॥८॥

आप माया और शिवजी ईश्वर सम्पूर्ण जगत् के माता-पिता हैं। बार बार चरणों में मस्तक नवा कर पुलकित शरीर से मुनि लोग चले॥८१॥

चौ॰ – जाइ मुनिन्ह हिमवन्त पठाये। करि बिनती गिरिजहि गृह ल्याये॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥१॥

मुनियों ने जा कर हिमवान को भेजा, वे विनती कर के पार्वतीजी को घर ले आये। फिर सप्तर्षियों ने शिवजी के पास जा कर उमा की सारी कथा कह सुनाई॥१॥

भये मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
मन थिर करि तब सम्भु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥२॥

पार्वतीजी की प्रीति को सुन कर शिवजी स्नेह में मग्न हो गये, सप्तऋषि आनन्दित होकर अपने स्थान को चले गये। तब शङ्करजी मन स्थिर कर के रघुनाथजी का ध्यान करने लगे॥२॥

अब कथा का प्रसङ्ग दूसरी ओर चला।

तारक-असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
तेहिँ सब लोक लोकपति-जीते। भये देव सुख-सम्पति रीते॥३॥

उसी समय तारक नाम का दैत्य हुआ, जिसके भुजा का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने लोकपालों के सब लोक जीत लिये, देवता सुख और सम्पत्ति से खाली हो गये॥३॥

अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
तब बिरञ्चि पहिं जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥४॥

वह तारकासुर अजर अमर था, इससे जीता नहीं जाता था। देवता अनेक तरह लड़ाई कर हार गये। तब ब्रह्माजी के पास जा कर पुकार मचाया, विधाता ने देखा कि सब देवता दुखी हैं (मन में विचार कर बोले)॥४॥

दो॰ – सब सन कहा बुझाइ बिधि, दनुज निधन तब होइ।
सम्भु-सुक्र-सम्भूत-सुत, एहि जीतइ रन सोइ॥२॥

ब्रह्माजी ने समझा कर सब से कहा कि दैत्य का नाश तो तब होगा जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको वही जीतेगा॥२॥

चौ॰ – मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सती जो तजी दच्छ-मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥१॥

मेरा कहना सुन कर उपाय करो, ईश्वर सहायता करेगा तो कार्य सिद्ध होगा। सता जिसने दक्ष के यज्ञ में शरीर छोड़ा था, वह हिमाचल के घर जा कर जन्मी है॥१॥

तेहि तप कीन्ह सम्भु पति लागी। सिव समाधि बैठे सब त्यागी॥
जदपि अहइ असमञ्जस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥२॥

उसने तप किया है कि शिवजी पति मिले, इधर शङ्करजी सब त्याग कर समाधि लगाये बैठे हैं। यद्यपि बड़ा अण्डस है, तथापि हमारी एक बात सुनो॥२॥

पठवहु काम जाइ सिव पाहीँ। करइ छोभ सङ्कर मन माहीं॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाह बरिआई॥३॥

कामदेव को भेजो वह शिवजी के पास जा कर शङ्कर के मन में क्षोभ उत्पन्न करे, तब हम जाकर शिवजी को मस्तक नवा पल-पूर्वक विवाह करावगे॥३॥

एहि विधि भलेहि देव हित होई। मत अति नीक कहइ सब कोई॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति-हेतू। प्रगटेउ विषमबान झखकेतू॥४॥

इस तरह भले ही देवताओं का कल्याण होगा, सब कोई कहने लगे यह सम्मति बहुत अच्छी है। देवताओं ने अत्यन्त करुणा से कामदेव की स्तुति की, तब पञ्चबाणधारी मछली के चिह्न युक्त ध्वजावाला मनोज प्रकट हुआ॥४॥

दो॰ – सुरन्ह कही निज बिपति सब, सुनि मन कीन्ह बिचार।
सम्भु बिरोध न कुसल मोहि, बिहँसि कहेउ अस मार॥३॥

देवताओं ने सब अपनी विपत्तियाँ कहीं, यह सुन कर कामदेव ने मन में विचार किया और हँस कर ऐसा कहा कि शिवजी के से वैर मेरा कल्याण नहीं है॥३॥

कामदेव के हँसने में व्यञ्जनामूलक गूहव्यङ्ग है कि स्वार्थी देवता अपनी भलाई के आगे मेरे सर्वनाश का तनिक भी विचार नहीं करते हैं!

चौ॰ – तदपि करब मैं काज तुम्हारा। स्रुति कह परम-धरम-उपकारा॥
परहिन लागि तजइ जो देही। सन्तत सन्त प्रसंसहि तेही।॥१॥'

तो भी मैं आप लोगों का कार्य करूँगा, श्रुतियाँ कहती हैं कि परोपकार सब से बढ़ कर धर्म है। दूसरे की भलाई के लिए जो शरीर तजता है, सज्जन लोग उसकी सदा बड़ाई करते हैं॥१॥

अस कहि चलेउ सबहि सिर नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदय बिचारा। सिव-बिरोध ध्रुव मरन हमारा॥२॥

ऐसा कह सब को सिर नवा कर अपनी सहायक सेना के सहित हाथ में फूल का धनुष बाण लेकर चला। चलती वेर कामदेव ने मन में यह सोचा कि शिवजी से विरोध करने पर हमारा मरण अवश्यम्भावी है (निश्चय मृत्यु होगी)॥२॥

आखिर मरना तो हई है, तब अपना प्रभाव संसार को दिखा दूँ कि मैं कैसा पुरुषार्थी हूँ 'गर्व और मद साञ्चारी भाव' है।

तब आपन प्रभाव विस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिँ बारिचर-केतू। छन महँ मिटे सकल स्रुति-सेतू॥३॥

तब अपना प्रभाव फैलाया, सम्पूर्ण संसार को अपने वश में कर लिया। ज्यों ही कामदेव ने क्रोध किया त्यों ही क्षण भर में वेद की सारी मर्यादा मिट गई॥३॥

ब्रह्मचर्ज ब्रत सञ्जम नाना। धीरज धरम ज्ञान बिज्ञाना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। समय बिबेक कटक सब भागा॥४॥

ब्रह्मचर्य, नाना प्रकार के व्रत, संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, अप, योग, वैराग्य आदि विचार की सब सेना भयभीत होकर भाग गई॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट सञ्जुग-महि मुरे।
सदग्रन्थ-पर्बत-कन्दरन्हि महँ, जाई तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभर परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहँ, कोपि कर धनु-सर धरा॥३॥

विचार रूपी योद्धा रणभूमि से अपनी सहायक सेना के सहित मुड़ कर भाग चला। उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी पहाड़ की कन्दराओं में जा छिपे। संसार में खलबली पड़ गई, लोग कहते हैं – या विधाता! क्या होनेवाला है और कौन रक्षक है? त्रिलोक विजयी रतिनाथ के सामने दूसरा मस्तक किसका है, जिसके लिए क्रोध कर के उसने हाथ में धनुष-वाण लिया है?॥३॥

ज्ञान वैराग्य आदि को हृदयस्थल से हटा कर केवल पुस्तकों की पंक्तियों में निवास वर्णन 'परिसंख्या अलंकार' है। क्या होनेवाला है? कौन रक्षक है? इत्यादि शङ्का वितर्क सञ्चारी भाव है।

दो॰ – जे सजीव जग चर अचर, नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि, भये सकल बस काम॥८४॥

संसार में जड़ चेतन जितने जीवधारी हैं, जिनकी स्त्री-पुरुष ऐसी संज्ञा है, वे सब अपनी अपनी मर्यादा छोड़ कर काम के वश हो गये॥८४॥

चौ॰ – सब के हृदय मदन अभिलाखा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदी उमगि अम्बुधि कहँ धाई। सङ्गम करहिं तलाव तलाई॥१॥

सब के मन में काम की इच्छा बलवती हुई, लताओं को देख कर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगी। नदियाँ उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ी, तलाब-तलइयाँ परस्पर सङ्गम (मिला-जुली) करते हैं॥१॥

जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन्ह करनी॥
पसु पच्छी नभ-जल-थल-चारी। भये काम-बस समय-biसारी॥२॥

जहाँ जड़ों की ऐसी दशा वर्णन की गई, वहाँ चेतनों की करनी कौन कह सकता है? पशु, पक्षी, आकाश, पानी और स्थलचारी जीव समय भुला कर सब काम के वश हो गये॥२॥

जब जड़ों की ऐसी दशा हुई तब चेतनों की कौन कहे? वे तो काम के सदा वशवर्ती चाकर हैं 'काव्यार्थापत्ति अलंकार' है।

मदन-अन्ध ब्याकुल सब लोका। निसि दिन नहिँ अवलोकहि कोका॥
देव दनुज नर किन्नर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥३॥

सब लोग कामान्ध होकर व्याकुल हुए हैं, कोई दिन रात (समय कुसमय) नहीं देखता कि क्या है? देवता, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, नाग, प्रेत, पिशाच, भूत और वेताल॥३॥

'कोका' शब्द का चकवा पक्षी अर्थ किया जाता है कि चकवा चकवी दिन रात नहीं देखते हैं। कामदेव ने यह लब खेल दो दण्ड (४८ मिनट) में किया। इतने अल्प समय में दिन रात का होना असम्भव है। वन्दन पाठक ने अपनी शङ्कावली में लिखा है कि एक दण्ड रात थी और एक दण्ड दिन। पर यह वाग्विलास के सिवा कोई प्रमाणिक बात नहीं है।

इन्ह की दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस अये वियोगी॥४॥

इनकी दशा इसलिये बखान कर नहीं कहा कि इनको सदा कामदेव का दास समझना चाहिए। सिद्ध, वैराग्यवान, महामुनि और योगी-जन भी काम के अधीन होकर वियोगी हो गये अर्थात् स्त्री-विरह के दुःख से दुखी हुए॥४॥

हरिगीतका-छन्द।

भये काम-बस जोगीस तापस, पाँवरनि की को कहै।
देखहिँ चराचर नारि मय जे, ब्रह्म-मय देखत रहै॥
अबला बिलोकहिँ पुरुष-मय-जग, पुरुष सब अबला-मयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर, काम कृत कौतुक अयं॥४॥

जब योगेश्वर और तपस्वी काम के बश हो गये, तब अधमों की कौन कहे? जो चराचर को ब्रह्ममय देखते थे, वे उसको स्त्री मय देख रहे हैं! स्त्रियाँ सम्पूर्ण जगत् को पुरुष-मय देखती है और पुरुष स्त्री मय देखते हैं। दो घडी के भीतर ब्रह्माण्ड भर में कामदेव ने यह तमाशा किया था॥४॥

इस प्रकरण में लता, वृक्ष, नदी, तालाब, पशु, पक्षी, मुनि, योगी और विरक्तादि का अनुचित प्रेम-वर्णन 'शृङ्गाररसाभास' है।

सो॰ – धरा न काहूँ धीर, सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर, ते उबरे तेहि काल महँ॥८५॥

किसी ने धीरज नहीं रक्खा, कामदेव ने सब के मन को हर लिया। वे उस समय उबरे जिनकी रघुनाथजी ने रक्षा की॥८५॥

चौ॰ – उभयघरी अस कौतुक भयऊ। जब लगि काम सम्भु पहिँ गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससङ्केउ मारू। भयउ जथाथिति सब संसारू॥१॥

दो घड़ी तक यह तमाशा हुआ जब तक कामदेव शिवजी के पास गया। शङ्गर भगवान को देख कर कामदेव डरा, सब संसार जैसा का तैसा हो गया॥१॥

भये तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गये मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥२॥

सब जीव तुरन्त ऐसे सुखी हुए जैसे नशा उतर जाने पर मतवाले प्रसन्न होते हैं। रुद्र को देख कर कामदेव ने भय माना, क्योंकि शिव भगवान कठिन दुर्दमनीय हैं (कामदेव उन्हें जीतने के इरादे से आया है)॥२॥

फिरत लाज कछु करिनहिं जाई। मरन ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु सखा बिराजा॥३॥

फिरते हुए लज्जा है कुछ करते नहीं बनता, मन में मरना निश्चय करके उपाय रचा। तुरंत अपने मित्र सुन्दर ऋतुराजवसन्त को प्रकट किया, वह नवीन फूले हुए वृक्षों में विराजमान हुआ॥३॥

बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा विभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुगगा। देखि मुयेहु मन मनसिज जागा॥४॥

वन, उपवन, बावली, तालाब और सारी दिशाएं अलग अलग अत्युत्तम शोभित हो रही हैं। ऐसा मालूम होता है मानो जहाँ तहाँ प्रेम (रस) उमड़ रहा हो, जिसको देख कर मुर्दे के मन में भी कामदेव उत्पन्न होता है॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

जागेउ मनोभव मुयेहु मन बन, ‒ सुभगता न परइ कही।
सीतल सुगन्ध सुमन्द मारुत, मदन-अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कञ्ज गुञ्जत, ‒पुज्ज मञ्जुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस-रव करि, ‒गान नाचहिँ अपछरा॥५॥

मुर्दे के मन में भी कामदेव जाग जाता है, धन की सुन्दरता कहते नहीं बनती। कामाग्नि का सच्चा मित्र शीतल, सुगन्धित और सुन्दर पवन धीमी गति से बह रहा है। तालाबों में बहुत से फूले हुए कमलों पर झुण्ड के झुण्ड सुहावने भ्रमर गूंज रहे हैं। राजहंस, कोकिल और सुग्गा रसीली बोली बोल रहे हैं, अप्सराएँ गान कर के नाचती हैं॥५॥

दो॰ – सकल कला करि कोटि बिधि, हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव, कोपेउ हृदय निकेत॥६॥

करोड़ों तरह से सारी कलाबाज़ी कर के सेना समेत हार गया। जब शिवजी की अटल समाधि नहीं डिगी, तब हृदय में क्रोधित हुआ॥६॥

चौ॰ – देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदन मन माखा॥
सुमन चाप निज सर सन्धाने। अति रिसि ताकि स्रबन लगि ताने॥१॥

आम के पेड़ की अच्छी डाली देख कर, मन रुष्ट होकर कामदेव उस पर चढ़ गया। फूल के धनुष पर अपना बाण जोड़ा और बड़े क्रोध से ताक कर कान पर्यन्त खींचा॥१॥

छाँडेउ विषम बान उर लागे। छूटि समाधि सम्भु तब जागे॥
भयउ ईस मन छोभ बिसेखी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥२॥

भीषण बाण छोड़ा, वह हदय में लगा और समाधि छूट गई, तब शिवजी जाग पड़े। महादेवजी के मन में बहुत ही क्षोभ (कामवासना जनित ताप) हुआ, उन्होंने आँख खोल कर सारी दिशाओं में देखा॥२॥

अपूर्ण कारण से कार्य का उत्पन्न होना अर्थात् फूल के धनुष से बाण चलाना कारण है, उससे शिव भगवान् की समाधि भङ्ग होकर मन में उद्धेग होना कार्य 'द्वितीय विभावना अलंकार' है।

सौरभ-पल्लव मदन बिलोका। भयउ कोप कम्पेउ त्रैलोका॥
तब सिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरिछारा॥३॥

आम के पत्ते में कामदेव को देखा, उसे देखते ही क्रोध हुआ जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उससे निहारते ही कामदेव जल कर राख हो गया॥३॥

तीसरी आँख ले चितवना कारण है और कामदेव का जल कर खाक हो जाना कार्य है। दोनों साथ ही होना 'अक्रमातिशयोक्ति अलंकार' है।

हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भये असुर सुखारी॥
समुझि काम-सुख सोचहिँ भोगी। भये अकंटक साधक जोगी॥४॥

संसार में भारी हाहाकार हुआ, देवता डर गये और दैत्य प्रसन्न हुए। काम-सुख समझ कर भोगी सोचते हैं, साधक और योगी बाधाहीन हो गये॥४॥

'काम का जल जाना' वस्तु एक ही, उससे देवताओं का डरना, दैत्यों का खुशी होना, कामियों को पश्चात्ताप और साधकों तथा योगियों का निर्विघ्न (बेखटके) होना विरुद्ध कार्यो की उत्पत्ति 'प्रथम व्याघात अलंकार' है। सटीक रामचरितमानस

रति-विलाप।
अब ते रति तव नाथ कर, होइहि नाम अनङ्ग।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि, सुनु निज मिलन प्रसङ्ग॥

वेलवेडियर प्रेस, प्रयाग।
पृष्ठ ९९
 

हरिगीतिका-छन्द।

जोगी अकंटक भये पति-गति, सुनत रति मुरछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना, करति सङ्कर पहि गई॥
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि, जोरि कर सनमुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव, अबला निरखि बोले सही॥६॥

योगी निकण्टक हुए और रति अपने पति की दशा सुन कर मूर्छित हो गई। रोती बिल्लाती बहुत तरह विलाप करती हुई शङ्करजी के पास गई। अत्यन्त प्रेम से विविध प्रकार बिनती करके हाथ जोड़ कर सामने खड़ी रही। प्रभु शिवजी कृपा के स्थान शीघ्र प्रसन्न होने-वाले स्त्री को देख सत्य वचन बोले॥६॥

दो॰ – अब तेँ रति तव नाथ कर, होइहि नाम अनङ्ग।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि, सुनु निज मिलन प्रसङ्ग॥८७॥

हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनङ्ग होगा। वह बिना शरीर के सभी को व्यापेगा, फिर तू अपने मिलने की बात सुन॥८७॥

चौ॰ – जन जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महि भारा॥
कृष्न-तनय होइहि पति तोरा। बचन अन्यथा होइन मोरा॥१॥

पृथ्वी के भारी बोझ को हटाने के लिए जब यदुकुल में श्रीकृष्णचन्द्र का जन्म होगा, तब तेरा स्वामी कृष्णचन्द्र का पुत्र (प्रद्युम्न) होकर अवतरेगा। यह मेरी बात झूठ न होगी। इस समय सशरीर वह तुझ से मिलेगा॥१॥

रति गवनी सुनि सङ्कर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह समाचार पाये। ब्रह्मादिक बैकट सिधाये॥२॥

शङ्करजी की बात सुन कर रति चली गई। अब दूसरी कथा वर्णन कर कहता हूँ। ये सब समाचार (रति को वर पाने की कथा) देवताओं को मालूम होने पर ब्रह्मा आदि सब देवता वैकुण्ठ को गये॥२॥

सब सुर बिष्नु बिरञ्जि समेता। गये जहाँ सिव कृपा-निकेता॥
पृथक पृथक तिन्ह कीन्ह प्रसंसा। भये प्रसन्न चन्द्र-अवतंसा॥३॥

विष्णु और ब्रह्मा के सहित सब देवता जहाँ कृपा के स्थान शिवजी थे, वहाँ गये। उन्होंने अलग अलग स्तुति की, जिससे चन्द्रशेखर भगवान् प्रसन्न हुए॥३॥

बोले कृपासिन्धु बृषकेतू। कहहु अमर आयहु केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अन्तरजामी। तदपिभगति-बसबिनवउँस्वामी॥४॥

कृपासागर शिवजी बोले – हे देवताओ! कहो, किस कारण आये हो? ब्रह्मा ने कहा – हे स्वामिन्! आप अन्तर्यामी (सब जानते) हैं, तोभी प्रभो! मैं भक्ति वश विनती करता हूँ॥५॥

दो॰ – सकल सुरन्ह के हृदय अस, सङ्कर परम उछाह।
निज नयनन्हि देखा चहहिँ, नाथ तुम्हार बिबाह॥८८॥

हे शङ्करजी! सम्पूर्ण देवताओं के मन में यह परमोत्साह है। हे नाथ! वे अपनी आँखों से आप का विवाह देखना चाहते हैं॥८८॥

चौ॰ – यह उत्सव देखिय भरि लोचन। सोह कछु करहु मदन-मद-मोचन॥
काम जारि रति कहँ बर दीन्हा। कृपासिन्धु यह अतिभल कीन्हा॥१॥

हे कामदेव के घमण्ड को भङ्ग करनेवाले! वही कुछ कीजिए जिसमें इस उत्सव को हम लेग आँख भर देखें। हे कृपासागर! कामदेव को जला कर रति को वर दिया, यह आप ने बहुत ही अच्छा किया॥१॥

सासति करि पुनि करहिँ पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज-सुभाऊ॥
पारबती तप कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अङ्गीकारा॥२॥

हे नाथ! समर्थों का सहज स्वभाव है कि दुर्दशा करने पर फिर दया करते हैं। पार्वती ने बहुत बड़ी तपस्या की है, अब उसको अङ्गीकार कीजिए॥२॥

सुनि विधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसइ होउ कहा सुख मानी॥
तब देवन्ह दुन्दुभी बजाई। बरषि सुमन जयजय सुर-साँई॥३॥

ब्रह्मा की विनती सुन कर और स्वामी की बात समझ कर प्रसन्नता से शिवजी ने कहा – ऐसा ही होगा। तब देवताओं ने नगाड़े बजाये और फूलों की वर्षा कर के कहने लगे – हे देवताओं के स्वामी! आप की जय हो जय हो॥३॥

अवसर जानि सप्तरिषि आये। तुरतहि बिधि गिरि-भवन पठाये॥
प्रथम गये जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल-सानी॥४॥

समय जान कर सप्तषि आये, तुरन्त ही ब्रह्मा ने उन्हें हिमवान के घर भेजा। पहले वे वहाँ गये जहाँ पार्वतीजी थी और छल भरे मीठे वचन बोले॥४॥

दो॰ – कहा हमार न सुनेहु तब, नारद के उपदेस।
अब भा झूठ तुम्हार पन, जारेउ काम महेस॥८९॥

तब हमारा कहना तुमने नारद के उपदेश के सामने नहीं सुना, अब तुम्हारी प्रतिक्षा मिथ्या हुई; शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया॥८९॥

चौ°—सुनि बोली मुसुकाइ भवानी। उचित कहेउ मुनिबर बिज्ञानी॥
तुम्हरे जान काम अब जारा। अब लगि सम्भु रहे सबिकारा ॥१॥

सुन कर भवानी मुस्कुरा कर बोलीं, आप लोग विज्ञानी और मुनिश्रेष्ठ हैं, ठीक कहते हैं। आप की समझ में शिवजी ने अब काम को जलाया; किन्तु अब तक वे उसके दोष के अधीन थे ॥१॥

'मुनिवर विज्ञानी' शब्द में स्फुट गुणीभूत व्यङ्ग है कि विज्ञानी मुनियों का अज्ञानी की तरह बातें कहना, बड़े आश्चर्य्य की बात है।

हमरे जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥
जौँ मैँ सिव सेयेउँ अस जानी। प्रीति समेत करम-मन-बानी ॥२॥

हमारी समझ में शिवजी सदा योगी, अजन्मे, निर्दोष, निष्काम और विषयविलास से रहित हैं; यदि मैंने ऐसा जान कर कर्म, बचन और मन से प्रीति के साथ शङ्करजी की सेवा की है ॥२॥

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिँ सत्य कृपानिधि ईसा ॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सो अति बड़ अविबेक तुम्हारा ॥३॥

तो हे मुनीश्वर! सुनिये, हमारी प्रतिज्ञा को कृपानिधान शङ्करजी सत्य करेंगे (वह कभी झूठी न होगी)। आपने जो कहा है कि शिवजी ने कामदेव को जलाया, यह आपका बहुत बड़ा अज्ञान है ॥३॥

अज्ञान इसलिये कहा कि इन वाक्यों से शिवजी पर दोषारोप की झलक है कि अब उन्होंने काम को जलाया; पहले सकाम थे।

तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिँ काऊ ॥
गये समीप सो अवसि नसाई। असि मनमथ महेस कै नाई ॥४॥

हे तात! अग्नि का सहज स्वभाव है कि पाला उसके समीप कभी नहीं जाता। उसके पास जाने से वह अवश्य नष्ट होता है, महेश के निकट जाने से यही दशा कामदेव की हुई ॥४॥

दो॰—हिय हरषे मुनि बचन सुनि, देखि प्रीति बिस्वास ।
चले भवानिहि नाइ सिर, गये हिमाचल पास ॥९०॥

यह बचन सुन कर और उनकी प्रीति विश्वास देख कर मुनि लोग मन में प्रसन्न हुए। पार्वतीजी को प्रणाम करके हिमवान् के पास गये ॥९०॥

चौ॰—सबप्रसङ्गगिरि पतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुख पावा ॥
बहुरि कहेउ रति करबरदाना। सुनि हिमवन्त बहुत सुख माना ॥१॥

सब बातें गिरिराज को सुनाईं; कामदेव का जलना सुन कर वे अत्यन्त दुखी हुए। फिर रति के बरदान का वृत्तान्त कहा, वह सुन कर हिमवान् बहुत सुखी हुए ॥१॥

हृदय बिचारि सम्भू प्रभुताई। सादर मुनिवर लिये बोलाई॥
सुदिन सुनखत सुघरी सोचाई। बेगि बेद विधि लगन धराई ॥२॥

शिवजी की प्रभुता मन में विचार कर आदर-पूर्वक मुनियों को बुलवाया। सुन्दर दिन, उत्तम नक्षत्र, शुभ घड़ी सोधवा कर वेद की रीति से लग्न निश्चय कराया ॥२॥

पत्री सप्तरिषिन्ह सो दीन्ही। गहि पद विनय हिमाचल कीन्ही॥
जाइ विधिहि तिन्ह दीन्हि से पाती। बाँचत प्रीति न हृदय समाती ॥३॥

वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दी और पाँव पकड़ कर हिमाचल ने विनती की। पत्रिका लेजाकर मुनियों ने ब्रह्माजी को दी, बाँचते समय विधाता के हृदय में प्रीति उमड़ी पड़ती है ॥३॥

लगन बाँचि बिधि सबहि सुनाई। हरषे सुनि सत्र सुर समुदाई॥
सुमन वृष्टि नभ बाजन बाजे। मङ्गल कलस दसहु दिसि साजे ॥४॥

लग्न को पढ़कर ब्रह्मा ने सभी को सुनाया, उसे सुन कर सब देवताओं का समाज आनन्दित हुआ। आकाश से पुष्प-वर्षा हुई और बाजे बजने लगे, दसों दिशाओं में मङ्गल-कलश सजने लगे ॥४॥

दो॰—लगे सँवारन सकल सुर, बाहन बिविध विमान॥
होहिँ सगुन मङ्गल सुखद, करहिँ अपछरा गान ॥९१॥

समस्त देवता नाना प्रकार की सवारियाँ और विमान सजाने लगे। सुखदायक माङ्गलीक सगुन हो रहे हैं और अप्सराएँ गान करती है ॥९१॥

चौ॰—सिवहि सम्भुगन करहिँ सिँगारा। जटा-मुकुट अहि-मौर सँवारा॥
कुंडल कङ्कन पहिरे ब्याला। तन-विभूति पठ-केहरि-छाला॥१॥

शम्भु गण शिवजी का शृङ्गार करने लगे, उन्होंने जटा का मुकुट और सापों का मौर सजाया। साँप ही के कुण्डल और कङ्कण पहने हैं, शरीर पर भस्म रमाये तथा सिंहचर्म्म का वस्त्र धारण किये हैं ॥१॥

ससि ललाट सुन्दर सिर गङ्गा। नयन-तीनि उपबीत-भुजङ्गा॥
गरल-कंठ उर नर-सिर-माला। असिव-बेष सिव-धाम कृपाला ॥२॥

माथे पर चन्द्रमा, सिर में सुन्दर गङ्गाजी, तीनआँखें, सपों के जनेऊ, गले में विष, और हृदय पर नरमुण्डो की माला शोभित है। कृपालु शिवजी अमङ्गले वेशमें रहकर मङ्गलके धाम है ॥२॥

कर त्रिसूल अरु डमरु विराजा। चले बसह चढ़ि बाजहिँ बाजा॥
देखि सिवहिँ सुर-त्रिय मुसुकाहीँ। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥३॥

हाथ में त्रिशूल और डमरू वाजा विराजित है, बैल पर चढ़ कर चले, बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देख कर देवाङ्गनाएँ मुस्कुराती हैं और परस्पर कहती हैं कि संसार में दूलहे के योग्य दुलहिन नहीं है ॥३॥

देववधुओं का मुस्कुराना और दुलहिन का अभाव कहने में वर को कुरूपता व्यजित होना व्यङ्ग है।

बिष्नु बिरच्जि आदि सुर ब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥
सुर-समाज सब भाँति अनूपा। नहिँ बरात दूलह अनुरूपा ॥४॥

विष्णु और ब्रह्मा आदि देवता वृन्द सवारियों पर चढ़ चढ़ कर बरात में चले। देवताओं की गोल सब तरह अपूर्व है; किन्तु वर के योग्य बरात नहीं है ॥४॥

दो॰—बिष्नु कहा अस बिहँसि तब, बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग हाेइ चलहु सब, निज निज सहित समाज ॥२॥

तब विष्णु ने हँस कर सम्पूर्ण दिक्पालों को बुला कर कहा। सब कोई अपने अपने समाज के सहित अलग अलग चलते जाइये ॥९२॥

चौ॰—बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करइहउ पर पुर जाई॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने ॥१॥

भाइयो! दुलहा के समान बरात नहीं है, विराने नगर में चल कर हँसी कराओगे? विष्णु की बात सुन कर देवता मुस्कुराये और अपनी गोल के सहित अलग हो गये ॥१॥

मनहीँ मन महेस मुसुकाहीँ। हरि के व्यङ्ग बचन नहिँ जाहीं॥
अतिप्रिय-बचन सुनत प्रियकेरे। भृङ्गिहि-प्रेरि सकल गन टेरे ॥२॥

शिवजी मन ही मन मुस्कुराते हैं कि भगवान् की व्यङ्ग भरी बाते नहीं छूटती। प्यारे के अत्यन्त प्रिय वचन सुनते ही नन्दी को आज्ञा देकर अपने सम्पूर्ण अनुचरों को बुलवाया ॥२॥

सिव अनुसासन सुनि सब आये। प्रभु-पद-जलज सीस तिन्ह नाये॥
नाना-बाहन नाना-बेखा। बिहँ से सित्व समाज निज देखा ॥३॥

शिवजी की आज्ञा सुन कर सब आये और उन्होंने स्वामी के चरण-कमलों में सिर नवाया। उनकी भाँति भाँति की सवारियाँ और तरह तरह के वेश थे, अपने समाज को देख कर शिवजी हँसे ॥३॥

शिवजी के हँसने में विष्णु भगवान की व्यङ्गोक्ति का उत्तर व्यजित होना व्यङ्ग है कि वर के अनुरूप बरात हो गई न? अब तो पराये पुर में हँसी न होगी।

कोउ मुख-हीन बिपुल-मुख काहू। बिनु-पद-कर कोउ बहु-पद-बाहू॥
बिपुल-नयन कोउ नयन-बिहीना। रिष्ट-पुष्ट कोउ अति तन खीना ॥४॥

कोई मुख रहित, किसी को बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ पाँव का और किसी के बहुत से चरण तथा भुजाएँ हैं। कोई समूह आँखवाले, किसी के नेत्र ही नहीं हैं, कोई मोटा ताजा और कितने ही शरीर के अत्यन्त दुबले पतले हैं ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

तन-खीन कोउ अति-पीन पावन, कोउ अपावन गति धरे।
भूषन कराल कपाल कर सब, सद्य सोनित तन भरे॥
खर-खान-सुअर-सृगाल-मुख गन, बेष अगनित को गनै।
बहु जिनिस प्रेत-पिसांच-जोगि-जमाति बरनत नहिँ बनै ॥७॥

कोई शरीर का दुबला, कोई अत्यन्त मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र चाल पकड़े है। भयङ्कर गहना पहने हाथ में खोपड़ी लिए ताजा खून सव शरीर में लपेटे है। किसी का मुख गदहे का, कोई कुत्ते; कोई सुअर और कोई सियार के मुखवाला है, उन अनगिनती गणों के रूप को कौन कह सकता है? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगियों की जमात (गरोह) का वर्णन नहीं करते बनता है ॥७॥

सो॰—नाचहिँ गावहिँ गीत, परम तरङ्गी भूत सब।
देखत अति बिपरीत, बोलहिँ बचन विचित्र विधि ॥९३॥

वे सब भूत बड़े ही लहरी नाचते और गीत गाते हैं। देखने में उलटे मालूम होते हैं, पर वचन विचित्र प्रकार के वोलते हैं ॥९३॥

शिवजी की बरात वर्णन में हास्यरस की प्रधानता है और गौड़ रूप से अद्भुतरस तथा वीभत्स की भी किश्चित झलक है। शङ्करजी आलम्बन विभाव हैं। उनकी विलक्षण वेष रचना, सर्प-भूषण, जटिल, हरिचर्म्म और विभूति धारण, अद्भुत गण उद्दीपन विभाव हैं। उन्हें देख कर सुर, देवाङ्गनाओं का हँसना अनुभाव है, हर्ष सज्चारी भाव द्वारा हास्य स्थायीभाव पुष्ट होकर रस रूप हुआ है।

चौ॰—जस दूलह तस बनी बराता। कौतुक बिबिध हाेहिँ भग जाता॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिँ जाइ बखाना ॥१॥

जैसा वर वैसी ही बरात धनी, रास्ते में जाते हुए तरह तरह के कुतूहल हो रहे हैं। यहाँ हिमाचल ने अत्यन्त अद्भुत मण्डप बनवाया जो बखाना नहीं जा सकता ॥१॥

सैल सकल जहँ लगि जग माहीँ। लघु बिसाल नहिँ वरनि सिराहीँ॥
बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहँ नेवत पठावा ॥२॥

संसार में जहाँ तक छोटे बड़े पर्वत हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता, उन सब को और सम्पूर्ण वन, समुद्र, नदी एवम् तालाद सब को हिमवान् ने निमन्त्रित करके बुलवाया ॥२॥

कामरूप सुन्दर तनु धारी। सहित समाज साेह बर नारी॥
आये सकल हिमाचल गेहा। गावहिँ मञ्जुर सहित सनेहा ॥३॥

इच्छानुसार सुन्दर शरीर धारण किये अपनी रूपवती स्त्री और मण्डली के सहित शोभायमान सब हिमाचल के घर आये, वे सब स्नेह के साथ मङ्गल गान करते हैं ॥३॥

गुटका में 'गये सकल तुहिनावल गेहा' और 'सहित समाज सहित वर नारी' पाल है।

प्रयमहिँ गिरि बहु गृह सँवराये। जथाजोग जहँ तहँ सब छाये॥
पुर-सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरच्जि निपुनाई ॥४॥

पर्वतराज ने बहुत से घरों को पहले ही से सजवाया था, उनमें वे लव यथायोग्य स्थानों में ठहरे। नगर की सुहावनी छवि देख कर विधाता की रचना की चतुराई तुच्छ मालूम होती है ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

लघु लागि बिधि की निपुनता, अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता, सुभग सब सक को कही॥
मङ्गल बिपुल तोरन पताका, केतु गृह गृह सोहहीँ॥
बनिता पुरुष सुन्दर चतुर छबि,-देखि मुनि मन माेहहीँ ॥८॥

नगर की स्वच्छ शोभा को देख कर ब्रह्मा की चतुराई छोटी लग रही है। वन, बाग, कुआँ, तालाब और नदियाँ सब सुहावनी हैं, उनकी छटा कौन कह सकता है? घर घर असंख्यों माङ्गलीक ध्वजा, पाताका, वन्दनवार श्रादि शोभायमान हो रहे हैं। सुन्दर चतुर और छबीले स्त्री-पुरुषों को देख कर मुनियों के मन मोहित हो जाते हैं ॥८॥

दो॰—जगदम्बा जहँ अवतरी, सो पुर बरनि कि जाइ।
रिधि सिधि सम्पति सकल सुख, नित नूतन अधिकाइ ॥९४॥

जहाँ जगत्माता ने जन्म लिया, क्या उस नगर की सोभा कही जा सकती है? (कदापि नहीं)। ऋद्धि, सिद्धि, सम्पति और सारा सुख नित्य नया नया बढ़ता जाता है ॥४॥

चौ॰—नगर निकट बरात जब आई। पुर खरभर सोभा अधिकाई॥
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना ॥१॥

जब नगर के समीप बरात आगई, तब पुर में चहल पहल की शोभा बढ़ गई। नाना प्रकार की संवारियों के सजाव करके आदर के साथ अगवानी लेने चले ॥१॥

हिय हरषे सुर-सेन निहारी। हरिहि देखि अति भये सुखारी॥
सिव समाज जब देखन लागे। बिड़रि चले बाहन सब भागे ॥२॥

देवताओं की गोल देख कर हदय में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान् को देख कर परमानन्दित हुए। जब शिवजी के समाज को देखने लगे, तब हाथी, घोड़े आदि सवारी के जानवर सब घबड़ा कर भाग चले ॥२॥

धरि धीरज तहाँ रहे सयाने। बालक सब लेइ जीव पराने॥
गये मवन पूछहिँ पितु माता। कहहिँ बचन भय कम्पित गाता ॥३॥

चतुर लोग धीरज धर कर वहाँ रहे और सब लड़के जी लेकर भाग गये। घर जाने पर उनके माता-पिता पूछते हैं, भय से शरीर कापते हुए वे वचन कहते हैं ॥३॥

बाहनों और बालकों का अयथार्थ भय वर्णन 'भयानक रसाभास' है।

कहिय काह कहि जाइ न बाता। जम कर धारि किधौँ बरियाता॥
बर बौराह बरद असवारा। व्याल कपाल बिभूषन छारा ॥४॥

क्या कहूँ? बात कही नहीं जाती है, यह यमराज की सेना है, या कि बरात है। दूलह पागल है और बैल पर सवार है। साँप, नर-खोपड़ी और राख ही उसके गहने है ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

तन छार ब्याल कपाल भूषन, नगन जटिल भयङ्करा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि, बिकट-मुख रजनीचरा॥
जो जियत रहिहि बरात देखत, पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाह घर घर, बात असि लरिकन्ह कही ॥९॥

शरीर पर भस्म, साँप और खोपड़ी का गहना, नङ्गा, जटाधारी और डरावना है। साथ में भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनी तथा विकराल मुखवाले राक्षस है। जो बरात देख कर जीता रहेगा, सचमुच उसका बड़ा भारी पुण्य है और वही पार्वती के विवाह को देखेगा। इस तरह की बात घर घर लड़कों ने कही ॥९॥

दो॰—समुझि महेस समाज सब, जननि जनक मुसुकाहिँ।
बाल बुझाये बिबिध विधि, निडर होहु डर नाहिँ ॥९५॥

सब शिवजी के समाज को समझ कर माता-पिता मुस्कुराने लगे। उन्होंने बहुत तरह से बालकों को समझाया कि कोई डर नहीं है, तुम लोग निर्भय रहो ॥९५॥

चौ॰—लेइ अगवान बरातहि आये। दिये सबहि जनवास सुहाये॥
मैना सुभ आरती सँवारी। सङ्ग सुमङ्गल गावहिँ नारी ॥१॥

अगवानी लोग बरात को ले आये और सभी को सुहावने जनवास दिये। मैना सुन्दर आरती सजाकर, स्त्रियों के साथ श्रेष्ठ मङ्गल के गीत गाती हैं ॥१॥

कञ्चनथार साेह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
विकट-बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेखा ॥२॥

उत्तम सुवर्ण का थाल हाथ में शोभित है,प्रसन्नतासे शिवजी को परछने (आरती उतारने) चली। जब रुद्र का भीषण रूप देखा, तब स्त्रियों के हृदय में बहुन ही डर उत्पन्न हुआ ॥२॥

स्त्रियों का अयथार्थ भय 'भयानक रसामास' है।

भागि भवन पैठी अति त्रासा। गये महेस जहाँ जनवासा॥
मैना हृदय भयउ दुख भारी। लीन्ही बोलि गिरीस-कुमारी ॥३॥

अत्यन्त भय से भाग कर घर में घुस गई और जहाँ जनवासा था वहाँ शिवजी गये। मैना के हृदय में बड़ा भारी दुःख हुआ, उन्होंने पार्वतीजी को बुला लिया ॥३॥

अधिक सनेह गोद बैठारी। स्याम-सरोज नयन भरि बारी ॥
जेहि बिधि तुम्हहिँ रूप अस दीन्हा। तेहि जड़ बर बाउर कस कीन्हा॥४॥

अधिक स्नेह से गोद में बैठा कर श्याम-कमल के समान नेत्रों में आँसू भर कर कहने लगीं—जिस ब्रह्मा ने तुमको ऐसी सुन्दरता दी, उस मूर्ख ने बर पागल क्यों बनाया? ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

कस कीन्ह बर बौराह बिधि जेहि, तुम्हहिँ सुन्दरता दई।
जो फल चहिय सुरतरुहि सो, बरबस बबूरहि लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तेँ गिरउँ पावक, जरउँ जलनिधि महँ परौँ॥
घर जाउ अपजस होउ जग, जीवत बिबाह न हौँ करौँ ॥१०॥

जिस विधाता ने तुम्हें ऐसी सुन्दरता दी, उसने बर काहे को बौरहा बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिये, वह बरजोरी से बवूर में लग रहा है। तुम्हारे सहित मैं पहाड़ से गिरुँगी, आग में जलूँगी या समुद्र में कूद पडूँगी, घर भले ही उजड़ जाय, संसार में अपकीर्त्ति हो, पर मैं जीते जी विवाह न करूँगी ॥१०॥

इस छन्द में मैना को कहना तो यह अभीष्ट है कि ऐसी रूपवती कन्या को सुन्दर रूपवान् वर मिलना था वह न मिला। विकट मसानी वेष का पति मिला! पर इस बात को सीधे न कह कर उसका प्रतिबिम्ब मात्र कहना जिससे असली बात प्रगट हो कि जो फल कल्पतरु में लगना था, वह बबूर में लगा 'ललित अलंकार' है।

दो॰—भई बिकल अबला सकल, दुखित देखि गिरि-नारि।
करि बिलाप रोदति बदति, सता सनेह सँभारि ॥९६॥

मैना को दुखी देख कर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गई। वे लड़की की सुधिकर स्नेह के मारे रोती, चिल्लाती और विलाप करती हैं ॥९६॥

शङ्का—मैना पहले ही नारद और हिमवान् के द्वारा शिवजी के रूप को सुन चुकी थी, फिर इतना डर उन्हें क्यों हुआ जब कि उन्हों ने उक्त बर प्राप्ति के लिये कन्या को तपस्या करने का आदेश किया? उत्तर—मानस प्रकरण में कह आये हैं कि कविता नदी के लोकमत और वेदमत दो किनारे हैं। यहाँ नदी की धारा लोकमत के किनारे से लग कर

चल रही है। स्त्री का स्वभाव भीरु और चञ्चल होता है। भीषण वेष देख कर पहले की कही-सुनी बातें मैना को भूल गई। वे पुत्री के स्नेह में विह्वल हो उठीं। फिर इस घटना-सम्बन्ध से पार्वतीजी की अनन्त महिमा सब लोगों पर व्यक्त करना कवि को अभीष्ट है।

चौ॰—नारद कर मैं काह बिगारा। भवन मोर जिन्ह बसत उजारा॥
अस उपदेस उमहिँ जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तप कीन्हा ॥१॥

नारद का मैंने क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने वसता हुआ मेरा घर उजाड़ दिया। उन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि पागल वर के लिए उसने तपस्या की ॥१॥

साँचेहु उनके मोह न माया। उदासीन धन धाम न जाया॥
पर-घर-घालक लाज न भीरा। वाँझ कि जान प्रसव की पीरा ॥२॥

सचमुच उनके (हृदय में) मोह-मया नहीं है, धन, घर और स्त्री नहीं, सब के त्यागी हैं। पराया घर उजाड़ने में उन्हें लाज या डर नहीं है, क्या वन्ध्या स्त्री प्रसव (बालक पैदा होने) की पीड़ा जान सकती है? (कदापि नहीं) ॥२॥

जननिहिँ विकल बिलोकि भवानी। बोली जुत-बिबेक मृदु बानी॥
अस बिचारि सेाचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ विधाता ॥३॥

माता को ब्याकुल देख कर भवानी ज्ञान से भरी कोमल वाणी बोली। हे माता! जो विधाता ने रचा है वह मिट नहीं सकता, ऐसा जान कर सोच मत करो ॥३॥

करम लिखा जौँ बाउर नाहू। तौ कत दोष लगाइय काहू॥
तुम्ह सन मिठिहि कि विधि के अङ्का। मातु व्यर्थ जनि लेहु कलङ्का ॥४॥

यदि मेरे प्रारब्ध में बौरहा पति लिखा है तो किसी दोष क्यों लगाया जाय? क्या विधाता के लिखे अङ्क तुमसे मिट सकते हैं? (कदापि नहीं, इसलिये) हे माता! व्यर्थ ही कलङ्क मत लेओ ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

जनि लेहु मातु कलङ्क करुना,-परिहरहु अवसर नहीँ।
दुखसुख जो लिखा लिलार हमरे, जाब जहँ पाउब तहीँ॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल, सकल अबला सोचहीँ।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन, नयन बारि बिमाेेचहीं ॥११॥

हे माता! कलङ्क मत लेओ; विषाद को छोड़ो, इसका अवसर नहीं है। दुःख सुख जो मेरे ललाट में लिखा है, वह जहाँ जाऊँगी वहीं पाऊँगी। पार्वतीजी के नम्र कोमल बचन सुनकर सब स्त्रियाँ सोचती है। बहुत प्रकार ब्रह्मा के दोष लगा कर आँखों से आँसू बहा रही हैं ॥१९॥

बौरहा वर मिले पार्वतीजी को और दोष पावें बेचारे ब्रह्मा! कारण कहीं और कार्य कहीं 'प्रथम असहति अलंकार' है।

दो॰—तेहि अवसर नारद सहित, अरु रिषि-सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिन-गिरि, गवने तुरत निकेत ॥९७॥

उसी समय नारदजी के सहित सप्तर्षियों को साथ लेकर हिमवान् यह ख़बर सुन कर तुरन्त घर में गये ॥९७॥

चौ॰—तब नारद सबही समुझावा। पूरब-कथा-प्रसङ्ग सुनावा॥
मैना सत्य सुनहु मम बानी। जगदम्बा तव सुता भवानी ॥१॥

तब नारद जी ने सभी को समझाया और पूर्वजन्म के कथा का प्रसङ्ग सुनाया। उन्होंने कहा—हे मैना! मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी कन्या जगदम्बा भवानी है ॥१॥

अजा अनादि-सक्ति अबिनासिनि। सदा सम्भु अरघङ्ग-निवासिनि॥
जग-सम्भव-पालन-लय कारिनि। निज-इच्छा लीला बपु धारिनि ॥२॥

जन्म न लेनेवाली और कभी नाश न होनेवाली आदि शक्ति सदा शिवजी की अर्द्धाङ्गिनी हैं। संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली तथा अपनी इच्छा से खेल के लिये शरीर धारण करनेवाली हैं ॥२॥

जनमी प्रथम दच्छ-गृह जाई। नाम सती सुन्दर तनु पाई॥
तहउँ सती सङ्करहि बिबाहोँ। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीँ ॥३॥

पहले जाकर दक्ष के घर में पैदा हुई, वहाँ इनका सती नाम था और इन्होंने सुन्दर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शिवजी को ब्याही थी। यह कथा सारे जगत् में विख्यात है ॥३॥

एक बार आवत सिव सङ्गा। देखेड़ रघुकुल कमल पतङ्गा॥
भयउ मोह सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेष सीय कर लीन्हा ॥४॥

एक बार शिवजी के साथ आते हुए इन्होंने रघुकुल रूपी कमल के सूर्य्य को देखा। इनके मन में अज्ञान हुआ। शिवजी का कहना नहीं माना। भ्रम में पड़ कर सीता का रूप बनाया ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

सिय बेष सती जो कीन्ह तेहि, अपराध सङ्कर परिहरी।
हर बिरह जाइ बहोरि पितु के, जग्य जोगानल जरी॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निजपति, लागि दारुन तप किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा, सर्वदा सङ्कर प्रिया ॥१२॥

सती ने जो सीताजी का रूप बनाया, इस अपराध से शिवजी ने उन्हें त्याग दिया। फिर महादेवजी के वियोग से पिता के यज्ञ में जाकर सती योगाग्नि में जल गई। अब तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने स्वामी की प्राप्ति के लिए भीषण तप किया है। ऐसा समझ कर सन्देह छोड़ दो, गिरिजा सदा सर्वदा शङ्कर की प्यारी हैं ॥१२॥

मैना आदि के मन में शिवजी का विकट रूप देख भ्रम से जो सन्देह हुआ था, नारदजी ने सच्ची बात कह कर वह दूर कर दिया। 'भ्रान्त्यापह्रति अलंकार' है।

दो॰—सुनि नारद के बचन तब, सब कर मिटा विषाद।
छन महँ ब्यापेउ सकल पुर, घर घर यह सम्बाद ॥९८॥

तब नारदजी की बात सुन कर सत्ब का विवाद मिट गया। क्षण भर में यह सम्बाद सारे नगर में घर घर फैल गया ॥९८॥

चौ॰—तब मैना हिमवन्त अनन्दे। पुनि पुनि पारवती-पद बन्दे।
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरपाने ॥१॥

तब मैना और हिमवान् ने प्रसन्न होकर बार बार पार्वतीजी के चरणों की वन्दना की। चतुर स्त्री-पुरुष, बालक-जवान, सब नगर के लोग अत्यन्त हर्षित हुए ॥१॥

लगे होन पुर मङ्गल गाना। सजे सबहिँ हाटक-घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूप-सास्त्र जस किछु व्यवहारा ॥२॥

नगर में मङ्गल गान होने लगा, सब ने अनेक प्रकार के सुवर्ण के कलश सजाये। भाँति-भाँति की रसोइयाँ—जैसा कुछ पाफ-शास्त्र में विधान है—हुईं ॥२॥

सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिँ भवन जेहि मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरच्जि देव सब जाती ॥३॥

क्या वह ज्योनार वखाना जा सकता है जिस घर में माता पार्वती रहती हैं? आदरपूर्वक सम्पूर्ण बरात विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलाया ॥३॥

बिबिध पाँति बैठी जेवनारा। लगे परोसन निपुन सुआरा॥
नारि-बृन्द सुर जेँवत जानी। लगीँ देन गारी मृदु बानी ॥४॥

बहुत सी पङ्गतें बैंठी, चतुर रसोईदार भोजन परोसने लगे। स्त्रियाँ देवताओं को भोजन करते जान कर मधुर वाणी से गाली देने लगी ॥४॥

हरिगीतिका-छुन्द।

गारी मधुर सुर देहिँ सुन्दरि, व्यङ्ग बचन सुनावहीँ।
भोजन करहिँ सुर अति बिलम्ब, बिनोद सुनि सचु पावहीँ॥
जेँवत जो बढ़ेउ अनन्द सो, मुख कोटिहू न परइ कह्यो।
अँचवाइ दीन्हे पान गवने, बास जहँ जाको रह्यो ॥१३॥

सुन्दरियाँ मीठे स्वर से गाली देती है और व्यह-पूर्ण वचन सुनाती है। देवता हँसी दिल्लगी सुन कर प्रसन्न हो रहे हैं और बड़ी देर में (धीरे धीरे) भोजन करते हैं। जेँवन करते समय जो आनन्द बढ़ा, वह करोड़ों मुख से भी नहीं कहा जा सकता। सब के हाथ मुँह धुलवा कर पान दिये, फिर जिसका जहाँ डेरा था वहाँ वह चला गया ॥१३॥

गाली दोष रूप है, किन्तु विवाहोत्सव में वही गुण रूप प्रिय लगना तथा उससे प्रसन्न होना 'अनुज्ञा अलंकार' है।

दो॰—बहुरि मुनिन्ह हिमवन्त कहँ, लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर, पठये देव बुलाइ ॥९९॥

फिर मुनियों ने आकर हिमवान् को लग्न का मुहूर्त्त सुनाया। विवाह का समय देख कर उन्होंने देवताओं को बुलौआ भेजा ॥8॥

चौ॰—बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जयोचित आसन दीन्हे॥
बेदी बेद-बिधान सँवारी। सुभग सुमङ्गल गावहिं नारी ॥१॥

सम्पूर्ण देवताओं को आदर से बुला लिया और सब को यथायोग्य आसन दिया। वेद की रीति से वेदी बनाई गई, सुन्दर स्त्रियाँ श्रेष्ठ मङ्गल गान करती हैं ॥१॥

सिंहासन अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिचित्र बनावा॥
बैठे सिव विप्रन्ह सिर नाई। हृदय सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥२॥

अत्यन्त दिव्य सुहावने सिंहासन पर—जिसकी विलक्षण बनावट वर्णन नहीं की जा सकती, शिवजी ब्राह्मणों को मस्तक नवा कर और हृदय में अपने स्वामी रघुनाथजी का स्मरण कर के बैठ गये ॥२॥

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिङ्गार सखी लेइ आई॥
देखत रूप सकल. सुर मोहे। बरनइ छबि अस जग कबि को हे ॥३॥

फिर मुनीश्वरों ने उमा को बुलवाया, शृङ्गार करके सखी ले आई। रूप देखते ही सब देवता मोहित हो गये, संसार में ऐसा कौन कवि है जो उस शोभा का वर्णन करेगा? (कोई नहीं) ॥३॥

जगदम्बिका जानि भव-भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुन्दरता-मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहु बदन बखानी ॥४॥

जगत्माता और शिवजी की भार्य्या समझ देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। पर्वतीजी सुन्दरता की हद हैं, करोड़ों मुखों से बखानी नहीं जा सकतीं ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

कोटिहु बदन नहिँ बनइ बरनत, जग-जननि-साेभा महा।
सकुचहिँ कहत खुति सेष सारद, मन्द-मति तुलसी कहा ॥

छबि-खानि मातु भवानि गवनी, मध्य मंडप सिव जहाँ।
अवलोकि सकइ न सकुच पति-पद,-कमल मन मधुकर तहाँ ॥१४॥

जगज्जननी को महान् शोभा करोड़ों मुखों से नहीं बखानी जा सकती। सरस्वती, वेद और शेषजी कहते हुए सकुचाते हैं, उसको नीच-बुद्धि तुलसी ने कहा है अथवा नीच-बुद्धि तुलसी क्या चीज़ है? छवि की खानि माता पार्वतीजी मण्डप में, जहाँ शिवजी हैं, वहाँ गई। लज्जा से पति के चरण-कमलों को देख नहीं सकती, परन्तु मन रूपी भ्रमर वहाँ लुन्ध हो गया है ॥१४॥

दो॰—मुनि अनुसासन गनपतिहि, पूजेउ सम्मु-भवानि।
कोउ सुनि संसय करइ जनि, सुर अनादि जिय जानि ॥१००॥

शिव-पार्वती ने मुनियों की आज्ञा से गणेशजी का पूजन किया। यह सुन कर गणपति को) अनादि देव जी में जान कर कोई सन्देह न करे ॥१००॥

विवाह भी हुआ नहीं; किन्तु गणेश-पूजन कराने में 'भाविक अलंकार' है।

चौ॰—जसि बिबाह के बिधि खुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपी जानि भवानी ॥१॥

विवाह की जैसी रीति वेदों ने गाई है, महामुनियों ने वे सब करवाई। पर्वतराज ने कुश और कन्या का हाथ हाथ में लेकर भवानी जान कर भव को अर्पण की ॥१॥

पानि-ग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिय हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेद मन्त्र मुनिबर उच्चरहीँ। जय जय जय सङ्कर सुर करहीँ ॥२॥

जब शिवजी ने पाणिग्रहण किया तब इन्द्रादि सब देवता मन में प्रसन्न हुए। मुनियर वेदमन्त्र पढ़ते हैं और देवता शङ्करजी की जय जयकार करते हैं ॥२॥

बाजहिँ बाजन विबिध बिधाना। सुमन बृष्टि नभ भइ बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयेउ बिधाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥३॥

अनेक प्रकार के बाजे बजते हैं, आकाश से नाना भाँति के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाद हुआ, जिसका उत्साह सम्पूर्ण जगत् में भरपूर छा रहा है ॥३॥

दासी दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु विभागा॥
अन्न कनक-भाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥४॥

सेवक, सेवकिनी, घोड़ा, रथ, हाथी, गैया, वस्त्र और रत्नादि वस्तुएँ अलग अलग। सुवर्ण के बरतनों में अन्न भर भर गाड़ियों में लदवा कर दहेज दिया जो बखाना नहीं जा सकता ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

दाइज दियाे बहु भाँति पुनि कर,-जोरि हिम-भूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम सङ्कर, चरन-पङ्कज गहि रह्यो॥
सिव कृपासागर ससुर का सन्तोष सब भाँतिहि कियाे।
पुनि गहे पद-पाथोज मैना, प्रेम परिपूरन हियो ॥१५॥

बहुत तरह का दहेज देकर फिर हिमवान् ने हाथ जोड़ कर कहा—हे शङ्करजी! आप पूर्णकाम हैं, मैं आप को क्या दे सकता हूँ। यह कह कर उन्हाने चरण-कमलाे को पकड़ लिया। कृपासागर शिवजी ने सभी प्रकार से श्वसुर को सन्तुष्ट किया, प्रेम-पूर्ण हृदय से मैना ने चरण-कमलों को पकड़ा ॥१५॥

दो॰—नाथ उमा मम प्रान प्रिय, गृह-किङ्करी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब, हाइ प्रसन्न बर देहु ॥१०१॥

मैना विनती करने लगी—हे नाथ। उमा मुझे प्राण के समान प्यारी है, इसे घर की दासी बनाइये। सम्पूर्ण अपराध क्षमा कीजिएगा, अब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए ॥१०१॥

'गृह किङ्करी करेहु' इस वाक्य में असुन्दर गुणीभूत व्यङ्ग है कि अब तक आप बिना घर के रहते थे, अब घर बना कर रहना, यह व्यङ्ग वाच्यार्थ ही से प्रगट है।

चौ॰—बहु बिधि सम्भु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिर नाई॥
जननी उमा बोलि तब लीन्ही। लेइ उछङ्ग सुन्दरसिख दीन्हो॥१॥

बहुत तरह से शिवजी ने सास को समझाया, वे चरणों में मस्तक नवा कर घर गईं। तब माता ने पार्वतीजी को बुला लिया और गोद में लेकर सुन्दर सीख दाे ॥१॥

करेहु सदा सङ्कर-पद-पूजा। नारि धरम पति-देव न दूजा॥
बचन कहत भरि लोचन बारी। बहुरि लाइ उरलीन्हि कुमारी ॥२॥

शङ्करजी के चरणों की सदा पूजा करना, स्त्री-धर्म पतिव्रता के सिवा दूसरा नहीं है। वचन कहते हुए आँखों में जल भर कर फिर पुत्री को हृदय से लगा लिया ॥२॥

कत बिधि सृजी नारि जग माहीँ। पराधीन सपनेहुँ सुख माहीं॥
भइ अति प्रेम बिकल महँतारी। धीरज कीन्ह कुसमय बिचारी ॥३॥

कहने लगीं—विधाता ने संसार में स्त्रियों को क्यों उत्पन्न किया, जिन्हें पराधीन रहने के कारण कभी स्वप्न में सुख नहीं है। अत्यन्त प्रेम से माता व्याकुल हुई, कुसमय विचार कर धीरज धारण किया ॥३॥

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न वरना॥
सब नारिन्ह मिलि मैँटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥४॥

बार बार भेंटती हैं और पाँव पकड़ कर सिर रखती हैं, अतिशय प्रीति का वर्णन कुछ नहीं किया जा सकता। सब स्त्रियों से मिल भेंट कर फिर पार्वतीजी जाकर माता की छाती से लिपट गईं ॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहू दई।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब, सखी लै सिव पहिँ गई।
जाचक सकल सन्तोषि सङ्कर, उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥१६॥

फिर माता से मिल कर चलीं, सब किसी ने उचित आशीर्वाद दिया। बार बार माता की ओर निहार रही हैं, तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं। सब याचको को सन्तुष्ट करके पार्वती के समेत शिवजी अपने घर चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूल बरसाने लगे और आकाश में सुन्दर दुन्दुभी आदि बाजे वा रहे हैं ॥१६॥

दो॰—चले सङ्ग हिमवन्त तब, पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोष करि, बिदा कीन्हि वृषकेतु ॥१०२॥

तब हिमवान् अत्यन्त प्रीति से साथ में पहुचाने के लिए चले। बहुत तरह से उन्हें समझा-बुझा कर शिवजी ने बिदा किया ॥ १०२॥

चौ॰—तुरत भवन आये गिरिराई। सकल सैल सर लिये बोलाई॥
आदर दान बिनय बहु माना। सब कर विदा कीन्ह हिमवाना॥१॥

पर्वतराज तुरन्त घर आये और सम्पूर्ण शैल सरोवरों को बुला लिया। आदर, दान और विनती से हिमवान ने सब को बहुत सत्कार कर बिदा किया ॥१॥

जबहिं सम्भु कैलासहि आये। सुर सब निज निज लोक सिधाये॥
जगत मातु-पितु सम्भु-भवानी। तेहि सिङ्गार न कहउँ बखानी ॥२॥

जब शिवजी कैलास पर आये तब देवता सब अपने अपने लोक को चल दिये। शिव-पार्वती जगत के माता-पिता हैं, इसलिए उनका शृङ्गार बखान कर नहीं कहता हूँ ॥२॥

करहिँ बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिँ कैलासा॥
हर-गिरिजा बिहार नित नयऊ ।एहि विधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥३॥

अनेक प्रकार के भोग विलास करते हैं और सेवकों के सहित कैलास पर निवास करते हैं। शिव-पार्वती का नित्य नया विहार हो रहा है, इस तरह बहुत समय बीत गया ॥३॥

तब जनमेउ षट-बदन-कुमारा। तारक असुर समर जेहि मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षट-मुख जनम सकल जग जाना ॥४॥

तब छः मुखवाले (स्वामिकार्तिक) पुत्र का जन्म हुआ, जिन्होंने संग्राम में तारकासुर को मारा। षड़ानन का जन्म वेद, शास्त्र, पुराणों में विख्यात है और सम्पूर्ण संसार जानता है॥४॥

हरिगीतिका-छन्द।

जग जान षनमुख जनम करम प्रताप पुरुषारथ महा।
तेहि हेतु मैँ वृषकेतु-सुत कर, चरित सञ्छेपहि कहा॥
यह उमा-सम्भु बिबाह जे नर, नारि कहहिँ जे गावहीँ।
कल्यान काज बिबाह मङ्गल, सर्बदा सुख पावहीं ॥१७॥

स्वामिकार्तिक के जन्म, कर्म, प्रताप और महान् पुरुषार्थ को संसार जानता है। इसलिये शिवजी के पुत्र का चरित्र मैंने संक्षेप में ही वर्णन किया है। यह शिव और पार्वतीजी का विवाह जो स्त्री-पुरुष कहेंगे, जो गावेंगे, वे विवाहादि कल्याण कार्य्य में सदा मङ्गल और सुख पावेंगे ॥१७॥

दो॰—चरित-सिन्धु गिरिजारवन, बेद न पावहिँ पार।
बरनइ तुलसीदास किमि, अति मति-मन्द गँवार ॥१०३॥

पार्वती-रमण का चरित्र समुद्र है, वेद भी पार नहीं पाते। उसको अत्यन्त मंद-बुद्धि गँवार तुलसीदास कैसे वर्णन कर सकता है? ॥१०३॥

कविजी शिव-पार्वती का चरित्र वर्णन करने में अशक्यता प्रदर्शित करने के लिये अपने को अत्यन्त मन्द-बुद्धि गँवार कहते हैं। इस कथन में उक्ताक्षेप और विचित्र अलंकार की ध्वनि है। चरित्र वर्णन कर फिर उससे निषेद करना उक्ताक्षेप है और अत्यन्त मतिमन्द कह कर अपने को गँवार बनाना, इससे श्रेष्ठ वक्ता होने की इच्छा रखना विचित्र है।

चौ॰—सम्भु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुख पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयन-नीर रोमावलि ठाढ़ी ॥१॥

शिवजी का सुहावना और रसीला चरित्र सुन कर भरद्वाज मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए। बड़ी लालसा कथा पर बढ़ी, उनकी आँखों में जल भर आया और रोमावलियाँ खड़ी हो गईं ॥१॥

प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि-ज्ञानी॥
अहो धन्य तब जनम मुनीसा। तुम्हहिँ प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥२॥

प्रेम के आधीन होकर मुख से बात नहीं निकलती है, उनकी दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्यजी हर्षित हुए। उन्होंने कहा—हे मुनीश्वर! आपका जन्म धन्य है, आप को गौरीपति-शङ्करजी प्राण के समान प्यारे हैं ॥२॥

सिव-पद-कमल जिन्हहिँ रति नाहीं। रामहिँ ते सपनेहुँ न सुहाहीँ॥
बिनु छल विस्वनाथ-पद नेहू। रामभगत कर लच्छन एहू ॥३॥

जिनकी प्रीति शिवजी के चरण-कमलों में नहीं है, वे रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी नहीं अच्छे लगते। विश्वनाथजी के चरणों में विना छल के स्नेह हो; यही राम भक्त का लक्षण है ॥३॥

सिव सम को रघुपति-ब्रत-धारी। बिनु अघ तजी सत्ती असि नारी॥
पन करि रघुपति-भगति दिढ़ाई। को सिव सम रामहिँ प्रिय भाई ॥४॥

शिवजी के समान रघुनाथ जी का व्रत धारण करनेवाला कौन है? जिन्होंने सती ऐसी स्त्री को बिना दुःख के त्याग दिया! प्रतिक्षा करके रघुनाथजी की भक्ति को दृढ़ किया, हे भाई! फिर शिवजी के समान रामचन्द्रजी को कौन प्यारा होगा? ॥४॥

शिवजी के व्रत धारण का कारण युक्ति से समर्थन करना कि सती जैसी स्त्री को त्याग दिया; किन्तु भक्ति को दृढ़ता से ग्रहण किया 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। 'विनु अघ' में बड़ी उलझन है। यदि यह अर्थ किया जाय कि विना पाप के सती ऐसी स्त्री को त्याग दिया तो शिवजी पर दोषारोपण होता है, क्योंकि निरपराध पतिव्रता को त्यागना घोर अन्याय है। फिर ग्रन्थ से विरोध पड़ता है, नारदजी ने स्पष्ट कह दिया है कि 'सिय वेष सती जो कीन्ह तेहि अपराध शङ्कर परिहरी'। इससे सती का अपराधिनी होना सिद्ध है। 'अघ' शब्द के तीन अर्थ हैं, पाप या अपराध, दुःख और व्यसन। यहाँ तात्पर्य दुःख से है, अपराध या पाप से नहीं। हाँ—यह शङ्का हो सकती है कि उत्तरकाण्ड में स्वयम् शिवजी ने कहा है "तब अति सोच भयेउ मन माेरे। दुखी भयउँ वियोग प्रिय ताेरे" इस वाक्य से पूर्वोक अर्थ भी व्यर्थ होगा? पर ऐसा नहीं है, सती के प्रति शिवजी का स्नेह पत्नीभाव और भक्तिभाव दो प्रकार का था। पत्नीभाव से वियोग का दुःख नहीं हुआ; किन्तु भक्तिभाव से दुखी हुए, क्योंकि हरि-कीर्तन के सत्सङ्ग में बाधा पड़ गई। इससे प्रथम अर्थ जो किया गया है, वही ठीक है।

दो॰—प्रथमहिँ कहि मैँ सिव चरित, बूझा मरम तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के, रहित समस्त बिकार ॥१०४॥

इसी से पहले मैं ने शिवजी का चरित्र कह कर आप के भेद को समझ लिया। आप सम्पूर्ण दोषो से रहित रामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हैं ॥१०४॥

चौ॰—मैँ जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति-लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरे। कहि न जाइ जस सुख मन मारे ॥१॥

मैंने आप की गुणशीलता जान ली, अब रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनिए। हे मुनि! सुनिए, आप के सम्मिलन से आज मेरे मन में जो आनन्द हुआ है वह कहा नहीं जा सकता ॥१॥

रामचरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिँ सतकोटि अहीसा॥
तदपि जथा स्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनु-पानी ॥२॥

हे मुनीश्वर! रामचन्द्रजी का चरित्र अतिशय अनन्त है, उसको करोड़ों शेषनाग नहीं कह सकते। तो भी जैसा मैंने सुना है वैसा हाथ में धनुष लिए वाणी के स्वामी प्रभु रामचन्द्रजी को स्मरण कर के बखान कर कहूँगा ॥२॥

सारद दारु-नारि-सम स्वामी। राम-सूत्रधर अन्तरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिँ जन जानी। कबि-उर-अजिर नचावहिँ बानी ॥३॥

सरस्वती काठ की स्त्री (कठपुतली) के समान है और अन्तर्यामी स्वामी रोमचन्द्रजी सूत्रधर (तागा पकड़ कर उसे नचानेवाले) हैं। जिसको अपना दास जान कर कृपा करते हैं उस के हृदय रूपी आँगन में वाणी को नचाते हैं ॥३॥

सरस्वती और कठपुतली, रामचन्द्र और सूत्रधर, कवि का हृदय और नाच का मैदान परस्पर उपमेय उपमान हैं। ऊपर प्रभु रामचन्द्रजी को गिरोपति कह आये हैं युक्ति से उस अर्थ का समर्थन करने में 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है।

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ विषद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबर कैलासू। सदा जहाँ सिव-उमा निवासू ॥४॥

उन्हीं कृपालु रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ जिनके गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। पर्वतश्रेष्ठ कैलास अत्युत्तम रमणीय है जहाँ शिव-पार्वती सदा निवास करते हैं ॥४॥

दो॰—सिद्ध तपोधन जोगि जन, सुर किन्नर मुनि बृन्द।
बसहि तहाँ सुकृती सकल, सेवहिँ सिव सुखकन्द ॥१०५॥

वहाँ सिद्ध, तपस्वी, योगीजन, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह सब पुण्यात्मा निवास करते हैं, वे सब आनन्द के मूल शिवजी की सेवा करते हैं ॥१०५॥

चौ॰—हरि-हर-विमुख धरम रति नाहीँ। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिँ जाहोँ।
तेहि गिरि पर बट बिटप विसाला। नित नूतन सुन्दर सब काला ॥१॥

जो विष्णु और शिवजी से विमुख हैं तथा जिनको प्रीति धर्म में नहीं है, वे मनुष्य स्वप्न में भी वहाँ नहीं जाते। उस पर्वत पर विशाल बड़ का वृक्ष है जो सब समय नित्य नया सुहावना रहता है॥१॥

त्रिविध समीर सुसीतल छाया। सिव-बिस्राम बिटप स्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुख भयऊ ॥२॥

वेद कहते हैं कि तीनों प्रकार पवन की गति और सुन्दर शीतल छाँह शिवजी के विश्राम-वृक्ष के नीचे रहती है। प्रभु शङ्करजी एक बार उसके नीचे गये और वृक्ष को देख कर हृदय में बहुत ही प्रसन्न हुए ॥२॥

निज कर डासि नाग-रिपु-छाला। बैठे सहजहिँ सम्भु कृपाला॥
कुन्द-इन्दु-दर गौर सरीरा। भुज-प्रलम्ब परिधन-मुनि-चीरा ॥३॥

अपने हाथ से सिंह-चर्म्म विछा कर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही बैठ गये। उनका शरीर कुन्द के फूल, चन्द्रमा और शङ्ख के समान उज्ज्वल है, भुजाएँ लम्बी हैं, मुनियों के वस्त्र धारण किये हैं॥३॥

कुन्द, चन्द्र और शङ्ख इन तीनों उपमानों में भिन्न भिन्न आशय की मालोपमा है। कुन्द के समान कोमल, उज्ज्वल, चन्द्रमा के तुल्य श्वेत प्रकाशमान और शङ्ख के सदश सफेद तथा कठिन।

तरुन-अरुन-अम्बुज सम चरना। नख-दुति भगत-हृदय-तम-हरना।
भुजग-भूति-भूषन त्रिपुरारी। आनन सरद-चन्द-छवि हारी ॥४॥

नवीन खिले हुए लाल कमल के समान चरण हैं, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अन्धकार (अज्ञान) हरनेवाली है। जो साँप और विभूति को आभूषण धारण किए हैं, वे त्रिपुर दैत्य के शत्रु हैं और उनके मुख की छवि शरदकाल के चन्द्रमा की शोभा को हरनेवाली है ॥४

दो॰—जटा-मुकुट-सुरसरित सिर, लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि, साेह बाल-बिधु-भाल ॥१०६॥

सिर पर जटाओं का मुकुट है उसमें गङ्गाजी विराजमान हैं, उनके कमल के समान विशाल नेत्र हैं, गला नीलेरङ्ग, सुन्दरता का स्थान है और मस्तक पर वाल (द्वितीषा के) चन्द्रमा शोभायमान हैं ॥१०६॥

चौ॰—बैठे साेह काम-रिपुं कैसे। घरे सरीर सान्त-रस जैसे।
पारबतीभल अवसर जानी। गई सम्भु पहिँ मातु भवानी ॥१॥

काम के बैरी बैठे हुए ऐसे शोभित हैं जैसे शरीरधारी शान्त रस शोभायमान हो। माता भवानी, पार्वतीजी अच्छा समय जान कर शम्भु के पास गईं ॥१॥

जानि प्रिया आदर अति कीन्हा। बाम-भाग आसन हर दीन्हा।
बैठी सिव समीप हरपाई। पूरब-जनम-कथा चित आई ॥२॥

प्यारी समझ कर बड़ा आदर किया और वाएँ भाग में शिवजी ने उन्हें आसन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजी के समीप बैठ गईं, उनके मन में पूर्व जन्म की कथा की सुध हो पाई ॥२॥

'हर' शब्द के श्लेष द्वारा कविजी एक गुप्त अर्थ प्रकट करते हैं कि सती के शरीर से जो वाम-भाग का आसन हर लिया था वह दिया 'विवृतोक्ति अलंकार' है।

पति-हिय-हेतु अधिक मन मानी। बिहँसि उमा बोली मृदु बानी॥
कथा जो सकल-लोक-हितकारी। सोइ पूछन चह सैल-कुमारी ॥३॥

स्वामी के हृदय में अपने ऊपर अधिक स्नेह मन मैं समझ कर पार्वतीजी हँस कर कोमल बानी बोली। जो समस्त लोकों की कल्याणकारिणी कथा है, वही पर्वती राज की कन्या पूचना चाहती हैं ॥३॥

पर्वत परोपकारी होते हैं, तव पर्वत की कन्या का लोकोपकारिणी होना अर्थात् कारण के समान कार्य का वर्णन 'द्वितीय सम अलंकार' है। 'शैलकुमारी' संज्ञा साभिप्राय होने से परिकराङ्कुर की ध्वनि व्यज्जित होती है। सभा की प्रति में 'अधिक अनुमानी' पाठ है।

बिस्वनाथ मम-नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा । सकल करहिँ पद-पङ्कज-सेवा ॥४॥

है विश्वनाथ, मेरे स्वामी, त्रिपुर के बैरी! आप की महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चेतन, जड़, नाग, मनुष्य और देवता सब आप के चरण कमलों की सेवा करते हैं ॥४॥

दो॰—प्रभु समरथ सरबज्ञ सिव, सकल कला-गुन धाम।
जोग-ज्ञान-बैराग्य-निधि, प्रनत-कलपतरु नाम ॥१०७॥

आप प्रभु, समर्थ, सर्वश, कल्याण-रूप, सम्पूर्ण कला (हुनर) और गुणों के स्थान है। योग, ज्ञान, वैराज्ञ के भण्डार और आपका नाम भक्तजनों के लिए कल्पवृक्ष है ॥१०७॥

चौ॰—जौँ माे पर प्रसन्न सुखरासी। जानिय सत्य माहि निज-दासी॥
तौ प्रभु हरहु मोर अज्ञानी। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥१॥

हे सुख के राशि! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी सेवकिन जानते हैं तो हे स्वामिन्! मेरी आज्ञनता को रघुनाथजी की नाना तरह की कथा कह कर दूर कीजिए 'वक्रोक्ति अलंकार' ॥१॥

जासु भवन सुरतरु तर होई। सह कि दरिद्र-जनित-दुख साेई॥
ससि-भूषन अस हृदय बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥२॥

जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, क्या वह दरिद्रता से उत्पन्न दुःख सहन कर सकता है? (कदापि नहीं) हे चन्द्रभूषण नाथ! ऐसा मन में विचार कर मेरी बुद्धि का भारी भ्रम दूर कीजिए ॥२॥

प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिँ राम कहँ ब्रह्म अनादी॥
सेष सारदा बेद पुराना। सकल करहिँ रघुपति-गुन-गाना ॥३॥

है प्रभो! जो सम्यकज्ञान के वक्ता मुनि हैं, वे रामचन्द्रजी को अनादिब्रह्म कहते हैं। शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सब रघुनाथजी के गुणों का गान करते हैं ॥३॥

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनङ्ग-अराती॥
राम सो अवध-तृपति-सुत साई। की अज अगुन अलख-गति कोई ॥४॥

हे काम के शत्रु! फिर दिनरात आदर के साथ आपभी राम राम जपते हैं। वह राम वही अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र हैं कि कोई अप्रत्यक्ष, निर्गुण और अजन्में (कभी शरीर न धारण करनेवाले) हैं ॥४॥

दो॰—जौँ नृप-तनय त ब्रह्म किमि, नारि बिरह मति भोरि।
देखि चरित महिमा सुनत, भ्रमति बुद्धि अति माेरि ॥१०८॥

यदि राजपुत्र हैं तो वे ब्रह्म कैसे हो सकते हैं? जिनकी बुद्धि स्त्री के वियोग से वावली हुई थी, उनका चरित्र देख कर और महिमा सुन कर मेरी बुद्धि बड़े भ्रम में पड़ी है ॥१०८॥

चौ॰—जौँ अनीह व्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अज्ञ जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि विधि मोह मिटइ सोइ करहू ॥१॥

यदि निस्पृह व्यापक ब्रह्म कोई दूसरा है तो हे नाथ! वह भी मुझे समझा कर कहिए। नासमझ जान कर मन में क्रोध न लाइये, जिस तरह मेरा अज्ञान मिटे वहीं कीजिए ॥१॥

मैँ बन दीख राम प्रभुताई। अति-भय-विकल न तुम्हहिँ सुनाई॥
तदपि मलिन मनबोधन आवा। साे फल भली भाँति हम पावा ॥२॥

मैं ने रामचन्द्रजी की प्रभुता वनमें देखी, पर अत्यन्त भयसे व्याकुल होकर आपको नहीं सुनाया। तो भी मेरे पापी मन को ज्ञान न हुआ, उसका फल हमने भली भाँति पाया ॥२॥

अजहूँ कछु संसय मन मोरे। करहु कृपा विनवउँ कर जोरे॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥३॥

अब भी मेरे मन में कुछ सन्देह है, मैं हाथ जोड़ कर विनती करती हूँ, कृपा कीजिए। तब स्वामी ने मुझे बहुत तरह से समझाया था, हे नाथ! वह समझ कर क्रोध न कीजिए ॥३॥

तब कर अस बिमाेह अब नाहीँ। राम-कथा पर रुचि मन माहीँ॥
कहहु पुनीत राम-गुन-गाथा। भुजगराज-भूषन सुर-नाथा ॥४॥

तब के ऐसा अज्ञान अब नहीं है, मन में रामकथा में रुचि है। हे शेषनाग के भूषण धारण करनेवाले देवताओं के मालिक! रामचन्द्रजी के पवित्र गुणों की कथा कहिए ॥४॥

दो॰—बन्दउँ पद धरि धरनि सिर, विनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर-बिसद-जस, स्त्रुति-सिद्धान्त निचोरि ॥१०९॥

मैं धरती पर मस्तक रख आप के चरणों की वन्दना कर हाथ जोड़ विनती करती हूँ। वेद का सिद्धान्त निचोड़ कर रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन कीजिए ॥१०९॥

चौ॰—जदपि जोषिता अनअधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढउ तत्व न साधु दुरावहिँ। आरत अधिकारी जहँ पावहिँ ॥१॥

यद्यपि स्त्रियाँ अनधिकारिणी हैं, तो भी मैं मन, कर्म और वचन से आपकी दासी हूँ। सज्जन लोग छिपी हुई वास्तविकता (सारवस्तु) को नहीं छिपाते, जहाँ वे आतुर अधिकारी पाते हैं ॥१॥

सभा की प्रति में 'नहिँ अधिकारी' पाठ है।

अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम साे कारन कहहु बिचारी। निर्गुन-ब्रह्म सगुन-जपु-धारी ॥२॥

हे देवराज! मैं बड़ी दोनता से पूछती हूँ, दया कर के रघुनाथजी की कथा कहिए। पहिले वह कारण विचार कर वर्णन कीजिए कि निर्गुण ब्रह्म शरीर धारण कर सगुण कैसे हुए? ॥२॥

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाही। राज तजा सो दूषन काही ॥३॥

हे प्रभो! फिर रामचन्द्रजी का जन्म कहिए, फिर श्रेष्ठ वाललीला वर्णन कीजिए। जिस प्रकार जानकी से विवाह हुआ वह कहिए और राज्यत्याग किया वह किसका दोष है? ॥३॥

बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज वैठि कीन्ही बहु लीला। सकल कहहु सङ्कर सुभ-सीला ॥४॥

वन में रह कर अपार चरित्र किए, हे नाथ! जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए। राज्य पर बैठ कर बहुत प्रकार की लालाएँ कीं, हे सुख के निधान शङ्करजी! ये सब कहिए ॥४॥

दो॰—बहुरि कहहु करुनायतन, कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंस-मनि, किमि गवने निज-धाम ॥११०॥

हे दयानिधे! फिर रघुकुल-भूषण रामचन्द्रजी ने जो आश्चर्य किया वह कहिए कि प्रजाओं के सहित अपने धाम (वैकुण्ठ) को कैसे गये? ॥११०॥

चौ॰—पुनि प्रभु कहहु सातत्व बखानी। जेहि बिज्ञान मगन मुनिज्ञानी।
भगति ज्ञान बिज्ञान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥१॥

हे प्रभो! फिर उस यथार्थता को बखान कर कहिए जिस विशेषज्ञान में ज्ञानी मुनि मग्न रहते हैं। फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य सब को अलग अलग वर्णन कीजिए ॥१॥

अउरउ राम-रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैँ पूछा नहिँ होई। सोउ दयाल राखहु जनि गाेई ॥२॥

और भी रामचन्द्रजी के अनेक रहस्य (छिपी हुई लीला) हैं, हे नाथ! आप अतिशय निर्मल ज्ञानवाले हैं, उन्हें कहिए। हे दयालु प्रभो! जो मैं ने न पूछा हो, उसे भी छिपा न रखिए (वर्णन कीजिये) ॥२॥

पार्वतीजी ने चौदह प्रश्न किये, वे क्रमशः ये हैं। (१) दया कर के रघुनाथजी की कथा कहिए। (२) निर्गुण ब्रह्म शरीरधारी सगुण कैसे हुए? (३) राम अवतार। (४) बाललीला। (५) जानकी को कैसे विवाहा। (६) राज्य किसके दोष से तजा (७) वन में अनेक लीलाएँ कीं। (८) जैसे रावण को मारा। (९) राज्य पर बैठ कर बहुतेरी लीलाएँ की। (१०) प्रजा सहित कैसे स्वधाम गये। (११) ज्ञानी मुनि किस तत्वज्ञान में डूबे रहते हैं। (१२) भक्ति, ज्ञान, विज्ञान वैराग्य कहिए। (१३) और भी रामचन्द्रजी की गुप्तलीलाएँ। (१४) जो मैं ने न पूछा हो वह भी छिपा न रहिए, कहिये।

तुम्ह त्रिभुवन गुरु बेद बखाना। आन जोव पाँवर का जाना।
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥३॥

आप को वेद नीनों लोको का गुरु बखानते हैं, आप के समान दूसरे नीच जीव क्या जान सकते हैं। पार्वती के सरल सुन्दर छल-रहित प्रश्न सुन कर शिवजी के मन में अच्छे लगे ॥३॥

'प्रश्न' शब्द को सर्वत्र गोसाँईजी ने स्त्रीलिङ्ग मान कर प्रयोग किया है।

हर हिय राम-चरित सब आये। प्रेम पुलक लोचन जलं छाये।
श्रीरघुनाथ-रूप उर आवा। परमानन्द अमित सुख पावा ॥४॥

शिवजी के हृदय में सब रामचन्द्रजी के चरित्रों का स्मरण हो आया, शरीर प्रेम से पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आये। श्रीरघुनाथजी का रूप हृदय में आया जिससे वे अत्युत्तम अपार आनन्द को प्राप्त हुए ॥४॥

दो॰—भगन ध्यान-रस दंड जुग, पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति-चरित महेस तब, हरषित बरनइ लीन्ह ॥१११॥

दो घड़ी पर्यन्त ध्यान के आनन्द में मग्न रहे, फिर मन को (ध्यान से) बाहर किया। तब प्रसन्न होकर शिवजी रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे ॥१११॥

चौ॰—झूठउ सत्य जाहि विनु जाने। जिमि भुजङ्ग बिनु रजु पहिचाने॥
जेहि जाने जग जाइ हेराई। जागे जथा सपन भ्रम जाई ॥१॥

जिनके विना जाने झूठ (संसार) भी ऐसा सच मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप की भ्रान्ति होती है। जिनके जान लेने पर संसार इस तरह खो जाता है, जैसे जागने पर स्पप्न का भ्रम (बिना किसी यत्न के आप ही आप) दूर हो जाता है ॥१॥

बन्दउँ बाल-रूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मङ्गल-भवन अमङ्गल-हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर-बिहारी ॥२॥

मैं उन बालक-रूप रामचन्द्रजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त होती हैं। मङ्गल के स्थान, अमङ्गल के हरनेवाले और महाराज दशरथ के आँगन में विहार करनेवाले, वे ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हो ॥२॥

करि प्रनाम रामहिँ त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराज-कुमारी। तुम्ह समान नहिँ कोउ उपकारी ॥३॥

रामचन्द्रजी को प्रणाम करके शङ्करजी हर्षित होकर अमृत के समान (मधुर) वाणी बोले। हे पर्वतराज की कन्या! धन्य हो, धन्य हो, तुम्हारे समान कोई परोपकारी नहीं है ॥३॥

पूछेहु रघुपति-कथा प्रसङ्गा। सकल-लोक जग-पावनि गङ्गा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कोन्हिहु प्रस्न जगत-हित लागो ॥४॥

तुमने रघुनाथजी की कथा के सम्बन्ध में पूछा, जो जगत् में सब लोगों को पवित्र करने के लिये गङ्गा है। तुम रघुवीर के चरणों की प्रेमी हो, संसार की भलाई के लिए प्रश्न किया है ॥४॥

दो॰—रामकृपा तेँ पारबति, सपनेहुँ तब मन माहिँ।
सोक मोह सन्देह भ्रम, मम बिचार कछु नाहिँ ॥११२॥

हे पार्वती! रामचन्द्रजी की कृपा से तुम्हारे मन में मेरे विचार से शोक, मोह, सन्देह, भ्रम कुछ स्वप्न में भी नहीं है ॥११२॥

गुटका में 'राम कृपा ते हिमसुता' पाठ है, पर वह ठीक नहीं है। हिमगिरिसुता शुद्ध है न कि हिमसुता।

चौ॰—तदपि असङ्का कीन्हिहु साेई। कहत सुनत सब कर हित हाई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिँ काना। खवन-रन्ध्र अहि-भवन समाना ॥१॥

तो भी वह बिना सन्देह का सन्देह तुमने किया, जिसके कहने सुनने में सब की भलाई होगी। जिन्होंने भगवान की कथा कान से नहीं सुनी, उमके कान के छेद साँप के बिल के समान हैं ॥१॥

नयनन्हि सन्त दरस नहिँ देखा। लोचन माेर-पड़्ख कर लेखा॥
ते सिर कटु-तूँचरि समतूला। जे न नमन हरि-गुरु-पद-मूला ॥२॥

सन्तों को देख कर जिन आँखों ने अवलोकन नहीं किया, उन नेत्रों की गिनती मुरैले के पट्टे की है। वे सिर तितलौकी के समान हैं, जो हरि और गुरु के चरणों में नमित नहीं होते ॥२॥

जिन्ह हरिभगति हृदय नहिँ आनी। जीवत सव समान ते प्रानी॥
जो नहिँ करइ राम-गुन-गाना। जीह सा दादुर-जीह समाना ॥३॥

जिन्होंने हृदय में भगवान की भक्ति नहीं ले आई, वे प्राणी मुर्दे के समान जीते हैं। जो रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह जीभ मेढक की जिह्वा (शून्य) के बराबर है ॥३॥

कुलिस-कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरि-चरित न जो हरपाती।
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर-हित दनुज-बिमोहन-सोला ॥४॥

वह छाती बज्र के समान कठोर और निर्दयी है जो भगवान का चरित्र सुन कर हर्षित न होती हो। हे गिरिजा! सुनो, रामचन्द्रजी की लीला देवताओं का कल्याण करनेवाली और दैत्यों को अधिक अज्ञान में डालनेवाली है ॥४॥

एक ही 'रामलीला' का देवों की हितकारिणी और दैत्यों को अहितकारिणी होना 'प्रथम व्याघात अलंकार' है।

दो॰—रामकथा सुरधेनु सम, सेवत सब सुख-दानि।
सतसमाज सुरलोक सब, को न सुनइ अस जानि ॥११३॥

रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब को सुख देनेवाली है। सब सज्जन-मण्डली देवलोक है, (जहाँ पर यह कामधेनु निवास करती है) ऐसा जान कर कौन न सुनेगा? (सभी श्रवण करेंगे) ॥११३॥

चौ॰—रामकथा सुन्दर करतारी। संसय-बिहग उड़ावनिहारी॥
रामकथा कलि-बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराज-कुमारी ॥१॥

सन्देह रूपी पक्षी को उड़ाने के लिए रामचन्द्रजी की कथा सुन्दर हाथ की ताली है। हे पर्वतराज की कन्या! आदर-पूर्वक सुनो, कलिरूपी वृक्ष को काटने के लिए रामकथा कुल्हाड़ी है ॥१॥

राम नाम गुन चरित सुहाये। जनम करम अगनित सुति गाये॥
जथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना ॥२॥

रामचन्द्रजी के सुन्दर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म अनेक प्रकार श्रुतियों ने गान किया है। जिस तरह भगवान् रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, नामवरी और गुण अपार हैं ॥२॥

तदपि जथा-सुत जसि मति माेरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तारी॥
उमा प्रस्न तब सहज सुहाई। सुखद सन्त सम्मत माहि भाई ॥३॥

तो भी जैसा सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है तदनुसार तुम्हारी अतिशय प्रीति देख कर कहूँगा। हे उमा! तुम्हारे प्रश्न सहज सुहावने, सन्त-सम्मत, सुखदायक और मुझे प्रिय खगनेवाले हैं ॥३॥

'प्रश्न' शब्द स्त्रीलिङ्ग मान कर मूल में प्रयोग हुआ है। जैसा कि पीछे १११ वे दोहे के ऊपर (पहले) वाली चौपाई में है।

एक बात नहिँ माहि सुहानी। जदपि मोह-बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि खुति गाव धरहिँ मुनिध्याना॥४॥

हे भवानी! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि तुमने अज्ञान के वश होकर कही है। जो यह कहा कि जिनको वेद गाते हैं और, मुनि ध्यान धरते हैं, वे रामचन्द्र कोई दूसरे हैं ॥४॥

पहले शिवजी कह पाये हैं कि हे पार्वती! मेरे विचार से तुम्हारे मन में शोक, मोह, सन्देह, भ्रम कुछ नहीं है और तुम्हारे प्रश्न सुखदायक, सुहावने, सन्त-सम्मत, मुझे प्रिय लगनेवाले हैं। फिर अपनी ही कही हुई बात को समझ कर निषेध करते हुए दूसरी बात कहना कि मोहवश ऐसा कहती हो यह कहनूत मुझे प्रिय नहीं लगी 'उक्ताप अलंकार' है।

दो॰—कहहिँ सुनहिँ अस अधम नर, ग्रसे जे माह पिसाच।
पाखंडी हरि-पद-बिमुख, जानहिँ झूठ न साँच ॥१९४॥

जो अधम मनुष्य अज्ञान रूपी पिशाच से ग्रसित हैं ऐसा वेही कहते और सुनते हैं। भगवान् के पद से विमुख, पाखण्डी जो झूठ सच जानते ही नहीं ॥११४॥

चौ॰—अज्ञ अकोबिद अन्ध अभागी। काई बिषय मुकुर-मन लागी॥
लम्पद कपटी कुटिल बिसेखी। सपनेहुँ सन्त-सभा नहिँ देखी ॥१॥

अज्ञानी, मूर्ख, अन्धे और भाग्यहीन जिनके मन रूपी दर्पण में विषय रूपी काई (मैल) लगी है। व्यभिचारी, धोखेबाज़ और बड़े ही दुष्ट हैं, जिन्होंने स्वप्न में भी सन्तों की सभा नहीं देखी ॥१॥

कहहिँ ते बेद असम्मत बानी। जिन्हहिँ न सूझ लाभ नहि हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम-रूप देखहिँ किमि दीना ॥२॥

वे वेद-विरुद्ध बाते कहते हैं जिनको न लाभ सूझता है न हानि। दर्पण मैला और आँख से रहित (अन्धे) हैं वे ग़रीब रामचन्द्रजी के रूप को कैसे देख सकते हैं? ॥२॥

जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिँ कल्पित बचन अनेका॥
हरि-माया-बस जगत भ्रमाहीँ। तिन्हहिँ कहत कछु अघटित नाहीँ ॥३॥

जिनको निर्गुण और सगुण का ज्ञान नहीं है, जो अनेक तरह की बनावटी बातें बकते हैं; भगवान् की माया के अधीन होकर संसार में भ्रमते हैं, उन्हें कुछ भी कहना असम्भव नही है ॥३॥

बातुल भूत-बिबस मतवारे। ते नहिँ बोलहिँ बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महा-मोह-मद पाना। तिन्ह कर कहा करिय नहिँ काना ॥४॥

जो बकवादी प्रेत के अधीन होकर मतवाले हुए हैं वे विचार कर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने महामोह रूपी मदिरा का पान किया है, उनके (भव्याभव्य) कहने पर काम न करना चाहिए ॥४॥

वाक्यार्थ में असत् की एकता 'प्रथम निदर्शना अलंकार' है।

सो॰—अस निज हृदय बिचारि, तजु संसय भजु राम-पद।
सुनु गिरिराज-कुमारि, भ्रम-तम रबि-कर-वचन-मम ॥११५॥

ऐसा अपने मन में विचार कर सन्देह त्याग दो और रामचन्द्रजी के चरणों को भजो। है पर्वतराज की कन्या! सुनो, भ्रमरूपी अन्धकार के लिए मेरे वचन सूर्य के किरण रूप हैं ॥११५॥

चौ॰—सगुनहिँ अगुनहिँ नहिँ कछु भेदा। गावहिँ मुनि पुरान बुध वेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत-प्रेम-बस सगुन साे होई ॥१॥

सगुण में और निर्गुण में कुछ भेद नहीं है, मुनि, पुराण, पण्डित और वेद ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, बिना रूप का, अप्रत्यक्ष और अजन्मा है, वही भक्तों की प्रीति के वश सगुण होता है॥१॥

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे। जल-हिम-उपल बिलग नहिँ जैसे॥
जासु नाम भ्रम-तिमिर-पतङ्गा। तेहि किमि कहिय बिमाेह प्रसङ्गा ॥२॥

जो निर्गुण है वह कैसे सगुण होता है जैसे पानी, पाला और ओला भिन्न नहीं है। जिनका नाम भ्रमरूपी अन्धकार के लिए सूर्य है, उनके विषय में मोह (अज्ञान) की बाते कैसे कही जा सकती हैं? ॥२॥

जो निर्गुण है वह सगुण होता है। इस साधारण वात की विशेष से समता दिखाना कि जैसे पानी से पाला और बिनौरी पृथक नहीं, कारण से रूपान्तर हो जाते हैं 'उदाहरण अलंकार' है।

राम सच्चिदानन्द दिनेसा। नहिँ तहँ मोह-निसा-लवलेसा॥
सहज प्रकास-रूप भगवाना। नहिँ तहँ पुनि बिज्ञान बिहाना ॥३॥

रामचन्द्रजी परब्रह्म सूर्य रूप हैं, वहाँ अज्ञान रूपी रात्रि का लेशमात्र भी नहीं है। भगवान् सहज ही प्रकाश रूप हैं, फिर वहाँ तो ज्ञान का सबेरा होता ही नहीं (सदा मध्याहकाल बना रहता है)॥३॥

जैसे सूर्य के समीप रात्रि नहीं जा सकती, वैसे ही रामचन्द्रजी के निकट मोह का पसार नहीं हो सकता।

हरष बिषाद ज्ञान अज्ञाना। जीव-धरम अहमित अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना ॥१॥

हर्ष, विषाद, ज्ञान, अज्ञान, अहमत्व और धमण्ड जीव का धर्म है। रामचन्द्रजी व्यापक-ब्रह्म, परम आनन्द रूप, सब के स्वामी, पुराण-पुरुष हैं इसको जगत जानता है ॥४॥

'जग जाना' शब्द में लक्षित लक्षणा है; क्योकि जग जड़ पदार्थ है वह क्या जानेगा, इससे जगत के लोगों की लक्षणा है।

दो॰—पुरुष-प्रसिद्ध प्रकास-निधि, प्रगट परावर-नाथ।
रघुकुल-मनि मम स्वामि सोइ, कहि सिव नायउ माथ ॥११६॥

जो प्रसिद्ध पुरुष, प्रकाश के स्थान, जड़ चेतन के स्वामी, रघुकुल के रत्न रूप प्रकट हुए, वे ही मेरे इष्टदेव हैं, ऐसा कह कर शिवजी ने मस्तक नवाया ॥११६॥

परावर शब्द का अर्थ है, परब्रह्म इन्द्रादिक से लेकर, अवर अस्मदादि हम लोगों पर्यन्त अर्थात् जड़ चेतन।

चौ॰—निजभ्रम नहिँ समुझहिँ अज्ञानी। प्रभु परमोह धरहिँ जड़ प्रानी॥
जथा गगन धन-पटल निहारी झाँपेउ भानु कहहिँ कुभिचारी ॥१॥

अज्ञानी मनुष्य अपना नाम नहीं समझते, वे जड़ प्राणी ईश्वर पर मोह का आरोपण करते हैं। जैसे आकाश में बादलों का आवरण (पर्दा) देख छोटी समझ के लोग कहते हैं कि सूर्य ढँक गये ॥१॥

चित्तव जो लोचन अङ्गुलि लाये। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाये॥
उमा राम-विषयक अस माेहा। नभ तम-धूम-धूरि जिमि सोहा ॥२॥

जो आँख में उँगली लगाकर देखता है उसकी समझ में दो चन्द्रमा प्रत्यक्ष मालूम होते हैं। हे उमा! रामचन्द्रजी के विषय का मोह ऐसा है, जैसे आकाश में अन्धकार, धुआ और धूल सोहते हैं ॥२॥

रामचन्द्रजी के सम्बन्ध में मोह की बातें बिल्कुल मिथ्या हैं, इस बात की विशेष से समता दिखाना कि जैसे आंकाश में धूल, धुआँ और अन्धकार अर्थात् प्रकाश निर्लेप है। धून धरती का विकार, धुआ अग्नि का और तम सूर्य के अदृश्य होने का विकार है। कारण पाकर ये आकाश में फैलते और स्वयम् विलीन होते हैं। आंकाश इनके दोषों से सर्वथा अलग है, वह ज्यों का त्यों निर्मल बना रहता 'उदाहरण अलङ्कार' है।

विषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तेँ एक सचेता॥
सब कर परम-प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सेाई ॥३॥

विषय से इन्द्रियाँ, इन्द्रियों से देवता और देवताओं से जीवात्मा सब एक से दूसरे सजग (चौकन्ने) है। जो सब के परम प्रकाशक (चेतन करने वाले) हैं, वेही अयोध्या के राजा रामचन्द्रजी हैं ॥३॥

इन्द्रियों की व्याख्या उत्तरकांड में ११७ दोहा के अनन्तर छठीं चौपाई के नीचे देखो।