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रामनाम/४

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रामनाम
मोहनदास करमचंद गाँधी

अहमदाबाद - १४: नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, पृष्ठ १० से – १२ तक

 
रामनाम

बीजारोपण

छह-सात सालकी अुम्रसे लेकर १६ वर्ष तक विद्याध्ययन किया, परन्तु स्कूलमे मुझे कही धर्म-शिक्षा नहीं मिली। जो चीज शिक्षकोके पाससे सहज ही मिलनी चाहिये, वह न मिली। फिर भी वायुमडलमे से तो कुछ न कुछ धर्म-प्रेरणा मिला ही करती थी। यहा धर्मका व्यापक अर्थ करना चाहिये। धर्मसे मेरा अभिप्राय है आत्म-भानसे, आत्म-ज्ञानसे।

वैष्णव सप्रदायमे जन्म होनेके कारण बार-बार वैष्णव मदिर (हवेली) जाना होता था। परन्तु अुसके प्रति श्रद्धा न अुत्पन्न हुअी। मन्दिरका वैभव मुझे पसन्द न आया। मदिरोमे होनेवाले अनाचारोकी बाते सुन-सुनकर मेरा मन अुनके सम्बन्धमे अुदासीन हो गया। वहासे मुझे कोअी लाभ न मिला।

परन्तु जो चीज मुझे अिस मन्दिरसे न मिली, वह अपनी धायके पाससे मिल गयी। वह हमारे कुटुम्बमे अेक पुरानी नौकरानी थी। अुसका प्रेम मुझे आज भी याद आता है। मैं पहले कह चुका हूं कि मै भूत-प्रेत आदिसे डरा करता था। अिस रम्भाने मुझे बताया कि अिसकी दवा रामनाम है। किन्तु रामनामकी अपेक्षा रम्भा पर मेरी अधिक श्रद्धा थी। अिसलिअे बचपनमे मैने भूत-प्रेतादिसे बचनेके लिअे रामनामका जप शुरू किया। यह सिलसिला यो बहुत दिन तक जारी न रहा, परन्तु जो बीजारोपण बचपनमे हुआ, वह व्यर्थ न गया। रामनाम जो आज मेरे लिअे अेक अमोघ शक्ति हो गया है, अुसका कारण अुस रम्भाबाअीका बोया हुआ बीज ही है।

परन्तु जिस चीजने मेरे दिल पर गहरा असर डाला, वह तो थी रामायणका पारायण। पिताजीकी बीमारीका बहुतेरा समय पोरबन्दरमे गया। वहा वे रामजीके मदिरमे रोज रातको रामायण सुनते थे। कथा कहनेवाले थे रामचन्द्रजीके परम भक्त बिलेश्वरके लाधा महाराज। अुनके सम्बन्धमे यह कहानी प्रसिद्ध थी कि अुन्हे कोढ हो गया था। अुन्होने कुछ दवा न की—सिर्फ बिलेश्वर महादेव पर चढे हुअे बिल्वपत्रोको कोढवाले अगो पर बाधते रहे, और रामनामका जप करते रहे। अन्तमे अुनका कोढ समूल नष्ट हो गया। यह बात चाहे सच हो या झूठ, हम सुननेवालोने तो सच ही मानी। हा, यह जरूर सच है कि लाधा महाराजने जब कथा आरम्भ की थी, तब अुनका शरीर बिलकुल नीरोग था। लाधा महाराजका स्वर मधुर था। वे दोहा-चौपाअी गाते और अर्थ समझाते थे। खुद अुसके रसमे लीन हो जाते और श्रोताओको भी लीन कर देते थे। मेरी अवस्था अुस समय कोअी तेरह सालकी होगी, पर मुझे याद है कि अुनकी कथामे मेरा बहुत मन लगता था। रामायण पर जो मेरा अत्यन्त प्रेम है, अुसका पाया यही रामायण-श्रवण है। आज मै तुलसीदासकी रामायणको भक्तिमार्गका सर्वोत्तम ग्रथ मानता हू।

'आत्मकथा' से


नीतिरक्षाका अुपाय

मेरे विचारके विकार क्षीण होते जा रहे है। हा, अुनका नाश नही हो पाया है। यदि मै विचारो पर भी पूरी विजय पा सका होता, तो पिछले दस बरसोमे जो तीन रोग—पसलीका वरम, पेचिश और 'अपेडिक्स' का वरम—मुझे हुअे, वे कभी न होते।[]मै मानता हूं कि नीरोगी आत्मा का शरीर भी

  1. मै तो पूर्णताका अेक विनीत साधक मात्र हू। मै अुसका रास्ता भी जानता हू। परन्तु रास्ता जाननेका अर्थ यह नही है कि मै आखिरी मुकाम पर पहुच गया हू। यदि मै पूर्ण पुरुष होता, यदि मै विचारोमे भी अपने तमाम मनोविकारो पर पूरा आधिपत्य कर पाया होता, तो मेरा शरीर पूर्णताको पहुच गया होता। मै कबूल करता हू कि अभी मुझे अपने विचारो को काबूमे रखनेके लिअे बहुत मानसिक शक्ति खर्च करनी पडती है। यदि कभी मै अिसमे सफल हो सका, तो खयाल कीजिये कि शक्ति का कितना बडा खजाना मुझे सेवा के लिअे खुला मिल जायगा। मै मानता हू कि मेरी अपेडिसाअिटिसकी बीमारी मेरे मनकी दुर्बलताका फल थी और नश्तर लगवानेके लिए तैयार हो जाना भी वही मनकी दुर्बलता थी। यदि मेरे अदर अहकारका पूरा अभाव होता, तो मैने अपनेको होनहारके सुपुर्द कर दिया होता। लेकिन मैने तो अपने अिसी चोलेमे रहना चाहा। पूर्ण विरक्ति किसी यात्रिक क्रियासे प्राप्त नही होती। धीरज, परिश्रम और अीश्वरआराधनाके द्वारा अुस स्थितिमे पहुचना पडता है।—हिन्दी नवजीवन, ६-४-१९२४।