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कामायनी/वासना

विकिस्रोत से
(वासना/कामायनी से अनुप्रेषित)
कामायनी
जयशंकर प्रसाद
वासना

पृष्ठ ३८ से – ४६ तक

 

वासना

 
चल पड़े कब से हृदय दो, पथिक-से अश्रांत ,
यहाँ मिलने के लिए, जो भटकते थे भ्रांत ।
एक गृहपति, दूसरा था अतिथि विगत-विकार ,
प्रश्न था यदि एक, तो उत्तर द्वितीय उद्धार।
एक जीवन-सिंधु था, तो वह लहर लघु कलोल ,
एक नवल प्रभात, तो वह स्वर्ण-किरण अमोल ।
एक था आकाश वर्षा का सजल उद्दाम ;
दूसरा रंजित किरण से श्री-कलित घनश्याम ।
नदी-तट के क्षितिज में नव-जलद सायंकाल-
खेलता-दो बिजलियों से ज्यों मधुरिमा-जाल ।
लड़ रहे अविरत युगल थे चेतना के पाश ;
एक सकता था न कोई दूसरे को फाँस ।
था समर्पण में ग्रहण का एक सुनिहित भाव ,
थी प्रगति, पर अड़ा रहता था सतत अटकाव ।
चल रहा था विजन-पथ पर मधुर जीवन-खेल ,
दो अपरिचित से नियति अब चाहती थी मेल ।
नित्य परिचित हो रहे तब भी रहा कुछ शेष ,
गूढ़ अंतर का छिपा रहता रहस्य विशेष ।
दूर, जैसे सघन वन-पथ-अंत का आलोक-
सतत होता जा रहा हो, नयन की गति रोक ।

गिर रहा निस्तेज गोलक जलधि में असहाय ,
धव-पटल में डूबता था किरण का समुदाय ।
कर्म का अवसाद दिन से कर रहा छल-छंद ,
मधुकरी का सुरस-संचय हो चला अब बंद ।
उठ रही थी कालिमा धूसर क्षितिज से दीन ,
भेंटता अंतिम अरुण आलोक-वैभवं-हीन ।
यह दरिद्र-मिलन रहा रच एक करुणा लोक ,
शोक भर निर्जन निलय से बिछुड़ते थे कोक ।
मनु अभी तक मनन करते थे लगाये ध्यान,
काम के संदेश से ही भर रहे थे कान ।
इधर गृह में आ जुटे थे उपकरण अधिकार ,
शस्य,पशु या धान्य का होने लगा संचार ।
नई इच्छा खींच लाती,अतिथि का संकेत-
चल रहा था सरल-शासन युक्त-सुरुचि-समेत ।
देखते हुए ये अग्निशाला से कुतूहल-युक्त ,
मनु चमत्कृत निज नियति का खेल बंधन-मुक्त।

एक माया ? आ रहा था पशु अतिथि के साथ ,
हो रहा था मोह करुणा से सजीव सनाथ ।
चपल कोमल-कर रहा फिर सतत पशु के अंग ,
स्नेह से करता चमर-उद्ग्रीव हो वह संग ।
कभी पुलकित रोमराजी से शरीर उछाल ,
भांवरों से निज बनाता अतिथि सन्निधि जाल ।
कभी निज भोले नयन से अतिथि बदन निहार ,
सकल संचित-स्नेह देता दृष्टि-पथ से ढार ।
और वह पुचकारने का स्नेह शबलित चाव ,
मंजु ममता से मिला बन हृदय का सद्भाव ।
देखते-ही-देखते दोनों पहुंच कर पास ,
लगे करने सरल शोभन मधुर मुग्ध विलास ।

वह विराग-विभूति ईर्षा-पवन से हो व्यस्त,1
बिखरती थी और खुलते ज्वलन-कण जो अस्त।
किन्तु यह क्या? एक तीखी घूँट, हिचकी आह ।
कौन देता है हृदय में वेदनामय डाह ?

आह यह पशु और इतना सरल सुंदर स्नेह !
पल रहे मेरे दिये जो अन्न से इस गेह।
मैं ? कहाँ मैं ? ले लिया करते सभी निज भाग ,
और देते फेंक मेरा प्राप्य तुच्छ विराग !
अरी नीच कृतघ्नते ? पिछल-शिला-संलग्न ,
मलिन काई-सी करेगी हृदय कितने भग्न ?
हृदय का राजस्व अपहृत कर अधम अपराघ ,
दस्यु मुझसे चाहते हैं सुख सदा निर्बाध ।
विश्व में जो सरल सुंदर हो विभूति महान
सभी मेरी हैं, सभी करती रहें प्रतिदान।
यही तो, मैं ज्वलित वाडव-वह्नि नित्य-अशांत ,
सिंधु लहरों सा करें शीतल मुझे सब शांत ।"

आ गया फिर पास क्रीड़ाशील अतिथि उदार ,
चपल शशव सा मनोहर भूल का ले भार ।
कहा-“क्यों तुम अभी बैठे ही रहे धर ध्यान ,
देखती हैं आँख कुछ, सुनते रहे कुछ कान--
मन कहीं, यह क्या हुआ है ? आज कैसा रंग ?"
नत हुआ फण दृप्त ईर्षा का, विलीन उमंग ।
और सहलाने लगा कर-कमल कोमल कांत ,
देख कर वह रूप-सुषमा मनु हुए कुछ शांत ।

कहा--"अतिथि ? कहाँ रहे तुम किधर थे अज्ञात ?
और यह सहचर तुम्हारा कर रहा क्यों बात-- ?
किसी सुलभ भविष्य की, क्यों आज अधिक अधीर ?
मिल रहा तुमसे चिरंतन स्नेह सा गंभीर ?
कौन हो तुम खींचते यों मुझे अपनी ओर !
और ललचाते स्वयं हटते उधर की ओर !
ज्योत्स्ना-निर्भर ! ठहरती ही नहीं यह आँख ,
तुम्हें कुछ पहचानने की खो गयी-सी साख ।
कौन करुण रहस्य है तुममें छिपा छविमान ?
लता-वीरुध दिया करते जिसे छायादान ।
पशु कि हो पाषाण सब में नृत्य का नव छंद ,
एक आंलिगन बुलाता सभा को सानंद।
राशि-राशि बिखर पड़ा है शांत संचित प्यार ,
रख रहा है उसे ढोकर दीन विश्व उधार ।
देखता हूँ चकित जैसे ललित लतिका-लास ,
अरुण घन की सजल छाया में दिनांत निवास--
और उसमें हो चला जैसे सहज सविलास ,
मदिर माधव-यामिनी का धीर-पद-विन्यास ।
आह यह जो रहा सूना पड़ा कोना दीन--
ध्वस्त मंदिर का, बसाता जिसे कोई भी न--
उसी में विश्राम माया का अचल आवास ,
अरे यह सुख नींद कैसी, हो रहा हिम-हास !
वासना की मधुर छाया ! स्वास्थ्य, बल, विश्राम !
हृदय की सौंदर्य्य-प्रतिमा ! कौन तुम छविघाम !
कामना की किरन का जिसमें मिला हो ओज ,
कौन हो तुम, इसी भूले हृदय की चिर-खोज !
कुंद-मंदिर-सी हँसी ज्यों खुली सुषमा बाँट ;
क्यों न वैसे ही खुला यह हृदय रुद्ध-कपाट ?
"

कहा हँसकर--"अतिथि हूं मैं, और परिचय व्यर्थ ,
तुम कभी उद्विग्न इतने थे न इसके अर्थ ।
चलो, देखो वह चला आता बुलाने आज--
सरल हँसमुख विधु जलद-लघु-खंड-वाहन साज !
कालिमा घुलने लगी घुलने लगा आलोक ,
इसी निभूत अनंत में बसने लगा अब लोक ।
इस निशामुख की मनोहर सुधामय मुसक्यान ,
देख कर सब भूल जायें दुःख के अनुमान ।
देख लो, ऊँचे शिखर का व्योम-चुंबन-व्यस्त--
लौटना अंतिम किरण का और होना अस्त ।
चलो तो इस कौमुदी में देव आवें आज ,
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन, साधना का राज ।"

सृष्टि हँसने लगी आंखों में खिला अनुराग ,
राग-रंजित चंद्रिका थी, उड़ा सुमन-पराग ।
और सता था अतिथि मनु का पकड़कर हाथ ,
चले दोनों के स्वप्न-पथ में, स्नेह-संबल साथ ।
देवदारु निकुंज गह्वर सब सुधा में स्नात ,
सब मनाते एक उत्सव जागरण की रात ।
था रही थी मदिर भीनी माधवी की गंध ,
पवन के घन घिरे पड़ते थे बने मधु-अंध ।
शिथिल अलसाई पड़ी छाया निशा की कांत--
सो रही थी शिशिर कण की सेज पर विश्रांत ।
उसी झुरमुट में हृदय की भावना थी भ्रांत ,
जहाँ छाया सृजन करती थी कुतूहल कांत ।

कहा मनु ने -"तुम्हें देखा अतिथि ! कितनी बार ,
किंतु इतने तो न थे तुम दबे छवि के भार !

पूर्व-जन्म कहें कि या स्पृहणीय मधुर अतीत
गूँजते जब मंदिर घन में वासना के गीत ।
भूलकर जिस दृश्य को मैं बना आज अचेत,
वही कुछ सव्रीड़, सस्मित कर रहा संकेत ।
'मैं तुम्हारा हो रहा' हूँ' यही सुदृढ़ विचार,
चेतना का परिधि बनता धूम चक्राकार ।
मधु बरसती विधु किरन है काँपती सुकुमार ?
पवन में है पुलक, मंथर चल रहा मधु -भार ।
तुम समीप, अधीर इतने आज क्यों है प्राण ?
छक रहा है किस सुरभि से तृप्त होकर घ्राण  ?
आज क्यूंकि संदेह होता रूठने का व्यर्थ,
क्यों मनाना चाहता-सा बन रहा असमर्थ !
धमनियों में वेदना रक्त का संचार,
हृदय में है कंपती धड़कन, लिये लघु भार !
चेतना रंगीन ज्वाला परिधि में सानंद
मानती-सी दिव्य-कुछ गा रही है छंद ।
अग्निकीट समान जलती है भरी उत्साह ,
और जीवित है, न छाले हैं न उसमें दाह !
कौन हो तुम विश्व-माया-कुहक-सी साकार ,
प्राण-सत्ता के मनोहर भेद-सी सुकुमार !
हृदय जिसकी कांत छाया में लिये निश्वास ,
थके पथिक समान करता व्यजन ग्लानि विनाश ।"

श्याम-नभ में मधू-किरण-सा फिर वही मृदु हास,
सिंधु की हिलकोर दक्षिण का समीर-विलास !
कुंज में गुंजरित कोई मुकुल सा अव्यक्त-
लगा कहने अतिथि, मन थे सुन रहे अनुरक्त-
"यह अतृप्ति अधीर मन की, क्षोभयुत उन्माद ,
सखे ! तुमुल-तरंग-सा उच्छ्वासमय संवाद।

मत कहो, पूछो न कुछ, देखो न कैसी मौन,
विमल राका-मूर्त्ति बन कर स्तब्ध में बैठा कौन !
विभव मतवाली प्रकृति का आवरण वह नील ,
शिथिल है, जिस पर बिखरता प्रचुर मंगल खील।
राशि-राशि नखत-कुसुम की अर्चना अश्रांत ,
बिखरती है, तामरस सुंदर चरण के प्रांत ।

मनु निरखने लगे ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप ,
वह अनंत प्रगाढ़ छाया फैलती अपरूप,
बरसता था मदिर कण-सा स्वच्छ सतत अनंत ,
मिलन का संगीत होने लगा था श्रीमंत ।
छूटती चिनगारियां उत्तेजना उद्भांत।
धधकती ज्वाला मथुर, था वक्ष विकल अशांत।
वातचक्र समान कुछ था बाँधता आवेश,
धैर्य का कुछ भी न मनु के हृदय में था लेश।

कर पकड़ उन्मत से हो लगे कहने--"आज,
देखता दूसरा कुछ मधुरिमामय साज !
वही छवि ! हाँ वही जैसे ! किंतु गया यह भूल ?
रही विस्मृति-सिंधु में स्मृति-नाव विकल अकूल !
जन्म-संगिनि एक थी जो कामबाला नाम--
मधुर श्रद्धा था, हमारे प्राण को विश्राम--
सतत मिलता था उसी से, अरे जिसको फूल
दिया करते थे अर्घ में मकरंद सुषमा-मूल
प्रणय में भी बच रहे हम फिर मिलन का मौद
रहा मिलने को बचा सूने जगत की गोद!
ज्योत्स्ना सी निकल आई ! पार कर नीहार,
प्रणय-विधु है खड़ा नभ में लिये तारक हार!

कुटिल कुंतल से बनाती कालमाया जाल--
नीलिमा से नयन की रचती तमिस्रा साल।
नींद-सी दुर्भेद्य तम की, फेंकती यह दृष्टि ,
स्वप्न-सी है बिखर जाती हँसी की चल-सुष्टि।
हुई केंद्रीभूत-सी है साधना की स्फूर्त्ति ,
दृढ़--सकल सुकुमारता में रम्य नारी-मूर्त्ति।
दिवाकर दिन या परिश्रम का विकल विश्रांत
मैं पुरुष, शिशु-सा भटकता आज तक था भ्रांत ।
चंद्र की विश्राम राका बालिका-सी कांत ,
विजयिनी सी दीखती तुम माधुरी-सी शांत।
पददलित-सी थकी व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत ,
शस्य-श्यामल भूमि में होती समाप्त अशांत ।
आह ! वैसा ही हृदय का बन रहा परिणाम ,
पा रहा हूं आज देकर तुम्हीं से निज काम।
आज ले लो चेतना का यह समर्पण दान ।
विश्व-रानी ! सुंदरी नारी ! जगत की मान !

धूम-लतिका-सी गगन-तरु पर न चढ़ती दीन,
दबी शिशिर-निशीथ में ज्यों ओस-भार नवीन ।
झुक चली सव्रीड़ वह सुकुमारता के भार ,
लद गई पाकर पुरुष का नर्ममय उपचार।
और वह नारीत्व का जो मूल मधु अनुभाव ,
आज जैसे हँस रहा भीतर बढ़ाता चाव ।
मधुर व्रीडा-मिश्र चिंता साथ ले उल्लास ,
हृदय का आनंद-कूजन लगा करने रास ।
गिर रहीं पलकें, झुकी थी नासिका की नोक ,
भ्रूलता थी कान तक चढ़ती रही बेरोक ।
स्पर्श करने लगी लज्जा ललित कर्ण कपोल ;
खिला पुलक कदंब सा था भरा गद्गगद् बोल।

किन्तु बोली--"क्या समर्पण आज का हे देव !
बनेगा-- चिर-बंध-- नारी-हृदय-हेतु-- सदैव ।
आह मैं दुर्बल, कहो क्या ले सकूंगी दान !
वह जिसे उपभोग करने में विकल हों प्रान?
"