वैशाली की नगरवधू/20. साकेत

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20. साकेत

कोसल-नरेश प्रसेनजित् साकेत में ठहरे थे, वे सेठी मृगार के पुत्र पुण्ड्रवर्धन के ब्याह में सदलबल साकेत आए थे। राजधानी श्रावस्ती यहां से छह योजन पर थी। सरयू के तट पर बसा यह नगर उस समय प्राची से उत्तरापथ के सार्थ-पथ पर बसा होने के कारण स्थल व्यापार और नौ-व्यापार दोनों ही का मुख्य केन्द्र था। उन दिनों सरयू आज के समान ऐसी क्षीणकाय न थी, उसका विस्तार डेढ़ मील में था और उसमें बड़े-बड़े पोत चलते थे। उस समय साकेत भारत के छह प्रमुख नगरों में एक था।

प्रसेनजित् का यहां एक दुर्ग और हर्म्य था; उसी में महाराज प्रसेनजित् अवस्थित थे। आम बौरा रहे थे और उनकी सुगन्ध से मत्त भौरों के गुञ्जन वातावरण में गूंज रहे थे। वृक्षों ने नवीन कोमल और मृदुल परिधान धारण किया था, शीत कम हो गया था। सान्ध्यक्षण मनोरम था, अस्तंगत सूर्य की लाल-लाल किरणें नव कुसुमित वृक्षों पर लोहित प्रभा बिखेर रही थीं। साकेतवासी तरुण-तरुणियां स्वच्छन्द सान्ध्य-समीरण का आनन्द लेने सरयू-तट पर इकट्ठे थे। बहुत रजतसिकता पर नंगे पैर चलकर विनोद कर रहे थे। बहुत नंगे-बदन तैराकी प्रतियोगिता की होड़ लगा रहे थे। तरुणियों में अनेक कोमल, नवीन केले के मनोहर वर्णवाली आर्य ललनाएं थीं। बहुत चम्पकवर्णी रूप-यौवन भार से लदी विश तरुणियां थीं। कितनी ही कर्पूर-सम उज्ज्वलवर्णा यवनियां थीं, जिनका सुगौर चिक्कण, सुडौल गात्र मर्मर प्रस्तर-निर्मित मूर्ति-सा प्रतीत होता था। उनकी नीलवर्ण आंखें और पिंगल केश उनके व्यक्तित्व को प्रगट कर रहे थे। बहुत-सी स्वर्णकेशी, स्वर्णवर्णा ब्राह्मण कुमारियां थीं। कितनी घन केशपाश वाली, घनश्याम कोमल गात्रवाली गोधूमवर्णी वैश्य तरुणियां थीं, जिनका तारुण अति मादक था। नाना कुलों के तरुण भी अपने-अपने वस्त्र उतारकर सरयू के तट पर कुछ आकटि और कुछ आकण्ठ जल में जल-क्रीड़ा कर रहे थे। उनके व्यायामपृष्ट सुडौल शरीर, उन्नत नासिका, विशाल वक्ष और प्रशस्त मस्तक उनके कुलीन होने के साक्षी थे। कोई प्रणयकलह में, कोई सामोद क्रीड़ा में, कोई हस्त-लाघव और व्यायाम में लीन था। तरुण-तरुणियां यहां स्वच्छंद विहार कर रहे थे। बहुत युगल जोड़े नाव पर चढ़कर उस पार जा जल में कूद पड़ते; बहुत जोड़े होड़ बदकर जल में डुबकी लगाते। उनकी मृणाल-सम सुनहरी भुजाएं और स्वर्ण गात, नील, घनश्याम केश-राशि जल के अमल भीतरी स्तर से मोहक दीख रही थीं। सैकड़ों छोटी नौकाएं जल में तैर रही थीं और युवक-युवती थककर कभी-कभी उनका आश्रय लेकर सुस्ता लेते थे। बहुत नौकाओं पर मैरेय, माध्वीक, भुने हुए मांस और विविध फल बिक रहे थे। तैरते हुए युवक खरीद खरीदकर आकण्ठ जलमग्न हो खा-पी रहे थे।

ऐसे ही समय में बन्धुल मल्ल और मल्लिका अपने थके हुए अश्वों को लिए सरयू तीर पर आ पहुंचे। मल्लिका ने प्रफुल्ल होकर कहा—"साकेत में जीवन है प्रिय! रज्जुलों के
[ ९४ ]अधिकार में भी जनपद इतना प्रसन्न हो सकता है, यह मैंने सोचा भी नहीं था।"

"आओ प्रिये, हम भी स्नान करके शरीर की थकान मिटा लें। हवा बड़ी सुन्दर चल रही है।"

"ऐसा ही हो प्रिये!" मल्लिका ने कहा। बन्धुल घोड़े से कूद पड़ा और हाथ का सहारा देकर उसने मल्लिका को उतारा। एक दास को संकेत से निकट बुलाकर कहा— "अश्वों को मल-दल कर ठीक कर दे मित्र, ये चार निष्क ले, मैरेय के लिए।"

दास ने हंसकर रजत-खण्ड हाथ में ले लिए और अश्वों की रास संभाली।

दोनों यात्रियों ने वस्त्र उतारे और वे अनायास ही जल-राशि में घुस गए। उनके हस्त-लाघव और कुशल तैराकी से सभी आश्चर्य करने लगे। उन्होंने तैरने वालों को ललकारा—"बढ़ो मित्रो, जो कोई उस तट पर पहले पहुंचेगा उसे मित्रों सहित भरपेट मैरेय पीने को मिलेगा।" बहुत तरुण-तरुणियां हंसकर उनके पीछे हाथ मारने लगे। किनारे के लोग हर्षोत्फुल्ल होकर चिल्लाने लगे। सबसे आगे बन्धुल-दम्पती थे, सबसे पहले उन्होंने तट स्पर्श किया। मल्लिका हांफती हुई हंसने लगी। लोगों ने हर्ष-ध्वनि की। सम्पन्न युवक ने अपनी नौका पास लाकर कहा—"स्वागत मित्र, मेरी यह नौका सेवा में उपस्थित है, इस पर चढ़कर मेरी प्रतिष्ठा वृद्धि करें।"

बन्धुल ने हाथ के सहारे से मल्लिका को नौका पर चढ़ाते हुए कहा—

"हम लोग अभी-अभी साकेत आ रहे हैं।"

"कहां से मित्र!"

"कुशीनारा से।"

"अच्छा, बन्धुल मल्ल की कुशीनारा से।"

"मित्र, मैं ही बन्धुल मल्ल हूं।"

"तेरी जय हो मित्र!" फिर उसने हाथ उठाकर पुकारकर कहा—"कुशीनारा के मल्ल बन्धुल मित्र का साकेत में स्वागत है!"

बहुत लोग नौका के पास उमड़ आए। बहुतों ने दम्पती पर पुष्पों की वर्षा की। नौका के स्वामी ने हंसकर कहा—"मैं हिरण्यनाभ कौशल्य हूं मित्र, साकेत का क्षत्रप, बन्धुल के शौर्य से मैं परिचित हूं।"

"हिरण्यनाभ कौशल्य की गरिमा से मैं भी अविदित नहीं हूं क्षत्रप, तक्षशिला में गुरुपद से मैंने आपका नाम सुना था।"

"और मैंने भी मित्र, महाराजाधिराज से तेरी गुण-गरिमा सुनी है। अब इधर किधर?"

"महाराज के दर्शन-हेतु।"

"साधु, महाराज आजकल यहीं हैं, कल दर्शन हो जाएंगे। परन्तु आज मेरे अतिथि रहो मित्र!"

"मल्लिका, ये महाक्षत्रप महाराज हिरण्यनाभ कौशल्य हैं। गुरुपद ने कहा था, वे अवन्ति गुरुकुल के सर्वश्रेष्ठ स्नातक हैं और ज्ञान-गरिमा में काशी के सम्पूर्ण राजाओं से बढ़कर हैं।"

"मैं अपने पति का अभिनन्दन करती हूं, ऐसे गौरवशाली मित्र के प्राप्त होने पर।"
[ ९५ ] "और मल्लिका, हम अपने मित्र के अतिथि होने जा रहे हैं।"

"प्रिय, यह असाधारण सौभाग्य है, परन्तु महाक्षत्रप, महाराज को क्या इनकी स्मृति है? इनका कहना है—महाराज दस वर्ष साथ पढ़े हैं तक्षशिला में।"

"महाराज भी यही कहते हैं देवी, वे कहते हैं—बन्धुल-सा एक मित्र कहीं मिले तो जीवन का सूखापन ही दूर हो जाए।"

"ऐसा कहते हैं? तब तो महाक्षत्रप, महाराज को मित्र का बहुत ध्यान है।"

"किन्तु मल्लिका देवी, तुम्हारे पति क्या ऐसे-वैसे हैं? मैंने अवन्तिका में गुरुपद से सुना था कि राजनीति और रणनीति में बन्धुल का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है।"

"और जल में तैरने में महाक्षत्रप?"

"आज देखा हमने प्रतिस्पर्धी, देवी मल्लिका को।"

महाक्षत्रप हंस दिए। मल्लिका भी हंस दी। बन्धुल ने कहा—"यहीं हमारे अश्व हैं।"

"वे पहुंच जाएंगे मित्र, नौका हमें क्रीड़ोद्यान के नीचे पहुंचा देगी।"

इसके बाद क्षत्रप ने एक दास को अश्व ले आने के लिए भेज दिया। उन्होंने मल्लिका को सम्बोधन करके कहा—"वह मेरे उद्यान का घाट दीख रहा है देवी मल्लिका!"

"देख रही हूं महाक्षत्रप; अभी हमें आए कुछ क्षण ही बीते हैं, पर ऐसा दीख रहा है, जैसे घर ही में हों।"

"घर ही में तो हो देवी मल्लिका, हम आ गए मित्र, उतरो तुम और क्षण भर ठहरो, तब तक मैं आवश्यक व्यवस्था कर दूं।"