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वैशाली की नगरवधू/28. कुण्डनी का अभियान

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वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ १२२ से – १२४ तक

 

28. कुण्डनी का अभियान

इस असुरपुरी में जितनी स्वतन्त्रता सोम को प्राप्त थी, उस सबका सम्पूर्ण उपभोग करके सूर्यास्त के समय अत्यन्त थकित और निराश भाव से उसने उस गुफाद्वार में जब पैर रखा, जहां उनके ठहरने की व्यवस्था थी, तो वहां का दृश्य देख वह एकबारगी ही चीत्कार कर उठा। कुण्डनी, गुफा के मध्य में एक शिलाखण्ड पर बिछे बाघम्बर पर बैठी थी। उसके हाथ में उसका पूर्वपरिचित वही विषधर नाग था। नाग उसके कण्ठ में लिपट रहा था और उसका हाथभर चौड़ा फन कुण्डनी के हाथ में था। कुण्डनी की आंखों से आज जैसे मद की ज्वाला निकल रही थी। वे जैसे अगम सागर पर तरणी की भांति तैर रही थीं। सर्प की हरी मरकत मणि जैसी आंखें उन आंखों से युद्ध कर रही थीं। इसी अभूतपूर्व और अतर्कित नेत्र युद्ध को देखकर सोम चीत्कार कर उठा था। परन्तु उसके चीत्कार करते ही कुण्डनी ने चुटकी ढीली कर दी। सर्प ने उसके मृदुल ओठों पर दंश दिया। सोम ने झपटकर सर्प को उसके हाथ से छीनकर दूर फेंक दिया और हांफते-हांफते कहा—"यह तुमने क्या किया कुण्डनी?"

"तुम बड़े मूर्ख हो सोम। अगर नाग मर गया तो? यह तक्षक जाति का महाविषधर नाग है। पिता इसे कम्बोज के वन से लाए थे। पृथ्वी पर ऐसा विषधर अब और नहीं है। तुमने उसे आघात पहुंचा दिया हो तो?"

वह लहराती हुई उठी, नाग को बड़े प्यार से उठाकर हृदय से लगाया। नाग इस समय सिकुड़कर निर्जीव हो रहा था। उसका तेज-दर्प जाता रहा था।

सोम ने कहा—"कुण्डनी, तुम्हारा अभिप्राय मैं समझ नहीं सका। आचार्य ने मुझे तुम्हारा रक्षक बनाया है।"

"तो रक्षक ही रहो सोम। अभिप्राय जानने की चेष्टा न करो।" कुण्डनी ने भ्रूकुंचित करके कहा।

"तो तुम यह क्या कर रही थीं, कहो?"

"जो उचित था वही।"

"क्या आत्मघात?"

"दंश से क्या मेरा घात होता है। उस दिन देखा नहीं था?"

"तुम कौन हो कुण्डनी?" सोम ने घोर संदेह में भरकर कहा।

"पिता ने कहा तो था, तुम्हारी भगिनी। अब और अधिक न पूछो।"

"अवश्य पूछंगा कुण्डनी। हम घोर संकट में हैं। मैंने तमाम दिन इधर-उधर घूमने और भाग निकलने की युक्ति सोचने में लगाया है। पर सब व्यर्थ प्रतीत होता है। कहने को शम्बर असुर ने हमें स्वतन्त्रता दी है, पर हम पूरे बन्दी हैं कुण्डनी।"

"सो बन्दी तो हैं ही। तुम दिनभर भटकते क्यों फिरे? तुम्हें विश्राम करना चाहिए था। गुफा में काफी ठण्ड थी, खूब नींद ले सकते थे।"

"इस विपत्ति में नींद किसे आ सकती थी कुण्डनी?"

"पर विपत्ति की सम्भावना तो रात्रि ही को थी न भोज के बाद!"

"और तब तक हमें पैर फैलाकर सोना चाहिए था?"

"निश्चय। उससे अब तुम स्वस्थ, ताज़ा और फुर्तीले हो जाते और भय का बुद्धिपूर्वक सामना करते।"

"तुम अद्भुत हो कुण्डनी! कदाचित् तुम्हें असुर का भय नहीं है।"

"असुर से भय करने ही को क्या कुण्डनी बनी हूं?"

"तुम क्या करना चाहती हो कुण्डनी, मुझसे कहो।"

"इसमें कहना क्या है! शम्बर या तो हमारे मैत्री-संदेश को स्वीकार करे, नहीं तो आज सब असुरों-सहित मरे।"

"उसे कौन मारेगा?"

"क्यों? कुण्डनी।"

सोम अवज्ञा की हंसी हंसा। पर तुरन्त ही गम्भीर होकर बोला—"मैं तुम्हारे रहस्य जानना नहीं चाहता। परन्तु तुम्हारी योजना क्या है, कुछ मुझे भी तो बताओ, ताकि सहायता कर सकूं।"

"सोम, तुम युवक हो और योद्धा हो! तथाच गुरुतर राजकार्य में नियुक्त हो। मैं तुम्हारी अपेक्षा अल्पवयस्का एवं स्त्री हूं। फिर भी सोम, इस समय तुम मुझ पर निर्भर रहो। शान्त, प्रत्युत्पन्नमति और तत्पर-तुमने जिसे अपघात समझा है, वह शत्रुनाश की तैयारी है सोम।"

"परन्तु किस प्रकार?"

"वह समय पर देखना। अभी मुझे बहुत काम है, तुम थोड़ा सो लो; फिर हमें विकट साहस प्रदर्शन करना होगा। मैं जानती हूं, असुर अर्धरात्रि से पूर्व भोजन नहीं करते।"

"तो तुम मुझे बिलकुल निष्क्रिय रहने को कहती हो?"

"कहा तो मैंने भाई, शान्त रहो, तत्पर रहो और प्रत्युत्पन्नमति रहो। फिर निष्क्रिय कैसे?"

"पर मेरे शस्त्र?"

"वे छिन गए हैं तो क्या हुआ? बुद्धि तो है!"

"कदाचित् है।" सोम खिन्न होकर एक भैंसे की खाल पर चुपचाप पड़ रहा। थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई। बहुत देर बाद जब कुण्डनी ने उसे जगाया तो उसने देखा, कई असुर योद्धा गुफा के द्वार पर खड़े हैं। अनेकानेक के हाथ में मशाल हैं और बहुतों के हाथ में विविध वाद्य हैं। एक असुर जो प्रौढ़ था, वक्ष पर स्वर्ण का एक ढाल बांधे, लम्बा भाला लिए सबसे आगे था।

मशाल के प्रकाश में आज सोम कुण्डनी का यह त्रिभुवनमोहन रूप देखकर अवाक् रह गया। उसकी सघन-श्याम केशराशि मनोहर ढंग से चांदी-जैसे उज्ज्वल मस्तक पर सुशोभित थी। उसने मांग में मोती गूंथे थे। लम्बी चोटी नागिन के समान चरण-चुम्बन कर रही थी। बिल्व-स्तनों को रक्त कौशेय से बांधकर उस पर उसने नीलमणि की कंचुकी पहनी थी। कमर में लाल दुकूल और उस पर बड़े-बड़े पन्नों की कसी पेटी उसकी क्षीण कटि ही की नहीं, पीन नितम्बों और उरोजों के सौन्दर्य की भी अधिक वृद्धि कर रही थी। उसने पैरों में नूपुर पहने थे, जिनकी झंकार उसके प्रत्येक पाद-विक्षेप से हृदय को हिलाती थी।

सोम ने कहा—"कुण्डनी, क्या आज असुरों को मोहने साक्षात् मोहिनी अवतरित हुई है?"

"हुई तो है। इसमें तुम्हें क्या, असुरों का भाग्य! तो अब झटपट तैयार हो जाओ।" कुण्डनी ने मुस्कराकर कहा।

सोम ने झटपट वस्त्र बदले। कुण्डनी ने सामने पड़े एक व्याघ्र-चर्म को दिखाकर कहा, "इसे वक्ष में लपेट लो, काफी रक्षा करेगा।"

"किन्तु कुण्डनी, हम शस्त्रहीन शत्रु के निकट जा रहे हैं।"

"मैंने जिन तीन शस्त्रों की बात कही थी, उन्हें यत्न से रखना सोम, फिर कोई भय नहीं है।"

"अर्थात् शान्त, तत्पर और प्रत्युत्पन्नमति रहना?"

"बस यही!"

"तो कुण्डनी, तुम आज की मुहिम की सेनानायिका हो?"

"ऐसा ही हो सोम। अब चलें"

"कुण्डनी बाहर आई। उसने अधिकारपूर्ण स्वर में साफ मागधी भाषा में असुर सरदार को आज्ञा दी—"सैनिकों से कह, बाजा और मशाल लेकर आगे-आगे चलें।"

कुण्डनी के संकेत से कुण्डनी की आज्ञा सोम ने असुर सरदार को सुना दी।

उस रूप के तेज से तप्त असुर-सरदार ने विनयावनत हो कुण्डनी की आज्ञा का पालन किया। कुण्डनी ने फिर सोम के द्वारा उनसे कहलाया—"तुम सब हमारे पीछे-पीछे आओ।"

और वह छम से घुंघरू बजाती विद्युत्प्रभा की साक्षात् मूर्ति-सी उस मार्ग को प्रकाशित करती असुरपुरी के राजमार्ग पर आगे बढ़ी। पीछे सैकड़ों असुर-सरदार उत्सुक होकर साथ हो लिए। सोम ने धीरे-से कहा—"मायाविनी कुण्डनी, इस समय तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे तुम्हीं इस असुर-निकेतन की स्वामिनी हो।"

"और सम्पूर्ण असुरों के प्राणों की भी।" उसने कुटिल मुस्कान में हास्य किया।