वैशाली की नगरवधू/42. सम्मान्य अतिथि

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42. सम्मान्य अतिथि

सान्ध्य कृत्य समाप्त हुआ। भगवान् वादरायण गर्भगृह में चले गए। ब्रह्मचारी उन्हें गर्भगृह के द्वार तक पहुंचाकर पादवन्दन करके प्रांगण में लौट आया। अन्य वटुक भी अपने-अपने स्थानों को लौट गए। पार्षदगण इधर-उधर दौड़-धूप करके अपना-अपना काम करने लगे। अनावश्यक दीप बुझा दिए गए। अपना कार्य समाप्त करके पार्षदगण भी विश्राम के लिए चले गए। केवल वही तरुण ब्रह्मचारी प्रांगण में रह गया। पार्षदों को उसने कुछ आवश्यक आदेश दिए। गुरुपद के आदेशों की पूर्ति भी उसने यथासाध्य की। फिर वह एक मर्मर स्तम्भ पर पीठ का सहारा ले एक व्याघ्र-चर्म पर चुपचाप बैठकर कुछ चिन्तन करने लगा।

आकाश में बादल घिर रहे थे। उनके बीच कभी-कभी चतुर्थी का क्षीणकाय चन्द्र दीख पड़ता था, जिससे रात्रि का अन्धकार थोड़ा प्रतिभासित हो उठता था। एकाध तारे भी कभी-कभी दृष्टिगोचर हो जाते थे। ब्रह्मचारी कभी आंखें बन्द किए और कभी खोलकर देख लेता था। उसका ध्यान गुरुपद की आज्ञा पर था। कौन वह सम्मान्य अतिथि आज रात को आनेवाले हैं, जिनके लिए गुरुपद ने इतने यत्न से आदेश दिया है! उन्हीं की अभ्यर्थना के लिए उसने हठपूर्वक रात्रि-जागरण करने का निश्चय कर लिया।

दो दण्ड रात्रि व्यतीत होने पर उस नीरव रात्रि में उसे प्रतीत हुआ—"जैसे सुदूर पर्वत उपत्यका से कुछ अस्फुट शब्द रुक-रुककर आ रहा है। थोड़ी ही देर में वह सावधान होकर सुनने लगा। वह समझ गया कि अश्वपद की ध्वनि है। अश्व एक नहीं, अधिक हैं। कुछ ही देर में मठ के पीछे के प्रान्त-द्वार पर प्राचीर के निकट कुछ आहट प्रतीत हुई। वह समझ गया, कुछ अश्वारोही उधर आए हैं। वह झटपट अपने उत्तरवासक को कमर में लपेटकर मठ के प्रान्त-द्वार पर गया। अंधेरे में पहले कुछ नहीं दीखा। फिर देखा, कोई दस हाथ के अन्तर पर एक मनुष्य की छाया है, पार्श्व में दो अश्व हैं।"

उसने दोनों हाथ ऊंचे करके कहा—"भन्ते अतिथि, आपका मठ में स्वागत है! मैं भगवान् वादरायण के आदेश से आपके स्वागतार्थ प्रतीक्षा कर रहा था।"

ब्रह्मचारी के वचन सुनकर छाया-मूर्ति अन्धकार से आगे बढ़ी। मन्दिर के क्षीण आलोक में ब्रह्मचारी ने देखा वह एक वृद्ध भट है। उसके शस्त्र तारों के क्षीण प्रकाश में चमक रहे थे। वृद्ध ने मस्तक झुकाकर ब्रह्मचारी को अभिवादन करके कहा—

"हमें क्षमा करें भन्ते, मार्ग में बहुत वर्षा होने से हमें अति विलम्ब हो गया और असमय में आपको कष्ट देना पड़ा।"

"कोई हानि नहीं, भगवान् ने मुझे प्रथम ही आदेश दे दिया था।"

परन्तु इतना कहकर भी ब्रह्मचारी कुछ असमंजस में पड़ गया। वह सोचने लगा, यह साधारण वृद्ध भट ही क्या वह सम्मान्य व्यक्ति है जिसने उसे 'भन्ते' कहकर और [ १६० ]अभिवादन करके अपनी लघुता प्रकट की है! वह ध्यान से आगन्तुक को देखने लगा। आगुन्तक ने कहा—

"भगवान् वादरायण त्रिकालदर्शी हैं।" और तब पीछे खड़ी दूसरी छायामूर्ति की ओर देखा।

ब्रह्मचारी ने उसे अभी नहीं देखा था। वह छाया-मूर्ति भी आगे बढ़ी। ब्रह्मचारी उसे उस धूमिल प्रकाश में देखकर स्तम्भित हो गया। वह स्वप्न में भी नहीं सोच सका था कि जिस सम्मान्य अतिथि की वह प्रतीक्षा कर रहा था, वह कोई महिला है। उसने एक ही दृष्टि से देखा, महिला असाधारण सुन्दरी और गौरवशालिनी है। उसने आगे बढ़कर युवा ब्रह्मचारी से मधुर शब्दों में कहा—"भन्ते ब्रह्मचारिन्, हम लोग बहुत थक गए हैं, वस्त्र भी सब भीग गए हैं, अश्वों को भी दाना-पानी नहीं मिला। कष्ट करके अभी हमारे विश्राम की व्यवस्था कर दीजिए, प्रभात में हम भगवान् वादरायण की पादवन्दना करेंगे। असुविधा के लिए क्षमा कीजिए।"

तरुण ब्रह्मचारी को जब गुरुपद ने आग्रहपूर्वक एक सम्भ्रान्त अतिथि के आने का संकेत किया है, तब वह अवश्य ही कोई महामहिम अतिथि होगा, ऐसा समझकर युवक विनय से बोला—"देवी, इधर से पधारें।"

आगे-आगे ब्रह्मचारी और उसके पीछे अतिथि पेचीदे मार्गों से घूमते हुए मठ के भीतर प्रांगण में आए। वृद्ध भट ने संकोच से कहा—

"किन्तु अश्व?"

"उनकी व्यवस्था हो जाएगी, आप चिन्ता न करें।"

फिर कोई नहीं बोला। ब्रह्मचारी ने एक सुसज्जित कक्ष में अतिथियों को ला खड़ा किया। कक्ष में विश्राम और सुख के सब राजसी साधनों को देखकर अतिथि स्तम्भित रह गए। महिला ने मृदु-मन्द हास्य से कहा—

"भगवान् वादरायण का ऐसा वैभव है?"

ब्रह्मचारी ने संकुचित होकर कहा—"समुचित व्यवस्था नहीं कर सका। गुरुपद ने सन्ध्या-समय ही आदेश दिया था। आपको कोई आवश्यकता हो तो कहिए।"

"नहीं-नहीं, कुछ नहीं, हमें केवल विश्राम ही की आवश्यकता है।"

"तो देवी सुख से विश्राम करें, थोड़ा गर्म दूधा और हविष्यान्न मैं अभी भिजवाता हूं।"

"साधु ब्रह्मचारिन्। किन्तु भगवान् वादरायण को हमारे आगमन की सूचना होनी आवश्यक है।"

"उसकी आवश्यकता नहीं, भगवान् का आदेश है, कल उषाकाल में गुरुपद के आपको दर्शन होंगे। मैं स्वयं आपको गर्भगृह में ले जाऊंगा।"

"जैसी भगवान् वादरायण की इच्छा! तो अब हम विश्राम करेंगे।"

ब्रह्मचारी विनय से मस्तक झुकाकर मठ के बाहरी प्रांगण की ओर धीरे-धीरे अग्रसर हुआ। मठ के बाहरी प्रांगण में सन्नाटा था। वह प्रांगण को पार करता हुआ विश्राम के लिए अपनी कुटिया की ओर मठ के उत्तर प्रान्त से जा रहा था। मठ के उत्तर द्वार की पीठिका के निकट एक एकान्त स्थान पर उसकी कुटिया थी। वहां जाने के लिए उसे विस्तृत [ १६१ ]सम्पूर्ण प्रांगण, अन्तर्भूमि और बाहरी विस्तृत भू-भाग पार करना पड़ा। अभी केवल दो स्थूल दीप बाहरी दीपाधारों में जल रहे थे, उन्हीं के प्रकाश में उसने देखा, उत्तर-द्वार के सम्मुख बड़ी पौर के निकट एक मनुष्य-मूर्ति दीप-स्तम्भ के नीचे खड़ी है। प्रथम उसे भ्रम हुआ, फिर निश्चय होने पर उसने उसके तनिक निकट जाकर पुकारा—"कौनहै?"

उत्तर संक्षिप्त मिला—

"अतिथि।"

ब्रह्मचारी ने बिल्कुल निकट जाकर देखा। अतिथि असाधारण है। वह एक दीर्घकाय, बलिष्ठ एवं गौरवर्ण पुरुष है। उसकी मुखाकृति अति गम्भीर, आकर्षक और प्रभावशाली है। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों से शक्ति का स्रोत बह रहा है। उसके वस्त्र बहुमूल्य हैं। उष्णीष की मणि उस अन्धकार में भी शुक्र नक्षत्र की भांति चमक रही है। कमर में एक विशाल खड्ग है और हाथ में एक भारी बर्छा। खड्ग पर मणि-माणिक्य जड़े हैं, जो उस अन्धकार में भी चमक रहे हैं। वह थकित भाव से अपने बर्छ का सहारा लिए खड़ा है।

देखकर ब्रह्मचारी दो कदम पीछे हट गया। फिर ससम्भ्रम आगे बढ़कर उसने कहा—"भन्ते, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?"

"मुझे रात्रि व्यतीत करने को थोड़ा स्थान चाहिए और यदि थोड़ा गर्म दूध मिल जाए तो अत्युत्तम है।"

ब्रह्मचारी कुछ असमंजस में पड़कर बोला—"किन्तु इस समय उपयुक्त..."

"नहीं, नहीं, आयुष्मान् शिष्टाचार की आवश्यकता नहीं, भगवान् वादरायण के पुनीत स्थान में सब उपयुक्त है।"

"तब आप आइए मेरी कुटी में।"

और बातचीत नहीं हुई। कुटी में आकर ब्रह्मचारी ने दीप जलाया। इस बार उसने फिर अतिथि की ओर देखा, अपनी क्षुद्र एवं दरिद्र कुटिया में इस अतिथि के लाने के कारण वह संकुचित हो गया।

कुटिया छोटी ही थी। उसके बीच में एक काष्ठ-फलक पर कृष्णाजिन बिछा था। एक भद्रपीठ पर जल का पात्र, थोड़ी पुस्तकें और एक-दो आवश्यक वस्तुएं ही वहां थीं। हां, प्रकुण्ड्य पर दो उत्तम धनुष एक विशाल बर्खा तथा कई उत्कृष्ट खड्ग लटक रहे थे। अतिथि ने क्षणभर में ही दृष्टि घुमाकर सारी कुटिया और वहां की सामग्री को देख डाला। फिर हंसकर कहा—"अच्छा, तो यह तुम्हारी ही कुटी है आयुष्मान्?"

"जी हां भन्ते!"

"और ये पुस्तकें, कृष्णाजिन?"

"सब मेरे ही उपयोग की हैं।"

"बहुत ठीक। परन्तु ये शस्त्रास्त्र?" उन्होंने हठात् एक धनुष को दीवार से खींचकर क्षणभर ही में उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दी।

तरुण ने अतिथि के असाधारण सामर्थ्य और हस्तलाघव से चमत्कृत होकर कहा—"कभी-कभी गुरुपद मुझे अभ्यास कराते हैं।"

"साधु आयुष्मान्! इसकी कभी आवश्यकता पड़ सकती है।" उन्होंने रहस्यपूर्ण हास्य होंठों पर लाकर धनुष को दीवार पर टांग दिया। "तो मैं इस कृष्णाजिन पर विश्राम [ १६२ ]करूंगा, किन्तु तुम?"

"मेरे लिए बहुत व्यवस्था है भन्ते, इस पात्र में दूध है और सूखा हुआ कौशेय प्रावार और कौजव खूंटी पर है।"

"ठीक है आयुष्मन्, किन्तु तुम्हारा नाम क्या है?"

"माधव, भन्ते, किन्तु गुरुपद मुझे मधु कहते हैं।"

"तो मैं भी यही कहूंगा। मधु आयुष्मन्, अब मैं भी विश्राम करूंगा।"

"क्या भगवत्पाद में निवेदन करना होगा?"

"नहीं-नहीं, प्रभात में देखा जाएगा।"

बटुक क्षणभर कुछ सोचकर चला गया। वह सोच रहा था, यह अधिकारपूर्ण स्वर से बात करनेवाला तेजस्वी अतिथि कौन है? और वह असाधारण महिला? आज दो-दो महार्घ अतिथि मठ में आए हैं, परन्तु गुरुपद ने तो एक ही का संकेत किया था। वह संकेत किसके प्रति था?

बहुत देर तक बटुक विचार करता रहा। फिर वह अलिन्द के एक स्तम्भ का ढासना लगाकर सो गया।