वैशाली की नगरवधू/49. मार्ग-बाधा

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49. मार्ग-बाधा

तीन दिन तक ये यात्री अपनी राह निरन्तर चलते रहे। वे अब रात्रि-भर चलते और दिन निकलने पर जब धूप तेज होती तो किसी वन या पर्वत-कंदरा में आश्रय लेते, आखेट भूनकर खा लेते। श्रावस्ती अब भी काफी दूर थी। चौथे दिन प्रहर रात्रि गए जब उन्होंने यात्रा प्रारम्भ की, तब आकाश में एकाध धौले बादलों की दौड़-धूप हो रही थी। षष्ठी का क्षीण चन्द्र उदय हुआ था। राह पथरीली और ऊबड़-खाबड़ थी, इसलिए चारों यात्री धीरे-धीरे जा रहे थे। इसी समय अकस्मात् सामने दाहिने पाश्र्व पर कुछ अश्वारोहियों की परछाईं दृष्टिगोचर हुई।

सोम ने कहा—"सावधान हो जाओ कुण्डनी! नहीं कहा जा सकता कि ये मित्र हैं या शत्रु। दस्यु भी हो सकते हैं।" उन्होंने खड्ग कोश से निकाल लिया। कुण्डनी और शंब ने धनुष पर बाण सीधे कर लिए। इसी समय एक बाण सनसनाता हुआ सोम के कान के पास से निकल गया। तत्काल कुण्डनी ने बाण संधान किया। उसे संकेत से रोककर सोम फुर्ती से वाम पाश्र्व में घूम गए। वहां एक चट्टान की आड़ में उन्होंने आश्रय लिया। कुण्डनी और राजकुमारी को वहां छिपाकर तथा शंब को उनकी रक्षा का भार देकर अश्व को चट्टान के ऊपर ले गए। उन्होंने देखा, शत्रु पचास से भी ऊपर हैं और उन्होंने उन्हें देख लिया है और वे उस चट्टान को घेरने का उपक्रम कर रहे हैं। सामने एक घाटी और उसके उस पार प्रशस्त मार्ग है। घाटी बहुत तंग और लम्बी है। यह सब देखकर वे तुरन्त ही कुण्डनी के निकट आ गए। उन्होंने कहा—"शत्रु पचास से भी अधिक हैं और सम्भवतः उन्होंने हमें आते देख लिया है।"

"क्या करना होगा?" कुण्डनी ने स्थिर स्वर से कहा।

सोम ने व्यग्र भाव से कहा—"कुण्डनी, चाहे भी जिस मूल्य पर हमें राजकुमारी की रक्षा करनी होगी। हम चार हैं और शत्रु बहुत अधिक। यदि किसी तरह हम घाटी के उस पार पहुंच जाएं तो फिर कुछ आशा हो सकती है। राजकुमारी को साहस करना होगा। पहले तुम, पीछे राजकुमारी, उसके बाद शंब और फिर मैं, घाटी को पार करेंगे। हम तीनों में जो भी जीवित बचे, वह राजकुमारी को श्रावस्ती पहुंचा दे। मैं शत्रु का ध्यान आकर्षित करता रहूंगा। तुम तीर की भांति पार जाकर चट्टान की आड़ में हो जाना। मैं उधर जाकर शत्रु पर तीर फेंकता हूं। तीर की ओर शत्रु का ध्यान जाते ही तुम घूमकर घाटी पार हो जाना। मेरे दूसरे तीर पर राजकुमारी और तीसरे पर शंब।"

इतना कह सोम धनुष पर बाण चढ़ा चट्टान की दूसरी ओर चले गए। और वहां से कान तक खींचकर बाण फेंका। बाण एक योद्धा की पसली में घुस गया, वह चीत्कार करके पृथ्वी पर गिर पड़ा। कुण्डनी ने एक मर्मभेदनी दृष्टि राजकुमारी पर डाली। अश्व पर आसन जमाया और एक एड़ मारी। सैन्धव अश्व तीर की भांति छलांग लगाकर घाटी के पार हो [ १८२ ]गया। उस पार जाकर कुण्डनी ने संकेत किया और चट्टान की आड़ में हो गई। सोम ने संतोष की सांस ली और कुमारी के निकट आकर अवरुद्ध कण्ठ से कहा—"अब आप राजनन्दिनी, साहस कीजिए। आपका धूम्रकेतु असाधारण अश्व है। ज्यों ही मैं तीर फेंकू, आप अश्व को छोड़ दीजिए।" उसने धूम्रकेतु की पीठ थपथपाई। राजनन्दिनी ने दांतों से होंठ काटे और उत्तरीय भली-भांति सिर पर लपेटा। सोम ने बाण छोड़ा और राजकुमारी ने अश्व की वल्गु का एक झटका दिया। अश्व हवा में तैरता हुआ पार हो गया—सोम का मुख आनन्द से खिल गया। अब उन्होंने शम्ब की ओर मुड़कर कहा—"शम्ब, यदि मैं असफल होऊं तो तू प्राण रहते राजकुमारी की रक्षा करना!"

शम्ब ने स्वामी के चरण छुए। सोम ने फिर बाण फेंका, शम्ब ने अश्व को संकेत किया। अश्व हवा में उछला और पार हो गया। अब सोम की बारी थी। परन्तु अब शत्रु निकट आकर फैल गए थे।

सोम ने अश्व को थपथपाया और एड़ लगाई, अश्व उछला और इसी समय एक बाण आकर सोम की गर्दन में घुस गया और सोम वायु से टूटे वृक्ष की भांति घाटी में गिर गया। शम्ब चीत्कार करके दौड़ पड़ा, राजकुमारी हाय कर उठीं। कुण्डनी का मुंह फक् हो गया। राजकुमारी घाटी की ओर लपकीं, परन्तु कुण्डनी ने हाथ पकड़कर उन्हें रोककर कहा—"क्षण-भर ठहरो हला, शम्ब उनकी सहायता पर है।" उधर से बाणों का मेह बरस रहा था, उनमें से अनेक शम्ब के शरीर में घुस गए। उसके शरीर से रक्त की धार बह चली। पर उसने इसकी कोई चिन्ता नहीं की। वह मूर्छित सोम को कन्धे पर लादकर इस पार ले आया।

"और अश्व, शम्ब?" कुण्डनी ने उद्वेग से कहा—"दोनों अश्व मर गए।" शम्ब ने हांफते-हांफते कहा। बाण वहां तक आ रहे थे और शत्रु घाटी पार करने की चेष्टा कर रहे थे। कुण्डनी ने कहा—"शम्ब, इन्हें राजकुमारी के घोड़े पर रखो और तुम मेरे साथ-साथ आओ। एक क्षण का विलम्ब भी घातक होगा।"

इसी समय सोम की मूर्छा भंग हुई। उसने राजकुमारी को सामने देखकर सूखे कण्ठ से कहा—"कुण्डनी, तुम राजकुमारी को लेकर भागो। हम लोग—मैं और शम्ब—तब तक शत्रु को रोकेंगे।"

राजकुमारी ने आंखों में आंसू भरकर कहा—"नहीं, आप मेरे अश्व पर आइए।"

"व्यर्थ है, हम सब मारे जाएंगे।"

इसी बीच शम्ब ने तीर मारकर दो शत्रुओं को धराशायी कर दिया। सोम ने साहस करके तीर खींचकर कण्ठ से निकाल दिया। खून की धार बह चली। राजकुमारी ने लपककर अपना उत्तरीय सोम के कण्ठ से बांध दिया और कहा—"उठो भद्र, मेरे अश्व पर।"

"नहीं राजकुमारी, तुम भागो। एक-एक क्षण बहुमूल्य है।"

"मैं आपको छोड़कर नहीं जाऊंगी।" और वह सोम के वक्ष पर गिर गई।

सोम के घाव से अब भी रक्त निकल रहा था। एक शत्रु घाटी के इस पार आ गया था, उसे शम्ब ने बाण से मारकर कहा—

"बहुत शत्रु इस पार आ रहे हैं।"

सोम ने कांपते हाथों से राजकुमारी को अलग करके कहा—"ईश्वर के लिए कुमारी, [ १८३ ]प्राण और प्रतिष्ठा लेकर भागो।"

"तो हम लोग साथ ही मरें।"

"नहीं राजनन्दिनी, इस अधम का मोह न करो, प्राण लेकर भागो।"

"किन्तु मैं तुम्हें..."

"ओह कुमारी, कुछ मत कहो, जीवन रहा तो फिर मिलेंगे।"

"पर मैं जीते जी तुम्हें नहीं छोड़ सकती।"

वह सोम के शरीर से लिपट गई।

सोम ने सूखे कण्ठ से कहा—"तुम्हें भ्रम हुआ है कुमारी, मैं मागध हूं तुम्हारा शत्रु।"

मार्ग में पड़े हुए सर्प को अकस्मात् देखकर जैसे मनुष्य चीत्कार कर उठता है, उसी भांति चीत्कार करके कुमारी सोम को छोड़कर दो कदम पीछे हट गई और भीत नेत्रों से सोम की ओर देखने लगी।

सोम ने कुण्डनी को संकेत किया और एक चट्टान का ढासना लेकर धनुष संभाला। कुमारी की ओर से उसने मुंह फेर लिया और धनुष पर तीर चढ़ाते हुए कहा—"शम्ब, तुम दाहिने, मैं बाएं।"

परन्तु सोम बाण लक्ष्य पर न छोड़ सके। धनुष से बाण छटकर निकट ही जा गिरा। उधर सोम एकबारगी ही बहुत-सा रक्त निकल जाने से मूर्छित हो गए। उनकी आंखें पथरा गईं और गर्दन नीचे को लुढ़क गई।

शम्ब ने एक बार स्वामी को और फिर शत्रु को भीत दृष्टि से देखा। सामने कुण्डनी एक प्रकार से राजकुमारी को घसीटती हुई अश्व पर सवार करा अपने और कुमारी के अश्व को संभालती चट्टान के मोड़ पर पहुंच चुकी थी। राजकुमारी अश्व पर मृतक की भांति झुक गई थीं। शत्रु घाटी के इस पार आ चुके थे। कुण्डनी ने एक बार शंब की ओर देखा। शंब ने उसे द्रुत वेग से भागने का संकेत करके सोम को कन्धे पर उठा लिया और वह तेजी से पर्वत-कन्दरा की ओर दौड़ गया। एक सुरक्षित गुफा में सोम को लिटा, आप धनुष-बाण लेकर गुफा के द्वार पर बैठ गया।

परन्तु इतनी तत्परता, साहस एवं शौर्य भी कुछ काम न आ सका। शत्रुओं ने शीघ्र ही राजकुमारी और कुण्डनी को चारों ओर से घेर लिया। भागने का प्रयास व्यर्थ समझकर कुण्डनी अब मूर्छिता कुमारी की शुश्रूषा करने लगी।

दस्युओं में से एक ने आगे बढ़कर दोनों के अश्व थाम दिए। चन्द्रमा के क्षीण प्रकाश में अश्वारोहियों को देखकर प्रसन्न मुद्रा से उसने कहा—

"वाह, दोनों ही स्त्रियां हैं!"

दूसरे ने निकट आकर कहा—

"और परम सुन्दरियां भी हैं। मालिक को अभी-अभी सूचना देनी होगी।" उसने राजकुमारी को देखकर कहा—"मालिक ऐसी ही एक दासी की खोज में थे।" एक पुरुष ने चकमक झाड़कर प्रकाश किया और कुण्डनी से पूछा—

"कौन हो तुम?"

"राही हैं, देखते नहीं?"

"देख रहे हैं, तुम्हारे वे साथी कहां हैं, जिन्होंने हमारे इतने आदमी मार डाले हैं?" [ १८४ ] "उन्हें तुम्हीं खोज लो।"

"अच्छी बात है; यह भी संभव है, वे लोग उसी घाटी में मर-खप गए हों। किन्तु तुम लोग जा कहां रही हो?"

"हम श्रावस्ती जा रहे हैं।"

"वह तो अभी साठ योजन है।"

"इससे तुम्हारा क्या प्रयोजन है! हमें अपने मार्ग जाने दो।"

"हमारा सार्थवाह भी श्रावस्ती जा रहा है, हमारे साथ ही चलो तुम।"

"क्या बल से?"

"नहीं विनय से।" वह पुरुष हंसकर पीछे हट गया। उसके साथी दोनों के अश्वों को घेरकर चलने लगे। कुण्डनी ने विरोध नहीं किया। कुछ दूर चलने पर उन्होंने देखा, वन के एक प्रांत भाग में कोई पचास-साठ पुरुष आग के चारों ओर बैठे हैं, एक ओर कुछ स्त्रियां भी एक बड़े शिलाखंड की आड़ में बैठी हैं। कुछ सो रही हैं।

इनके वहां पहुंचने पर कई मनुष्य इनके निकट आ गए। एक पुरुष ने मशाल ऊंची करके कहा—"वाह, बहुत बढ़िया माल है! स्वामी को अभी सूचना दो।" इसी समय एक अधेड़ अवस्था का खूब मोटा आदमी आगे आया। इसकी लम्बी दाढ़ी और मोटी गरदन थी। वह एक कीमती शाल लापरवाही से कमर में लपेटे हुआ था। उसने हर्षित नेत्रों से दोनों स्त्रियों को देखा और हाथ मलकर सिर हिलाया।

"तो तुम दास-विक्रेता हो?" कुण्डनी ने घृणा से होंठ सिकोड़कर कहा।

"तुम ठीक समझ गई हो, परन्तु चिन्ता न करो, मैं श्रावस्ती जा रहा हूं। तुम्हें और तुम्हारी सखी को महाराज को भेंट करूंगा। वहां तुम्हारी यह सखी पट्ट राजमहिषी का पद ग्रहण करेंगी और तुम भी। संभवतः तुम अति दूर से आ रही हो और तुम्हारी साथिन रुग्ण है। अभी विश्राम करो, प्रभात में परिचय प्राप्त करूंगा।" उसने दास को संकेत किया और उनके अश्व थाम उधर ले गया, जिधर अन्य स्त्रियां बैठी थीं। पहले उसने राजकुमारी को सहारा देकर उतारा, फिर वह कुण्डनी के निकट आया। वह असावधान था, कुण्डनी ने विद्युत-वेग से उस पर हठात् कटार का वार किया और द्रुत वेग से अश्व को छोड़ दिया। दास ने चिल्लाकर कहा—"पकड़ो, पकड़ो! दासी भागी जाती है।" अनेक पुरुष अस्त्र-शस्त्र लेकर उसके पीछे दौड़े, पर कुण्डनी उनके हाथ न आई। कुछ देर में सब लोग हताश हो लौट आए। राजकुमारी का एकमात्र अवलम्ब भी जाता रहा। वह वहीं मूर्छित होकर गिर गई।