वैशाली की नगरवधू/7. शाक्यपुत्र गौतम

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7. शाक्यपुत्र गौतम

उसी उरुबेला तीर्थ में उसी निरंजना नदी के किनारे एक विशाल वट वृक्ष के नीचे एक तरुण तपस्वी समाधिस्थ बैठे थे। अनाहार और कष्ट सहने से उनका शरीर कृश हो गया था, फिर भी उनकी कान्ति तप्त स्वर्ण के समान थी। उनके अंग पर कोई वस्त्र न था, केवल एक कौपीन कमर में बंधी थी। उनकी देह, नेत्र और श्वास तक अचल थी। ये कपिलवस्तु के राजकुमार शाक्यपुत्र गौतम थे, जिन्होंने अक्षय आनन्द की खोज में लोकोत्तर सुख-साधन त्याग दिए थे।

तरुण तपस्वी ने नेत्र खोले, सामने पीपल के वृक्ष के नीचे कई बालक बकरी चरा रहे थे। उनकी काली-लाल-सफेद बकरियां हरे-हरे मैदानों में उछल-कूद कर रही थीं। गौतम ने स्थिर दृष्टि से इन सबको देखा। बड़ा मनोहर प्रभात था, बैसाखी पूर्णिमा के दूसरे दिन का उदय था। स्वच्छाकाश से प्रभात-सूर्य की सुनहरी किरणें हरे-भरे खेतों पर शोभा-विस्तार कर रही थीं, गौतम को विश्व आशा और आनन्द से ओतप्रोत ज्ञात हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि उनके हृदय में एक प्रकाश की किरण उदय हुई है और वह सारे विश्व को ओतप्रोत कर रही है। विश्व उससे उज्ज्वल, आलोकित और पूत हो रहा है, उस आलोक में भयव्याधि नहीं है, अमरत्व है, मुक्ति है, आनन्द है। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं बुद्ध हूं। तथागत हूं। अर्हत हूं।

उसी समय उत्कल देश से दो बंजारे उधर आ निकले। वे इस तरुण कृश तपस्वी को देखकर कहने लगे––"भन्ते, यह मट्ठा और मधुगोलक हैं, हम इनसे आपका सत्कार करना चाहते हैं, इन्हें ग्रहण कीजिए! गौतम ने स्निग्ध दृष्टि उन पर डाली और कहा––"मैं तथागत हूं, बुद्ध हूं, मैं बिना पात्र के भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता।" तब उन्होंने एक पत्थर के पात्र में उन्हें मट्ठा और मधुगोलक दिए। जब गौतम उन्हें खा चुके तो बंजारों ने कहा––"भन्ते, मेरा नाम भिल्लक और इसका तपस्सू है। आज से हम दोनों आपकी तथा धर्म की शरण हैं।"

संसार में वही दोनों दो वचनों से प्रथम उपासक हुए।

उनके जाने पर गौतम बहुत देर तक उस वट वृक्ष की ओर ममत्व से देखते रहे। फिर उसी आसन पर बैठकर उन्होंने प्रतीत्य समुत्पाद का अनुलोम और प्रतिलोम मनन किया। अविद्या के कारण संस्कार होता है, संस्कार के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नाम-रूप और नाम-रूप के कारण छः आयतन होते हैं। छः आयतनों के कारण स्पर्श, स्पर्श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा के कारण उपादान, उपादान के कारण भव, भव के कारण जाति, जाति के कारण जरा, मरण, शोक, दुःख, चित्त-विकार और खेद उत्पन्न होता है। इस प्रकार संसार की उत्पत्ति है। अविद्या के विनाश से संस्कार का, संस्कार-नाश से विज्ञान का, विज्ञान-नाश से नाम-रूप का और नाम-रूप के नाश से छः आयतनों का नाश होता है। छः आयतनों के नाश से स्पर्श का नाश होता है। स्पर्श के नाश से
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वेदना का नाश होता है। वेदना के नाश से तृष्णा का नाश होता है। तृष्णा-नाश से उपादान का नाश होता है। उपादान-नाश से भव का नाश होता है। भव-नाश से जाति का नाश होता है। जाति-नाश से जरा, मरण शोक, दुःख और चित्तविकार का नाश होता है। इस प्रकार दुःख पुञ्ज का नाश होता है, यही सत्य ज्ञान प्राप्त कर गौतम ने बुद्धत्व पद ग्रहण किया। वे समाधि से उठकर आनन्दित हो कहने लगे, "मैंने गंभीर, दुर्दर्शन, दुर्जेय, शांत, उत्तम, तर्क से अप्राप्य धर्मतत्त्व को जान लिया।" उनके अन्तस्तल में एक आवाज़ उठी––'लोक नाश हो जाएगा रे, यदि तथागत का सम्बुद्ध चित धर्म-प्रवर्तन न करेगा।' उन्होंने अपनी ही शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा से कहा––'हे शोकरहित! शोक-निमग्न और जन्म-जरा से पीड़ित जनता की ओर, देख उठ। हे संग्रामजित्! हे सार्थवाह! हे उऋणऋण! जग में विचर, धर्मचक्र-प्रवर्तन कर!"

उन्होंने प्रबुद्ध चक्षु से लोक को देखा। जैसे सरोवर में बहुत-से कमल जल के भीतर ही डूबकर पोषित हो रहे हैं, बहुत-से जल के बराबर, बहुत-से पुण्डरीक जल से बहुत ऊपर खड़े हैं, इसी भांति अल्पमल, तीक्ष्ण बुद्धि, सुस्वभाव, सुबोध्य प्राणी हैं जो परलोक और बुराई से भय खाते हैं।

बुद्ध ने निश्चय किया कि मैं विश्व-प्राणियों को अमृत का दान दूंगा और वे तब उरुबेला से काशी की ओर चल खड़े हुए। मार्ग में उन्हें उपक आजीवक मिला। उसने उस तेजस्वी, शांत, तृप्त गौतम को देखकर कहा––"आयुष्मान्! तेरी इन्द्रियां प्रसन्न, तेरी कान्ति निर्मल है, तू किसे गुरु मानकर प्रव्रजित हुआ है?"

गौतम ने कहा––"मैं सर्वजय और सर्वज्ञ हूं, निर्लेप हूं, सर्वत्यागी हूं, तृष्णा के क्षय से मुक्त हूं। मेरा गुरु नहीं है। मैं अर्हत हूं, मैं सम्यक्-सम्बुद्ध, शान्ति तथा निर्माण को प्राप्त हूं, मैं धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए कोशियों के नगर में जा रहा हूं।"

उपक ने कहा––"तब तो तू आयुष्मान् जिन हो सकता है!"

"मेरे चित्त-मल नष्ट हो गए हैं, मैं जिन हूं।"

"संभव है आयुष्मान्!" यह कहकर वह दिगम्बर उपक चला गया।

गौतम वाराणसी में ऋषिपत्तन मृगदाव में आ पहुंचे। पंचवर्गीय साधुओं ने उन्हें देखकर पहचान लिया। गौतम उनके साथ कठिन तपश्चरण कर चुके थे। एक ने कहा––"अरे, यह साधनाभ्रष्ट जोरू-बटोरू श्रमण गौतम आ रहा है, इसे अभिवादन नहीं करना चाहिए, प्रत्युथान भी नहीं देना चाहिए, न आगे बढ़कर इसका पात्र-चीवर लेना चाहिए, केवल आसन रख देना चाहिए, बैठना हो तो बैठे।"

परन्तु गौतम के निकट आने पर एक ने उन्हें आसन दिया, एक ने उठकर पात्र चीवर लिए, एक ने पादोदक, पाठपीठ, पादकठलिका पास ला रखी। गौतम ने पैर धोए, आसन पर बैठे, बैठकर कहा––"भिक्षुओ, मैंने जिस अमृत को पाया है, उसे मैं तुम्हें प्रदान करता हूं।"

पंचवर्गीय साधुओं ने कहा––"आवुस गौतम, हम जानते हैं, तुम उस साधना में, उस धारणा में, उस दुष्कर तपस्या में भी आर्यों के ज्ञान-दर्शन की पराकाष्ठा को नहीं प्राप्त हो सके और अब साधनाभ्रष्ट हो...।"

गौतम ने कहा––"भिक्षुओ, तथागत को आवुस कहकर मत पुकारो। तथागत अर्हत
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सम्यक्सम्बुद्ध है। इधर कान दो, मैं तुम्हें अमृत प्रदान करता हूं, उस पर आचरण करके तुम इसी जन्म में अर्हत-पद प्राप्त करोगे।"

परन्तु पंच भिक्षुओं ने फिर भी उन्हें आवुस कहकर पुकारा। इस पर तथागत ने कहा––"भिक्षुओ, क्या मैंने पहले भी कभी ऐसा कहा था?"

"नहीं, भन्ते!"

"तब इधर कान दो भिक्षुओ! साधु को दो अतियां नहीं सेवन करनी चाहिए। एक वह जो हीन, ग्राम्य, अनर्थयुक्त और कामवासनाओं से लिप्त है और दूसरी जो दुखःमय, अनार्यसेवित है। भिक्षुओ, इन दोनों अतियों से बचकर तथागत के मध्यम मार्ग पर चलो, जो निर्वाण के लिए है। वह मध्यम मार्ग आर्य अष्टांगिक है। यथा ठीक दृष्टि, ठीक संकल्प, ठीक वचन, ठीक कर्म, ठीक जीविका, ठीक प्रयत्न, ठीक स्मृति, ठीक समाधि––यही मध्यमार्ग है भिक्षुओ!

"दुःख सत्य है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दुःख है, मरण दुःख है, अप्रिय संयोग दुःख है, प्रिय-वियोग दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख है।"

"दुःख के कारण भी सत्य हैं। यह जो तृष्णा है फिर जन्मने की, सुख-प्राप्ति की, रागसहित प्रसन्न होने की ये तीनों काम-भव-विभव-तृष्णा दुःख हैं।"

"और भिक्षुओ! यह दुःख निरोध भी सत्य है जिसमें तृष्णा का सर्वथा विलय होकर त्याग और मुक्ति होती है। फिर दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपद, दुःख-निरोध की ओर जानेवाला मार्ग भी सत्य है।"

"भिक्षुओ! यही चार सत्य हैं। यही आर्य अष्टांगिक मार्ग है। इन चार सत्यों के तेहरा––इस प्रकार 12 प्रकार का बुद्ध ज्ञान दर्शन करके ही मैं बुद्ध हुआ हूं। मेरी मुक्ति अचल है, यह अन्तिम जन्म है, फिर आवागमन नहीं है।"

तथागत के इस व्याख्यान को सुनकर पंचवर्गीय भिक्षुओं में से कौण्डिन्य ने कहा––"तब भन्ते, जो कुछ उत्पन्न होनेवाला है, वह सब नाशवान् है?"

"सत्य है, सत्य है, आयुष्मान् कौण्डिन्य, तुम्हें विमल-विरज धर्मचक्षु उत्पन्न हुआ। जो कुछ उत्पन्न होनेवाला है नाशवान् है, ओहो, कौण्डिन्य ने जान लिया, कौण्डिन्य ने जान लिया। आयुष्मान् कौण्डिन्य, आज से तुम 'कौण्डिन्य-प्रज्ञात' के नाम से प्रसिद्ध होओ!"

तब कौण्डिन्य ने प्रणिपात करके कहा––"भगवन्, मुझे प्रव्रज्या मिले। उपसम्पदा मिले।"

बुद्ध ने कहा––"तो कौण्डिन्य, तुम सत्य ही धर्म का साक्षात्कार करके संशय-रहित विवादरहित, बुद्धधर्म में विशारद और स्वतन्त्र होना चाहते हो?"

कौण्डिन्य ने बद्धांजलि कहा––"ऐसा ही है, भन्ते!"

"तब आओ भिक्षु, यह धर्म सुन्दर व्याख्यात है, दुःखनाश के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो। यही तुम्हारी उपसम्पदा हुई।"

तब भिक्षु वप्प और भद्दिय ने कहा––"भगवन्, जो कुछ उत्पन्न होने वाला है वह सब नाशवान् है। भन्ते, हमें प्रव्रज्या मिलनी चाहिए, उपसम्पदा मिलनी चाहिए।"

"साधु भिक्षुओ, साधु! तुम्हें विमल-विरज धर्मनेत्र मिला। आओ, धर्म सुव्याख्यात है, भलीभांति दुःख-क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो।"

[ ३३ ]आयुष्मान् महानाभ और अश्वजित् ने भी प्रणिपात कर निवेदन किया, "भगवन्, हमने भी सत्य को जान लिया, हमें भी उपसम्पदा मिले, प्रव्रज्या मिले!" बुद्ध ने उन्हें ब्रह्मचर्य-पालन का उपदेश देते हुए कहा––"भिक्षुओ, सब भौतिक पदार्थ अन-आत्मा हैं। यदि इनकी आत्मा होती तो ये पीड़ादायक न होते। वेदना भी अन-आत्मा है। अभौतिक पदार्थ विज्ञान भी अन-आत्मा है क्योंकि वह पीड़ादायक है। तब, क्या मानते हो भिक्षुओ! रूप नित्य है या अनित्य?"

"अनित्य है भन्ते!"

"जो अनित्य है, वह दुःख है या सुख?"

"दुःख है भन्ते!"

"जो अनित्य, दुःख और विकार को प्राप्त होनेवाला है, क्या उसके लिए यह समझना उचित है कि यह पदार्थ मेरा है, यह मैं हूं, यह मेरी आत्मा है?"

"नहीं भन्ते?"

"तब क्या मानते हो भिक्षुओ, जो कुछ भी भूत-भविष्य-वर्तमान सम्बन्धी, भीतर या बाहर, स्थल या सूक्ष्म, अच्छा या बुरा, दूर या नज़दीक का रूप है, वह न मेरा है, न मैं हूं, मेरी आत्मा है––ऐसा समझना चाहिए?"

"सत्य है भन्ते!"

"और इसी प्रकार वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान भी, भिक्षुओ!"

"सत्य है भन्ते, हमने इस सत्य को समझ लिया।"

"तो भिक्षुओ! विद्वान् आर्य को रूप से, वेदना से, संज्ञा से और विज्ञान से उदास रहना चाहिए। उदास रहने से इन पर विराग होगा, विराग से मुक्ति, मुक्ति से आवागमन छूट जाएगा भिक्षुओ! आवागमन नष्ट हो गया, ब्रह्मचर्य-वास पूरा हो गया। करना था सो कर लिया। अब कुछ करना शेष नहीं।"

भाषण के अन्त में पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने तथागत को प्रणिपात किया और कहा––"भगवन्, हमारा चित्त मलों से मुक्त हो गया है।"

"तब भिक्षुओ, अब इस लोक में कुल छः अर्हत हैं। एक मैं और पांच तुम।" इतना कहकर तथागत वृक्ष के सहारे पीठ टेककर अन्तःस्थ हो गए। भिक्षु-गण प्रणिपात कर भिक्षाटन को गए।