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वैशाली की नगरवधू/9. धर्म चक्र-प्रवर्तन

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वैशाली की नगरवधू
आचार्य चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: राजपाल एंड सन्ज़, पृष्ठ ३७ से – ३९ तक

 
9. धर्म चक्र-प्रवर्तन

काशियों में बड़ी उत्तेजना फैल गई। वाराणसी की वीथिका में लोगों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि शाक्यपुत्र गौतम चीवर और भिक्षापात्र हाथ में लिए, नीचा सिर किए, अपने स्वर्ण समान दमकते हुए मुख को पृथ्वी की ओर झुकाए पांव-प्यादे जा रहे हैं। उनके पीछे-पीछे नगरजेट्ठक नगरसेट्ठि का कुलपुत्र यश उसी भांति सिर मुंडाए, नंगे पैर चीवर और भिक्षापात्र हाथ में लिए, नीची दृष्टि किए जा रहा है। किसी ने कहा—"अरे, यही वह शाक्य राजकुमार गौतम है, जिसने पत्नी, पुत्र, राज्यसुख सब त्याग दिया है। जिसने मार को जीता है, जिसने अमृत प्राप्त किया है, जो अपने को सम्पूर्ण बुद्ध कहता है।" कोई कह रहा था—"देखो, देखो, यही कुलपुत्र यश है, जो कल तक सुनहरी जूते पहने, कानों में हीरे के कुण्डल पहने, अपने रथ की स्वर्णघंटियों के घोष से वीथियों को गुञ्जायमान करते हुए नगर में आता था। आज वह नंगे पैर श्रमण गौतम का अनुगत हो भिक्षापात्र लिए अपने ही घर भिक्षान्न की याचना करने जा रहा है।"

किसी ने कहा—"अरे कुलपुत्र यश के मुख का वैभव तो देखो! सुना है, उसे परम सम्पदा प्राप्त हुई है, उसे अमृततत्त्व मिला है।"

पौर वधुओं ने झरोखों में से झांककर कहा—"बेचारे कुलपुत्र की नववधू का भाग्य कैसा है री? अरे यह स्वर्णगात, यह मृदुल-मनोहर गति, यह काम-विमोहन रूप लेकर कैसे इसी वयस में यश कुलपुत्र भिक्षु बन गया?"

कोई कहती—"देखो री देखो, कुलपुत्र का भिक्षुवेश? अरे! इसने अपने चिक्कण घनकुंचित केश मुंडवा दिए। यह निराभरण होकर, पांव-प्यादा चलकर भी कितना सुखी है, शांत है, तेज से व्याप्त है!"

सबने कहा—"उसने अमृत पाया है री! उसने उपसम्पदा प्राप्त की है।"

पौरजन कहने लगे—"काशी में यह श्रमण गौतम उदय हुआ है और वैशाली में वह अम्बपाली। अब इन दोनों के मारे जनपथ में कोई घर में नहीं रहने पाएगा। काशी के सब कुलपुत्रों को यह भ्रमण गौतम भिक्षु बना डालेगा और वैशाली में अम्बपाली सब सेट्ठिपुत्रों और सामन्तपुत्रों को अपने रूप की हाट में खरीद लेगी।"

उस समय के सम्पूर्ण लोक में जो सात अर्हत थे, वे चुपचाप बढ़े चले जा रहे थे। उनकी दृष्टि पृथ्वी पर थी, कन्धों पर चीवर था, हाथ में भिक्षापात्र था, नेत्रों में धर्म-ज्योति, मुख पर ज्ञान-दीप्ति, अंग में उपसम्पदा की सुषमा, गति में त्याग और तृप्ति थी। लोग ससम्मान झुकते थे, परिक्रमा करते थे, अभिवादन करते थे, उंगली उठा-उठाकर एक-एक का बखान करते थे।

गृहपति ने आगे बढ़कर सातों अर्हतों का स्वागत किया। उन्हें आसन देकर पाद्य पादपीठ और पादकाष्ठ दिया। जब भगवान् बुद्ध स्वस्थ होकर आसन पर बैठे, तब यश

कुलपुत्र की माता और पत्नी आईं और तथागत का पदवन्दन करके बैठ गईं। उनसे तथागत ने आनुपूर्वी कथा कही और जब भगवान् ने उन्हें भव्यचित्त देखा तो, जो बुद्धि को उठानेवाली देशना है—दुःख-समुदय, निरोध और मार्ग, उसे प्रकाशित किया। उन दोनों को उसी आसन पर विमल-विरज धर्मचक्षु उदय हुआ। उन्होंने कहा—"आश्चर्य भन्ते, आज से हमें अञ्जलिबद्ध शरणागत उपासिका जानें।"

तथागत ने उन्हें उपसम्पदा दी और विश्व में वही दोनों प्रथम तीन वचनों वाली प्रथम उपासिका बनीं।

इसके बाद सातों अर्हतों ने तृप्तिपूर्वक भोजन किया। फिर स्वस्थ हो भगवान् ने उन्हें संदर्शन, समाज्ञापन, समुत्तेजन, संप्रहर्षण प्रदान किया और आसन से उठे।

आगे-आगे तथागत, पीछे पंचजन भिक्षु और उनके पीछे कुलपुत्र यश उसी भांति जब मृगदाव लौटे तो यश के चार परम मित्र यश के पीछे-पीछे हो लिए। एक ने कहा—"यह यश कैसे दाढ़ी-मूंछ मुंडा, काषाय वस्त्र पहन एकबारगी ही घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो गया?" दूसरे कहा—"वह धर्मविनय छोटा न होगा, वह संन्यास छोटा न होगा जिसमें कुलपुत्र यश सिर-दाढ़ी मुंडा, काषाय वस्त्र पहन, घर से बेघर हो प्रव्रजित हुआ है।"

तब चारों मित्रों ने निश्चय किया कि हम भी कुलपुत्र यश की सम्पदा के भागी बनेंगे। जब सब कोई मृगदाव पहुंचे और अपने-अपने आसनों पर स्वस्थ होकर बैठे, तो चारों मित्र अभिवादन करके यश की ओर खड़े हो गए। उनमें से एक ने कहा—"भन्ते, यश कुलपुत्र! हमें भी धर्मलाभ होने दो। हमें भी वह अमृततत्त्व प्राप्त होने दो।"

यश उन्हें लेकर वहां पहुंचा, जहां तथागत बुद्ध शान्त मुद्रा से स्थिर बैठे थे। यश ने कहा—"भगवन्, ये मेरे चार अन्तरंग गृही मित्र वाराणसी के श्रेष्ठियों, अनुश्रेष्ठियों के कुलपुत्र हैं। इसका नाम सुबल, इसका सुबाहु, इसका पूर्णजित् और इसका गवाम्पति है। इन्हें भगवान् अनुशासन करें।"

तथागत ने उनसे आनुपूर्वी कथा कही और सत्य-चतुष्टय का उपदेश दिया। तब वे सुव्याख्यात धर्म में विशारद स्वतन्त्र हो बोले—"भगवान् हमें उपसम्पदा दें। भगवान् ने कहा—"भिक्षुओ, आओ, धर्म सुव्याख्यात है। अच्छी तरह दुःख के क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो।" यही उनकी उपसम्पदा हुई। तब भगवान् ने उनकी अनुशासना की। अब लोक में ग्यारह अर्हत् थे।

आग की भांति यह समाचार सारे काशी राज्य में फैल गया। यश के ग्रामवासी पूर्वज परिवारों के पुत्र पचास गृही मित्रों ने सुना कि यश कुलपुत्र भिक्षु हो गया है, वे भी बुद्ध की शरण आए और प्रव्रज्या ले ली।

अब लोक में इकसठ अर्हत् थे।

भगवान् गौतम ने कहा—

"भिक्षुओ, अब तुम सब मानुष और दिव्य बन्धनों से मुक्त हो। बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए, लोक पर दया करने के लिए, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिए, हित के लिए, सुख के लिए विचरण करो! एक साथ दो मत जाओ। आदि में कल्याणकारक, मध्य में कल्याणकारक, अन्त में कल्याणकारक, इस धर्म का उपदेश करो। अर्थ सहित, व्यंजन सहित परिपूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का सेवन करो। अल्पदोष वाले प्राणी भी हैं,

कल्याणकारक धर्म के न सुनने से उनकी हानि होगी, सुनने से वे धर्म को जानेंगे। जाओ भिक्षुओ, दिशा-दिशा में जाओ। अनुमति देता हूं , उन्हें प्रव्रज्या दो, उपसम्पदा प्रदान करो!"