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संगीत विशारद/सङ्गीत प्रचार का आधुनिक काल

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हाथरस: प्रभूलाल गर्ग, पृष्ठ २९ से – ३१ तक

 

सङ्गीत प्रचार का आधुनिक काल (१९००-१९५० ई॰)

इस आधुनिक काल में सङ्गीत के उद्धार और प्रचार का श्रेय भारत की २ महान विभूतियों को है, जिनके शुभ नाम हैं श्री विष्णुनारायण भातखण्डे और श्री विष्णु दिगम्बर पलुस्कर। दोनों ही महानुभावों ने देश में जगह-जगह पर्यटन करके सङ्गीत कला का उद्धार किया। जगह-जगह अनेक सङ्गीत विद्यालयों की स्थापना की। सङ्गीत सम्मेलनों द्वारा सङ्गीत पर विचार विनिमय हुए जिसके फलस्वरूप जनसाधारण  में सङ्गीत की रुचि विशेष रूप से उत्पन्न हुई। इस काल में शास्त्रीय साधना के साथ-साथ संगीत में नवीन प्रयोग द्वारा एक विशेषता पैदा करने का श्रेय विश्वकवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर को है, इन्होंने प्राचीन राग रागनियों के आकर्षक स्वर समुदाय लेकर तथा अन्य कलात्मक प्रयोगों द्वारा 'रवीन्द्र सङ्गीत' के रूप में एक नई चीज़ सङ्गीत प्रेमियों को दी।

श्री भातखण्डे और उनके ग्रन्थ—श्री विष्णु नारायण भातखण्डे का जन्म बम्बई प्रांत के बालकेश्वर नामक स्थान में १० अगस्त १८६० ई॰ को हुआ। इन्होंने १८८३ में बी॰ ए॰ और १८६० में एल-एल॰ बी॰ की परीक्षा पास की। इनकी लगन आरम्भ से ही सङ्गीत की ओर थी। १९०४ में आपकी ऐतिहासिक सङ्गीत यात्रा प्रारम्भ हुई, जिसमें आपने भारत के सैकड़ों स्थानों का भ्रमण करके सङ्गीत सम्बन्धी साहित्य की खोज की। बड़े-बड़े गायकों का सङ्गीत सुना और उनकी स्वरलिपियां तैयार करके "क्रमिक पुस्तक मालिका" में प्रकाशित कराईं, जिसके ६ भाग हैं। थ्योरी (शास्त्रीय) ज्ञान के लिये आपने हिन्दुस्थानी सङ्गीत पद्धति के ४ भाग मराठी भाषा में लिखे[]। संस्कृत भाषा में भी आपने लक्ष्यसङ्गीत और "अभिनव राग मंजरी" नामक पुस्तकें लिखकर प्राचीन सङ्गीत की विशेषताओं एवं उसमें फैली हुई भ्रान्तियों पर प्रकाश डाला। श्री भातखण्डे जी ने अपना शुद्ध थाट बिलावल मानकर थाट पद्धति स्वीकार करते हुए १० थाटों में बहुत से रागों का वर्गीकरण किया।

१९१६ ई॰ में आपने बड़ौदा में एक विशाल सङ्गीत सम्मेलन किया, इसका उद्घाटन महाराजा बड़ौदा द्वारा हुआ। इसमें सङ्गीत के विद्वानों द्वारा सङ्गीत के अनेक तथ्यों पर गम्भीरता पूर्वक विचार हुए और एक "आल इण्डिया म्यूज़िक एकेडमी" की स्थापना का प्रस्ताव भी स्वीकृत हुआ। इस म्यूज़िक कान्फ्रेन्स में भातखण्डे जी के सङ्गीत सम्बन्धी जो महत्वपूर्ण भाषण हुये वे भी अँग्रेजी में "A Short Historical Survay of the Music of Upper India" नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। (इसका भी हिन्दी अनुवाद सङ्गीत कार्यालय से प्रकाशित हो चुका है)

बाद में आपके प्रयत्न से अन्य कई स्थानों में भी सङ्गीत सम्मेलन हुए तथा सङ्गीत विद्यालयों की स्थापना हुई जिनमें लखनऊ का मैरिस म्यूज़िक कालेज (अब "भातखण्डे कालेज आफ़ म्यूज़िक"), गवालियर का माधव सङ्गीत महा विद्यालय तथा बड़ौदा का म्यूज़िक कालेज विशेष उल्लेखनीय हैं।

इस प्रकार इन्होंने अपने अथक परिश्रम द्वारा सङ्गीत की महान सेवा की और संगीत जगत में एक नवीन युग स्थापित करके अन्त में १९ सितम्बर १९३६ को आप परलोक वासी हुए।

राजा नवाबअली लिखित "मारिफुन्नग़मात"—सन् १९११ के लगभग लाहौर के रहने वाले एक सङ्गीत विद्वान राजा नवाबअली खाँ भातखण्डे जी के संपर्क में आये। राजा साहेब ने अपने एक प्रसिद्ध गायक नजीर खां को आचार्य भातखण्डे जी के पास सङ्गीत के शास्त्रीय ज्ञान तथा लक्षणगीतों को सीखने के लिये भेजा और फिर उर्दू में सङ्गीत की एक सुन्दर पुस्तक "मारिफुन्नग़मात" लिखी। इस पुस्तक का यथेष्ट आदर हुआ और वह बी॰ ए॰ के म्यूज़िक कोर्स में शामिल  की गई बाद में (सन् १९५० में) इसका हिन्दी अनुवाद सङ्गीत कार्यालय हाथरस से प्रकाशित हुआ। जिससे हिन्दी के मङ्गीत विद्यार्थियों को बहुत लाभ हुआ।

श्री विष्णु दिगम्बर जी पलुस्कर—श्री विष्णु दिगम्बर जी पलुस्कर का जन्म १८७२ ईसवी में श्रावणी पूर्णिमा के दिन कुरुन्दवाड़ (बेलगाम) में हुआ। आपको सङ्गीत शिक्षा गायनाचार्य पं॰ बालकृष्ण बुवा से प्राप्त हुई। १८९६ ई॰ में आपने सङ्गीत प्रचार के हेतु भ्रमण प्रारम्भ किया। पलुस्कर जी ने अपने सुमधुर और आकर्षक सङ्गीत के द्वारा सङ्गीत प्रेमी जनता को आत्म विभोर कर दिया। पंडित जी के व्यक्तित्व के प्रभाव से सभ्य समाज में सङ्गीत की लालसा जाग उठी, जिसके फलस्वरूप सङ्गीत के कई विद्यालय स्थापित हुए, जिनमें लाहौर का गान्धर्व महाविद्यालय सर्व प्रथम ५ मई १९०१ ई॰ को स्थापित हुआ। बाद में बम्बई का गान्धर्व महाविद्यालय स्थापित हुआ और यही मुख्य केन्द्र बन गया। पंडित जी का कार्य आगे बढ़ाने के लिये उनके शिष्यों के सामूहिक प्रयत्न से "गान्धर्व महाविद्यालय मण्डल" की स्थापना हुई, जिसके बहुत से केन्द्र विभिन्न नगरों में स्थापित हो चुके हैं।

सन् १९२० ई॰ से पलुस्कर जी कुछ विरक्त से रहने लगे थे, अंतः १९२२ में नासिक में रामनाम आधार आश्रम आपने खोला। तबसे आपका सङ्गीत भी "रामनाम मय" हो गया। इस प्रकार सङ्गीत को पवित्र वातावरण में स्थापित करके अन्त में यह सङ्गीत का पुजारी २१ अगस्त १९३१ को मिरज में प्रभु धाम को प्रस्थान कर गया।

पण्डित जी द्वारा सङ्गीत की कई पुस्तकें भी प्रकाशित हुई थीं, जिनमें से कुछ के नाम ये हैं—सङ्गीत बालबोध, सङ्गीत बाल प्रकाश, स्वल्पालाप गायन, सङ्गीत तत्वदर्शक, रागप्रवेश, भजनामृत लहरी इत्यादि।

आपकी स्वरलिपि भातखण्डे पद्धति से भिन्न है। प्रोफ़ेसर डी॰ वी॰ पलुस्कर, जो वर्तमान गायकों में एक अच्छे गायक माने जाते हैं, आपके ही सुपुत्र हैं।

  1. इनका हिन्दी अनुवाद भातखण्डे सङ्गीत शास्त्र के नाम से सङ्गीत कार्यालय हाथरस से प्रकाशित हो गया है।