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सत्य के प्रयोग/१.२: बचपन

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सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ २२ से – २५ तक

 

बचपन

पोरबंदरसे पिताजी 'राजस्थानिक कोर्ट'के सभ्य होकर जब राजकोट गये तब मेरी उम्र कोई ७ सालकी होगी। राजकोटको देहाती पाठशालामें मैं भरती कराया गया। इस पाठशालाके दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं। मास्टरोंके नाम-ठाम भी याद हैं। पोरबंदरकी तरह वहांकी पढ़ाईके संबंधमें भी कोई खास बात जानने लायक नहीं। मामूली विद्यार्थी भी मुश्किलसे माना जाता होऊंगा। पाठशालासे फिर ऊपरके स्कूलमें-और वहांसे हाईस्कूलमें गया। यहांतक पहुंचते हुए मेरा बारहवां साल पूरा हो गया। मुझे न तो यही याद है कि अबतक मैंने किसी भी शिक्षकसे झूठ बोला हो, न यही कि कभीसे मित्रता जोड़ी हो। बात यह थी कि मैं बहुत झेंपू लड़का था, मदरसेमें अपने कामसे काम रखता। घंटी लगते समय पहुंच जाता, फिर स्कूल बंद होते ही घर भाग आता। 'भाग आता' शब्दका प्रयोग मैंने जान-बूझकर किया है, क्योंकि मुझे किसीके साथ बातें करना न सुहाता था-मुझे यह डर भी बना रहता कि 'कहीं कोई मेरी दिल्लगी न उड़ाए?'

हाईस्कूलके पहले ही सालके परीक्षाके समयकी एक घटना लिखने योग्य है। शिक्षा-विभागके इन्स्पैक्टर, जाइल्स साहब, निरीक्षण करने आये। उन्होंने पहली कक्षाके विद्यार्थियोंको पांच शब्द लिखवाये। उनमें एक शब्द था 'केटल' (Kettle)। उसे मैंने गलत लिखा। मास्टर साहबने मुझे अपने बूटसे टल्ला देकर चेताया। पर मैं क्यों चेतने लगा? मेरे दिमाग़में यह बात न आई कि मास्टर साहब मुझे आगेके लड़केकी स्लेट देखकर सही लिखनेका इशारा कर रहे हैं। मैं यह मान रहा था कि मास्टर साहब यह देख रहे हैं कि हम दूसरेसे नकल तो नहीं कर रहे हैं । सब लड़कोंके पांचों शब्द सही निकले, एक मैं ही बुद्धू साबित हुआ। मास्टर साहबने बादमें मेरी यह 'मूर्खता' मुझे समझाई परन्तु उसका मेरे दिलपर कुछ असर न हुआ। दूसरोंकी नकल करना मुझे कभी न आया
बड़े-बूढ़ोंके ऐब न देखनेका गुण मेरे स्वभावमें ही था। बादको तो इन मास्टर साहबके दूसरे ऐब भी मेरी नजरमें आये। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर-भाव कायम ही रहा। मैं इतना जान गया था कि हमें बड़े-बूढ़ोंकी आज्ञा माननी चाहिए, जैसा वे कहें करना चाहिए; पर वे जो-कुछ करें उसके काजी हम न बनें।

इसी समय और दो घटनाएं हुई, जो मुझे सदा याद रही हैं। मामूली तौर पर मुझे कोर्सकी पुस्तकोंके अलावा कुछ भी पढ़नेका शौक न था। इस खयालसे कि अपना पाठ याद करना उचित है, नहीं तो उलाहना सहन न होगा और मास्टर साहबसे झूठ बोलना ठीक नहीं, मैं पाठ याद करता; पर मन न लगा करता। इससे सबक कई बार कच्चा रह जाता। तो फिर दूसरी पुस्तकें पढ़नेकी तो बात ही क्या? परन्तु पिताजी एक 'श्रवण-पितृ-भक्ति' नामक नाटक खरीद लाये थे, उसपर मेरी नजर पड़ी। उसे पढ़नेको दिल चाहा। बड़े चावसे मैंने उसे पढ़ा। इन्हीं दिनों शीशेमें तसवीर दिखानेवाले लोग भी आया करते। उनमें मैंने यह चित्र भी देखा कि श्रवण अपने माता-पिताको कांवरमें बैठाकर तीर्थयात्राके लिए ले जा रहा है। ये दोनों चीजें मेरे अंतस्तल पर अंकित हो गईं। मेरे मनमें यह बात उठा करती कि मैं भी श्रवणकी तरह बनूं। श्रवण जब मरने लगा तो उस समयका उसके माता-पिताका विलाप अब भी याद है। उस ललित छंदको मैं बाजेपर भी बजाया करता। बाजा सीखनेका मुझे शौक था और पिताजी ने एक बाजा खरीद भी दिया था।

इसी अरसेमें एक नाटक कंपनी आई और मुझे उसका नाटक देखनेकी छुट्टी मिली। हरिश्चंद्रका खेल था। इसको देखते मैं अघाता न था, बार-बार उसे देखनेको मन हुआ करता। पर यों बार-बार जाने कौन देने लगा? लेकिन अपने मनमें मैंने इस नाटकको सैकड़ों बार खेला होगा। हरिश्चंद्रके सपने आते। यही धुन समाई कि 'हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी सब क्यों न हों?' यही धारणा जमी कि हरिश्चंद्रके जैसी विपत्तियां भोगना, पर सत्यको न छोड़ना ही सच्चा सत्य है। मैंने तो यही मान लिया था कि नाटकमें जैसी विपत्तियां हरिश्चंद्रपर पड़ी हैं, वैसी ही वास्तवमें उसपर पड़ी होंगी। हरिश्चंद्रके दु:खोंको देखकर, उन्हें याद कर-कर, मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि कहती है कि संभव है, हरिश्चंद्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति न हों। पर मेरे हृदयमें तो हरिश्चंद्र और श्रवण आज भी

बचपन

पोरबंदरसे पिताजी 'राजस्थानिक कोर्ट'के सभ्य होकर जब राजकोट गये तब मेरी उम्र कोई ७ सालकी होगी। राजकोटको देहाती पाठशालामें मैं भरती कराया गया। इस पाठशालाके दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं। मास्टरोंके नाम-ठाम भी याद हैं। पोरबंदरकी तरह वहांकी पढ़ाईके संबंधमें भी कोई खास बात जानने लायक नहीं। मामूली विद्यार्थी भी मुश्किलसे माना जाता होऊंगा। पाठशालासे फिर ऊपरके स्कूलमें-और वहांसे हाईस्कूलमें गया। यहांतक पहुंचते हुए मेरा बारहवां साल पूरा हो गया। मुझे न तो यही याद है कि अबतक मैंने किसी भी शिक्षकसे झूठ बोला हो, न यही कि कभीसे मित्रता जोड़ी हो। बात यह थी कि मैं बहुत झेंपू लड़का था, मदरसेमें अपने कामसे काम रखता। घंटी लगते समय पहुंच जाता, फिर स्कूल बंद होते ही घर भाग आता। 'भाग आता' शब्दका प्रयोग मैंने जान-बूझकर किया है, क्योंकि मुझे किसीके साथ बातें करना न सुहाता था-मुझे यह डर भी बना रहता कि 'कहीं कोई मेरी दिल्लगी न उड़ाए?'

हाईस्कूलके पहले ही सालके परीक्षाके समयकी एक घटना लिखने योग्य है। शिक्षा-विभागके इन्स्पैक्टर, जाइल्स साहब, निरीक्षण करने आये। उन्होंने पहली कक्षाके विद्यार्थियोंको पांच शब्द लिखवाये। उनमें एक शब्द था 'केटल' (Kettle)। उसे मैंने गलत लिखा। मास्टर साहबने मुझे अपने बूटसे टल्ला देकर चेताया। पर मैं क्यों चेतने लगा? मेरे दिमाग़में यह बात न आई कि मास्टर साहब मुझे आगेके लड़केकी स्लेट देखकर सही लिखनेका इशारा कर रहे हैं। मैं यह मान रहा था कि मास्टर साहब यह देख रहे हैं कि हम दूसरेसे नकल तो नहीं कर रहे हैं । सब लड़कोंके पांचों शब्द सही निकले, एक मैं ही बुद्धू साबित हुआ। मास्टर साहबने बादमें मेरी यह 'मूर्खता' मुझे समझाई परन्तु उसका मेरे दिलपर कुछ असर न हुआ। दूसरोंकी नकल करना मुझे कभी न आया
बड़े-बूढ़ोंके ऐब न देखनेका गुण मेरे स्वभावमें ही था। बादको तो इन मास्टर साहबके दूसरे ऐब भी मेरी नजरमें आये। फिर भी उनके प्रति मेरा आदर-भाव कायम ही रहा। मैं इतना जान गया था कि हमें बड़े-बूढ़ोंकी आज्ञा माननी चाहिए, जैसा वे कहें करना चाहिए; पर वे जो-कुछ करें उसके काजी हम न बनें।

इसी समय और दो घटनाएं हुई, जो मुझे सदा याद रही हैं। मामूली तौर पर मुझे कोर्सकी पुस्तकोंके अलावा कुछ भी पढ़नेका शौक न था। इस खयालसे कि अपना पाठ याद करना उचित है, नहीं तो उलाहना सहन न होगा और मास्टर साहबसे झूठ बोलना ठीक नहीं, मैं पाठ याद करता; पर मन न लगा करता। इससे सबक कई बार कच्चा रह जाता। तो फिर दूसरी पुस्तकें पढ़नेकी तो बात ही क्या? परन्तु पिताजी एक 'श्रवण-पितृ-भक्ति' नामक नाटक खरीद लाये थे, उसपर मेरी नजर पड़ी। उसे पढ़नेको दिल चाहा। बड़े चावसे मैंने उसे पढ़ा। इन्हीं दिनों शीशेमें तसवीर दिखानेवाले लोग भी आया करते। उनमें मैंने यह चित्र भी देखा कि श्रवण अपने माता-पिताको कांवरमें बैठाकर तीर्थयात्राके लिए ले जा रहा है। ये दोनों चीजें मेरे अंतस्तल पर अंकित हो गईं। मेरे मनमें यह बात उठा करती कि मैं भी श्रवणकी तरह बनूं। श्रवण जब मरने लगा तो उस समयका उसके माता-पिताका विलाप अब भी याद है। उस ललित छंदको मैं बाजेपर भी बजाया करता। बाजा सीखनेका मुझे शौक था और पिताजी ने एक बाजा खरीद भी दिया था।

इसी अरसेमें एक नाटक कंपनी आई और मुझे उसका नाटक देखनेकी छुट्टी मिली। हरिश्चंद्रका खेल था। इसको देखते मैं अघाता न था, बार-बार उसे देखनेको मन हुआ करता। पर यों बार-बार जाने कौन देने लगा? लेकिन अपने मनमें मैंने इस नाटकको सैकड़ों बार खेला होगा। हरिश्चंद्रके सपने आते। यही धुन समाई कि 'हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी सब क्यों न हों?' यही धारणा जमी कि हरिश्चंद्रके जैसी विपत्तियां भोगना, पर सत्यको न छोड़ना ही सच्चा सत्य है। मैंने तो यही मान लिया था कि नाटकमें जैसी विपत्तियां हरिश्चंद्रपर पड़ी हैं, वैसी ही वास्तवमें उसपर पड़ी होंगी। हरिश्चंद्रके दु:खोंको देखकर, उन्हें याद कर-कर, मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि कहती है कि संभव है, हरिश्चंद्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति न हों। पर मेरे हृदयमें तो हरिश्चंद्र और श्रवण आज भी

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।