सत्य के प्रयोग/ 'इंडियन ओपीनियन'

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय १३ : 'इंडियन ओपीनियन' ३८७ 'इंडियन ओपीनियन अभी और यूरोपियनोंके गाड़ परिचयका दर्शन करना बाकी है। किंतु उसके पहले दो-तीन जरूरी बातों का उल्लेख कर देना आवश्यक है। एक परिचय तो यहीं देता हूं। अकेले भिस डिकके ही आ जानेले मेरा काम पूरा नहीं हो सकता था । मि० रोचका जिक्र में पहले कर चुका हूं। उसके साथ तो मेरा खासा परिचय था ही। वह एक व्यापारी गद्दी के व्यवस्थापक थे । मैंने उन्हें सुझाया कि वह उस काम को छोड़कर मेरे साथ काम करें। उन्हें यह पसंद हुआ और वह मेरे दफ्तर में काम करने लगे । इससे मेरे कमका बोझ हलका हुआ ।। | इसी अरने मदद इंडियन ओपीनियन' नामक अखवार निकालने का इरादा किया । उन्होंने उसमें मेरी सलाह और मदद मांगी । छापाखाना तो उनका पहलने ही चल रहा था । इसलिए अखबार निकालने के प्रस्ताव ने में अहमद हो गया । वस १९०४में 'इंडियन ओनियन का जन्म हो गया । “मनसुखलाल नाज उसके संपादक हुए; पर सच पूछिए ...संवादका असली बोझ मुझपर ही आ पड़ा। मेरे नसीवमें नो हमेशा प्रायः दूर रहकर ही पत्रसंचालनका काम रहा है । पर यह बात नहीं कि मनसुखलाल नाजर संपादनका काम नहीं कर सकते थे। वह देसके कितने ही अखबारोंमें लिखा करते थे; परंतु दक्षिण अफ्रीकाके अटपटे प्रश्नोंपर मेरे मौजूद रहते हुए स्वतंत्र-रूपसे लेख लिखने की हिम्मत उन्हें न हुई । भेरी विवेकशीलता पर उनका अतिशय विश्दास था। इसलिए जिन-जिन विषयोंपर लिखना आवश्यक होता उनपर लेखादि लिखने का बोझ वह मुझपर रख देते ।। ‘इंडियन ओपीनियन' साप्ताहिक था और आज भी है। पहलेबह गुजराती, हिंदी, तमिल और अंग्रेज़ी इन चार भाष्यों में निकलत... था, परंतु मैने देखा कि तमिल और हिंदी-विभाग नाम-मात्रके लिए थे। मैंने यह भी [ ३०८ ]________________

३८* -क । भइ ४ अनुभव किया कि उनके द्वारा भारतीयोंकी सेवा नहीं हो रही थी । इन विभागों को कायम रखने में मुझे झूठा आश्रय लेने का आभास हुआ——इस कारण उन्हें बंद करके शांति प्राप्त की ।। मुझे यह खयाल न था कि इस अखबार में मुझे रुपया भी लाना पड़ेगा; परंतु थोड़े ही अरसे बाद मैंने देखा कि यदि मैं उसमें रुपया नहीं लेता हूं तो वह बिलकुल चल ही नहीं सकता था । यद्यपि उसका संपादक मैं न था फिर भी भारतीय र गोरे सद लोग इस बात को जान गये थे कि उसके लेख की जिम्मेदारी मुझपर हैं। फिर अगर अखबार नहीं निकला होता तो एक बात थी; पर निकल चुकने के बाद उसके बंद होनेसे सारे भारतीय समाजकी बदनामी होती थी और उसे हानि पहुंचनेको भी पूरा भय था । इसलिए मैं उसमें रुपये लगाता गया और अंतको यहांतक नौबत आ गई कि मेरे पास जो कुछ बच जाता था सब उसके अर्पण होत था। ऐसा भी समय अझे याद है जब उसमें प्रति मास ७५ पौंड मझे भेजना पड़ता था। परंतु इतन्नो अरसा हो जाने के बाद मझे प्रतीत होता है कि इस अखबार के द्वारा भारतीय समाजकी अच्छी सेवा हुई है। उसके द्वारा धन उपार्जन करनेका त इरादा से ही किसीका ३ था ।। जबतक उसका सूत्र मेरे हाथमें था तबतक उसमें जो कुछ परिवर्तन हुए मैं मेरे जीवनकै परिवर्तनोंके सूचक थे। जिस प्रकार अजि. 'यंग इंडिया' और नवजीवन' मेरे जीवन के कितने अंशका निचोड़ हैं उस प्रकार 'इंडियन प्रोपनियन' भी था । उसमें में प्रति सप्ताह अपनी आत्माको उड़ेलता और उस चीजको समझाने का प्रत्न करत' जिसे मैं सत्याग्रहके नाम से पहचानता था । जेल के दिनोंको छोड़कर दस वर्षतक अर्थात् १९१४तकके ‘इंडियन ओपीनियनका शायद ही कोई अंक ऐसा गया हो जिसमें मैंने एक भी शब्द बिनः विचारे, बिना तौले लिखा हो अथवा महज़ किसीको खुश करने के लिए लिखा हो या जान-बूझकर अत्युक्ति की हो । यह अखवार मेरे लिए संयमकी तालीमका काम देता था, मित्रोंके लिए मेरे विचार जाननेक साधन हो गया था और टीकाकारोंको उसमेंसे टीका करने की सामग्री बहुत थोड़ी मिल सकती थी। मैं जानता हूं कि उसके लेखोंकी बदौलत टीकाकारोंको अपनी कलमपर अंकुश रखना पड़ता था । यदि यह् अखबार न होता तो सत्याग्नहु-संझाम न चल सकता । पाठक इसे अपना [ ३०९ ]________________

अध्याय १३ : * इंडियद अयानिधन २५६ पत्र समझते थे और इसमें उन्हें सत्याग्रह-संग्रामका तथा दक्षिण अफ्रीका-स्थिद्ध हिंदुस्तानियोंकी दशाका सच्चा चित्र दिखाई पड़ता था ।। इस पत्रके द्वारा मुझे रंग-बिरंगे मनुष्य-स्वभावको परखनेका बहुत अवसर मिला है इसके द्वारा मैं संवादक और अाहकके बीच निकट और स्वच्छ संबंध बांधना चाहता था। इसलिए मेरे पास ढेर-की-हेर दिदियां ऐसी अतः जिनमें लेखक अपने अंतरको मेरे सामने खोलते थे। इस सिलसिलेमें तीखे, कडुए, मीठे तरहतरकै पत्र और लेख मेरे पास आते है उन्हें पढ़ना, उनपर विचार करना, उनके विचारोंका सार निकालकर उन्हें जवाब देना, यह मेरे लिए बड़ा शिक्षादायक काम हो गया था। इसके द्वारा मुझे ऐसा अनुभव होता था मानो में वहांकी बातों और बिजारोंको अपने कानोसे सुना हैं। इससे मैं संपादककी जिम्मेदारीको खुद समझने लगा और अपने समाजके लोगोंपर जो नियंत्रण मेरा हो सके उसके बदौलत भाबी संग्राम इक्य, सुशोभित और प्रबल हुअा ।। | इंडियन ओपीनियन के प्रथम मासके कार्यकाल में ही मुझे यह अनुभव हो गया था कि समाचार-पत्रोंका संचालन सेवा-भावसे ही होना चाहिए । समाचार-पत्र एक भारी शक्ति है; परंतु जिस प्रकार निरंकुश जल-प्रवाह कई गांवोंको दुबो देता और फसलको नष्ट-भ्रष्ट कर देता है उसी प्रकार निरंकुश कलमको धारा भी सत्यानाश कर देती है। यह अंकुश यदि बाहरी हो तो वह इस निरंकुशतासे भी अधिक जहरीला साबित होता है । अतः लाभदायक तो अंदर ही अंकुश यदि इस विधा-अशिमें कोई दो न हो तो, भला बताइए, संसारकै कितने अखवार कायम रह सकते हैं ? परंतु सवाल यह है कि ऐॐ शिजूल अखबारोको बंद भी कौन कर सकता है ? और कौन किसको कि जूल' बता सकता है ? सच बात यह है कि कामकी और फिजूल दो 7 बातें संसारमें एक साथ चलती रहेंगी । मनुष्यके बस में तो सिर्फ इतना ही है कि वह अपने लिए पसंदगी कर लिया करे ।

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