सत्य के प्रयोग/ खेड़ाकी लड़ाईका अंत

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४६१ ]*** आत्म-कथा: भाग ५

प्रविरोधी तौरपर किसीके जेल जानेके पहले ही खेड़ाकी लड़ाई खत्म हो जाय। उन्होनें इस खेत की प्याज खोद लानेका बीड़ा उठाया । सात-आठ आदमियों ने उनका साथ दिया । 

सरकार उन्हें पकड़े बिना भला कैसे रहती ? मोहनलाल पंड्या और उनके साथी पकड़े गए। इससे लोगों का उत्साह बढ़ा ! लोग जहाँ पर जेल ईत्यादि से निर्भय बनते हैं वहाँ राजदंड लोगों का दबाने के बदले उलटा बहादुरी देता है । अदालत में लोगोंके झुंड मुकदमा देखने इक्कठा होने लगे । पंड्या को तथा उनके साथियों को बहुत थोड़े दिनों की कैद मिली । मैं मानता हुँ कि अदालत का फैसला गलत था । प्याज उखाड़ने की कार्रवाई चोरी की कानूनी व्याख्या में नहीं आती है; किंतु अपील करने की श्रोर किसी की रुचि ही नहीं थी ।

    जेल जानेवालों को पहुंचाने के लिए एक जलूस गया, और उस दिन से मोहनलाल पंड्याने जो ‘प्याज-चोर' की सम्मानित उपाधि लोगोंसे पाई उसका गौरव उन्हें आज तक प्राप्त हैं । 
  अब यह वर्णन करके कि इस लड़ाईका कैसा और किस तरह अंत आया, यह खेड़ा-प्रकरण पूरा करूँगा । 
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                     खेड़ाकी लड़ाई का अंत

इस लड़ाईका अंत विचित्र रीति से हुआ । यह स्पष्ट था कि लोग थक गये थे । जो लोग शाम भर खड़े थे, उन्हें अंततक ख्वार होने देने में संकोच होता था । मेरा झुकाव इस ओर था कि एक सत्याग्रही को जो उचित मालूम हो सके, ऐसा कोई उपाय अगर इस युद्ध को समाप्त करने का मिल जाय तो वही करना चाहिए । सो ऐसा एक अकल्पित उपाए आप-ही-आप आ भी गया । नड़ियाद ताल्लुकदार मामलतदार (तहसीलदार) ने खबर भेजी कि अगर धनी पाटीदार लगान अदा कर दें तो गरीबों का लगान मुल्तवी रहेगा । मैंने इस विषय तंहरीरी हुक्म माँगा । यह मिल भी गया । मामलतदार तो अपने ही ताल्लुकेकी जिम्मेदारी ले सकता हैं । सारे जिलेकी ओरसे कलेक्टर ही कह सकता है । इसलिए मैंने [ ४६२ ] अध्याय २५ : खेड़ाकी लड़ाईका अंत ४४५

कलेक्टर से पूछा । जवाब मिला कि ऐसा हुक्म तो कबका निकल चुका है । मुझे उसकी खबर न थी; किंतु अगर ऐसा हुक्म निकला हो तो लोगों की प्रतिज्ञा पूरी हुई समझनी चाहिए । प्रतिज्ञा में यही बात थी । इसलिए इस हुक्मसे हमने संतोष माना ।

     फिर भी इस अंतसे हममें से कोई खुश न हो सका ; क्योंकि सत्याग्रह की लड़ाई के पीछे जो मिठास होनी चाहिए सो इसमें नहीं थी । कलेक्टर समझता था मैंने मानो कुछ नया किया ही नहीं हैं । गरीब लोगों को छूट देनेकी बात थी, मगर ये भी शायद ही बचे । यह कहने का अधिकार कि गरीब कौन है, प्रजा नहीं आजमा सकी । मुझे इस बातका दु:ख था कि प्रजामें यह शक्ति नहीं रह गई थी । इसलिए सत्याग्रह की अंत का उत्सव तो मनाया गया, मगर मुझे वह निस्तेज लगा । 
   सत्याग्रह का शुद्ध अंत वह समझा जा सकता है कि जब आरम्भिक का बनिस्बत अंत में प्रजा में अधिक तेज और शक्ति दिखाई दे । किंतु ऐसा मुझे नहीं दिखाई दिया ।
   ऐसा होनेपर भी लड़ाईके जो अद्रृश्य परिणाम आए, उनका लाभ तो आज भी देखा जा सकता है और मिल भी रहा है । खेड़ाकी लड़ाईसे गुजरात के किसान-वर्ग की जाग्रित का, उसके राजनैतिक शिक्ष्ण का प्रारंभ हुआ ।
   विदुषी बसंतीदेवी (एनी बेसेंट)की 'होमरूल' की प्रतिभाशाली हलचलने उसको स्पर्श अवश्य किया था; किंतु किसान के जीवन में शिक्षित-वर्ग का, स्वयंसेवकों का, सच्चा प्रवेश हुआ तो इसी लड़ाई से कहा जा सकता है । सेवक पाटीदारों के जीवन मे श्रोत-प्रोत हो गये थे । स्वयं-सेवकोंको अपने क्षेत्रकी मर्यादा इस लड़ाई में मालूम हुई, उनकी त्याग-शक्ति बढ़ी । वल्लभभाई ने अपने-आपको इस लड़ाई में पहचाना । अगर और कुछ नहीं तो एक यही परिणाम कुछ ऐसा-वैसा नहीं था । यह हम पिछले साल बाढ़-संकट निवारण के समय और इस साल बारडोली में देख चुके हैं। गुजरात के प्रजा-जीवन में नया तेज आया, नया उत्साह भर गया । पाटीदारोंको अपनी शक्ति का भान हुआ, जो कभी नहीं मिटा । सबने समझा कि प्रजाकी मुक्ति का आधार खुद उसीके ऊपर है, उसीकी त्याग-शक्तिपर है । सत्याग्रहने खेड़ाके द्वारा गुजरात में जड़ जमाई । इसलिए हालांकि लड़ाईके अंतसे मैं संतुष्ट न हो सका, मगर खेड़ाकी प्रजा को तो उत्साह ही मिला; क्योंकि 

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