सत्य के प्रयोग/ गोखले के साथ पूना में

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय २ : गोखले के साथ यूनामें तो इसमें कोई कठिनाई नहीं आवेगी ।। इस तरह बंबईमें दो-एक दिन रहकर देसका प्रारंभिक अनुभव ले गोखलेकी अज्ञासे मैं पूना गया । गोखलेके साथ पूनामें | मेरे बंबई पहुंचते ही गोखलेने मुझे तुरंत खबर दी कि बंबईके गवर्नर आपसे मिलना चाहते है और पूना अनेके पहले आप उनसे मिल आवे तो अच्छा होगा। इसलिए मैं उनसे मिलने गया । मामूली बातचीत होनेके बाद उन्होंने मुझसे कहा--- “आपसे मैं एक वचन लेना चाहता हूं। मैं यह चाहता हूं कि सरकारके संबंधमें यदि आपको कहीं कुछ आंदोलन करना हो तो उसके पहले आप मुझसे भिल लें और बातचीत कर लें ।' मैंने उत्तर दिया कि यह वचन देना मेरे लिए बहुत सरल है; क्योंकि सत्याग्रहीकी हैसियतसे मेरा यह नियम ही है कि किसी के खिलाफ कुछ करने के पहले उसका दृष्टि-बिंदु खुद उसीसे समझ लें और अपनेसे जहांतक हो सके उसके अनुकूल होनेका यत्न करू । मैंने हमेशा दक्षिण अफ्रीका में इस नियमका पालन किया है और यहां भी मैं ऐसा ही करनेका विचार करता हूं ।। " लार्ड विलिंग्डनने इसपर मुझे धन्यवाद दिया और कहा---- “आप जब कभी मिलना चाहें, मुझसे तुरंत मिल सके और अप देखेंगे कि सरकार जान-बूझकर कोई बुराई करना नहीं चाहती ।" | मैंने जवाब दिया--- " इसी विश्वासपर तो मैं जी रहा हूं ।' | अब मैं पूना पहुंचा। वहांके तमाम संस्मरण लिखना मेरी सामर्थ्यके बाहर है। गोखलेने और भारत-सेवक-समितिके सदस्योंने मुझे प्रेमसे पाग दिया। जहांतक मुझे याद है उन्होंने तमाम सदस्योंको पूना बुलाया था। सबके साथ दिल खोलकर मेरी बात हुई । गोखलेकी तीव्र इच्छा थी कि में भी समितिमें जाऊ । इधर मेरी तो इच्छा थी ही; परंतु उसके सदस्योंकी यह धारणा हुई [ ३९९ ]________________

आत्म-कथा : भाग १ कि समितिके आदर्श और उसकी कार्यप्रणाली मुझसे भिन्न थी । इसलिए वे दुविधामें थे कि मुझे सदस्य होना चाहिए या नहीं । गोखलेकी यह मान्यता थी कि अपने आदर्शपर दृढ़ रहने की जितनी प्रवृत्ति मेरी थी उतनी ही दूसरों आदर्श की रक्षा करने और उनके साथ मिल जानेका स्वभाव भी था । उन्होंने कहा- “परंतु हमारे साथी आपके दूसरों को निभा लेनेके इस गुणको नहीं पहचान पाये हैं। वे अपने आदर्शपर दृढ़ रहने वाले स्वतंत्र और निश्चित विचारके लोग है। मैं आशा तो यही रखता हूं कि वे आपको सदस्य बनाना मंजूर कर लेंगे; परंतु यदि ने भी करें तो आप इससे यह तो हर्गिज न समझेंगे कि आपके प्रति उनका प्रेम या मादर कम है। अपने इस प्रेमको अखंडित रहने देने के लिए ही वे किसी तरहकी जोखिम उठाने से डरते हैं; परंतु आप समिति बाकायदा सदस्य हों, या न हों, मैं तो अापको सदस्य मानकर ही चलूंगा ।" मैंने अपना संकल्प उनपर प्रकट कर दिया था। समितिका सदस्य • बने या न बनू, एक आश्रमकी स्थापना करके फिनिक्सके साथियोंको उसमें रखकर मैं बैठ जाना चाहता था । गुजराती होने के कारण गुजरात के द्वारा सेवा करनेकी पूजी मेरे पास अधिक होनी चाहिए, इस विचारसे गुजरातमें ही कहीं स्थिर होनेकी इच्छा थी । गोखलेको यह विचार पसंद आया और उन्होंने कहा-- “जरूर आश्रम स्थापित करो । सदस्योंके साथ जो बातचीत हुई है। उसका फल कुछ भी निकलता रहे, परंतु आपको आश्रमके लिए धन लो मुझ हीसे लेना है। उसे मैं अपना ही आश्चम समझंगा ।" यह सुनकर मेरा हृदय फूल उठी। चंदा मांगनेकी झंझट से बचा, यह, समझकर बड़ी खुशी हुई और इस विश्वाससे कि अब मुझे अकेले अपनी जिम्मेदारी पर कुछ न करना पड़ेगा, बल्कि हरेक उलझनके समय मेरे लिए एक पथदर्शक यहां है, ऐसा मालूम हुआ मानो मेरे सिरका बोझ उतर गया । | गोखलेने स्वर्गीय डाक्टर देवको बुलाकर कह दिया---- “गांधीका खाता . • अपनी समितिमें डाल लो और उनको अपने आश्रमके लिए तथा सार्वजनिक • कामोंके लिए जो कुछ रुपया चाहिए, वह देते जाना ।". . अब मैं पूना छोड़कर शांति-निकेतन जानेकी तैयारी कर रहा था। अंतिम रातको गोखलेने खास मित्रोंकी एक पार्टी इस विधिसे की, जो मुझे रुचिकर होती।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।