सत्य के प्रयोग/ चौथा भाग(किया-कराया स्वाहा)

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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चौथा भाग

किया-कराया रवाहा ?

मिस्टर चेंबरलेन तो दक्षिण अफ्रीकासे साढ़े तीन करोड़ पौंड लेने के लिए तथा अंग्रेजोंका, और हो सके तो बोअरोंका भी मनहरण करनेके लिए आये थे। इसलिए हिंदुस्तानी प्रतिनिधियोंको उनकी ओरसे यह ठंडा जवाब मिला---

"आप तो जानते ही हैं कि उत्तरदायित्वपूर्ण उपनिवेशोंपर साम्राज्यसरकारकी सत्ता नाममात्र की है। हां, आपकी शिकायतें अलबत्ता सच मालूम होती हैं, सो मैं अपने बस-भर उनको दूर करनेकी चेष्टा करूंगा; पर अप एक बात न भूले । जिस तरह हो सके आपको यहां गोरोंको राजी रखकर ही रहना है।"

इस जवाबको सुनकर प्रतिनिधियोंपर तो मानो पानी पड़ गया । मैंने भी आशा छोड़ दी । मैंने तो इसका तात्पर्य समझ लिया कि अब फिर से 'हरि: ॐ' करना पड़ेगा । और मैंने अपने साथियोंपर भी यह बात अच्छी तरह स्पष्ट कर दी; पर मि० चैंबरलेनका जवाब क्या झूठा था ? गोल-मोल कहने के बदले उन्होंने खरी बात कह दी। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का नियम उन्होंने कुछ मधुर शब्दोंमें बता दिया, पर हमारे पास तो लाठी ही कहां थी ? लाठी तो दूर, लाठींकी चोट सहनेवाले शरीर भी मश्किलसे हमारे पास थे ।

मि० चैबरलेन कुछ ही सप्ताह वहां रहनेवाले थे । दक्षिण अफ्रीका कोई छोटा-सा प्रांत नहीं, उसे तो एक देश, एक भूखंड हीं कहना चाहिए । अफ्रीकाके पेटमें तो कितने ही उपखंड पड़े हुए हैं। कन्याकुमारीसे श्रीनगर यदि १९०० मील है तो डरबनसे केपटाउन ११०० मीलसे कम नहीं। इस इतने बड़े खंडमें उन्हें ‘पचन-वेग से घूमना था । वह ट्रांसवाल रवाना हुए । मुझे सारी तैयारी करके भारतीयोंका पक्ष उनके सामने उपस्थित करना था। अब यह समस्या [ २७५ ] खड़ी हुई कि मैं प्रिटोरिया किस तरह पहुंचें ? मेरे समयपर पहुंच सकनेकी इजाजत लेने का काम हमारे लोगोंसे हो नहीं सकता था ।

बोअर-युद्ध के बाद ट्रांसवाल करीब-करीव ऊजड़ हो गया था । वहाँ में खाने-पीनेके लिए अनाज रह गया था, न पहनने-ओढ़नेके लिए कपड़े ही । बाजार खाली और दुकानें बंद मिलती थीं । उनको फिरसे भरना और खुला करना था और यह काम तो धीरे-ही-धीरे हो सकता था और ज्यों-ज्यों माल झता जाता त्यों-ही-त्यों उन लोगोंको, जो घरबार छोड़कर भाग गये थे, आने दिया जा सकता था। इस कारण प्रत्येक ट्रांसवालवासीको परवाना लेना पड़ता था। अब गोरे लोगों को तो परवाना मांगते ही तुरंत मिल जाता; परंतु हिंदुस्तानियों को बड़ी मुसीबतका सामना करना पड़ता था ।

लड़ाईके दिनोंमें हिंदुस्तान और लंकासे बहुतेरे अफसर और सिपाही दक्षिण अफ्रीरिकामें आ गये थे। उनसे जो लोग वहीं बसना चाहते थे उनके लिए सुविधा कर देना ब्रिटिश अधिकारियों का कर्तव्य माना गया था । इधर एक नवीन अधिकारी-मंडलकी रचना उन्हें करनी थी । सो ये अनुभवी कर्मचारी सहज ही उनके काम आ गये । इन कर्मचारियोंकी' तीव्र बुद्धिने एक नये महकमेकी ही सृष्टि कर डाली और इस काममें वे अधिक पटु तो थे ही । हब्धियोंके लिए ऐसा एक अलग्न महकमा पहले ही से था, तो फिर इन लोगोंने अकल भिड़ाई कि एशियावासियोंके लिए भी अलग महकमा क्यों न कर लिया जाय ? सव उनकी इस दलीलाके कायल हो गये । यह नया महकमा मेरे जाने से पहले ही खुल चुका था और धीरे-धीरे अपना जाल फैला रहा था । जो अधिकारी भागे हुए लोगों को परवाना देते थे, वे ही सबको दे सकते थे, परंतु यह उन्हें पता कैसे चल सकता है कि एशियावासी कौन है ? यदि इस नवीन महकमेकी सिफारिश पर ही उसको परवाना दिया जाय तो उस अधिकारीकी जिम्मेदारी कम हो जाये और उसके कामका बोझ भी कुछ घट जाय, यह दलील पेश की गई। बात दरअसल यह थी कि इस नये महकमेको कुछ कामको और कुछ दामकी ( धनकी ) जरूरत थी । यदि काम न हो तो इस महकमेकी आवश्यकता सिद्ध नहीं हो सकती और उसे बंद करना पड़ता है तो इसलिए उसे यह काम सहज ही मिल गया है।

तरीका यह था कि हिंदुस्तानी पहले इस महकमेमें अर्जी दें। फिर बहुत [ २७६ ]

दिनों में जाकर उसका जवाब मिलता। इधर ट्रांसवाल जानेकी इच्छा रखनेवालों- की संख्या बहुत थी । फलतः उनके लिए दलालोंका एक दल बन गया। इन दलालों और अधिकारियों में बेचारे गरीब हिंदुस्तानियोंके हजारों रुपये लुट गये। मुझसे कहा गया कि बिना किसी जरियेके परवाना नहीं मिलता और जरिया होनेपर भी कितनी ही बार तो सौ-सौ पौंड फी आदमी खर्च हो जाता है । ऐसी हालतमें भला मेरी दाल कैसे गलती ?

तब मैं अपने पुराने मित्र, डरबनके पुलिस सुपरिटेंडेंटके यहां पहुंचा और उनसे कहा--"पाप परवाना देनेवाले अधिकारीसे मेरा परिचय करा दीजिए और मुझे परवाना दिला दीजिए। आप यह तो जानते ही हैं कि मैं ट्रांसबालसें रह चुका हूं!" उन्होंने तुरंत सिरपर टोप रखा और मेरे साथ चलकर परवाना दिला दिया। इस समय ट्रेन छूटनेमें मुश्किलसे एक घंटा था। मैंने अपना सामान वगैरा बांध-बूंधकर पहलेसे ही तैयार रखा था। इस कष्टके लिए मैंने सुपरिटेंडेंट एलेग्जेंडरको धन्यवाद दिया और प्रिटोरिया जानेके लिए रवाना हो गया।

इस समयतक वहांकी कठिनाइयोंका अंदाज मुझे टोक-ठीक हो गया था। प्रिटोरिया पहुंचकर मैंने एक दरख्वास्त तैयार की। मुझे यह याद नहीं पड़ता कि डरबनमें किसी से प्रतिनिधियोंके नाम पूछे गये थे। यहां तो नया ही महकमा काम कर रहा था। इसलिए प्रतिनिधियों के नाम मेरे आने के पहले ही पूछ लिये गये थे। इसका आशय यह था कि मुझे इस मामलेसे दूर रक्खा जाय, पर इस बातका पता प्रिटोरियाके हिंदुस्तानियोंको लग गया था । यह दुःखदायक किंतु मनोरंजक कहानी अगले प्रकरणमें ।

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