सत्य के प्रयोग/ देशमें

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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देसमें

इस तरह मैं देसके लिए बिदा हुआ। रास्ते मॉरीशस पड़ता था। वहां जहाज वहुत देरतक ठहरा। मैं उतरा और वहांकी स्थितिका ठीक अनुभव प्राप्त कर लिया। एक रात वहांके गवर्नर सर चार्ल्र्स ब्रुसके यहां भी बिताई थी।

हिंदुस्तान पहुंचनेपर कुछ समय इधर-उधर घूमनेमें व्यतीत किया। यह १९०१ की बात है। इस साल राष्ट्रीय महासभा-कांग्रेसका अधिवेशन कलकत्ता में था। नशा एदलजी वाच्छा सभापति थे । मैं कांग्रेसमें जाना तो चाहता ही था । कांग्रेसका मुझे यह पहला अनुभव था ।

बंबईसे जिस गाड़ीमें सर फिरोजशाह चले, उसी में मैं भी रवाना हुआ। उनसे मुझे दक्षिण अफ्रीकाके विषयमें बातें करती थीं। उनके डिब्बेमें एक स्टेशनतक जानेकी मुझे आज्ञा मिली । वह खास सैलूनमें थे। उनके शाही वैभव और खर्च-वर्चसे मैं वाकिफ था । निश्चित स्टेशनपर मैं उनके डिब्बेमें गया है। उस समय उनके डिब्बेमें सर दीनशी और श्री (अब ‘सर') चिमनलाल सेतलवाड़ बैठे थे। उनके साथ राजनीतिकी बातें हो रही थीं। मुझे देख कर सर फिरोजशाह बोले----“गांधी, तुम्हारा काम पूरा पड़नेका नहीं । प्रस्ताव तो हम जैसा तुम कहोगे पास कर देंगे ; पर पहले यही देखो न, कि हमारे ही देसमें कौन से हक मिल गये हैं ? मैं मानता हूं कि जबतक अपने देसमें हमें सत्ता नहीं मिली है तबतक उपनिवेशोंमें हमारी हालत अच्छी नहीं हो सकती ।”

मैं तो सुनकर स्तंभित हो गया। सर चिमनलालने भी उन्हींकी हांमें-हां मिलाई । परंतु सर दीनशाने मेरी ओर दया-भरी दृष्टिसे देखा।

मैंने उन्हें समझानेका प्रयत्न किया । परंतु बंबईके बिना ताजुके बादशाको भला मुझ जैसी आदमी क्या समझा सकता था ? मैंने इस बातपर संतोष माना कि चलो, कांग्रेसमें प्रस्ताव तो पेश हो जायेगा ।

“प्रस्ताव बनाकर मुझे दिखाना भला, गांधी ! " सर दीनशा मुझे उत्साहित करने के लिए बोले । [ २४५ ]मैंने उन्हें धन्यवाद दिया। दूसरे स्टेशनपर गाड़ी खड़ी होते ही मैं वहांसे खिसका और अपने डिब्बेमें आकर बैठ गया।

कलकत्ता पहुंचा। नगरवासी अध्यक्ष इत्यादि नेताअओंको धूम-धामसे स्थानपर ले गये। मैंने एक स्वयंसेवक से पूछा--"ठहरनेका प्रबंध कहां है?"

वह मुझे रिपन कालेज ले गया। वहां बहुतेरे प्रतिनिधि ठहरे हुए थे। सौभाग्यसे जिस विभागमें मैं ठहरा-था, वहीं लोकमान्य भी ठहराये गये थे। मुझे ऐसा स्मरण हैं कि वह एक दिन बाद आये थे। जहां लोकमान्य होते वहां एक छोटा-सा दरबार लगा ही रहता था। यदि मैं चितेरा होऊं तो जिस चारपाईपर वह बैठते थे उसका चित्र खींचकर दिखा दूं–उस स्थानका और उनकी बैठकका इतना स्पष्ट स्मरण मुझे है! उनसे मिलने आनेवाले असंख्य लोंगोंमें एकका ही नाम मुझे याद है-'अमृतबाजार पत्रिका के स्व॰ मोतीबाबू। इन दोनोंका कहकहा लगाना और राजकर्त्ताओंके अन्याय-संबंधी उनकी बातें कभी भुलाई नहीं जा सकतीं।

पर जरा यहांके प्रबंधकी ओर दृष्टिपात करें।

स्वयंसेवक एक-दूसरेसे लड़ पड़ते थे। जो काम जिसे सौंपा जाता वह उसे नहीं करता था; वह तुरंत दूसरेको बुलाता और दूसरा तीसरेको। बेचारा प्रतिनिधि न इधरका रहता न उधरका।

मैंने कुछ स्वयंसेवकसे मेल-मुलाकात की। दक्षिण अफ्रीकाकी कुछ बातें उनसे कीं। इससे वे कुछ शरमाये। मैंने उन्हें सेवाका मर्म समझानेकी कोशिश की। वे कुछ-कुछ समझे। परंतु सेवाका प्रेम कुकुरमुत्तेकी तरह जहां-तहां उग नहीं निकलता। उसके लिए एक तो इच्छा होनी चाहिए और फिर अभ्यास। इन भोले और भले स्वयंसेवकों में इच्छा तो बहुत थी; पर तालीम और अभ्यास कहांसे हो सकता था? कांग्रेस सालमें तीन दिन होती और फिर सो रहती। हर साल तीन दिनकी तालीमसे कितनी बातें सीखी जा सकती हैं?

जो स्वयंसेवकोंका हाल था, वहीं प्रतिनिधियोंका। उन्हें भी तीन ही दिन तालीम मिलती थी। वे अपने हाथों कुछ भी नहीं करते थे; हर बातमें हुक्मसे काम लेते थे। 'स्वयंसेवक, यह लाओ' और 'वह लाओं' यही हुक्म छूटा करते। [ २४६ ]

छुआछूतका विचार भी बहुतोंमें था। द्राविड़ी रसोईघर बिलकुल जुदा था । इन प्रतिनिधियोंको तो दृष्टि-दोषभी बरदाश्त न होता था। उनके लिए कंपाउंडमें एक जुदी पाकशाला बनाई गई थी। उसमें धुआं इतना था कि आदमी दम घुट जाय । खान-पान सब उसीमें होता । रसोईघर क्या था, मालो एक संदूक था, सब तरफसे बंद !

मुझे यह वर्ण-धर्म अखरा । महासभामें आने वाले प्रतिनिधियोंको जब इतनी छूत लगती है तो जो लोग इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजते हैं। उन्हें कितनी छूत लगती होगी, इसकी त्रैराशिक लगानेपर भेरे मुंहसे सहसा निकल पड़ा--- “ओफ !”

गंदगीकी सीमा नहीं । चारों ओर पानी ही पानी हो रहा था । पाखाने कम थे। उनकी बदबूकी यादसे आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैंने एक स्वयंसेवक का ध्यान उसकी ओर खींचा। उसने बेधड़क होकर कहा---“यह तो भंगीका काम हैं ।” मैंने झाडू मंगाई। वह मेरा मुंह ताकता रहा । आखिर में ही झाडू खोज लाया । पाखाना साफ किया । पर यह तो हुआ अपनी सुविधा के लिए। लोग इतने ज्यादा थे और पाखाने इतने कम थे कि कई बार उनके साफ होनेकी जरूरत थी । पर यह मेरे काबूझे बाहर था । इसलिए मुझे सिर्फ अपनी सुविधा करके संतोष मानना पड़ा। मैंने देखा कि औरोको यह गंदगी खलती न थी।

पर यहीं तक बस नहीं है। रातके समय तो कोई कमरेके बरामदेमें ही पाखाने बैठ जाता था। सुबह मैंने स्वयंसेवकको वह मैला दिखाया । पर कोई साफ करने के लिए तैयार न था। यह गौरव आखिर मुझे ही प्राप्त हुआ ।

आजकल इन बातोंमें यद्यपि थोड़ा-बहुत सुधार हुआ है, तथापि अविचारी प्रतिनिधि अब भी कांग्रेसके कैंपको जहां-तहां मल-त्याग करके बिगाड़ देते हैं। और सब स्वयंसेवक उसे साफ करनेको तैयार नहीं होते ।

मैंने देखा कि यदि ऐसी गंदगी में कांग्रेसकी बैठक अधिक दिनोंतक जारी रहे तो अवश्य बीमारियां फैल निकलें ।

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