सत्य के प्रयोग/ बालासुंदरम्
खाल्टो असंभव है।।
कांग्रेस का दूसरा अंग था-वहां जन्मे नौर शिक्षा पाये भारतीयों की नैदा करना है उनके लिए कालोनियल बॉर्न एंड इंडियन एजुकेशनल एसोसिएशन की स्थापना की। उसमें मुख्यतः वे नवयुवक ही सभ्य थे। उनके लिए चंदा बहुत थोड़ा रखा था। इस सभाकी बदौलत उनकी आवश्यकतायें मालूम होतीं, उनकी विचार-शक्ति बढ़ती, व्यापारियों के साथ उनका संबंध बंधता,और खुद उन्हें भी सेवा का स्थान मिलता। यह संस्था के दाद-विवाद-समिति जैसी थी। उसकी नियम पूर्वक बैठ कें होती;भिन्न-भिन्न विषयों पर भाषणे होते;निबंध पढ़े जाते। उसके सिलसिले में एक छोटा-सा पुस्तकालय भी स्थापित हुआ।
कांग्रेस का तीसरा अंग था बाहरी आन्दोलन। इसके द्वारा दक्षिण अफरी का अंग्रेजों में तथा बाहर इंग्लैंड में और हिंदुस्तान में वास्तविक स्थिति प्रबाट की जाती थी । इस उद्देश्य से मैंने दो पुस्तिकायें लिखीं। पहली पुस्तिका थी----* दक्षिण अफरी का-स्तिथ प्रत्येक अंग्रेज अपल'। उ दालवाले भारतीयोंकी सामान्य न्तिका दिग्दर्शन सप्रमाण कराया गया था। दुसरी थी---* भारतीय। मताधिकार---एक अपील ।'इसमें भारतीय मताधिकारका इतिहास अंकों और प्राणों सहित दिया गया था। इन दोनों पुस्तिकाओंको बड़े परिश्रम और अध्ययनके बाद मैंने लिखा था। उसका परिणाम भी वैसा ही निकला। पुस्तिकाका काफी प्रचार किया गया। इस हेल-चलके फलस्वरूप दक्षिण अफरीका भारतीयोंके मित्र उत्पन्न हुए । इंग्लैंडमें तथा हिंदुस्तानमें सब दलोंकी ओरसे मदद मिली और आगे कार्य करने की नीति और भार्ग निश्चित हुआ।
जैसी जिसकी.भावना होती है वैसा ही उसको फल मिला करता है। अपने यह नियम घटा हुआ मैंने अनेक बार देखा है। लोगोंकी,अथात् गरीबोंकी,सेवा करने की मेरी प्रबल इच्छाने गरीबों के साथ मेरा संबंध हमेशा अनायास बांध दिया है। नेटाल इंडियन कांग्रेस ‘में यद्यपि उपनिवेदों में जन्मे भारतीयों. ने प्रवेश किया था,कारकून लोग शरीक हुए थे,फिर भी उसमें भी मजूर गिरमिटिया लोग सम्मिलित न हुए थे। कांग्रेस अभी उनकी न हुई थी। दे चंदा देकर,उसके सदस्य होकर,उसे अपना न सके थे। कांग्रेस के प्रति उनका प्रेम पैदा तभी हो सकता था,जब कांग्रेस उनकी सेवा करे। ऐसा अबसर अपने-आप आ गया,और मैं ऐसे समय,जबकि खुद मैं अथवा कांग्रेस उसके लिए मुश्किल से तैयार थी;क्योंकि अभी मुझे वकालत शुरू किये दो-चार महीने भी मुश्किल से हुए होंगे। कांग्रेस भी बा। भी। इन्हीं दिनों एक दिन एक दरासी में फेंटा रखकर रोता हुआ मेरे सामने झाकर खड़ा हो या'। कपड़े उसके फटे-पुराने थे। उसका शरीर कप:था। सामने के दो दांत टूटे हुए थे और मुंह से खून बह रहा था!के शनिक उमेद र्दी टा वा। मैंने अपने मुंशीसे जो तामिल जाता था, उसकी हात पुछदाई! नासुन्दरम् एक प्रतिष्ठित गोरे यह मजूरी करता था। मालिक किसी बात पर दि १ड़ और आग-बबूला होकर उसे बुरी तरह उसने पीट डाला,जिससे दालानु के दो दांत टूट गये।
मैंने उसे डाक्टर के यहां भेजा। उस समय गोरे डाक्टर ही वहां थे। मुझे चत्रं इसकी जरूरत थी!उसे लेकर मैं बालासुंदर को अदालत ले गया। बालासुंदर अपना हलफिया बयान लिखवाया। पढ़कर मजिस्ट्रेट मालिक पर बड़ा गुस्सा आया। उसने मालिक को तलव करनेका हुक्म दिया।
भेरी इच्छा यह न थी कि मालिक को सजा हो जाय। मुझे तो सिर्फ बालाइरस को उसके यहां छुड़वाना था। मैंने गिरमिट-संबंधी कानूनको अच्छी तरह देख लिया है मामूली नौकर यदि नौकरी छोड़ दे तो मालिक उसपर दीवानी दावा कर सकता है,फौजदारी में नहीं ले जा सकता। गिरमिट और मामुली तौकरों में यों बड़ा फर्क था;पर उसमें मुख्य बात यह थी कि गिरमिटिया यदि मालिक को छोड़ दे तो वह फौजदारी जुर्म समझा जाता था और इसलिए उसे कैद भोगनी पड़ती। इसी कारण सर विलियम विलसन हंटरनें इस हालत को* गुलामी'जैसा बताया है! मुलामकी तरह गिरमिटिया मालिक की संपत्ति समझा जाता! जाटासुंदरमुक मालिक वंगुल से छुड़ाने के दो हीं पाये ---- या तो गिरमिटिय का अफसर, जो कानुन के अनुसार उनका रक्षक समझा जाता
था, गिरमिट रद कर दे, दुसरे के नाम पर चढ़ा दे अथवा मालिक खुद उसे छोड़ने के लिए तैयार हो जाय । मालिक से मिला और उसने कहा--- " मैं आपको सजा कराना नहीं चाहता । अआप जालते हैं कि उसे सख्त चोट पहुंची है। आप उसको गिरमिट दूसरे के नाम चढ़ाने को तैयार होते हों तो मुझे संतोष हो जायगा । "मालिक भी यही चाहता था। फिर मैं उस रक्षक अफसर से मिला । उसने भी रजामंदी तो जाहिर की; पर इस शर्त पर कि मैं वालासुंद के लिए नया मालिक ढूंढ दुं ।
अब मुझे ना अंग्रेज मालिक खोजना था । भारतीय लोग गिरटियों को नहीं रख सकते थे। अभी थोड़े ही अंग्रेजों से मेरी जान-पहचान हो पाई थी । फिर भी एक ही जाकर मिला। उसने मुझपर मेहरबानी करके बालासुंदरम् को रखना मंजूर कर लिया । मैंने कृतज्ञता प्रदर्शित की। मजिस्ट्रेट मालिक को अपराधी करार दिया और यह वह नोट कर ली कि मुजरिम ने वालासुंद की गिरमिट दुसरे के काम पर चढ़ा देना स्वीकार किया है ।
बालसुनदरम् मामले की बात गिरमिटियों में चारों ओर फैला दी और मैं उनके बंधु के नाम से प्रसिद्ध हो गया । मुझे यह संबंध प्रिय हुआ । फलतः मेरे दफ्तरों गिरमिटियों की बाढ़ आने लगा और मुझे उनके सुख-दुःख जान की बड़ी सुविधा मिल गई ।
बालासुंदरम् के मामले की ध्वनि के मद्रास तक जा पहुंची। उस इलाके जिन-जिन जगहों मैं लोग नेटाल क गिरमिटया गये उन्हें गिरमिटियों ने इस बातक परिचय कराया। मामला कोई इतना महूत्त्वपूर्ण न था; फिर भी लोगों को यह बात नई मालूम हुई कि उनके लिए कोई सार्वजनिक कार्यकर्ता तैयार हो गया ! इस बातसे उन्हें तसल्ली और उत्साह मिला ।
मैंने लिखा है कि बालासुंदरम् अपना फैंटा उतारकर उसे अपने हाथों रखकर मेरे सामने आया था। इस दृश्य में बड़ा ही करु-स भरा हुआ है। यह हमें नीचा दिखाने वाली बात है। मेरी पगड़ी उतारने की घटना पाठक को मालूम ही है । कोई भी गिरमिटिया तथा दूर नवापत हिंदुस्तानी किसी गोरे कै यहां जाता तो उसके सम्मान के लिए पगड़ी उतार लेता---फिर टोपी हो, या पगड़ी, अथवा फैंटा हो । दोनों हाथों से काम करना काफी न था । बाला
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