सत्य के प्रयोग/ महामारी--१

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय १५ : सहामारी–१ बहु-संग्ग्रक भारतवासियोंके गाढ़ संपर्क में आया और मैं केवल उनका वकील ही नहीं, बल्कि भाई बनकर रहा और उनके तीनों प्रकार दुःखोंमें उनका काझी हुआ । सेठ अब्दुल्लरने मुझे 'गांधी' नाम संबोवन करने से इन्कार कर दिया । और साहब तो मुझे कहता र मानता ही कौन ? इसलिए उन्होंने एक बड़ा ही प्रिय शब्द ढूंढ निकाला । मुझे दे लो भाई' कहकर पुकारने लगे। यह नाम अंततक दक्षिण अफ्रीका में चला । पर जब ये गिरमिटमुक्त भारतीय मुझे भाई कहकर बुलाते तब मुझे उसमें एक खास मिठास मालूम होत श्रीं ।। महामारी---१ इस लोकेशनका कब्जा म्यूनिसिपैलिटीने 2 तो लिया; परंतु तुरंत ही हिंदुस्तानियोंको वहांसे हटाया नहीं था। हां, यह तय जरूर होगया था कि उन्हें दुसरी अनुकूल जगह दे दी जायगी। अबतक म्यूनिसिपैलिटी वह जगह निश्चित न कर पाई थी। इस कारण भारतीय लोग उसी 'गंदे' लोकेशनमें रहते थे । इससे दो बातोंमें फर्क हुअा । एक तो यह कि भारतवासी मालिक न रहकर सुधार विभागके किरायेदार बने, और दूसरे गंदगी पहलेसे अधिक बढ़ गई । इससे पहले तो भारतीय लोग मालिक समझे जाते थे, इससे वे अपनी राजीसे नहीं तो डरसे ही पर कुछ-न-कुछ तो सुफाई रखते थे; किंतु अब ‘सुधारका किसे डर था ? मकानों किरायेदारोंकी भी तादाद बढ़ी और उसके साथ ही गंदगी और अव्यवस्था-की भी बढ़ती हुई। यह हालत हो रही थी, भारतवासी अपने मनमें झल्ला रहे थे कि एकएक 'काला प्लेग’ फैल निकला । यह महामारी मारक थी । यह फेफड़ेका प्लेग था और गांठदाले प्लेगकी अपेक्षा भयंकर समझा जाता थई । कितु खुशकिस्मतीसे इस प्लेगको कार यह लोकेशन न था, बल्कि एक सोने की खान थी । जोहान्सबर्गके अासपास सोनेकी अनेक खाने हैं। उनमें अधिकांश हब्शी लोग काम करते हैं। उनकी सफाईकी जिम्मेदारी थी सिर्फ गोरे मालिकोंके सिर । इन खानपुर कितने ही हिंदुस्तानी' भी काम करते थे। उनमें से तेईस आदमी एकाएक लेगके [ ३१४ ]________________

३४ क-कथा : भाग ४ शिकार हुए और अपन, भयंकर अवस्था लेकर ये लोकेशनमें अपने घर आये ।। इन दिनों भाई मदनजीत ‘इंडियन ओपीनियन के ग्राहक बनाने और चंदा वसूल करने यहां प्राये हुए थे । वह लोकेशनमें चक्कर लगा रहे थे । वह काफी हिम्मतवर थे । इन बीमारोंको देखते ही उनका दिल टूक-टूक होने लगा। उन्होंने मुझे पेंसिलसे लिखकर एक चिट भेजी, जिसको भनार्थ यह था--- “ यहां एकाएक काला प्लेग फैल गया है। आपको तुरंत यहां आकर कुछ सहायता करनी चाहिए. नहीं तो बड़ी खराबी होगी । तुरंत अाइए ।' मदनजीतने बेधड़क होकर एक खाली मकानको ताला तोड़ डाला और उसमें इन बीमारोंको लाकर रक्खा। मैं साइकिलपर चढ़कर 'लोकेशन में पहुंचः । वहांसे टाउन-क्लर्कको खबर भेजी और कहलाया कि किस हालतमें मकान्नका ताला तोड़ लेना पड़ा । । डाक्टर विलियम गाडझे जोहान्सबर्ग में डाक्टरी करते थे । वह खवर मिलते ही दौड़े आये और बीमारोंके डॉक्टर और परिचारक दोनों बन गये । परंतु बीमार थे तेईस और सेवक थे हम तीन ! इतनेसे काम चलना कठिन था । | अनुभवोंके आधारपर मेरा यह विश्वास बन गया है कि यदि नीयत साफ हो तो संकटके समय सेवक और साधन कहीं-न-कहींसे आ जुटते हैं। मेरे दफ्तरमें कल्याणदास, माणिकलाल और दूसरे दो हिंदुस्तानी थे । आखिर दोके नाम इस समय मुझे याद नहीं हैं। कल्याणदासको उसके बाद मुझे सौंप रखा था। उनके जैसे परोपकारी और केवल आज्ञा-पालनसे काम रखने वाले सेवक नैने वहां बहुत थोड़े देखे होंगरे । सौभाग्यसे कल्याणदास उस समय ब्रह्मचारी थे । इसलिए उन्हें में कैसे भी खतरेका काम सौंपते हुए कभी न हिचकता । दुसरे व्यक्ति माणिकलाल मुझे जोहान्सबर्ग में ही मिले थे । मेरा खयाल है कि वह भी कुंवारे ही थे । इन चारोंको चाहे कारकुन कहिए, चाहे साथी या पुत्र कहिए, मैंने इसमें होम देनेका निश्चय कर लिया । कल्याणदाससे तो पूछने की जरूरत ही नहीं थी, और दूसरे लोग पूछते ही तैयार हो गये । “जहां आप तहां हम' यह उनका संक्षिप्त .. और मीठा जवाव था । मि० रोचको परिवार बड़ा था । वह खुद तो कूद पड़नेके लिए तैयार थे; किंतु मैंने ही उन्हें ऐसा करनेसे रोका । उन्हें इस खतरेमें डालने के लिए मैं [ ३१५ ]________________

श्याय १६ । महामारी--२ कुन नैयार न था, मेरी हिम्मत ही नहीं होती थी । अतः उन्होंने एक सब काम सम्ला । शुश्रूषाकी यह रात भयानक थी । मैं इससे पहले बहुत-से रोगियों की सत्रा-शुश्रूषा कर चुका था । परंतु प्लेगळे रोगी की सेवा करने का अवसर मुझे कभी न मिला था । डाक्टरोंकी हिम्मने में निडर बना दिया था ! यकी शुश्रूषाका काम बहुत न था। उन्हें दवा देना, दिलास’ देना, पान-बानं दे देना, उदका मैला बगैरा साफ कर देना---इसके सिवा अधिक काम न था । इन चारों नवयुवक के प्रश-शसे किये गये परिश्रम और 4 साहस और निडरताको देखकर मेरे हर्षकी सीमा में रही । डाक्टर गडकी हिम्मत समझमें आ सकती है, मदनजीतकी भी समझमें आ जाती हैं----पर इन युवकोंकी हिम्मतपर आश्चर्य होता है। ज्यों-त्यों करके रात बीतः । जहांतक मुझे याद पड़ता हैं, उस रात तो हमने एक भी बीमारको नहीं खोया ! परंतु यह प्रसंग जितना ही करुणाजनक हैं उतना ही मनोरंजक और मेरी दृष्टिमें धार्मिक भी हैं। इस कारण इसके लिए अभी दो और अध्यायोंकी :वश्यकता होगी ।। महामारी--२ इस प्रकार एकाएक मकानका ताला तोड़कर बीमारोंकी सेवा-शुश्रुष करने के लिए टाउन-क्लर्क हमारी उपकार माना और सच्चे दिलसे कबूल किया‘ऐसी हालतका एकाएक सामना और प्रबंध करनेकी सहूलियत हमारे पास नहीं। आपको जिस किसी प्रकारको सहायताकी आवश्यकता हो, आप अवश्य कहिएगा; टाउन-कौंसिल' अपने बेस-भर जरूर आपकी सहायता करेगी ।" परंतु वहांकी म्यूनिसिपैलिटीने उचित प्रबंध करने में अपनी तरफसे विलंब न होने दिया। दूसरे दिन एक खाली गोदाम हमारे हवाले किया गया और कहा गया कि

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