सत्य के प्रयोग/ लोकेशनकी होली

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ३१९ ]अध्याय १७ : लोकेशन की होली 总球德

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लोकेशन की हॉली रोगियों की सेवा-शुश्रूषा से यद्यपि मैं और मेरे साथी फारिग हो गये थे, तथापि इस प्लेग-प्रकरण के बदौलत दूसरे नये काम भी हमारे लिए पैदा हो गये थे । वहाँ की म्यूनिसिपैलिटी लोकेशन के संबंध में भले ही लापरवाही रखती हो; किंतु गोरे-निवासियों के आरोग्य के विषय में तो उसे चौबीसों घंटे सतर्क रहना पड़ता था । उनके आरोग्य के रक्षा के लिए रुपया फूकने में भी उसने कोताही नहीं की थी । और इस समय तो प्लेग को वहाँ न फैलने देने के लिए उसने पानी की तरह पैसा बहाया । भारतीयों के प्रति इस म्यूनिसिपैलिटीके व्यवहार की मुझे बहुत शिकायत थी, फिर भी गोरों की रक्षा के लिए वह जितनी चिंता कर रही थी उसके प्रति अपना आदर प्रदर्शित किये बिना मैं न रह सका और उसके इस शुभ प्रयत्न में मुझ से जितनी मदद हो सकी मैने की । मैं मानता हुँ कि यदि वह मदद मैंने न की होती तो म्यूनिसिपैलिटीको दिक्कत पड़ती और शायद उसे बंदूक के बल का प्रयोग करना पड़ता और अपनी इष्ट-सिद्धि के लिए ऐसा करने में वह बिलकुल न हिचकती । परंतु ऐसा करने की नौबत न आने पाई। उस समय भारतीयों के व्यवहार से म्यूनिसिपैलिटीके अधिकारी संतुष्ट हो गये और उसके बाद का काम बहुत सरल हो गया । म्यूनिसिपैलिटीकी मांग को हिंदुस्तानियों से पूरा कराने में मैंने अपना सारा प्रभाव खर्च कर डाला था । यह काम भारतीयों के लिए था तो बड़ा दुष्कर; परंतु मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी एक ने भी मेरे वचन को टाला हो। लोकेशन के चारों ओर पहरा बैठा दिया गया था । बिना इजाज़त न कोई अंदर जा पाता था, न बाहर आ सकता था । मुझे तथा मेरे साथियों को बिना रुकावट वहां आने-जाने के लिए पास दे दिये गये थे । म्यूनिसिपैलिटी की तजवीज़ यह थी कि लोकेशन के सब लोगों को जोहान्सबर्ग से तेरह मील खुले मैदान में तंबुओं में रखा जाय और लोकेशन में आग लगा दी जाय । डेरे-तंबुओं का ही क्यों न हो, पर वहाँ एक नया गांव बसाना पड़ा था और वहाँ खाद्य आदि सामग्री का प्रबंध [ ३२० ]________________

अत्-कथा : भाग १ करनेमें कुछ समय लगना स्वाभाविक था ! तबतकके लिए यह पहरेका प्रबंध किया गया था । इससे लोगोंमें बड़ी चिंता फैली, परंतु मैं उनके साथ उनका सहायक ----इससे उन्हें बहुत तस्कीन थी । इनमें कितने ही ऐसे गरीब लोग भी थे, जो अपना रुपया-पैसा घरमें गाड़कर रखते थे। अब उसे खोदकर उन्हें कहीं रख़ना था । ॐ न बैंकको जानते थे, न बैंक उन्हें । मैं उनका बैंक बना । मेरे घर प्योक्रा & र हो गया। ऐसे समय में सुला मेहुलताना क्या ले सकता था ? किसी तरह मुश्किलसे इसका प्रबंध कर पाया । हमारे बैंकके मैनेजरके साथ में अच्छा परिचय था। मैंने उन्हें कहलाया कि मुझे बैंक में बहुतेरे रुपये जमा कराने हैं ? बैंक शाम तौरपर तांबे या चांदी के सिक्के लेनेके लिए तैयार नहीं होते । फिर यह भी अंदेशा था कि प्लेग-स्थानों से आये सिक्कोको छूनेमें क्लर्क लोग आनाकानी करें। किंतु मैनेजरने मेरे लिए सब तरहकी सुविधा कर दी है यह बात तय पाई कि रुपये-पैसे जंतु-दाशक पानीमें धोकर बैकमें जमा कराये जायं । इस तरह मुझे याद पड़ता है कि लगभग ६०,००० पौंड बैंकमें जमा हुए थे । मेरे जिन भवक्किलोंके पास अधिक रकम थी उन्हें मैंने एक निश्चित अवधिके लिए बैंकमें जमा करानेकी सलाह दी, जिससे उन्हें अधिक ब्याज मिल सके। इससे कितने ही रुपये उन मवक्किलों के नामसे बैंकमें जमा हुए । इसका परिणाम यह हुआ कि कितने ही लोगों को बैंकोंमें रखनेकी आदत पड़ी ।। | जोहान्सबर्ग के पास ‘क्लिप्स फुट फार्म' नामक एक स्थान है। लोकेशन्ननिवासियोंको बहां एक स्पेशल ट्रेनसे ले गये। यहां म्यूनिसिपैलिटीने उनके लिए अपने खर्च से घर बैठे पानी पहुंचाया। इस तंबूके गांवका नजारा सैनिकोंके , पड़ावकी तरह था । लोग ऐसी स्थिति रहनेके आदी नहीं थे, इससे इन्हें मानसिक दुःख तो हुआ । नई जगह अटपटी मालूम हुई, किंतु उन्हें कोई खास कष्ट नहीं उठाना पड़ा । मैं रोज बाइसिकलपर जाकर वहाँ एक चक्कर लगा आता । तीन सप्ताह तक इस तरह खुली हवामें लोगोंकी तंदुरुस्तीपर जरूर अच्छा असर हुआ । और मानसिक दुःख तो प्रथम चौबीस घंटे पूरे होने के पहले ही चला गया था। फिर तो धे आनंदसे रहने लगे । में जहां जाता वहां कहीं भजन-कीर्तन भौर कहीं खेलकूद आदि होते हुए देखता ।।

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