साहित्यालाप/१५—पठानी सिक्कों पर नागरी

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१५—पठानी सिक्कों पर नागरी।

सुबुक्तगीन के वंशधर, ग़ज़नी से निकाल दिये जाने पर, ५५० हिज्री में लाहोर में आकर बस गये। उनमें से मुइज़्ज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम अथवा शहाबुद्दीन ग़ोरी, अपने भाई ग़यासुद्दीन के साथ, अपने चचा के द्वारा ग़ोर के एक प्रान्त का शासक नियत किया गया। ५५८ हिज्री में जब ग़यासुद्दीन ग़ोर का बादशाह हुआ तब मुइज्जुद्दीन ने अपने भाई का सेनापति होकर ख़ुरासान और ग़ज़नी को भी जीता। अनन्तर उसको भारत के भीतर घुसने की इच्छा हुई। ५७१ हिज्री में उसने मुलतान को विजय किया; परन्तु नहरवाल के राजा से भारी हार खाई। फिर ५८७ हिज्री में थानेसर के मैदान में दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान से वह सम्पूर्णतः हराया गया। इस अपमान को कलंक उसको बराबर बनी रही। अन्त में भारतवर्ष के उसी सर्वनाशी समरक्षेत्र पर उत्तरी भारत के समस्त राजदल सहित दिल्ली के चौहानराज का अधःपात मुइज़्ज़ुद्दीन द्वारा हुआ। यही मुइज़्ज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम, जिसे शहाबुद्दीन भी कहते हैं, दिल्ली की पठान बादशाहत की नींव डालनेवाला हुआ। इस महाभारत से भारतवर्ष इस तरह वीररहित हो गया कि मुइज़्ज़ुद्दीन का आजन्म दास कुतुबुद्दीन, अपने स्वामी के चले जाने पर, इस देश को जीत कर एकछत्र राज्य स्थापित करने में समर्थ हुआ। ५९९ हिज्री में अपने भाई के मर जाने [ २३३ ]पर मुइज़्ज़ुद्दीन ग़ज़नी का शासक हुआ। तीन वर्ष बाद, ६०२ में, जिस मुहम्मद बिन साम के पुरखे ग़ज़नी से भाग कर भारत में आ छिपे थे, उसी भारत को जिसने छल-छद्मपूर्वक आत्मसात् किया और देश जय करने में छल ही जिसका महा साधन और बल था वही मुहम्मद गद्दी पाने के तीन ही वर्ष बाद अपने ही शिविर में जङ्गली ग़क्करों से मारा गया।

इसी मुहम्मद से लेकर इब्राहीम लोदी तक, पठानों ही के विजय-क्षेत्र कुरुक्षेत्र पर मुगलमहीप बाबर द्वारा उनके पतन तक की राजमुद्राओं पर नागरी अक्षर छपे हुए हैं। उन्हीं में से कुछ का वर्णन यहां पर किया जाता है। पठानों के बाद मुग़लों के समय में जब हिन्दी को जगह उर्दू नाम की एक नई हिन्दी का प्रचार हुआ तभी से सिक्कों पर नागरी का छपना भी बन्द हुआ।[१]

पहला बादशाह मुइज़्ज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम (शहाबुद्दीन ग़ोरी) (११९३-१२०५ ईस्वी) [ २३४ ]

(१)

चांदी तांबा मिला हुआ २९ ग्रेन[२] ताल। सिन्धटकसाल!

ऊपर—अ़रबी

पृष्ठ—अश्वारोही। स्त्री हंमोर:

(२)

चाँदी—तांबा ४९ ग्रेन। दिल्ली टकसाल।

ऊपर—स्त्री महमद सामे

पृष्ठ—स्त्री हंमीरः [ २३५ ]

(३)

चाँदी—ताँबा। ४५ ग्रेन। पेशावर टकसाल।

ऊपर—बैल।

..... द सामे।

पृष्ठ—अश्वारोही। स्त्री हंमोरः

भाले के पास नीचे से ऊपर को पढ़ने से फ़ारसी में "परशोर" (पेशावर) देख पड़ता है।

(४)

चाँदी—ताँबा। ४६ ग्रेन। ग्वालियर टकसाल।

ऊपर—महमद सामि

पृष्ठ—अश्वारोही।

बैल, अश्वारोही और 'हंमीर'।

राजा लोग बैल और अश्वारोही अपने सिक्कों पर देते थे। "हमीर," "अमीर" शब्द के लिए है। जब मुहम्मद बिन साम ने कन्नौज लिया तब वहां के स्वर्ण सिक्कों पर भी उसने एक ओर कनौज का राजचिह्न "लक्ष्मी" रहने दिया और दूसरी ओर जहां राजों के नाम छपते थे—

श्री महमद बेने साम
अथवा
श्री हमीर महमद साम

छापा। अर्थात उसने नये सिक्के न चला कर पुराने ही ढांचे के सिक्के अपने नाम देकर जारी किये। [ २३६ ]

दूसरा बादशाह

कुतबुद्दीन ऐबक [१२०६-१२१०]

मुइज़्ज़ुद्दीन के कोई लड़का न था। इस कारण एक ग़ुलाम को दिल्ली और दूसरे को ग़जनी मिली। वह अपने तुर्क ग़ुलामों ही को बेटा समझता रहा। इन ग़ुलामों ने इतनी योग्यता तो अवश्य दिखाई कि उसके मरने पर भी उसीके नाम के सिक्के इन्होंने जारी रक्खे। कुतुब मीनार पर एक जगह छोड़ कर ऐबक ने अपने को मालिक (बादशाह) कहीं नहीं कहा। अतः कुतुबुद्दीन ने कोई सिक्का अपने नाम का नहीं चलाया।

तीसरा बादशाह आराम शाह १२१०

ऐबक का पुत्र आराम पूरा एक वर्ष भी राज्य न कर सका। उसके तांबे के सिक्के मिले हैं जिनपर उसने अपने को अ़रबी में विजयी आराम शाह सुलतान लिखा है। वह अल्तमश से, जो बदाऊं का सूबेदार था, मारा गया। उस समय सिन्ध नासिरुद्दीन के हाथ में और लखनावती अलीमर्दन के हाथ में थी।

चौथा बादशाह शमसुद्दीन अल्तमश [१२२० से १२३५ तक]

यह ऐबक का गुलाम और दामाद था। बड़ा प्रतापी हुआ। इसकी सङ्गमर्मर की क़ब्र, अब तक, कुतुबमीनार से दक्षिण पश्चिम को, वर्तमान है। बग़दाद के खलीफ़ा से इसे खिताब मिला। चङ्गेज़ इसीके समय में हुआ। रणथम्भौर [ २३७ ]और ग्वालियर इसने तोड़े। ग्वालियर के लिए इसको ११ महीने लड़ना पड़ा। अल्तमश के सिक्कों के दो एक नमूने ये हैं—

(१)

चांदी—तांबा। ४८ ग्रेन। दिल्ली टकसाल। १३३१ ई॰

एक तरफ़ दूसरी तरफ़
घुड़सवार बैल
स्त्री हंमीर सुरितण स्त्री समसदिण
१२८८ (सं॰)

सुरितण से अभिप्राय सुल्तान से और समसदिण से शमसुद्दीन से है। संस्कृत में धर्म्म को वृष (बैल) कहते हैं। इसी लिए शायद हिन्दू राजा लोग अपने सिक्कों पर बैल का चित्र रखते थे। यह प्रथा मुसलमानों ने हिन्दुओं ही से सीखी।

अल्तमश ने जब रनथम्मौर विजय किया तब उसे बड़ी खुशी हुई। उस किले की जीत का वृत्तान्त तबक़ातेनासिरी में इस प्रकार लिखा है—

व दर शहूर सन सलासा व अशरीं व सतम आया अज़ीमते फतेह क़िला रतनपूर मुसम्मिक फरमूद। व आँ क़िला दर हिसानत व मतानत व इस्तेहकाम दर तमामे मुमालिक हिन्दोस्तान मज़कूर व मशहूर अस्त। दर तवारीख़ अहलेहिन्द चुनी आउरदा अन्द के हफताद बादशाह बपाये आँ किला [ २३८ ]आम्दा बूदन्द। व हेच यकेरा फतेह आँ हिसार मयस्सर न शुद। याद अज़ मुद्दत चन्द माह दर शहूर सलासा व अशरों व सतमाआया बर दस्त बन्दगाने ऊ बफ़जले आफरीदगार फतेह शुद।

भावार्थ—६२३ हिज्री में उसने (अल्तमश ने) रनथम्भौर विजय करने का पक्का इरादा किया। दृढ़ता में यह किला सारे हिन्दुस्तान में प्रसिद्ध है। हिन्दुओं के इतिहास में लिखा है कि ७० बादशाहों ने इस पर धावा किया; परन्तु एक भी इसे न ले सका। कई महीने की लड़ाई के अनन्तर, ६२३ हिजरी में, यह क़िला ईश्वर की कृपा से, उनके बन्दों के हाथ आया।

इस विजय के उपलक्ष में अल्तमश ने एक नया सिक्का ढलाया। वह इस प्रकार का था—

[२]

चांदी—तांबा। ५३ ग्रेन। १२२६ ई॰ (१२८३ स॰)

एक तरफ़
बीच में–अ़रबी में
अल्तमश का नाम
किनारे में ढलने की तरीख़ आदि

दूसरी तरफ़
श्री सुलता
लितितिमिसि
सं॰ १२८३

टकसालवालों से तुर्की शब्द अल्तमश नागरी में उच्चारण करते और नक़्श करते नहीं बना। इसलिए उन्होंने लितितिमिसि कर दिया। [ २३९ ]

[३]

तांबा। २८ ग्रेन। प्रायः अप्राप्य

एक तरफ़ अ़रबी में
शम्श

दूसरी तरफ़
श्री समसदीन

जब तक शमसुद्दीन अल्तमश ने देहली में बादशाहत की तब तक सात विदेशी बादशाह या सेनापति ऐसे हुए जिन्होंने हिन्दुस्तान का कुछ पश्चिमी भाग अपने अधिकार में रक्खा और अपने नाम का सिक्का चलाया। उनके नाम ये हैं—

१ ताजुद्दान इल्दज़
२ अलाउद्दीन मुहम्मद ख़ारिज़मी

३ जलालुद्दीन मनकबरनी

४ चंगेज़ ख़ां
५ हसन क़रलघ
६ उज़बेग पाई
७ नासिरुद्दीन कुबाचा

१—ताजुद्दीन इल्दज़। यह पहले पठान बादशाह मुहम्मद बिन साम की तरफ़ से करमान और ग़ज़गी का सूबेदार था। वहां से जब इसे अलाउद्दीन मुहम्मद ख़ारिज़मी ने निकाल दिया तब यह पञ्जाब में आया और यहां इसने अपने नाम का सिक्का चलाया। इसके कई सिक्के पाये गये हैं। उनमें से दो में, एक ओर उसका नाम और खिताब आदि है और दूसरी ओर एक घुड़सवार के नीचे "स्त्री हंमीरः" है।

२ अलाउद्दीन मुहम्मद ख़ारिज़मी। ग़ज़नी, हिरात और पेशावर आदि की टकसालों से इसने कई प्रकार के सिक्के, सोने और चाँदी के, चलाये। उन सब पर धर्म्म के निशान [ २४० ]वृषभराज विराजमान हैं। एक में नागरी अक्षरों में "सम" और दूसरे में "स्त्री हंमीरः" का भी पता मिलता है।

३—जलालुद्दीन मनक़बरनी। इसका एक चांदी और तांबे का सिक्का बहुत घिसा हुआ मिला है। उस पर केवल "स्त्री" पढ़ा जाता है। दूसरा अच्छी दशा में है। वह चांदी और तांबे का है और तौल में ५४ ग्रेन है। उस पर है:—

एक तरफ़
घुड़सवार
श्री हंमीरः

दूसरी तरफ़
बैल
स्त्री जलालदीं

४—चंगेजखां के जितने सिक्के मिले हैं उन पर नागरी नहीं है। नागरी वाले भी सिक्के शायद जारी रहे हों।

५—हसन क़रलघ। इसके किसी किसी सिक्के पर राजपूत सवार और "श्री हमीरः" है। और किसी किसी पर बैल और "श्री हंमीर:" हैं, एक पर "श्री हसण कुरल" नक़्श किया हुआ है।

६—उज़बेग पाई के दो ही सिक्के मिले हैं। उन पर नागरी नहीं है। उनके एक तरफ़ "ज़रब मुलतान" और दूसरी तरफ़ "यसबक़ पाई" है।

७—नासिरुद्दीन कुबाचा। यह उच का गवर्नर था। उच पञ्जाब में एक प्रसिद्ध राजधानी थी। वहीं यह स्वाधीन हो गया और अपने नाम का सिक्का चलाने लगा। सरहिन्द से भक्खर तक का देश इसके अधिकार में था। उसकी गवर्नरी [ २४१ ]मुहम्मद बिन साम ने इसे दी थी। "स्त्री हंमीरः" तो इसके कई सिक्कों पर है। परन्तु एक में इसका नाम भी है। यथा—

एक तरफ़
सवार
स्त्री हंमीरः

दूसरी तरफ़
बैल
स्त्री कुबाचा सुरिता

जिस सिक्के पर जगह रही है उस पर "सुरिता" के आगे "ण" रखकर "सुरिताण" (सुल्तान) पूरा कर दिया गया है।

पांचवां बादशाह रुक‍्नुद्दीन फीरोज़शाह

(१२३५-३६ ई॰)

यह बड़ा ही ऐय्याश और दुःशील बादशाह था। इसने कुल ६ महीने राज्य किया। इसके एक सिक्के में वही "स्त्री हंमीरः" है। इसका दूसरा सिक्का बहुत दुर्लभ है। वह ५१ ग्रेन तौल में है। धातु उसकी चाँदी-ताँबा है। उस पर है—

एक तरफ़
सवार
स्त्री हंमीरः

दूसरी तरफ़
भूल-सहित बैल
सुरिताण स्त्री रूकणदीण

छठी बादशाहज़ादी रिज़ीया (२३६-३९ ई॰)

इसके पहले तुर्किस्तान में मलिका तुरकान और तुरकाने ख़ातून नाम की दो स्त्रियां राज्यासन पर बैठ चुकी थीं। परन्तु हिन्दुस्तान के लिए एक स्त्री का बादशाह होना यह पहला ही उदाहरण है। रिज़ीया अल्तमश की लड़की थी। रुक‍्नुद्दीन को उसकी माँ ने गद्दी से उतार दिया और माँ को हटा कर रिज़ीया [ २४२ ]सिंहासनासीन हुई। वह परदा न करती थी; घोड़े पर सवार होती थी; दरबार में आती थी; और अपने करने के काम खुद करती थी। जलालुद्दीन याक़ूत नाम का एक हबशी उसका प्रेमपात्र हो गया था। सरहिन्द के गवर्नर इख़्तियारुद्दीन से जब रिज़ीया का युद्ध हुआ तब वह हबशी मारा गया। रिज़ीया भी क़ैद हो गई। इख़्तियारुद्दीन रिज़ीया को क़ैद करके देहली की ओर बढ़ा। वहां वह भी मारा गया और रिज़ीया भी मारी गई। रिज़ीया के कई सिक्के मिले हैं। उनमें से किसी किसी के एक ओर सवार और 'स्त्री हंमीर,' है और दूसरी ओर—سلطان العظیم رضیہیہ و الدین (अस्सुल्तानुलाज़म रिज़ीयद्दुनिया व उद्दीन) है। इस से जान पड़ता है कि रिज़ीया उस का नाम न था; यह उसकी पदवी (उपाधि, खिताब) थी

सांतवां बादशाह मुइज़्ज़ुद्दीन बहराम शाह

(१२३९-४२ ई॰)

रिज़ीया के मारे जाने पर बहरामशाह बादशाह हुआ। वह अल्तमश का पुत्र था। वह भी अपने भाई के समान बादशाह होने के सर्वथा अयोग्य था। अपने लड़कों की अयोग्यता का पूरापूरा ज्ञान अल्तमश को था। यह बात उसने साफ़ कह दी थी। वह रिज़ीया को बादशाहत देना चाहता था; परन्तु बलवा होने के भय से अपने जेठे लड़के ही को उसने युवराज बना लिया था। तथापि रिज़ीया से वह बहुत प्रसन्न था; उससे राज्य-सम्बन्धी काम भी वह लेता था।

बहरामशाह के वज़ीर ने उसे क़ैद करके मरवा डाला। [ २४३ ]इसके कई सिक्कों पर नागरी ने स्थान पाया है। उन में से एक की रचना ऐसी है—

चाँदी और ताँबा; तौल ५४ ग्रेन।

एक तरफ़
सवार
स्त्री हंमीरः

दूसरी तरफ़
बैल
सुरिताण स्त्री मुअजंदी

आठवां बादशाह अलाउद्दीन मसऊद

(१२४१—१२४६ ई॰)

बहरामशाह के मरने पर इज़्ज़ुदीन बलबन गद्दी पर बैठा। वह अल्तमश का दामाद था। परन्तु वह कुछ ही घन्टों में तख़्त से उतार दिया गया। रुक‍्नुद्दीन फीरोज़ के पुत्र अलाउद्दीन मसऊद ने राज्य पाया। तब मातनासिरी नामक इतिहास का लिखनेवाला मिनहाजुस्सीराज उस समय देहली में क़ाज़ी था। वहां से वह बङ्गाल के गवर्नर तुग़न ख़ाँ के यहां चला गया। वहां का गवर्नर, उस समय, लखनावती में रहता था। मिनहाजुस्सीराज ने पठान बादशाहों का बहुत ही अच्छा इतिहास लिखा है। बहुत सा वृत्तान्त उसने आँखों देखा लिखा है। अलाउद्दीन मसऊद के कई सिक्कों पर "स्त्री हंमीर:" है। परन्तु एक में विशेषता है—

चाँदी-ताँबा, तौल ५० ग्रेन।

एक तरफ़
शङ्कर का नन्दी
सुरिताण स्त्री अलावदिण

दूसरी तरफ़
सवार
स्त्री षलीफ

[ २४४ ]इस बादशाह का एक और सिक्का मिला है। उस पर "अलादिन" है।

नवां बादशाह नासिरूद्दीन महमूद (१२४६-६५ ई॰)

यह बाहशाह विद्या का बड़ा व्यसनी था। यह बहुधा क़ुरान की नक़ल किया करता था। लिखने में इसको बड़ा अभ्यास था। हलाकूशाह मुग़ल के भेजे हुए दूत इसी के समय में सबसे पहले पहल देहली आये। इसके सिक्कों में भी "श्री हमीर" पाया जाता है। १० रजब ६५२ हिजरी का इसका एक शिलालेख अलीगढ़ के एक मीनार पर था; परन्तु ग़दर में उसे किसीने नष्ट कर दिया।

दसवां बादशाह ग़यासुद्दीन बल्बन (१२६९-८७ ई॰)

इसीके समय में पहले पहल सोने का बादशाही सिक्का जारी हुआ। इसका 47½ ग्रेन का एक ताँबे का सिक्का मिला है। उस पर है—

एक तरफ़
اسلتان العظیم گیاسودونیا و الدین
[अस्सुल्तानुलाज़म गयासुद्दुनिया व उद्दीन]

दूसरी तरफ़
बीच में بالبن (बलबन) किनारे में–श्री सुलतां ग़यासुदीं।

देहली के पास एक फ़सवा पालम है। उस में हरिपाल के पुत्र उटर की बनवाई हुई एक बावली है। उसमें एक लेख था जो सिपाही विद्रोह के समय नष्ट हो गया। इस [ २४५ ]लेख में ग़यासुद्दीन तक जितने मुसलमान बादशाह इस देश में हुए सब के नाम इस प्रकार खुदे हुए थे । यथा-

१ शहाबुद्दीन

२ कुतबुद्दीन
( पदवी "भूपाल')

३ शमसुद्दीन

४ फ़ीरोजाशाह

(पदवी “भूमिपति')

५ जलालुद्दीन

( रिज़ीया)

६ मौजुद्दीन

( पदवी "नप")

७ अलाउद्दीन

( पदवी "नृपति")

८ नासिरुद्दीन

(पदवी "पृथ्वीन्द्र)

६ गयासुद्दीन

(पदवी "श्री हम्मीर)

इस नामावली में तीसरा बादशाह आरामशाह छोड़ दिया गया है और रिज़ीया का नाम जलालुद्दीन लिखा है।

ग्यारहवां बादशाह मुइज़्जुई न कैकुबाद

(५२८७-६० ई.)

तुर्की वंश का यह अन्तिम बादशाह हुश्रा। बलबन का पौत्र और नासिरुद्दीन महमूद का यह पुत्र था। नासिरुद्दीन बङ्गाल का गवर्नर था। वह वहीं रहा। कैकुबाद देहली का बादशाह हो गया। यह अत्यन्त विलासशील था। इसी कारण इसे बहुत जल्द पक्षाघात रोग हो गया । इसे इसके मन्त्री जलालुद्दीन खिलजी ने मरवा डाला और आप देहली का बादशाह हो गया । कैकुबाद के सिक्कों में से एक सिक्का ऐसा
[ २४६ ]
मिला है जिसको एक तरफ़ फ़ारसी में ०५is (ककुबाद) ऊपर और "श्री सुलतां मुज्जुदीं" नीचे है ।

११९२ से १५५४ ईस्वी तक देहली में ४० बादशाहों ने बादशाहत की। ये ४० बादशाह पृथक् पृथक् ६ खानदानों के थे। इन ६ में से तुर्की खानदान के बादशाहों के सिक्कों का वर्णन हो चुका। इसके आगे खिलजी, तुगलक और लोदी आदि खानदान के सिक्को का वृत्तान्त लिखने लायक है। क्योंकि अगले बादशाहों के सिक्कों में भी अनेक सिक्के ऐसे मिले हैं जिन पर नागरी अक्षरों को स्थान दिया गया है। इससे सिद्ध है कि मुसलमान बादशाहों ने नागरी-लिपि को इस देश की प्रधान लिपि मानी थी। यदि ऐसा न होता तो वे कदापि इस लिपि का व्यवहार अपने सिक्कों पर न करते । बड़े खेद और आश्चर्य की बात है कि भारत की वर्तमान गवर्नमेंट ने राजराजेश्वर के नवीन रुपए पर नागरी अक्षरों को न रख कर फ़ारसी अक्षरों में 12 (यक रुपया ) रख्खा है । यह अनुचित है। इसका शीघ्र ही संशोधन होना चाहिये । फ़ारसी लिपि की अपेक्षा नागरी लिपि ही के जाननेवाले सब प्रान्तों में अधिक हैं। इसलिए उसी लिपि का प्रयोग सिक्कों पर होना चाहिए।

नवम्बर १९०४

  1. मुसल्मान बादशाहों में नागरी अक्षरों का प्रचार महमूद ग़ज़नवी के समय से है। लाहौर के आस पास का देश बहुत काल तक महमूद और उसके वंशजों के अधीन था। उसने लाहौर का नाम महमूदपुर रक्खा था। वहीं से उसने अपने नाम का सिक्का चलाया था। किसी किसीका मत है कि लाहौर के पास महमूदपुर नाम का एक पृथक् शहर महमूद ने अपने नाम से बसाया था। वहीं उसके सिक्के ढाले जाते थे। इन सिकों में से एक सिक्का चांदी का है। उसका वज़न ४५ ग्रेन है। वह ४१८ हिज्री में महमूदपुर की टकसाल में ढाला गया था। उसके नीचे की ओर अरबी में महमूद का नाम और खिताब वगैरह है और ऊपर की ओर नागरी अक्षरों में है—

    अव्यक्त मेक
    मुहम्मद अवतार
    नृपति महमूद

    और उसके किनारे किनारे चारों ओर यह है—

    अव्यक्तीय डामे अयं टंकं तता महमूदपुर संवती ४१८

    एक और चांदी का ऐसा ही सिक्का मिला है जिस पर ये अक्षर है—

    अयं टंकं घटे तता जिकीयेर संवती ४१९।

    इन वाक्यों का संस्कृत शुद्ध नहीं है; परन्तु महमूद के लिए संस्कृत को आश्रयदेना ही आश्चर्य्य की बात है।

  2. एक रत्ती में 1¾, ग्रेन होते हैं।