साहित्यालाप/१८—आज कल के छायावादी कवि और कविता

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१८-आज कल के छायावादी कवि और कविता।

सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् ! भर्तृहरि ।

श्रीयुत रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गणना महाकवियों में है।वे विश्वविश्रुत कवि हैं। उनके कविता-ग्रन्थ विदेशों में भी बड़े चाव से पढ़ जाते हैं । कविता-ग्रन्थों ही का नहीं, उनके अन्य ग्रन्थों का भी बड़ा आदर है। उनकी कृतियों के अनुवाद अनेक भाषाओं में हो गये हैं और होते जा रहे हैं। उन्हें साहित्य-क्षेत्र में पदार्पण किये कोई ५० वर्ष हो गये । बहुत कुछ ग्रन्थ-रचना कर चुकने पर उन्होंने एक विशेष प्रकार की कविता की दृष्टि की है । यह सृष्टि उनके अनवरत अभ्यास, अध्ययन और मनाऽभिनिवेश का फल है । अंगरेज़ी में एक शब्द है-( Mystic या Mystical ) पण्डित मथुराप्रसाद मिश्र ने अपने पैभाषिक कोश में, उसका अर्थ लिखा है-गूढार्थ, गुह्य, गुप्त, गोप्य और रहस्य । कुछ लोगों की राय में रवीन्द्रनाथ की यह नये ढङ्ग की कविता इसी 'मिस्टिक' शब्द के अर्थ की द्योतक है। इसे कोई रहस्यमय कहता है, कोई गूढोर्थ-बोधक कहता है, और कोई छायावाद की अनुगामिनी कहता है । छायावाद से लोगों का क्या मतलब है, कुछ समझ में नहीं आता। शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भावों को छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावाद-कविता कहना चाहिए।

कुछ शब्दों में विशेष प्रकार की शक्ति होती है। कभी कभी
[ ३२६ ] एक ही शब्द या वाक्य से कई अर्थ निकलते हैं । ऐ सें अर्थो को वाच्य, लक्ष्य और उपड़्गय संज्ञा है। वाच्य से तो साधारण अर्थ का ग्रहण होता है; लय और व्यङ्गय से विशेष अशी का। पर रहस्यमयी कविता को प्राप इन अर्थों सें परे समझिए । एक अलङ्कार का नाम है-महोक्ति। जहाँ वगय विषय के सिवा किसी अन्य विषय का भी बोध साथ हा साथ होता जाता है ,वहां यह अलङ्कार माना जाता है । महाकवि ठाकुर की कविता इस अलङ्कार के भी भीतर नही आती। संस्कृत भाषा में कितने ही काव्य ऐसे हैं जो आधोपान्त द्वयर्थक है। वर्णन हो रहा है हरि का, पर साथ हो अर्थ हर का भी निकलता जाता है। काव्य लिखा गया है राघव के चरित-चित्रण- सम्बन्ध में; पर करता चला जा रहा है पागडयां के भी चरित का चित्रण। इस तरह के भी काव्यों की कथा के भीतर कविवर ठाकुर की कविता नहीं भाती। उस तरह को अटपटी कविता आती किसके भीतर है यह बात कवियों का यह किङ्कर नहीं बता सकता। बताने का सामर्थ्य उसमें नहीं। जिसे इस कविता का रहस्य जानना हो वह बंगला पढ़े, कुछ समय तक उस भाषा में लिखे गये काव्यो का अध्ययन करे, तब यदि वह इसकी गुप्त, गूढ़ या छायामयी कविता पर कुछ कह सके तो कहे। रहीम पर कुछ कहना हो तो राम का चरित गान करो; अशोक पर कुछ लिखना हो तो सिकन्दर के जीवन-चरित की चर्चा करो-यह अघटनीय घटना पर लिखना साधारण कवियों का काम नहीं। पर
[ ३२७ ] रवि बाबू की गोपनशील कविता ने हिन्दी के कुछ युवक कवियों के दिमाग में कुछ ऐसी हरकत पैदा कर दी है कि वे असम्भव को सम्भव कर दिखाने की चेष्टा में अपने श्रम, समय और शक्ति का व्यर्थ ही अपव्यय कर रहे हैं । जो काम रवीन्द्रनाथ ने चालीस पचास वर्ष के सतत अभ्याल और निदिध्यास की कृपा से कर दिखाया है उसे वे स्कूल छोड़ते हो, कमर कसकर कर दिखाने के लिए उतावले हो रहे हैं । कुछ तो स्कूलों‌ और कालेजों में रहते ही रहते छायावादी कवि बनने लग गये हैं। यदि ये लोग रवीन्द्रनाथ हो की तरह सिद्ध कवि हो जायं और उन्हींकी जैसी गुह्यातिगुह्य कवित्व रचना करने में भी समर्थ हो जाय तो कहना पड़ेगा कि किसी दिन-

विन्ध्यस्तरेत् सागरम् ।

कविता किस उद्देश से की जाती है ? ख्याति के लिए,यश प्राप्ति के लिए, धर्नाजन के लिए या दूसरों के मनोरञ्जन के लिए । इन के सिवा तुलसीदास की तरह "स्वान्त:सुखाय" भी कविता की रचना होती है । परमेश्वर का सम्बोधन करके कोई कोई कवि आत्म-निवेदन भी, कविता-द्वारा ही, करते हैं। पर ये बातें केवल भक्त कवियों ही के विषय में चरितार्थ होती हैं। अस्मदादि लौकिक जन तो और ही मतलब से कविता करते या लिखते हैं और उनका वह मतलब ख्याति, लाभ और मनोरञ्जन आदि के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता। इन सभी उद्देशों की सिद्धि तभी हो सकती है जब कवि की कविता का आशय दूसरों की समझ में झट आ जाय। क्योंकि जो
[ ३२८ ] बात समझ ही में न आवेगी उसका दाद देगा कान ? न उससे किसीका मनोरजन ही होगाः न उसे सुनकर सुनने वाला कवि का अभिनन्दन ही कर सकेगा और जब उसके हृदय पर कविता का कुछ असर ही न होगा तब वह कवि को कुछ देगा क्यों? अन्य विचार करने की बात है कि वर्तमान छायावादी कवियों की कविता में श्रोताओं को मुग्ध करने योग्य गुण हैं या नहीं। इसपर, आगे चलकर, हम सप्रमाण विचार करेंगे।

यहां पर यह कहा जा सकता है कि छायावादी कवि दुसरी को प्रसन्न करने के लिए कविता-रचना नहीं करते। वे अपनी ही मनस्तुष्टि के लिए कविता लिखते हैं। इसपर प्रश्न हो सकता है कि फिर वे दूसरों से अपनी कविता को समालोचना के अभिलाषी क्यों होते हैं ? मान लीजिए कि ये लोग बड़े अच्छे कवि है; परन्तु यदि ये अपनी कविता की रचमा अपनी ही आत्मा को प्रसन्न करने के लिए लिखते हैं तो उससे संसार को क्या लाभ ? अपनी चीज़ किसे अच्छी नही लगती? तुल़सीदास ने कहा ही है-"निज कवित्त कंदिला न नीक।" ऐसे कवियों के विषय में कविवर रुद्रभट्ट की एक उक्ति बड़ी ही मनोहारिणी हं-

सत्यं सन्ति गृहे गृहे सुकवयो येषां बचश्चातुरी

स्वे हम्य कुलकन्यकेव लभते जाते गौरवम् ।

दुष्प्राप्यः स तु कोऽपि कोविंदपतियप्रद्वानसमाहिरणां

पण्यस्त्रीव कलाकलापकुशला चेतांसि ह क्षमा।। [ ३२९ ] ऐसे कवि तो घर घर में भरे पड़े हैं जिनकी वचन-चातुरी अपने ही आंगन में मनोहारिणो बातें करनेवाली कुलकन्या के समान, गुणों के प्रशंसक स्वजनों ही से आदर पाती हैं । परन्तु जिनकी सरस वाणी ( दूर दूर तक के ) रसग्राही कविता-प्रेमियों का चित्त, कलाकुशल वारवनिता के सदृश, चुरा लेने में समर्थ होती है वे कबीश् र मुश्किल से कहीं पाये जाते हैं।

पुरान में

एक बात और भी है । यदि ये लोग अपने ही लिए कविता करते हैं तो अपनी कविताओं का प्रकाशन क्यों करते हैं ?प्रकाशन भी कैसा ? मनोहर टाइप में, बहुमूल्य काग़ज़ पर ।अनोखे अनोखे चित्रों से सुसजित । टेढ़ी-मेढ़ी और ऊँची-नीची पङक्तियों में, रङ्ग-बिरङ्ग बलवूटों से अलङ्कृत । यह इतना ठाठ-बाट-यह इतना आडम्बर-दूसरों ही को रिझाने के लिए हो सकता है, अपनी आत्मा की तृप्ति के लिए नहीं। परन्तु सत्कवि के लिये इस आयोजन की आवश्यकता नहीं। जिन कवियों को नामशेष हुए हजारों वर्ष बीत चुके उनको यह कुछ भी नहीं करना पड़ा । करना भी चाहते तो वे न कर सकते। क्योंकि उस समय ये साधन ही सुलभ न थे । किसी ने अपना काव्य ताड़पत्र पर लिखा, किसीने भोजपत्र पर । किसीने भद्दे और खुरदरे काग़ज़ पर । पर जनता ने प्रकाशन के आडम्बरों से रहित इन सत्कवियों के काव्यों को यहाँ तक अपनाया कि समय उनको नष्ट न कर सका, धर्मान्ध आततायियों से उनका कुछ न बिगड़ सका, जलाप्लावन और भूकम्प
[ ३३० ] आदि का ज़ोर भी उनका नाश न कर सका । सहदय सज्जनों और कविता के पारखियों ने उन्हें आत्मसात करके उन्हें अपने कंठ और अपने हृदय में स्थान दे कर अमर कर दिया । सड़े गले काग़ज़ और फटे पुराने ताड़पत्र को देखकर काश्यरसिको ने उन्हें फेंका नहीं । उन पुरातन पत्रों में कुछ ऐसा मोहनमन्त्र था--उनमें कुछ ऐसी अद्भन शक्ति थी-जिसने उन्हें मोह लिया वही शक्ति-वही मन्त्रौषधि-उन काव्यों के जीवित रहने का कारण हुई । सो, छायावादी कवि अपनी कृति को चाहे जितने रम्य रूप में प्रकाशित करे-उसके उपकरणों को वह चाहे जितने मनोमोहक बनावे-यदि उसकी कविता में वह शक्ति नहीं जो सत्कवियों की कविता में होती है तो उसके आडम्बर-जाल में सरसहृदय श्रोता शुक कदापि फैमने के नहीं।

प्राचीन कवियों को जाने दीजिए । आधुनिक कवियों में भी ऐसे कई सत्कवि इस समय विद्यमान है जिनकी कविता पुस्तकों के, थोड़े ही समय में, अनेक संस्करण निकल चुके हैं । उनकी कवितायें मदरसों, स्कूलों और कालेजों के छात्रों तक के कंठहार हो रही है । इन कवियों ने अपनी कविताये सजाकर प्रकाशित करने की चेष्टा नहीं की और किसी किसीने की भी है तो बहुत ही थोड़ी। फिर भी इनकी कविता का जो इतना आदर हुआ है उसका एक-मात्र कारण है उसकी सरसता, उसका प्रसाद-गुण, उसकी वर्णाभरणता और उसकी चमकारिणी रचना । अतएव सत्कवियों के लिए आडम्बर की ज़रूरत नहीं-
[ ३३१ ] किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् । गूढार्थविहारो या छायावादी कवियों की कहीं यह धारण तो नहीं कि हमारी कविता में कविलभ्य गुण तो हैं ही नहीं, लावा ऊपरी आडम्बरों ही से पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट करें । परन्तु यह सन्देह निराधार सा जान पड़ता है; क्योंकि इन महाशयों में से कविता-कान्तार के किसी किसी कराठीचव ने बड़े गर्जन-तर्जन के साथ अन्य कवियों को लथेड़ा है। इन कठोर-कर्मा कवियों की दहाड़े सुनकर ही शायद अन्य कवि भयभीत होकर अपने-अपने गृह-गहवरों में जा छिपे हैं। किसीसे अब तक कुछ करते धरते नहीं बना । इन महाकवियों के महाराजों की समझ में जो कवि इनकी जैसी कविता के प्रशंसक, पोषक या प्रणेता नहीं वे कवि नहीं, किन्तु कवित्वहन्ता है । इस "कवित्वहन्ता" पद के प्रयोग का कर्त्ता आप कवियों के इस किङ्कर ही को समझिए । यह शब्द एक और ऐसे ही शब्द के बदले यहां लिखा गया है जो है तो समानार्थक, पर सुनने में निकृष्ट निर्दयता सूचक है । वह शब्द, इस विषय में, एक ऐसे साहित्य-शास्त्रीद्वारा प्रयोग में लाया गया है जो संस्कृत भाषा में रचे गये अनेक महाकाव्यों के रसाच में आशैशव गोता लगाते चले आरहे हैं और जिनका निवास इस समय लखनऊ के अमीनाबाद मुहल्ले में है। अतएव इस शब्दात्मक कठोर कशा- घात के श्रेय के अधिकारी वही हैं।

सत्कवि के लिए आडम्बर की मुतलक़ ही ज़रूरत नहीं। यदि उसमें कुछ सार है तो पाठक और श्रोता स्वयं ही उसके
[ ३३२ ] पस दौड़े आवेंगे । आम की मञ्जरी क्या कभी मारा को बुलाने जाती है ?

न रत्नमन्विष्यति मृग्य हि तत् ।

खात यह ।

आज कल के कुछ काव काय-कर्म में कुशल ना-प्राप्ति की चेष्टा तो कम करते हैं, आडम्बर-रचना की बहुत । शुद्ध लिखना तक सीखने के पहले ही वे कवि बन जाते है और अनोखे अनोखे उपनामों की लाड़गूल लगाकर अनाप-शनाप लिखने लगते हैं । वे कमल, विमल, यमल और अरबिन्द, मिलिन्द,मकरन्द आदि उपनाम धारण करके अखबारों और सामयिक पुस्तकों का कलेवर भरना प्रारम्भ कर देते हैं। अपनी कविताओं ही में नहीं, यों भी जहां कहीं वे अपना नाम लिखते हैं,काव्योपनाम देना नहीं भूलते । यह रोग उनको उर्दू के शायरों की बदौलत लग गया है । पर इससे कुछ भी होता जाता नहीं । शेक्सपियर, मिलन, बाइरन और कालिदास, भारवि, भवभूति आदि कवि इस रोग से बरी थे। फिर भी उनके काव्यों का देश-देशान्तरों तक में आदर है । उपनाम-धारण को असारता उर्दू, हो के प्रसिद्ध कवि चकवस्त ने खूब समझी थी। उनका कथन है-

ज़िक्र क्यों आयेगा बमे शुअरा में अपना,

मैं तख़ल्लुस का भी दुनिया में गुनहगार नहीं।

अनूठे अनूठे तख़ल्लुस ( उपमा) लगाने से किसीकी प्रसिद्धि नहीं होती। चकवस्तजी का क़ौल है-
[ ३३३ ] किस वास्ते जुस्तजू करू शुहरत की

इक दिन खुद ढूँढ़ लेगी शुहरत मुझ को

गुण हेाने ही से प्रसिद्धि प्राप्त होती है। पकड़ लाने की चेष्टा से वह नहीं मिलती।

कवित्व-शक्ति किसी विरले ही भाग्यवान् को प्राप्त होती है। यह शक्ति बड़ी दुर्लभ है । कवियशोलिप्सुओं के लिए कुछ साधनों के आश्रय की आवश्यकता होती है । ये साधन अनेक हैं। उनमें से मुख्य तीन है-प्रतिभा । अर्थात् कवित्व-बीज ) अध्ययन और अभ्यास । इनमें से किसी एक और कभी कभी किसी दो की कमी होने से भी मनुष्य कविता कर सकता है। परन्तु प्रतिभा का होना परमावश्यक है । बिना उसके कोई मनुष्य अच्छा कवि नहीं हो सकता । महाकवि क्षमेन्द्र ने अपनी पुस्तक-कविकराठाभरण-में, थोड़ेही में, इस विषय का अच्छा विवेचन किया है । वर्तमान कविमन्यां को चाहिए कि वे उसे पढ़े, स्वय न पढ़ सके तो किसी संस्कृत से उसे पढ़वा कर उसका आशय समझ लें। ऐसा करने से, श्राशा है, उन्हें अपनी त्रुटियों और कमजोरियों का पता लग जायगा । कवित्वशक्ति होने पर भी पूर्ववर्ती कवियों और महाकवियों की कृतियों का परिशीलन करना चाहिए और कविता लिखने का अभ्यास भी कुछ समय तक करना चाहिए ।छन्दःप्रभाकर में दिये गये छन्दोरचना के नियम जान कर तत्काल ही कवि न बन बैठना और समाचार-पत्रों के स्तम्भों तक दौड़ न लगाना चाहिए । क्षमेन्द्र ने लिखा है कि कवि बनने की इच्छा रखने
[ ३३४ ] वालों के तान दरजे होते है-अल्पप्रयत्नमाध्य, कुन्द्रमाध्य और असाध्य । इनमें से पहले दोनों के लिए भी बहुत कुछ अध्ययन,श्रवण, विचार और अभ्यास को ज़रूरत होती है। यह नहीं कि तेरह-ग्यारह भावाओं के दोहे का लक्षण जान लेते हो काता और ले दौड़े। अन्तिम नामरे दरजे के मनुष्यों के लिए क्षमेन्द्र ने लिखा है-

यस्तु प्रकृत्याश्मसमान एवं

कप्टेन वा व्याकरणेन नष्ठ: ।

तण दग्धोऽनिन्न मिना वा.

प्यविद्ध कर्णः सुकविप्रबन् : ॥२२॥

न तस्य वक्त त्वसमुद्भवः म्या-

च्छिता विशेषैरपि मुप्रयुक: ।

न गर्दा गार्यात शिक्षिताऽपि

सन्दर्शितं पश्यति नार्क मन्धः ॥२३॥

जिसका हृदय स्वभाव ही से पत्थर के समान है, जो जन्म- रोगी है, व्याकरण “धोखते" "पोखते" जिसकी बुद्धि जड़ है। गई है, घट-पट और अग्नि-धूम आदि से सम्बन्ध रखनेवाली फक्किकाएं रटते रटते जिसकी मानसिक सरसता दग्ध सी हो गई है, महाकवियों को सुन्दर कविताओं का श्रवण भी जिसके कानों को अच्छा नहीं लगता उसे आप चाहे जितनी शिक्षा दें और चाहे जितना अभ्यास करावे वह कभी कवि नहीं हो सकता। सिखाने से भी क्या गधा भैरवी अलाप
[ ३३५ ] सकता है ? अथवा दिखाने से भी क्या अन्धा मनुष्य सूर्य-‌बिम्ब देख सकता है ?

अब आप ही कहिए कि जिन्होंने कवित्व-प्राप्ति विषयक कुछ भी शिक्षा नहीं पाई, जिन्होंने उस सम्बन्ध में वर्ष दो वर्ष भी अभ्यास नहीं किया और जिन्होंने इस बात का भी पता नहीं लगाया कि उनमें कवित्व-शक्ति का बीज है या नहीं वे यदि बलात् कवि बन बैठे और दुनियां पर अपना आतङ्क जमाने के लिए कविता-विषयक बड़े बड़े लेक्चर झाड़े तो उनके कवित्व की प्रशंसा की जानी चाहिए या उनके साहस, उनके धाष्टर्य और उनके अविवेक की । उस दिन सत्रह अठारह वर्ष का एक लड़का इस किङ्कर के पास आया। उसकी बगल में उसकी लिखी हुई, कोई डेढ़ दर्जन " कविताओं" के कागज़ों का एक बगडल था । वे सब कवितायें वह कुछ सभाओं में सुना चुका था। उनकी कापियां वह कुछ अरनबारों को भी भेज चुका था। उसे शब्द-शुद्धि तक का शान न था। उसकी तुक-बन्दियों में एक नहीं अनेक छन्दोभङ्ग तक थे। तथापि वह अपने मन से कवि बन बैठा था। बहुत कुछ कहने सुनने से उसने लघुकौमुदी पढ़ डालने का वचन दिया। आजकल ऐसे ही कवियों की धूम है। समाचार पत्रों और सामयिक पत्रिकाओं के सम्पादकों को भी कई कारणों से निरुपाय हो कर, ऐसों ही की कात-कूत को ग्रहण करना पड़ता है । इसी से कविता के एक विशेषज्ञ ने अपने हार्दिक उद्गार, अपने‌ एक पत्र में, इस प्रकार निकाले हैं-
[ ३३६ ] "आज-कल जो हिन्दी कवितायें निकलती हैं उन्हें में 'अस्पृश्य' समझ कर दूर हो ने छोड़ देता हू। पहले कुछ पढ़ी: पर चित्त में दुःख हुआ । तब से उन्हें देखना ही बन्द कर दिया। आज-कल के कवि-पुङ्गवों और उपन्यास लेखको से तो जी ऊब उठा है । क्या कहें और किससे कहे ? सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि यदि कुछ समझाया जाय तो ये बदनसीब समझ भी नहीं सकते" ( यहां पर लेम्बक ने अपने पत्र में‌ "बदनसीब" के पर्यायवाची एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया है जो बहुत कठोर है । अतएव वह नहीं लिखा गया)।

इसपर प्रार्थना इतनी ही है कि आज कल के सभी कवि ऐसे नहीं। उनमें से दो चार सत्कवि भी है जिनकी रचना पढ़ कर कोई भी सरसहाय कविता-प्रेमी आनन्दमन हुए बिना नहीं रह सकता । इस बात के दो एक प्रमाण, आगे चल कर, सोदाहरण, दिये जायंगे ।

अच्छा, कविता कहते किसे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर बहुत टेढ़ा है। इस लिए कि इस विषय में, आचार्यों और विशेषज्ञों में, मतभेद है। कविता कुछ सार्थक शब्दों का समुदाय है अथवा यह कहना चाहिए कि वह ऐसे ही शब्द-समुदाय के भीतर रहनेवाली एक वस्तु-विशेष है । कोई तो कहता है कि ये शब्द या वाक्य यदि सरस हैं तभी कविता की कक्षा के भीतर पा सकते हैं । कोई उनके अर्थ को रमणीयता सापेक्ष्य बतलाता है। कोई उनमें उनके भाव के अनूठेपन की पंख लगाता है । कोई इन विशेषताओं के साथ शब्द-शुद्धि, छन्द:-
[ ३३७ ] शास्त्र के नियमों के परिपालन और अलङ्कार आदि की योजना को भी आवश्यक बताता है । पर आप इन पचड़ों और झगड़ों को जाने दीजिए । आप सिर्फ यह देखिए कि कोई पत्र लिखता बोलता, या व्याख्यान देता है तो दूसरे पर अपने मन का भाव प्रकट करने ही के लिए वह ऐसा करता है या नहीं । यदि वह इसलिए यह कुछ नहीं करता तो न उसे लिखने की ज़रूरत और न बोलने की । उसे मूक बन कर या मौन धारण करके ही रहना चाहिए । सो बोलने या लिखने का एकमात्र उद्देश्य दूसरों को अपने मन की बात बताने के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता। जो अंगरेज़ी या बंगला-भाषा नहीं जानता उसे इन भाषाओं की बढ़िया से भी बढ़िया कविता या कहानी सुनाना बेकार है । जो बात या जो भाषा मनुष्य सबसे अधिक सरलता से समझ सकता है उसी बात या उसी भाषा की पुस्तक पढ़ने या सुनने से उसके हृदय पर कुछ असर पड़ सकता है। क्योंकि जब तक दूसरे का व्यक्त किया हुआ मतलब समझ में न आवेगा तब तक मनुष्य के हृदय में कोई भी विकार जागृत न होगा। पशुओं के सामने आप उत्तमोत्तम कविता का पाठ कीजिए । उनपर कुछ भी असर न होगा।

अतएव गद्य हो या पद्य, उसमें जो कुछ कहा गया हो वह श्रोता या पाठक की समझ में आना चाहिए । वह जितना ही अधिक और जितना ही जल्द समझ में आवेगा, गद्य या पद्य के लेखक का श्रम उतना ही
[ ३३८ ] अधिक और उतना ही शीघ्र सफल हो जायगा। जिस लेख या कविता में यह गुण होता है उसकी प्रासादिक संज्ञा है।कविता में प्रसाद गुण यदि नहीं तो कवि की उद्देश्यसिद्धि अधिकांश में व्यर्थ जाती है। कवियों को इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिए । जो कुछ कहना हो उसे इस तरह कहना चाहिए कि वह पढ़ने या सुननेवालों की समझ में तुरन्त ही आजाय। इसे तो आप कविता का पहला गुण समझिए । दुसरा गुण कविता में यह होना चाहिए कि कवि के कहने के ढङ्ग में कुछ निरालापन या अनूठापन हो-वह अपने मन के भाव को इस तरह प्रकट करे जिससे पढ़ने या सुननेवाले के हृदय में कोई न कोई विकार जागृत, उत्तेजित या विकसित हो उठे । विकारों का उद्दीपन जितना ही अधिक होगा कवि की कविता उतनी हो अधिक अच्छी समझी जायगी । यह भो न हो तो उसका कविता सुन कर श्रोता का चिन ना कुछ चमत्कृत हो । यदि कवि में इतना सामर्थ्य नहीं कि वह दूसरों के हृदयों को प्रभावान्वित कर सके तो कम से कम उसे अपनी बात ऐसे शब्दों में तो ज़रूर ही कहनी चाहिए जो कान को अच्छी लगे। कथन में लालित्य होना चाहिए। उसमें कुछ माधुर्य होना चाहिए । कविता के शास्त्रीय लक्षणों की परवा न करके जो कवि कम से कम इन तीनों गुणों में से, सबके न सही, एक ही दो के साधन में सफल होने की चेष्टा करेंगे उन्हींकी कविता न्यूनाधिक अंश में, कविता कही जा‌ सकेगी। [ ३३९ ] "आवेहयात" के लेखक प्राफेसर आज़ाद ने संस्कृत भाषा में लिखे गये साहित्य-शास्त्र-विषयक ग्रन्यों का अध्ययन न किया था । पर थे वे प्रतिभावान, सहृदय और काव्यप्रेमी । इसीसे उन्होंने छोटी छोटी दा हो सतरों में सत्कविता का कैसा अच्छा निरूपण किया है --निरूपण क्या किया है,परमात्मा से उसकी प्राप्ति के लिए प्रार्थना की है । वे कहते हैं---

है इल्तिजा यही कि अगर त करम करे ।

वह बात दे ज़बां मै के दिल पर असर करे॥

देखिए, उन्हें माल, मुल्क,प्रभुता, महत्ता किसीको भी इच्छा नहीं । इच्छा सिर्फ यह है कि जो कुछ वे कहें उसका असर सुननेवाले के दिल पर पड़े। सत्कविता का सबसे बड़ा गुण-सब से प्रधान लक्षण-यही है।

सत्कवियों की वाणी में अपूर्व शक्ति होती है। वही श्रोताओं और पाठकों को अभिलषित दिशा की ओर खींचती और उद्दिष्ट विकारों को उन्माज्जित करती है। असर पैदा करना-प्रभाव जमाना-उसीका काम है । सत्कवि अपनी कविता के प्रभाव से रोते हुओं को हंसा सकता है, हंसते हुओं को रुला सकता है, भीरुओं को युद्ध-धीर बना सकता है, वीरों को भयाकुल और त्रस्त कर सकता है, पाषाण-हृदयों के भी मानस में दया का संचार कर सकता है । वह सांसारिक घटनाओं का इतना सजीव चित्र खड़ा कर देता है कि देखने वाले चेष्टा करने पर भी उसके ऊपर से आंख नहीं उठा सकते । [ ३४० ] जब वह श्रोताओं को किसी विशेष विकार में मग्न करना अथवा किसी विशेष दशा में लाना चाहता है तब वह कार ऐसे भावों का उन्मेष करता है कि श्रोता मुग्ध हो जाते है और विवश से हो कर कवि के प्रयत्न को बिना विलम्ब सफल करने लगते हैं। यदि वह उनसे कुछ कराना चाहता है तो करा कर ही छोड़ता है । सत्कवि के लिए ये बातें सर्वथा सम्भव हैं।

यदि किसी कवि की कविता में केवल शुरु विचारों का विजृम्भरण है; यदि उसकी भाषा निरी नीरस है;यदि उसमें कुछ भी चमत्कार नहीं तो ऊपर जिन घटनाओं की कल्पना की गई उनका होना कदापि सम्भव नहीं। और यदि उसकी क्लिट कल्पनाओं और शुष्क शब्दाडम्बर के भीतर छिपे हुए उसके मनोभाव श्रोताओं की समझ ही में न आये ना कोढ़ में खाज ही उत्पन्न हो गई समझिए। ऐसी कविता से प्रभावान्वित होना तो दूर उसे पढ़ने तक का भी कष्ट शायद ही कोई उठाने का साहस कर सके । बात यदि समझ ही में न आई तो पढने या सुननेवाले पर असर पड़ कैसे सकता है? जो कवि शब्द-चयन, वाक्य-विन्यास और वाक्य समुदाय के आकार-प्रकार की कांट छांट में भी कोशल नहीं दिखा सकते उनकी रचना विस्मृति के अन्धकार में अवश्य ही विलीन हो जाती है। जिसमें रचना-चातुय्य तक नहीं उसकी कवियशा-लिप्सा बिडम्बना मात्र है। किसीने लिखा है-
[ ३४१ ] तान्यर्थरत्नानि न सन्ति येषां

सुवर्णसङ घेन च ये न पूर्णाः ।

ते रीतिमात्रेण दरिद्रकल्पा

यान्तीश्वरत्वं हि कथं कवोनाम ?

जिनके पास न तो अर्थरूपी रत्न ही हैं और न सुवर्ण-रूपी सुवर्णसमूह ही है वे कवियों की रीति-मात्र का आश्रय लेकर- कांसे और पीतल के दो-चार टुकड़े रखनेघाले किसी दरिद्रकल्प मनुष्य के सदृश भला कहीं कवीश्वरत्व पाने के‌ अधिकारी हो सकते हैं ? "कवि-वर, कविचक्रवर्ती, कविरत्न, आशुकवि और कवि-सम्राट् की सनद अपने नाम के आगे(और कभी कभी पीछे ) लगा कर सर्व-साधारण की आंखों में धूल डालना जितना सरल है उतना शास्त्र-सम्मत और सत्समालोचकों के सिद्धान्त के अनुसार कविवर तो क्या केवल कवि तक बनना कठिन है । कवित्व का महत्त्व काव्य-मर्मज्ञ ही समझता है।" यह फ़रवरी १९२७ की सरस्वती में प्रकाशित एक शास्त्री महाशय की सम्मति है, जो सर्वथा ठीक है।

आजकल जो लोग रहस्यमयी या छायामूलक कविता लिखते हैं उनकी कविता से तो उन लोगों की पद्य-रचना अच्छी होती है जो देश-प्रेम पर अपनी लेखनी चलाते या "चलो वीर पटुआखाली" की तरह की पङक्तियों की सृष्टि करते हैं। उनमें कविता के और गुण भलेही न हो, पर उनका मतलब तो समझ में आजाता है। पर छायावादियों की रचना तो कभी
[ ३४२ ] कभी समझ में भी नहीं आती । ये लोग बहुधा बड़ेही विलक्षण छन्दों या वृत्तों का भी प्रयोग करते हैं। कोई चोपदे लिखते हैं। कोई छःपदे, काई ग्यारहपदे ! कोई तेरहपदे ! किसीकी चार सतरें गज़ गज़ भर लम्बी तो दो सतरें दो ही दो अङ्गुल की ! फिर ये लेग बेतुकी पद्यावती भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं। इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरखधन्धा हो जाती है । नये शास्त्र की आज्ञा के कायल, न ये पूर्ववर्ती कवियों की प्रणाली के अनुवतीं, न ये सत्समालोचकों के परामर्श की परवा करनेवाले ! इनका मूलमन्त्र है-हमचुनां दीगर नेस्न । इल हमादानी को दूर करने का क्या इलाज हो सकता है, कुछ समझ में नहीं आता।

कविता-नामधारिणी गुहार्थबोधक रचना करके ख्याति के अभिलाषी लेखकों को सचेत करने के लिए श्रीयुन भ्याल शिवन्न शास्त्री नाम के एक आंध्रदेशीय सज्जन ने, गत फ़रवरी की सरस्वती में, अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं।

"आज-कल की कविता का तो कोई निश्चित रूप (ही) नहीं। x x x x विशेष कर के आज-कल युवक कवि मिस्टिक पोयट्रो' (रहस्यमय कविता) लिखते हैं। ये लोग अपने अनुभव के किसी पहलू को लेकर इतनी अस्पष्ट कविता लिखते हैं कि स्वयं लेखक के सिवा दूसरेकी समझ में वह नहीं आती । इनमें कई तो ऐसे भी लेखक हैं जो दुसरोंको अपनी कविता का भाव
[ ३४३ ] भी नहीं समझा सकते । ऐसी कविताओं से क्या लाभ है, मैं नहीं जानता"।

इससे अधिक आश्चर्य की बात भला और क्या हो सकती है कि स्वयं कवि भी अपनी कविता का मतलब दूसरोंको न समझा सके । यह शिकायत शिवन्न शास्त्री ही की नहीं, और भी अनेक कविता-प्रेमियों की है। ऊपर, एक जगह, लखनऊ के एक साहित्य-शास्त्री के उलाहने का उल्लेख हो ही चुका है। अपने प्रान्त के नामी साहित्यसेवी, लेखक और सम्पादक राय-साहब बाबू श्यामसुन्दरदासजी क्या कहते हैं, सो भी सुन लीजिए । उस दिन इलाहाबाद के कायस्थ-पाठशाला-कालेज के बोर्डिग हौस में, हिन्दी-साहित्य के विकास के सम्बन्ध में, उन्होंने एक अभिभाषण किया था। उसके सिलसिले में उन्होंने कहा-

"छायावाद और समस्यापूर्ति से हिन्दी कविता को बहुत हानि पहुंच रही है । छायावाद की और नवयुवकों का झुकाव है और ये जहां कुछ गुनगुनाने लगे कि चट दो-चार पद जोड़कर कवि का साहस कर बैठते हैं । इनकी कविताओं का अर्थ समझना कुछ सरल नहीं है । कविता लिखने के अनन्तर बेचारा कवि भी उसके अर्थ को भूल जाता है और उसके भाव तक को समझाने में असमर्थ हो जाता है। पूज्य रवीन्द्रनाथ का अनुकरण करके ही यह अत्याचार हिन्दी में हो रहा है । उस कविश्रेष्ठ की विद्या-बुद्धि की समता करने में असमर्थ होते हुए भी कुछ ऐसी बाते कह
[ ३४४ ] जाना जिनका कोई अर्थ ही न समझ सके, ये कवि अपने कवित्व की पराकाष्ठा समझने लगे हैं।"

लीजिए, उसी पूर्वनिर्दिष्ट दोष को बाबू साहब भी दुहग रहे हैं। व्यास ने महाभारत लिखा तो हम भी महाभारत लिखेंगे। होमर ने इलियड लिखा तो हम भी वैसाही काव्य लिख डालेंगे। बात यह ? क्यों न ? यह इन कवियों के कवित्व की पराकाष्ठा तो नहीं, अविवेक की पराकाष्ठा अवश्य है।

कल्पना कीजिए कि कविचक्रचूड़ामणि चन्द्रचड़ चतुर्वेदी छायात्मक कविता के उपासक है। आपको विश्वविधाता के रचना-चातुर्य का वर्णन करना है । यह काम ये प्रत्यक्ष रीति पर करना चाहते नहीं। इसलिए उन्होंने किसी माली या कुम्भकार का आश्रय लिया और लगे उसके कार्य कलाप की खूबियों का चित्र उतारने । अब उस माली या कम्हार की कारीगरी का वर्णन सुन कर प्रतिपद, प्रतिवाक्य, प्रतिपद्य में ब्रह्मदेव की कारीगरी का यदि भान न हुआ तो कवीश्वरजो अपनी कृति में कृत-कार्य कैसे समझे जा सकगे। इस तरह का परोक्ष वर्णन क्या अल्पायास-साध्य होता है ? क्या यह काम किसी ऐसे-वैसे कवि के बूते का है ? रवीन्द्रनाथ ने जो काम कर दिखाया है वह क्या सभी ऐरे-गैरे कर दिखा सकते हैं ? जब ये लोग अपने लेख का भाव कभी कभी स्वयं ही नहीं समझा सकते तब दूसरे उसे कैसे समझ सकेंगे? अफ़सेास तोइस बात का है कि
[ ३४५ ] ये इतनी मोटी मोटी बातें भी इनके ध्यान में नहीं आतीं। कविता का सबसे बड़ा गुण है उसकी प्रासादिकता। वही जब नहीं तब कविता सुन कर श्रोता रीझ किस तरह सकेंगे और उसका असर उनपर होगा क्या खाक़ !

यदि कोई यह कह कि ये नवयुवक कवि परमात्मा के रहस्यों का परोक्ष पर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करके अपनी कविता में अपने उन अनुभवों को प्रकट करते हैं तो ऐसा कहना या समझना उस परमात्मा की बिडम्बना करना है।

लेख बढ़ रहा है। इससे अब इसका संवरण करना पड़ेगा। यहां तक जो कुछ लिखा गया उसकी पूर्ति के लिए अच्छी और बुरी कविता के अब केवल दो चार उदाहरण देना शेष है। ये उदाहरण हम उन्हीं सामयिक तथा अन्य पुस्तकों से देंगे जो हमारे सामने हैं और जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है । पाठक यह न समझे कि ये उदाहरण ढूंढ़ ढूंढ़ कर परिश्रमपूर्वक चुने गये हैं।

एक कविता का नाम है-"तब फिर? " ज़रा इस नाम की विलक्षणता पर भी ध्यान दीजिएगा । कविता नीचे देखिए-

तब फिर कैसा होगा मात!

धारे धीरे पक्षहीन जब हो जावेगा यह द्विज-दल ?

डाल डाल में, शाल शाल में उड़ न सकेगा उच्छृङ्खल ।

म्लान पुष्प सा झर जावेगा जब यह भी निर्बल, निश्चल ।

नहीं गा सकेगा मृदु-स्वर से प्रथम-रश्मि का स्वागत-कल ? [ ३४६ ] यह तो करता है उत्पात !

अति अनन्त नभ की नीरवता यह शब्दित कर हरता है, विमल-वायु का कोमल मानस उड़उड़ कम्पित करता है। मेरे सुन्दर धनुष-बाण में समुद्र बैठते डरता है, इसे बुलाने पर भी तो यह कभी न निकट विचरता है।

इसे नहीं यह अब तक ज्ञात-

जब तुम मुझको बैठाती हो कंटक दल के आसन में, उसे ग्रहण करती हूं, तब मैं कितनी प्रमुदित हो मन में । शुल फूल से हो जाते हैं स्वकर्तव्य के पालन में, क्या न बनी थीं पुरी अयोध्या पञ्चबटी के भी वन में।

पाठक कृपापूर्वक बतलावे कि इस गोरखधन्धे में ये क्या समझे । डरता, विचरता, हरता और हो जावेगा, भर जायेगा, गा सकेगा आदि। पहले दो खण्डों की क्रियाओं का कर्ता तो 'द्विज दल' जान पड़ता। तीसरे स्वगड में 'तुम' किन के लिए‌ आया है और 'ग्रहण करती है' यह स्त्रीलिङ्ग किया किसकी है ? फिर 'धनुष में' (धनुष के भीतर ) कोई कैसे घुम कर बैठ सकता है। हां, उसके ऊपर पक्षी अवश्य बैठ सकते हैं। और, इन बातों को आप जाने दीजिए, क्योंकि वैसे तो इसमें अनेक विचित्रतायें हैं ।अच्छा, कवि का भाव क्या है यह बताइए और इन सतरों को पढ़ कर आप पर कुछ असर भी हुआ या नहीं, यह कहिए। क्या यह शब्दाडम्बर ही मात्र नहीं ? क्या इसके पाठ से आपका हृदय कुछ भी चमत्कृत हुआ ? किसीकविता में यदि कुछ हृदयहारी भाव न हो कम से
[ ३४७ ] कम वह श्रुति-सुखद तो होनी चाहिए । यदि उसमें कुछ चमत्कार हो तो और भी अच्छा । चमत्कार को भी अच्छी कविता का एक अङ्ग समझना चाहिए । क्षेमेन्द्र ने लिखा है-

एकेन केनचिदनधमणिप्रभेण

काव्यं चमत्कृतिपदेन विना सुवर्णम् ।

निर्दोलेपमपि रोहति कस्य चित्त

लावण्यहीनमपि यौवनमङ्गनानाम् ॥

काव्य चाहे सब प्रकार निर्दोष ही क्यों न हो और चाहे वह सुवर्णाभरण से अलङ्कृत ही क्यों न हो, यदि उसमें बहुमूल्य मणि के सदृश कोई चमत्कार उत्पन्न करनेवाला पद नहीं तो-कामिनियों के लावण्य-हीन यौवन के सदृश-भला वह किसे अच्छा लगेगा?

द्विज का अर्थ है-दांत, पक्षी और ब्राह्मणादि वर्णत्रय । कविता में उड़ने और गाने आदि का उल्लेख है । इससे सूचित‌है कि कविता के पहले दो खण्डों में कवि किसी पक्षी की बात कह रहा है । पर अन्तिम खण्ड में उसने जो कुछ कहा है उससे उसके मन की बात ध्यान में नहीं आती । यदि ऐसी नीरस और प्रभावनीय सतरें भी कविता कही जा सकेंगी तो नीचे की व्यर्थ बक भी कविता हो क्यों न समझी जाय-

सिंघलदीप की पदमिनी राब भुजावन जायँ

कोठे पर ते गिर पड़ी का खैहो कोह का खेत

अब आप एक सत्कवि की सीधी-सादी कविता सुनिए ।

कवि भगवान् मुरलीमनोहर से विनय करता है-
[ ३४८ ] होता दिन रात जहां तेग दिव्य गुण-गान,

मन से कदापि जहां छूटता न लेग ध्यान ।

सुनते जहां है सब नित्य ही लगा के कान,

तेरी मनोहारी मृद मञ्च मुरला की तान !

सुख से सदेव नेर प्रमी जन भाग्यवान

करने जहां हैं तेरा रम्य-रूप-रस-पान ।

विनय यही है वहीं तनिक मुझे भी स्थान,

कर दे प्रदान दया करके दयानिधान !

कौन ऐसा सरसहृदय श्रोता होगा जो यह कविता सुन कर लोट-पोट न हो जाय ? भगवदभक्त तोइसे सुनकर अवश्य ही मुग्ध हो जायेंगे। अन्य रसिकों पर भी इसका असर पड़े बिना ही न रहेगा। कितनी ललिन, प्रसाद पूर्ण और कामधुर रचना है! इसमें जो भाव निहित हैं यह सुनने के साथ ही समझ में आ जाता है। यह इसकी सबसे बड़ी खूबी है।

एक और उदीयमान बुध या वृहस्पति आदि ग्रहां के सदृश नहीं, सूर्य के सदृश छायावादी कवि की कविता सुनिए। इस कविता का नाम है- "प्राया !" याद रहे, यह आश्चर्य सूचक चिह्न भी कवि का ही दिया हुआ है- ज्यों प्रदीप का अन्त हुआ त अन्धकार के संग अहा :- आगया मलयानिल सा, क्या इस तम-तरङ्ग में छिपा रहा।

+। +। +। +

[ ३४९ ]

घोर निबिड़ में तू आयेगा यदि कोई यह बतलाता,

इस दीपक का मेरे द्वारा अन्त कभी का हो जाता।

+ + + + जो हो आओ रिक्तकरों से तेरा स्वागत करता हूँ,

जिसे हृदय में रक्खा था वह तव चरणों पर रखता हूं।

इस गूढार्थ-प्रेमी कवि की वह चीज़ अब पाठक ही ढूंढने की तकलीफ़ गंवारा करें जिसे वह अपने हृदय में, दीपक बुझने के समय तक छिपाये बैठा था । इस कविता का पहला खण्ड पढ़कर छन्दःशास्त्र को तो किसी नदी या समुद्र में डूब मरना चाहिए। यह "घोर निबिड़" क्या चीज़ है ? अन्धकार तो कहीं उस पङ्क्ति में है ही नहीं। कवि का हृदय ही घोर और निबिड़ हो तो हो सकता है। ऐसी ही कविता लिखकर हिन्दी के कुछ कवि अपनेको धन्य मान रहे हैं!

इसके मुकाबले में अब आप एक पुराने कवि की कविता का आस्वादन कीजिए-

सुदामा तन हेरे तो रङ्कट ते राव कियौ

विदुर तन हेरे तो राजा कियो चेरे तें।

कवरी नन हेरे तौ सुन्दर सुरूप दियो

द्रौपदी तन हेरे तौ चीर बढ़ यो टेरे ते॥

कहै छत्रसाल प्रहलाद की प्रतिज्ञा राखी

हर्नाकुस मार्यो नेक नजर के फेरे तें। [ ३५० ] येरे अभिमानी गुरु नानी भये कहा भयो

नामी नर होत गरुड़गामी के हेरे त।

इस पर सहदयों से प्रार्थना इतनी ही है कि वही इसका फंसिला करें कि किसे वे कविता समझते हैं-इस ऊपर के अवतरण को या छायावादी की "आया !" को।

अब उ की चोट अपने बी० ए० पास होकर निकलने की खबर सुनानेवाले एक और कवि की करामात देखिए । आपकी कविता का नाम है- 'ज्वार' । ज्वार से मतलब इस नाम के अन्न से नहीं, समुद्र में उठने वाले ज्वार-भाटे के ज्वार से है। कविजी के विशाल हृदयसागर में ज्वार उठने पर आपने जो कुछ फरमाया है वह यह है-

हृदय हमारा उमड़ रहा क्यों उठता है कैसा नफान ।

उथल-पुथल यह मचा रहा क्यों ? और उठाता (क्यों? मधुर उफान ?॥१॥

दुख की अन्तिम घड़ियों का मैं देख रहा हूं क्या यह अस्त ?

छिपा हुआ है इस 'पतझड़' में क्या जीवन का नवल 'वसन्त' ? ॥२॥

आता है क्या 'वह' मिलने को ? मचल रहा त जिसको जान : संभल !-कहीं तू भूल न जाना ! लख कर दोनों रूप समान ॥३॥

इसमें प्रश्नचिए, आश्चर्यचिह, कामा इत्यादि जितने हैं सब कविजी ही के दिये हुए हैं: या, सम्भव है, प्रेस के कर्मचारियों<ब्र> [ ३५१ ] की कृपा से कुछ कूद पड़े हो। पाठक, इसमें ज्वार, तूफान, वसन्त, पतझड़ आदि की प्रभूत विभूति से विभावान्वित होकर कविजी से आप संभल कर पूछिए कि वे दो समान रूप किस किसके है। कवियों की वाणी में रस और चमत्कार होता है। वे पहेलियां नहीं बुझाते । नीरस बात को भी वे सरम ढंग से कहते हैं। वे मुर्दा शब्दों में भी जान डाल देते हैं। साधारण अर्थ में भी असाधारणता पैदा कर देते हैं। यदि कोई कहे---राहु नाम के राक्षस को मारने-वाले विष्णु भगवान को नमस्कार है-तो कवि उसे फटकार बता देगा । वह कहेगा-क्या बकते हो ! अपनी बात को इस तरह कहो!

नमस्तस्मै कृतो येन मुधा राहुबधुकुचौ

सत्कवियों की इस सरस वाणी को देखिए और बी० ए० पास कवि के प्रयुक्त शब्दों के तूफान में पड़ कर हिन्दी-साहित्य के सौभाग्य की प्रशंसा कीजिए।

पाठक शायद कहें कि ऊपर अच्छी कविता के जो दो नमूने‌ दिये गये हैं। उनमें भक्ति-भाव का प्रदर्शन है। इसी कारण वे श्रोताओं पर अपना प्रभाव डालते हैं। अच्छा तो जिसमें यह बात नहीं, ऐसी भी एक सत्कविता सुन लीजिए। हां, उसके लिए स्थिति-स्थान से उठ कर एक पुस्तक उठानी पड़ेगी। पर हर्ज नहीं । देखिए, एक कवि अन्य कवियों से कहता है-

मृत जाति को कवि ही जिलाते रस-सुधा के योग से

पर मारते हो तुम हमें उलटे विषय के रोग से। [ ३५२ ] कवियो ! उठो, अब तो भला कवि-कर्म की रक्षा करो,

सब नीच भावों का हरण कर उच्च भावों को भरो। इसमें और कुछ गुण हो या न हो, पर इसमें व्यक्त किया गया कवि का हद्भाव झट ध्यान में तो पा जाता है।

कवि-जन विश्वास रखें, कवियों के इस किङ्कर ने इस लेख में कोई बात द्वेष-बुद्धि से नहीं लिखी। जो कुछ उसने लिखा है, हितचिन्तना ही की दृष्टि से लिखा है। फिर भी यदि उसकी कोई बात किसीको बुरी लगे तो वह उसे उदारता-पूर्वक क्षमा कर दे-

आनन्दमन्थरपुरन्दरमुक्तमाल्यं

मौलो हठेन निहितं महिषासुरम्य ।

पादाम्बुजं भवतु ते विजयाय मन्जु-

मअरशिक्षितमनोहरमम्बिकायाः ।

महिषासुर के सिर ने जिसकी कठोर ठोकर खाई है और आनन्दमग्न पुरन्दर ने जिसपर फूल-माला चढ़ाई है, नूपुरों की मधुर-ध्वनि करनेवाला, भगवती अम्बिका का वही पादपदम, हिन्दी के छायावादी तथा अन्य कवियों को इतना बल दे कि वे अपने असद्विचारों को हरा कर उनपर सदा विजय-प्राप्ति करते रहे। अन्त में इस किङ्कर की यही कामना है।