साहित्यालाप/१ देवनागरी-लिपि का उत्पत्ति-काल

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[  ]वो कराना चाहते थे उसका वे चित्र बना देते थे। यदि उन्हें पेड़ लिखना होता था तो वे पेड़ का चित्र बना देते थे, यदि हाथी लिखना होता था तो हाथी का, यदि मनुष्य लिखना होता था तो मनुष्य का। इस तरह की वर्णमाला का प्रचार ईजिपृ अर्थात् मिश्र देश में बहुत समय तक था। वहां की इस प्राचीन लिपि में लिखी गई अनेक शिला-लिपियाँ योरप के अजायबघरों और पुस्तकालयों में सयत्न रक्खी हुई हैं। ऐसी लिपियां प्राचीन मन्दिरों और समाधियों में अब तक पाई जाती हैं। जैसे जैसे इस तरह की लिपि अधिक काम में आती गई, वैसे ही वैसे लोग, जल्दी के कारण, वस्तुओं के चित्रों की पूर्णता की तरफ कम ध्यान देते गये । जैसे, यदि उन्हें आदमी का चित्र बनाना होता तो वे आदमी के हाथ, पैर, धड़ और सिर का स्थूल आकार मात्र लिख देते । इस तरह अनेक वस्तुओं के चित्र, धीरे धीरे, यहां तक बिगड़ गये कि उनके आकार से उनका ज्ञान न होने लगा। यह बात चीन और जापान की वर्णमाला से सिद्ध है । इन देशों की वर्णमालायें भी वस्तु-चित्रण के आधार पर बनी हुई हैं।

कुछ समय तक इस तरह की वर्णमाला से काम चला, पर गुणवाचक शब्द और विशेषण लिखने में गड़बड़ होने लगी। लाल और काले घोड़े को लोग लाल और काले रङ्ग से लिख देते । पर विद्वान् और मूर्ख मनुष्य का चित्र बनाने में उन्हें सुभीता न होता। क्रियाओं के रूप लिखने में भी उन्हें कठिनता का सामना करना पड़ता । इससे प्रयोज्य शब्दों की
[  ]संख्या जब बढ़ गई तब चतुर मनुष्यों ने सङ्केतरूपी वर्ण बनाये । यद्यपि इस बात का कोई दृढ़ प्रमाण नहीं मिलता कि इस देश में भी कभी मिश्र और चीन की जैसी चित्ररूपिणी लिपि का प्रचार था, तथापि कई पुरातत्व के पण्डितों का अनुमान है कि था ज़रूर। इसके प्रमाण में वे देवनागरी अक्षरों-विशेष करके अशोक के समयबालो-का सादृश्य रोज़मर्रा की व्यावहारिक चीज़ों और मनुष्य के अवयवों से बतलाते हैं । वे कहते हैं कि रज्जु (रस्ती) का चिह्न या चित्र 'र' है; पाणि ( हाथ के पज्जे ) का चिह्न 'प' है; और गतिसूचक पैरों का चिह्न 'ग' है। वर्ण शब्द से यह अनुमान होता है कि भारतवासी मिश्र को रङ्ग-बिरङ्गी चिनलिपि से परिचित थे। ऐसी लिपि में रङ्ग काम आता था । इसीसे जब प्राचीन आर्यों ने अपने यहां लिपि के सङ्केत निश्चित किये तब उन्होंने उन सङ्केतों का नाम वर्ण और उनके समुदाय का नाम वर्णमाला रक्खा।

योरप के प्रसिद्ध संस्कृतवेत्ता मोक्षमूलर साहब ने संस्कृत-भाषा का इतिहास लिखा है। उसमें आपने इस विषय का बहुत विचार किया है कि इस देश की देवनागरी वर्णमाला की सृष्टि कब हुई और उसे भारतवासी आर्यों ने कहां से पाया । आपकी राय है कि यह वर्णावली प्राचीन सेमिटिक अक्षरों से निकली है। पर इस देश के पुरातत्वज्ञ पण्डितों को यह बात मान्य नहीं । देवनागरी वर्णमाला संसार की समस्त वर्णमालाओं से अधिक पूर्ण, अधिक नियमानुसारिणी और अधिक शृङ्खला-
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बदध् है ! मनुष्य का मुंँह-कण्ठ, तालू, मूर्धा, दाँत, ओंठ और जीभ आदि-अवयवों में विभक्त है। जितने प्रकार की ध्वनियाँ मुंह से निकलती हैं, उन सब को, देवनागरी वर्णमाला के आविष्कर्ताओं ने अपने अपने अवयव के अनुसार, यथानियम, वर्णरूपी चिह्नों से बाँध सा दिया है । इसीसे चाहे जैसी ध्वनि मुंँह से निकले, नागरी में वह तद्वत् लिखी जा सकती है। इसीसे इस वर्णमाला का इतना आदर है। इसीसे यह वर्ण माला संसार की और वर्णमालाओं में श्रेष्ठ है । जो गुण इस में है वह और वर्णमालाओं में नहीं । अर्थात् कण्ठस्वर के अनुसार जैसी रचना इसके वर्णों की है वैसी न सेमिटिक की है,न ग्रीक की है, न अरबी की है। इसीसे इस देश के पण्डित पाश्चात्य पण्डितों की पूर्वाक्क उक्ति का प्रचारण-पूर्वक खण्डन करते हैं और कहते हैं कि हमारी वर्णमाला एकमात्र हमारी सम्पत्ति है । उस पर किसी दूसरे का अणुरेणु भर भी स्वत्य नहीं। यदि उस पर कोई किसी तरह का दावा करे तो वह झूठ । जनरल कनिंहम आदि कई योरोपियन पण्डितों की भी‌ ऐसी ही राय है।

देवनागरी वर्णमाला भारतवर्ष की सबसे पुरानी वर्णमाला है। आर्यभाषा-सम्बन्धिनी जितनी अन्य वर्णमालायें इस समय‌ प्रचलित हैं, सब उसीसे निकली हैं। जिस समय उसकी उत्पत्ति हुई उस समय उसका वह रूप न था जिस रूप में हम‌ उसे इस समय देखते हैं । इस संसार में कोई चीज़ स्थिर नहीं; सबमें परिवर्तन हुआ करता है । संसार खुद ही परिवर्तनशील
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है। अतएव भाषा और वर्णमाला भी परिवर्तन के नियमों से खाली नहीं। जिस तरह भाषा हमेशा बदला करती है उसी तरह लिपि भी बदला करती है। देवनागरी लिपि ने भी अपने जन्म से लेकर आज तक अनेक रूप धारण किये हैं। उसके क्रम-प्राप्त रूपान्तरों का चित्र हम यहां पर प्रकाशित करते हैं (चित्र संख्या १ देखिये )।

वेदों का नाम है श्रुति । सुनकर ही उनका ज्ञान पहले होता था। इसीसे उनको श्रुति की संज्ञा मिली। यदि वे लिपिबद्ध होते तो, सम्भव है, उनको श्रुति-संज्ञा न प्राप्त होती। वेदों में लिपि या लिखने का ज़िक्र नहीं। इससे विद्वानों का अनुमान है कि वेद-काल में लिपि की उत्पत्ति न झुई थी। वेदों का ज्ञान लोगों को सुन कर ही होता था, लिखी हुई पुस्तक देखकर नहीं। वेदों के एक भाग का नाम है ब्राह्मण । वे गाथामय हैं। उनकी रचना गद्य में है। उनमें भी लिपि-सम्बन्धिनी कोई बात प्रत्यक्ष रीति पर नहीं। पर उनके रचना-क्रम पर विचार करने से जान पड़ता है कि ब्राह्मण- काल में नागरी लिपि की उत्पत्ति हो चुकी थी। पुरातन साहित्य के ज्ञाता कहते हैं कि ईसा से आठ नौ सौ वर्ष पहले ब्राह्मण-काल का आरम्भ होता है। अर्थात् हमारी वर्णमाला को उत्पन्न हुए कोई २७०० वर्ष छुए। परन्तु मोक्षमूलर आदि पाश्चात्य पण्डित इस बात का खण्डन करते हैं। वे कहते हैं कि लिख् या तत्समानार्थक धातुओं से बने हुए कोई शब्द ब्राह्मणों में नहीं पाये जाते। अतएव उस समय
[  ]लिपि-सृष्टि का प्रादुर्भाव मानना असिद्ध है। इस आपत्ति का उत्तर यह दिया जाता है कि वेद के ब्राह्मण-भाग में जो गाथायें हैं उनमें जगह जगह पर श्रुति के हवाले हैं। प्रसङ्गानुकूल जिन श्रुतियों का उल्लेख किया गया है उनके सिर्फ आरम्भ के दो चार शब्द लिख कर उनका स्मरण दिलाया गया है। यदि उस समय ब्राह्मण-ग्रन्थ शृङ्खलाबद्ध होकर न लिखे गये होते, तो इस प्रकार गाथाओं के बीच में ऋचाओं के आदि शब्द दे कर उनका हवाला न दिया जाता। वेद का संहिता-भाग मी उस समय ज़रूर लिपिबद्ध हो गया होगा, क्योंकि जो ग्रन्थ लिखित और विशेष रूप से प्रचलित नहीं होता उसके वाक्य दूसरे ग्रन्थों में यथानियम नहीं उद्धृत किये जा सकते । फिर वेदों में जितनी पंक्तियां दुबारा हैं, उनकी गिनती शतपथ ब्राह्मण के दसवें काण्ड में है। यदि वेद उस समय लिखित न होते तो उनकी पंक्तियों की गिनती कैसे हो सकती?

और, यदि, ब्राह्मण या संहिता में लिपि-विषयक कोई प्रमाण न भी पाया जाय तो क्या उससे यह सिद्ध हो सकता है कि उस समय लिखने की कला उत्पन्न ही न हुई थी ? कोई भी नया आविष्कार होने पर उसका प्रचार होने में देर लगती है। सम्भव है, संहिताकाल ही में लिखने की कला लोगों को मालूम हो गई हो पर उन्होंने वेदादि महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लिखना न शुरू किया हो। उन्हें वे परम्परा की प्रथा के अनुसार सुनकर ही याद करते रहे हों । जब तक किसी बात के
[  ]अस्तित्व के प्रतिकूल कोई प्रमाण न दिया जाय तब तक अनुमानमात्र से उसके होने में सन्देह करना अन्याय है।

मनुस्मृति, महाभारत और अष्टाध्यायी में लिख्' धातु से बने हुए शब्द स्पष्ट रीति से पाये जाते हैं । परन्तु संस्कृतज्ञता में प्रसिद्धि पानेवाले पश्चिमी विद्वान उनके अर्थ के सम्बन्ध में भी तरह बेतरह के कुतर्क करके यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उनसे लिपि-कला का अस्तित्व नहीं साबित होता। हम इन विद्वानों पर यह दोष नहीं लगाते कि ये जान बूझ कर अर्थ का‌ अनर्थ करना चाहते हैं। पर यह बात अवश्य है कि ये लोग कभी कभी ऐसी शङ्काये कर बैठते हैं जिनको सुनकर इस देश के वैदिक और लौकिक साहित्य के पण्डितों को हँसी आती है। सम्भव है, इस प्रकार का शङ्का-बाहुल्य पाश्चात्य पण्डितों की सूक्ष्मतर दृष्टि और विशेषतर पण्डिताई का फल है।

मनुस्मृति के दसवे अध्याय का पहला श्लोक यह है-

"अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः।

प्रव्रयाद, ब्राह्मणस्तेषां नेतरौ इति निश्चयः॥"

अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्री और वैश्य तीनों वर्ण वेद पढ़ें, पर पढ़ावे सिर्फ ब्राह्मण । इसमें "अधीयीरन्" क्रिया का अर्थ है अध्ययन करें। और अध्ययन, अध्यापन आदि शब्दों से लिखी हुई पुस्तकों ही का पढ़ना पढ़ाना सूचित होता है। परन्तु मोक्ष-मूलर साहब इस अर्थ को नहीं मानते। वे इस तरह के पदों का अर्थ करते हैं-अधिगत करना, प्राप्त करना या पाना। अर्थात् उनके मत में मनुस्मृति में भी कहीं लिखने का ज़िक्र
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नहीं । मतलब यह कि उस समय तक भी लिखने की कला का प्रचार या प्रादुर्भाव इस देश में न हुआ था। परन्तु साहव की दृष्टि एक श्लोक पर नहीं गई । वह मनुस्मृति के आठवे अध्याय का १६८ वां श्लोक है। उसमें "लेखित" शब्द स्पष्ट रूप से आया है । देखिए-

"बलादत्तं बलाद्भक्त बलाद्यच्चापि लेखितम् ।

सर्वान बलकृतानर्थानकृतान्मनुरब्रवीत् ॥”

अर्थात् बलपूर्वक दी हुई, बलपूर्वक उपभाग की हुई और बलपूर्वक लिखाई हुई चीज़ों को मनु न करने के बराबर मानते हैं । इस श्लोक में 'लेखित' पद के आ जाने से मनुस्मृति के ज़माने में लिपिकला के अच्छी तरह प्रचार का बलवान् प्रमाण विद्यमान है।

महाभारत में लिखा है।

"वेदविक्रयिणश्चैव वेदानां चैव लेखकाः।

वेदानां दूषकाश्चैव ते वै निरयगामिनः ॥"

जो लोग वेदों की बिक्री करते हैं, अर्थात् कुछ लेकर उन्हें पढ़ाते हैं, वेदों को लिखते हैं, वेदों की निन्दा करते हैं, वे सब नरकगामी होते हैं। मोक्षमूलर साहब कहते हैं कि इस श्लोक में “लेखकाः' पद से लेखकों का अर्थ तो ज़रूर निकलता है; पर महाभारत के समय में वेद लिखे नहीं जाते थे। क्यों ? उनके लिखने की मनाई थी ? साहब की यह उक्ति एकबारही युक्तिहीन है। यदि उस समय किसीने वेदों को न लिखा होता तो उनके लिखने की मनाई क्यों होतो? जिस चीज़ का
[  ]<br अस्तित्व ही नहीं उसके करने का कहीं निषेध होता है ? लेोग चोरी करते हैं; इसलिए पेनलकोड में चोर के लिए दण्ड का विधान किया गया है। यदि कभी चोरी हुई ही न होती, तो दण्ड का भय ही क्यों दिखाया जाता ? इस श्लोक में वेद-विक्रय की जो बात है उससे दो अर्थ निकलते हैं। एक तो वेतन के रूप में कुछ लेकर वेद पढ़ाना, दूसरा वेद लिख कर लिखी हुई पुस्तक को बेचना । यदि दूसरा अर्थ न भी ग्राह्य हो तो भी लेखकों को नरक में जाने का भय दिखाना इस बात को निर्विवाद सिद्ध करता है कि लोगों ने वेद को लिखना ज़रूर शुरू किया था । अन्यथा उनके लिए नरकगमन का डर दिखाने की कोई ज़रूरत न थी।

जब कोई नई बात निकलती है तब उसके प्रचार में बहुधा बाधा आती है। इस समय भी अनेक नई नई बातें करने की तरफ़ लोगों को प्रवृत्ति है; और कुछ लोग करने भी लगे हैं । परन्तु उन बातों की उपयोगिता का खयाल न करके पुरानी बातों के पक्षपाती उनका विरोध कर रहे हैं। इस उदाहरण से हम अनुमान कर सकते हैं कि जब पहले पहल लिपि-कला की उत्पत्ति हुई होगी, तब वेदों के समान पवित्र माने गये ग्रन्थों को अपवित्रनहीं तो तुच्छ, कागज़ और स्याही की सहायता से लिपिबद्ध करना लोगों को अच्छा न लगता होगा। अतएव उन्होंने तत्कालीन ग्रन्थों के लिखे जाने का घोर विरोध किया। बहुत सम्भव है कि मनुस्मृति और महाभारत के बहुत पहले वर्णमाला की उत्पत्ति हुई हो; पर नई आविष्कृति के कारण, लोगों के
[ १० ]विरोध करने पर, बहुत दिनों तक उसका प्रचार रुका रहा हो।

वाबू रामदाल सेन ने बँगला में ऐतिहासिक रहस्य नाम की एक पुस्तक, तोन भागों में, लिखी है। उसमें आपने व्याकरण-प्रणेता पाणिनि के समय आदि का भी विचार किया है । आपका विचार युक्तियुक्त और प्रमाणपूर्ण है । आपके मत में पाणिनि का समय ईसवी सन से पाँच छ सौ वर्ष पहले है । पर मोक्षमूलर साहब को पाणिनि के समय में भी लिपिकला के उत्पन्न होने में शङ्का है । इस विषय पर आपने अपने संस्कृत के इतिहास में बहुत कुछ शङ्का-समाधान किया है । साहब की सब शङ्काओं की अवतारणा करने की हम, इस छोटे से लेख में, ज़रूरत नहीं समझते । हम सिर्फ दो एक स्थूल बातें कह कर ही साहब की शङ्काओं का समाधान करने को चेष्टा करेंगे। पाणिनीय व्याकरण के आरम्भ ही में अ इ उ णऔर ऋ ल क्आ दि जो माहेश्वर सूत्र हैं उनमें सारी वर्णमाला आ गई है। यदि पाणिनि के समय में-समय में क्यों, उससे भी बहुत पहले–वणो की सृष्टि न हुई होती तो उनका नाम इन सूत्रों में क्योंकर आता ? पाणिनि का “उरणरपरः” सूत्र भी लिपि की सृष्टि का सबसे बड़ा प्रमाण है । फिर एक बात और है । जब तक कई भाषा अच्छी तरह लिखी नहीं जाती तब तक उसका व्याकरण नहीं बनता। संस्कृत-व्याकरण में बहुत से नियम ऐसे हैं जो अगले वर्षों से सम्बन्ध रखते हैं। व्यवधान और अव्यवधान का भी उसमें अनेक जगह पर
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ज़िक्र है । ये बाते तभी सम्भव होती हैं जब भाषा लिखित रूप में प्रचलित हो । पाणिनि ने 'ग्रन्थ' शब्द का भी कई बार उपयोग किया है ; इससे भी उनके समय में लिपि का होना सिद्ध है, क्योंकि ग्रथन करना अर्थात् गृथना वर्णों के बिना सम्भव नहीं । और ग्रन्थ का अर्थ वाक्यों या शब्दों का गूथना ही है।

ललित-विस्तर एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । वह एक बौद्ध पण्डित का बनाया हुआ है ! परलोक-वासी डाक्टर राजेन्द्रलाल मित्र ने उसका सम्पादन करके उसे छपाया है । डाक्टर साहब ने उसकी जो भूमिका लिखी है वह बड़ी ही विद्वत्तापूर्ण है । ७६ ईसवी में इस पुस्तक का अनुवाद चीनी भाषा में हुआ था। बाबू चारुचन्द्र बन्द्योपाध्याय अपने एक लेख में इस पुस्तक का हवाला देकर लिखते हैं कि शाक्यसिंह ने विश्वामित्र नामक एक अध्यापक से लिखना सीखा था और अङ्ग, वङ्ग, मगध, द्रविड़ आदि देशों में प्रचलित कई प्रकार की लिपियां वे लिखते थे। इससे स्पष्ट है कि ईसा के कई सौ वर्ष पहले लिखने की कला का प्रचार इस देश में हो गया था, और एक ही नहीं, किन्तु कई प्रकार की लिपियां प्रचलित हो गई थीं। हम यह लेख एक ऐसी जगह लिख रहे हैं जहां ललितविस्तर अप्राप्य है। इससे हम बाबू चारुचन्द्र बन्धोपाध्याय के दिये गये प्रमाण खुद नहीं देख सके । परन्तु हमको बाबू साहब के कथन पर विश्वास है । हम उनके दिये हुए प्रमाण को अमूलक नहीं समझते। [ १२ ]
हितोपदेश में है-"पज्जतन्त्रात्तथान्यस्माद ग्रन्थादाकृष्य लिख्यते"। अर्थात् पञ्चतन्त्र तथा और और ग्रन्थों से भी विषयों का संग्रह करके यह पुस्तक लिखी जाती है । फ़ारिस के बादशाह नौशेरवां की आज्ञा से हितोपदेश का अनुवाद, ५५० ईसवी में, फ़ारसी भाषा में, हुआ था । अतएव आज से कोई १४०० वर्ष पहले लिखने का प्रचार बहुत कुछ हो गया था। हितोपदेश से उद्धृत किये गये पूर्वोक्त वाक्य में "लिख्यते" पद इसकी गवाही दे रहा है।

इन प्रमाणों से यह निर्विवाद है कि हमारी देवनागरी लिपि यदि बहुत पुरानी नहीं तो २५०० वर्ष की पुरानी ज़रूर है।

[आक्टोबर १९०५]