सुखशर्वरी/ भाग 4

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सुखशर्वरी  (1916) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी

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उपन्यास। arrermisareenimame mmmmmmmmmmmmm s षष्ठ परिच्छेद हरिहर का गृह । "तिर्हि देवो नारीणां, पतिबन्धुः पतिर्गतिः। पत्युर्गतिसमा नास्ति, दैवतं वा यथा पतिः ॥”.. (व्यासः) X Xन के एक बज गए थे। बड़ी कड़ी धूप विशुद्ध सोने की भांति झकाझक चमक रही थी। हम यह कह RO आए हैं कि बाबू हरिहरप्रसाद का घर आनन्दपुर में Eastern था। घर की बहू-बेटी, दास-दासी आदि घर के कामों को पूरा करके ठंढी जगह में आराम करती थीं। ग्राम एक प्रकार निस्तब्ध था, किन्तु बीच बीच में पेड़ों पर बैठे कौवे कर्कश चीत्कार करते थे। गृहस्थों की बहू-बेटो परस्पर एक दूसरी की जूआ का शिकार खेलतो खेलती कौवों की टांय टांय से विरक्त होकर उन्हें सात समुन्दर पार जाने का अभिशाप देती थीं। रह रह कर आकाश में मड़गती हुई चील्हों की कठोर ध्वनि कानों में वज्र सीसुनाई देती थी। जो हो, हरिहरबाबू के घर में बड़ा गोलमाल होता था। घर तिमंजिला था। अच्छा. बाहर ही से प्रारंभ हो,अब तक भी बाबूसाहब के भोजपुरिये दरवानों का भोजन नहीं निपटा था। कोई भांग घोटते थे, कोई गेटी बनाते थे, कोई खरहरी खटिया पर पड़े पड़े असभ्य गीत उड़ाते. थे और कोई इधर उधर टहलते हुए पेट पर हाथ फेरकर खाया-पीया भस्मसात् करने का उपक्रम करते थे, पांच-चार आदमी इधर उधर की लम्बी-चौड़ी बातें, किस्से-कहानियां और गप्प-सड़ाके लड़ा रहे थे। घर के भीतर नीचे की दालान में भी बड़ा तुमुल काण्ड उपस्थित था! दलान ठंढी थी, इसलिये महल्लेवाली बहुत सी युवती और प्रौढ़ा स्त्रियां आकर सिर खोल और आंचल पसार कर आलस्य दूर करती थी, और लेटे लेटे बड़ी बड़ी गप्पें हांकती थीं। पहले तो प्रत्येक के खाने-एकाने को बातें हुईं; कोई कोई अपनी रसोई की निपुणता से गर्वित होकर बोली,-'हां जी ! उस दिन की [ ३६ ]________________

सुखशवरा। मंग की दाल तो मुझसे बढ़कर महल्ले भर में नहीं बनी था।' कोई बोली,-'भाई, मुझसे अच्छो क्या कोई रसोई बनावेगा!' कोई बोली,-'उस महल्ले में उस दिन फलानै बाबू के लड़के का ब्याह न था !' बस रसोई की बात छोड़ कर अब बर की समा. लोचना होने लगी। देखते देखते बर के सब दोष-गुण बाहर निकल पड़े ! फिर उत्तर ओर के एक कोने की बात उठी। कोई बोली'भाई, बड़े घर की बेटी है, उलटा-पट्टी खा रही है तो कोई नहीं पूछता! कोई बोली,-'छोकड़ी को बातें सुनो तो बस, 'सीता सती पारबती !'-जानों बिचारी कुछ नहीं जानती, दूध पीती है!' कोई बोली,-'जैसा रूप, तैसा गुण! कोई बोली'ठीक तो है ! बाप के गुण पर चली जाती है! 'बनारस' जाकर डाक्तरों की सहायता से पेट का दोष मिटा कर, फिर आकर शुद्ध गंगाजल बन गई !' इसी प्रकार अनेक गुरुतर विषयों की समा. लोचना होने के अनन्तर सब 'हूं!!! करतो करतो सोगई। इस समय दलान ने ता शान्तभाव धारण किया, किन्तु पासवाले कोठे में दो-चार दासियां अनाज की महँगो के ऊपर भयानक वक्त ता छांट रही थीं। ऊपर के भनेक कमरे सूने थे, क्योंकि सभी नीचे ही की दालान में अड़ी थीं; केवल बंगले में कोच के ऊपर हरिहरप्रसाद हाथ में पुस्तक लिये निद्रित थे। उसके समीपवाले एक घर में किसी बालिका ने प्रवेश किया। बालिका का नाम सरला था, यह हरिहरबाबू की कन्या थी। इसका बयस तेरह वर्ष का था, किन्तु कई कारणों से अभी तक यह अविवाहिता थी। यह अनाथिनी की अतिशय प्रियसखी थी। घर में घुसते ही इसने पुकारा,-" अनाथिनी ! व्यर्थ रात दिन क्या सोचा करती हो?". ____ अनाथिनी उसी घर में चिन्तामग्न बैठी थी, इसलिये उसने कोई उत्तर न दिया । तब सरला ने फिर हँस कर कहा,-" नहीं भाई ! आज से मैं तुम्हें अनाधिनी न कह कर बहू कहूंगी।" ___ अनाथिनी ने प्रकृतिस्थ होकर कहा,-" नहीं सखी, यह क्या कहती हो ? लोग सुनकर क्या कहेंगे!" सरला,-" नहीं, भाई ! मैं तो बहू' ही पुकारूंगी; लोगों के डर से तो मानों मर गई !!!" [ ३७ ]________________

ईमा. 1. उपन्यास।। - - 4 (पुस्तअनाधिनी देखो ! नीचे की दलान में सब कोई बैठी है; @ तुम्हारी बे-सिर और की बातें सुनकर वे सब मन में क्या कहेंगी?" सरला, मैं तो कहूंहींगी,-क्या? 'बहू' ! कौन नहीं जानता कि भैया के आने पर तुम उनसे ब्याही जाओगी।" अनाथिनी,-" तुम्हारे जो मन में आवै सो कहो। सरला .! मैं देखती हूं कि बहू बनने का तुम्हें बड़ा चाव हैं !" सरला,-"जाओ, मैं न बोलंगी।" अनाथिनी,-"क्यों, सरला! खफा हुई क्या?" सरला,-"बहू'-मई ! तुम समझी नहीं ?' अनाथिनी,-" नहीं, मैं कुछ भी नहीं समझी, कहो न भई !" सरला,-" मैं तो तुम्हें 'बहू' पुकारती हूँ और तुम मेरा नाम लेती हो?" अनाथिनी,--" ओहो ! बीबीजी ( ननद ) कहूं क्या ? ऐं! वही तो देखती हूं!" सरला,--"अब तुम कुछ राह पर आई । मैं क्या कहती थी ? वहू !'--".. ___ अनोथिनी,--" बीबीजी ! मैं यह कहती हूं कि तुम्हें बहू बनने की बड़ी चाह है !" सरला,--" किसे साध नहीं होती ? अब तक तो कभी की मैं बहू हुई रहती, पर वैसी बहू नहीं हुई, सोई अच्छा हुआ। अनाथिनी,-"क्यों, अभी तक तुम्हारा ब्याह क्यों नहीं हुआ ?" सरला,--" प्रायः तीन मास हुए, बाबा एक बर खोज लाए थे, पर वे मुझे पसन्द नहीं थे, इसलिये उन्हें मैंने हवा खिलाई !" अनाथिनी,-"हवा खिलाई ? ऐ है ! वें कहां के बर थे ? उनका घर कहां है ? सरला,-"मेरे मामा के घर के पास उनका मकान है।" - अनाथिनी,-"तो जान पड़ता है कि वे तुम्हें अच्छी तरह जानते होंगे!" सरला,-"खूब अच्छी तरह !!!" अनाथिनी,-"तो फिर तुमने विवाह करना अस्वीकार क्यों किया ?" सरला,-"पसन्द नहीं हुआ, इसीसे अस्वीकार किया !!!" [ ३८ ]________________

सुखशर्वरी। - - vv. अनाथिनी.-"सरले! वे क्या तुम्हें बहुतही चाहते थे ?" सरला,-"ये मुझे अब तक प्राण से ज्यादे चाहते हैं, पर उन्हें मैं इतना नहीं मानती।" अनाथिनी,-"तुमने जो व्याह करना न चाहा तो वे चुपचाप चले गए होंगे?" सरला,-"न जाते तो क्या करते ? परन्तु वे केवल चले ही नहीं गए, परन जाते समय कई बंद आंसू भी यहां गिरा गए !" अनाथिनी,-"वे रोए थे ?- सरला ! यह तुमने अच्छा काम नहीं किया। माहा! उनकी आशा को एक दम से काटना तुम्हें उचित नहीं था। ये तुम्हें यथार्थ ही चाहते थे । मैं जो उस समय यहां होती तो उनसे वियाह करने के लिये तुम्हारा अनुरोध करती।" सरला,--"बहू ! तुम कहीं पागल न हो जाना!" अनाथिनी,-"वे रोए थे, यह बात सुनकर भी तुम्हारी पत्थर सी छाती नहीं पसीजी!" सरला,-"दया कैसी ? जिसे मैं नहीं चाहती, उसे तुम्हारा नन्दोई कैसे बनाऊं?" अनाथिनी,-"हाय ! तुम्हें दया नहीं आती ? सभी क्या अभिलषित वस्तु और प्रेम पदार्थ पाते हैं ? यदि ऐसा होता तो संसार में इतना दुःख न रह जाता। उन्हीं के संग तुम्हें ब्याह करना उचित था। पिता जिसे ले आए थे; उसीको सादर ग्रहण करना था। विशेषतः वे तुम्हें चाहते भी थे। प्रेमपदार्थ न मिलने से कैसा कष्ट होता है, यह तुम्हें मालूम नहीं है। "

  • सरला,-"बहू ! तुम बिक्षिप्त हुई का ? यह बात मैं क्या नहीं जानती ?"

अनाथिनी,-"अच्छा ! यदि फिर वे यहां आवे, तुम्हारी खुशामद करें, तुम्हारा कुछ सन्तोष करें, और मैं भी उनकी ओर से तुम्हारा चिबुक धरकर विनती करूं, तो क्या तब भी तुम उन्हें न अपनाओगी?"

सरला,-"यह ! तुम उनके लिये इतना क्यों सोच करती हो ? यहां आने के समय तुमसे बाबा ने कुछ कहा था ? " इतना करकर यह मन में कहने लगी,-'कदाचित भैया उन्हीं [ ३९ ]
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उपन्यास।

mummmmmmmmmm को खोजने गए हैं !" फिर यह अनाथिनी से बोली,-"यहू ! मेरा घर स्थिर हुआ है, और उसके संग मेरा एक प्रकार से विवाह हो भी गया है!" ____ अनाथिनी,--"किस प्रकार से ? भई ! कुछ समझ नहीं पड़ता, खुलासा कहो ?" सरला,--"कल मैने एक सपना देखा था।वही सपना, जिसपर तुम सबेरे यों कहती थी कि, 'सरला ! सूती सूता क्या हंस रही हो ?' याद है ?" अनाथिनी,--"हां सचमुच तुम हंसती थीं ! अच्छा तुमने कौन घा कैसा सपना देखा है ?" ___ सरला,--"क्या कहूं ! तुम जानती ही हौ कि सरला निर्लज है। देखो, कल मैने स्वप्न देखा था, मानो एक उदासीन के संग मेरा ब्याह हुआ है ! " अनाथिनी,--उदासीन ! किसके लिये उदासीन ? क्यों तुमने उनसे विवाह किया ? वे स्वीकृत हुए थे ?" . सरला,--"कुछ याद नहीं आता! अच्छा, वह बात जाने दो। बहू ! भैया के आते ही तुम्हारा ब्याह होगा।" इस पर अनाथिनी लजाकर चुप होगई कुछ न बोली। सरला ने कहा,-बहू ! तुम्हारा ब्याह होगा, इसे सुनकर तुम खुश क्यों नहीं होती ? देखो मेरा ब्याह अभी केवल सपने में हुआ है, सो मुझे कितना हर्ष है ! कय उदासीन आवेगा! जब स्वप्न देखा था तो यही निश्चय किया था कि चाहे कोई कुछ कहै, पर मैं तो इन्हीं उदासीन से ब्याह करूंगी । बहू ! तुमने भैया की मोहिनी मूर्ति नहीं देखी है, इसीसे तुम्हें आमोद नहीं होता । 'पृथ्वी में कोई मनोनीत वस्तु नहीं पाता' यों कहकर अभी तो तुम बहुत पण्डिताई छांटती थीं, परन्तु तुम मनोनीत वस्तु पाओगी ! यदि उदासीन मिले, तो मैं भी इच्छित वस्तु लाभ करूं। बहू ! भैया का चित्र देखोगी ?" ___यह कहकर सरला दूसरे कमरे में से एक सुन्दर फोटो ले आई । अनाधिनी उसे देखते ही थर्रा कर मूर्छित होगई, और सरला के बहुत यत्न से चैतन्य लाभ करने पर वह बहुत रोदन । करने लगी। [ ४० ]________________

३४ सुखशर्वरी। सरला ने कहा,--"क्यों रोती हौ ? बहू ! क्या दादा पसन्द नहीं हैं ? तुम ऐसी क्यों होगई ? ऐं भाई! गांव की सब युवती भैया के रूप-गुण की प्रशंसा करती हैं, पर तुम्हें थे पसन्द नहीं हैं ! भई ! क्यों इस तरह रोने लगी ? बोलो अनाथिनी ? क्यों रोती हो?" अनाथिनी ने कष्ट से आंसू रोक कर कहा,-"सरला! तुम अरा स्थिर होवो, मैं सब कहती हूं।" सरला.--"बोलो बोलो, चुप क्यों होगई ! क्या हुआ ? अनाथिनो, यह तसबीर किसकी है ? ” सरला,--"क्यों ? कहा तो सही कि बड़े भैया की है !" अनाथिनी,-"मैने ऐसे ही एक व्यक्ति को बड़ी विपद में देखा है!" सरला,--"ऐं ! कैसी? कैसी बिपद ? " अनाथिनी,-"एक भयानक कापालिक के हाथ बंदीरूग में।" सरला.-"कापालिक ! ओ: बाबा! वह तो नरबलि देता है न ? भला, भैया को उसके हाथ पड़ने लगे ! कोई दूसरा अभागा होगा।" अनाथिनी,-"सरला! मैं मिथ्या नहीं कहती। यदि मेरी स्मरणशक्ति विश्वासयोग्य हो, यदि मेरे नेत्र विश्वासपात्र हों तो यह प्रतिमूर्ति उन्हीकी है, इसमें सन्देह नहीं।" सरला,-"तो वे ही होंगे। हाय, बाबा का करम फूटा! हां भई, तुमने उन्हें कैसे देखा था ? क्यों चे कापालिक के हाथ पड़े ? उन्होंने क्या किया था?" . अनाथिनी,-"सुरेन्द्र कोखोजने के लिये मैं उसी पथ से जाती थी । भयङ्कर आंधी-पानी आने से समीपवाले एक भग्नगृह में मैं घसी। वहां सुरेन्द्र को मैंने पुकारा। तत्क्षण एक युवक ने मुझे भागने के लिये कहा । फिर बहुत बातें होने पर उन्होंने कहा कि, "अपनी भगिनी के पति को खोजने के लिये मैं जाता था, रात को आंधी, पानी और अंधेरे के कारण इसी जङ्गल में पथश्रम दूर करने के लिये मैं सो गया। प्रातःकाल उठकर मैंने देखा कि, 'कापालिक के हाथ में बन्दी हुआ हूं!' समझी !" इतना कहकर अनाथिमी ने रोते रोते अपने मन में कहा,"हाय ! सरला ! उनकी सब बातें मेरे मन में गैठी हैं, उन्हीं के [ ४१ ]________________

उपन्यास । sawanawwa u nive लिये मेरा मन ऐसा दग्धप्राय होरहा है और उन्हीं के लिये मैं सदा सोच में डूबी रहती हूं । हाय ! क्या मेरा ऐसा भाग्य है कि वे मुझे मिलेंगे?" __ सरला,-"ठीक है। वे घोड़े पर चढ़कर ठीक उसी काम के लिये जाते थे। क्या सर्वनाश! हाय! कैसे उनका उद्धार होगा? यह हाल बाया से कहूं क्या ?" अनाथिनी,-"नहीं, अभी उनसे न कहो।" यों कहकर अनाथिनी ने मन में कहा-"इतने दिन हुए, हाय ! अबतक क्या वे इस संसार में जीते-जागते रहे होंगे ! हा!" सरला,-'तो, भई ! कौन उपाय करना चाहिए ? " अनाथिनी,-"देखो! आज रात को मैं अकेली वहां जाकर कापालिक की बिनतो करके उन्हें छुड़ा लाऊंगी। मुझे ऐसा विश्वास होता है, कि मेरी बिनती, पर वह उन्हें छोड़ देगा।" सरला,-"नहीं नहीं, मैं भी तुम्हारे संग चलंगी। मैं जो यहां रहूंगी तो बाबा तुम्हारा हाल पूडेंगे, तब मैं क्या कहूंगी? इसलिये मैं भी संग ही चलंगी। और देखो, राह बाट में एक आदमों जरूर संग चाहिए, सो प्रेमदास रसोइये को लेलंगी।" __अनाधिनी,-प्रेमदास पथकष्ट सहना स्वीकार करेगा ?" सरला,-प्रेमदास विवाह के लिये इतना पागल है कि हद से ज्यावे ! वह भी ब्याह के लिये ब्याकुल है और शायद किसी सुन्दरी पर मरता है। बस जहां उससे यों कहा कि, 'प्रेमदास ! चलो, तुम्हारा ब्याह करादूंगी,' तहां बस चुपचाप यह सब दुःख सह लेगा। पर है वह बड़ा डरपोक !" . अनाशिनी,-"हां! वह तो पोंगा हई है, तो भी उसका संग रहना अच्छा होगा; पर उसे यह वृत्तान्त न मालूम हो।" सरला,-"अच्छा ।" , अनन्तर दोनों चुपचाप अपने चलने की तयारी करने लगी और रात के आठ बजने पर अनाथिनी, अरला और प्रेमदास घर से चुपचाप एक ओर को चलदिए । meres [ ४२ ]________________

३६ सुखशर्वरी। - - - . ... ... ... .. .. ... ... . सप्तम परिच्छेद पान्थनिवास। "अपूर्वं चौर्यमभ्यस्तं, त्वया चञ्चललोचने । दिवैव जाग्रतां पुंसां, चेतो हरसि दूरतः ॥" (कलाधरः) नन्दपुर से सात कोस उत्तर एक पान्थनिवास (धर्मआ शाला) था। पहिले ही से तीन पथिकों ने आकर * उसकी तीन कोठरियां छेक ली थीं, और थोड़ी देर Moon के पीछे सदर द्वार बंद होगया था। दो पहर रात गई होगी, इस समय धर्मशाला की स्वामिनी सुषदना' की कोठरी बन्द थी, उसमें बाहर से किसीने धक्का मारा। सुखदना ने जल्दी द्वार खोल दिया. और देखा कि, 'दो स्त्रियां और एक तीस बर्ष का युवक खड़ा है ! इन तीनों जेनों को पाठकों ने चीन्हा होगा! इनमें एक सरला, दूसरी मनाथिनी और तीसरे प्रेमदास थे!!! प्रेमदास अभीतक क्वारे थे। अर्थाभाव से कैसे ब्याह हो ? तिसपर वे एक सुन्दरी पर मरते थे, और वह सुन्दरी आधी विधवा थी, तथा यह जानती भी नहीं थी कि, 'मुझ पर प्रेमदास का प्रेम है!' अस्तु । प्रेमदास का चरित्र सर्वथा सुन्दर था। वे कभी कभी हरिहरबाबू के यहां रसोई करते थे, परन्तु प्रायः घर के मन्दिर में नारायण की पूजा किया करते थे। वे अपने कुटुम्बा में अकेले थे। प्रेमदास मार्ग के श्रम से बहुत थक गए थे. पर उन्हे सरला का वह सरल वाक्य स्मरण था कि, 'चलो, तुम्हारा ब्याह करा देगी!' वही वाक्य आकर्षण करके यहां तक प्रेमदास को खींच लाया था। स्थान आदि स्थिर हुआ, और यह निश्चय हुआ कि, 'सरला और अनाथिनी कोठरी के भीतर, तथा प्रेमदास बाहर सोधें। सुबदना का सुबदन देखकर प्रेमदास चौंक उठे, क्यों कि यही उनकी अभिलषित आकाशकुसुम थी, इसे देखते ही उनको [ ४३ ]________________

उपन्यास। - AAAAAAAAAWAAN ENTENDED पथश्रम तो हवा होगया! उन्होंने बिचारा कि. 'सरला कोई देवी का अवतार है ! अहा ! सुबदना ही अब मेरी गृहणी होगी, इससे देवी सरला-सुन्दरी यहां मुझे ले आई हैं ! वाह ! क्या आज ही रात को ब्याह होगा?" प्रेमदास अति घने सस्मित-कटाक्ष सुवदना के गदन के ऊपर बरसाने लगे! निर्निमेष-लोचनों से मानो वे उसे लील जायगे! सुबदना रसिका होने पर भी सच्चरित्रा गौर परिहासप्रिया थी। यद्यपि अब इसकी पच्चीस वर्ष की उमर होगई थी, तौभी यह नहीं जानती थी कि, 'पुरुषसहवास किस चिड़िया का नाम है ! अस्तु, वह भी प्रेमदास का कुछ प्रेम जानती और उन्हें अच्छी तरह पहचानती थी, इसलिये वह भी प्रेमदास की ओर प्रेमपूर्वक निहारती और मुमकाती थी। सुबदना सरलहदया और दयालु थी, इसलिये उसने सरला और अनाथिनी की उपयुक्त सेवा की। उसने इन लोगों के आनेका-इतनी रात को इस तरह आगे कामतलब नहीं पूछा, यह अच्छा किया; क्यों कि पूछने पर भी यथार्थ उत्तर वह नहीं पाती; क्यों कि सरला और अनाथिनो ने मनोरथ सिद्ध होने के पूर्व अपना कृत्य गुप्त रखने का सङ्कल्प कर लिया था, और ऐसी सक्स्था में ऐसा ही करना बुद्धिमानी का काम है। अनाथिनी चुपचाप स्वयं सोचती थी कि, 'किस तरह सबसे छिप कर पूर्वोक्त भग्नगृह में जाऊं!' क्यों कि सरला को उस भयानक स्थान में संग ले जाने की उसकी इच्छा नहीं थी। उसने मन ही मन यह सङ्कल्प भी किया था कि, 'यदि बंदी जीते हों, और उन्हें स्वयं उद्धार न कर सकं तो फिर यह मुंह लेकर हरिहरप्रसाद - के घर न फिरूंगी और यदि ईश्चर न करे, बंदी को कुछ होगया हो. तो तत्क्षण प्राण त्याग दूंगी।' प्रेमदास ने सोचा कि, 'कोई कोई व्यक्ति नायक के पास नायिका को लाकर माप वहांसे हट जाते हैं, शायद सरला और अनाधिनी का यही मतलब होगा, जो मुझे अकेले बाहर रहने दिया ! ठीक बात है। जान पड़ता है कि भीतर दोनों सोगई होगी, तर तो सुयदना मेरी महिषी है ! तो फिर मैं घर के बाहर क्यों बैठा रहूं ! और सुबदना ही भीतर क्यों है ? मैं पुरुष हूं और [ ४४ ]________________

. सुखशवरी। - - सुगदना स्त्री है; यदि सुगदना स्वयं मेरे पास आवै तो भलापहिले कौन बोलेगा ? मैं बोलंगा! क्यों ? मैं तो नायक हूं न ? इसी समय रसिकशिरोमणि सुबदना सरला के संग चिन्तामग्न प्रेमदास के पास आई। श्री प्रेमदास ने सरलो को भी संग देखकर उससे आग्रह से कहा,"क्यों सरला! इतना कष्ट उठा कर और सब छोड़ छाड़ कर यहां तक आया, पर तुमने जो कहा था---" सरला,-"प्रमदास ! देख लो! तुम्हें यह बहू पसंद है न ? यही तुम्हारी महिषी होगी।" प्रमदास,-'यही होगी? ऐसा मेरा पाटी सा भाग है! ऐं! तुम इन्हें मेरे पास शायद इसी लिये ले आई हो?" सरला,-"हां जी! इसमें संदेह क्या है ?" प्रेमदास,-"सो कुछ नहीं, इन्हें तो मैं जन्म से कपा-मां के पेट ही में से चाहता हूं! अच्छा, यह महिषी हैं, और मैं नायक हूं, सुतरां महिष हूं !" यह सुनकर सुबदना ने हँसकर सानुराग कहा.-"तुम्हारा नाम क्या है ? प्रेमदास ! बाह, खूब ही नाम है ! जो तुम्हें चाहै, तुम उसीके दास !!!" - प्रेमदास ने दीर्घनिश्वास त्याग कर के कहा,-"सचमुच, जो 'मुझे चाहै, मैं उसीका क्रीतदास, चिरदास, अनन्यदास, असंख्यदास और दासानुदास हूं !!!" - सुबदना,-"प्रमदास तुमने दीर्घनिश्वास क्यों लिया ?" - प्रेमदास,-"यही कि मेरे ऐसे अभागे को आज तक किसीने ‘नहीं चाहा, इसीलिये दीर्घनिश्वास त्यागा। हां तुम्हारा नाम !" सुबदना,-"मेरा नाम क्या भूल गए ? सुबदना!!!" प्रेमदास,-"अहा! यह नाम तो मेरे हृदय में चिरकाल से "लिखा है। इस समय मारे प्रेम के भूल गया था, क्षमा करना।" १३. प्रमदास का सुबदना पर प्रम है, इसका हाल सरला कुछ भी पहिले से नहीं जानती थी, और वह प्रेमदास को निरा भोंपू समझती थी, इसलिये ब्राह्मण के संग परिहास करने और आश्वास देने के लिये सुबदना से विशेष अनुरोध करके वह अनाथिनी के पास आ सोई । सुगदना रसिका थी, यह तो हम कहो आए हैं; [ ४५ ]उपन्यास। सो, प्रेमदास की मनस्तुष्टि के लिये वह जी खाल कर हास-परि- हास करने लगी। सरला को टल जाते देख कर प्रमदास ने सच ही विश्वास किया कि, 'सरला सुबदना को मेरे मन की परीक्षा लेने के लिये अकेले में छोड़ गई है! अरे उसने कुछ कुछ सुखदना के कानों में भी तो कहा रहा !' इत्यादि सोच कर प्रमदास ने, जो जन्म से सुबदना को प्राण से भी अधिक साहा था; इसका प्रबलतम प्रमाण वे देने लगे। प्रेमदास,-"सुबदना! आहा क्या ही नाम की सुन्दर परिपाटी है! यथार्थ ही सुबदना ! सुबदना!! सुबदना!!! सुबदना और प्रेमदास, इन दोनों नामों में चार ही अक्षर तो हैं !" .. सुबदना,-"प्रेमदास ! तुम बड़े रसिक पुरुष हो! तुम क्या मुझे अपनाओगे, ऐसा क्या मेरा भाग है !!! ".....

प्रमंदास,-"मैं रसिक हूं? ठीक ! विवाह नहीं हुआ, पर उसके

लिये जन्म से रसिकता सीख रक्खी है; किन्तु मुझे किसीने नहीं अपनाया, सबने दूर किया; इससे रसिकता कुछ भूल गया होऊंगा । सरला सहसा मुझे ब्याह का भरोसा देकर ले आई है, इसीसे मुझे रसिकता सीखने का सयम नहीं मिला; अतएव मन में जो 'अनाप शनाप' आता है, वही बकता हूं।" . सुबदना,-"क्या कहा ! ब्याह नहीं किया, निकाल बाहर किया ! क्या सर्वनाश ! किस अभागिनी ने ऐसा किया! कौन अभागिन प्रमदास से विवाह करने से पीछे हटी ! ओः ! समझो ! यदि दूसरी तुम्हें जकड़बैठती तो फिर मेरा माग कैसे खुलता!इसी लिये किसीने तुमसे ब्याह नहीं किया!" प्रेमदास,-"तुम मेरी होगी, ऐसा क्या मेरा भाग है? वह दिन कब आवैगा?" सुबदना,-"स्थिर होकर सुनो! पहिले तुम्हारा मन खोल लू पीछे और बात होगी। प्रेमदास! तुम क्या मुझे जी से चाहते हो ?" प्रेमदास,-"सुचदना ! जिस दिन पहिले-पहिल मैने तुम्हें देखा था, उसी दिन से तुम्हें मैं दिल से चाहता हूं। मैं जनेऊ ( यज्ञोपवीत ) की शपथ खाकर कहता हूं कि तुम्हें मैं प्राण से भी अधिक प्यारी समझता हूं।" सुचदना,-"तुम ब्राह्मण हौ! हाय, तुम अभी तक यह नहीं RE [ ४६ ]सुखशवरी। -- v.....LIVE vvvA../ 15 - 1 2 - 1 - मन-- - - - - समझे कि, 'मैं तुम्हारे स्पर्शयोग्य भी नहीं हूं!' आबाबा! ब्राह्मण • अग्नितुल्य है, इसलिये मैं तो भागती हूं!" प्रेमदास,-"सुषदना ! यदि ऐसा है तो मैं भी ब्राह्मण नहीं हूं। यदि विश्वास न हो तो परीक्षा कर लो; जो कहो तो मैं इस जनेऊ को अभी तोड़कर फेंक दूं! तुम कहो तो मैं डुग्गी पिटवा दे कि, 'प्रेमदास आज से ब्राह्मण नहीं है' !" सुखदना,-"तुम निश्चय ही ब्राह्मण नहीं, बल्कि महाब्राह्मण "हो! यह देखो, तुम्हारे माथे में त्रिपुण्ड लगा है !" प्रेमदास,-"हाय ! आज मेरे सभी शत्रु होगए ! प्यारी सषदना ! पहिले से जो मैं जानता-क्षमा करो, क्षमा करो- सुबदना! हां, तुम कौन वंश की हौ ?" सुबदना,-"क्यों! मैं तो कुलीन ब्राह्मण की लड़की हूं!" प्रेमदास,-"अरे ! मैं भी तो वही हूं। ऐसा न होने से भला । मेरा आर्य-मन तुमपर क्यों आसक्त होता ? सुखदना ! तुम्हारा मन मुझसे राजी है?" सुखदना;-"प्रेमदास ! मेरे चरित्र के सम्बन्ध में लोग बहुत छिद्र देखते हैं, तुम क्या मुझे ग्रहण कर सकोगे ? किन्तु हां, तुम मेरे मनोनीत हो।" .. प्रेमदास,-"चरित्र-छिद्र-विशिष्ट है, यह मैं नहीं मानता; जो 'हो, मैं तुम्हें आदर के सहित हर्षपूर्वक ग्रहण करूंगा।" " सुबदना,-"ब्याह करके मुझे कहां ले जाओगे और कैसे मेरा भरण-पोषण करोगे? " प्रेमदास,-"सुबदने ! घबड़ाओ मत । हरिहरबाबू मुझे बहुत मानते हैं, इसलिये वे मुझे भारवाही देखकर घर-द्वार जरूर देंगे। तुम कुछ सोच न करो, मैं ठाकुरजी का भोग तुम्हीं को लगा सुबदना,-"तो तुम मुझे वस्तुतः खूब चाहते हो ! हां पहिले जिससे विवाह करने गए थे, वह देखने में कैसी थी ?" प्रेमदास.-"कैसी थी! सुनो, अमावास्या की रात्रि की तरह घोर मसीतुल्य बर्ण, दिल्ली सी अांखें, शृगाल-सम मुख, और कहां तक कई-ऊपर नीचे सब गोलमाल!" सुषदना,-"प्रेमदास ! शान्त होजाओ ! समझा मैने ! उसके [ ४७ ]________________

उपन्यास। ०९ - - - - ब्याह के लिये कितने रुपए तुम ले गए थे?" प्रेमदास,-"असंख्य !!! ब्याह का नाम सुनते ही घर-द्वार, खेती-बारी, सब बेंचबांच कर जो कुछ. आया, सो श्रीचरण में चढ़ाने के लिये ले गया था, पर तौभी बुरी तरह निकाला गया।' सुबदना,-"अच्छा , वे रुपए अब कहां हैं !" प्रेमदास,-'उन्हें मैने एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे गाड रक्खा है, इसलिये कि उन्हें देखकर ब्याह की याद गाजाती थी।" सुअदना,-"अच्छा प्रेमदास ! सब बात पक्की हुई. । अब तुम सूतो, मैं जाऊं।" प्रेमदास,-"जाओगी ? अच्छा, अपने अंचल में एक गांठ लगालो, जिसमें मेरी बात की याद बनी रहै!" __सुबदना,-"यह देखो, मैने गांठ लगा ली! कल सबेरे फिर, हमलोगों की बातचीत होगी और दिन ठीक किया जायगा। मैं जाऊं न ? दण्डवत् , दण्डवत् ! सूतो, सूतो ! बहुत खत बीत गई है।" सुबदना के मिष्टालाप से प्रेमदास अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और हर तरह की शुभ चिन्ता का मन में आंदोलन करते करते निद्रत हुए। सुषदना भी सरला के समीप जाकर सोगई। सबको निद्रित जान कर चिन्ताकुल अनाथिनी निज कर्तव्य-कर्म सिद्ध करने के लिये उठी और धीरे धीरे कापालिक के भग्नगृह की ओर चली। weer

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