सुखशर्वरी/ भाग 6

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सुखशर्वरी  (1916) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी

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उपन्यास। Parwareneumeenamewom an - एकादश परिच्छेद. अरण्य । ८. धैर्यमावह नाथ त्वं, स्थिरो भव हरिस्मर । दत्वा प्राणान्निजान् त्वाहं मोक्षयिष्यामि बन्धनात् ॥” (व्यासः) TRIEनाथिनी एक जकल के भीतर जिस मार्ग से जाती अ थी. वहां कुछ देख कर स्तम्भित हुई ! उसने सबको आगे आने के लिये कहकर और उदासीन के कान US में कुछ कहकर तथा सबका साथ छोड़कर वह अकेली जंगल में प्रविष्ट हुई और वहां पहुंच तथा कुछ देखकर बहुत ही घबरा गई ! तो उसने क्या देखा ? उहरिए, कहते हैं। अनाथिनी के अनुरोध करने से सुबदना, प्रेमदास, उदासीन और सरला आगे चले गए थे। और वह उनलोगों का संग लोड़ कर लसी जङ्गल में ठहर गई थी। एक बटवृक्ष के नीचे कर पर कपोल धर कर वह सोचने लगी; उसने क्या सोचा? यह कि, 'अब मैं अपना प्राण देदंगी! हाय ! संसार में कोई वस्तु बिना श्रम के नहीं मिलती! अहा! हरिहर बाबू के पुत्र को छुड़ाकर उनके संग विवाह करने की मेरी इच्छा थी, किन्तु हा! वह तो विफल हुई ! हा! मैंने कैसे जाना कि विफल हुई? यह देखो एक टूटी-फूटी पालकी सामने पड़ी है ! इसी पर सवार होकर भूपेन्द्र पिता के घर जाते थे। और मैंने ही बरजोरी उन्हें अकेले बिदा किया था। यह मेरी कैसी भूल हुई ! मुझे उचित था कि सब कोई साथ ही साथ जाते । यदि ऐसा होता तो कदाचित कोई बखेड़ा न खड़ा होता!' हरिहरबाबू के पुत्र का नाम भूपेन्द्र था । उन्हें कापालिक के हाथ से मुक्त करके और पालकी पर सवार कराकर घर बिदा किया था। उस शिविका को अनाथिनी चीन्हती थी, यही शिविका यहां भग्न पड़ी है! इसलिये अनाथिनी ने मन में निश्चय किया कि, भूपेन्द्र फिर किसी विपद में फंसे होंगे ! इसी मौच से डानाधिनी की आँखों से चौधारे आंसू बहने लगे और बराबर [ ६० ]________________

सुखशवरी। - .. MAP ..... ..... - .. दीघनिश्वास निकलने लगा। थोड़ी देर में किसी प्रकार अपना मन शान्त करके वह उठी, और धीरे धीरे जङ्गल के भीतर घुसी। यह वही जङ्गल है, जिसमें कापालिक का भग्नगृह था। कांपते कांपते अनाथिनी चली जाती थी, और मम में नाना प्रकार के भावों की तरङ्गों का परस्पर आघात प्रतिघात होरहा था। अनाथिनी इतनी अन्यमनस्का थी कि यदि सैकड़ों तांपें एक साथ छूटती तोभी उसके कानों पर जं तक न रेंगती, किन्तु प्राकृतिक घटना ऐसी आश्चर्यमयी है कि जिसके कारण एक भीषण शब्द ने उसका मन अपनी ओर आकर्षित किया। मानो वह शब्द तीर को तरह उसके रोम रोम में चुभ गया, और वह इतिकर्तव्यविमूढ़ हो कर कांपने लगी। - उसने सुना कि, 'बाममार्गी कापालिक की कलुषितभावों से भरी मंत्रध्वनि बज्र-निनाद की तरह वन में गंज रही है !' उसने समझा कि, बस अब दीपनिर्वाण हुआ चाहता है ! जो कुछ करना हो, उसमें शीघ्रता करनी चाहिए, अन्य इस तुच्छ प्राण का मोह क्यों करूं? जब कि स्वयं प्राण देनं को खड़ी हूं, तब फिर भय काहे का!' इत्यादि कहती कहती जिस ओर से मत्रध्वनि आती थी उसी ओर वह चली। भागीरथी के किनारे पहुंचकर अनाथिनी ने देखा कि, 'पूर्वपरिचित राक्षसाकृति कापालिक प्रज्वलित अग्निकुण्ड में जार जोर से मत्र पढ़ते पढ़ते मांस आदि का होम करता है, सामने एक कात्यायिनो देवी की मूर्ति सिंहासन पर स्थापित है, देवी के पैरों के पास हस्तपादवद्ध भूपेन्द्र औंधा पड़ा है और अगल में हाथ में नंगी तलवार लिये रामशङ्कर खडा है, तथा पास ही एक पेड़ के. नीचे मनसाराम का भाई, जिसमें कि मजिष्ट्रट का छुरी मारी थी, बैठा है।' यह सब कौतुक देख कर अनाथिनी क्षणभर के लिये अचलप्रतिमा सी होगई ! पाठकों को अब विदित हुआ होगा कि मजिष्टे ट पर आक्रमण करने के अनन्तर रामशंकर, मनसाराम के भाई के संग जंगल. पहाड़ों में छिपा फिरता था, क्योंकि उन दोनों पर वारण्ट जारी था। गत परिच्छेद में जिन अश्वारोहियों ने प्रेमदास से रामशंकर का [ ६१ ]________________

उपन्यास । हाल पूछा था, वे पुलिस के आदमी थे। जबसे उदासीन ने भूपेन्द्र को कापालिक के हाथ से मुक्त किया था, तबसे कापालिक फिर भूपेन्द्र के अनुसन्धान में था। - जबसे अनाथिनी का पक्ष लेकर हरिहरबाबू ने रामशंकर को उचित शिक्षा दी थी, तबसे वह हरिहरबाबू का जातशत्रु हो गया था। उसीने कापालिक से मिलकर भूपेन्द्र के सर्वनाश का पडयंत्र रचा था। इसमें यह मतलब था कि, 'भूपेन्द्र के मारे जानेसे हरिहर बाबू भी एक प्रकार मृतकला होजायंगे, तब अनाथिनी बस्तुतः अनाथिनी होजायगी! तप उसे मैं अपनी गणिका और सुरेन्द्र को दत्तकपुत्र बनाऊंगा।' बस इसी अभिप्राय से उस पतित ने यह जाल फैलाया था। ___ अभाग्यवश उसी जंगल से होकर भूपेन्द्रबाबू अपने घर जाते थे। मार्ग में रामशंकर और कापालिक ने उन्हें चीन्ह कर फिर पकड़ लिया, और असार संमार से शीघ्र पिदा करने के लिये, गंगा किनारे अभिचार रचा था। इस भयानक व्यापार को देखकर अनाधिनी का हृदय विदीर्ण, प्राण जीर्ण, मन संकीर्ण और देह शीर्ण होगया। वह व्यथित. अन्तःकरण से कापालिक के पास जाकर रोते रोते बिनीतभाव से कहने लगी.-"महाशय ! आपको तो नरबलि देनी है न? तो इन निर्दोष पुरुष को छोड़ कर इनकी जगह मुझे देवी के आगे बलि चढ़ा दीजिए। मांसलोलुप देवी कामिनी के कोमल तथा कमनीय और मीठे मांस से ज्यादे प्रसन्न होगी! इनके मरने से एक घर का चिराग बुझ जायगा,किन्तु मेरे पीछे कोई रोनेवाला नहीं हैं। इसलिये दया करके इन्हें छोड़ कर मेरा बध करिए ।” अनाथिनी महाविलाप-पूर्वक बारम्बार यही कहती और कापालिक तथा रामशङ्कर के चरणों में लोटती थी, पर किसी पाषाण हृदय ने उसकी बातों पर भ्र क्षेग भो नहीं किया! रामशङ्कर कालिक की आज्ञा का आसरा देख रहा था । होम समाप्त होने पर कापालिक ने भूपेन्द्र के बध और बलि की आज्ञा दी। - भूपेन्द्र ने कापालिक की बहुत बिनती करके अनाथिनी से अन्तिम समय की विदा लेने की अनुमति ली, और सकरुण तथा क्षीणस्वर से वे बोले,-[ ६२ ]________________

সুন্না । - __"कोमलहदये ! अब क्यों व्यर्श तुम अनुनय-विनय करती हो! तुम्हारे आर्तनाद पर कौन दया करेगा! विधाता की इच्छा नहीं है कि मेरा उद्धार हो ! अहा! प्यारी ! तुमने मेरे उद्धार के लिये सब कुछ किया, किन्तु यही दुःख मेरे मन में है कि मैं कुछ भी तुम्हारा प्रत्युपकार नहीं कर सका! अस्तु-हरेरिच्छा बलीयसी !!! तुम सरला से कहना कि वह उदासीन के संग ब्याह करले और प्रिये! तुम जाकर मेरे वृद्ध पिता की सांत्वना करना! __यह सुनकर अनाथिनी कुछ भी नहीं योली, किन्तु ऊंचे स्वर से रोने लगी। कापालिक ने भूपेन्द्र को डांटकर बलि चढ़ाने के लिये प्रस्तुत किया ! रामशङ्कर तलवार उठाकर भूपेन्द्र का सिर धड़ से अलग किया चाहता था कि बन में घोड़ों की "टपाटप" टाप सुमाई पड़ी। और कई अश्वारोहियों ने आकर क्षणभर में कापालिक, रामशङ्कर तथा फकीर को पकड़ लिया। ये वेही लोग थे जिन्होंने प्रेमदास से रामशङ्कर का हाल पूछा था। यह हाल देखकर अनाथिनी बड़ी मगन हुई और घटण्ट भूपेन्द्र का बन्धन खोलकर हलीखुशी उनके संग आनन्दपुर चली। मार्ग में उन दोनों प्रेमियों में जो कुछ प्रेम की बातें हुईं, उनका सविस्तर वर्णन तो हम कहांतक करैं; हां, इतना हम जरूर कहेंगे कि भूपेन्द्र अनाथिनी का अथाह प्रेम देखकर उस पर पूर्णरूप से अनुरक्त होगया और कहने लगा,-"प्यारी, तुमने अपनी जान पर खेलकर मेरी जान बचाने के लिये अपने हृदय की जैसी दृढ़ता दिखलाई है, उसे में आजन्म न भूलंगा।" अनाथिनी ने हंसकर कहा,-" प्यारे ! इस विषय में मैंने तो कुछ भी नहीं किया ! हां, तुम जगदीश्वर को असंख्य धन्यवाद दो कि उस परमात्मा की प्रेरणा से ठीक समय पर पुलिसवाले पहुंच गए, नहीं तो महा अनर्थ होजाता। . भूपेन्द्र ने कहा,-" कुछ भी हो, परन्तु तुम्हारे हृदय की गरिमा मैंने भली भांति जानली।" बस, इसके अतिरिक्त पारस्यरिक प्रणयसम्भाषण की विशेष परतों का अनुभव भुक्तभोगी महाशय और महाशयाजन स्वयं करलें तो अच्छो हो। [ ६३ ]________________

७५.५ास। FEAREERATOREHEALTERNE द्वादश परिच्छेद. M 0mi HEHREE परिशिष्ट । " नित्यं भवन्ति संसारे, घहव्यः प्रकृतिजाः क्रियाः । जनानां भिन्नमाधानां, नानामार्गानुयायिनाम् ॥" (व्यासः) शुभ दिन, शुभ लग्न और शुभ मुहूर्त में अनाथिनी के यो संग हरिहरबांबू के पुत्र भूपेन्द्रकुमार का शुभ विवाह होगया और उन दोनो के आनन्द की सीमा न रही। - सरला से उदासीन का गठ-बंधन हुआ और वे दोनों प्रणयी भी आनन्दसिंधु में डूब गए। सुखदना से प्रेमदास का परिणय हुआ और उन्हें हरिहरबाबू ने भूसम्पत्ति देकर अयाची कर दिया। सुबदना इस हर्ष में फूली नहीं समाती थी। . मनसाराम को सुरेन्द्र के चुराने के अपराध में तीन वर्ष का सपरिश्रम कराबास, कापालिक को यावजीवन द्वीपान्तर, मजिष्ट्रेट को छुरी मारनेवाले मनसाराम के भाई को जन्मभर का कालापानी और रामशंकर को दस वर्ष के कारागार का दण्ड हुआ । - हमने सुबदना, सरला और अनाथिनी की रूपराशि का वर्णन नहीं लिखा है, इससे रूपगर्वितागण रुष्ट होंगी; किन्तु हम क्या करें! क्योंकि वे तीनों अद्वितीयरूपवती थीं, अतएव उन निरुपमाओं की किसको उपमा देते ? यदि कोई रूपगर्थिता पाठिका उन तीनों के रूप की छटा देखा चाहें तो पहिले अपने रूप को निरा पानी समझ, तब उन तीनों रमणियों की छवि स्वयं आँखों के आगे मा जायगी। अनाथिनी का नाम हरिहरबाबू ने " गृहलक्ष्मी ” रखा था । अन्त में इतना और भी समझलेना चाहिए कि मनसाराम के भाई ने जिन मजिष्ट्र टसाहय को छुरी मारी थी, वे दो। महीने के अन्दर अच्छे होगए थे। इस प्रकार पाप और पुण्य का परिणाम दिखाया गया है। इतिश्री। HEAL [ ६४ ]________________

इन्दुमती वा वनविहङ्गिनी। ऐतिहासिक उपन्यास । मूल्य दो आने। यह उपन्यास अब तीसरी बार छ।। है । यह ऐतिहासिक उपन्यास है। है तो यह छोटा, पर काम इसका बहुत बड़ा है। इसकी आश्चर्यजनक घटनाएं तथा अद्भुत वृत्तान्त पढ़कर उपन्यास के प्रेमी पाठक बहुत ही प्रसन्न होंगे। इसमें पन्द्रहवीं शताब्दी की एक बड़ी ही सुन्दर और रोचक कहानी का वर्णन है । दिल्ली के बादशाह इसराहीमलोदी का अजयगढ़ के राजा राजशेखर को दिल्ली में बुलाकर विश्वासघात करके मारडालना, इसका बदला राजशेखर के पुत्र चन्द्रशेखर का इपराहीम को मारकर चुका लेना। फिर चन्द्रशेखर का भटकते हुए विन्ध्याचल के घोर वन में इन्दुमती से भेंट होना, इन्दुमती के पिता का दोनो, अर्थात् चन्द्रशेखर और इन्दुमती के सच्चे और अगाध प्रेम की परीक्षा बड़े ही विचित्र ढंग से लेना और फिर इन्दुमती का विवाह चन्द्रशेखर के साथ कर और इबराहीम से सताए जाने की अद्भुत कथा सुनाकर बूढ़े ने इन्दुमती को चन्द्रशेखर के संग बिदा किया और भाप तप करने हिमालय की ओर चला गया। उपन्यास उत्तम है। मिलने का पता,-मैनेजर श्रीसुदर्शनप्रेस, वृन्दावन ( मथुरा) [ ६५ ]________________

__ श्रीः चन्द्रावली वा कुलटाकुतूहल । जासूसी उपन्यास। मूल्य दो आने । यह उपन्यास भी तीसरी बार छपा है और बहुत ही उत्तम, रोचक और शिक्षाप्रद है। घनश्यामदास की लड़की चम्पा और उनकी रंडी चुन्नी की लड़की चन्द्रावलो की सूरसशकल का एक ही ला होना, इसलिये चम्पा को मार और खुद चम्पा बनकर चन्द्रावली का चम्पा की सारी सम्पत्ति पर दखल जमाना और सर्व साधारण में यह मशहूर होना कि, 'बनारस की दाल की मंडावाली मशहूर रंडी चन्द्रावलो मारी गई !' इस बात की जांच के लिए गवर्नमेण्ट का कलकत्ते से एक मशहूर जासूस यदुनाथ मुकुर्जी को बनारस भेजना और उक्त जासूस महाशय का इस खून की छानबीन कर चम्सा बनी हुई खूनी रण्डी चन्द्रावली और उसके यार ऐंठासिंह का चम्पा के मकान में से गिरफ्तार करके। फांसी दिलवाना तथा चम्पा के दत्तकपुत्र कृष्णप्रसाद के प्राण और सम्पत्ति की रक्षा करना बड़ी खूशी के साथ वर्णन कियो गया है । चम्पा की बड़ी बहिन ललिता थी, ललिता का पति चन्द्रिकाप्रसाद था और चन्द्रिकाप्रसाद का पुत्र कृष्णप्रसाद था, इसीको चम्पा ने दत्तकपुत्र बनाया था। छोटा होने पर भी यह जासूसी उपन्यास बड़े बड़े जासूली उपन्यासों का मुकाबिला करता है। इसे एक बार अवश्य पढ़िए । उपन्यास बहुत ही उत्तम है। मिलने का पता,-मैनेजर श्रीसुदर्शनप्रेस, वृन्दावन ( मथुरा) [ ६६ ]________________

श्रीः चन्द्रिका वा जड़ाऊ चम्पाकली। जासूसी उपन्यास । मूल्य दो पाने । ____ यह उपन्यास है तो छोटासा, पर इसकी दिलचस्पी बड़े गड़े जासूसी उपन्यासों का मुकाबिला कर सकती है। दिल्ली के रईस बाबू द्वारकादास की भतीजी चन्द्रिका का दुष्टों के हाथ में फंस जाना और फिर उसे नामी जासूस यदुमाथ मुकुर्जी का नोज निकालना बड़ी खूपी के साथ लिखा गया है। ___ चन्द्रिका स्वर्गीय बद्रीदास की लड़की थी। जब वे मरे तो अपनी सम्पत्ति का "विल" कर के उन्होंने अपनी लड़की अपने छोटे भाई द्वारिकादास के सुपुर्द करदी थी। चन्द्रिका का ब्याइ शशिशेखर के पुत्र चन्द्रशेखर के साथ पक्का हुआ था। बद्रोदास का वही विल चन्द्रिका का काल होगया ! अर्थात् द्वारिकादास की दूसरी स्त्री दुष्टा "माया" ने अपने भाई मथुरादास के साथ चन्द्रिका का ब्याह करना चाहा, पर जब इस बात पर चन्द्रिका न राजी हुई तो अपनी बहिन माया की सलाह से मथुरा दास ने कई गुण्डों की मदद से चन्द्रिका को कैद कर लिया और उसके खून होजाने की शोहरत मचादी । आग्विर जासूस में चन्द्रिका को खोज निकाला और उसका ब्याह चन्द्रशेखर के साथ ही गया। दुष्टों ने अपने किये का फल पाया और माया ने आत्मग्लानि से फांसी लगाकर अपनी जान देदी । इस उपन्यास में जो चन्द्रिक के नाम का विल (दानपत्र) है, वह पढ़ने लायक है । उपन्यास बहुत ही अनूठा, दिलचस्प, मजेदार और रसीला है। मिलने का पता,-मैनेजर श्रीसुदर्शनप्रेस, वृन्दावन (मथुरा) [ ६७ ]________________

इन्दिरी। यह उपन्यास बङ्गभाषा के सुप्रसिद्ध लेखक स्वर्गीय श्रीयुत बङ्गिमचन्द्र चटर्जी का लिखा है। इसका हिन्दी अनुवाद श्रीमान् पण्डितकिशोरीलालगोस्वामीजी ने किया है। यह उपन्यास बड़ा ही दिलचस्प और अनूठा है। इन्दिरा का ससुरार जाते समय रास्ते में डाकुओं के द्वारा लूटी जाना, फिर जङ्गलों में भटकना, और धीरे धीरे एक वकील के यहां रसोई करने पर रहना, और वकील की स्त्री के साथ सखी-भाव का स्थापित होना, और बूढ़ी मिसरानीजी की दिल्लगी, पके बालों में वजाब का परिहास आदि देखने ही योग्य है। न्ति में इन्दिरा के पति का वकील के यहां आकर हरना, और फिर इन्दिरा का अपने पति के पास परनारी' के रूप में जाना, और इन्दिरा को सके पति का ' पर-स्त्री' समझकर ग्रहण करना, और उसे लेभागना । फिर अन्त में भेद का खुलना पौर इन्दिरा का सुखी होना, आदि बड़ी ही विचित्र बटनाएं इस उपन्यास में हैं। पुस्तक पढ़ने ही योग्य है। बड़े आकार की बड़ी पुस्तक का मूल्य केवल सवा पिया और डाक व्यय तीन आने । मिलने का पता-श्रीसदर्शननेस. वन्द्रावत। [ ६८ ]________________

श्रा उपन्यासों को लूट !!! हिन्दीभाषाके जगत्प्रसिद्ध सुलेखक श्रीकिशोरीलालगोस्वामीजी के बनाए हुए कई उपन्यास अभी हाल ही में फिर से छपे हैं। इस संम्करण में नीचे लिखे हुए उपन्यास बढ़ाकर बडी उत्तमतासे छापे गए हैं । उपन्यास-प्रेमियों को अवश्य नीचे लिखे उपन्यास यहुन जल्द जरूर मंगाकर पढ़ना चाहिए। डांकमहसूल ज़िम्ने खरीदार होगा। [१] हीराबाई [१२] लवङ्गलता [२] चन्द्रावलो [१८] हृदयहारिणी [३] चन्द्रिका [१६] तरुणतपस्विनी [४] जिन्दे की लाश [२०] स्वर्गीयकुसुम [५] इन्दुमती [२१] राजकुमार्ग [६] प्रणयिनोपरिणय [२१] मल्लिकादेवी [७] लावण्यमई [२२] जीयावेगम [८] प्रेममई [२३] लीलावती [] पुनर्जन्म [२४] इन्दिग [१०] त्रिवेणी | [२५] पन्नायाई [११] गुलबहार [२६] तारा [१२] सुखशर्वरी | [२७] माधवी-माधव [१३] कनककुसुम । [२८] लखनऊ की कत्र । [१४] कटेमूड़ की दो दो बातें।। २६] चपला, [१५] चन्द्रकिरण [३०] राजसिंह ।। [१६] याकूती तशी [३२] उपन्यास मा० पु० २) नीचे लिखी हुई गाने आदि की पुस्तकें भी गमा हाल ही में छपी हैं,(१) होली, मौसिमबहार (६) सुजानरसखान (२) होली रंग-घोली (१०) नाट्यसम्भव (३) बसन्तबहार (११) सन्ध्याप्रयोग (बड़ा) (४) चैतीगुलाब (१२) सन्ध्या संक्षेप (५) मावनसुहावन (१३) सन्ध्या भाषासहित (६ । प्रेमरत्नमाला (२४) कागिलसूत्र (७) प्रेमवाटिका DI (१५) ध्यानमञ्जरी (८) प्रेमपुष्पमाला (१६) घेदान्तकामधेनु । S u . . . / MANDAMmmon aaaaaaaaaara

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।