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सेवासदन/१८

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ ८३ से – ८६ तक

 

वह सदन को उलझाये भी रखना चाहती थी। इस प्रेम कल्पना से उसे जो आनन्द मिलता था, उसका त्याग करने में वह असमर्थ थी।

लेकिन सदन उसके भावों से अनभिज्ञ होने के कारण उसकी प्रेम शिथिलता को अपनी धनहीनता पर अवलबित समझता था। उसका निष्कपट हृदय प्रगाढ़ प्रेम में मग्न हो गया था। सुमन उसके जीवन का आधार बन गई थी। मगर विवित्रता यह थी कि प्रेमलालसा के इतने प्रबल होते हुए भी वह अपनी कुवासनाओं को दबाता था। उसका अक्खड़पन लुप्त हो गया था। वह वही करना चाहता था जो सुमन को पसन्द हो। वह कामातुरता जो कलुषित प्रेम में व्याप्त होती है, सच्चे अनुराग के आधीन होकर सहृदयता में परिवर्तित हो गई थी, पर सुमन की अनिच्छा दिनों दिन बढ़ती देखकर उसने अपने मन में यह निर्धारित किया कि पवित्र प्रेम की कदर यहाँ नही हो सकती। यहाँ के देवता उपासना से नही, भेंट से प्रसन्न होते है लेकिन भटके लिये रुपये कहाँ से आधे? मांगे किससे? निदान उसने पिता को एक पत्र लिखा कि यहाँ मेरे भोजन का अच्छा प्रबंध नही है, लज्जावश चाचा साहब से कुछ कह नही सकता, मुझे कुछ रुपये भेज दीजिये।

घरपर यह पत्र पहुँचा तो मामा ने पति को ताने देने शुरू किये इसी भाई का तुम्हें इतना भरोसा था, घमंड से धरती पर पाँव नहीं रखते थे। अब घमंड टूटा कि नहीं? वह भी चाचा पर बहुत फूला हुआ था, अब आंखें खुली होगी। इस काल में नेकी किसी को याद नही रहती, अपने दिन भूल जाते है। उसके लिये ने कौन-कौन सा यत्न नही किया, छाती से दूध भर नहीं पिलाया। उसी का यह बदला मिल रहा है। उस बेचारे का कुछ दोष नहीं, उसे में जानती हूँ, यह सारी करतूत उन्ही महारानी की है। अबकी भेंट हुई तो वह खरी खरी सुनाऊँ कि याद करे।

मदनसिंह को सन्देह हुआ कि सदन ने यह पाखंड रचा है। भाई पर उन्हें अखंड विश्वास था, लेकिन जब मामा ने रुपये भेजने पर जोर दिया तो उन्हें जमे पड़े। सदन रोज डाकघर जाता, डाकिये से बारबार पूछता। आखिर चौथे दिन २५) का मनीआर्डर आया। डाकियां उसे पहचानता था, रुपये मिलने में कोई कठिनाई न हुई। सदन हर्षसे फूला न समाया। सन्ध्या को बाजार से एक उत्तम रेशमी साड़ी मोल ली। लेकिन यह शंका हो रही थी कि कही सुमन इसे नापसन्द न करे। वह कुँवर बन चुका था, इसलिए ऐसी तुच्छ भेंट देते हुए झेंपता था। साड़ी जेब में रख बड़ी देर तक घोड़े पर इधर-उधर टहलता रहा। खाली हाथ वह सुमन के यहाँ नित्य बेधड़क चला जाया करता था, पर आज यह भेंट लेकर जाने में संकोच होता था। जब खूब अन्धेरा हो गया तो मन को दृढ़ करके कोठे पर चढ़ गया और साड़ी चुप के से जेब से निकालकर शृंगारदान पर रख दी। सुमन उसके इस विलंब से चिंतित हो रही थी: उसे देखते ही फूल के समान खिल गई, बोली, यह क्यों लाये? सदन ने झेंपते हुए कहा, कुछ नहीं, आज एक साड़ी नजर आ गई, मुझे अच्छी मालूम हुई, ले ली, यह तुम्हारी भेंट है। सुमन मुस्करा कर कहा-आज इतनी देरतक राह दिखाई, क्या यह उसका प्रायश्चित है? यह कहकर उसने साड़ी को देखा। सदन की वास्तविक अवस्था के विचारसे वह बहुमूल्य कही जा सकती थी।

सुमन के मन में प्रश्न हुआ कि इतने रुपये इन्हें मिले कहाँ? कहीं घरसे तो नही उठा लाये? शर्माजी इतने रुपये क्यों देने लगे? या इन्होंने उनसे कोई बहाना करके ठगे होगे या उठा लाये होगे। उसने विचार किया कि साड़ी लौटा दूँ, लेकिन उससे उसके दुःखी हो जाने का भय था। इसके साथही साड़ी को रख लेने से उसके दुरुत्साह के बढ़नेकी आंशका थी। निदान उसने निश्चय किया कि इसे अबकी बार रख लूँ, पर भविष्य के लिये चेतावनी दे दूँ। बोली, इस अनुग्रह से कृतार्थ हुई, लेकिन आपसे मैं भेंट की भूखी नहीं, आपकी यही कृपा क्या कम है कि आप यहाँ तक आने का कष्ट करते है? मैं केवल आपकी कृपादृष्टि चाहती हूँ।

लेकिन जब इस पारितोषिक से सदन का मनोरथ पूरा न हुआ और सुमनके बर्ताव में उसे कोई अन्तर न दिखाई दिया तो उसे विश्वास हो गया गोया कि मेरा उद्योग निष्फल हुआ। वह अपने मन में लज्जित हुआ कि मैं एक तुच्छ भेंट देकर उससे इतने बड़े फलकी आशा रखता हूँ, जमीन से उचककर आकाशसे तारे तोड़ने की चेष्टा करता हूँ। अतएव वह कोई मूल्यवान् प्रेमोपहार देनेकी चिन्ता मे लीन हो गया। मगर महीनों तक उसे इसका कोई अवसर न मिला।

एक दिन वह नहाने बैठा, तो साबुन न था। वह भीतर के स्नानालय में साबुन लेने गया । अन्दर पैर रखते ही उसकी निगाह ताकपर पड़ी, उसपर एक कंगन रखा हुआ था। सुभद्रा अभी नहाकर गई थी, उसने कंगन उतारकर रख दिया था, लेकिन चलते समय उसकी सुध न रही। कचहरीका समय निकट था, वह रसोई में चली गई । कंगन वही धरा रह गया। सदनने उसे देखते ही लपकर उठा लिया। इस समय उसके मनमे कोई बुरा भाव न था? उसने सोचा, चाचीको खूब हैरान करके तब दूंगा; अच्छी दिल्लगी रहेगी। कंगनको छिपाकर बाहर लाया और संदूक में रख दिया। सुभद्रा भोजन से निवृत होकर लेट रही, आलस्य आया, सोई तो तीसरे पहरको उठी। इसी बीच में पंडितजी कचहरी से आ गये, उनसे बातचीत करने लगी, कंगन का ध्यान ही न रहा। सदन कई बार भीतर गया कि देखू इसकी कोई चर्चा हो रही है या नहीं, लेकिन उसका कोई जिक्र न सुनाई दिया। सन्ध्या समय जब वह सैर करने के लिये तैयार हुआ तो एक आकस्मिक विचारसे प्रेरित होकर उसने वह कंगन जेब में रख लिया । उसने सोचा, क्यों न यह कंगन सुमनबाई की नजर करूँ ? यहाँ तो मुझसे कोई पूछेगा ही नहीं और अगर पूछा भी गया तो कह दूंगा, मैं नहीं जानता। चाची समझेगी नौकरों में से कोई उठा ले गया होगा। इस तरह के कुविचारों ने उसका संकल्प दृढ़ कर दिया । उसका जी कही सैर करने मे न लगा । वह उपहार देने के लिए व्याकुल हो रहा था । नियमित समय से कुछ पहले ही घोड़े को दालमंडी की तरफ फेर दिया । यहाँ उसने एक छोटा सा मखमली बक्स लिया, उसमें कंगन को रखकर सुमनके यहाँ जा पहुँचा । वह इस बहुमूल्य वस्तुको इस प्रकार भेट करना चाहता था मानो वह कोई अति सामान्य वस्तु दे रहा हो । आज वह बहुत देर तक बैठा रहा। सन्ध्या का समय उसने उसके लिये निकाल रखा था किन्तु आज प्रेमालाप में भी उसका जी न लगता था। उसे चिंता प्रस्ताव तो बहुत उत्तम है, लेकिन यह बताइये, सुमन को आप रखना कहाँ चाहते है?

बिट्ठलदास—विधवाश्रम में।

बलभद्र-आश्रम सारे नगर में बदनाम हो जायेगा, और संभव है कि अन्य विधवाये भी छोड़ भागे।

बिट्ठल मैं-तो अलग मकान लेकर रख दूँगा।

बलभद्र-मुहल्ले के नवयुवकों मे छुरी चल जायगी।

विठ्ठल-तो फिर आप ही कोई उपाय बताइये।

बलभद्र-मेरी सम्पत्ति तो यह है कि आप इस तामझाम में न पड़े। जिस स्त्री को लोकनिंदा की लाज नही, उसे कोई शक्ति नही सुधार सकती। यह नियम है कि जब हमारा कोई अगं विकृत होता है तो उसे काट डालते हैं, जिससे उसका विष समस्त शरीर को नष्ट न कर डाले। समाज में भी उसी नियम का पालना करना चाहिए। मैं देखता हूँ कि आप मुझसे सहमत नहीं है, लेकिन मेरा जो कछ विचार था वह मैने स्पष्ट कह दिया। आश्रम की प्रबन्धकारिणी सभा का एक मेम्बर में भी तो हूँ? मैं किसी तरह इस बेश्या को आश्रम में रखने की सलाह न दूँगा।

बिट्ठलदास ने रोष से कहा सारांश यह कि इस काम में आप मुझे कोई सहायता नही दे सकते? अब आप जैसे महापुरुषो का यह हाल है। तो दूसरो से क्या आशा हो सकती है। मैंने आपका बहुत समय नष्ट किया, इसके लिये मुझे क्षमा कीजियेगा।

यह कहकर बिट्ठलदास उठ खड़े हुए ओर सेठ चिम्मनलाल की सेवा में पहुँचे। यह सॉवले रगं के बेडौल मनुष्य थे। बहुत ही स्थूल ढीले ढाले, शरीर से हाड़ की जगह माँस और माँस की जगह वायु भरी हुई थी। उनके विचार भी शरीर के समान बेडौल थे। वह ऋषि-धर्म-सभा के सभापति, रामलीला कमेटी चेयरमैन और रासलीला परिषद् के प्रबंधकर्त्ता थे। राजनीति को विषभरा साँप समझते थे और समाचार पत्रो को साँप की बांबी। उच्च अधिकारियो से मिलने की धुन थी। अंग्रजों समाज से उनका