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सेवासदन/३०

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १३२ से – १४४ तक

 

वह दबती है, लेकिन मामी से नहीं दबती और ममेरी वहिनों को तो वह तुरकी वतुरकी जवाब देती है। अब शान्ता वह गाय है जो हत्या भय के बलपर दूसरे का खेत चरती है।

इस तरह एक वर्ष और बीत गया। उमानाथ ने बहुत दौड़धूप की कि उसका विवाह कर दें, लेकिन जैसा सस्ता सौदा वह करना चाहते थे, वह-कही ठीक न हुआ। उन्होने थाने, तहसील में जोड़तोड़ लगाकर २००, का चन्दा करा लिया था। मगर इतने सस्ते वर कहाँ? जान्हवी का वश चलता तो वह शान्ता को किसी भिखारी के गले बाँधकर अपना पिण्ड छुड़ा लेती, लेकिन उमानाथ ने अबकी पहली बार उसका विरोध किया और सुयोग्य वर ढूंढते रहे। गंगाजली के बलिदान ने उनकी आत्मा को बलवान बना दिया।

२४

सार्वजनिक संस्याएँ भी प्रतिभाशाली मनुष्यों की मुहताज होती है। यद्यपि विट्ठलदासके अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्राय:सामान्य अवस्था के लोग थे। ऊँची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे। पद्मसिंह के सम्मिलित होते ही इस संस्था में जान पड़ गई। नदी की पतली बार उमड़ पडी। बड़े आदमियों मे उनकी चर्चा होने लगी। लोग उनपर कुछ-कुछ विश्वास करने लगे?

पद्मसिंह अकेले न आये। बहुवा किसी काम को अच्छा समझकर भी हम उसमें हाथ लगाते हुए डरते है, नक्कू बन जाने का भय लगा रहता है। हम बड़े आदमियों के आ मिलने की राह देखा करते है। ज्योंही किसी ने रास्ता खोला, हमारी हिम्मत बँध जाती है, हमको हँसी का डर नही रहता। अकेले हम अपने घर में भी डरते हैं, दो होकर जंगलो में भी निर्भय रहते है। प्रोफेसर रमेशदत्त, लाला भगतराम और मिस्टर रुस्तम भाई गुप्तरूप से विट्ठलदासकी सहायता करते रहते थे। अब वह खुले पड़े। सहायकों की संख्या दिनोंदिन बढ़ने लगी।

विट्ठलदास सुधार के विषय में मृदुभाषी बनना अनुचित समझते थे, इसलिए उनकी बात रुचिकर न होती थी, मींठी नीद सोने वालों को उनका कठोर नाद अप्रिय लगता था। विट्ठलदास को इसकी चिन्ता न थी।

पद्मसिंह धनी मनुष्य थे। उन्होंने बड़े उत्साह से वेश्याओं को शहर मुख्य स्थानों से निकालने के लिए आन्दोलन करना शुरू किया। म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों में दो चार सज्जन विट्ठलदास भक्त भी थे। किन्तु वे इस प्रस्ताव को कार्य रूप में लाने के लिए यथेष्ट साहस न रखते थे। समस्या इतनी जटिल थी कि उसकी कल्पना ही लोगों को भयभीत कर देती थी। वे सोचते थे कि इस प्रस्ताव को उठाने से न मालूम शहर में क्या हलचल मचे शहरके कितने ही रईस, कितने ही राज्यपदाधिकारी, कितने ही सौदागर इस प्रेम मंण्डी से सम्बन्ध रखते थे। कोई ग्राहक था, कोई पारखी, उन सबसे बैर मोल लेने का कौन साहस करता? म्युनिसिपैलिटीके अधिकारी उनके हाथों में कठपुतली के समान थे।


पद्मसिंहने मेम्बरो से मिलमिलाकर उनका ध्यान इस प्रस्ताव की ओर आकर्षित किया। प्रभाकरराव की तीव्र लेखनी ने उनकी बडी सहायता की। पैम्फलेट निकाले गये और जनताको जागृत करनेके लिए व्याख्यानों का कम बाँधा गया। रमेशदत्त और पद्मसिंह इस विषय में निपुण थे। इसका भार उन्होंने अपने सिर ले लिया। अब आन्दोलन ने एक नियमित रूप धारण किया।

पद्मसिंह ने यह प्रस्ताव उठा तो दिया, लेकिन वह इसपर जितना ही विचार करते थे, उतने ही अन्धकार में पड़ जाते थे। उन्हे यह विश्वास न होता था कि वेश्कयाओं निवसनसे आशातीत उपकार हो सकेगा। संभव है, उपकारके बदले अपकार हो। बुराइयो का मुख्य उपचार मनुष्य का सट्ठन है। इसके बिना कोई उपाय सफल नही हो सकता ।कभी-कभी वह सोचते-सोचते हताश हो जाते। लेकिन इस पक्ष के एक सभ्य बनकर वे आप सन्देह रखते हुए भी दूसरो पर इसे प्रकट न करते थे। जनताके सामने तो उन्हें सुधारक बनते हुए सकोच न होता था, लेकिन अपने मित्रों और सज्ज नोके सामने वह दृह न रह सकते। उनके सामने आना शर्माजी के लिए वही कठिन परीक्षा थी। कोई कहता, किस फेर में पड़े हो, विट्ठलदास के चक्कर में तुम भी आ गये? चैन से जीवन व्यतीत करो। इन सब झमेलो में क्यों व्यर्थ पड़ते हो? कोई कहता, यार मालूम होता है, तुम्हें किसी औरत ने चरका दिया है, तभी तुम वेश्याओं पीछे इस तरह पड़े हो? ऐसे मित्रों के सामने आदर्श और उपकारकी बातचीत करना अपनको बेवकूफ बनाना था।

व्याख्यान देते हुए भी जब शर्मा जी कोई भावपूर्ण बात कहते करुणात्मक दृथ्य दिखाने की चेष्टा करते तो उन्हें शब्द नही मिलते थे, और शब्द मिलते तो उन्हें निकालते हुए शर्माजी को बड़ी लज्जा आती थी। यथार्य में बह इस रस में पगे नहीं थे। वह जब अपने भावशैथिल्यकी विवेचना करते तो उन्हें ज्ञात होता था कि मेरा हृदय प्रेम और अनुराग से खाली है।

कोई व्याख्यान समाप्त कर चुकने पर शर्माजी को यह जानने की उतनी इच्छा नही होती थी कि श्रोताओं पर इसका क्या प्रभाव पड़ा, जितनी इसकी कि व्याख्यान सुन्दर, सप्रमाण और ओजपूर्ण था या नहीं।

लेकिन इन समस्याओं के होते हुए भी यह आन्दोलन दिनों-दिन बढ़ता जाता था। यह सफलता शमजी कें अनुराग और विश्वास में कुछ कम उत्साहवर्धक न थी।

सदनसिंह के विवाह को अभी दो मास थे। घर की चिन्ताओं से मुक्त होकर शर्माजी अपनी पूरी शक्ति से इस आन्दोलन में प्रवृत्त हो गये। कचहरी के काम में उनका जी न लगता। वह भी वे प्रायः इन्हीं चर्चाओं में पड़े रहते। एक ही विषय पर लगातार सोचते विचारते रहने से उस विषय से प्रेम हो जाया करता है। धीरे-धीरे शर्माजी के हृदय में प्रेमका उदय होने लगा।

लेकिन जब यह विवाह निकट आ गया तो शर्माजी का उत्साह कुछ क्षीण होने लगा। मन में यह समस्या उठी कि भैया यहाँ वेश्याओं के लिये अवश्य ही मुझे लिखेंगे उस समय में क्या कहूँगा? नाच बिना सभा सूनी रहेगी, दूर दूर: गाँवो से लोग नाच देखने आवेंगे नाच न देखकर उन्हें निराशा होगी, भाई साहब बुरा मानेंगे, ऐसी अवस्था में मेरा क्या कर्तव्य है? भाई साहब को इस कुप्रयासे रोकना चाहिए। लेकिन क्या में इस दुष्कर कार्य में सफल हो सकूँगा? बड़ो के सामने न्याय और सिद्धान्त की बातचीत असंगत-सी जान पड़ती है। भाई साहब के मन से बड़े बड़े हौसले है, इन हौसलों के पूरे होने में कुछ भी कसर रही तो उन्हे दुःख होगा। लेकिन कुछ भी हो, मेरा कर्तव्य यही है कि अपने सिद्धांत का पालन करें।

यद्यपि उनके इस सिद्धान्त पालन से प्रसन्न होनेवालों की संख्या बहुत कम थी और अप्रसन्न होने वाले बहुत थे, तथापि शर्माजी ने इन्ही गिने-गिनाये मनुष्यों को प्रसन्न रखना उत्तम समझा। उन्होने निश्चय कर लिया कि नाच न ठीक करूंगा। अपने घर में ही सुधार न कर सका तो दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है।

यह निश्चय करके शर्माजी बारात की सजावट सामान जुटाने लगे। वह ऐसे आनन्दोत्सवों में किफायत करना अनुचित समझते थे। इसके साथ ही वह अन्य सामग्रियों के बाहुल्य से नाच की कसर पूरी करना चाहते थे, जिसमें उनपर किफायत का अपराध न लगे।

एक दिन विट्ठलदासने कहा, इन तैयारियो में आपने कितना खर्च किया?

शर्मा—इसका हिसाब लौटने पर होगा।

विट्ठलदास--तब भी दो हजार से कम तो न होगा।

शर्मा—हाँ, शायद कछ इससे अधिक हो। मदन-अच्छा,यह बात है। भला किसी तरह लोगों की आखें तो खुली। मैं भी इस प्रयाको निन्द्य समझता हूँ, लेकिन नक्कू नहीं बनना चाहता। जब सब लोग छोड़ देगें तो मैं भी छोड़ दूँगा, मुझको ऐसी क्या पड़ी है कि सबके आगे चलूं। मेरे एक ही लड़का है, उसके विवाह में मन के सब हौसले पूरे करना चाहता हूँ। विवाह बाद में भी तुम्हारा मत स्वीकार कर लूँगा। इस समय मुझे अपने पुराने ढंगपर चलने दो, और यदि बहुत कष्ट न हो तो सवेरे की गाड़ी से चले जाओ और बीड़ा देकर उधर से ही अमोला चले जाना। तुमसे इसलिए कहता हूँ कि तुम्हें वहाँ लोग जानते हैं। दूसरे जायेंगे तो लुट जायेंगे।

पद्मसिंह ने सिर झुका लिया और सोचने लगे। उन्हें चुप देखकर मदन सिंह ने तेवर बदलकर कहा, चुप क्यों हो, क्या जाना नही चाहते?

पद्मसिंहने अत्यन्त दीन भाव से कहा—भैया, आप यदि मुझे क्षमा करें तो .......

मदन नहीं नहीं, मैं तुम्हें मजबूर नहीं करता, नहीं जाना चाहते तो मत जाओ। मुन्शी बैजनाथ, आपको कष्ट तो होगा, पर मेरी खातिर से आप ही जाइय।

बैजनाथ---मुझे कोई उज्र नही है।

मदन—उधर से ही अमोला चले जाइयेगा। आपका अनुग्रह होगा।

बैजनाथ---आप इतमीनान रखें, मैं चला जाऊंगा।

कुछ देर तीनों आदमी चुप बैठे रहे। मदनसिंह अपने भाई को कृतघ्न समझ रहे थे। बैजनाथ को चिन्ता हो रही थी कि मदनसिंह का पक्ष ग्रहण करने से पद्मसिंह बुरा तो न मान जायेंगे और पद्मसिंह अपने बड़े भाई की अप्रसन्नता भय से दबे हुए थे। सिर उठाने का साहस नहीं होता था। एक ओर भाई की अप्रसन्नता थी दूसरी ओर अपने सिद्धान्त और न्याय का बलिदान। एक ओर अन्धेरी घाटी थी, दूसरी ओर सीधी चट्टान, निकलने का कोई मार्ग न था। अन्त में उन्होने डरते-डरते कहा, भाई साहब, आपने मेरी भूले कितनी ही बार क्षमा की है, मेरी एक ढिठाई और क्षमा कीजिये। आप जब नाच के रिवाजको दूषित समझते है तो उसपर इतना जोर क्यों देते है?

मदनसिंह झुझलाकर बोले, तुम तो ऐसी बाते करते हो मानो इस देश में पैदा ही नहीं हुए, जैसे किसी अन्य देश से आये हो! एक यही क्या, कितनी कुप्रथाएँ है, जिन्हे दूषित समझते हुए भी उनका पालन करना पड़ता है। गाली गाना कौन सी अच्छी बात है? दहेज लेना कौन सी अच्छी बात है? पर लोकरीति पर न चले तो लोग उँगलियाँ उठाते है। नाच न ले जाऊँ तो लोग यही कहेंगे कि कंँजूसी के मारे नहीं लाये। मर्यादा में बट्टा लगेगा। मेरे सिद्धान्त को कौन देखता है?

पद्मसिंह बोले, अच्छा, अगर इसी रुपये को किसी दूसरी उचित रीति से खर्च कर दीजिये तब तो किसी को कंजूसी की शिकायत न रहेगी! आप दो डेरे ले जाना चाहते है। आजकल लग्न तेज है, तीन सौ से कम खर्च न पड़ेगा आप तीन सौ की जगह पाँच सौ रुपय के कम्बल लेकर अमोला के दीन दरिद्रो में बाँट दीजिये तो कैसा हो? कम से कम दो सौ मनुष्य आपको आाशीर्वाद देंगे और जबतक कम्बल का एक धागा भी रहेगा आपका यश गाते रहेंगे। यदि यह स्वीकार न हो तो अमोला में २००) की लागत से एक पक्का कुआँ बनवा दीजिये। इसी से चिरकालतक आपकी कीति बनी रहेगी। रूपयो का प्रबन्ध में कर दूँगा।

मदनसिंह ने बदनामी का जो सहारा लिया था वह इन प्रस्तावो के सामने न ठहर सका। वह कोई उत्तर सोच रहे थे कि इतनमे बैजनाथ यद्यपि उन्हें पद्मसिंह के बिगड जाने का भय था तथापि इस बात में अपनी बुद्धिकी प्रकांडता दिखाने की इच्छा उस भय से अधिक बलवती थी इसलिए बोले, भैया, हर काम के लिए एक अवसर होता है, दान के अवसरपर दान होना चाहिए, नाचके अवसरपर नाच। बेजोड़ बात कभी भली नही लगती। और फिर शहर के जानकार आदमी हों तो एक बात भी है। देहात के उजड्ड जमींदारोके सामने आप कम्बल बाँटने लगेगे तो वह आपका मुँह देखेंगे और हँसेंगे। मदनसिंह निरुतर से हो गये थे। मुंशी बैजनाथ के इस कथन से खिल उठे। उनकी ओर कृतज्ञता से देखकर वोले, हाँ और क्या होगा? बसन्त में मलार गानेवाले को कौन अच्छा कहेगा? कुसमय की कोई बात अच्छी नहीं होती। इसी से तो मैं कहता हूँ कि आप सबेरे चले जाइये और दोनों डेरे ठीक कर आइये।

पद्मसिंह ने सोचा, यह लोग तो अपने मन की करेगे ही, पर देखूँ किन युक्तियों से अपना पक्ष सिद्ध करते है। भैया को मुंशी बैजनाथ पर अधिक विश्वास है, इस बात से भी उन्हें बहुत दुख हुआ। अतएव वह नि:संकोच होकर बोले, तो यह कैसे मान लिया जाय कि विवाह आनन्दोत्सव ही का समय है? मैं तो समझता हूँ, दान और उपकार के लिए इससे उत्तम और कोई अवसर न होगा। विवाह एक धार्मिक व्रत है, एक आत्मिक प्रतिज्ञा है, जब हम गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते है, जब हमारे पैरो में धर्म की बेड़ी पड़ती है, जब हम सांसारिक कर्तव्य के सामने अपने सिर को झुका देते है, जब जीवन का भार और उसकी चिन्ताएँ हमारे सिरपर पड़ती है, तो ऐसे पवित्र संस्कार के अवसर पर हमको गाम्भीर्य से काम लेना चाहिए। यह कितनी निर्दयता है कि जिस समय हमारा आत्मीय युवक ऐसा कठिन व्रत धारण कर रहा हो उस समय हम आनन्दोत्सव मनाने बैठे। वह इस गुरुतर भार से दवा जाता हो और हम नाच-रंग में मस्त हो। अगर दुर्भाग्य से आज-कल यह उल्टी प्रथा चल पड़ी है तो क्या यह आवश्यक है कि हम भी उसी लकीपर चलें? शिक्षा का कम से कम इतना प्रभाव तो होना चाहिए कि धार्मिक विषयो में हम मूर्खों की प्रसन्नता को प्रधान न समझे।

मदनसिंह फिर चिन्तासागर में डूबे। पद्मसिंह का कथन उन्हें सर्वथा-सत्य प्रतीत होता था, पर रिवाज के मामले न्याय, सत्य और सिद्वान्त सभी को सिर झुकाना पडता है। उन्हें संशय था कि मुन्शी बैजनाथ अब कुछ उत्तर न दे सकेंगे। लेकिन मुन्शीजी अभी हार नहीं मानना चाहते थे। वह बोले, भैया, तुम वकील हो, तुमसे बहस करने की लियाकत हममे कहाँ है? लेकिन जो बात सनातन से होती चली आई है, चाहे वह उचित हो या अनुचित उसके मिटाने से बदनामी अवश्य होती है। आखिर हमारे 'पूर्वज निरे जाहिल-जघाट तो थे नहीं, उन्होंने कुछ समझकर ही तो इस रस्म का प्रचार किया होगा।

मदनसिंह को यह युक्ति न सूझी थी। बहुत प्रसन्न हुए। बैजनाथ की ओर सम्मानपूर्ण भाव से देख कर बोले, अवश्य। उन्होने जो प्रथाएँ चलाई है, उन सबमें कोई न कोई बात छिपी रहती है, चाहे वह आजकल हमारी समझ में न आवे। आजकल के नये विचारवाले लोग उन प्रथाओं के मिटाने में ही अपना गौरव समझते हैं। अपने सामने उन्हें कुछ समझते ही नहीं। वह यह नही देखते कि हमारे पास जो विद्या, ज्ञानविचार और आचरण है, वह सब उन्ही पूर्वजों की कमाई है। कोई कहता है, यज्ञोपवीत से क्या लाभ? कोई शिखा की जड़ काटने पर तुला हुआ है, कोई इसी धुन में है कि शूद्र और चाण्डाल सब क्षत्रिय हो जायें, कोई विधवाओं के विवाह का राग अलापता फिरता है और तो और कुछ ऐसे महाशय भी है जो जाति और वर्णकों भी मिटा देना चाहते हैं। तो भाई यह सब बातें हमारे मान की नहीं है। जो जिन्दा रहा तो देखूंगा कि यूरोप का पौधा यहाँ कैसे कैसे फल लाता है? हमारे पूर्वजों ने खेती को सबसे उत्तम कहा है, लेकिन आजकल यूरोप की देखा देखी लोग मिल और मशीनों के पीछे पड़े हुए है। मगर देख लेना, ऐसा कोई समय आवेगा कि यूरोपवाले स्वयं चेतेगें और मिलो को खोद खोदकर खेत बनावेंगे। स्वाधीन कृषक सामने मिलके मजदूरों की क्या हस्ती। वह भी कोई देश है, जहाँ चाह से खाने की वस्तुएँ आवे तो लोग भूखों मरे। जिन देशो में जीवन ऐसे उलटे नियमों पर चलाया जाता है, वह हमारे लिए आदर्श नहीं बन सकते। शिल्प और कलाकौशल का यह महल उसी समय तक है जब तक संसार में निर्बल असमर्थ जातियाँ वर्तमान है। उनके गले सस्ता माल महकर यूरोप वाले चैन करते है। पर ज्योंही ये जातियाँ चौकेगी, यूरोप की प्रभुता नष्ट हो जायगी। हम यह नहीं कहते कि यूरोपवालों से कुछ मत सीखो। नहीं, वह आज संसार के स्वामी है और उनमें बहुत से दिव्य गुण है। उनके गुणों को ले लो, दुर्गुणों को छोड़ दो। हमारे अपने रीतिरिवाज हमारी अवस्था के अनुकूल है। उनमे काट-छाँँट करने की जरूरत नहीं।

मदनसिंह ने ये बातें कुछ गर्व से की, मानो कोई विद्वान पुरुष अपने निज के अनुभव प्रकट कर रहा है, पर यथार्थ में ये सुनी सुनाई बातें थी जिनका मर्म वह खुद भी न समझते थे। पद्मसिंह ने इन बातों को बड़ी धीरता के साथ सुना, पर उनका कुछ उत्तर न दिया। उत्तर देने से बात बढ़ जाने का भय था। कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है। वाद में नम्रता और विनय प्रवल युक्तियों मे भी अधिक प्रभाव डालती है। अतएव वह बोले,तो में ही चला जाऊँगा, मुन्शी बैजनाथ को क्यों कष्ट दीजियेगा। यह चले जायेंगे तो यहाँ बहुत-सा काम पड़ा रह जायगा। आइये, मुन्शी जी हम दोनों आदमी बाहर चले, मुझे आपसे अभी कुछ बात करनी है।

मदनसिंह—तो यही क्यों नही करते? कहो तो मैं ही हट जाऊँ।

पद्म—जी नहीं कोई ऐसी बात नही है पर ये बातें मै मुन्शी जी से अपनी शंका-समाधान करने के लिए कर रहा हूँँ। हाँँ, भाई साहब बतलाइये अमोला मे दर्शको की संख्या कितनी होगी? कोई एक हजार। अच्छा आपके विचार में कितने इनमें दरिद्र किसान होंगे, कितने जमींदार?

बैजनाथ—ज्यादा किसान ही होगे, लेकिन जमीदार भी दो-तीन सौ से कम न होंगे।

पद्म—अच्छा, आप यह मानते है कि दीन किसान नाच देखकर उतने प्रसन्न न होगे जितने धोती या कम्बल पाकर?

बैजनाथ भी सशस्त्र थे। बोले, नहीं में यह नहीं मानता। अधिकतर ऐसे किसान होते है जो दान लेना कभी स्वीकार न करेगे, वह जलसा देखने आयेंगे और जलसा अच्छा न होगा तो निराश होकर लौट जायेंगे।

पद्मसिंह चकराये। सुकराती प्रश्नों का जो क्रम उन्होंने मन में बाँँध रक्खा था वह बिगड़ गया। समझ गये कि मुन्शी जी सावघान है। अब कोई दूसरा दाव निकालना चाहिए। बोले आप यह मानते है कि बाजार में वही वस्तु दिखाई देती है जिसके ग्राहक होते है और ग्राहकों न्यूनाधिक होने पर वस्तु का न्यूनाधिक होना निर्भर है।

बैजनाथ-—जी हां, इसमें कोई सन्देह नहीं।

पद्मसिंह-—इस विचार से किसी वस्तु के ग्राहक ही मानों उसके बाजार में आने के कारण होते है। यदि कोई मॉंस न खाय तो बकरे की गर्दन पर छुडी़ क्यों चले।

बैजनाथ समझ रहे थे कि यह मुझे किसी दूसरे पेंच में ला रहे है, लेकिन उन्होंने अभी तक उसका मर्म न समझा था। डरते हुए बोले, हाँ, बात तो यही है।

पद्म-जब आप यह मानते है तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि जो लोग वेश्याओं को बुलाते है, उन्हे धन देकर उनके लिए सुख विलास की सामग्री जुटाते और उन्हें ठाट-बाट से जीवन व्यतीत करने योग्य बनाते है, वे उस अधिकार से कम पाप के भागी नहीं है जो बकरे की गर्दन पर छुरी चलाता है। यदि में वकीलों को ठाट के साथ टमटम दौड़ाते हुए न देखता तो क्या आज से वकील होता?

बैजनाथ ने हंसकर कहा भैया, तुम घुमा फिराकर अपनी बात मनवा लेते हो, लेकिन बात जो कहते हो वह सच्ची है।

पद्म-—ऐसी अवस्था में क्या यह समझना कठिन है कि सैकड़ों स्त्रियाँ जो हर रोज बाजार में झरोखों में बैठी दिखाई देती है, जिन्होंने अपनी लज्जा और सतीत्व को नष्ट कर दिया है, उनके जीवन का सर्वनाश करने वाले ही लोग है। वह हजारों परिवार जो आये दिन इस कुवासना की भंवर में पड़कर विलुप्त हो जाते है, ईश्वर के दरबार हमारा ही दामन पकड़ेगे। जिस प्रथा से इतनी बुराइयाँ उत्पन्न हो उसका त्याग करना क्या अनुचित है?

मदनसिंह बड़े ध्यान से यह बातें सुन रहे थे। उन्होंने इतनी उच्च शिक्षा नहीं पाई थी जिससे मनुष्य विचार स्वातन्य की धुन में सामाजिक बन्धनों

११ और नैतिक सिद्धान्तों का शत्रु हो जाता है। नहीं, वह साधारण बुद्धि के मनुष्य थे। कायल होकर बतबढ़ाव करते रहना उनकी सामर्थ्य से बाहर था। मुस्कुराकर मुन्शी बैजनाथ से बोले, कहिये मुन्शीजी, अब क्या कहते है? है कोई निकलने का उपाय?

बैजनाथ ने हँसकर कहा, मुझे तो रास्ता नहीं सूझता।

मदन—अजी कुछ कठहुज्जती ही करो।

बैजनाथ-कुछ दिनों वकालत पढ़ ली होती तो यह भी करता। यहाँ अब कोई जवाब ही नहीं सूझता। क्यों भैया पद्मसिंह, मान लो तुम मेरी जगह होते तो इस समय क्या जवाब देते?

पद्मसिंह-(हँसकर) जवाब तो कुछ न कुछ जरूर ही देता, चाहे तुक मिलती या न मिलती।

मदन—इतना तो मैं भी कहूँँगा कि ऐसे जलसो से मन अवश्य चंचल हो जाता है। जवानी में जब मैं किसी जलसो से लौटता तो महीनों तक उसी वेश्या के रंग-रूप हाव-भाव की चर्चा किया करता।

बैजनाथ—भैया, पद्मसिंह के ही मन की होने दीजिये, लेकिन कम्बल अवश्य बँटवाइये।

मदन-एक कुआँँ बनवा दिया जाय तो सदा के लिए नाम हो जायगा। इधर भाँवर पड़ी उधर मैंने कुएँँ की नींव डाली।

२५

बरसात के दिन थे, घटा छाई हुई थी। पंण्डित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तटपर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गाँवो का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और सन्ध्या होने से पहले चुनार के पास एक गाँव में जाना चाहते थे। उन्हें पता मिला था कि उस गाँव में एक सुयोग्य वर है। उमानाथ आज ही अमोला लौट जाना चाहते थे, क्योंकि उनके गाँव में एक छोटी सी फौजदारी हो गई थी और थानेदार साहब कल तहकीकात करने आनेवाले थे। मगर अभी तक नाव उसी पार खड़ी थी। उमानाथ को मल्लाहों पर क्रोध आ रहा था। इससे अधिक क्रोध उन मुसाफिरों पर आ रहा था जो उस पार धीरे-धोरे नावपर बैठने आ रहे थे। उन्हें दौड़ते हुए आना चाहिए था, जिसमें उमानाथ को जल्द नाव मिल जाय। जब खड़े-खड़े बहुत देर हो गई तो उमानाथ ने जोर से चिल्लाकर मल्लाहों को पुकारा। लेकिन उनकी कण्ठ-घ्वनि को मल्लाहों के कान में पहुँचने की प्रबल आकांक्षा न थी। वह लहरों से खेलती हुई उन्हीं में समा गई।

इतने में उमानाथ ने एक साधु को अपनी ओर आते देखा। सिरपर जटा, गले में रुद्राक्ष की माला, एक हाथ मे सुलफे की लम्बी चिलम, दूसरे हाथ में लोहे की छड़ी, पीठपर एक मृगछाला लपेटे हुए आकर नदी के तटपर खड़ा हो गया। वह भी उस पार जाना चाहता था।

उमानाथ को ऐसी भावना हुई कि मैंने इस साधु को कहीं देखा है, पर याद नही पड़ता कि कहाँ। स्मृति पर एक परदा-सा पड़ा हुआ था।

अकस्मात् साधु ने उमानाथ की ओर ताका और तुरन्त उन्हे प्रणाम करके बोला, महाराज घर पर तो सब कुशल है, यहाँ कैसे आना हुआ।

उमानाथ के नेत्र पर से परदा हट गया। स्मृति जागृत हो गई। हम रूप बदल सकते है, शब्द को नहीं बदल सकते। यह गजाधर पांडे थे।

जब से सुमन का विवाह हुआ था, उमानाथ कभी उसके पास नहीं गये थे। उसे मुँह दिखाने का साहस नहीं होता था। इस समय गजाधर को इस भेष में देखकर उमानाथ को आश्चर्य हुआ। उन्होनें समझा, कहीं मुझे फिर धोखा न हुआ हो। डरते हुए पूछा, शुभ नाम?

साधु-पहले तो गजाधर पांडे था, अब गजानन्द हूँ।

उमानाथ-ओहो तभी तो मे पहचान न पाता था। मुझे स्मरण होता था कि मैंने कहीं आपको देखा है, पर आपको इस भेष में देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। बाल बच्चे कहाँँ है।

गजानन्द—अब उस मायाजाल से मुक्त हो गया।

उमानाथ—सुमन कहाँ है?

गजानन्द—दालमण्डी के एक कोठेपर। उमानाथ ने विस्मित होकर गजानन्द की ओर देखा तब लज्जा से उनका सिर झुक गया। एक क्षण के बाद उन्होंने फिर पूछा, यह कैसे हुआ, कुछ बात समझ में नहीं आती?

गजानन्द—उसी प्रकार जैसे संसार में प्राय हुआ करता है। मेरी असज्जनता और निर्दयता, सुमन की चंचलता और विलास लालसा दोनों ने मिलकर हम दोनों का, सर्वनाश कर दिया। मैं अब उस समय की बातों को सोचता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि एक बड़े घर की बेटी से व्याह करने में मैंने बड़ी भूल की और इससे बड़ी भूल यह थी कि व्याह हो जाने पर उसका उचित आदर सम्मान नहीं किया। निर्धन था, इसलिए आवश्यक था कि मैं धन के अभाव को अपने प्रेम और भक्ति से पूरा करता। मैंने इसके विपरीत उससे निर्दयता का व्यवहार किया। उसे वस्त्र और भोजन का कष्ट दिया। वह चौका बरतन, चक्की चूल्हे में निपुण नहीं थी और न हो सकती थी, पर उससे यह सब काम लेता था और जरा भी देर हो जाती तो बिगड़ता था। अब मुझे मालूम होता है कि मैं ही उसके घर से निकलने का कारण हुआ, मैं उसकी सुन्दरता का मान न कर सका, इसलिए सुमन का भी मुझसे प्रेम नहीं हो सका। लेकिन वह मुझपर भक्ति अवश्य करती थी। पर उस समय में अन्धा हो रहा था। कंगाल मनुष्य धन पाकर जिस प्रकार फूल उठता है उसी तरह सुन्दर स्त्री पाकर वह संशय और भ्रम में आसक्त हो जाता है। मेरा भी यही हाल था। मुझे सुमन पर अविश्वास रहा करता था। और प्रत्यक्ष इस बात को न कहकर में अपने कठोर व्यवहार से उसके चित्त को दुखी किया करता था। महाशय, मैंने उसके साथ जो-जो अत्याचार किये उन्हें स्मरण करके आज मुझे अपनी क्रूरतापर इतना दु:ख होता कि जी चाहता है कि विष खा लूँ। उसी अत्याचार का अब प्रायश्चित कर रहा हूँ। उसके चले जानेके बाद दो-चार दिन तक तो मुझपर नशा रहा, पर जब नशा ठंडा हुआ तो मुझे बह घर काटने लगा। में फिर उस घर में न गया। एक मन्दिर में पुजारी बन गया। अपने हाथ से भोजन बनाने के कष्ट से बचा मन्दिर में दो बार सज्जन नित्य ही आ जाते है। उनके साथ रामायण आदि