सेवासदन/३२

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १३७ ] आप जब नाच के रिवाजको दूषित समझते है तो उसपर इतना जोर क्यों देते है?

मदनसिंह झुझलाकर बोले, तुम तो ऐसी बाते करते हो मानो इस देश में पैदा ही नहीं हुए, जैसे किसी अन्य देश से आये हो! एक यही क्या, कितनी कुप्रथाएँ है, जिन्हे दूषित समझते हुए भी उनका पालन करना पड़ता है। गाली गाना कौन सी अच्छी बात है? दहेज लेना कौन सी अच्छी बात है? पर लोकरीति पर न चले तो लोग उँगलियाँ उठाते है। नाच न ले जाऊँ तो लोग यही कहेंगे कि कंँजूसी के मारे नहीं लाये। मर्यादा में बट्टा लगेगा। मेरे सिद्धान्त को कौन देखता है?

पद्मसिंह बोले, अच्छा, अगर इसी रुपये को किसी दूसरी उचित रीति से खर्च कर दीजिये तब तो किसी को कंजूसी की शिकायत न रहेगी! आप दो डेरे ले जाना चाहते है। आजकल लग्न तेज है, तीन सौ से कम खर्च न पड़ेगा आप तीन सौ की जगह पाँच सौ रुपय के कम्बल लेकर अमोला के दीन दरिद्रो में बाँट दीजिये तो कैसा हो? कम से कम दो सौ मनुष्य आपको आाशीर्वाद देंगे और जबतक कम्बल का एक धागा भी रहेगा आपका यश गाते रहेंगे। यदि यह स्वीकार न हो तो अमोला में २००) की लागत से एक पक्का कुआँ बनवा दीजिये। इसी से चिरकालतक आपकी कीति बनी रहेगी। रूपयो का प्रबन्ध में कर दूँगा।

मदनसिंह ने बदनामी का जो सहारा लिया था वह इन प्रस्तावो के सामने न ठहर सका। वह कोई उत्तर सोच रहे थे कि इतनमे बैजनाथ यद्यपि उन्हें पद्मसिंह के बिगड जाने का भय था तथापि इस बात में अपनी बुद्धिकी प्रकांडता दिखाने की इच्छा उस भय से अधिक बलवती थी इसलिए बोले, भैया, हर काम के लिए एक अवसर होता है, दान के अवसरपर दान होना चाहिए, नाचके अवसरपर नाच। बेजोड़ बात कभी भली नही लगती। और फिर शहर के जानकार आदमी हों तो एक बात भी है। देहात के उजड्ड जमींदारोके सामने आप कम्बल बाँटने लगेगे तो वह आपका मुँह देखेंगे और हँसेंगे। [ १३८ ]मदनसिंह निरुतर से हो गये थे। मुंशी बैजनाथ के इस कथन से खिल उठे। उनकी ओर कृतज्ञता से देखकर वोले, हाँ और क्या होगा? बसन्त में मलार गानेवाले को कौन अच्छा कहेगा? कुसमय की कोई बात अच्छी नहीं होती। इसी से तो मैं कहता हूँ कि आप सबेरे चले जाइये और दोनों डेरे ठीक कर आइये।

पद्मसिंह ने सोचा, यह लोग तो अपने मन की करेगे ही, पर देखूँ किन युक्तियों से अपना पक्ष सिद्ध करते है। भैया को मुंशी बैजनाथ पर अधिक विश्वास है, इस बात से भी उन्हें बहुत दुख हुआ। अतएव वह नि:संकोच होकर बोले, तो यह कैसे मान लिया जाय कि विवाह आनन्दोत्सव ही का समय है? मैं तो समझता हूँ, दान और उपकार के लिए इससे उत्तम और कोई अवसर न होगा। विवाह एक धार्मिक व्रत है, एक आत्मिक प्रतिज्ञा है, जब हम गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते है, जब हमारे पैरो में धर्म की बेड़ी पड़ती है, जब हम सांसारिक कर्तव्य के सामने अपने सिर को झुका देते है, जब जीवन का भार और उसकी चिन्ताएँ हमारे सिरपर पड़ती है, तो ऐसे पवित्र संस्कार के अवसर पर हमको गाम्भीर्य से काम लेना चाहिए। यह कितनी निर्दयता है कि जिस समय हमारा आत्मीय युवक ऐसा कठिन व्रत धारण कर रहा हो उस समय हम आनन्दोत्सव मनाने बैठे। वह इस गुरुतर भार से दवा जाता हो और हम नाच-रंग में मस्त हो। अगर दुर्भाग्य से आज-कल यह उल्टी प्रथा चल पड़ी है तो क्या यह आवश्यक है कि हम भी उसी लकीपर चलें? शिक्षा का कम से कम इतना प्रभाव तो होना चाहिए कि धार्मिक विषयो में हम मूर्खों की प्रसन्नता को प्रधान न समझे।

मदनसिंह फिर चिन्तासागर में डूबे। पद्मसिंह का कथन उन्हें सर्वथा-सत्य प्रतीत होता था, पर रिवाज के मामले न्याय, सत्य और सिद्वान्त सभी को सिर झुकाना पडता है। उन्हें संशय था कि मुन्शी बैजनाथ अब कुछ उत्तर न दे सकेंगे। लेकिन मुन्शीजी अभी हार नहीं मानना चाहते थे। वह बोले, भैया, तुम वकील हो, तुमसे बहस करने की लियाकत हममे कहाँ है? लेकिन जो बात सनातन से होती चली आई है, चाहे वह उचित हो [ १३९ ] या अनुचित उसके मिटाने से बदनामी अवश्य होती है। आखिर हमारे 'पूर्वज निरे जाहिल-जघाट तो थे नहीं, उन्होंने कुछ समझकर ही तो इस रस्म का प्रचार किया होगा।

मदनसिंह को यह युक्ति न सूझी थी। बहुत प्रसन्न हुए। बैजनाथ की ओर सम्मानपूर्ण भाव से देख कर बोले, अवश्य। उन्होने जो प्रथाएँ चलाई है, उन सबमें कोई न कोई बात छिपी रहती है, चाहे वह आजकल हमारी समझ में न आवे। आजकल के नये विचारवाले लोग उन प्रथाओं के मिटाने में ही अपना गौरव समझते हैं। अपने सामने उन्हें कुछ समझते ही नहीं। वह यह नही देखते कि हमारे पास जो विद्या, ज्ञानविचार और आचरण है, वह सब उन्ही पूर्वजों की कमाई है। कोई कहता है, यज्ञोपवीत से क्या लाभ? कोई शिखा की जड़ काटने पर तुला हुआ है, कोई इसी धुन में है कि शूद्र और चाण्डाल सब क्षत्रिय हो जायें, कोई विधवाओं के विवाह का राग अलापता फिरता है और तो और कुछ ऐसे महाशय भी है जो जाति और वर्णकों भी मिटा देना चाहते हैं। तो भाई यह सब बातें हमारे मान की नहीं है। जो जिन्दा रहा तो देखूंगा कि यूरोप का पौधा यहाँ कैसे कैसे फल लाता है? हमारे पूर्वजों ने खेती को सबसे उत्तम कहा है, लेकिन आजकल यूरोप की देखा देखी लोग मिल और मशीनों के पीछे पड़े हुए है। मगर देख लेना, ऐसा कोई समय आवेगा कि यूरोपवाले स्वयं चेतेगें और मिलो को खोद खोदकर खेत बनावेंगे। स्वाधीन कृषक सामने मिलके मजदूरों की क्या हस्ती। वह भी कोई देश है, जहाँ चाह से खाने की वस्तुएँ आवे तो लोग भूखों मरे। जिन देशो में जीवन ऐसे उलटे नियमों पर चलाया जाता है, वह हमारे लिए आदर्श नहीं बन सकते। शिल्प और कलाकौशल का यह महल उसी समय तक है जब तक संसार में निर्बल असमर्थ जातियाँ वर्तमान है। उनके गले सस्ता माल महकर यूरोप वाले चैन करते है। पर ज्योंही ये जातियाँ चौकेगी, यूरोप की प्रभुता नष्ट हो जायगी। हम यह नहीं कहते कि यूरोपवालों से कुछ मत सीखो। नहीं, वह आज संसार के स्वामी है और [ १४० ] उनमें बहुत से दिव्य गुण है। उनके गुणों को ले लो, दुर्गुणों को छोड़ दो। हमारे अपने रीतिरिवाज हमारी अवस्था के अनुकूल है। उनमे काट-छाँँट करने की जरूरत नहीं।

मदनसिंह ने ये बातें कुछ गर्व से की, मानो कोई विद्वान पुरुष अपने निज के अनुभव प्रकट कर रहा है, पर यथार्थ में ये सुनी सुनाई बातें थी जिनका मर्म वह खुद भी न समझते थे। पद्मसिंह ने इन बातों को बड़ी धीरता के साथ सुना, पर उनका कुछ उत्तर न दिया। उत्तर देने से बात बढ़ जाने का भय था। कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है। वाद में नम्रता और विनय प्रवल युक्तियों मे भी अधिक प्रभाव डालती है। अतएव वह बोले,तो में ही चला जाऊँगा, मुन्शी बैजनाथ को क्यों कष्ट दीजियेगा। यह चले जायेंगे तो यहाँ बहुत-सा काम पड़ा रह जायगा। आइये, मुन्शी जी हम दोनों आदमी बाहर चले, मुझे आपसे अभी कुछ बात करनी है।

मदनसिंह—तो यही क्यों नही करते? कहो तो मैं ही हट जाऊँ।

पद्म—जी नहीं कोई ऐसी बात नही है पर ये बातें मै मुन्शी जी से अपनी शंका-समाधान करने के लिए कर रहा हूँँ। हाँँ, भाई साहब बतलाइये अमोला मे दर्शको की संख्या कितनी होगी? कोई एक हजार। अच्छा आपके विचार में कितने इनमें दरिद्र किसान होंगे, कितने जमींदार?

बैजनाथ—ज्यादा किसान ही होगे, लेकिन जमीदार भी दो-तीन सौ से कम न होंगे।

पद्म—अच्छा, आप यह मानते है कि दीन किसान नाच देखकर उतने प्रसन्न न होगे जितने धोती या कम्बल पाकर?

बैजनाथ भी सशस्त्र थे। बोले, नहीं में यह नहीं मानता। अधिकतर ऐसे किसान होते है जो दान लेना कभी स्वीकार न करेगे, वह जलसा देखने आयेंगे और जलसा अच्छा न होगा तो निराश होकर लौट जायेंगे।

पद्मसिंह चकराये। सुकराती प्रश्नों का जो क्रम उन्होंने मन में बाँँध रक्खा था वह बिगड़ गया। समझ गये कि मुन्शी जी सावघान है। अब [ १४१ ] कोई दूसरा दाव निकालना चाहिए। बोले आप यह मानते है कि बाजार में वही वस्तु दिखाई देती है जिसके ग्राहक होते है और ग्राहकों न्यूनाधिक होने पर वस्तु का न्यूनाधिक होना निर्भर है।

बैजनाथ-—जी हां, इसमें कोई सन्देह नहीं।

पद्मसिंह-—इस विचार से किसी वस्तु के ग्राहक ही मानों उसके बाजार में आने के कारण होते है। यदि कोई मॉंस न खाय तो बकरे की गर्दन पर छुडी़ क्यों चले।

बैजनाथ समझ रहे थे कि यह मुझे किसी दूसरे पेंच में ला रहे है, लेकिन उन्होंने अभी तक उसका मर्म न समझा था। डरते हुए बोले, हाँ, बात तो यही है।

पद्म-जब आप यह मानते है तो आपको यह भी मानना पड़ेगा कि जो लोग वेश्याओं को बुलाते है, उन्हे धन देकर उनके लिए सुख विलास की सामग्री जुटाते और उन्हें ठाट-बाट से जीवन व्यतीत करने योग्य बनाते है, वे उस अधिकार से कम पाप के भागी नहीं है जो बकरे की गर्दन पर छुरी चलाता है। यदि में वकीलों को ठाट के साथ टमटम दौड़ाते हुए न देखता तो क्या आज से वकील होता?

बैजनाथ ने हंसकर कहा भैया, तुम घुमा फिराकर अपनी बात मनवा लेते हो, लेकिन बात जो कहते हो वह सच्ची है।

पद्म-—ऐसी अवस्था में क्या यह समझना कठिन है कि सैकड़ों स्त्रियाँ जो हर रोज बाजार में झरोखों में बैठी दिखाई देती है, जिन्होंने अपनी लज्जा और सतीत्व को नष्ट कर दिया है, उनके जीवन का सर्वनाश करने वाले ही लोग है। वह हजारों परिवार जो आये दिन इस कुवासना की भंवर में पड़कर विलुप्त हो जाते है, ईश्वर के दरबार हमारा ही दामन पकड़ेगे। जिस प्रथा से इतनी बुराइयाँ उत्पन्न हो उसका त्याग करना क्या अनुचित है?

मदनसिंह बड़े ध्यान से यह बातें सुन रहे थे। उन्होंने इतनी उच्च शिक्षा नहीं पाई थी जिससे मनुष्य विचार स्वातन्य की धुन में सामाजिक बन्धनों

११ [ १४२ ] और नैतिक सिद्धान्तों का शत्रु हो जाता है। नहीं, वह साधारण बुद्धि के मनुष्य थे। कायल होकर बतबढ़ाव करते रहना उनकी सामर्थ्य से बाहर था। मुस्कुराकर मुन्शी बैजनाथ से बोले, कहिये मुन्शीजी, अब क्या कहते है? है कोई निकलने का उपाय?

बैजनाथ ने हँसकर कहा, मुझे तो रास्ता नहीं सूझता।

मदन—अजी कुछ कठहुज्जती ही करो।

बैजनाथ-कुछ दिनों वकालत पढ़ ली होती तो यह भी करता। यहाँ अब कोई जवाब ही नहीं सूझता। क्यों भैया पद्मसिंह, मान लो तुम मेरी जगह होते तो इस समय क्या जवाब देते?

पद्मसिंह-(हँसकर) जवाब तो कुछ न कुछ जरूर ही देता, चाहे तुक मिलती या न मिलती।

मदन—इतना तो मैं भी कहूँँगा कि ऐसे जलसो से मन अवश्य चंचल हो जाता है। जवानी में जब मैं किसी जलसो से लौटता तो महीनों तक उसी वेश्या के रंग-रूप हाव-भाव की चर्चा किया करता।

बैजनाथ—भैया, पद्मसिंह के ही मन की होने दीजिये, लेकिन कम्बल अवश्य बँटवाइये।

मदन-एक कुआँँ बनवा दिया जाय तो सदा के लिए नाम हो जायगा। इधर भाँवर पड़ी उधर मैंने कुएँँ की नींव डाली।

२५

बरसात के दिन थे, घटा छाई हुई थी। पंण्डित उमानाथ चुनारगढ़ के निकट गंगा के तटपर खड़े नाव की बाट जोह रहे थे। वह कई गाँवो का चक्कर लगाते हुए आ रहे थे और सन्ध्या होने से पहले चुनार के पास एक गाँव में जाना चाहते थे। उन्हें पता मिला था कि उस गाँव में एक सुयोग्य वर है। उमानाथ आज ही अमोला लौट जाना चाहते थे, क्योंकि उनके गाँव में एक छोटी सी फौजदारी हो गई थी और थानेदार साहब कल तहकीकात करने आनेवाले थे। मगर अभी तक नाव उसी पार खड़ी थी। उमानाथ [ १४३ ] को मल्लाहों पर क्रोध आ रहा था। इससे अधिक क्रोध उन मुसाफिरों पर आ रहा था जो उस पार धीरे-धोरे नावपर बैठने आ रहे थे। उन्हें दौड़ते हुए आना चाहिए था, जिसमें उमानाथ को जल्द नाव मिल जाय। जब खड़े-खड़े बहुत देर हो गई तो उमानाथ ने जोर से चिल्लाकर मल्लाहों को पुकारा। लेकिन उनकी कण्ठ-घ्वनि को मल्लाहों के कान में पहुँचने की प्रबल आकांक्षा न थी। वह लहरों से खेलती हुई उन्हीं में समा गई।

इतने में उमानाथ ने एक साधु को अपनी ओर आते देखा। सिरपर जटा, गले में रुद्राक्ष की माला, एक हाथ मे सुलफे की लम्बी चिलम, दूसरे हाथ में लोहे की छड़ी, पीठपर एक मृगछाला लपेटे हुए आकर नदी के तटपर खड़ा हो गया। वह भी उस पार जाना चाहता था।

उमानाथ को ऐसी भावना हुई कि मैंने इस साधु को कहीं देखा है, पर याद नही पड़ता कि कहाँ। स्मृति पर एक परदा-सा पड़ा हुआ था।

अकस्मात् साधु ने उमानाथ की ओर ताका और तुरन्त उन्हे प्रणाम करके बोला, महाराज घर पर तो सब कुशल है, यहाँ कैसे आना हुआ।

उमानाथ के नेत्र पर से परदा हट गया। स्मृति जागृत हो गई। हम रूप बदल सकते है, शब्द को नहीं बदल सकते। यह गजाधर पांडे थे।

जब से सुमन का विवाह हुआ था, उमानाथ कभी उसके पास नहीं गये थे। उसे मुँह दिखाने का साहस नहीं होता था। इस समय गजाधर को इस भेष में देखकर उमानाथ को आश्चर्य हुआ। उन्होनें समझा, कहीं मुझे फिर धोखा न हुआ हो। डरते हुए पूछा, शुभ नाम?

साधु-पहले तो गजाधर पांडे था, अब गजानन्द हूँ।

उमानाथ-ओहो तभी तो मे पहचान न पाता था। मुझे स्मरण होता था कि मैंने कहीं आपको देखा है, पर आपको इस भेष में देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। बाल बच्चे कहाँँ है।

गजानन्द—अब उस मायाजाल से मुक्त हो गया।

उमानाथ—सुमन कहाँ है?

गजानन्द—दालमण्डी के एक कोठेपर। [ १४४ ] उमानाथ ने विस्मित होकर गजानन्द की ओर देखा तब लज्जा से उनका सिर झुक गया। एक क्षण के बाद उन्होंने फिर पूछा, यह कैसे हुआ, कुछ बात समझ में नहीं आती?

गजानन्द—उसी प्रकार जैसे संसार में प्राय हुआ करता है। मेरी असज्जनता और निर्दयता, सुमन की चंचलता और विलास लालसा दोनों ने मिलकर हम दोनों का, सर्वनाश कर दिया। मैं अब उस समय की बातों को सोचता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि एक बड़े घर की बेटी से व्याह करने में मैंने बड़ी भूल की और इससे बड़ी भूल यह थी कि व्याह हो जाने पर उसका उचित आदर सम्मान नहीं किया। निर्धन था, इसलिए आवश्यक था कि मैं धन के अभाव को अपने प्रेम और भक्ति से पूरा करता। मैंने इसके विपरीत उससे निर्दयता का व्यवहार किया। उसे वस्त्र और भोजन का कष्ट दिया। वह चौका बरतन, चक्की चूल्हे में निपुण नहीं थी और न हो सकती थी, पर उससे यह सब काम लेता था और जरा भी देर हो जाती तो बिगड़ता था। अब मुझे मालूम होता है कि मैं ही उसके घर से निकलने का कारण हुआ, मैं उसकी सुन्दरता का मान न कर सका, इसलिए सुमन का भी मुझसे प्रेम नहीं हो सका। लेकिन वह मुझपर भक्ति अवश्य करती थी। पर उस समय में अन्धा हो रहा था। कंगाल मनुष्य धन पाकर जिस प्रकार फूल उठता है उसी तरह सुन्दर स्त्री पाकर वह संशय और भ्रम में आसक्त हो जाता है। मेरा भी यही हाल था। मुझे सुमन पर अविश्वास रहा करता था। और प्रत्यक्ष इस बात को न कहकर में अपने कठोर व्यवहार से उसके चित्त को दुखी किया करता था। महाशय, मैंने उसके साथ जो-जो अत्याचार किये उन्हें स्मरण करके आज मुझे अपनी क्रूरतापर इतना दु:ख होता कि जी चाहता है कि विष खा लूँ। उसी अत्याचार का अब प्रायश्चित कर रहा हूँ। उसके चले जानेके बाद दो-चार दिन तक तो मुझपर नशा रहा, पर जब नशा ठंडा हुआ तो मुझे बह घर काटने लगा। में फिर उस घर में न गया। एक मन्दिर में पुजारी बन गया। अपने हाथ से भोजन बनाने के कष्ट से बचा मन्दिर में दो बार सज्जन नित्य ही आ जाते है। उनके साथ रामायण आदि [ १४५ ] कथाएँ पढ़ा करता था। कभी कभी साधु महात्मा भी आ जाते। उनके पास सत्संग का सुअवसर मिल जाता। उनकी ज्ञान मर्म की बात सुनकर मेरा अज्ञान कुछ कुछ मिटने लगा। मैं आपसे सत्य ही कहता हूँ पुजारी बनते समय मेरे मन में भक्ति का भाव नाममात्र को भी न था। मैंने केवल निरुधमता का सुख और उत्तम भोजन का स्वाद लूटने के लिए पूजा-वृत्ति ग्रहण की थी, पर धर्म कथाओं के पढ़ने और सुनने से मन में भक्ति और प्रेम का उदय हुआ और ज्ञानियों के सत्संग से भक्ति ने वैराग्य का रूप धारण कर लिया। अब गाँव-गाँव घूमता हूँ और अपने से जहाँ तक हो सकता है दूसरों का कल्याण करता हूँ। आप क्या काशी से आ रहे है?

उमानाथ——नहीं, मैं भी एक गाँव से आ रहा हूँ। सुमन की एक छोटी बहन है, उसी के लिए वर खोज रहा हूँ।

गजानन्द——लेकिन अबकी सुयोग बर खोजियेगा।

उमानाथ——सुयोग्य वरों की तो कमी नहीं है, पर उसके लिए मुझमे सामर्थ्य भी तो हो? सुमन के लिए क्या मैंने कुछ कम दौड़-धूप की थी?

गजानन्द——सुयोग्य वर मिलने के लिए आपको कितने रुपयों की आवश्यकता है?

उमानाथ——एक हजार तो दहेज ही माँगते है और सब खर्च अलग रहा।

गजा०——आप विवाह तय कर लीजिये। एक हजार रुपये का प्रबन्ध ईश्वर चाहेगे तो मैं कर दूँगा। यह भेष धारण करके अब मुझे ज्ञात हो रहा है कि मैं प्राणियों का बहुत उपकार कर सकता हूँ।

उमानाथ——दो–चार दिन में आपके ही घर पर आपसे मिलूंगा।

नाव आ गई। दोनों नावपर बैठे। गजानन्द तो मल्लाहों से बात करने लगे, लेकिन उमानाथ चिन्तासागर में डूबे हुए थे। उनका मन कह रहा था कि सुमन का सर्वनाश मेरे ही कारण हुआ। [ १४६ ]

२६

पंण्डित उमानाथ सदन सिंह का फलदान चढ़ा आये हैं। उन्होंने जान्हवी से गजानन्द की सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं वह इन रुपयों को अपनी लड़कियों के विवाह के लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जान्हवी पर उनके उपदेश का कुछ असर न होता था, उसके सामने वह उसकी हाँ-में-हाँ मिलाने पर मजबूर हो जाते थे।

उन्होंने एक हजार रुपये के दहेज पर विवाह ठीक किया था पर अब इस चिन्ता में पड़े हुए थे कि बरात के लिए खर्च का क्या प्रबन्ध होगा। कम से कम एक हजार रुपये की और जरूरत थी। इसके मिलने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। हाँ, उन्हें इस विचार से हर्ष होता था कि शान्ता का विवाह अच्छे घर में होगा, वह सुख से रहेगी और गंगाजली की आत्मा मेरे इस काम से प्रसन्न होगी।

अन्तमें उन्होने सोचा, अभी विवाह को तीन महीने है। अगर उस समयतक रुपयों का प्रबन्ध हो गया तो भला ही है। नहीं तो बरात का झगड़ा ही तोड़ दूँगा। किसी न किसी बातपर बिगड़ जाऊँगा, बारात वाले आप ही नाराज होकर लौट जायेंगे। यही न होगा कि मेरी थोड़ी सी बदनामी होगी, पर विवाह तो हो जायगा, लड़की तो आराम से रहेगी। मैं यह झगड़ा ऐसी कुशलता से करूंगा कि सारा दोष बारातियों पर आवे।

पंण्डित कृष्णचन्द्र को जेल खाने से छूटकर आये हुए एक सप्ताह बीत गया था, लेकिन अती तक विवाह के सम्बध में उमानाथ को बातचीत करने का अवसर ही न मिला था। वह कृष्णचन्द्र के सम्मुख जाते हुए लजाते थे। कृष्णचन्द्र के स्वभाव में अब एक बड़ा अन्तर दिखाई देता था। उनमें गम्भीरता की जगह एक उद्यण्डता आ गई थी और संकोच नाम को भी न रहा था। उनका शरीर क्षीण हो गया, पर उसमें एक अद्भुत शक्ति भरी हुई मालूम होती थी, वे रात को बारबार दीर्घ निश्वास लेकर हाय! हाय!' कहते सुनाई देते थे। आधी रात को चारों ओर नीरवता छाई हुई [ १४७ ]रहती थी, वे अपनी चारपाई पर करवटें बदल-बदलकर यह गीत गाया करते -

अगिया लागी सुन्दर बन जरि गयो।

कभी-कभी यह गीत गाते---

लकड़ी जल कोयला भई और कोयला जल भई राख।
मैं पापिन ऐसी जली कि कोयला भई न राख!

उनके नेत्रों में एक प्रकार की चञ्चलता दीख पड़ती थी। जान्हवी उनके सामने खड़ी न हो सकती, उसे उनसे भय लगता था।

जाड़े के दिन में कृषकों की स्त्रियाँ हाट में काम करने जाया करती थी। कृष्णचन्द्र भी हाटकी ओर निकल जाते और वहाँ स्त्रियों से दिल्लगी किया करते। ससुरालके नाते उन्हे स्त्रियों से हँसने बोलनेका पद था, पर कृष्णचन्द्र की बातें ऐसी हास्यपूर्ण और उनकी चितवनें ऐसी कुचेष्टापूर्ण होती थी कि स्त्रियाँ लज्जा से मुँह छिपा लेती और आकर जान्हवी से उलाहने देती। वास्तवमें कृष्णचन्द्र कामसन्ताप से जले जाते थे।

अमोला में कितने ही सुशिक्षित सज्जन ये। कृष्णचन्द्र उनके समाज में न बैठते। वे नित्य सन्ध्या समय नीच जाति के आदमियों के साथ चरस की दम लगाते दिखाई देते थे। उस समय मण्डली में बैठे हुए वे अपने जेल के अनुभव वर्णन किया करते। वहाँ उनके कंठ से अश्लील बातों की धारा बहने लगती थी।

उमानाथ अपने गाँव में सर्वमान्य थे, वे बहनोई के इन दुष्कृत्यों को चेख-देखकर कट जाते और ईश्वर से मनाते कि किसी प्रकार ये यहाँ से चले जायँ।

और तो और, शान्ता को भी अब अपने पिता के सामने आते हुए भय और संकोच होता था। गाँव की स्त्रियाँ जब जान्हवी से कृष्णचन्द्र की करतूतों की निन्दा करने लगतीं तो शान्ता को अत्यन्त दुःख होता था। उसकी समझमें न आता था कि पिताजी को क्या हो गया है। यह कैसे गम्भीर, कैसे [ १४८ ]

२६

पंण्डित उमानाथ सदनसिंहका फलदान चढ़ा आये है। उन्होंने जान्हवी से गजानन्दकी सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं वह इन रुपयो को अपनी लड़कियों के विवाह लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जान्हवी पर उनके उपदेशका कुछ असर न होता था, उसके सामने वह उसकी हाँ-में-हाँ मिलाने पर मजबूर हो जाते थे।

उन्होंने एक हजार रुपये के दहेज पर विवाह ठीक किया था पर अब इस चिन्ता में पड़े हुए थे कि बरात लिए खर्चका क्या प्रबन्घ होगा। कम-से-कम एक हजार रुपये की और जरूरत थी। इसके मिलने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। हाँ, उन्हें इस विचार से हर्ष होता था कि शान्ता का विवाह अच्छे घर में होगा, वह सुख से रहेगी और गंगाजली की आत्मा मेरे इस काम से प्रसन्न होगी।

अन्त में उन्होंने सोचा, अभी विवाह को तीन महीने है। अगर उस समय तक रुपयों का प्रबन्ध हो गया तो भला ही है। नहीं तो बरात का झगड़ा ही तोड दूँगा। किसी न किसी बातपर बिगड़ जाऊँगा, बारात वाले आाप ही नाराज होकर लौट जायेंगे। यहीं न होगा कि मेरी थोड़ी सी बदनामी होगी, पर विवाह तो हो जायगा, लड़की तो आराम से रहेगी। में यह झगड़ा ऐसी कुशलता से कहूंगा कि सारा दोष बारातियों पर आवे।

पंण्डित कृष्णचन्द्र को जेलखाने से छूटकर आये हुए एक सप्ताह बीत गया था; लेकिन अतीत के विवाह के सम्बन्ध में उमानाथ को बातचीत करने का अवसर ही न मिला था। वह कृष्णचन्द्र के सम्मुख जाते हुए लजाते थे। कृष्णचन्द्र के स्वभाव में अब एक बड़ा अन्तर दिखाई देता था। उनमें गम्भीरता की जगह एक उद्यण्डता आ गई थी और संकोच नाम की भी न रहा था। उनका शरीर क्षीण हो गया, पर उसमें एक अद्भुत शक्ति भरी हुई मालूम होती थी,वे रातको बार-बार दीर्घ नि:श्वास लेकर 'हाय! हाय!' कहते सुनाई देते थे। आधी रात को चारो ओर नीरवता छाई हुई` रहती थी, वे अपनी चारपाईपर करवट बदल-बदलकर यह गीत गाया करते-


अगिया लागी सुन्दर बन जरि गयो।

कभी-कभी यह गीत गाते-


लकड़ी जल कोयला भई और कोयला जल भई राख।

मै पापिन ऐसी जली कि कोयला भई न राख।


उनके नेत्रों में एक प्रकार की चंचलता दीख पड़ती थी। जान्हवी उनके सामने खड़ी न हो सकती, उसे उनसे भय लगता था।


{{gap}जाड़ेके दिनमे कृषकों की स्त्रियाँ हाटमे काम करने जाया करती थी। कृष्णचन्द्र भी हाटकी ओर निकल जाते और वहां स्त्रियोसे दिल्लगी किया करते। ससुरालके नाते उन्हे स्त्रियोसे हँसने बोलनेका पद था, पर कृष्णचन्द्र की बातें ऐसी हास्यपूर्ण और उनकी चितवने ऐसी कुचेष्टापूर्ण होती थी कि स्त्रियाँ लज्जासे मुह छिपा लेती और आकर जान्हवी से उलाहने देती। वास्तव मे कृष्णचन्द्र कामसन्ताप से जले जाते थे।


अमोलामे कितने ही सुशिक्षित सज्जन थे। कृष्णचन्द्र उनके समाजमें न बैठते। वे नित्य सन्ध्या समय नीच जाति के आदमियों के साथ चरस की दम लगाते दिखाई देते थे। उस समय मण्डलीमे बैठे हुए वे अपने जेलके अनुभव वर्णन किया करते। वहाँ उनके कंठसे अश्लील बातोकी धारा बहने लगती थी।


उमानाथ़ अपने गॉव में सर्वमान्य थे, वे बहनोई के इन दुष्कृत्योको देख-देखकर कट जाते और ईश्वरसे मनाते कि किसी प्रकार ये यहाँसे चले जायँ।


और तो और,शान्ताको भी अब अपने पिताके सामने आते हुए भय और संकोच होता था। गाँवकी स्त्रियाँ जब जान्हवी से कृष्णचन्द्र की करतूतों की निन्दा करनेंं लगती तो शान्ता को अत्यन्त दु:ख होता था। उसकी समझ में न आता था कि पिताजी को क्या हो गया है। यह कैसे गम्भीर, कैसे[ १५० ] विचारशील, कैसे दयाशील, कैसे सच्चरित्र मनुष्य ये। यह काया-पलट कैसे हो गयी? शरीर तो वही है पर वह आत्मा कहाँ गई?

इस तरह एक मास बीत गया। उमानाथ मन में झुझलाते कि इन्हीं की लड़को का विवाह होनेवाला है और ये ऐसे निश्चिन्त बैठे है तो मुझी को क्या पड़ी है कि व्यर्थ हैरानी में पड़ूँ। यह तो नहीं होता कि जाकर कही चार पैसे कमाने का उपाय करें, उलटे अपने साथ-साथ मुझे भी खराब कर रहे है।

२७

एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा अब तुम लोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गाँव पर छाया हुआ था। वे सबके सब डर गये। दूसरे दिन जब कृष्णचन्द्र उनके पास गए तो उन्होंने कहा, महाराज, आप यहां न आया कीजिये। हमें पंण्डित उमानाथ के कोप में न डालिये। कहीं कोई मामला खड़ा कर दें तो हम बिना मारे ही मर जायें।

कृष्णचन्द्र क्रोध में भरे हुए उमानाथ के पास आये और बोले, मालूम होता है, तुम्हें मेरा यहाँ रहना अखरने लगा।

उमानाथ—आपका घर है, आप जब तक चाह रहेंपर में यह चाहता हूँ कि नीच आदमियों के साथ बैठकर आप मेरी और अपनी मर्यादा को भंग न करे।

कृष्णचन्द्र—तो किसके साथ बैठे? यहाँ जितने भले आदमी है, उनमें कौन मेरे साथ बैठना चाहता है? सबके सब मुझे तुच्छ दृष्टि से देखते है। यह मेरे लिए असहय है। तुम इनमें से किसी को बता सकते हो जो पूर्ण धर्म का अवतार हो। सबके सब दगाबाज, दीन किसानों का रक्त चूसने वाले, व्यभिचारी है। मैं अपने को उनसे नीच नहीं समझता। मैं अपने किये का फल भोग आया हूं, वे अभी तक बचे हुए है। मुझमें और उनमें केवल इतना ही फर्क है। वह एक पाप को छिपाने के लिए और भी कितने पाप किया करते [ १५१ ] है। इस विचार से वह मुझसे बड़े पातकी है। ऐसे बगुला भक्तों के सामने में दीन बनकर नहीं जा सकता। मैं उनके साथ बैठता हूँ जो इस अवस्था में भी मेरा आदर करते है, जो अपने को मुझसे श्रेष्ठ नहीं समझते, जो कौए होकर हंस बनने की चेष्टा नहीं करते! अगर मेरे इस व्यवहार से तुम्हारी इज्जत में बट्टा लगता है तो में जबरदस्ती तुम्हारे घर नहीं रहना चाहता।

उमानाथ—मेरा ईश्वर साक्षी है, मैंने इस नीयत से उन आदमियों को आपके साथ बैठने से नही मना किया था। आप जानते है कि मेरा सरकारी अधिकारियों से प्रायः संसर्ग रहता है, आपके इस व्यवहार से मुझे उनके सामने आँखे नीची करनी पड़ती है।

कृष्ण—तो तुम उन अधिकारियों से कह दो कि कृष्णचन्द्र कितना ही गया गुजरा है तो भी उनसे अच्छा है। मैं भी कभी अधिकारी रहा। और अधिकारियों के आचार व्यवहार का कुछ ज्ञान रखता हूँ। वे सब चोर है। कमीने, चोर, पापी और अधमियों का उपदेश कृष्णचन्द्र नहीं लेना चाहता।

उमानाथ—आपको अधिकारियों की कोई परवाह न हो, लेकिन मेरी तो जीविका उन्ही की कृपादृष्टि पर निर्भर है। मैं उनकी कैसे उपेक्षा कर सकता हूँ? आपन तो थानेदारी की है। क्या आप नहीं जानते कि यहाँ का थानेदार आपकी निगरानी करता है? वह आपको दुर्जनों के संग देखेगा तो अवश्य इसकी रिपोर्ट करेगा और आपके साथ मेरा भी सर्वनाश हो जायगा। ये लोग किसके मित्र होते है?

कृष्ण—यहाँ का थानेदार कौन है?

उमानाथ—यद मसऊद आलम।

कृष्ण—अच्छा, वही, सारे जमाने का बेईमान, छटा हुआ बदमाश वह मेरे सामने हेड कान्स्टेबिल रह चुका है और एक बार मैंने ही उसे जेल से बचाया था। अबकी उसे यहां आने दो, ऐसी खबर लूँ कि वह भी याद करे।

उमानाथ—अगर आपको यह उपद्रव करना है तो कृपा करके मुझे अपने साथ न समेटिये। आपका तो कुछ न बिगड़ेगा, मैं पिस जाऊँगा। [ १५२ ]कृष्ण—इसीलिए कि तुम इज्जतवाले हो और मेरा कोई ठिकाना नहीं। मित्र, क्यों मुँह खुलवाते हो? धर्म का स्वांग भरकर क्यों डींग मारते हो? थानेदारों की दलाली करके भी तुम्हें इज्जत का घमण्ड है?

उमानाथ—में अधम पापी सही, पर आपके साथ मैंने जो सलूक किये उन्हें देखते हुए आपके मुँह से ये बातें न निकलनी चाहिए।

कृष्ण—तुमने मेरे साथ वह सलूक किया कि मेरा घर चौपट कर दिया। सलूक का नाम लेते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? तुम्हारे सलूक का बखान यहाँ अच्छी तरह सुन चुका। तुमने मेरी स्त्री को मारा, मेरी एक लड़की को न जाने किस लम्पट के गले वाँध दिया और दूसरी लड़की से मजदूरिन की तरह काम ले रहे हो। मूर्ख स्त्री को झांसा देकर मुकदमा लड़ने के बहाने से सब रुपये उड़ा लिये और तब अपने घर लाकर उसकी दुर्गति की। आज अपने सलूक की शेखी बघारते हो।

अभिमानी मनुष्य को कृतघ्नता से जितना दु:ख होता है उतना और किसी बात से नहीं होता। वह चाहे अपने उपकारों के लिए कृतज्ञता का भूखा न हो, चाहे उसने नेकी करले दरिया ही में डाल दी हो,पर उपकार का विचार करके उसको अत्यन्त गौरव का आनन्द प्राप्त होता है। उमानाथ ने सोचा, संसार कितना कुटिल ई। मैं इनके लिए महीनों कचहरी दरबार के चक्कर लगाता रहा, वकीलों की कैसी-सी खुशामदें की, कर्मचारियों के कैसे कैसे नखरे सहे, निज का सैकड़ों रुपया फूंक दिया, उसका यह यश मिल रहा है। तीन-तीन प्राणियों का बरसों पालन-पोषण किया, सुमन के विवाह के लिए महीनों खाक छानी और शान्ता के विवाह के लिए महीनों से घर घाट एक किये हैं, दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये, रुपये-पैसे की चिन्ता मे शरीर घुल गया और इसका यह फल !हा! कुटिल संसार में यहाँ भलाई करने में भी धब्बा लग जाता है। यह सोचकर उनकी आंखें डबडबा आई। बोले भाई साहब, मैंने जो कुछ किया, वह भला ही समझकर किया, पर मेरे हाथो में यश नही है। ईश्वर को यही इच्छा है कि मेरा किया-कराया मारा [ १५३ ] मिट्टी में मिल जाय तो यही सही। मैंने आपका सर्वस्व लूट लिया, खा-पी डाला अब जो सजा चाहे दीजिये, और क्या कहूँ?

उमानाथ यह कहना चाहते थे कि अब तो जो कुछ हो गया वह हो गया; अब मेरा पिण्ड छोड़ो। शान्ता के विवाह का प्रबन्ध को, पर डरे कि इस समय क्रोध में कही यह सचमुच शान्ता को लेकर चले न जायें। इसलिए गम खा जाना ही उचित समझा। निर्बल क्रोध उदार हृदय से करुणा का भाव उत्पन्न कर देता है। किसी भिक्षुक गृह से गाली खाकर सज्जन मनुष्य चुप रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

उमानाथ की सहिष्णुता ने कृष्णचन्द्र को भी शान्त किया, पर दोनों से बातचीत न हो सकी। दोनों अपनी अपनी जगह पर विचार में डूबे-बैठे थे, जैसे दो कुत्ते लड़ने के बाद आमने-सामने बैठे रहते है। उमानाथ सोचते थे। कि बहुत अच्छा हुआ, जो मैं चुप साध गया, नहीं तो संसार मुझी को बदनाम करता। कृष्णचन्द्र सोचते थे कि मैंने बुरा किया, जो ये गड़े मुरदे उखाड़े। अनुचित क्रोध में सोई हुई आत्मा को जगाने का विशेष अनुराग होता है। कृष्णचन्द्र को अपना कर्तव्य दिखाई देने लगा। अनुचित क्रोध ने अकर्मण्यता की निद्रा भंग कर दी। सन्ध्या समय कृष्णचन्द्र ने उमानाथ से पूछा, शान्ता का विवाह तो तुमने ठीक किया है न?

उमानाथ-—हाँ, चुनार में, पण्डित मदनसिंह लड़के से।

कृष्ण—वह तो कोई बड़े आदमी मालूम होते है। कितना दहे ठहरा हैं।

उमानाथ-—एक हजार।

कृष्ण--इतना ही और ऊपर से लगेगा?

उमा-हाँ और क्या?

कृष्णचन्द्र स्तब्ध हो गय। पूछा, रुपयों का प्रबन्ध कैसे होगा?

उमा—ईश्वर किसी तरह पार लगावेगे ही। एक हजार मेरे पास है, केवल एक हजार की और चिन्ता है। [ १५४ ]कृष्णचन्द्र ने अत्यन्त ग्लानिपूर्वक कहा, मेरी दशा तो तुम देख ही रहे। हो। इतना कहते कहते उनकी आँखो से आंसू टपक पड़े।

उमा—आप निश्चिन्त रहिये मैं सब कुछ कर लूँगा।

कृष्ण—परमात्मा तुम्हें इसका शुभ फल देंगे। भैया, मुझसे जो अविनय हुई है उसका तुम बुरा न मानना। अभी मैं आपे मे नही हूँ, इस कठिन यन्त्रणा ने मुझे पागल कर दिया है। उसने मेरी आत्माको पीस डाला है। मैं आत्माहीन मनुष्य हूँ। उस नरक में पड़कर यदि देवता भी राक्षस हो जायें तो आश्चर्य नहीं। मुझमें इतनी सामर्थ्र्य कहाँ थी कि मैं इतने भारी बोझ को सम्हालता। तुमने मुझे उबार दिया, मेरी नाव पार लगा दी, यह शोभा नहीं देता कि तुम्हारे ऊपर इतने बड़े कार्य का भार रखकर मैं आलसी बना बैठा रहूँ। मुझे भी आज्ञा दो कि कहीं चलकर चार पैसे कमाने का उपाय करूँ। मैं कल बनारस जाऊँगा। यो मेरे पहले के जानपहचान के तो कई आदमी है, पर उनके यहाँ नहीं ठहरना चाहता। सुमन का घर किस मुहल्ले में है।

उमानाथ का मुख पीला पड़ गया। बोले, विवाह तक तो आप यही रहिये। फिर जहाँ इच्छा हो चले जाइयेगा।

कृष्णचन्द्र—नहीं कल मुझे जाने दो, विवाह से एक सप्ताह पहले आ जाऊँगा। दो चार दिन सुमन के यहाँ ठहरकर कोई नौकरी ढूंढ लूँगा। किस मुहल्ले में रहती है?

उमा—मुझे ठीक याद नहीं है, इधर बहुत दिनों से में उधर नहीं गया। शहरवालो का क्या ठिकाना? रोज घर बदला करते है। मालूम नहीं अब किस मुहल्ले मे हो।

रात को भोजन के समय कृष्णचन्द्रने शान्ता से सुमन का पता पूछा। शान्ता उमानाथ के संकेत को न देख सकी, उसने पूरा पता बता दिया।

२८

शहरकी म्युनिसिपैलिटी में कुल १८ सभासद थे। उनमें ८ मुसलमान