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सेवासदन/३४

विकिस्रोत से
सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १४७ से – १६४ तक

 

रहती थी, वे अपनी चारपाई पर करवटें बदल-बदलकर यह गीत गाया करते -

अगिया लागी सुन्दर बन जरि गयो।

कभी-कभी यह गीत गाते---

लकड़ी जल कोयला भई और कोयला जल भई राख।
मैं पापिन ऐसी जली कि कोयला भई न राख!

उनके नेत्रों में एक प्रकार की चञ्चलता दीख पड़ती थी। जान्हवी उनके सामने खड़ी न हो सकती, उसे उनसे भय लगता था।

जाड़े के दिन में कृषकों की स्त्रियाँ हाट में काम करने जाया करती थी। कृष्णचन्द्र भी हाटकी ओर निकल जाते और वहाँ स्त्रियों से दिल्लगी किया करते। ससुरालके नाते उन्हे स्त्रियों से हँसने बोलनेका पद था, पर कृष्णचन्द्र की बातें ऐसी हास्यपूर्ण और उनकी चितवनें ऐसी कुचेष्टापूर्ण होती थी कि स्त्रियाँ लज्जा से मुँह छिपा लेती और आकर जान्हवी से उलाहने देती। वास्तवमें कृष्णचन्द्र कामसन्ताप से जले जाते थे।

अमोला में कितने ही सुशिक्षित सज्जन ये। कृष्णचन्द्र उनके समाज में न बैठते। वे नित्य सन्ध्या समय नीच जाति के आदमियों के साथ चरस की दम लगाते दिखाई देते थे। उस समय मण्डली में बैठे हुए वे अपने जेल के अनुभव वर्णन किया करते। वहाँ उनके कंठ से अश्लील बातों की धारा बहने लगती थी।

उमानाथ अपने गाँव में सर्वमान्य थे, वे बहनोई के इन दुष्कृत्यों को चेख-देखकर कट जाते और ईश्वर से मनाते कि किसी प्रकार ये यहाँ से चले जायँ।

और तो और, शान्ता को भी अब अपने पिता के सामने आते हुए भय और संकोच होता था। गाँव की स्त्रियाँ जब जान्हवी से कृष्णचन्द्र की करतूतों की निन्दा करने लगतीं तो शान्ता को अत्यन्त दुःख होता था। उसकी समझमें न आता था कि पिताजी को क्या हो गया है। यह कैसे गम्भीर, कैसे

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पंण्डित उमानाथ सदनसिंहका फलदान चढ़ा आये है। उन्होंने जान्हवी से गजानन्दकी सहायता की चर्चा नहीं की थी। डरते थे कि कहीं वह इन रुपयो को अपनी लड़कियों के विवाह लिए रख छोड़ने पर जिद्द न करने लगे। जान्हवी पर उनके उपदेशका कुछ असर न होता था, उसके सामने वह उसकी हाँ-में-हाँ मिलाने पर मजबूर हो जाते थे।

उन्होंने एक हजार रुपये के दहेज पर विवाह ठीक किया था पर अब इस चिन्ता में पड़े हुए थे कि बरात लिए खर्चका क्या प्रबन्घ होगा। कम-से-कम एक हजार रुपये की और जरूरत थी। इसके मिलने का उन्हें कोई उपाय न सूझता था। हाँ, उन्हें इस विचार से हर्ष होता था कि शान्ता का विवाह अच्छे घर में होगा, वह सुख से रहेगी और गंगाजली की आत्मा मेरे इस काम से प्रसन्न होगी।

अन्त में उन्होंने सोचा, अभी विवाह को तीन महीने है। अगर उस समय तक रुपयों का प्रबन्ध हो गया तो भला ही है। नहीं तो बरात का झगड़ा ही तोड दूँगा। किसी न किसी बातपर बिगड़ जाऊँगा, बारात वाले आाप ही नाराज होकर लौट जायेंगे। यहीं न होगा कि मेरी थोड़ी सी बदनामी होगी, पर विवाह तो हो जायगा, लड़की तो आराम से रहेगी। में यह झगड़ा ऐसी कुशलता से कहूंगा कि सारा दोष बारातियों पर आवे।

पंण्डित कृष्णचन्द्र को जेलखाने से छूटकर आये हुए एक सप्ताह बीत गया था; लेकिन अतीत के विवाह के सम्बन्ध में उमानाथ को बातचीत करने का अवसर ही न मिला था। वह कृष्णचन्द्र के सम्मुख जाते हुए लजाते थे। कृष्णचन्द्र के स्वभाव में अब एक बड़ा अन्तर दिखाई देता था। उनमें गम्भीरता की जगह एक उद्यण्डता आ गई थी और संकोच नाम की भी न रहा था। उनका शरीर क्षीण हो गया, पर उसमें एक अद्भुत शक्ति भरी हुई मालूम होती थी,वे रातको बार-बार दीर्घ नि:श्वास लेकर 'हाय! हाय!' कहते सुनाई देते थे। आधी रात को चारो ओर नीरवता छाई हुई` रहती थी, वे अपनी चारपाईपर करवट बदल-बदलकर यह गीत गाया करते-


अगिया लागी सुन्दर बन जरि गयो।

कभी-कभी यह गीत गाते-


लकड़ी जल कोयला भई और कोयला जल भई राख।

मै पापिन ऐसी जली कि कोयला भई न राख।


उनके नेत्रों में एक प्रकार की चंचलता दीख पड़ती थी। जान्हवी उनके सामने खड़ी न हो सकती, उसे उनसे भय लगता था।


{{gap}जाड़ेके दिनमे कृषकों की स्त्रियाँ हाटमे काम करने जाया करती थी। कृष्णचन्द्र भी हाटकी ओर निकल जाते और वहां स्त्रियोसे दिल्लगी किया करते। ससुरालके नाते उन्हे स्त्रियोसे हँसने बोलनेका पद था, पर कृष्णचन्द्र की बातें ऐसी हास्यपूर्ण और उनकी चितवने ऐसी कुचेष्टापूर्ण होती थी कि स्त्रियाँ लज्जासे मुह छिपा लेती और आकर जान्हवी से उलाहने देती। वास्तव मे कृष्णचन्द्र कामसन्ताप से जले जाते थे।


अमोलामे कितने ही सुशिक्षित सज्जन थे। कृष्णचन्द्र उनके समाजमें न बैठते। वे नित्य सन्ध्या समय नीच जाति के आदमियों के साथ चरस की दम लगाते दिखाई देते थे। उस समय मण्डलीमे बैठे हुए वे अपने जेलके अनुभव वर्णन किया करते। वहाँ उनके कंठसे अश्लील बातोकी धारा बहने लगती थी।


उमानाथ़ अपने गॉव में सर्वमान्य थे, वे बहनोई के इन दुष्कृत्योको देख-देखकर कट जाते और ईश्वरसे मनाते कि किसी प्रकार ये यहाँसे चले जायँ।


और तो और,शान्ताको भी अब अपने पिताके सामने आते हुए भय और संकोच होता था। गाँवकी स्त्रियाँ जब जान्हवी से कृष्णचन्द्र की करतूतों की निन्दा करनेंं लगती तो शान्ता को अत्यन्त दु:ख होता था। उसकी समझ में न आता था कि पिताजी को क्या हो गया है। यह कैसे गम्भीर, कैसे विचारशील, कैसे दयाशील, कैसे सच्चरित्र मनुष्य ये। यह काया-पलट कैसे हो गयी? शरीर तो वही है पर वह आत्मा कहाँ गई?

इस तरह एक मास बीत गया। उमानाथ मन में झुझलाते कि इन्हीं की लड़को का विवाह होनेवाला है और ये ऐसे निश्चिन्त बैठे है तो मुझी को क्या पड़ी है कि व्यर्थ हैरानी में पड़ूँ। यह तो नहीं होता कि जाकर कही चार पैसे कमाने का उपाय करें, उलटे अपने साथ-साथ मुझे भी खराब कर रहे है।

२७

एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा अब तुम लोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गाँव पर छाया हुआ था। वे सबके सब डर गये। दूसरे दिन जब कृष्णचन्द्र उनके पास गए तो उन्होंने कहा, महाराज, आप यहां न आया कीजिये। हमें पंण्डित उमानाथ के कोप में न डालिये। कहीं कोई मामला खड़ा कर दें तो हम बिना मारे ही मर जायें।

कृष्णचन्द्र क्रोध में भरे हुए उमानाथ के पास आये और बोले, मालूम होता है, तुम्हें मेरा यहाँ रहना अखरने लगा।

उमानाथ—आपका घर है, आप जब तक चाह रहेंपर में यह चाहता हूँ कि नीच आदमियों के साथ बैठकर आप मेरी और अपनी मर्यादा को भंग न करे।

कृष्णचन्द्र—तो किसके साथ बैठे? यहाँ जितने भले आदमी है, उनमें कौन मेरे साथ बैठना चाहता है? सबके सब मुझे तुच्छ दृष्टि से देखते है। यह मेरे लिए असहय है। तुम इनमें से किसी को बता सकते हो जो पूर्ण धर्म का अवतार हो। सबके सब दगाबाज, दीन किसानों का रक्त चूसने वाले, व्यभिचारी है। मैं अपने को उनसे नीच नहीं समझता। मैं अपने किये का फल भोग आया हूं, वे अभी तक बचे हुए है। मुझमें और उनमें केवल इतना ही फर्क है। वह एक पाप को छिपाने के लिए और भी कितने पाप किया करते है। इस विचार से वह मुझसे बड़े पातकी है। ऐसे बगुला भक्तों के सामने में दीन बनकर नहीं जा सकता। मैं उनके साथ बैठता हूँ जो इस अवस्था में भी मेरा आदर करते है, जो अपने को मुझसे श्रेष्ठ नहीं समझते, जो कौए होकर हंस बनने की चेष्टा नहीं करते! अगर मेरे इस व्यवहार से तुम्हारी इज्जत में बट्टा लगता है तो में जबरदस्ती तुम्हारे घर नहीं रहना चाहता।

उमानाथ—मेरा ईश्वर साक्षी है, मैंने इस नीयत से उन आदमियों को आपके साथ बैठने से नही मना किया था। आप जानते है कि मेरा सरकारी अधिकारियों से प्रायः संसर्ग रहता है, आपके इस व्यवहार से मुझे उनके सामने आँखे नीची करनी पड़ती है।

कृष्ण—तो तुम उन अधिकारियों से कह दो कि कृष्णचन्द्र कितना ही गया गुजरा है तो भी उनसे अच्छा है। मैं भी कभी अधिकारी रहा। और अधिकारियों के आचार व्यवहार का कुछ ज्ञान रखता हूँ। वे सब चोर है। कमीने, चोर, पापी और अधमियों का उपदेश कृष्णचन्द्र नहीं लेना चाहता।

उमानाथ—आपको अधिकारियों की कोई परवाह न हो, लेकिन मेरी तो जीविका उन्ही की कृपादृष्टि पर निर्भर है। मैं उनकी कैसे उपेक्षा कर सकता हूँ? आपन तो थानेदारी की है। क्या आप नहीं जानते कि यहाँ का थानेदार आपकी निगरानी करता है? वह आपको दुर्जनों के संग देखेगा तो अवश्य इसकी रिपोर्ट करेगा और आपके साथ मेरा भी सर्वनाश हो जायगा। ये लोग किसके मित्र होते है?

कृष्ण—यहाँ का थानेदार कौन है?

उमानाथ—यद मसऊद आलम।

कृष्ण—अच्छा, वही, सारे जमाने का बेईमान, छटा हुआ बदमाश वह मेरे सामने हेड कान्स्टेबिल रह चुका है और एक बार मैंने ही उसे जेल से बचाया था। अबकी उसे यहां आने दो, ऐसी खबर लूँ कि वह भी याद करे।

उमानाथ—अगर आपको यह उपद्रव करना है तो कृपा करके मुझे अपने साथ न समेटिये। आपका तो कुछ न बिगड़ेगा, मैं पिस जाऊँगा। कृष्ण—इसीलिए कि तुम इज्जतवाले हो और मेरा कोई ठिकाना नहीं। मित्र, क्यों मुँह खुलवाते हो? धर्म का स्वांग भरकर क्यों डींग मारते हो? थानेदारों की दलाली करके भी तुम्हें इज्जत का घमण्ड है?

उमानाथ—में अधम पापी सही, पर आपके साथ मैंने जो सलूक किये उन्हें देखते हुए आपके मुँह से ये बातें न निकलनी चाहिए।

कृष्ण—तुमने मेरे साथ वह सलूक किया कि मेरा घर चौपट कर दिया। सलूक का नाम लेते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? तुम्हारे सलूक का बखान यहाँ अच्छी तरह सुन चुका। तुमने मेरी स्त्री को मारा, मेरी एक लड़की को न जाने किस लम्पट के गले वाँध दिया और दूसरी लड़की से मजदूरिन की तरह काम ले रहे हो। मूर्ख स्त्री को झांसा देकर मुकदमा लड़ने के बहाने से सब रुपये उड़ा लिये और तब अपने घर लाकर उसकी दुर्गति की। आज अपने सलूक की शेखी बघारते हो।

अभिमानी मनुष्य को कृतघ्नता से जितना दु:ख होता है उतना और किसी बात से नहीं होता। वह चाहे अपने उपकारों के लिए कृतज्ञता का भूखा न हो, चाहे उसने नेकी करले दरिया ही में डाल दी हो,पर उपकार का विचार करके उसको अत्यन्त गौरव का आनन्द प्राप्त होता है। उमानाथ ने सोचा, संसार कितना कुटिल ई। मैं इनके लिए महीनों कचहरी दरबार के चक्कर लगाता रहा, वकीलों की कैसी-सी खुशामदें की, कर्मचारियों के कैसे कैसे नखरे सहे, निज का सैकड़ों रुपया फूंक दिया, उसका यह यश मिल रहा है। तीन-तीन प्राणियों का बरसों पालन-पोषण किया, सुमन के विवाह के लिए महीनों खाक छानी और शान्ता के विवाह के लिए महीनों से घर घाट एक किये हैं, दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये, रुपये-पैसे की चिन्ता मे शरीर घुल गया और इसका यह फल !हा! कुटिल संसार में यहाँ भलाई करने में भी धब्बा लग जाता है। यह सोचकर उनकी आंखें डबडबा आई। बोले भाई साहब, मैंने जो कुछ किया, वह भला ही समझकर किया, पर मेरे हाथो में यश नही है। ईश्वर को यही इच्छा है कि मेरा किया-कराया मारा मिट्टी में मिल जाय तो यही सही। मैंने आपका सर्वस्व लूट लिया, खा-पी डाला अब जो सजा चाहे दीजिये, और क्या कहूँ?

उमानाथ यह कहना चाहते थे कि अब तो जो कुछ हो गया वह हो गया; अब मेरा पिण्ड छोड़ो। शान्ता के विवाह का प्रबन्ध को, पर डरे कि इस समय क्रोध में कही यह सचमुच शान्ता को लेकर चले न जायें। इसलिए गम खा जाना ही उचित समझा। निर्बल क्रोध उदार हृदय से करुणा का भाव उत्पन्न कर देता है। किसी भिक्षुक गृह से गाली खाकर सज्जन मनुष्य चुप रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

उमानाथ की सहिष्णुता ने कृष्णचन्द्र को भी शान्त किया, पर दोनों से बातचीत न हो सकी। दोनों अपनी अपनी जगह पर विचार में डूबे-बैठे थे, जैसे दो कुत्ते लड़ने के बाद आमने-सामने बैठे रहते है। उमानाथ सोचते थे। कि बहुत अच्छा हुआ, जो मैं चुप साध गया, नहीं तो संसार मुझी को बदनाम करता। कृष्णचन्द्र सोचते थे कि मैंने बुरा किया, जो ये गड़े मुरदे उखाड़े। अनुचित क्रोध में सोई हुई आत्मा को जगाने का विशेष अनुराग होता है। कृष्णचन्द्र को अपना कर्तव्य दिखाई देने लगा। अनुचित क्रोध ने अकर्मण्यता की निद्रा भंग कर दी। सन्ध्या समय कृष्णचन्द्र ने उमानाथ से पूछा, शान्ता का विवाह तो तुमने ठीक किया है न?

उमानाथ-—हाँ, चुनार में, पण्डित मदनसिंह लड़के से।

कृष्ण—वह तो कोई बड़े आदमी मालूम होते है। कितना दहे ठहरा हैं।

उमानाथ-—एक हजार।

कृष्ण--इतना ही और ऊपर से लगेगा?

उमा-हाँ और क्या?

कृष्णचन्द्र स्तब्ध हो गय। पूछा, रुपयों का प्रबन्ध कैसे होगा?

उमा—ईश्वर किसी तरह पार लगावेगे ही। एक हजार मेरे पास है, केवल एक हजार की और चिन्ता है। कृष्णचन्द्र ने अत्यन्त ग्लानिपूर्वक कहा, मेरी दशा तो तुम देख ही रहे। हो। इतना कहते कहते उनकी आँखो से आंसू टपक पड़े।

उमा—आप निश्चिन्त रहिये मैं सब कुछ कर लूँगा।

कृष्ण—परमात्मा तुम्हें इसका शुभ फल देंगे। भैया, मुझसे जो अविनय हुई है उसका तुम बुरा न मानना। अभी मैं आपे मे नही हूँ, इस कठिन यन्त्रणा ने मुझे पागल कर दिया है। उसने मेरी आत्माको पीस डाला है। मैं आत्माहीन मनुष्य हूँ। उस नरक में पड़कर यदि देवता भी राक्षस हो जायें तो आश्चर्य नहीं। मुझमें इतनी सामर्थ्र्य कहाँ थी कि मैं इतने भारी बोझ को सम्हालता। तुमने मुझे उबार दिया, मेरी नाव पार लगा दी, यह शोभा नहीं देता कि तुम्हारे ऊपर इतने बड़े कार्य का भार रखकर मैं आलसी बना बैठा रहूँ। मुझे भी आज्ञा दो कि कहीं चलकर चार पैसे कमाने का उपाय करूँ। मैं कल बनारस जाऊँगा। यो मेरे पहले के जानपहचान के तो कई आदमी है, पर उनके यहाँ नहीं ठहरना चाहता। सुमन का घर किस मुहल्ले में है।

उमानाथ का मुख पीला पड़ गया। बोले, विवाह तक तो आप यही रहिये। फिर जहाँ इच्छा हो चले जाइयेगा।

कृष्णचन्द्र—नहीं कल मुझे जाने दो, विवाह से एक सप्ताह पहले आ जाऊँगा। दो चार दिन सुमन के यहाँ ठहरकर कोई नौकरी ढूंढ लूँगा। किस मुहल्ले में रहती है?

उमा—मुझे ठीक याद नहीं है, इधर बहुत दिनों से में उधर नहीं गया। शहरवालो का क्या ठिकाना? रोज घर बदला करते है। मालूम नहीं अब किस मुहल्ले मे हो।

रात को भोजन के समय कृष्णचन्द्रने शान्ता से सुमन का पता पूछा। शान्ता उमानाथ के संकेत को न देख सकी, उसने पूरा पता बता दिया।

२८

शहरकी म्युनिसिपैलिटी में कुल १८ सभासद थे। उनमें ८ मुसलमान थे और १० हिन्दू। सुशिक्षित मेम्बरों की संख्या अधिक थी, इसलिए शर्माजी को विश्वास था कि म्युनिसिपैलिटी में वेश्याओं को नगर से बाहर निकाल देने का प्रस्ताव स्वीकार हो जायगा। वे सब सभासदों से मिल चुके थे और इस विषय में उनकी शंकाओं का समाधान कर चुके थे, लेकिन मेम्बरों में कुछ ऐसे सज्जन भी थे जिनकी ओर से घोर विरोध होने का भय था। ये लोग बड़े व्यापारी, धनवान् और प्रभावशाली मनुष्य थे। इसलिए शर्माजी को यह भय भी थी कि कहीं शेष मेम्बर उनके दबाव में न आ जाएँ। हिन्दुओं मे विरोधीदल के नेता सेठ बलभद्रदास थे और मुसलमानों मे हाजी हाशिम। जबतक विट्ठलदास इस आन्दोलन के कर्ताधर्ता थे तबतक इन लोगों ने उसकी ओर कुछ ध्यान न दिया था, लेकिन जबसे पद्मसिंह और म्युनिसिपैलिटी के अन्य कई मेम्बर इस आन्दोलन मे सम्मिलित हो गये थे, तब से सेठजी और हाजी साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। उन्हे मालूम हो गया था कि शीघ्र ही यह मन्तव्य सभा में उपस्थित होगा, इसलिए दोनों महाशय अपने पक्ष स्थिर करने में तत्पर हो रहे थे। पहले हाजी साहब ने मुसलमान मेम्बरों को एकत्र किया। हाजी साहब का जनतापर बड़ा प्रभाव था और वह शहर के समस्त मुसलमानों के नेता समझे जाते थे। शेष ७ मेम्बरों में मौलाना तेग अली एक इमामबाड़े के वली थे। मुन्शी अबुलवफा इत्र और तेल के कारखाने के मालिक थे। बड़े-बड़े शहरों में उनकी कई दूकानें थी। मुन्शी अबदुल्लतीफ एक बड़े जमीदार थे, लेकिन बहुधा शहर में रहते थे। कविता से प्रेम था और स्वयं अच्छे कवि थे। शाकिरबेग और शरीफहसन वकील थे। उनके सामाजिक सिद्धान्त बहुत उन्नत थे। सैयद शफकतअली पेन्शनर डिप्टी-कलक्टर थे। और साहब शोहरत खाँ प्रसिद्ध हकीम थे। ये दोनों महाशय सभा समाजो से प्राय: पृथक रहते थे, किन्तु उनमें उदारता और विचारशीलता की कमी न थी। दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के मनुष्य थे। समाज में उनका बड़ा सम्मान था।

हाजी हाशिम बोले, विरादरा ने वतन की यह नई चाल आप लोगो ने देखी? वल्लाह इनको सूझती खूब है! बगली घूसे मारना कोई इनसे सीख ख्वान से मोठे लुकमें खाते है, खुशबूदार खमीरे के कश लगाते हैं और उनके खासदान से मुअत्तर बीड़े उड़ाते है। बस, इसलाम की मजही कूबते इसलाह यहीं तक खत्म हो जाती है। अपने बुरे फेलों पर नादिम होना इंसानी खासा है। ये गुमराह करते पेशतर नहीं तो शराब का नशा उतरने के बाद जरूर अपनी हालत पर अफसोस करती है, लेकिन उस वक्त उनका पछताना वे सूद होता है। उनके गुजरानी को इसके सवा और कोई सूरत नहीं रहती कि वे अपनी लड़कियों से दूसरों को दामे मुहब्वत में फसाएं और इस तरह यह सिलसिलां हमेशा जारी रहता है। अगर उन लड़कियों की जायज तौरपर शादी हो सके तो, और इसके साथ ही उनकी परवरिश की सूरत भी निकल आये तो मेरे ख्याल में ज्यादा नही तो ७५ फीसदी तवायफें इसे खुशी से कबूल कर लें। हम चाहे खुद कितने ही गुनहगार हों, पर अपनी औलाद को हम ने और रास्तबाज देखने की तमन्ना रखते है। तवायफों को शहर से खारिज कर देने से उनकी इसलाह नहीं हो सकती। इस खयाल को सामने रखकर तो में इखराज की तहरी पर एतराज करने की जुरअत कर सकता हूँ। पर पोलिटिकल मफाद की बिनापर में उसकी मुखालिफत नहीं कर सकता। में किसी फेल को कौमी ख्याल से पसन्दीदा नहीं समझता जो इखलाकी तौरपर पसन्दीदा न हो।

तेगअली--वन्दानवाज, संभलकर बातें कीजियें। ऐसा न हो कि आप पर कुफ्रका फतवा सादिर हो जाय। आजकल पोलिटिकल सफाद का जोर है, हक और इन्साफ का नाम न लीजिये। अगर आप मुदर्रिस है तो हिन्दू लड़कों को फेल कीजिये। तहसीलदार है तो हिन्दुओं पर टैक्स लगाये मजिस्ट्रेट है तो हिन्दुओं को सजाएँ दीजिये। सब इंस्पेक्टर पुलिस है तो, हिन्दुओं पर झूठे मुकदमें दायर कीजिये तहकीकात करने जाइये तो हिन्दुओं के बयान गलत लिखिये अगर आप चोर है तो किसी हिन्दू के घर डाका डालिये, अगर आपको हुस्न या इश्क का सब्त है तो किसी हिन्दू नाजनीन-को उड़ाइये तब आप कौम के सादिम, कौम के मुहसिन, कौमी किश्ती के नाखुदा सब कुछ हैं। हाजीहाशिम बुड़बुड़ाये, मुन्शी अबुलवफाके तेवरोंपर बल पड़ गये। तेगअलीकी तलवारने उन्हें घायल कर दिया। अबुलवफा कुछ कहना ही चाहते थे कि शाकिरबेग बोल उठे, भाई साहब, यह तान तजका मौका नहीं। हम अपने घर में बैठे हुए एक अमर के बारे में दोस्ताना मशाविरा कर रहे है। जवाने तेंज मसलेहत के हकमे जहरे कातिल है। मैं शाहिदान तन्नाज को निजाम तमद्दत में बिल्कुल बेकार या मायाए शर नहीं समझता। आप जब कोई मकान तामीर करते है तो उसमे बदरौर बनाना जरूरी ख्याल करते है। अगर बदरीर न हो तो चन्द दिनों में दीवारों की बुनियादे हिल जायें। इस फिरके को सोसाइटी का बदरौर समझना चाहिए और जिस तरह बदरीर मकान के नुमाया हिस्से में नहीं होती, बल्कि निगाह से पोशीदा एक गोशे में बनाई जाती है उसी तरह इस फिरके को शहर के पुरफिजा मुकामात से हटाकर किसी गोशे में आबाद करना चाहिए।

मुन्शी अबुलवफा पहले के वाक्य सुनकर खुश हो गये थे, पर नाली की उपमापर उनका मुँह लटक गया। हाजीहाशिम ने नैराश्य से अब्दुल्लतीफी ओर देखा, जो अबतक चुपचाप बैठे हुए थे और बोले, जनाब, कुछ आप भी फरमाते है। दोस्ती के बहाव में आप भी तो नहीं बह गये?

अब्दुल्लतीफ बोले, जनाब, रिन्दा को न इत्तहाद से दोस्ती न मुखालिफत से दुश्मनी। अपना मुशरिब तो सुलहेकुल है। मैं अभी यही है नहीं कर सका कि आलम वे दारी में हैं या ख्याव में। बड़े-बड़े आलमो को एक बे सिर-पैर की बात की ताईद में जमी और आसमान के कुलावे मिलाते देखता हूँ। क्योंकर बाबर कहें कि बेदार हूँ? साबुन, चमड़े और मिट्टी के तेल की दुकानों से आपको कोई शिकायत नहीं। कपड़े, बरतन आदवियात की दुकानें चीकमे है, आप उनको मुतलक वे मौका नहीं समझते। क्या आपकी निगाहों में हुस्न की इतनी भी वकअत नहीं? और क्या यह जरूरी है कि इसे किसी तग तारीक कूचे वद कर दिया जाय? क्या वह बागवाग कहलाने का मुश्तहक है। जहाँ सरोकी कतारें एक गोशे में हों, बेले और गुलाब के तख्ते दूसरे गोशे में और रविशो के दोनो तरफ नीम और कटहल के दरख्त हों, बस्तमे पीपल ठूठ और

१२

किनारे बबूल की कलमें?—चील और कौए दोनों तरफ तख्तों पर बैठे अपना राग अलापते हों, और बुलबुले किसी गोशए तारीक में दर्द के तराने गाती हो। मैं इस तरहरीक की सख्त मुखालिफत करता हूँ। मैं उसे इस काबिल भी नहीं समझता कि उसपर साथ मतानत के साथ बहस की जाय।

हाजी हाशिम मुस्कराये, अबुलवफा की आँखे खुशी से चमकने लगी। अन्य महाशयों ने दार्शनिक मुस्कान के साथ यह हास्यपूर्ण वक्तृता सुनी, पर तेगअली इतने सहनशील न थे। तीव्र भाव से बोले, क्यों गरीब परवर, अबकी बोर्ड में यह तजबीज क्यों न पेश की जाय कि म्युनिसिपैलिटी ऐन चोक में खास एहतमाम के साथ मीनाबाजार आरास्ता करे और जो हजरात इस बाजार की सैरको तशरीफ ले जाय उन्हें गवर्नमेन्ट की जानिब से खुशनूदी मिजाज का परवाना अदा किया जाय? मेरे ख्याल से इस तजबीज की ताइद करने वाले बहुत निकल आयेंगे और इस तजवीज के मुहर्रिरका नाम हमेशा के लिये जिन्दा हो जायगा। उसके वकालत के बाद उसके मजार पर उर्स होगे और वह अपने गोशये लहद में पड़ा हुआ हुस्न की बहार लूटेगा और दलजीर नजमे सुनेगा।

मुन्शी अबदुल्लतीफ का मुँह लाल हो गया। हाजीहाशिम ने देखा कि बात बढ़ी जाती है, तो बोले, मैं अब तक सुना करता था कि उसूल भी कोई चीज है मगर आज मालूम हुआ कि वह महज एक वहम है। अभी बहुत दिन नहीं हुए कि आप ही लोग इस्लामी बजाएफका डेपुटेशन लेकर गए थे, मुसलमान कैदियों के मजहबी तसकीन की तजवीज कर रहे थे और अगर मेरा हाफिजा गलती नहीं करता तो आप ही लोग उन मौकों पर पेश नजर आते थे। मगर आज एकाएक यह इनकलाब नजर आता है। खैर आपका तलव्वुन आपको मुबारक रहे, बन्दा इतना सहज़ुलयकीन नहीं है। मैंने जिंदगी का यह उसूल बना लिया है कि बिरादरा ने वतन की हरएक तजबीज की मुखालिफत करूंगा, क्योंकि मुझे उससे किसी बेहबूदकी तवक्की नहीं है।

अबुलवफा ने कहा, अलाहाजा मुझे रात को आफताब का यकीन हो सकता है, पर हिन्दुओं की नेकनीयत पर यकीन नहीं हो सकता। सैयद शफकत अली बोले, हाजी साहब, आपने हम लोगों को जमाना-साज और बेउसूल समझने में मतानत से काम नहीं लिया। हमारा उसूल जो तब था वह अब भी है और वही हमेशा रहेगा और वह है इसलामी वकार को कायम करना और हरएक जायज तरीके से बिरादरने मिल्लत के बेहबूदकी कोशिश करना। अगर हमारे फायदे में बिरादरा ने वतन का नुकसान हो तो हमको इसकी परवाह नहीं। मगर जिस तजबीज से उनके साथ हमको भी फायदा पहुँचता है और उनसे किसी तरह कम नही, उसकी मुखालिफत करना हमारे इमकान से बाहर है। हम मुखालिफत के लिये मुखालिफत नहीं कर सकते।

रात अधिक जा चुकी थी। सभा समाप्त हो गई। इस वार्तालाप का कोई विशेष फल न निकला। लोग मन से जो पक्ष स्थिर करके घर से आये थे उसी पक्षपर डटे रहे। हाजी हाशिम को अपनी विजयका जो पूर्ण विश्वास था उसम सन्देह पड़ गया।

२९

इस प्रस्ताव के विरोध में हिन्दू मेम्बरों को जब मुसलमानो के जलसे का हाल मालूम हुआ तो उनके कान खड़े हुए। उन्हे मुसलमानो से जो आश थी वह भंग हो गई। कुल दस हिन्दू थे। सेठ बलभद्रदास चेयरमैन थे। डाक्टर श्यामाचरण वाइस चेयरमैन। लाला चिम्मनलाल और दीनानाथ तिवारी व्यापारियों के नेता थे। पद्मसिंह और रुस्तमभाई वकील थे। रमेशदत्त कालेजके अध्यापक, लाला भगतराम ठेकेदार, प्रभाकरराव हिन्दी पत्र ‘जगत' के सपादक और कूंवर अनिरुद्ध बहादुर सिंह जिले के सबसे बड़े जमीदार थे। चौक की दूकानों मे अधिकांश बलभद्रदास और चिम्मनलाल की थी। चावल मंडी में दीनानाथ के कितने ही मकान थे, यह तीनों महाशय इस प्रस्ताव के विपक्षी थे। लाला भगतरामका काम चिम्मनलालकी आर्थिक सहायता से चलता था। इसलिये उनकी सम्मति भी उन्हींकी ओर थी। प्रभाकरराव, रमेशदत्त, रुस्तमभाई और पद्मसिंह इस प्रस्तावके पक्ष में थे। डाक्टर श्यामाचरण और कुंवर साहब के विषय में अभी तक कुछ निश्चय नहीं हो सका था। दोनों पक्ष उनसे सहायता की आशा रखते थे। उन्हीं पर दोनों पक्षों की हार-जीत निर्भर थी। पद्मसिंह अभी बारात से नहीं लौटे थे। बलभद्रदास ने इस अवसर को अपने पक्ष मे समर्थन के लिये उपयुक्त समझा और सब हिन्दू मेम्बरों को अपनी सुसज्जित बारहदरी मे निमंत्रित किया, इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि डाक्टर साहब और कुंवर महोदय की सहानुभूति अपने पक्ष में कर ले। प्रभाकरराव मुसलमानों के कट्टर विरोधी थे। वे लोग इस प्रस्ताव को हिन्दू मुसलिम विवाद का रंग देकर प्रभाकर राव को भो अपनी ओर खीचना चाहते थे।

दीनानाथ तिवारी वोले, हमारे मुसलमान भाइयों ने तो इस विषय में बडी उदारता दिखाई पर इसमें एक गूढ़ रहस्य है। उन्होने 'एक पथ-दो काज' वाली चाल चली है। एक ओर तो समाज सुधार की नेकनामी हाथ आती है दूसरी ओर हिन्दूओं को हानि पहुंचाने का एक बहाना मिलता है। ऐसे अवसर से वे कब चूकने वाले थे।

चिम्मनलाल-मुझे पालिटिक्स से कोई वास्ता नही है और न मैं इसके निकट जाता हूँ। लेकिन मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि हमारे मुसलिम भाइयों ने हमारी गरदन बुरी तरह पकड़ी है। चावलमंडी और चौकके अधिकांश मकान हिन्दुओं के है, यदि वोर्ड ने यह स्वीकार कर लिया तो हिन्दुओं का मटियामेट हो जायगा। छिपे छिपे चोट करना कोई मुसलमानों से सीख ले। अभी बहुत दिन नहीं बीते कि सूद की आड़ में हिन्दुओं पर आक्रमण किया गया था। जब वह चाल पट पड़ गयी तो यह नया उपाय सोचा। खेद है कि हमारे कुछ हिन्दू भाई उनके हाथों की कठपुतली बने हुए है। वे नहीं जानते कि अपने दुरुत्साह से अपनी जाति को कितनी हानि पहुचा रहे है।

स्थानीय कौसिल में जब सूदका प्रस्ताव उपस्थित था तो प्रभाकरराव ने उसका घोर विरोध किया था। चिम्मनलाल ने उसका उल्लेख करके और वर्तमान विषय को आर्थिक दृष्टिकोण से दिखाकर प्रभाकरराव को नियम विरुद्ध करने की चेष्टा की। प्रभाकरराव ने विवश नेत्रों से रुस्तम भाई की ओर देखा, मानो उनसे कह रहे थे कि मुझे ये लोग ब्रह्म फाँस में डाल रहे है, आप किसी तरह मेरा उद्धार कीजिये। रुस्तम भाई बड़े निर्भीक, स्पष्टवादी पुरुष थे। वे चिम्मनलाल का उत्तर देने के लिये खड़े हो गये और बोले, मुझे यह देखकर शोक हो रहा है कि आप लोग एक सामाजिक प्रश्न को हिन्दू मुसलमानो के विवाद का स्वरूप दे रहे हैं। सूद के प्रश्न को भी यही रंग देने की चेष्टा की गई थी। ऐसे राष्ट्रीय विषयो को विवादग्रस्त बनाने से कुछ हिन्दू साहूकारों का भला हो जाता है, किन्तु इससे राष्ट्रीयता को जो चोट लगती है उसका अनुमान करना कठिन है। इसमे सन्देह नही कि इस प्रस्ताव के‌ स्वीकृत होने से हिन्दु साहूकारो को अधिक हानि पहुँचेगी, लेकिन, मुसलमानो-पर भी इसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। चौक और दालमंडी मे मुसलमानों की दूकाने कम नहीं है। हमको प्रतिवाद या विरोध के धुन में अपने मुसलमान भाइयों की नीयत की सफाई पर सन्देह न करना चाहिये, उन्होने इस विषय‌ मे जो कुछ निश्चय किया है वह सार्वजनिक उपकार के विचार से किया है; अगर हिन्दुओं को इससे अधिक हानि हो रही है तो यह दूसरी बात है। मुझे विश्वास है कि मुसलमानों की इससे अधिक हानि होती तब भी उनका यही फैसला होता। अगर आप सच्चे हृदय से मानते है कि यह प्रस्ताव एक सामाजिक कुप्रथा के सुधार के लिये उठाया गया है तो आपको उसके स्वीकार करने में कोई बाधा न होनी चाहिये, चाहे धन की कितनी ही हानि हो। आचरण के सामने धन का कोई महत्व न होना चाहिये।

प्रभाकरराव को धैर्य हुआ। बोले, बस यही मैं भी कहने वाला था, अगर थोड़ी सी आर्थिक हानि से एक कुप्रथा का सुधार हो रहा हो तो वह हानि प्रसन्नाता से उठा लेनी चाहिये। आपलोग जानते है कि हमारी गवर्नमेन्ट को चीन देश से अफीम का व्यापार करने में कितना लाभ था। १८ करोड़ से कुछ अधिक ही होगा। पर चीन में अफीम खाने की कुप्रथा मिटाने के लिये सरकार ने इतनी भीषण हानि उठाने में जरा भी आगा-पीछा नहीं किया।

कुँवर अनिरुद्ध सिंह ने प्रभाकरराव की ओर देखते हुए पूछा, महाशय, है। स्वर्ग में पहुँचने के लिए आए कोई सीधा रास्ता नहीं है। वैतरणी का सामना अवश्य करना पड़ेगा। जो लोग समझते है किसी महात्मा के आशीर्वाद से कूद स्वर्ग में जा बैठेंगे वह उनसे अधिक हास्यास्पद है जो समझते है कि चीफ़ से वेश्याओं को निकाल देने से भारत के सब दुःख दर्द मिट जायेंगे और एक नवीन सूर्य का उदय हो जायगा।

३०

जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारन की आवाज सुनकर जाग जाता है किन्तु इधर-उधर देख कर फिर निंद्रा में मग्न हो जाना है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध और ग्लानि का आवेश शांत होने पर अपने कर्त्तव्यों को भूल गये। उन्होंने सोचा, मेरे यहाँ रहने से उमानाथ पर कौन-सा बोझ पड़ रहा है। आधा सेर आटा ही तो खाता हूँ या और कुछ। लेकिन उस दिन से उन्होंने नीच आदमियों के साथ बैठकर चरस पीना छोड़ दिया। इतनी-सी बात लिये चारों ओर मारे-मारे फिरना उन्हें अनुपयुक्त मालूम हुआ। अब वे प्रायः बरामदे में ही बैठे रहते और सामने से आनेजाने वाली रमणियों को घूरते। वे प्रत्येक विषय में उमानाथकी हाँ-में-हाँ मिलाते। भोजन करते समय सामने जितना आ जाता था का खा लेते, इच्छा रहनेपर भी कभी कुछ न माँगते। वे उनसे न कितनी ही बाते ठकुरसुहाती के लिये कहने। उनकी आत्मा शिव निर्बल हो गई थी।

उमानाथ सान्ता के विवाह संबंध जब उनसे कुछ कहते तो वह बड़े सरल भाषा से उत्तर देते, भाई तुम चाहो जो करो तुम्हीं इसके मालिक हो। वह अपने मन को समझते, जब रुपये इनके लग रहे है तो सब काम इन्हीं के इच्छानुसार होने चाहिये।

लेकिन उमानाथ अपने में बहनोई की कठोर बातें न भूले छालेपर मक्खन लगाने से एक क्षण के लिये कष्ट कम हो जाता है, किन्तु फिर ताप की वेदना होने लगती हैं। कृष्णचन्द्रकी आत्मग्लानि से भरी हुई बातें उमानाथ को शीघ्र भूल गई और उनके कृतघ्न शब्द कानो में गूंजने लगे। जब वह सोने गये तो जान्हवी ने पूछा, आज लालाजी (कृष्णचन्द्र) तुमसे क्या बिगड़ रहे थे।

उमानाथ ने अन्यायपीडित नेत्रों से कहा, मेरा यश गा रहे थे। कह रहे थे, तुमने मुझे लूट लिया, मेरी स्त्री को मार डाला, मेरी एक लड़की को कुएँ में डाल दिया, दूसरी को दुःख दे रहे हो।

'तो तुम्हारे मुँह मे जीभ न थी? कहा होता क्या मैं किसी को नेवता देने गया था? कही तो ठिकाना न था, दरवाजे-दरवाजे ठोकरें खाती फिरती। बकरा जीसे गया, खानेवाले को स्वाद ही न मिला। यहाँ लाज ढोते-ढोते मर मिटे, उसका यह फल। इतने दिन थानेदारी की, लेकिन गंगाजली ने कभी भूलकर भी एक डिविया सेंदूर न भेजा। मेरे सामने कहा होता तो ऐसी ऐसी सुनाती कि दाँत खट्टे हो जाते। दो-दो पहाड़ सी‌‌ लड़कियाँ गलेपर सवार कर दी, उस पर बोलने को मरते है। इनके पीछे फकीर हो गये, उसका यह यश है? अबसे अपना पौरा लेकर क्यों नहीं कही जाते? काहे को पैर में मेहंदी लगाए बैठे है।'

'अब तो जाने को कहते है। सुमन का पता भी पूछा था।'

'तो क्या अब बेटी के सिर पड़ेंगे? वाह रे बेहया!'

'नहीं ऐसा क्या करेगे, शायद दो-एक दिन वहाँ ठहरेगे।'

'कहाँ की बात, इनसे अब कुछ न होगा। इनकी आँखो का पानी मर गया, जाके उसी के सिर पड़ेगें, मगर देख लेना वहाँ एक दिन भी निवाह न होगा।'

अबतक उमानाथ ने सुमन के आत्मपतन की बात जान्हवी से छिपाई थी। वह जानते थे कि स्त्रियों के पेट मे बात नहीं पचती। यह किसी न किसी से अवश्य ही कह देगी और बात फैल जायेगी। जब जान्हवी के स्नेह व्यवहार से‌ वह प्रसन्न होते तो उन्हें उससे सुमन की कथा कहने की बड़ी तीव्र आकांक्षा होती। हृदयसागर में तरंगें उठने लगती, लेकिन परिणाम को सोचकर रुक जाते थे। आज कृष्णचन्द्र की कृतघ्नता और जान्हवी की स्नेहपूर्ण बातों ने उमानाथ को निशंक कर दिया, पेट में बात न रुक सकी। जैसे किसी नाली में स्त्रियाँ भी मुस्करा मुस्कराकर उनपर नयनों की कटार चला रही थी। जान्हवी उदास थी, वह मन में सोच रही थी कि यह वर मेरी चन्द्रा को मिलता तो अच्छा होता। सुभागी यह जानने के लिये उत्सुक थी कि समधी कौन है। कृष्णचन्द्र सदन के चरणों की पूजा कर रहे थे और मन में शंका कर रहे थे कि यह कौनसा उल्टा रिवाज है। मदनसिंह ध्यान से देख रहे थे कि थाल में कितने रुपये है।

बारात जनवा से को चली। रसद का सामान बँटने लगा। चारों ओर कोलाहल होने लगा। कोई कहता था, मुझे घी कम मिला, कोई गोहार लगाता था कि मुझे उपले नहीं दिये गये। लाला बैजनाथ शराब के लिये जिद्द कर रहे थे।

सामान बंट चुका तो लोगोने उपले जलाये और हाँडियाँ चढ़ाई। कुएँ से गैस का प्रकाश पीला पड़ गया।

सदन मसनद लगाकर बैठा। महफिल सज गई। काशी के संगीत समाज ने श्यामकल्याणकी धुन छेड़ी।

सहस्त्रों मनुष्य शामियाने के चारो ओर खड़े थे। कुछ लोग मिर्जई पहने, पगड़ी बाँधे फर्शपर बैठे थे, लोग एक दूसरे से पूछते थे कि डेरे कहाँ है। कोई इस छोलदारी मे झाँकता था, कोई उस छोलदारी में और कुतूहल से कहता था, कैसी बारात है कि एक डेरा भी नही, कहाँ के कंगले है। यह बड़ासा शामियाना काहे को खड़ा कर रक्खा है? मदनसिंह ये बाते सुन-सुनकर मनमें पद्मसिंहपर कुड़बुड़ा रहे थे और पद्मसिंह लज्जा और भय के मारे उनके सामने न आ सकते थे।

इतने में लोगो ने शामियाने पर पत्थर फेंकना शुरु किया। लाला बैजनाथ उठकर छोलदारी में भागे। कुछ लोग उपद्रवकारियों को गालियाँ देने लगे। एक हलचलसी मच गयी। कोई इधर भागता, कोई उधर, कोई गाली बकता था, कोई मारपीट करने पर उतारू था। अकस्मात् एक दीर्घकाय पुरुष, सिर मुड़ाये, भस्म रमाये हाथ में एक त्रिशूल लिये आकर महफिल में खडा हो गया। उसके लाल नेत्र दीपक के समान जल रहे थे