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सेवासदन/३८

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ १६७ से – १७४ तक

 

तैयारी करो। सदन भी अपने कपड़े समेट रहा था। उसके पिता ने सब हाल उससे कह दिया था।

इतने में। पद्मसिंह ने आकर आग्रहपूर्वक कहा, भैया, इतनी जल्दी न कीजिये। जरा सोच समझकर काम कीजिए। धोखा तो हो ही गया, पर यों लौट चलने मे तो और भी जग हंसाई है।

सदन ने चाचा की ओर अवहेलनाकी दृष्टिसे देखा, और मदनसिंह ने आशचर्य से।

पद्मसिंह——दो चार आदमियों से पूछ देखिये क्या राय है।

मदन——क्या कहते हो, क्या जानबूझकर जीती मक्खी निगल जाऊँ?

पद्म——इसमें कम से कम जग हँसाई तो न होगी।

मदन——तुम अभी लडके हो, ये बाते क्या जानो? जाओ, लौटने का सामान करो। इस वक्त की जग हँसाई अच्छी है। कुल में सदा के लिये कलंक तो न लगेगा।

पद्म——लेकिन यह तो विचार कीजिये कि कन्या की क्या गति होगी। उसने क्या अपराध किया है?

मदनसिंह ने झिड़ककर कहा, तुम हो निरे मूर्ख। चलकर डेरे लदाओ। कल को कोई बात पड़ जायगी तो तुम्हीं गालियाँ दोगे कि रुपए पर फिसल पड़े। संसार के व्यवहार में वकालत से काम नहीं चलता।

पद्मसिंहने कातर नेत्रो से देखते हुए कहा, मुझे आपकी आज्ञा से इनकार नहीं है, लेकिन शोक है कि इस कन्या का जीवन नष्ट हो जायगा।

मदन—— तुम खामख्वाह क्रोध दिलाते हो। लड़की का मैने ठीक़ा लिया है? जो कुछ उसके भाग्य में बदा होगा, वह होगा। मुझे इससे क्या प्रयोजन?

पद्मसिंह ने नैराग्यपूर्ण भाव से कहा, सुमन का आना जाना बिलकुल बन्द है। इन लोगों ने उसे त्याग दिया है।

मदन, मैंने तुम्हें कह दिया कि मुझे गुस्सा न दिलाबो। तुम्हें ऐसी

१३ बात मुझसे से कहते हुए लज्जा नही आती? बड़े सुधारक की दुम बने हो। एक हरजाई की बहन से अपने बेटे का व्याह कर लूँ। छि:छि: तुम्हारी बुद्धि कैसी भ्रष्ट हो गई।

पद्मसिंह ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। उनका मन कह रहा था कि भैया इस समय जो कुछ कर रहे हो वही ऐसी अवस्था में मैं भी करता। लेकिन भयंकर परिणाम विचार करके उन्होंने एक बार फिर बोलने का साहस किया जैसे कोई परीक्षार्थी गजट में अपना नाम न पाकर निराश होते हुए भी शोधपत्र की ओर लपकता है, उसी प्रकार अपने को धोखा देकर पद्मसिहं भाई से दबते हुए बोले, सुमन बाई भी तो अब विधवाश्रम में चली गई है।

पद्मसिंह सिर नीचे किये बात कर रहे थे। भाई से आँँखें मिलाने का हौसला न होता था। यह वाक्य मुँह से निकला ही था कि अकस्मात् मदनसिंह ने एक जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। चौककर सिर उठाया, मदनसिंह खड़े क्रोध से काँप रहे थे। तिरस्कार के वे कठोर शब्द जो उनके मुँह से निकलने वाले थे, पद्मसिंह को भूमिपर गिरते देखकर पश्चाताप से दब गये थे। मदनसिंहकी इस समय वही दशा थी जब क्रोध में मनुष्य अपनाही माँस काटने लगता है।

यह आज जीवन में पहला अवसर था कि पद्मसिंह ने भाई के हाथों धक्का खाया। सारी बाल्यावस्था बीत गई, बड़े-बड़े उपद्रव किये, पर भाई ने कभी हाथ न उठाया। वह बच्चों के सदृश रोने लगे, सिसकते थे, हिचकियाँ लेते थे, पर हृदय में लेशमात्र को भी क्रोध न था। केवल यह दुख था कि जिसने सर्वदा प्यार किया, कभी कड़ी बात नहीं कही, उसे आज मेरे दुराग्रह से ऐसा दु:ख पहुँचा। यह हृदय में जलती हुई अग्नि की ज्वाला है, यह लज्जा, अपमान और आत्मग्लानि का प्रत्यक्ष स्वरुप है, यह हृदय में उमड़े हुए शोक सागर का उद्वेग है। सदन ने लपकर पद्मसिंह को उठाया और अपने पिता की ओर क्रोध से देखकर बोला, आप तो जैसे बावले हो गये है।

इतने में कई आदमी आ गये और पूछने लगे, महराज, क्या बात हुई? बारात को लौटाने का हुकुम क्यों देते है? ऐसा कुछ करो कि दोनों ओर की मर्यादा बनी रहे, अब उनकी और आपकी इज्जत एक है। लेन-देन में कुछ कोर कसर हो तो तुम्हीं दब जाओ, नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया है? इनके धन से थोडे ही धनी हो जाओगे? मदनसिंहने कुछ उत्तर नहीं दिया।

महफिलमें खलबली पड़ गई। एक दूसरे से पूछता था, यह क्या बात है? छोलदारी के द्वार पर आदमियों की भीड़ बढ़ती ही जाती थी।

महफिल में कन्या की ओर के भी कितने ही आदमी थे। वह उमानाथ से पूछने लगे, भैया, ये लोग क्यों बरात लौटाने पर उतारू हो रहे है? जब उमानाथ ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया तो से सबके सब आकर मदन सिंह से विनती करने लगे, महाराज, हमसे ऐसा क्या अपराध हुआ है। और जो दण्ड चाहे दीजिये पर बारात न लौटाइये नहीं तो गाँव बदनाम हो जायगा। मदनसिहं ने उनसे केवल इतना कहा, इसका कारण जाकर उमानाथ से पूछो, वहीं बतलायेगे।

पंण्डित कृष्णचन्द्र ने जब से सदन को देखा था, आनन्द से फूले न समाते थे। विवाह का मुहूर्त निकट था, वह वर के आने की राह देख रहे थे कि इतने मे कई आदमियों ने आकर उन्हें यह खबर दी। उन्होंने पूछा क्यों लौट जाते है? क्या उमानाथ से कोई झगड़ा हो गया है?

लोगों ने कहा, हमें यह नहीं मालूम, उमानाथ तो वही खड़े मना रहे है।

कृष्णचन्द्र झल्लाये हुए बारात की ओर चले। बारात का लौटना क्या लड़कों का खेल है? यह कोई गुड्डे गुड्डों का ब्याह है क्या? अगर विवाह नहीं करना था तो यहां बारात क्यों लाये। देखता हूं, कौन बारात को फेर ले जाता है? खून की नदी बहा दूँगा। यही न होगा फांसी हो जायगी, पर इन्हें इसका मजा चखा दूँगा। कृष्णचन्द्र अपने साथियों से ऐसी ही बाते करते, कदम बढ़ाते हुए जनवा से मे पहुँचे और ललकारकर बोले, कहाँ है पंण्डित मदनसिंह? महाराज, जरा बाहर आइये।

मदनसिंह यह ललकार सुनकर बाहर निकल आये और दृढ़ता के साथ बोले, कहिये, क्या कहना है? कृष्णचन्द्र-आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं?

मदन-—अपना मन! हमें विवाह नहीं करना है।

कृष्ण-—आपको विवाह करना होगा। यहाँ आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।

मदन--आपको जो करना हो कीजिये। हम विवाह नहीं करेगे।

कृष्ण-—कोई कारण?

मदन-—कारण क्या आप नहीं जानते?


कृष्ण—जानता तो आपसे क्यों पूछता?

मदन- —तो पंडित उमानाथ से पूछिए?

कृष्ण--मैं आपसे पूछता हूँ?

मदन-—बात दबी रहने दीजिए। मैं आपको लज्जित नहीं करना चाहता।

कृष्ण—अच्छा, समझा, मैं जेलखाने हो आया हूँ। यह उसका दण्ड है। धन्य है आपका न्याय!

मदन—इस बातपर बारात नहीं लौट सकती थी।

कृष्ण—तो उमानाथ से विवाह का कर देने में कुछ कसर हुई होगी।

मद -—हम इतने नीच नहीं है।

कृष्ण-फिर ऐसी कौनसी बात है?

मदन- हम कहते है हमसे न पूछिए।

कृष्ण-आपको बतलाना पड़ेगा। दरवाजे पर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़को का खेल समझा है? यहाँ खून की नदी बह जायगी। आप इस भरोसे में न रहियेगा।

मदन-इसकी हमको चिन्ता नहीं है। हम यहाँ मर जायेंगे लेकिन आपकी लड़की से विवाह न करेगे। आपके यहाँ अपनी मर्य्यादा खोने नहीं आए हैं?

कृष्ण-- तो क्या हम आपसे नीच है?

मदन-—हाँ, आप हमसे नीच है। कृष्ण-इसका कोई प्रमाण?

मदन–हाँ, है।

कृष्ण–तो उसके बताने में आपको क्यो संकोच होता है?

मदन--अच्छा, तो सुनिये, मुझे दोष न दीजियेगा, आपकी लड़की सुमन, जो इस कन्या की सगी बहन है, पतिता हो गई है। आप का जी चाहे तो उसे दालमंडी मे देख आइए।

कृष्णचन्द्र ने अविश्वास की चेष्टा करके कहा, यह बिल्कुल झूठ है। पर क्षणमात्र मे उन्हें याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था तो उन्होंने टाल दिया था, कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया जो जान्हवी बात बात में उनपर करती रहती थी। विश्वास हो गया। उनका सिर लज्जा से झुक गया। वह अचेत होकर भूमिपर गिर पड़े! दोनो तरफ के सैकड़ों आदमी वहाँ खड़े थे लेकिन सबके सब सन्नाटे में आ गए, इस विषय में किसी को मुँह खोलने का साहस नहीं हुआ।

आधी रात होते-होते डेरे-खेमे सब उखड़ गये। उस बगीचे मे फिर अन्धकार छा गया। गीदडो़ की सभा होने लनी और उल्लू बोलने लये।

३२

विठ्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबन्ध-कारिणी सभा के किसी भी सदस्य को इत्तला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियो से यह बात बहुत दिनों तक गुप्त न रही। उन्होंने हिरिया को ढूंढ निकाला और उससे सुमन का पता पूछा लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रो को भी इसकी सूचना दे दी। इसका यह परिणाम हुआ कि उन सज्जनो की आश्रम पर विशेष रीति-से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते, कभी सेठ बलभद्रदास, कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते। इन महानुभावो को अब आश्रम की सफाई और सजावट, उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबन्ध आदि कृष्णचन्द्र-आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं ?

मदन—अपना मन ! हमें विवाह नही करना है ।

कृष्ण—आपको विवाह करना होगा । यहाँ आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।

मदन—आपको जो करना हो कीजिये । हम विवाह नही करेंगे।

कृष्ण- कोई कारण?

मदन—कारण क्या आप नही जानते ?

कृष्ण—जानता तो आपसे क्यों पूछता ?


मदन—तो पंडित उमानाथ से पूछिए?

कृष्ण—मैं आपसे पूछता हूं ?

मदन-बात दबी रहने दीजिए। में आपको लज्जित नही करना चाहता ।

कृष्ण-अच्छा, समझा, मैं जेलखाने हो आया हूँ । यह उसका दण्ड है । धन्य है आपका न्याय !

मदन-इस बातपर बारात नही लौट सकती थी।

कृष्ण-तो उमानाथसे विवाहका कर देनेमें कुछ कसर हुई होगी।

मदन-हम इतने नीच नही हैं ।

कृष्ण—फिर ऐसी कौनसी बात है ?

मदन- हम कहते है हममें न पूछिए ।

कृष्ण—आपको बतलाना पड़ेगा । दरवाजेपर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़कोका खेल समझा है ? यहाँ खूनकी नदी वह जायगी । आप इस भरोसेमें न रहियेगा ।

मदन—इसकी हमको चिन्ता नही है । हम यहाँ मर जायेंगे, लेकिन आपकी लडकीसे विचाह न करंगे । आपके यह अपनी मर्यादा खोने नहीं देगें।

कृष्ण-तो क्या हम आपसे नीच है ?

मदन-हाँ, आप हमसे नीच है ।
कृष्ण-इसका कोई प्रमाण ?

मदन-हाँ, है ।

कृष्ण—तो उसके बताने मे आपको क्यो सकोच होता है ?

मदन अच्छा, तो सुनिये,मुझे दोष न दीजियेगा, आपकी लड़की सुमन,जो इस कन्या की सगी बहन है,पतिता हो गई है । आपका जी चाहे तो उसे दालमंडी मे देख आइए।

कृष्णचंद्र ने अविश्वासकी चेष्टा करके कहा,यह बिल्कुल झूठ है। पर क्षणमात्रमे उन्हे याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था तो उन्होंने टाल दिया था, कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया जो जान्हवी बात बातमें उनपर करती रहती थी। विश्वास हो गया। उनका सिर लज्जासे झुक गया । वह अचेत होकर भूमिपर गिर पड़े ! दोनों तरफ सैकड़ों आदमी वहीं खड़े थे लेकिन सबके सब सन्नाटेमें आ गए ,इस विषय में किसीको मुंह खोलनेका साहस नहीं हुआ ।

आधी रात होतेहोते डेरे-खेमे सब उखड़ गये । उस बगीचेमे फिर अन्धकार छा गया । गीदड़ोंकी सभा होने लनी और उल्लू बोलने लये ।

३२

विठ्ठलदास ने सुमनको विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबन्ध-कारिणी सभा किसी भी सदस्य को इत्तला न दी थी। आश्रम की विधवाओसे उसे विधवा वताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियोंसे यह बात बहुत दिनोंतक गुप्त न रही। उन्होंने हिरियाको ढूंढ़ निकाला और उससे सुमनका पता पूछा लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रों को भी इसकी सूचना दे दो। इसका यह परिणाम हुआ कि उन सज्जनों की आश्रमपर विशेष रीति से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते,कभी सेठ बलभद्रदास,कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते! इन महानुभावोंको अब आश्रम की सफाई और सजावट,उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबंध आदि
मालूम होता है, वह अपने सद्व्यवहार से अपनी कालिमा को धोना चाहती है। सब काम करने को तैयार और प्रसन्न चित्त से। अन्य स्त्रियाँ सोती ही रहती है और वह उनके कमरों से झाड़ू दे जाती है। कई विधवाओं को सीना सिखाती है, कई उससे गाना सीखती है। सब प्रत्येक बात में उसी की राय लेती है। इस चहारदिवारी के भीतर अब उसी का राज्य है। मुझे कदापि ऐसी आशा न थी। यहाँ उसने कुछ पढ़ना भी शुरू कर दिया है। और भाई मनका हाल तो ईश्वर जानें, देखने में तो अब उसका बिलकुल कायापलट सा ही गया है।

पद्म-नहीं, साहब, वह स्वभावकी बुरी स्त्री नहीं है। मेरे यहाँ महीनो आती रही थी। मेरे घर में उसकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं(यह कहते-कहते झेंंप गये), कुछ ऐसे कुसंस्कार ही हो गये जिन्होने उससे यह अभिनय कराये। सच पूछिये तो हमारे पापों का दण्ड उसे भोगना पड़ा। हाँ, कुछ उधर का समाचार भी मिला? सेठ बलभद्रदास ने और कोई चाल चली?

विठटल हाँ- साहब, वे चुप बैठनेवाले आदमी नहीं है? आजकल खूब दौड़-धूप हो रही है। दो तीन दिन हुए हिन्दू मेम्बरों की एक सभा भी हुई थी। मैं तो जा न सका, पर विजय उन्हीं लोगों की रही। अब प्रधान के २ वोट मिलाकर उनके पास ६ वोट है और हमारे पास कुल ४ मुसलमानों के वोट मिलाकर बराबर हो जायगे।

पद्म-—तो हमको कम से कम एक वोट मिलना चाहिए। है इसकी कोई आशा?

विठटल— मुझे तों कोई आशा नहीं मालूम होती।

पद्म-अवकाश हो तो चलिय, जरा डाक्टर साहब और लाला भगतराम के पास चले।

विठ्ठल--हाँ, चलिये, मैं तैयार हूँ।

३३

यद्यपि डाक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने