सेवासदन/४०

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १६७ ]

तैयारी करो। सदन भी अपने कपड़े समेट रहा था। उसके पिता ने सब हाल उससे कह दिया था।

इतने में। पद्मसिंह ने आकर आग्रहपूर्वक कहा, भैया, इतनी जल्दी न कीजिये। जरा सोच समझकर काम कीजिए। धोखा तो हो ही गया, पर यों लौट चलने मे तो और भी जग हंसाई है।

सदन ने चाचा की ओर अवहेलनाकी दृष्टिसे देखा, और मदनसिंह ने आशचर्य से।

पद्मसिंह——दो चार आदमियों से पूछ देखिये क्या राय है।

मदन——क्या कहते हो, क्या जानबूझकर जीती मक्खी निगल जाऊँ?

पद्म——इसमें कम से कम जग हँसाई तो न होगी।

मदन——तुम अभी लडके हो, ये बाते क्या जानो? जाओ, लौटने का सामान करो। इस वक्त की जग हँसाई अच्छी है। कुल में सदा के लिये कलंक तो न लगेगा।

पद्म——लेकिन यह तो विचार कीजिये कि कन्या की क्या गति होगी। उसने क्या अपराध किया है?

मदनसिंह ने झिड़ककर कहा, तुम हो निरे मूर्ख। चलकर डेरे लदाओ। कल को कोई बात पड़ जायगी तो तुम्हीं गालियाँ दोगे कि रुपए पर फिसल पड़े। संसार के व्यवहार में वकालत से काम नहीं चलता।

पद्मसिंहने कातर नेत्रो से देखते हुए कहा, मुझे आपकी आज्ञा से इनकार नहीं है, लेकिन शोक है कि इस कन्या का जीवन नष्ट हो जायगा।

मदन—— तुम खामख्वाह क्रोध दिलाते हो। लड़की का मैने ठीक़ा लिया है? जो कुछ उसके भाग्य में बदा होगा, वह होगा। मुझे इससे क्या प्रयोजन?

पद्मसिंह ने नैराग्यपूर्ण भाव से कहा, सुमन का आना जाना बिलकुल बन्द है। इन लोगों ने उसे त्याग दिया है।

मदन, मैंने तुम्हें कह दिया कि मुझे गुस्सा न दिलाबो। तुम्हें ऐसी

१३ [ १६८ ] बात मुझसे से कहते हुए लज्जा नही आती? बड़े सुधारक की दुम बने हो। एक हरजाई की बहन से अपने बेटे का व्याह कर लूँ। छि:छि: तुम्हारी बुद्धि कैसी भ्रष्ट हो गई।

पद्मसिंह ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। उनका मन कह रहा था कि भैया इस समय जो कुछ कर रहे हो वही ऐसी अवस्था में मैं भी करता। लेकिन भयंकर परिणाम विचार करके उन्होंने एक बार फिर बोलने का साहस किया जैसे कोई परीक्षार्थी गजट में अपना नाम न पाकर निराश होते हुए भी शोधपत्र की ओर लपकता है, उसी प्रकार अपने को धोखा देकर पद्मसिहं भाई से दबते हुए बोले, सुमन बाई भी तो अब विधवाश्रम में चली गई है।

पद्मसिंह सिर नीचे किये बात कर रहे थे। भाई से आँँखें मिलाने का हौसला न होता था। यह वाक्य मुँह से निकला ही था कि अकस्मात् मदनसिंह ने एक जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। चौककर सिर उठाया, मदनसिंह खड़े क्रोध से काँप रहे थे। तिरस्कार के वे कठोर शब्द जो उनके मुँह से निकलने वाले थे, पद्मसिंह को भूमिपर गिरते देखकर पश्चाताप से दब गये थे। मदनसिंहकी इस समय वही दशा थी जब क्रोध में मनुष्य अपनाही माँस काटने लगता है।

यह आज जीवन में पहला अवसर था कि पद्मसिंह ने भाई के हाथों धक्का खाया। सारी बाल्यावस्था बीत गई, बड़े-बड़े उपद्रव किये, पर भाई ने कभी हाथ न उठाया। वह बच्चों के सदृश रोने लगे, सिसकते थे, हिचकियाँ लेते थे, पर हृदय में लेशमात्र को भी क्रोध न था। केवल यह दुख था कि जिसने सर्वदा प्यार किया, कभी कड़ी बात नहीं कही, उसे आज मेरे दुराग्रह से ऐसा दु:ख पहुँचा। यह हृदय में जलती हुई अग्नि की ज्वाला है, यह लज्जा, अपमान और आत्मग्लानि का प्रत्यक्ष स्वरुप है, यह हृदय में उमड़े हुए शोक सागर का उद्वेग है। सदन ने लपकर पद्मसिंह को उठाया और अपने पिता की ओर क्रोध से देखकर बोला, आप तो जैसे बावले हो गये है।

इतने में कई आदमी आ गये और पूछने लगे, महराज, क्या बात हुई? [ १६९ ] बारात को लौटाने का हुकुम क्यों देते है? ऐसा कुछ करो कि दोनों ओर की मर्यादा बनी रहे, अब उनकी और आपकी इज्जत एक है। लेन-देन में कुछ कोर कसर हो तो तुम्हीं दब जाओ, नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया है? इनके धन से थोडे ही धनी हो जाओगे? मदनसिंहने कुछ उत्तर नहीं दिया।

महफिलमें खलबली पड़ गई। एक दूसरे से पूछता था, यह क्या बात है? छोलदारी के द्वार पर आदमियों की भीड़ बढ़ती ही जाती थी।

महफिल में कन्या की ओर के भी कितने ही आदमी थे। वह उमानाथ से पूछने लगे, भैया, ये लोग क्यों बरात लौटाने पर उतारू हो रहे है? जब उमानाथ ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया तो से सबके सब आकर मदन सिंह से विनती करने लगे, महाराज, हमसे ऐसा क्या अपराध हुआ है। और जो दण्ड चाहे दीजिये पर बारात न लौटाइये नहीं तो गाँव बदनाम हो जायगा। मदनसिहं ने उनसे केवल इतना कहा, इसका कारण जाकर उमानाथ से पूछो, वहीं बतलायेगे।

पंण्डित कृष्णचन्द्र ने जब से सदन को देखा था, आनन्द से फूले न समाते थे। विवाह का मुहूर्त निकट था, वह वर के आने की राह देख रहे थे कि इतने मे कई आदमियों ने आकर उन्हें यह खबर दी। उन्होंने पूछा क्यों लौट जाते है? क्या उमानाथ से कोई झगड़ा हो गया है?

लोगों ने कहा, हमें यह नहीं मालूम, उमानाथ तो वही खड़े मना रहे है।

कृष्णचन्द्र झल्लाये हुए बारात की ओर चले। बारात का लौटना क्या लड़कों का खेल है? यह कोई गुड्डे गुड्डों का ब्याह है क्या? अगर विवाह नहीं करना था तो यहां बारात क्यों लाये। देखता हूं, कौन बारात को फेर ले जाता है? खून की नदी बहा दूँगा। यही न होगा फांसी हो जायगी, पर इन्हें इसका मजा चखा दूँगा। कृष्णचन्द्र अपने साथियों से ऐसी ही बाते करते, कदम बढ़ाते हुए जनवा से मे पहुँचे और ललकारकर बोले, कहाँ है पंण्डित मदनसिंह? महाराज, जरा बाहर आइये।

मदनसिंह यह ललकार सुनकर बाहर निकल आये और दृढ़ता के साथ बोले, कहिये, क्या कहना है? [ १७० ] कृष्णचन्द्र-आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं?

मदन-—अपना मन! हमें विवाह नहीं करना है।

कृष्ण-—आपको विवाह करना होगा। यहाँ आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।

मदन--आपको जो करना हो कीजिये। हम विवाह नहीं करेगे।

कृष्ण-—कोई कारण?

मदन-—कारण क्या आप नहीं जानते?


कृष्ण—जानता तो आपसे क्यों पूछता?

मदन- —तो पंडित उमानाथ से पूछिए?

कृष्ण--मैं आपसे पूछता हूँ?

मदन-—बात दबी रहने दीजिए। मैं आपको लज्जित नहीं करना चाहता।

कृष्ण—अच्छा, समझा, मैं जेलखाने हो आया हूँ। यह उसका दण्ड है। धन्य है आपका न्याय!

मदन—इस बातपर बारात नहीं लौट सकती थी।

कृष्ण—तो उमानाथ से विवाह का कर देने में कुछ कसर हुई होगी।

मद -—हम इतने नीच नहीं है।

कृष्ण-फिर ऐसी कौनसी बात है?

मदन- हम कहते है हमसे न पूछिए।

कृष्ण-आपको बतलाना पड़ेगा। दरवाजे पर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़को का खेल समझा है? यहाँ खून की नदी बह जायगी। आप इस भरोसे में न रहियेगा।

मदन-इसकी हमको चिन्ता नहीं है। हम यहाँ मर जायेंगे लेकिन आपकी लड़की से विवाह न करेगे। आपके यहाँ अपनी मर्य्यादा खोने नहीं आए हैं?

कृष्ण-- तो क्या हम आपसे नीच है?

मदन-—हाँ, आप हमसे नीच है। [ १७१ ] कृष्ण-इसका कोई प्रमाण?

मदन–हाँ, है।

कृष्ण–तो उसके बताने में आपको क्यो संकोच होता है?

मदन--अच्छा, तो सुनिये, मुझे दोष न दीजियेगा, आपकी लड़की सुमन, जो इस कन्या की सगी बहन है, पतिता हो गई है। आप का जी चाहे तो उसे दालमंडी मे देख आइए।

कृष्णचन्द्र ने अविश्वास की चेष्टा करके कहा, यह बिल्कुल झूठ है। पर क्षणमात्र मे उन्हें याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था तो उन्होंने टाल दिया था, कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया जो जान्हवी बात बात में उनपर करती रहती थी। विश्वास हो गया। उनका सिर लज्जा से झुक गया। वह अचेत होकर भूमिपर गिर पड़े! दोनो तरफ के सैकड़ों आदमी वहाँ खड़े थे लेकिन सबके सब सन्नाटे में आ गए, इस विषय में किसी को मुँह खोलने का साहस नहीं हुआ।

आधी रात होते-होते डेरे-खेमे सब उखड़ गये। उस बगीचे मे फिर अन्धकार छा गया। गीदडो़ की सभा होने लनी और उल्लू बोलने लये।

३२

विठ्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबन्ध-कारिणी सभा के किसी भी सदस्य को इत्तला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियो से यह बात बहुत दिनों तक गुप्त न रही। उन्होंने हिरिया को ढूंढ निकाला और उससे सुमन का पता पूछा लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रो को भी इसकी सूचना दे दी। इसका यह परिणाम हुआ कि उन सज्जनो की आश्रम पर विशेष रीति-से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते, कभी सेठ बलभद्रदास, कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते। इन महानुभावो को अब आश्रम की सफाई और सजावट, उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबन्ध आदि कृष्णचन्द्र-आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं ?

मदन—अपना मन ! हमें विवाह नही करना है ।

कृष्ण—आपको विवाह करना होगा । यहाँ आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।

मदन—आपको जो करना हो कीजिये । हम विवाह नही करेंगे।

कृष्ण- कोई कारण?

मदन—कारण क्या आप नही जानते ?

कृष्ण—जानता तो आपसे क्यों पूछता ?


मदन—तो पंडित उमानाथ से पूछिए?

कृष्ण—मैं आपसे पूछता हूं ?

मदन-बात दबी रहने दीजिए। में आपको लज्जित नही करना चाहता ।

कृष्ण-अच्छा, समझा, मैं जेलखाने हो आया हूँ । यह उसका दण्ड है । धन्य है आपका न्याय !

मदन-इस बातपर बारात नही लौट सकती थी।

कृष्ण-तो उमानाथसे विवाहका कर देनेमें कुछ कसर हुई होगी।

मदन-हम इतने नीच नही हैं ।

कृष्ण—फिर ऐसी कौनसी बात है ?

मदन- हम कहते है हममें न पूछिए ।

कृष्ण—आपको बतलाना पड़ेगा । दरवाजेपर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़कोका खेल समझा है ? यहाँ खूनकी नदी वह जायगी । आप इस भरोसेमें न रहियेगा ।

मदन—इसकी हमको चिन्ता नही है । हम यहाँ मर जायेंगे, लेकिन आपकी लडकीसे विचाह न करंगे । आपके यह अपनी मर्यादा खोने नहीं देगें।

कृष्ण-तो क्या हम आपसे नीच है ?

मदन-हाँ, आप हमसे नीच है ।
कृष्ण-इसका कोई प्रमाण ?

मदन-हाँ, है ।

कृष्ण—तो उसके बताने मे आपको क्यो सकोच होता है ?

मदन अच्छा, तो सुनिये,मुझे दोष न दीजियेगा, आपकी लड़की सुमन,जो इस कन्या की सगी बहन है,पतिता हो गई है । आपका जी चाहे तो उसे दालमंडी मे देख आइए।

कृष्णचंद्र ने अविश्वासकी चेष्टा करके कहा,यह बिल्कुल झूठ है। पर क्षणमात्रमे उन्हे याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था तो उन्होंने टाल दिया था, कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया जो जान्हवी बात बातमें उनपर करती रहती थी। विश्वास हो गया। उनका सिर लज्जासे झुक गया । वह अचेत होकर भूमिपर गिर पड़े ! दोनों तरफ सैकड़ों आदमी वहीं खड़े थे लेकिन सबके सब सन्नाटेमें आ गए ,इस विषय में किसीको मुंह खोलनेका साहस नहीं हुआ ।

आधी रात होतेहोते डेरे-खेमे सब उखड़ गये । उस बगीचेमे फिर अन्धकार छा गया । गीदड़ोंकी सभा होने लनी और उल्लू बोलने लये ।

३२

विठ्ठलदास ने सुमनको विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबन्ध-कारिणी सभा किसी भी सदस्य को इत्तला न दी थी। आश्रम की विधवाओसे उसे विधवा वताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियोंसे यह बात बहुत दिनोंतक गुप्त न रही। उन्होंने हिरियाको ढूंढ़ निकाला और उससे सुमनका पता पूछा लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रों को भी इसकी सूचना दे दो। इसका यह परिणाम हुआ कि उन सज्जनों की आश्रमपर विशेष रीति से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते,कभी सेठ बलभद्रदास,कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते! इन महानुभावोंको अब आश्रम की सफाई और सजावट,उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबंध आदि
[ १७४ ] मालूम होता है, वह अपने सद्व्यवहार से अपनी कालिमा को धोना चाहती है। सब काम करने को तैयार और प्रसन्न चित्त से। अन्य स्त्रियाँ सोती ही रहती है और वह उनके कमरों से झाड़ू दे जाती है। कई विधवाओं को सीना सिखाती है, कई उससे गाना सीखती है। सब प्रत्येक बात में उसी की राय लेती है। इस चहारदिवारी के भीतर अब उसी का राज्य है। मुझे कदापि ऐसी आशा न थी। यहाँ उसने कुछ पढ़ना भी शुरू कर दिया है। और भाई मनका हाल तो ईश्वर जानें, देखने में तो अब उसका बिलकुल कायापलट सा ही गया है।

पद्म-नहीं, साहब, वह स्वभावकी बुरी स्त्री नहीं है। मेरे यहाँ महीनो आती रही थी। मेरे घर में उसकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं(यह कहते-कहते झेंंप गये), कुछ ऐसे कुसंस्कार ही हो गये जिन्होने उससे यह अभिनय कराये। सच पूछिये तो हमारे पापों का दण्ड उसे भोगना पड़ा। हाँ, कुछ उधर का समाचार भी मिला? सेठ बलभद्रदास ने और कोई चाल चली?

विठटल हाँ- साहब, वे चुप बैठनेवाले आदमी नहीं है? आजकल खूब दौड़-धूप हो रही है। दो तीन दिन हुए हिन्दू मेम्बरों की एक सभा भी हुई थी। मैं तो जा न सका, पर विजय उन्हीं लोगों की रही। अब प्रधान के २ वोट मिलाकर उनके पास ६ वोट है और हमारे पास कुल ४ मुसलमानों के वोट मिलाकर बराबर हो जायगे।

पद्म-—तो हमको कम से कम एक वोट मिलना चाहिए। है इसकी कोई आशा?

विठटल— मुझे तों कोई आशा नहीं मालूम होती।

पद्म-अवकाश हो तो चलिय, जरा डाक्टर साहब और लाला भगतराम के पास चले।

विठ्ठल--हाँ, चलिये, मैं तैयार हूँ।

३३

यद्यपि डाक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने [ १७५ ] एक किराये की गाड़ी की। डाक्टर साहब के यह पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढाबढ़ाकर बयान किये अगर अपनी चतुराईको खूब दर्शाया।

पद्मसिंहने यह सुनकर चिन्तित भाव से कहा, तो अब हमको और सतर्क होने की जरूरत है। अन्त में आश्रम का सारा भार उन्ही लोगों पर पड़ेगा। बलभद्रदास अभी चाहे चुप रह जायें लेकिन इसकी कसर कभी न कभी निकालेगे अवश्य।

विट्ठल---मैं क्या करूँ? मुझसे यह अत्याचार देखकर रहा नहीं जाता। शरीर में एक ज्वाला-सी उठने लगती है। कहने को ये लोग विद्वान्बु द्धिमान है, नीतिपरायण है, पर उनके ऐसे कर्म? अगर मुझमे कौशल से काम लेने की सामर्थ्य होती तो कमसे कम बलभद्रदास से लड़ने की नौबत न आती।

पद्म---यह तो एक दिन होना ही था। यह भी मेरे ही कर्मो का फल है। देखूँ, अभी और क्या-क्या गुल खिलते है? जब से बारात वापस आई है मेरी विचित्र दशा हो गई है। न भूख है, न प्यास, रातभर करवटे बदला करता हूँ। यही चिन्ता लगी रहती है कि उस अभागिन कन्या का बेड़ा कैसे पार लगेगा। अगर कहीं आश्रम का भार सिरपर पड़ा तो जान ही पर बन जायगी। ऐसे अथाह दलदल में फंस गया हूँ कि ज्यों-ज्यों ऊपर उठना चाहता हूँ और नीचे दबा जाता हूँ।

यही बात करते-करते डाक्टर साहब का बँगला आ गया। १० बजे थे। डाक्टर साहब अपने सुसज्जित कमरे मे बैठे हुए अपनी बड़ी लड़की मिस कांतिसे शतरंज खेल रहे थे। मेज पर दो टेरियर कुत्ते बैठे हुए बड़े ध्यान से शतरंज की चालो को देख रहे थे। और कभी-कभी जब उनकी समझ में खिलाड़ियो से कोई भूल हो जाती थी तो पजो से मोहरो को उलट पटल देते थे। मिस कांति उनकी इस शरारतपर हँसकर अंग्रेजी में कहती थीं, ‘यू नाटी!' [ १७६ ] मेज की बाई ओर एक आराम कुर्सीपर पर सैयद तेग अली साहब विराजमान थे और बीच-बीच में मिस कान्ति को चाल बताते थे।

इतने में हमारे दोनों मित्र जा पहुँचे। डाक्टर साहब ने उठकर दोनों सज्जनों हाथ मिलाया। मिस कान्ति ने उनकी ओर दबी निगाहों से देखा और मेज पर से एक पत्र उठाकर पढ़ने लगीं।

डाक्टर साहब ने अंग्रेजी में कहा, मैं आप लोगो से मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ। आइये आप लोगों को मिस कांति से इन्ट्रोडयूस करा दूँ।

परिचय हो जाने पर मिस कान्ति ने दोनों आदमियों से हाथ मिलाया और हंसती हुई वाली, बाबा अभी आप लोगों का जिक्र कर रहे थे। मैं आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न हई।

डाक्टर श्यामाचरण—मिस कान्ति अभी डलहौसी पहाड़ से आई है। इसका स्कूल जाड़े में बन्द हो जाता है। वहाँ शिक्षा का बहुत उत्तम प्रबन्ध है। यह अंगरेजों की लड़कियो के साथ वोर्डिंगहाउस में रहती है। लेडी प्रिंसिपल ने अबकी इसकी प्रशंसा की है। कांति जरा अपनी लेडी प्रिंसिपलकी चिटठी इन्हें दिखा दो। मिस्टर शर्मा, आप कान्तिकी अंगरेजी बात सुनकर दग रह जायेंगे (हंसते हुए) यह मुझे कितने की नये मुहाविरे सिखा सकती है।

मिस कान्ति ने लजाते हुए अपना प्रशंसापत्र पद्मसिंह को दिखाया। उन्होने उसे पढ़कर कहा, आप लैटिन भी पढ़ती है?

डाक्टर साहबने कहा, लैटिन में अबकी परीक्षा में इन्हे एक पदक मिला है। कल क्लब में कान्ति ने ऐसा अच्छा गेम दिखाया कि अंगरेज लेडियाँ दंग रह गई। हां, अबकी बार आप हिन्दू मेम्बरो के जलसे में नहीं थे? पद्म, मैं जरा मकान पर चला गया था।

डाक्टर- आपही के प्रस्तावपर विचार किया गया। मैं तो उचित समझता हूँ कि अभी उसे बोर्ड में पेश करने में जल्दी न करे। अभी सफलता की बहुत कम आशा है। [ १७७ ] तेगअली बोले, जनाब, मुलसमान मेम्बरों की तरफ से तो आपको पूरी मदद मिलेगी।

डॉक्टर—हों, लेकिन हिन्दू मेम्बरों में तो मतभेद है।

पद्म-आपकी सहायता हो जाय तो सफलता में कोई संदेह न रहें।

डाक्टर--मुझे इस प्रस्ताव से पूरी सहानुभूति है, लेकिन आप जानते है, मैं गवर्नमेन्ट का नामजद किया हुआ मेम्बर हूँ। जबतक यह न मालूम हो जाय कि गवर्नमेन्ट इस विषय को पसन्द करती है या नहीं, तबतक मैं ऐसे सामाजिक प्रश्न पर कोई राय नही दे सकता।

विठ्ठलदासने तीव्र स्वर से कहा, जब मेम्बर होने से आपके विचार स्वातन्त्र्य मे बाधा पड़ती तो आपको इस्तीफा दे देना चाहिये।

तीनों आदमियोने विट्ठलदास को उपेक्षा की दृष्टि से देखा। उनका यह कथन असंगत था। तेगअली ने व्यंग, भाव से कहा, इस्तीफा दे दे तो यह सम्मान कैसे हो? लाटसाहब के बराबर कुर्सीपर कैसे बैठे? आनरेबल कैंसे कहलावे? बडे-बड़े अंगरेजो से हाथ मिलाने का सौभाग्य से प्राप्त हो? सरकारी डिनर में बढ़-बढ़कर हाथ मारने का गौरव कैसे मिले? नैनीताल की सैर कैसे करे? अपनी वक्तृता का चमत्कार कैसे दिखावे? यह भी तो सोचिये।

विट्ठलदास बहुत लज्जित हुए। पद्मसिंह पछताये कि विट्ठलदास के साथ नाहक आये।

डॉक्टर साहब गम्भीर भाव से बोले, साधारण लोग समझते है कि इस लालच से लोग मेम्बरी के लिए दौड़ते है। वह यह नहीं समझते कि यह कितनी जिम्मेदारी का काम है। गरीब मेम्बरों को अपना कितना समय, कितना विचार, कितना धन, कितना परिश्रम इसके लिए अर्पण करना पड़ता है। इसके बदले उसे इस सन्तोष के सिवाय और क्या मिलता है कि मैं देश और जाति की सेवा कर रहा हूँ। ऐसा न हो तो कोई मेम्बरी की परवा न करे।

तेगअली—जी हाँ, इसमे क्या शक है, जनाब ठीक फरमाते है, जिसके [ १७८ ] सिर यह अजीमुश्शान जिम्मेदारी पड़ती है उसका दिल जानता है।

११ बज गये थे। श्यामाचरण ने पद्यसिंंह से कहा, मेरे भोजन का समय आ गया, अब जाता हूँँ। आप सन्ध्या समय मुझसे मिलियेगा।


पद्मसिंहने कहा, हाँ, हाँ, शौक से जाइये। उन्होने सोचा जब ये भोजन में जरासी देर हो जाने से इतने घबराते है तो दूसरो से क्या आशा की जाय? लोग जाति और देश के सेवक तो बनना चाहते है, पर जरासा भी कष्ट नहीं उठाना चाहते।

लाला भगतराम धूप में तख्तेपर बैठे हुक्का पी रहे थे। उनकी छोटी लड़की गोद में बैठी हुई धुए को पकड़न के लिए बार बार हाथ बढ़ाती थी। सामने जमीनपर कई मिस्त्री और राजगीर बैठे हुए थे। भगतराम पद्मसिंह को देखते ही उठखड़े हुए और पालागन करके बोले, मैने शाम ही को सुना था कि आप आ गये, आज प्रातःकाल आनेवाला था, लेकिन कुछ ऐसा झंझट आ पड़ा कि अवकाश ही न मिला। यह ठेकेदारी का काम बड़े झगड़े का है। काम कराइये, अपने रुपये लगाइये, उसपर दूसरों की खुशामद कीजिये। आजकल इजिनियर साहब किसी बातपर ऐसे नाराज हो गए है कि मेरा कोई काम उन्हें पसन्द ही नही आता। एक पुल बनवाने का ठीका लिया था। उसे तीन बार गिरवा चुके हैं। कभी कहते, यह नहीं बना, कभी कहते, वह नहीं बना। नफा कहाँ से होगा, उलटे नुकसान होने की सम्भावना है। कोई सुननेवाला नहीं है। आपने सुन होगा, हिन्दू मेम्बरों का जलसा हो गया।

पद्म—हाँ, सुना और सुनकर शोक हुआ। आपसे मुझे पूरी आशा थी। क्या आप इस सुधार को नहीं समझते?

भगतराम—इसे केवल उपयोगी ही नहीं समझाता, बल्कि हृदय से इसकी सहायता करना चाहता हूँ पर मै अपनी रायका मालिक नहीं हूँ। मैंने अपने को स्वार्थ के हाथों में बेच दिया है। मुझे आप ग्रामोफोन का रेकार्ड समझिये, जो कुछ भर दिया जाता है वहीं कह सकता हूँ और कुछ नहीं। [ १७९ ]पद्मसिंह--लेकिन आप यह तो मानते है कि जाति के हितमे स्वार्थसे पार्थक्य होनी चाहिए।

भगतराम-जी हाँ,इसे सिद्धन्तरूपसे मानता हूँ,पर इसे व्यवहार में लाने की शक्ति नहीं रखता। आप जानते होंगे, मेरा सारा कारबार सेठ चिम्मनलालकी मदद से चलता है। अगर उन्हे नाराज कर लूं तो यह सारा ठाट बिगड़ जाय। समाज में मेरी जो कुछ मान-मर्यादा है वह इसी ठाटबाट के कारण है।विद्या और बुद्धि है ही नहीं, केवल इसी स्वांग का भरोसा है। आज अगर कलई खुल जाय तो कोई बात भी न पूछे। दूध की मक्खी की तरह समाज से निकाल दिया जाऊँ। बतलाइये शहर में कौन है जो केवल मेरे विश्वासपर हजारों रुपये बिना सूद के दे देगा, और फिर केवल अपनी ही फिक्र तो नहीं है। कम से कम ३०० रु० मासिक के गृहस्थीका खर्च है जाति के लिए मैं स्वयं कष्ट झेलनके लिए तैयार हूं, पर अपने बच्चो को कैसे निरवलम्ब कर दूँ।

हम जब अपने किसी कर्त्तव्य से मुँह मोड़ते है तो दोष से बचने के लिए तो ऐसी प्रबल युक्तियां निकालते है कि कोई मुँह न खोल सके। उस समय हम संकोच को छोड़कर अपने सम्बन्ध ऐसी-ऐसी बाते कह डालते है कि जिनके गुप्त रहने ही में हमारा कल्याण है। लाला भगतराम के हृदय में यही भाव काम कर रहा था। पद्मसिंह समझ गये कि इनसे कोई आशा नहीं। वोले, ऐसी अवस्था में आप पर कैसे जोर दे सकता हूँ। मुझे केवल एक वोट की फिक्र है, कोई उपाय बतलाइये, कैसे मिले?

भगत-कुंवर साहब के यहाँ जाइये। ईश्वर चाहेगे तो उनका वोट आपको मिल जायगा। सेठ बलभद्रदास ने उनपर ३०००) की नालिश की है। कल उनको डिगरी भी हो गई। कुंवर साहब इस समय बलभद्रदास से तने हुए है, वश चले तो गोली मार दे। फंसाने का एक लटका आपको और बतायें देता हूँ। उन्हें किसी सभा की प्रधान बना दीजिये। बस उनकी नकेल आपके हाथ में हो जायेगी।

पद्मसिहने हंसकर कहा, अच्छी बात है; उन्हीं के यहाँ चलता हूँ। [ १८० ] दोपहर हो गया था, लेकिन पद्मसिंह को भूख प्यास न थी। बग्घीपर बैठकर चले। कुंवर साहब बरुना-किनारे एक बंगले में रहते थे। आध घंटे में जा पहुंचे।

बंगले के हाते में न कोई सजावट थी, न सफाई। फूलपत्ती का नाम न था। बरामदे में कई कुत्ते जंजीर में बँधे खड़े थे। एक तरफ कई घोड़े बंधे हुए थे। कुंवर साहब को शिकार का बहुत शौक था। कभी-कभी काश्मीर तक का चक्कर लगाया करते थे। इस समय वह सामने कमरे में बैठे हुए सितार बजा रहे थे। दीवारो पर चीतो की खाले और हिरनो के सीग शोभा दे रहे थे। एक कोने में कई बन्दूकें और बरछियाँ रखी हुई थी; दूसरी ओर एक बड़ी मेजपर एक घड़ियाल बैठा था। पद्मसिंह कमरे में आये तो उसे देखकर एक बार चौंक पड़े। खालमें ऐसी सफाई से भूसा भरा गया था कि उसमें जानसी पड़ गयी थी।

कुंवर साहब ने शर्माजी का बड़े प्रेम से स्वागत किया——आइये महाशय, आपके तो दर्शन दुर्लभ हो गये। घरसे कब आए?

पझसिंह——कल आया हूँ।

कुंवर——चेहर उतरा है, बीमार थे क्या?

पद्म——जी नहीं बहुत अच्छी तरह हूँ।

कुंवर——जुछ जलपान कीजियेगा?

पद्म——नहीं क्षमा कीजिये, क्या सितार का अभ्यास हो रहा है?

कुंवर——जी हाँ, मुझे तो अपना सितार ही पसन्द है। हारमोनियम और प्यानों सुनकर मुझे मतलीसी होने लगती है, इन अंगरेजी वाजों ने हमारे संगीत को चौपट कर दिया, इसकी चर्चा ही उठ गई। जो कुछ कसर रह गई थी, वह थिएटरों ने पूरी कर दी। बस, जिसे देखिए गजल और कौवाली की रट लगा रहा है। थोड़े दिनो में धनुविद्या की तरह इसका भी लोप हो जायगा। संगीत से हृदय में पवित्र भाव पैदा होते है। जब से गाने का प्रचार कम हुआ, हम लोग भावशून्य हो गए और इसका सबसे बुरा असर हमारे साहित्यपर पड़ा हैं। कितने शोक की बात है कि जिस देश में रामायण [ १८१ ] जैसे अमूल्य ग्रन्थ की रचना हुई, सूरसागर जैसा आनन्दमय काव्य रचा गया, उसी देश में अब साधारण उपन्यासों के लिए हमको अनुवादका आश्रय लेना पड़ता है। बंगाल और महाराष्ट्र में अभी गाने का कुछ प्रचार है, इसलिए वहाँ भावों का ऐसा शैथिल्य नहीं है। वहाँ रचना और कल्पना-शक्ति का ऐसा अभाव नहीं है। मैंने तो हिन्दी साहित्य का पढ़ना ही छोड़ दिया। अनुवादों को निकाल डालिये तो आपके नवीन हिन्दी साहित्य में हरिशचन्द्र के दो चार नाटकों और चन्द्रकान्ता सन्तति‌ के सिवा और कुछ रहता ही नहीं। संसार का कोई साहित्य इतना दरिद्र न होगा। उसपर तुर्रा यह है कि जिन महानुभावों ने दो-एक अंगरेजी ग्रन्थों के अनुवाद मराठी और बंगला अनवादों की सहायता से कर लिए वे अपनें को धुरन्धर साहित्यज्ञ समझने लगे है। एक महाशय ने कालिदास‌ के कई नाटकों के पद्यबद्ध अनुवाद किये है, लेकिन वे अपने को हिन्दी का कालिदास समझते है 'एक महाशय ने मिल के दो गन्थों का अनुवाद किया है और वह भी स्वतन्त्र नहीं, बल्कि गुजराती, मराठी आदि अनुवादो के सहारे से, पर वह अपने मन में ऐसे सन्तुष्ट है मानो उन्होंने हिन्दी साहित्य का उद्धार का दिया। मेरा तो यह निश्चय होता जाता है कि अनुवादो‌ं से हिन्दी का अपकार हो रहा है। मौलिकता को पनपने का अवसर नहीं मिलने पाता।

पद्मसिंह को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कुँवर साहब का साहित्य से इतना परिचय है। वह समझते थे कि इन्हें पोलो और शिकार के सिवाय और किसी चीज से प्रेम न होगा। वह स्वयं हिन्दी-साहित्य से अपरिचित थे, पर कुँवर साहब के सामने अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते संकोच होता था। उन्होंने इस तरह मुस्कुराकर देखा मानो यह सब बाते इन्हें पहले ही से मालूम थी और बोले, आपने तो ऐसा प्रश्न उठाया जिसपर दोनों पक्षों की ओर से बहुत कुछ कहा जा सकता है, पर इस समय मैं आपकी। सेवा में किसी और ही काम से आया हूँ। मैंने सुना है कि हिन्दू मेम्बरो के जलसे मे आपने सेठों का पक्ष ग्रहण किया।

कुँवर साहब ठठाकर हँसे। उनकी हँसी कमरे में गूँज उठी। पीतल की [ १८२ ] ढाल जो दीवार से लटक रही थी इस झनकार से थरथराने लगी। बोले, सच कहिये, आपने किससे सुना?

पझसिंह इस समय हँसी का तात्पर्य न समझकर कुछ भौंचक से हो गये। उन्हें मालूम हुआ कि कुँवर साहब मुझे बनाना चाहते है। चिढ़कर बोले, सभी कह रहे है, किस-किसका नाम लूँ?

कुँवर साहब ने फिर जोर से कहकहा मारा और हँसते हुए पूछा, और आपको विश्वास भी आ गया?

पद्मसिंह को अब इसमें कोई सन्देह न रहा कि यह सब मुझे झेपाने का स्वाँग है, जोर देकर वोले, अविश्वास करने के लिए मेरे पास कोई कारण नहीं है।

कुंवर——कारण यही है कि मेरे साथ घोर अन्याय होगा। मैंने अपनी समझ में अपनी सम्पूर्ण वाक्यशक्ति आपके प्रस्ताव के समर्थन से खर्च कर दी थी। यहाँ तक कि मैंने विरोध को गम्भीर विचार के लायक भी न सोचा। व्यंग्योक्ति ही से काम लिया। (कुछ याद करके) हां एक बात हो सकती है। समझ गया। (फिर कहकहा मारकर) अगर यह बात है मैं कहूँगा कि म्युनिसिपैलिटी बिलकुल बछिया के ताऊ लोगों ही से भरी हुई है। व्यंग्योक्ति तो आप समझते ही होंगे। बस, यह सारा कसूर उसी का है। किसी सज्जन ने उसका भाव न समझा। काशी के सुशिक्षित सम्मानित म्युनिसिपल कमिश्नरों में किसी ने भी एक साधारण-सी बात न समझी शोक! महाशोक!! महाशय, आपको बड़ा कष्ट हुआ। क्षमा कीजिये मैं इस प्रस्ताव का हृदय से अनुमोदन करता हूँ।

पद्मसिंह भी मुस्कुराये कुँवर साहब की बातों पर विश्वास आया। बोले, अगर इन लोगों ने ऐसा धोखा खाया तो वास्तव में उनकी समझ बड़ी मोटी है। मगर प्रभाकर राव धोखे में आ जायें, यह समझ में नहीं आता, पर ऐसा मालूम होता है कि नित्य अनुवाद करते-करते उनकी बुद्धि भी गयब हो गई है।

पद्मसिंह जब यहाँ से चले तो उनका मन ऐसा प्रसन्न था मानो वह [ १८३ ] किसी बड़े रमणीक स्थानकी सैर कर के आते हो। कुँवर साहब के प्रेम और उन्हें वशीभूत कर लिया था।

३७

सदन जब घर पर पहुँचा तो उसके मन की दशा उस मनुष्य की-सी थी जो बरसों की कमाई लिए, मन में सहस्रों मन्सूबे बाँधता, हर्ष से उल्लसित घर आये और यहाँ सन्दूक खोलने पर उसे मालूम हो कि थैली खाली पड़ी हैं।

विचारों की स्वतन्त्रता विद्या संगति और अनुभवपर निर्भर होती है। सदन ने सभी गुणों से रहित था। यह उसके जीवन का वह समय था जब उसको अपने धार्मिक विचारों पर, अपनी सामाजिक रीतियों पर एक अभिमान-सा होता है। हमें उनमें कोई त्रुटि नहीं दिखाई देती, जबहम अपने धर्म के विरुद्ध कोई प्रमाण या दलील सुनने का साहस नहीं कर सकते, तब हममें क्या और क्यों का विकास नहीं होता। सदन को घर से निकल भागना स्वीकार होता, इसके बदले कि वह घर की स्त्रियों को गंगा नहलाने ले जाय। अगर स्त्रियो की हँसी की आवाज कभी मरदाने में जाती तो वह तेवर बदले घर में आता और अपनी माँ को आड़े हाथों लेता। सुभद्रा ने अपनी सास का शासन भी ऐसा कठोर न पाया था। आत्मपतन को वह दार्शनिक की उदार दृष्टि से नहीं, शुष्क योगी की दृष्टि से देखता था। उसने देखा था कि उसके गाँव में एक ठाकुर ने एक बेड़िन बैठा ली थी तो सारे गाँव ने उनके द्वारपर आना जाना छोड़ दिया था और इस तरह उसके पीछे पड़े थे कि उसे विवश होकर बेड़िन को घर से निकालना पड़ा। नि:सन्देह वह सुमन बाई पर जान देता था, लेकिन उसके लौकिक शास्त्र में यह प्रेम उतना अक्षम्य न था जितना सुमन की परछाई का उसके घर में आ जाना। उसने अब तक सुमन के यहाँ पान तक न खाया था। वह अपनी कुल-मर्यादा और सामाजिक प्रथा को अपनी आत्मा से कहीं बढ़कर महत्व की वस्तु समझता था। उस अपमान और निन्दा की कल्पना ही उसके लिए असहय थी जो कुलटा स्त्री से सम्बन्ध हो जाने के कारण उसके कुल पर
ढाल जो दीवारसे लटक रही थी इस झनकारसे थरथराने लगी। बोले सचकहिये,आपने किससे सुना?

पद्मसिह इस कुसमय हँसीका तात्पर्य न समझकर कुछ भौंचक से हो गये। उन्हें मालूम हुआ कि कुँअर साहब मुझे बनाना चाहते है। चिढकर बोले, सभी कह रहे है, किस-किसका नाम लू?

कुँअर साहबने फिर जोरसे कहकहा मारा और हँसते हुए पूछा, और आपको विश्वास भी आ गया?

पद्मसिंहको अब इसमें कोई सन्देह न रहा कि यह सब मुझे झेंपानेका स्वाँग है, जोर देकर बोले, अविश्वास करनेके लिए मेरे पास कोई कारण नही है।

कुंअर-कारण यही है कि मेरे साथ घोर अन्याय होगा। मैने अपनी समझ में अपनी सम्पूर्ण वाक्यशक्ति आपके प्रस्तावके समर्थनमें खर्च कर दी थी। यहाँतक कि मैने विरोधको गम्भीर विचारके लायक भी न सोचा। व्यंग्योक्ति ही से काम लिया। (कुछ याद करके) हाँ एक बात हो सकती है। समझ गया। (फिर कहकहा मारकर) अगर यह बात है तो मैं कहुँगा कि म्युनिसिपैलिटी बिलकुल बछियाके ताऊ लोगो ही से भरी हुई हैं। व्यंग्योक्ति तो आप समझते ही होंगे । बस,यह सारा कसूर उसीका है। किसी सज्जन ने उसका भाव न समझा। काशीके सुशिक्षित सम्मानित म्युनिसिपल कमिश्नरों मे किसीने भी एक साधारण-सी बात न समझी। शोक! महाशोक!! महाशय, आपको बड़ा कष्ट हुआ। क्षमा कीजिये मैं इस प्रस्तावका हृदयसे अनुमोदन करता हूँ।

पद्मसिह भी मुस्कुराये। कुँअर साहबकी बातों पर विश्वास आाया। बोले, अगर इन लोगों ने ऐसा धोखा खाया तो वास्तव मे उनकी समझ बड़ी मोटी है। मगर प्रभाकरराव धोखें में आ जायें, यह समझ में नहीं आता, पर ऐसा मालूम होता है कि नित्य अनुवाद करते-करते उनकी बुद्धि भी गायब हो गई है।

पद्मसिहं जब यहाँ से चले तो उनका मन ऐसा प्रश्न या मानों वह[ १८५ ] सदन दालमंण्डी के सामने आकर ठिठक गया; उसकी प्रेमाकांक्षा मन्द हो गई। वह धीरे-धीरे एक ऐसे स्थान पर आया जहाँ से सुमन की अट्टालिका। साफ दिखाई देती थी। यहाँ से कातर नेत्रों से उस मकान के द्वार की ओर देखा। द्वार बन्द या ताला पड़ा हुआ था। सदन के हृदय से एक बोझा-सा उतर गया। उसे कुछ वैसा ही आनन्द हुआ जैसा उस मनुष्य को होता है जो पैसा न रहने पर भी लड़के की जिद से विवश होकर खिलौने की दूकान पर जाता है और उसे बन्द पाता है।

लेकिन घर पहुँचकर सदन अपनी उदासीनता पर बहुत पछताया। वियोग को पीड़ा के साथ साथ उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। उसे किसी प्रकार का धैर्य न होता था। रात को जब सब लोग खा-पीकर सोये तो वह चुपके से उठा और दालमण्डी की ओर चला। जाड़े की रात थी, ठण्डी हवा चल रही थी, चन्द्रमा कुहरे की आड़ से झांकता था और किसी घबराये हुए मनुष्य के समान सवेग दौड़ता चला जाता था। सदन दालमण्डी तक बड़ी तेजी से आया, पर यहाँ आकर फिर उसके पैर बँध गये। हाथ-पैर की तरह उत्साह भी ठण्डा पड़ गया। उसे मालूम हुआ कि इस समय यहाँ मेरा आना अत्यन्त हास्यास्पद है। सुमन के यहाँ जाऊँ तो वह मुझे क्या समझेगी। उसके नौकर आराम से सो रहे होगें। वहाँ कौन मुझे पूछता है। उसे आश्चर्य होता था कि मैं यहाँ कैसे चला आया। मेरी बुद्धि उस समय कहाँ चली गई। अतएव वह लौट पड़ा।

दूसरे दिन सन्ध्या समय वह फिर चला। मन से निश्चय कर लिया था कि अगर सुमन ने मुझे देख लिया और बुलाया तो जाऊँगा, नहीं तो सीधे अपने राह चला जाऊँगा। उसका मुझे बुलाना ही बतला देगा कि उसका हृदय मेरी तरफ से साफ है। नहीं तो इस घटना के बाद वह मुझे बुलाने ही क्यों लगी। जब और आगे बढ़कर उसने फिर सोचा, क्या वह मुझे बुलाने के लिये झरोखेपर बैठी होगी। उसे क्या मालूम है कि मैं यहाँ आ गया। यह नहीं, मुझे एक बार स्वयं उसके पास चलना चाहिये। सुमन मुझ से, कभी नाराज नहीं हो सकती और जो नाराज भी हो तो क्या [ १८६ ] अच्छादित हो जाती। वह जनवा से में पंण्डित पद्मसिंह की बात सुन-सुनकर अधीर हो रहा था। वह डरता था कि कहीं पिताजी उनकी बातों में न आ जाँय। उसको समझ में न आता कि चाचा साहब को क्या हो गया है? अगर यही बातें किसी दूसरे मनुष्य ने की होती तो वह अवश्य उसकी जबान पकड़ लेता। लेकिन अपने चाचा से वह बहुत दबता था। उसे उनका‌ प्रतिवाद करने की बड़ी प्रबल इच्छा हो रही थी; उसकी तार्किक शक्ति कभी इतनी सतेज न हुई थी, और यदि विवाद तर्क हीं तक रहता तो वह जरुर उनसे उलझ पड़ता। लेकिन मदनसिंह की उद्रता ने उसके प्रतिवाद उत्सुक्ता को सहानुभूति के रूप में परिणत कर दिया।

इधर से निराश होकर सदन का लालसापूर्ण हृदय फिर सुमन की ओर लपका। विषय-वासना का चसका पड़ जान के बाद अब उसकी प्रेमकल्पना निराधार नहीं रह सकती थी। उसका हृदय एक बार प्रेमदीपक से आलोकित होकर अब अन्धकार में नहीं रहना चाहता था। वह पद्मसिंह के साथ ही काशी चला आया।

किन्तु यहाँ आकर वह एक बड़ी दुविधा में पट गया। उसे समय होने लगा कि कही सुमन बाई को ये सब समाचार मालूम न हो गये हो। वह वहाँ स्वयं तो न रही होगी, लोगों ने उसे अवश्य ही त्याग दिया होगा, लेकिन उसे विवाह की सूचना जरूर दी होगी। ऐसा हुआ होगा तो कदाचित्व ह मुझसे सीधे मुँह बात भी न करेगी। सम्भव है वह मेरा तिरस्कार भी करे। लेकिन संध्या होते ही उसने कपड़े बदले, घोड़ा कसवाया और दालमंडी की ओर चला। प्रेम मिलाप की आनन्दपूर्ण कल्पना के सामने वे शंकाए निर्मूल हो गई। वह सोच रहा था कि सुमन मुझसे पहले क्या कहेगी, ओर में उसका उत्तर क्या दूँगा, कही उसे कुछ न मालूम हो और वह जाते ही प्रेम से मेरे गले लिपट जाय और कहे कि तुम बड़े निठुर हो। इस कल्पना ने उसकी प्रेमाग्नि को और भी भड़कया, उसने घोड़े को एट लगाई और एक क्षणमे दालमंण्डी के निकट आ पहुँचा, पर जिस प्रकार एक खिलाड़ी लड़का पाटशाला के द्वारपर आकर भीतर जाते हुए डरता है उसी प्रकार सदन दालमंण्डी के सामने आकर ठिठक गया; उसकी प्रेमाकांक्षा मन्द हो गई। वह धीरे-धीरे एक ऐसे स्थानपर आया जहां से सुमनकी अट्टालिका साफ दिखाई देती थी। यहाँ से कातर नेत्रों से उस मकानके द्वार की ओर देखा। द्वार बन्द था ताला पड़ा हुआ था । सदन के हृदयसे एक बोझा-सा उतर गया। उसे कुछ वैसा ही आनन्द हुआ जैसा उस मनुष्यको होता है जो पैसा न रहनेपर भी लड़के की जिद से विवश होकर खिलौने की दूकान पर जाता है और उसे बन्द पाता है ।

लेकिन घर पहुँचकर सदन अपनी उदासीनता पर बहुत पछताया। वियोग की पीड़ा के साथ साथ उसकी व्यग्रता बढ़ती जाती थी। उसे किसी प्रकार धैर्य न होता था। रातको जब सब लोग खा-पीकर सोये तो वह चुपके से उठा और दालमण्डी की ओर चला। जाड़े की रात थी, ठण्डी हवा चल रहो थी, चन्द्रमा कुहरे की आड़ से झांकता था और किसी घबराये हुए मनष्य के समान सवेग दौड़ता चला जाता था। सदन दालमण्डी तक बड़ी तेजी से आया,पर यहाँ आकर फिर उसके पैर बंध गये । हाथ-पैर की तरह उत्साह भी ठण्डा पड़ गया। उसे मालूम हुआ कि इस समय यहाँ मेरा आना अत्यन्त हास्यास्पद है। सुमनके यहाँ जाऊँ तो वह मुझे क्या समझेगी। उसके नौकर आराम से सो रहे होंगे। वहाँ कौन मुझे पूछता है। उसे आश्चर्य होता था कि मैं यहाँ कैसे चला आया!मेरी बुद्धि उस समय कहाँ चली गई। अतएव वह लौट पड़ा।

दूसरे दिन सन्ध्या समय वह फिर चला। मनमे निश्चय कर लिया था कि अगर सुमनने मुझे देख लिया और बुलाया तो जाऊँगा, नहीं तो सीधे अपने राह चला जाऊंगा। उसका मुझे बुलाना ही बतला देगा कि उसका हृदय मेरी तरफ से साफ है। नहीं तो इस घटना के बाद वह मुझे बुलाने ही क्यों लगी। जछ और आगे बढ़कर उसने फिर सोचा,क्या वह मुझे बुलानेके लिये झरोखे पर बैठी होगी। उसे क्या मालूम है कि मैं यहाँ आ गया। यह नहीं,मुझे एक बार स्वयं उसके पास चलना चाहिये । सुमन मुझसे, कभी नाराज नहीं हो सकती और जो नाराज भी हो तो क्या
[ १८८ ] मैं उसे मना नहीं सकता? मैं उसके सामने हाथ जोडूँगा उसके पैर पडूँगा और अपने आँँसुओं से उसके मनकी मैल धो दूँगा, वह मुझसे कितनी रुठे, लेकिन मेरे प्रेम का चिन्ह अपने हृदय से नहीं मिटा सकती। आह! वह अगर अपने कमल नेत्रों मे आँँसू भरे हुए मेरी ओर ताके तो मैं उसके लिये क्या न कर डालूँँगा? यदि उसे कोई चिंता हो तो मैं उस चिंंता को दूर करनेके लिये अपने प्राण तक समर्पण कर दूँगा। तो क्या वह इस अपराध को क्षमा न करेगी? लेकिन ज्योंही वह दालमंडी के सामने, पहुँचा, उसकी यह प्रेम कामनाएँ उसी प्रकार नष्ट हो गई जैसे अपने गाँव में सन्ध्या समय नीम के नीचे देवी की मूर्ति देखकर उसकी तर्कनाएँ नष्ट हो जाती थी। उसने सोचा, कहीं वह मुझे देखें और अपने मन में कहे, वह जा रहे है कुँँअर साहब, मानों सचमुच किसी रियासत के मालिक है। कैसा कपटी धूर्त है। यह सोचते ही उसके पैर बंध गये। आगे न जा सका।

इसी प्रकार कई दिन बीत गये। रात और दिन में उसकी प्रेमकल्पनाएँ जो बालूकी दीवार खड़ी करती, वे सन्ध्या समय दालमंडी के सामने अविश्वास के एक ही झोके में गिर पड़ती था।

एक दिन वह घूमते हुए कुईन्स पार्क जा निकला वहाँ एक शामियाना तना हुआ था और लोग बैठे हुए प्रोफेसर रमेशदत्त का प्रभावशाली व्याख्यान सुन रहे थे। सदन घोड़े से उतर पड़ा और व्याख्यान सुनने लगा। उसने मनमे निश्चय किया कि वास्तव में वेश्याओं से हमारी बड़ी हानि हो रही है ये समाज के लिये हलाहल के तुल्य है। मैं बहुत बचा, नहीं तो कहीं का न रहता। इन्हें अवश्य शहर से बाहर निकाल देना चाहिए। यदि ये बाजार में न होती तो मैं सुमन बाई के जाल मे कभी न फंसता।

दूसरे दिन वह फिर कुईन्म पार्क की तरफ गया। आज यहाँ मुन्शी अबुलवफा का भावपूर्ण ललित व्याख्यान हो रहा था। सदन ने उसे भी ध्यान से सुना। उसने विचार किया, निस्संदेह वेश्याओ से हमारा उपकार होता है। सच तो है, ये न हो तो हमारे देवताओं की स्तुति करनेवाला भी कोई न रहे। यह भी ठीक ही कहा कि वेश्यागृह ही वह स्थान है जहाँ हिन्दू [ १८९ ] मुसलमान दिल खोलकर मिलते है, जहाँ द्वेष का वास नहीं है जहाँ जीवन संग्राम से विश्राम लेनेके लिये अपने हृदय शोक और दुःख भुलाने के लिये शरण लिया करते है। अवश्य ही उन्हें शहर से निकाल देना उन्ही पर नहीं, वरन् सारे समाज पर घोर अत्याचार होगा।

कई दिन के बाद यह विचार फिर पलटा खा गया। यह क्रम बन्द न होता था। सदन में स्वच्छद विचार की योग्यता न थी। वह किसी विषय के दोष और गुण तौलने और परखने की सामर्थ्य न रखता था। अतएव प्रत्येक सबल युक्ति उसके विचारों को उलट-पलट देती हैं।

उसने एक दिन पद्मसिह के व्याख्यान का नोटिस देखा। तीन ही बजे से चलने की तैयारी करने लगा और चार बजे बेनीबाग में जा पहुँचा। अभी वहाँ कोई आदमी न था, कुछ लोग फर्श बिछा रहे थे। वह घोड़े से उतर पड़ा और बिछाने में लोगों की मदद करने लगा। पाँच बजते बजते लोग आने लगे और आध घंटे मे वहाँ हजारों मनुष्य एकत्र हो गये। तब उसने एक फिटन पर पद्मसिंह को आते देखा। उसकी छाती धड़कने लगी। पहले रुस्तम भाई ने एक छोटी सी कविता पढ़ी, जो इस अवसर के लिये सैयद तेगअली ने रची थी। उसके बैठने पर लाला विट्ठलदास खड़े हुए। यद्यपि उनकी वक्तृता रूखी थी, न कही भाषण लालित्यका पता था, न कटाक्षोंका, पर लोग उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनते रहे। उनके नि:स्वार्थ सार्वजनिक कृत्यों के कारण उनपर जनता की बडी श्रद्धा थी। उनकी रूखी बातों को लोग ऐसे चाव से सुनते थे जैसे प्यासा मनुष्य पानी पीता है। उनके पानी के सामने दूसरों का शर्बत फीका पड़ जाता था। अन्त में पद्मसिंह उठे। सदन के हृदय में गुदगुदी-सी होने लगी, मानों कोई असाधारण बात होने वाली है। व्याख्यान अत्यन्त रोचक और करुणारस से परिपूर्ण था भाषा की सरलता और सरसता मन को मोहती थी। बीच-बीच मे उनके शब्द ऐसे भावपूर्ण हो जाते कि सदन के रोएँ खडे हो जाते थे। वह कह रहे थे कि हमने वेश्याओं को शहर के बाहर रखने का प्रस्ताव इसलिए नहीं किया कि हमें उनसे घृणा है। हमे उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके [ १९० ] नहीं किया; तुमको तो मैंने अपनी प्रेम सपत्ति सौंप दी थी। क्या उसका तुम्हारी दृष्टि में कुछ भी मूल्य नहीं है?” सदन फिर चौक पड़ता और मन को उधर से हटाने की चेष्टा करता। उसने एक व्याख्यान में सुना था कि मनुष्य का जीवन अपने हाथों में है, वह अपने को जैसा चाहे बना सकता है, इसका मूल मन्त्र यही है कि बुरे, क्षुद्र, अश्लील विचार मन में न आन पावे, वह बलपूर्वक इन विचारों को हटाता रहे और उत्कृष्ट विचारों तथा भावों से हृदय को पवित्र रक्खे। सदन इस सिद्धांत को कभी न भूलता था। उस व्याख्यान में उसने यह भी सुना था कि जीवन को उच्च बनाने के लिये उच्च शिक्षा की आवश्यकता नहीं, केवल शुद्ध विचारों और पवित्र भावों की आवश्यकता है। सदन को इस कथन से बड़ा संतोष हुआ था इसलिये वह अपने विचारों को निर्मल रखने का यत्न करता रहता। हजारों मनुष्यों ने उस व्याख्यान में सुना था कि प्रत्येक कुविचार हमारे इस जीवन को न आने वाले जीवन को भी नीचे गिरा देता है। लेकिन औरों ने जो कुछ विज्ञ थे, सुना और भूल गये, सरल हृदय सदनने सुना और उसे गाँठ में बाँध लिया। जैसे कोई दरिद्र मनुष्य सोने की एक गिरी हुई चीज पा जाय और उसे अपने प्राण से सभी प्रिय समझे। सदन इस समय आत्म-सुधार की लहर मे बह रहा था। रास्ते में अगर उसकी दृष्टि किसी युवती पर पड़ जाती तो तुरन्त ही अपने को तिरस्कृत करता और मन को समझाता, क्या इस क्षणभर के नेत्र सुख के लिये तू अपने भविष्य जीवन का सर्वनाश किये डालता है। इस चेतावनी से उसके मन को शान्ति होती थी।

एक दिन सदन को गंगास्नान के लिए जाते हुए चौक में वेश्याओं का एक जुलूस दिखाई दिया। नगर की सबसे नामी गिरामी वेश्या ने एक उर्म(धामिक जलसा) किया था। यह वेश्याएँ वहाँ से वापस आ रही थी। सदन इस दृश्य को देखकर चकित हो गया। सौंदर्य, सुवर्ण, और सौरभ का ऐसा चमत्कार उसने कभी न देखा था। रेशम, रंग और रमणीयता का ऐसा अनुपम दृश्य, श्रृंगार और जगमगाहट की ऐसी अद्भुत छटा उसके लिए बिलकुल नई थी, उसने मनको बहुत रोका, पर न रोक सका। उसने उन [ १९१ ] अलौकिक सौदर्य मूर्तियों को एक बार आँख भरकर देखा, जैसे कोई विद्यार्थी महीनों के कठिन परिश्रम के बाद परीक्षा से निवृत्त होकर अमोद प्रमोद मे लीन हो जाय। एक निगाह से मन तृप्त न हुआ तो उसने फिर निगाह दौड़ाई, यहाँ तक कि उसकी निगाहों उस तरफ जम गई और बह चलना भूल गया। मूर्ति के समान खड़ा रहा। जब जुलूस निकल गया तो उसे सुधि आई चौका, मन को तिरस्कृत करने लगा। तूने महीनों की कमाई एक क्षण में गंवाई? वाह! मैंने अपनी आत्मा का कितना पतन कर दिया? मुझमें कितनी निर्बलता है? लेकिन अन्त में उसने अपने को समझाया कि केवल इन्हें देखने ही से मैं पाप का भागी थोड़े ही हो सकता हूँ? मैने इन्हे पाप-दृष्टि से नहीं देखा। मेरा हृदय वासनाओं से पवित्र है। परमात्मा की सौंदर्य सृष्टि से पवित्र आनन्द उठाना हमारा कर्तव्य है।

यह सोचते हुए वह आगे चला, पर उसकी आत्मा को संतोष न हुआ। मैं अपने ही को धोखा देना चाहता हूँ? यह स्वीकार कर लेने से क्या आपत्ति है कि मुझसे गल्ती हो गई, हाँ हुई और अवश्य हुई। मगर मन की वर्तमान अवस्था के अनुसार मैं उसे क्षम्य समझता हूँ। मैं योगी नहीं, सन्यासी नहीं, एक बुद्धिहीन मनुष्य हूँ। इतना ऊंचा आदर्श सामने रखकर मैं उसका पालन नहीं कर सकता। आह! सौंदर्य भी कैसी वस्तु है। लोग कहते हैं कि अधर्म से मुख की शोभा जाती रहती है। पर इन रमणियों का अधर्म उनकी शोभा को और भी बढ़ाता है। कहते है मुख सौदर्य का दर्पण है। पर यह बात भी मिथ्या ही जान पड़ती है।

सदन ने फिर मन को सँभाला और उसे इस ओर से विरक्त करने के लिये इस विषय के दूसरे पहलू पर विचार करने लगा। हाँ वे स्त्रियाँ बहुत ही सुन्दर है, बहुत ही कोमल है, पर उन्होंने अपने इन स्वर्गीय गुणों का कैसा दुरुपयोग किया है। उन्होंने अपनी आत्मा को कितना गिरा दिया है। हां! केवल इन रेशमी वस्त्रों के लिये इन जगमगाते हुए आभूषणों के लिये‌ उन्होंने अपनी आत्माओं का विक्रय कर डाला है। वे आँखे जिनसे प्रेम की ज्योति निकलनी चाहिये थी, कपट कटाक्ष और कुचेष्टाओं से भरी हुई है। [ १९२ ] वे हृदय जिनमें विशुद्ध निर्मल प्रेम का स्रोत बहना चाहिये था, कितने दुर्गंध विशाक्त मलिनता से ढँके हुए है। कितनी अधोगति है।

इन घृणात्मक विचारों सदन को कुछ शान्ति हुई। वह टहलता हुआ गंगातटकी ओर चला। इसी विचार में आज उसे देर हो गई थी। इसलिये वह उस घाट पर न गया। जहाँ वह नित्य नहाया करता था। वहाँ भीडभाड़ हो गई होगी। अतएव उस घाटपर गया जहाँ विधवाश्रम स्थित था। वहाँ एकात रहता था। दूर होने के कारण शहर के लोग वहाँ कम जाते थे।

घाट के निकट पहुँचने पर सदन ने एक स्त्री को घाट की ओर से जाते देखा। तुरन्त पहचान गया। यह सुमन थी, पर यह कितनी बदली हुई। न वह लंबे लंबे केश, न वह कोमल गति, न वह हंसते हुए गुलाब के से होठ, न वह चंचल ज्योति से चमकती हुई आँख न वह बनाव सिंगार, न वह रनजटित आभूषणों की छटा, वह केवल सफेद साडी पहने हुए थी। उसकी चाल मे गंभीरता औीर मुख से नैराश्य और वैराग्य भाव झलकता था काव्य वही था, पर अलंकार विहीन, इसलिये सरल और मार्मिक। उसे देखते ही सदन ने प्रेम से विह्वल होकर कई पग बड़े वेग से चला पर उसका यह रूपांतर देखा तो ठिठक गया, मानो उसे पहचानने में भूल हुई, मानो वह सुमन नहीं कोई और स्त्री थी। उसका प्रेमोत्साह भंग हो गया। समझ में न आया कि यह कायापलट क्यों हो गई? उसने फिर सुमन की ओर देखा वह उसकी ओर ताक रही थी, पर उसकी दृष्टि में प्रेम की जगह एक प्रकार की चिंता थी, मानो वह उन पिछली बातों को भूल गई है, या भूलना चाहती हैं। मानो यह हृदय की दी हुई आग को उभारना नहीं चाहती। सदन को ऐसा अनुमान हुआ कि वह मुझे, धोखेबाज और स्वार्थी समझ रही है। उसने एक क्षण बाद फिर उसकी ओर देखा। यह निश्चय करने के लिये कि मेरा अनुमान भ्रांतिपूर्ण तो नहीं है। फिर दोनों की आँखें मिली पर मिलते ही हट गई। सदन को अपने अनुमान का निश्चय हो गया। निश्चय के साथ ही अभिमान का उदय हुआ। उसने अपने मन को धिक्कारा। अभी अभी मैंने अपने को इतना समझाया है और इतनी ही देर में फिर उन्हीं [ १९३ ] कुवासनाओं में पड़ गया। उसने फिर सुमन की तरफ नहीं देखा। वह सिर झुकाये उसके सामने से निकल गई। सदन ने देखा, उसके पैर काँप रहे थे, वह जगह से न हिला, कोई इशारा भी नहीं किया। अपने विचार में उसने सुमन पर सिद्ध कर दिया कि अगर तुम मुझसे एक कोस भागोगी तो मैं तुमसे सौ कोस भागने को प्रस्तुत हैं। पर उसे यह ध्यान न रहा कि मैं अपनी जगह पर मूर्तिवत् खड़ा हूँ। जिन भावों को उसने गुप्त रखना चाहा, स्वंय उन्ही भावों की मूर्ति बन गया।

जब सुमन कुछ दूर निकल गई तो वह लौट पड़ा और उसके पीछे अपने को छिपाता हुआ चला। वह देखना चाहता था कि सुमन कहाँ जातीहै। विवेक ने वासना के आगे सिर झुका लिया।

३९

जिस दिन से बारात लौट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर घर से बाहर नहीं निकले। मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते। उन्हे अब किसी को अपना मुँह दिखाते लज्जा आती थी। दुश्चरित्रा सुमन ने उन्हे संसार की दृष्टि में चाहे कम गिराया हो, पर वे अपनी दृष्टि पे कहीं के न रहे। वे अपने अपमान को सहन न कर सकते थे। वे तीन चार साल कैद रहे, फिर भी अपनी आँखों में इतने नीचे नही गिरे थे। उन्हे इस विचार से संतोष हो गया था कि यह दंड भोग मेरे कुकर्म का फल है, इस कालिमा ने उनके आत्म-गौरव सर्वनाश कर दिया। वे अब नीच मनुष्यों के पास भी नहीं जाते थे, जिनके साथ बैठकर वह चरस की दम लगाया करते थे। वे जानते थे कि मैं उनसे भी नीचे गिर गया हूँ। उन्हें मालूम होता था कि सारे संसार में मेरी ही निन्दा हो रही है। लोग कहते होगें कि इसकी बेटी, यह ख्याल आते ही वह लज्जा और विषाद के सागर में निमग्न हो जाते। हाय! यदि मैं जानता कि वह यो मर्यादा का नाश करेगी तो मैंने उसका गला घोंट दिया होता। यह मैं जानता हूँ कि वह अभागिनी थी, किसी बड़े धनी कुल में रहने योग्य थी, भोग विलासपर जान देती थी। पर यह मैं न जानता था कि [ १९४ ] उसकी आत्मा इतनी निर्बल है। संसार में किसके दिन समान होते है? विपत्ति सभी पर आती है। बड़े-बड़े धनवानों की स्त्रियाँ अन्न वस्त्र को तरसती है पर कोई उनके मुखपर चिन्ता का चिन्ह भी नहीं देख सकता। वे रो रोकर दिन काटती है, कोई उनके आँसू नहीं देखता। वे किसी के सामने अपनी विपत्ति की कथा नहीं कहती। वे मर जाती है पर किसीका एहसान सिरपर नहीं लेती। वे देवियाँ है। वे कुल मर्यादा के लिये जीती है और उसकी रक्षा करती हुई मरती है, पर यह दुष्टा, यह अभागिनी.... और उसका पति कैसा कायर है कि उसने उसका सिर नहीं काट डाला। जिस समय उसने घर से बाहर पैर निकाला, उसने क्यों उसका गला नहीं दबा दिया? मालूम होता है वह भी नीच, दुराचारी नामर्द है। उसने अपनी कुलमर्यादा का अभिमान होता तो यह नौबत न आती। उसे अपने अपमान की लाज न होगी पर मुझे हैं और मैं सुमन को इसका दण्ड दूँगा। जिन हाथों से उसे पाला, खिलाया, उन्हीं हाथों से उसके गलेपर तलवार चलाऊँगा। यही आँखे कभी उसे खेलती देखकर प्रसन्न होती थी, अब उसे रक्त में लोटती देखकर तृप्त होगी। मिटी हुई मर्यादा पुनरुद्धार का इसके सिवाय कोई उपाय नहीं। संसार को मालूम हो जायगा कि कुल मर्य्यादा पर मरने वाले पापाचरण का क्या दंड देते है।

यह निश्चय करके कृष्णचन्द्र अपने उद्देश्य को पूरा करने के साधनों पर विचार करने लगे। जेलखाने में उन्होंने अभियुक्तों से हत्याकांड के कितने ही मन्त्र सीखे थे। रात दिन उन्हीं बातों की चर्चाएंं रहती थी। उन्हें सबसे उत्तम साधन यही मालूम हुआ कि चलकर तलवार से उसको मारूँ और तब पुलिस में जाकर आप ही इसकी खबर दूँ मैजिस्ट्रेट के सामने मेरा जो बयान होगा उसे सुनकर लोगो को आँखें खुल जायगी। मन-ही-मन इस प्रस्ताव से पुलकित होकर वह उस बयान की रचना करने लगे। पहले कुछ सभ्य समाज की विलासिता की उल्लेख कहूँगा, तब पुलिस के हथकड़ी की कलई खोलूँगा, इसके पश्चात् वैवाहिक अत्याचारों का वर्णन करूँगा। दहेज प्रथा पर ऐसी चोट कहूँगा कि सुनकर लोग दंग रह जाय। पर