सेवासदन/५१
मिली हो, लेकिन मैं शीघ्र ही किसी और नीयत से नहीं तो उनका प्रतिवाद कराने के ही लिए इस खबर को प्रकाशित कर दूँगा?
सदन—यह खबर आपको कहाँँ से मिली?
प्रभाकर—इसे मैं नहीं बता सकता, लेकिन आप शर्माजी से कह दीजियेगा कि यदि उनपर यह मिथ्या दोषारोपण हो तो मुझे सूचित कर दे। मुझे यह मालूम हुआ है कि इस प्रस्ताव के बोर्ड आने से पहले शर्माजी हाजी हाशिम के यहाँँ नित्य जाते थे। ऐसी अवस्था मे आप स्वयं देख सकते है कि मैं उनकी नीयत को कहाँ तक निस्पृह समझ सकता था?
सदन का क्रोध शान्त हो गया। प्रभाकरराव की बातों ने उसे वशीभूत कर लिया, वह मनमे उनका आदर करने लगा और कुछ इधर-उधर की बाते करके घर लौट आया। उसे अब सबसे बड़ी चिन्ता यह थी कि क्या शान्ता सचमुच आश्रम में लाई गई है?
रात्रि को भोजन करते समय उसने बहुत चाहा कि शर्मा जी से इस विषय मे कुछ बातचीत करे, पर साहस न हुआ। सुमन को तो विधवा-आश्रम में जाते उसने देखा ही था, लेकिन अब उसे कई बातों का स्मरण करके जिनका तात्पर्य अबतक उसकी समझ में न आया, था, शान्ता के लाये जाने का सन्देह भी होने लगा।
वह रातभर विकल रहा। शान्ता आश्रम में क्यो आई है? चाचा ने उसे क्यों यहाँ बुलाया है? क्या उमानाथ ने उसे अपने घर में नहीं रखना चाहा? इसी प्रकार के प्रश्न उसके मन में उठते रहे। प्रात काल वह विधवा-आश्रम वाले घाट की ओर चला कि अगर सुमन से भेंट हो जाय तो उससे सारी बात पूछूँ। उसे वहाँ बैठे थोड़ी ही देर हुई थी कि सुमन आती हुई दिखाई दी। उसके पीछे एक और सुन्दरी चली आती थी। उसका मुखचन्द्र घूँघट से छिपा हुआ था।
सदन को देखते ही सुमन ठिठक गई। वह इधर कई दिनों से सदन से मिलना चाहती थी। यद्यपि पहले उसने मन में निश्चय कर लिया था कि सदन से कभी न बोलूँगी, पर शान्ता के उद्धार का उसे इसके सिवा कोई अन्य उपाय न सूझता था? उसने लजाते हुए सदनसे कहा, सदनसिंह आज बड़े भाग्य से तुम्हारे दर्शन हुए। तुमने तो इधर आना ही छोड़ दिया। कुशलसे तो हो?
सदन झेंपता हुआ बोला, हाँ, सब कुशल है।
सुमन—दुबले बहुत मालूम होते हो, बीमार थे क्या?
सदन—नहीं, बहुत अच्छी तरह हूँ। मुझे मौत कहाँ?
हम बहुधा अपनी झेंप मिटाने और दूसरोंकी सहानुभूति प्राप्त करने के लिए कृत्रिम भावों की आड़ लिया करते हैं।
सुमन—चुप रहो, कैसा अशकुन मुँहसे निकालते हो। मैं मरने की मनाती तो एक बात थी, जिसके कारण यह सब हो रहा है। इस रामलीला की कैकेयी मैं ही हूँ। आप भी डूबी ओर दूसरों को भी अपने साथ ले डूबी। खड़े कबतक रहोगे, बैठ जाओ। मुझे आज तुमसे बहुत सी बातें करनी हैं। मुझे क्षमा करना, अब तुम्हें भैया कहूँगी। अब मेरा तुमसे भाई बहनका नाता है। मैं तुम्हारी बड़ी साली हूँ, अगर कोई कड़ी बात मुँह से निकल जाय तो बुरा मत मानना। मेरा हाल तो तुम्हें मालूम ही होगा। तुम्हारे चाचा ने मेरा उद्धार किया और अब मैं विधवा आश्रम में पड़ी अपने दिनो को रोती हूँ और सदा रोऊँगी। इधर एक महीनेसे मेरी अभागिनी बहन भी यहीं आ गई है, उमानाथके घर उसका निर्वाह न हो सका। शर्माजी को परमात्मा चिरजीवी करें, वह स्वयं अमोला गए और इसे ले आए। लेकिन यहाँ लाकर उन्होंने भी इसकी सुधि न ली। मैं तुमसे पूछती हूँ, भला यह कहाँ की नीति है कि एक भाई चोरी करे और दूसरा पकड़ा जाय। अब तुमसे कोई बात छिपी नहीं है, अपने खोटे नसीब से, दिनों के फेर से, पूर्वजन्म के पापों से मुक्त अभागिनी ने धर्मका मार्ग छोड़ दिया। उसका दण्ड मुझे मिलना चाहिए था और वह मिला। लेकिन इस बेचारी ने क्या अपराध किया था कि जिसके लिए तुम लोगों ने इसे त्याग दिया? इसका उत्तर तुम्हें देना पड़ेगा! देखो, अपने बड़ों की आड़ मत लेना, यह कायर मनु्ष्य की चाल है। सच्चे हृदय से बताओ, यह अन्याय था या नहीं? और तुमने कैसे ऐसा घोर अन्याय होने दिया है। क्या तुम्हें एक अबला बालिका का जीवन नष्ट करते हुए तनिक भी दया न आई?
यदि शान्ता यहाँ न होती तो कदाचित् सदन अपने मन के भावों को प्रकट करने का साहस कर जाता। वह इस अन्याय को स्वीकार कर लेता। लेकिन शान्ता के सामने वह एकाएक अपनी हार मानने के लिए तैयार न हो सका। इसके साथ ही अपनी कुल मर्यादा की शरण लेते हुए भी उसे संकोच होता था। वह ऐसा कोई वाक्य मुँह से न निकालना चाहता था, जिससे शान्ता को दुख हो, न कोई ऐसी बात कह सकता था, जो झूठी आशा उत्पन्न करे। उसकी उड़ती हुई दृष्टि ने जो शान्ता पर पड़ी थी, उसे बड़े संकट में डाल दिया था, उसकी दशा उस बालक की सी थी, जो किसी मेहमान की लाई हुई मिठाई को ललचायी हुई आँखों से देखता है, लेकिन माता के भय से निकालकर खा नहीं सकता। बोला, बाईजी, आपने पहले ही मेरा मुँह बन्द कर दिया है, इसलिए मैं कैसे करें कि जो कुछ मेरे बड़ों ने किया, मैं उनके सिर दोष रखकर अपना गला नहीं छुड़ाना चाहता। उस समय लोक-लज्जा से से भी डरता था। इतना तो आप भी मानेगी कि संसार में रहकर संसार की चाल चलनी पड़ती है। मैं इस अन्याय को स्वीकार करता हूँ। लेकिन यह अन्याय हमने नहीं किया, वरन् उस समाज ने किया है, जिसमें हम लोग रहते है।
सुमन—भैया, तुम पढ़े लिखे मनुष्य हो, मैं तुमसे बातों में नहीं जीत सकती, जो तुम्हें उचित जान पड़े वह करो। अन्याय अन्याय हो है, चाहे कोई एक आदमी करे या सारी जाति करे। दूसके भय से किसी पर अन्याय नहीं करना चाहिए। शान्ता यहाँ खड़ी है, इसलिए मैं उसके भेद नहीं खोलना चाहती, लेकिन इतना अवश्य करेंगी कि तुम्हें दूसरी जगह धन, सम्मान, रूप, गुण सब मिल जाय पर यह प्रेम न मिलेगा। अगर तुम्हारे जैसा इसका हृदय भी होता तो यह आज अपनी नई ससुराल में आनन्द से बैठी होती, लेकिन केवल तुम्हारे प्रेम नें उसे यहाँ खीचा। तुम उसे जिस तरह चाहे रखो, वह तुम्हारे ही नाम पर आजन्म बैठी रहे।
सदन ने देखा कि शान्ता की आँखो से जल बहकर उसके पैरों पर गिर रहा है। उसका सरल प्रेम-तृषित हृदय शोक से भर गया। अत्यन्त करुण स्वर से बोला, मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ? ईश्वर साक्षी है। कि दुःख से मेरा कलेजा फटा जाता है।
सुमन-तुम पुरुष हो, परमात्मा ने तुम्हें सब शक्ति दी है।
सदन- मुझसे जो कुछ कहिये करने को तैयार हूँ।
सुमन-वचन देते हो?
सदन—मेरे चित्त को जो दशा हो रहो है वह ईश्वर ही जानते होंगे, मुँह से क्या कहूँ।
सुमन—मरदों को बातों पर विश्वास नहीं आता।
यह कहकर मुस्कुराई। सदन ने लज्जित होकर कहा, अगर अपने वश की बात होती तो अपना हृदय निकालकर आपको दिखाता। यह कहकर उसने दबी हुई आँखो से शान्ता की ओर ताका।
सुमन-—अच्छा, तो आप इसी गंगा नदी के किनारे शान्ता का हाथ पकड़कर कहिए कि तुम मेरी स्त्री हो और मैं तुम्हारा पुरुष हैं, मैं तुम्हारा पालन करुँगा।
सदन के आत्मिक बल ने जवाब दे दिया। वह बगले झाँकने लगा, मानो अपना मुँह छिपाने के लिए कोई स्थान खोज रहा है। उसे ऐसा जान पडा कि गंगा मुझे छिपाने के लिए बढ़ी चली आती है। उसने डूबते हुए मनुष्य की भाँति आकाश की ओर देखा और लज्जा से आँखे नीची किए रुक-रुककर बोला, सुमन, मुझे इसके लिए सोचने का अवसर दो। सुमन ने नम्रता से कहा, हाँ सोचकर निश्चय कर लो, मैं तुम्हे धर्म संकट में नहीं डालना चाहती। यह कहकर वह शान्ता से बोली, देख तेरा पति तेरे सामने खड़ा है। मुझसे जो कुछ कहते बना उससे कहा, पर वह नहीं पसीजता। वह अब सदा के लिए तेरे हाथ से जाता है। अगर तेरा प्रेम सत्य है और उसमें कुछ बल है तो उसे रोक ले, उससे प्रेम वरदान ले लें। यह कहकर सुमन गंगा की ओर चली। शान्ता भी धीरे-धीरे उसी के पीछे चली गई। उसका प्रेम मान के नीचे दब गया। जिसके नामपर वह यावज्जीवन दुःख झेलने का निश्चय कर चुकी थी, जिसके चरणों पर वह कल्पना में अपने को अर्पण कर चुकी थी, उसी से वह इस समय तन बैठी। उसने उसकी अवस्था को न देखा, उसकी कठिनाइयों का विचार न किया, उसकी पराधीनता पर ध्यान न दिया। इस समय वह यदि सदन के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो जाती तो उसका अभीष्ट सिद्ध हो जाता पर उसने विनय के स्थानपर मान करना उचित उमझा।
सदन एक क्षण वहाँ खड़ा रहा और बाद को पछताता हुआ घर को चला।
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सदन को ऐसी गलानि हो रही थी, मानो उसने कोई बड़ा पाप किया हो। वह बार-बार अपने शब्दों पर विचार करता और यही निश्चय करता कि मैं बड़ा निर्दयी हूँ। प्रेमाभिलाषा ने उसे उन्मत्त कर दिया था।
वह सोचता, मुझे संसार का इतना भय क्यों है? संसार मुझे क्या दे देता है? क्या केवल झूठी बदनामी के भय से मैं उस रत्न को त्याग दूँ, जो मालूम नहीं मेरे पूर्व जन्म की कितनी ही तपस्याओं का फल है? अगर अपने धर्म का पालन करने के लिए मेरे बन्धुगण मुझे छोड़ दे तो क्या हानि है? लोकनिन्दा का भय इसलिए है कि वह हमें बुरे कामों से बचाती है। अगर वह कर्त्तव्य मार्ग में बाधक हो तो उससे डरना कायरता है। यदि हम किसी निरापराध पर झूठ अभियोग लगावे, तो संसार हमको बदनाम नहीं करता, वह इस अकर्म में हमारी सहायता करता है, हमको गवाह और वकील देता है। हम किसी का धन दबा बैठे, किसी की जायदाद हड़प ले, तो संसार हमको कोई दण्ड नहीं देता, देता भी है तो बहुत ही कम, लेकिन ऐसे कुकर्मों के लिए वह हमें बदनाम करता है, हमारे माथे पर सदा के लिए कलंक का टीका लगा देता है। नहीं, लोकनिन्दा का भय मुझसे कर दिया। उसे अपने माता-पिता पर, अपने चाचा पर, संसार पर और अपने आपपर क्रोध आता। अभी थोड़े ही दिन पहले वह स्वयं फिटन पर सैर करने निकलता था, लेकिन अब किसी फिटन को आते देखकर उसका रक्त खौलने लगता था। वह किसी फैशनेबुल मनुष्य को पैदल चलते पाता तो अदबदाकर, उससे कन्धा मिलाकर चलता और मन में सोचता कि यह जर भी नाक-भौं सिकोड़े तो इसकी खबर लूँ। बहुधा वह कोचवानों के चिल्लाने की परवाह न करता। सबसे छेड़कर लड़ना चाहता था। ये लोग गाड़ियों पर सैर करते हैं, कोट-पतलून डालकर बनठन कर हवा खाने जाते हैं और मेरा कहीं ठिकाना नहीं।
घर पर जमींदारी होने के कारण सदन के सामने जीविका का प्रश्न कभी न आया था। इसीलिए उसने शिक्षा की ओर विशेष ध्यान न दिया था, पर अकस्मात् जो यह प्रश्न उसके सामने आ गया, तो उसे मालूम होने लगा कि इस विषय में मैं असमर्थ हूँ। यद्यपि उसने अंग्रेजी न पढ़ी थी, पर इधर उसने हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वह शिक्षित समाज को मातृभाषा में अश्रद्धा रखने के कारण देश और जाति का विरोधी समझता था। उसे अपने सच्चरित्र होने पर भी घमण्ड था। जबसे उसके लेख “जगत” में प्रकाशित हुए थे वह अंग्रेजी पढ़े-लिखे आदमियों को अनादर की दृष्टि से देखने लगा था। यह सबके सब स्वार्थ-सेवी हैं, इन्होंने केवल दोनों का गला दबाने के लिए, केवल अपना पेट पालने के लिए अंगरेजी पढ़ी है, यह सबके सब फैशन के गुलाम हैं, जिनकी शिक्षा ने उन्हें अंगरेजो का मुँह चिढ़ाना सिखा दिया है, जिनमें दया नहीं, धर्म नहीं, निज भाषा से प्रेम नहीं, चरित्र नहीं, आत्मबल नहीं, वे भी कुछ आदमी है। ऐसे ही विचार उसके मन में आया करते थे लेकिन अब जो जीविका की समस्या उसके सामने आई तो उसे ज्ञात हुआ कि मैं इनके साथ अन्याय कर रहा था। ये दया के पात्र हैं। मैं भाषा का पंण्डित न सही, पर बहुतों से अच्छी भाषा जानता हूँ, मेरा चरित्र उच्च न सही, पर बहुतों से अच्छा है, मेरे विचार उच्च न हों, पर ऐसे नीच नहीं, लेकिन मेरे लिए सब दरवाजे बन्द हैं। मैं या तो कही चपरासी हो सकता हूँ या बहुत होगा तो कान्सटेबिल हो जाऊँगा। बस, यही मेरी सामर्थ्य है। यह हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय है, हम कैसे ही चरित्रवान् हों, कितने ही बुद्धिमान् हों, कितने ही विचारशील हों, पर अग्रेजी भाषा का ज्ञान न होने से उनका कुछ मूल्य नहीं। हमसे अधम और कौन होगा जो इस अन्याय को चुपचाप सहते हैं। नहीं, बल्कि उस पर गर्व करते हैं। नहीं, मुझे नौकरी करने का विचार मन से निकाल डालना चाहिए।
सदन की दशा इस समय उस मनुष्य की सी थी जो रात को जंगल में भटकता हुआ अन्धेरी रात में झुँझलाता है।
इसी निराशा और चिन्ता की दशा में एक दिन वह टहलता हुआ, नदी के किनारे उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ बहुत सी नावे लगी हुई थी। नदी में छोटी-छोटी नावे इधर-उधर इठलाती फिरती थी। किसी-किसी नौका में सुरीली ताने सुनाई देती थी। कई किश्तियों पर से मल्लाह लोग बोरे उतार रहे थे। सदन एक नाव पर जा बैठा। संध्या समय की शान्तिदायिनी छटा और गंगातट के मनोरम काव्यमय दृश्य ने उसे वशीभूत कर लिया। वह सोचने लगा, यह कैसा आनन्दमय जीवन है, ईश्वर मुझे भी ऐसा ही एक झोपड़ा दे देता, तो मैं उसीपर सन्तोष करता, यही नदी तट पर विचरता लहरों पर चलता और आनन्द के राग गाता। शान्ता झोपड़ा के द्वारपर खड़ी मेरी राह देखती। कभी-कभी हम दोनों नाव पर बैठकर गंगा की सैर करते। उसकी रसिक कल्पना ने उस सरल सुखमय-जीवन का ऐसा सुन्दर चित्र खींचा, उस आनन्दमय स्वप्न के देखने में वह ऐसा मग्न हुआ कि उसका चित्त ब्याकुल हो गया। वहाँ की प्रत्येक वस्तु उस समय सुख, शान्ति और आनन्द के रंग में डूबी हुई थी। वह उठा और एक मल्लाह से बोला, क्यों जी चौधरी यहाँ कोई नाव बिकाऊ भी है?
मल्लाह बैठा हुक्का पी रहा था। सदन को देखते ही उठ खड़ा हुआ और उसे कई नावे दिखाई। सदन ने एक नई किश्ती पसन्द की, मोल-तोल होने लगा, कितने ही और मल्लाह एकत्र हो गये। अन्त में ३००) में नाव पक्की हो गई, यह भी तै हो गया कि जिसकी नाव है वही उसे चलाने के लिए नौकर होगा।
सदन घर को ओर चला तो ऐसा प्रसन्न था मानों अब उसे जीवन में किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं है, मानों उसने किसी बड़े भारी संग्राम में विजय पायी है। सारी रात उसकी आँखो में नींद नहीं आई। वहीं नाव जो पाल खोले क्षितिज की ओर से चली आती थी उसके नेत्रों के सामने नाचती रही, वही दृश्य उसे दिखाई देते रहे। उसकी कल्पना ने तटपर एक सुन्दर, हरि-भरि लताओं से सजा हुआ झोपड़ा बनाया और शान्ता की मनोहारिणी मूर्ति आकर उसमें बैठी। झोपड़ा प्रकाशमान हो गया। यहाँ तक कि आनन्द-कल्पना धीरे-धीरे नदी के किनारे एक सुन्दर भवन बनाया, उसमें एक वाटिका लगवाई और सदन उसकी कुञ्जों में शान्ता के साथ बिहार करने लगा। एक ओर नदी की कलकल ध्वनि थी, दूसरी ओर पक्षियों का कलरव गान। हमें जिससे प्रेम होता है उसे हम सदा एक ही अवस्था में देखते है, हम उसे जिस अवस्था में स्मरण करते है, उसी समय के भाव उसी समय के वस्त्राभूषण हमारे हृदय पर अंकित हो जाते है। सदन शान्ता को उसी अवस्था में देखता था, जब वह एक सादी साड़ी पहने सिर झुकाये गंगातट पर खड़ी थो, वह चित्र उसकी आँखों से न उतरता था।
सदन को इस समय ऐसा मालूम होता था कि इस व्यवसाय में लाभ ही लाभ है, हानि की सम्भावना ही उसके ध्यान से बाहर थी। सबसे विचित्र बात यह थी कि अबतक उसने यह न सोचा था कि रुपये कहाँ से आवेगे?
प्रातःकाल होते ही उसे चिन्ता हुई कि रुपयों का क्या प्रबन्ध करूँ? किससे माँगू और कौन देगा? माँगू किस बहाने से? चाचा से कहूँ? नहीं उनके पास आजकल रुपये में होगे। महीनों से कचहरी नहीं जाते और दादा से माँगना तो पत्थर से तेल निकालना है। क्या कहूँ? यदि इस समय न गया तो चौधरी अपने मन से क्या कहेगा? वह छत पर इधर-उधर टहलने लगा। अभिलाषाओं का वह विशाल भवन, अभी थोड़ी देरप हले उसकी कल्पना ने जिसका निर्माण किया था देखते-देखते गिरने लगा। युवाकाल को आशा पुआल की आग है जिसके जलने और बुझने में देर नहीं लगती।
अकस्मात् सदन को एक उपाय सूझा गया। वह जो रसे खिलखिलाकर हँसा, जैसे कोई अपने शत्रु को भूमिपर गिराकर बेहँसी की हँसी हँसता है। वाह! मैं भी कैसा मूर्ख हूँ। मेरे सन्दूक में मोहनमाला रखी हुई है। ३००J से अधिक की होगी। क्यों न उसे बेच डालूँ? ‘जब कोई माँगेगा, देखा जायगा। कौन माँगता है और किसी ने माँगा भी तो साफ साफ कह दूँगा कि बेचकर खा गया। जो कुछ करना होगा, कर लेगा और अगर उस समय तक हाथ में कुछ रुपये आ गये तो निकालकर फेक दूँगा। उसने आकर सन्दूक से माला निकाली और सोचने लगा कि इसे कैसे बेचूँ। बाजार में कोई गहना बेचना अपनी इज्जत बेचने से कम अपमान की बात नहीं है, इसी चिन्ता में बैठा था कि जीतन कहार कमरे में झाड़ देने आया। सदन को मलिन देखकर बोला, भैया, आज उदास हो, आँखे चढ़ी हुई है, रात को सोये नहीं क्या?
सदन ने कहा, आज नींद नहीं आई। सिर पर एक चिन्ता सवार है।
जीतन—ऐसी कौन सी चिन्ता है? में भी सुनूँ।
सदन-- तुमसे कहूँ तो तुम अभी सारे घर में दोहाई मचाते फिरोगे।
जीतन-भैया, तुम्हीं लोगों की गुलामी में उमिर बीत गई। ऐसा पेट का हलका होता तो एक दिन न चलता। इससे निसाखातिर रहो।
जिस प्रकार एक निर्धन किन्तु शीलवान मनुष्य के मुँह से बड़ी कठिनता, बड़ी विवशता और बहुत लज्जा के साथ 'नहीं' शब्द निकलता है, उसी प्रकार सदन के मुँह से निकला, मेरे पास एक मोहनमाला है, इसे कहीं बेच दो, मुझे रुपयों का काम है।
जीतन—तो यह कौन बड़ा काम है, इसके लिए क्यों चिन्ता करते हो? मुदा रुपये क्या करोगे? मलकिन से क्यों नही माँग लेते हो? वह कभी नाहीं नहीं करेगी। हाँ, मालिक से कहोगे तो न मिलेगा। इस घर मे मालिक कुछ नहीं है, जो है वह मलकिन है। सदन-- में घर में किसी से नहीं माँगना चाहता।
जीतन ने माला लेकर देखी, उसे हाथों से तौला और शाम तक उसे बेच लाने की बात कहकर चला गया, मगर बाजार न जाकर वह सीधे अपनी कोठरी में गया, दोनो किवाड़ बन्द कर लिए और अपनी खाट के नीचे की भूमि खोदने लगा। थोड़ी देर में मिट्टी की एक हाँड़ी निकल आयी। यही उसकी सारे जन्म की कमाई थी, सारे जीवन की किफायत, कंजूसी, काट कपट, बेईमानी, दलाली, गोलमाल, इसी हाँडी के अन्दर इन रुपयों के रूप में संचित थी। कदाचित् इसी कारण रुपयों के मुँहपर कालिमा भी लग गयी थी। लेकिन जन्मभर के पापों का कितना संक्षिप्त फल था! कितने सस्ते बिकते है!
जीतन ने रुपये गिनकर २०), २०J की ढेरियाँ लगाईं। कुल १७ ढेरियाँ हुईं। तब उसने तराजू पर माले को रुपयों से तौला। वह २५) रुपिये भर से कुछ अधिक थी। सोने की दर बजार में चढ़ी हुई थी, पर उसने एक रुपये भरके २५) ही लगाये। फिर रुपयों की २५-२५ की ठेरियाँ बनाई। १३ ढेरियाँ हुईं और १५) बच रहे। उसके कुल रुपये माला के मूल्य से २८५J कम थे। उसने मन में कहा, अब यह चीज हाथ से नहीं जाने पायगी। कह दूँगा माना १३ ही भर थी। १५) और बच जायेंगे। चलो मालारानी, तुम इस दरबे में आराम से बैठो।
हाँडी फिर, धरती के नीचे चली गई, पापों का आकार और भी सूक्ष्म हो गया।
जीतन इस समय उछला पड़ता था। उसने बात-की-बात में २८५) पर हाथ मारा था। ऐसा सुअवसर उसे कभी नहीं मिला था। उसने सोचा, आज अवश्य किसी भले आदमी का मुँह देखकर उठा था। बिगड़ी हुई आँखो के सदृश बिगड़े हुए ईमान में ज्योति प्रवेश नहीं करती।
१० बजे जीतन ने ३२५) लाकर सदन के हाथों में दिये। सदन को मानो पड़ा हुआ धन मिला।
रुपये देखकर जीतन ने नि:स्वार्थभाव से मुँह फेरा। सदन ने ५) निकाल कर उसकी ओर बढ़ाये और बोला यह लो तमाखू पीना।
जीतन ने ऐसा मुँह बनाया, जैसे कोई वैष्णव मदिरा देखकर मुँह बनाता है, और बोला भैया, तुम्हारा दिया तो खाता ही हूँ, यह कहाँ पचेगा?
सदन—नहीं नही मैं खुशी से देता हूँ। ले लो, कोई हरज नहीं है।
जीतन-—नहीं भैया, यह न होगा, ऐसा करता तो अबतक चार पैसे का आदमी हो गया होता, नारायण तुम्हें बनाये रखें।
सदन को विश्वास हो गया कि यह बड़ा सच्चा आदमी है। इसके साथ अच्छा सलूक, करूँगा।
सन्ध्या समय सदन की नाव गंगा की लहरों पर इस भाँति चल रही थी जैसे आकाश में मेघ चलते हैं। लेकिन उसके चेहरे पर आनन्द-विकास की जगह भविष्य की शंका झलक रही थी, जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद चिन्ता में ग्रस्त हो जाता है। उसे अनुभव होता है कि वह बाँध जो संसार रूपी नदी की बाढ़ से मुझे बचाये हुए था, टूट गया है और में अथाह सागर में खड़ा हूँ। सदन सोच रहा था कि मैंने नाव तो नदी में डाल दी, लेकिन यह पार भी लगेगी? उसे अब मालूम हो रहा था कि वह पानी गहरा है, वहा तेज है और जीवन यात्रा इतनी सरल नहीं है, जितनी मैं समझता था। लहर यदि मीठे स्वरों में गाती है तो भयंकर ध्वनि से गरजती भी है, हवा अगर लहरों को थपकियाँ देती है, तो कभी कभी उन्हे उछाल भी देती है।
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प्रभाकरराव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृतान्त उसे लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए।
म्युनिसिपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए लगभग तीन मास बीत गये; पर उसकी तरमीम के विषय में तेगअली ने जो शंकाएँ प्रकट की थी वह निर्मल प्रतीत हुई। न दालमण्डी के कोठों पर दुकानें ही सजी और न वेश्याओें ने निकाह-बंधन से ही कोई विशेष प्रेम प्रकट किया। हाँ, कई कोठे खाली हो गये। उन वेश्याओं ने भावी निर्वासन के भय से दूसरी जगह रहने का प्रबन्ध कर लिया। किसी कानून का विरोध करने के लिए उससे अधिक संगठन की आवश्यकता होती है जितनी उसके जारी करने के लिए। प्रभाकरराव का क्रोध शान्त होने का यह एक और कारण था।
पद्मसिंह ने इस प्रस्ताव को वेश्याओं के प्रति घृणा से प्रेरित होकर हाथ में लिया था, पर अब इस विषय पर विचार करते करते उनकी घृणा बहुत कुछ दया और क्षमा का रूप धारण कर चुकी थी। इन्हीं भावों ने उन्हें तरमीम से सहमत होने पर बाध्य किया था। सोचते, यह बेचारी अबलाएँ अपनी इन्द्रियों के सुखभोग में अपना सर्वस्वनाश कर रही है। विलास प्रेम की लालसा ने उनकी आँखें बन्द कर रखी है। इस अवस्था में उनके साथ दया और प्रेम की आवश्यकता है। इस अत्याचार से उनकी सुधारक शक्तियाँ और भी निर्बल हो जायेंगी और जिन आात्माओं का हम उपदेश से, प्रेम से, ज्ञान से, शिक्षा से उद्धार कर सकते हैं वे सदा के लिए हमारे हाथ से निकल जायेगी। हम लोग जो स्वयं माया-मोह के अन्धकार में पड़े हुए हैं, उन्हें दण्ड देने का कोई अधिकार नहीं रखते। उनके कर्म ही उन्हें क्या कम दण्ड दे रहे है कि हम यह अत्याचार करके उनके जीवन को और भी दुःखमय बना दे?
हमारे मन के विचार कर्म के पथदर्शक होते हैं। पद्मसिंह ने झिझक और संकोच को त्यागकर कर्म क्षेत्र में पैर रखा। वहीं पद्मसिंह जो सुमन के सामने से भाग खड़े हुए थे अब दिन दोपहर दालमंडी के कोठों पर बैठे दिखाई देने लगे, उन्हें अब लोकनिन्दा का भय न था, मुझे लोग क्या कहेंगे इसकी चिन्ता न थी। उनकी आत्मा बलवान हो गई थी, हदय में सच्ची सेवा का भाव जाग्रत हो गया था। कच्चा फल पत्थर मारने से भी नहीं गिरता, किन्तु पककर वह आप ही आप धरती की ओर आकर्षित हो जाता है। पद्मसिंह के अन्तःकरण में सेवा का—प्रेम का भाव परिपक्व हो गया था।
विट्ठलदास इस विषय में उनसे पृथक हो गए। उन्हें जन्म की वेश्याओं के सुधार पर विश्वास न था। सैयद शफकतअली भी जो इस तरमीम के जन्मदाता थे, उनसे कन्नी काट गए और कुँवर साहब को तो अपने साहित्य, संगीत और सत्सगसे ही अवकाश न मिलता था, केवल साधु गजाधर ने इस कार्य में पद्मसिंह का हाथ बटाया। उस सदुद्योगी पुरुष मे सेवा का भाव पूर्णरूप से उदय हो चुका था।
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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नये धंधे की चर्चा घर मे किसी से न की। वह नित्य सवेरे उठकर गंगास्नान के बहाने चला जाता। वहाँ से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया गया घड़ी रात गये घर लौटता। अब उसकी नाव घाट पर की सब नावों से अधिक सजी हुई, दर्शनीय थी। उस पर दो तीन मोढ़े रखे रहते थे और एक जाजिम बिछी रहती थी। इसलिए शहर के कितने ही रसिक, विनोदी मनुष्य उस पर सैर किया करते थे, सदन किराये के विषय मे खुद बातचीत न करता। यह काम उसका नौकर झीगुर मल्लाह किया करता था। वह स्वंय कभी तो तटपर बैठा रहता और कभी नाव पर जा बैठता था। वह अपने को बहुत समझाता कि काम करने में क्या शर्म? मैंने कोई बुरा काम तो नहीं किया है, किसी का गुलाम तो नहीं हूँ कोई आँख तो नहीं दिखा सकता। लेकिन जब वह किसी भले आदमी को अपनी नाव की ओर आते देखता तो आप ही आप उसके कदम पीछे हट जाते और लज्जा से आँखे झुक जाती। वह एक जमीदार का पुत्र था और एक वकील का भतीजा। उस उच्च पद से उतरकर मल्लाह का उद्यम करने में उसे स्वभावतः लज्जा आती थी, जो तर्क से किसी भाँति न हटती। इस संकोच से उसकी बहुत हानि होती थी। जिस काम के लिए वह सुगमता से एक रुपया ले सकता था, उसी के लिए उसे आधे में ही राजी होना पड़ता था। ऊँची दूकान पकवान फीके होने पर भी बाजार मे श्रेष्ठ होती है। यहाँ तो पकवान अच्छे थे, केवल एक चतुर सजीले दुकानदार की कमी थी। सदन इस बात को समझता था, पर संकोच वश कुछ कह न सकता था। तिसपर भी इस विषय में चुप रहना ही उचित समझने थे। वह पहले में ही उसकी खातिर करते थे, अब कुछ आदर भी करने लगे और सुभद्रा तो उसे लडके के समान मानने लगी।
एक दिन रात के समय सदन अपने झोपड़े में बैठा हुआ नदी की तरफ देख रहा था। आज न जाने क्यों नाव के आने में देर हो रही थी। समान लैम्प जल रहा था। सदन के हाथ में एक समाचारपत्र था, पर उसका ध्यान पढ़ने में न लगता था। नाव के न आने से उसे किसी अनिप्ट की शंका हो रही थी। उसने पत्र रख दिया और बाहर निकलकर तटपर आया। रेतपर चाँदनी की सुनहरी चादर बिछी हुई थी और चाँद की किरणों नदी के हिलते हुए जलपर ऐसी मालूम होती थी जैसे किसी झरने से निर्मल जल की धारा क्रमश: चौड़ी होती हुई निकलती है। झोपड़े के सामने चबूतरे पर कई मल्लाह बैठे हुए बातें कर रहे थे कि अकस्मात् सदन ने दो सत्रयों को शहर की ओर से आते देखा। उनमे से एक ने मल्लाहो से पूछा, हमें उस पार जाना है, नाव ले चलोगे?
सदन ने शब्द पहचाने। यह सुमन बाई थी। उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी आई; आँखो में एक नशा-सा आ गया। लपककर चबूतरे के पास आया और सुमन से बोला, बाईजी, तुम यहाँ कहाँ?
सुमन ने ध्यान से सदन को देखा, मानों उसे पहचानती ही नहीं। उसके साथ वाली स्त्रीने घुंँघट निकाल लिया और लालटेन के प्रकाश से कई पग हटकर अन्धेरे में चली गयी। सुमन ने आश्चर्यसे कहा, कौन? सदन?
मुल्लाहो ने उठकर घेर लिया, लेकिन सदन ने कहा, तुम लोग इस समय यहाँ से चले जाओ। ये हमारे घरकी स्त्रियाँ है, आज यही रहेंगी। इसके बाद वह सुमन से बोला, बाईजी कुशल-समाचार कहिये। क्या क्या माजरा है?
सुमन--सब कुशल ही है, भाग्य में जो कुछ लिखा है वही भोग रही हैं। आज का पत्र तुमने अभी न पढ़ा होगा, प्रभाकरराव ने न जाने क्या छाप दिया कि आश्रम में हलचल मच गई। हम दोनों बहने वहाँ एक दिन भी और रह जाती तो आश्रम बिलकुल खाली हो जाता। वहॉं से निकल आने में कुशल थी। अब इतनी कृपा करो कि हमे उस पार ले जाने के लिए एक नाव ठीक कर दो। वहाँ से हम एक्का करके मुगलसराय चली जायँगी। अमोला के लिए कोई-न-कोई गाड़ी मिल ही जायगी। यहाँ से रात को कोई गाड़ी नहीं जाती।
सदन— अब तो तुम अपने घर ही पहुंँच गई, अमोला क्यो जाओगी। तुम लोगो को कष्ट तो बहुत हुआ, पर इस समय तुम्हारे आने से मुझे जितना आनन्द हुआ, यह वर्णन नहीं कर सकता। मैं स्वयं कई दिन से तुम्हारे पास आने का इरादा कर रहा था, लेकिन काम से छुट्टी ही नहीं मिलती। से तीन-चार महीने से मल्लाह का काम करने लगा हूँ। यह तुम्हारा झोपड़ा है, चलो अन्दर चलो।
सुमन झोपड़े में चली गई, लेकिन शान्ता वही अन्धेरे में चुपचाप सिर झुकाये रो रही थी। जबसे उसने सदन सिंह मुँह से यह बाते सुनी थी, उस दुखिया ने रो-रोकर दिन काटे थे। उसे बार-बार अपने मान करने पर पछतावा होता था। वह सोचती, यदि मैं उस समय उनके पैरों पर गिर पड़ती तो उन्हें मुझ पर अवश्य दया आ जाती। सदन की सूरत उसकी आँखों में फिरती और उसकी बाते उसके कानों में गूँजती। बातें कठोर थी लेकिन शान्ता को वह प्रेम-करुणा से भरी हुई प्रतीत होती थी। उसने अपने मन को समझा लिया था कि यह सब मेरे कुदिन का फल है, सदन का कोई अपराध नहीं। वह वास्तव में विवश है। अपदी माता-पिता की आज्ञा का पालन करना उनका धर्म है। यह मेरी नीचता है कि मैं उन्हें धर्म के मार्ग से फेरना चाहती हूँ। हाँ! मैंने अपने स्वामी से मान किया, मैंने अपने आराध्यदेव का निरादर किया, मैंने अपने कुटिल स्वार्थ के वश होकर उनका अपमान किया। ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे, शान्ता की आत्मग्लानि बढ़ती जाती थी। इस शोक, चिन्ता और विरह-पीड़ा से वह रमणी इस प्रकार सूख गयी थी, जैसे जेठ के महीने में नदी सूख जाती है। उसका हृदय कुछ हलका हुआ। सुमन ने यदि उसे गालियाँ दी होती तो और भी बोध होता। वह अपने को इस तिरस्कार के सर्वथा योग्य समझता था।
उसने ठंडे पानी का कटोरा सुमन को दिया और स्वयं पंखा झलने लगा। सुमनने शान्ता के मुँहपर पानी के कई छींटे दिये। इसपर भी जब शान्ता ने आँखें न खोली, तब सदन बोला, जाकर डाक्टर को बुला लाऊँ न?
सुमन-नहीं, घबराओ मत। ठंढक पहुँचते ही होश आ जायगा। डाक्टर के पास इसकी दवा नहीं है।
सदन को कुछ तसल्ली हुई बोला, सुमन, चाहे तुम समझो कि मैं बात बना रहा हूँ, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि उसी मनहूस घडी़ से मेरी आत्मा को कभी गति नहीं मिली। सो बार बार अपनी मूर्खता पर पछताता था कई बार इरादा किया कि चलकर अपना अपराध क्षमा कराऊँ, लेकिन यही विचार उठता कि किस बूते पर जाऊँ? घर वालों से सहायता की कोई आशा न थी, और मुझे तो तुम जानती ही हो कि सदा कोतल घोड़ा बना रहा। बस इसी चिन्ता में डूबा रहता था कि किसी प्रकार चार पैसे पैदा करूँ और अपनी झोपड़ी अलग बनाऊँ। महीनों नौकरी की खोज में मारा मारा फिरा, कही ठिकाना न लगा। अन्त को मैने गंगामाता की शरण ली और अब ईश्वर की दया से मेरी नाव चल निकली है, अब मुझे किसी के सहारे या मदद की आवश्यकता नहीं है। यह झोपड़ी बना ली है, और विचार है कि कुछ रुपये और आ जायँ तो उस पार किसी गाँव में एक मकान बनवा लूँ। क्यों, इनकी तबीयत कुछ संँभली हुई मालूम होती है?
सुमन का क्रोध कुछ शान्त हुआ। बोली, हाँ अब कोई भय नहीं हैं, केवल मूर्च्छा थी। आँखे बंद हो गई और ओठों का नीलापन जाता रहा।
सदन को ऐसा आनन्द हुआ कि यदि वहांँ ईश्वर की कोई मूर्ति होती तो उसके पैरो पर सिर रख देता। बोला, सुमन मेरे साथ जो उपकार किया है उसको मैं सदा याद करता रहूंँगा। अगर और कोई बात हो जाती तो इस लाश साथ मेरी लाश भी निकलती है
सुमन--यह कैसी बात मुँह से निकालते हो। परमात्मा चाहेंगे तो दो-तीन महिलाएँ तैयारियाँ कर रही थी और और कई अन्य देवियों का अपने घरों पर पत्र भेजे थे। केवल वही चुपचाप बैठी थी, जिनका कोई ठिकाना नहीं, पर वह भी सुमन से मुँह चुराती फिरती थीं। अपमान न सह सकी। उसने शान्ता से सलाह की। शान्ता बड़ी दुविधा में पड़ी पद्मसिंह की आज्ञा के बिना वह आश्रम से निकलना अनुचित समझती थी। केवल यही नहीं कि आशा का एक पतला सूत उसे यहाँ बाँधे हुए था बल्कि इसे वह धर्म का बन्धन समझती थी, वह सोचती थी, जब मैंने अपना सर्वस्व पद्मसिंह के हाथों में रख दिया, तब अब स्वेच्छा पथ पर चलेगा। मुझे कोई अधिकार नहीं है। लेकिन जब सुमन ने निश्चित दिया कि तुम रहती हो तो रहो पर मैं किसी भाँति यहाँ न रहूँगी। शान्ता को वहीं रहना असम्भव-सा प्रतीत होने लगा। जंगल में भटके हुए उस मनुष्य की भांति जो किसी दूसरे को देखकर उसके साथ भेजे इसलिए हो लेता है कि एकसे दो हो जायेंगे शान्ता अपनी बहन के साथ चलने को तैयार हो गई।
सुमन ने पूछा-और जो पद्मसिंह नाराज हों?
शान्ता--उन्हे एक पत्र द्वारा समाचार लिख दूँगी।
सुमन--और जो सदनसिंह बिगड़े?
शान्ता-—जो दण्ड देंगे सह लूँगी।
सुमन--खूब सोच लो, ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े।
शान्ता--रहना मुझे यहीं चाहिए पर तुम्हारे बिना मुझसे रहा न जायगा। हाँ, यह बता दो कि कहाँ चलोगी?
सुमन--तुम्हें अमोला पहुँचा दूँगी।
शान्ता--और तुम?
सुमन--मेरे नारायण मालिक है। कहीं तीर्थ यात्रा करने चली जाऊँगी। दोनों बहनों में बहुत देर बातें हुई। फिर दोनों मिलकर रोई। ज्योंहि आठ बजे विट्ठलदास भोजन करने के लिए अपने घर आज आठ और भोजन गए दोनों बहनें सबकी आँख बचाकर चल खड़ी हुई।