सेवासदन/५३

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २४७ ] निकाल कर उसकी ओर बढ़ाये और बोला यह लो तमाखू पीना।

जीतन ने ऐसा मुँह बनाया, जैसे कोई वैष्णव मदिरा देखकर मुँह बनाता है, और बोला भैया, तुम्हारा दिया तो खाता ही हूँ, यह कहाँ पचेगा?

सदन—नहीं नही मैं खुशी से देता हूँ। ले लो, कोई हरज नहीं है।

जीतन-—नहीं भैया, यह न होगा, ऐसा करता तो अबतक चार पैसे का आदमी हो गया होता, नारायण तुम्हें बनाये रखें।

सदन को विश्वास हो गया कि यह बड़ा सच्चा आदमी है। इसके साथ अच्छा सलूक, करूँगा।

सन्ध्या समय सदन की नाव गंगा की लहरों पर इस भाँति चल रही थी जैसे आकाश में मेघ चलते हैं। लेकिन उसके चेहरे पर आनन्द-विकास की जगह भविष्य की शंका झलक रही थी, जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद चिन्ता में ग्रस्त हो जाता है। उसे अनुभव होता है कि वह बाँध जो संसार रूपी नदी की बाढ़ से मुझे बचाये हुए था, टूट गया है और में अथाह सागर में खड़ा हूँ। सदन सोच रहा था कि मैंने नाव तो नदी में डाल दी, लेकिन यह पार भी लगेगी? उसे अब मालूम हो रहा था कि वह पानी गहरा है, वहा तेज है और जीवन यात्रा इतनी सरल नहीं है, जितनी मैं समझता था। लहर यदि मीठे स्वरों में गाती है तो भयंकर ध्वनि से गरजती भी है, हवा अगर लहरों को थपकियाँ देती है, तो कभी कभी उन्हे उछाल भी देती है।

४७

प्रभाकरराव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृतान्त उसे लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए।

म्युनिसिपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए लगभग तीन मास बीत गये; पर उसकी तरमीम के विषय में तेगअली ने जो शंकाएँ प्रकट की थी वह निर्मल प्रतीत हुई। न दालमण्डी के कोठों पर दुकानें ही सजी और न वेश्याओें ने निकाह-बंधन से ही कोई विशेष प्रेम प्रकट किया। हाँ, कई [ २४८ ] कोठे खाली हो गये। उन वेश्याओं ने भावी निर्वासन के भय से दूसरी जगह रहने का प्रबन्ध कर लिया। किसी कानून का विरोध करने के लिए उससे अधिक संगठन की आवश्यकता होती है जितनी उसके जारी करने के लिए। प्रभाकरराव का क्रोध शान्त होने का यह एक और कारण था।

पद्मसिंह ने इस प्रस्ताव को वेश्याओं के प्रति घृणा से प्रेरित होकर हाथ में लिया था, पर अब इस विषय पर विचार करते करते उनकी घृणा बहुत कुछ दया और क्षमा का रूप धारण कर चुकी थी। इन्हीं भावों ने उन्हें तरमीम से सहमत होने पर बाध्य किया था। सोचते, यह बेचारी अबलाएँ अपनी इन्द्रियों के सुखभोग में अपना सर्वस्वनाश कर रही है। विलास प्रेम की लालसा ने उनकी आँखें बन्द कर रखी है। इस अवस्था में उनके साथ दया और प्रेम की आवश्यकता है। इस अत्याचार से उनकी सुधारक शक्तियाँ और भी निर्बल हो जायेंगी और जिन आात्माओं का हम उपदेश से, प्रेम से, ज्ञान से, शिक्षा से उद्धार कर सकते हैं वे सदा के लिए हमारे हाथ से निकल जायेगी। हम लोग जो स्वयं माया-मोह के अन्धकार में पड़े हुए हैं, उन्हें दण्ड देने का कोई अधिकार नहीं रखते। उनके कर्म ही उन्हें क्या कम दण्ड दे रहे है कि हम यह अत्याचार करके उनके जीवन को और भी दुःखमय बना दे?

हमारे मन के विचार कर्म के पथदर्शक होते हैं। पद्मसिंह ने झिझक और संकोच को त्यागकर कर्म क्षेत्र में पैर रखा। वहीं पद्मसिंह जो सुमन के सामने से भाग खड़े हुए थे अब दिन दोपहर दालमंडी के कोठों पर बैठे दिखाई देने लगे, उन्हें अब लोकनिन्दा का भय न था, मुझे लोग क्या कहेंगे इसकी चिन्ता न थी। उनकी आत्मा बलवान हो गई थी, हदय में सच्ची सेवा का भाव जाग्रत हो गया था। कच्चा फल पत्थर मारने से भी नहीं गिरता, किन्तु पककर वह आप ही आप धरती की ओर आकर्षित हो जाता है। पद्मसिंह के अन्तःकरण में सेवा का—प्रेम का भाव परिपक्व हो गया था।

विट्ठलदास इस विषय में उनसे पृथक हो गए। उन्हें जन्म की [ २४९ ] वेश्याओं के सुधार पर विश्वास न था। सैयद शफकतअली भी जो इस तरमीम के जन्मदाता थे, उनसे कन्नी काट गए और कुँवर साहब को तो अपने साहित्य, संगीत और सत्सगसे ही अवकाश न मिलता था, केवल साधु गजाधर ने इस कार्य में पद्मसिंह का हाथ बटाया। उस सदुद्योगी पुरुष मे सेवा का भाव पूर्णरूप से उदय हो चुका था।

४८

एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नये धंधे की चर्चा घर मे किसी से न की। वह नित्य सवेरे उठकर गंगास्नान के बहाने चला जाता। वहाँ से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया गया घड़ी रात गये घर लौटता। अब उसकी नाव घाट पर की सब नावों से अधिक सजी हुई, दर्शनीय थी। उस पर दो तीन मोढ़े रखे रहते थे और एक जाजिम बिछी रहती थी। इसलिए शहर के कितने ही रसिक, विनोदी मनुष्य उस पर सैर किया करते थे, सदन किराये के विषय मे खुद बातचीत न करता। यह काम उसका नौकर झीगुर मल्लाह किया करता था। वह स्वंय कभी तो तटपर बैठा रहता और कभी नाव पर जा बैठता था। वह अपने को बहुत समझाता कि काम करने में क्या शर्म? मैंने कोई बुरा काम तो नहीं किया है, किसी का गुलाम तो नहीं हूँ कोई आँख तो नहीं दिखा सकता। लेकिन जब वह किसी भले आदमी को अपनी नाव की ओर आते देखता तो आप ही आप उसके कदम पीछे हट जाते और लज्जा से आँखे झुक जाती। वह एक जमीदार का पुत्र था और एक वकील का भतीजा। उस उच्च पद से उतरकर मल्लाह का उद्यम करने में उसे स्वभावतः लज्जा आती थी, जो तर्क से किसी भाँति न हटती। इस संकोच से उसकी बहुत हानि होती थी। जिस काम के लिए वह सुगमता से एक रुपया ले सकता था, उसी के लिए उसे आधे में ही राजी होना पड़ता था। ऊँची दूकान पकवान फीके होने पर भी बाजार मे श्रेष्ठ होती है। यहाँ तो पकवान अच्छे थे, केवल एक चतुर सजीले दुकानदार की कमी थी। सदन इस बात को समझता था, पर संकोच वश कुछ कह न सकता था। तिसपर भी [ २५० ] इस विषय में चुप रहना ही उचित समझने थे। वह पहले में ही उसकी खातिर करते थे, अब कुछ आदर भी करने लगे और सुभद्रा तो उसे लडके के समान मानने लगी।

एक दिन रात के समय सदन अपने झोपड़े में बैठा हुआ नदी की तरफ देख रहा था। आज न जाने क्यों नाव के आने में देर हो रही थी। समान लैम्प जल रहा था। सदन के हाथ में एक समाचारपत्र था, पर उसका ध्यान पढ़ने में न लगता था। नाव के न आने से उसे किसी अनिप्ट की शंका हो रही थी। उसने पत्र रख दिया और बाहर निकलकर तटपर आया। रेतपर चाँदनी की सुनहरी चादर बिछी हुई थी और चाँद की किरणों नदी के हिलते हुए जलपर ऐसी मालूम होती थी जैसे किसी झरने से निर्मल जल की धारा क्रमश: चौड़ी होती हुई निकलती है। झोपड़े के सामने चबूतरे पर कई मल्लाह बैठे हुए बातें कर रहे थे कि अकस्मात् सदन ने दो सत्रयों को शहर की ओर से आते देखा। उनमे से एक ने मल्लाहो से पूछा, हमें उस पार जाना है, नाव ले चलोगे?

सदन ने शब्द पहचाने। यह सुमन बाई थी। उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी आई; आँखो में एक नशा-सा आ गया। लपककर चबूतरे के पास आया और सुमन से बोला, बाईजी, तुम यहाँ कहाँ?

सुमन ने ध्यान से सदन को देखा, मानों उसे पहचानती ही नहीं। उसके साथ वाली स्त्रीने घुंँघट निकाल लिया और लालटेन के प्रकाश से कई पग हटकर अन्धेरे में चली गयी। सुमन ने आश्चर्यसे कहा, कौन? सदन?

मुल्लाहो ने उठकर घेर लिया, लेकिन सदन ने कहा, तुम लोग इस समय यहाँ से चले जाओ। ये हमारे घरकी स्त्रियाँ है, आज यही रहेंगी। इसके बाद वह सुमन से बोला, बाईजी कुशल-समाचार कहिये। क्या क्या माजरा है?

सुमन--सब कुशल ही है, भाग्य में जो कुछ लिखा है वही भोग रही हैं। आज का पत्र तुमने अभी न पढ़ा होगा, प्रभाकरराव ने न जाने क्या छाप दिया कि आश्रम में हलचल मच गई। हम दोनों बहने वहाँ [ २५१ ] एक दिन भी और रह जाती तो आश्रम बिलकुल खाली हो जाता। वहॉं से निकल आने में कुशल थी। अब इतनी कृपा करो कि हमे उस पार ले जाने के लिए एक नाव ठीक कर दो। वहाँ से हम एक्का करके मुगलसराय चली जायँगी। अमोला के लिए कोई-न-कोई गाड़ी मिल ही जायगी। यहाँ से रात को कोई गाड़ी नहीं जाती।

सदन— अब तो तुम अपने घर ही पहुंँच गई, अमोला क्यो जाओगी। तुम लोगो को कष्ट तो बहुत हुआ, पर इस समय तुम्हारे आने से मुझे जितना आनन्द हुआ, यह वर्णन नहीं कर सकता। मैं स्वयं कई दिन से तुम्हारे पास आने का इरादा कर रहा था, लेकिन काम से छुट्टी ही नहीं मिलती। से तीन-चार महीने से मल्लाह का काम करने लगा हूँ। यह तुम्हारा झोपड़ा है, चलो अन्दर चलो।

सुमन झोपड़े में चली गई, लेकिन शान्ता वही अन्धेरे में चुपचाप सिर झुकाये रो रही थी। जबसे उसने सदन सिंह मुँह से यह बाते सुनी थी, उस दुखिया ने रो-रोकर दिन काटे थे। उसे बार-बार अपने मान करने पर पछतावा होता था। वह सोचती, यदि मैं उस समय उनके पैरों पर गिर पड़ती तो उन्हें मुझ पर अवश्य दया आ जाती। सदन की सूरत उसकी आँखों में फिरती और उसकी बाते उसके कानों में गूँजती। बातें कठोर थी लेकिन शान्ता को वह प्रेम-करुणा से भरी हुई प्रतीत होती थी। उसने अपने मन को समझा लिया था कि यह सब मेरे कुदिन का फल है, सदन का कोई अपराध नहीं। वह वास्तव में विवश है। अपदी माता-पिता की आज्ञा का पालन करना उनका धर्म है। यह मेरी नीचता है कि मैं उन्हें धर्म के मार्ग से फेरना चाहती हूँ। हाँ! मैंने अपने स्वामी से मान किया, मैंने अपने आराध्यदेव का निरादर किया, मैंने अपने कुटिल स्वार्थ के वश होकर उनका अपमान किया। ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे, शान्ता की आत्मग्लानि बढ़ती जाती थी। इस शोक, चिन्ता और विरह-पीड़ा से वह रमणी इस प्रकार सूख गयी थी, जैसे जेठ के महीने में नदी सूख जाती है। [ २५२ ] उसका हृदय कुछ हलका हुआ। सुमन ने यदि उसे गालियाँ दी होती तो और भी बोध होता। वह अपने को इस तिरस्कार के सर्वथा योग्य समझता था।

उसने ठंडे पानी का कटोरा सुमन को दिया और स्वयं पंखा झलने लगा। सुमनने शान्ता के मुँहपर पानी के कई छींटे दिये। इसपर भी जब शान्ता ने आँखें न खोली, तब सदन बोला, जाकर डाक्टर को बुला लाऊँ न?

सुमन-नहीं, घबराओ मत। ठंढक पहुँचते ही होश आ जायगा। डाक्टर के पास इसकी दवा नहीं है।

सदन को कुछ तसल्ली हुई बोला, सुमन, चाहे तुम समझो कि मैं बात बना रहा हूँ, लेकिन मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि उसी मनहूस घडी़ से मेरी आत्मा को कभी गति नहीं मिली। सो बार बार अपनी मूर्खता पर पछताता था कई बार इरादा किया कि चलकर अपना अपराध क्षमा कराऊँ, लेकिन यही विचार उठता कि किस बूते पर जाऊँ? घर वालों से सहायता की कोई आशा न थी, और मुझे तो तुम जानती ही हो कि सदा कोतल घोड़ा बना रहा। बस इसी चिन्ता में डूबा रहता था कि किसी प्रकार चार पैसे पैदा करूँ और अपनी झोपड़ी अलग बनाऊँ। महीनों नौकरी की खोज में मारा मारा फिरा, कही ठिकाना न लगा। अन्त को मैने गंगामाता की शरण ली और अब ईश्वर की दया से मेरी नाव चल निकली है, अब मुझे किसी के सहारे या मदद की आवश्यकता नहीं है। यह झोपड़ी बना ली है, और विचार है कि कुछ रुपये और आ जायँ तो उस पार किसी गाँव में एक मकान बनवा लूँ। क्यों, इनकी तबीयत कुछ संँभली हुई मालूम होती है?

सुमन का क्रोध कुछ शान्त हुआ। बोली, हाँ अब कोई भय नहीं हैं, केवल मूर्च्छा थी। आँखे बंद हो गई और ओठों का नीलापन जाता रहा।

सदन को ऐसा आनन्द हुआ कि यदि वहांँ ईश्वर की कोई मूर्ति होती तो उसके पैरो पर सिर रख देता। बोला, सुमन मेरे साथ जो उपकार किया है उसको मैं सदा याद करता रहूंँगा। अगर और कोई बात हो जाती तो इस लाश साथ मेरी लाश भी निकलती है

सुमन--यह कैसी बात मुँह से निकालते हो। परमात्मा चाहेंगे तो [ २५४ ] दो-तीन महिलाएँ तैयारियाँ कर रही थी और और कई अन्य देवियों का अपने घरों पर पत्र भेजे थे। केवल वही चुपचाप बैठी थी, जिनका कोई ठिकाना नहीं, पर वह भी सुमन से मुँह चुराती फिरती थीं। अपमान न सह सकी। उसने शान्ता से सलाह की। शान्ता बड़ी दुविधा में पड़ी पद्मसिंह की आज्ञा के बिना वह आश्रम से निकलना अनुचित समझती थी। केवल यही नहीं कि आशा का एक पतला सूत उसे यहाँ बाँधे हुए था बल्कि इसे वह धर्म का बन्धन समझती थी, वह सोचती थी, जब मैंने अपना सर्वस्व पद्मसिंह के हाथों में रख दिया, तब अब स्वेच्छा पथ पर चलेगा। मुझे कोई अधिकार नहीं है। लेकिन जब सुमन ने निश्चित दिया कि तुम रहती हो तो रहो पर मैं किसी भाँति यहाँ न रहूँगी। शान्ता को वहीं रहना असम्भव-सा प्रतीत होने लगा। जंगल में भटके हुए उस मनुष्य की भांति जो किसी दूसरे को देखकर उसके साथ भेजे इसलिए हो लेता है कि एकसे दो हो जायेंगे शान्ता अपनी बहन के साथ चलने को तैयार हो गई।

सुमन ने पूछा-और जो पद्मसिंह नाराज हों?

शान्ता--उन्हे एक पत्र द्वारा समाचार लिख दूँगी।

सुमन--और जो सदनसिंह बिगड़े?

शान्ता-—जो दण्ड देंगे सह लूँगी।

सुमन--खूब सोच लो, ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े।

शान्ता--रहना मुझे यहीं चाहिए पर तुम्हारे बिना मुझसे रहा न जायगा। हाँ, यह बता दो कि कहाँ चलोगी?

सुमन--तुम्हें अमोला पहुँचा दूँगी।

शान्ता--और तुम?

सुमन--मेरे नारायण मालिक है। कहीं तीर्थ यात्रा करने चली जाऊँगी। दोनों बहनों में बहुत देर बातें हुई। फिर दोनों मिलकर रोई। ज्योंहि आठ बजे विट्ठलदास भोजन करने के लिए अपने घर आज आठ और भोजन गए दोनों बहनें सबकी आँख बचाकर चल खड़ी हुई। [ २५५ ] रातभर किसी को खबर न हुई। सबेरे चौकीदार ने आकर विट्ठल से यह समाचार कह। वह घबराये और लपके हुए सुमन के कमरे में गये। सब चीजें पड़ी हुई थीं केवल दोनों बहनों का पता न था। बेचारे बड़ी चिंता में पड़े। पद्मसिंह को कैसे मुँह दिखाऊँगा? उन्हें उस समय सुमन पर क्रोध आया । यह सब उसी की करतूत है, वही शान्ता को बहकाकर ले गये हैं। एकाएक उन्हे सुमन की चारपाईपर एक पत्र पड़ा हुआ दिखाई दिया। लपककर उठा लिया और पढ़ने लगे। यह पत्र सुमन ने चलते समय लिखकर रख दिया था। इसे पढ़कर विट्ठलदास को कुछ धैर्य हुआ। लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह दुःख हुआ कि सुमनके कारण मुझे नीचा देखना पड़ा। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि मैं अपने धमकी देनेवालों को नीचा दिखाऊँगा, पर यह अवसर उनके हाथसे निकल गया, अब लोगो समझगे कि मैं डर गया,यह सोचकर उन्हें बहुत दुःख हुआ।

आखिर वह कमरे से निकले। दरवाजे बन्द कराये और सीधे पद्मसिंह के घर पहुंँचे ।

शर्माजीने यह समाचार सुना तो सन्नाटे में आ गये। बोले, अब क्या होगा ?

विठ्ठल— वे अमोला पहुँच गई होगी।

शर्मा— हाँ, सम्भव है।

विट्ठल— सुमन इतनी दूर सफर तो मजे में कर सकती है।

शर्मा— हाँ, ऐसी नासमझ तो नहीं है।

विट्ठल— सुमन तो अमोला गयी न होगी।

शर्मा— हांँ, कौन जाने, दोनों कही डूब मरी हों।

विट्ठल— एक तार भेजकर पूछ क्यों न लीजिए।

शर्मा— कौन मुंह लेकर पूछूं? जब मुझसे इतना भी न हो सका कि शांता की रक्षा करता, तो अब उसके विषय में कुछ पूछ-ताछ करना मेरे लिए लज्जाजनक है। मुझे आपके ऊपर विश्वास था। अगर जानता कि आप ऐसी लापरवाही करेंगे तो उसे मैंने अपने ही घर में रखा होता। [ २५६ ]बिट्ठल-आप तो ऐसी बाते कह रहे है, मानों मैने जान बूझकर उन्हें निकाल दिया हो।

शर्मा-आप उन्हें तसल्ली देते रहते तो वह कभी न जाती। आपने मुझसे भी अब कहा है, जब अवसर हाथ से निकल गया।

विट्ठल- आप सारी जिम्मेदारी मुझी पर डालना चाहते हैं।

पद्म-और किस पर डालूँ? आश्रम के संरक्षक आपही हैं या कोई और?


विट्ठल- शान्ता के वहाँ रहते तीन महीने से अधिक हो गये, आप कभी भूलकर भी आश्रम की ओर गये? अगर आप कभी-कभी वहाँ जाकर उसका कुशल समाचार पूछते रहते तो उसे धैर्य रहता। जब आपने उसकी कभी बात तक न पूछी तो वह किस आधार पर वहाँ पड़ी रहती? मैं अपने दायित्व को स्वीकार करता हूँ, पर आप भी दोष से नहीं बच सकते।

पद्मसिंह आजकल विट्ठलदास से चिढ़े हुए थे। उन्होंने उन्हीं के अनुरोधसे वेश्या-सुधार के काम में हाथ डाला था, पर अन्त में जब काम करने का अवसर पड़ा तो वह साफ निकल गये। उधर विट्ठलदास भी वेश्याओं के प्रति उनकी सहानुभूति देखकर उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखते थे। वे इस समय अपने-अपने हृदय की बात न कहकर एक दूसरे पर दोषारोपण करने की चेष्टा कर रहे थे। पद्मसिंह उन्हें खूब आड़े हाथों लेना चाहते थे, पर यह प्रत्युत्तर पाकर उन्हें चुप हो जाना पड़ा। बोले- हाँ, इतना दोष मेरा अवश्य है।

विट्ठल नहीं, आपको दोष देना मेरा आशय नहीं हैं। दोष सब मेरा ही है। आपने जब उन्हें मेरे सुपुर्द कर दिया तो आपका निश्चिन्त हो जाना स्वाभाविक ही था।

शर्मा—नहीं वास्तव में यह सब मेरी कायरता और आलस्य का फल है। आप उन्हें जबर्दस्ती नहीं रोक सकते थे।

पद्मसिंह ने अपना दोष स्वीकार करके बाजी पलट दी थी। हम आप [ २५७ ] झुककर दूसरे को झुका सकते है, पर तनकर किसी को झुकाना कठिन है।

विट्ठलनाथ—शायद सदनसिंह को कुछ मालूम हो। जरा उन्हें बुलाइए।

शर्मा—वह तो रात से ही गायब है। उसने गंगा के किनारे एक झोपड़ा बनवा लिया है, कई मल्लाह लगा लिये है और एक नाव चलाता है। शायद रात वही रह गया।

विट्ठल-सम्भव है, दोनो बहने वही पहुँच गई हो, कहिए तो जाऊँ?

शर्मा—अजी नहीं, आप किस भ्रम में है। वह इतना लिबरल नहीं है। उनके साये से भागता है। अकस्मात् सदन ने उनके कमरे मे प्रवेश किया। पद्मसिंह ने पूछा, तुम रात कहाँ रह गये? सारी रात तुम्हारी राह देखी।

सदनसिंह ने धरती की ओर ताकते हुए कहा, मैं स्वयं लज्जित हूँ। ऐसा काम पड़ गया कि मुझे विवश होकर रुकना पड़ा। इतना समय भी न मिला कि आकर कह जाता। मैंने आपसे शर्म के मारे कभी चर्चा नहीं की, लेकिन इधर कई महीने से मैंने एक नाव चलाना शुरू किया है। वही नदी के किनारे एक झोपड़ा बनवा लिया है मेरा विचार है कि इस काम को जमकर करूँ। इसलिए आपसे उस झोपड़े में रहने की आज्ञा चाहता हूँ।

शर्मा—इसकी चर्चा तो लाला भगतराम ने एक बार मुझसे की, लेकिन खेद यह है कि तुमने अब तक मुझसे इसे छिपाया, नहीं तो मैं भी कुछ सहायता करता। खैर, मैं इसे बुरा नहीं समझता, बल्कि तुम्हें इस अवस्था मे देखकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है, लेकिन मैं यह कभी न मानूँगा कि तुम अपना घर रहते हुए अपनी हाँडी अलग चढाओ। क्या एक नाव का और प्रबन्ध हो तो अधिक लाभ हो सकता है?

सदन-—जी हाँ, में स्वयं इसी फिक्र में हूँ। लेकिन इसके लिए मेरा घाटपर रहना जरूरी है।

शर्मा- भाई, यह शर्त तुम बुरी लगाते हो। शहर मे रहकर तुम मुझसे अलग रहो, यह मुझे पसन्द नहीं। इसमे चाहे कुछ हानि भी हो, लेकिन मैं न मानूँगा। [ २५८ ] सदन——नहीं चाचा, आप मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कीजिये; मैं बहुत मजबूर होकर आपसे यह कह रहा हूँ।

शर्मा——ऐसी क्या बात है जो तुम्हे मजबूर करती है? तुम्हें जो संकोच हो वह साफ साफ क्यों नहीं कहते?

सदन——मेरे इस घरमे रहने से आपकी बदनामी होगी। मैंने अब अपने उस कर्तव्य के पालन करने का संकल्प कर लिया हूँ, जिसे में कुछ दिनों तक अपने अज्ञान और कुछ समयतक अपनी कायरता और निन्दा के भयसे टालता आता था। में आपका लड़का हूँ। जब मुझे कोई कष्ट होगा, आपका आश्रय लूँगा, कोई जरूरत पड़ेगी तो आपको सुनाऊँगा, लेकिन रहूँगा अलग अीर मुझे विश्वास है कि आप मेरे प्रस्ताव को पसन्द करेंगे।

विट्ठलदास भी बात की तह तक पहुँच गये। पूछा, कल सुमन और शान्ता से तो तुम्हारी मुलाकात नहीं हुई?

सदन के चेहरे पर लज्जा की लालिमा छा गई, जैसे किसी रमणी के मूँख पर से घूँघट हट जाय। दबी जबान से बोला, जी हाँ।

पद्मसिंह बडे धर्म संकट में पड़े। न ‘हाँ’ कह सकते थे, न ‘नहीं' कहते बनता था। अब तक वह शान्ता के सम्बन्ध में अपने को निर्दोष समझते थे। उन्होंने इस अन्याय का सारा भार अपने भाई के सिर डाल दिया था और सदन तो उनके विचार में काठ का पुतला था। लेकिन अब इस जाल मे फंसकर वह भाग निकलने की चेष्टा करते थे। संसार का भय तो उन्हे नहीं था, भय था कि कही भैया यह न समझ ले कि यह सब मेरे सहारे से हुआ है, मैंने ही सदन को बिगाड़ा हूँ। कही यह सन्देह उनके मन में उत्पन्न हो गया तो फिर वह कभी मुझे क्षमा न करेगें।

पद्मसिंह कई मिनट तक इसी उलझन में पड़े रहे। अन्त में वह बोले, सदन, यह समस्या इतनी कठिन है कि मैं अपने भरोसे पर कुछ नहीं कर सकता। भैया की राय लिए बिना 'हाँ' या 'नहीं’ कैसे कहूँ? तुम मेरे सिद्धान्त को जानते हो। मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ और प्रसन्न हूँ कि ईश्वर ने तुम्हें सद्बुद्धि दी। लेकिन मै भाई साहब की इच्छा को सर्वोपरि [ २५९ ] समझता हूँ। यह हो सकता है कि दोनों बहनों के अलग रहने का प्रबन्ध कर दिया जाय जिसमे उन्हें कोई कष्ट न हो। बस यही तक। इसके आगे मेरी कुछ सामर्थ्य नहीं है। भाई साहब की जो इच्छा हो वही करो।

सदन——क्या आपको मालूम नहीं, कि वह क्या उत्तर देगे?

पद्म——हाँ, यह भी मालूम है।

सदन——तो उनसे पूछना व्यर्थ है। माता-पिता की आज्ञा से में अपनी जान दे सकता हूँ, जो उन्हीं की दी हुई है, लेकिन किसी निरपराध की गर्दन पर तलवार नहीं चला सकता।

पद्म——तुम्हें इसमें क्या आपत्ति है कि दोनों बहनें एक अलग मकान में ठहरा दी जायँ।

सदन ने गर्म होकर कहा, ऐसा तो मैं तब करूँगा, जब मुझे छिपाना हो। में कोई पाप करने नहीं जा रहा हूँ, जो उसे छिपाऊँ। यह मेरे जीवन-का परम कर्त्तव्य है उसे गत रखने की आवश्यकता नहीं है। अब तक विवाह के जो संस्कार नहीं पूरे हुए है वह कल गंगा के किनारे पूरे किये जायँगे। यदि आप वहाँ आने की कृपा करेगे तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा, नहीं तो ईश्वरके दरबार में गवाहो के बिना भी प्रतिज्ञा हो जाती है।

यह कहता हुआ सदन उठा और घर में चला गया। सुभद्रा ने कहा, वहाँ, खूब गायब होते हो, सारी रात जी लगा रहा। कहाँ रह गए थे?

सदन ने रात का सारा वत्तान्त चाची से कहा। चाची से बातचीत करने में उसे वह झिझक न होती थी जो शर्मा जी से होती थी। सुभद्रा ने उसके साहस की बड़ी प्रशसा की। बोली, माँ बाप के डर से कोई अपनी व्याहता को थोड़े ही छोड़ देता है। दुनिया हँसेगी तो हँसा करे। उसके डर से अपने घर के प्राणी की जान ले ले? तुम्हारी अम्मा से डरती हूँ, नहीं तो उसे यही रखती।

सदन ने कहा, मुझे अम्मा दादा की परवाह नहीं है।

सुभद्रा——बहुत परवाह तो की। इतने दिनों तक बेचारी को घुला[ २६० ] शर्मा--वहाँ लच्छेदार बातों और तीव्र समालोचनाओें के सिवा और क्या रखा है?

५०

सदन सिंह का विवाह संस्कार हो गया? झोपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़ भाड़ न थी।

पद्मसिंह उसी दिन घर चले गये और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गये, बोले, मैं उस छोकरे का सिर काट लूँगा, वह अपने को समझता क्या है? भामा ने कहा, मैं आज ही जाती हूँ उसे समझाकर अपने साथ लिवा लाऊँगी। अभी नादान लड़का है। उस कुटनी सुमन की बातों मे आ गया है। मेरा कहना वह कभी न टालेगा।

लेकिन मदनसिंह ने भामा को डाँटा और धमका कर कहा, अगर तुमने उधर जाने का नाम लिया तो मैं अपना और तुम्हारा गला एक साथ ही घोंट दूंँगा। वह आग में कूदता है कूदने दो। ऐसा दूध पीता नादान बच्चा नहीं है। यह सब उसकी जिद्द है। बच्चू को भीख मगाकर न छोड़ूँ तो कहना। सोचते होगे दादा मर जायेंगे तो आनन्द करेगा। मुंँह घो रखें, यह कोई जायदाद नहीं है। यह मेरी अपनी कमाई है। सब-की-सब कृष्णार्पण कर दूँगा। एक फूटी कौड़ी तो मिलेगी ही नहीं।

गाँव में चारो ओर बतकहाव होने लगा। लाला बैजनाथ को निश्चय हो गया कि संसार से धर्म उठ गया। जब लोग ऐसे-ऐसे नीच कर्म करने लगे तो धर्म कहांँ रहा? न हुई नवाबी, नहीं तो आज बचूकी धज्जियाँ उड़ जाती। अब देखें कौन मुँह लेकर गाँव में आते है।

पद्मसिंह रात को बहुत देरतक भाई के साथ बैठे रहे, लेकिन ज्योंही वह सदन का कुछ जिक्र छेड़ते, मदनसिंह उनकी ओर ऐसी आग्नेय दृष्टिय देखते कि उन्हें बोलने की हिम्मत न पड़ती। अन्त में जब वह सोने चले तो पद्मसिंह ने हताश होकर कहा, भैया, सदन आपसे अलग रहे तब भी आपका लड़का ही कहलावेगा। वह जो कुछ नेक बद करेगा उसकी बदनमी हम सब पर आवेगी। जो लोग इस अवस्था को भलीभाँति जानते है, वह चाहे [ २६१ ] हम लोगों को निर्दोष समझे, लेकिन जनता सदन में और हम में कोई भेद नहीं कर सकती, तो इससे क्या फायदा कि साँप भी न मरे और लाठी भी टूट जाय। एक ओर दो बुराइयाँ है, बदनामी भी होती है और लड़का भी हाथ से जाता है। दूसरी ओर एक ही बुराई है, बदनामी होगी, लेकिन लड़का अपने हाथ में रहेगा। इसलिए मुझे तो यही उचित जान पड़ता है। कि हमलोग सदन को समझाने और यदि वह किसी तरह न माने तो .....

मदनसिंह ने बात काटकर कहा, तो उस चुड़ैल से उसका विवाह ठान दे? क्यों यही न कहना चाहते हो? यह मुझसे न होगा। एकबार नहीं, हजार बार नहीं।

यह कहकर वह चुप हो गये। एक क्षण के बाद पद्मसिंह को लांछित कर के बोले, आश्चर्य यह है कि यह सब कुछ तुम्हारे सामने हुआ और तुम्हें जरा भी खबर न हुई। उसने नाव ली, झोपड़ा बनाया, दोनों चुड़ैलो से साँठ गाँठ की और तुम आँखे बन्द किये बैठे रहे। मैंने तो उसे तुम्हारे ही भरोसे भेजा था। यह क्या जानता था कि तुम कान में तेल डाले बैठे रहते हो। अगर तुमने जरा भी चतुराई से काम लिया होता तो यह नौबत न आती। तुमने इन बातों की सूचना तक मुझे न दी नहीं तो मैं स्वयं जाकर उसे किसी उपाय से बचा लाता। अब जब सारी गोटियाँ पिट गई, सारा खेल बिगड़ गया तो चले हो वहाँ से मुझसे सलाह लेने। मैं साफ-साफ कहता हूँ कि तुम्हारी आनाकानी से मुझे तुम्हारे ऊपर भी सन्देह होता है। तुमने जान-बूझकर उसे आग मे गिरने दिया। मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुराईयाँ की थी, उनका तुमने बदला लिया खैर; कल प्रात काल एक दान-पत्र लिख दो। तीन पाई जो मौरूसी जमीन है। उसे छोड़कर में अपनी सब जायदाद कृष्णार्पण करता हूँ। यहाँ न लिख सको तो वहाँ से लिखकर भेज देना। मैं दस्तखत कर दूँगा और उसकी रजिस्ट्री हो जायगी।

यह कहकर मदनसिंह सोने चले गये। लेकिन पद्मसिंह के मर्म-स्थान पर ऐसा बार कर गये कि वह रातभर तड़पते रहे। जिस अपराघ से बचने के [ २६२ ] लिए उन्होंने अपने सिद्धान्तों की भी परवाह न की और अपन सहवर्गियों में बदनाम हुए, वह अपराध लग ही गया। इतना ही नहीं, भाई के हृदय उनकी ओर से मैल पड़ गई। अब उन्हें अपनी भूल दिखाई दे रही थी। निस्संदेह अगर उन्होंने बुद्धिमानी से काम लिया होता तो यह नौवत न आती। लेकिन इस वेदना में इस विचार से कुछ सन्तोष होता था कि जो कुछ हुआ सो हुआ एक अबला का उद्धार तो हो गया।

प्रातःकल जब वह घर से चलने लगें तो भामा रोती हुई आई और बोली, भैया, इनका हठ तो देख रहे हो, लड़के की जान ही लेने पर उतारू है, लेकिन तुम जरा सोच-समझकर काम करना। भूल चूक तो बड़े बड़ो से हो जाती है, वह बेचारा तो अभी नादान लड़का है। तुम उसकी ओर से मन न मोटा करना। उसे किसी की टेढ़ी निगाह भी सहन नहीं है। ऐसा न हो, कहीं देश विदेश की राह ले तो तो मैं कही की न रहूँ, उसकी सुध लेते रहना। खाने पीने की तकलीफ न होने पाये। यहाँ रहता था तो एक भैंस का दूध पी जाता था, उसे दाल में घी अच्छा नहीं लगता, लेकिन में उससे छिपाकर लोदे के लोदे दाल में डाल देती थी। अब इतना सेवा जतन कौन करेगा। न जाने बेचारा कैसे होगा? यहाँ घर पर कोई खानेवाला नहीं, वहाँ वह इन्हीं चीजों के लिए तरसता होगा। क्यों भैया, क्या अपने हाथ से नाव चलाता है।

पद्म--नहीं, दो मल्लाह रख लिए है।

भामा--तब भी दिनभर दौड़-धूप तो करनी ही पड़ती होगी। मजूर बिना देख-भाले थोड़े ही काम करते है मेरा तो यहाँ कुछ बस नहीं है, उसे तुम्हें सौंपती हैं। उसे अनाथ समझकर खोज खबर लेते रहना। मेरा रोंआ रोंआ तुम्हे आशीर्वाद देगा। अबकी कार्तिक-स्नान उसे जरूर से देखने जाऊँगी। कह देना, तुम्हरी अम्माँ तुम्हे बहुत याद करती थी, बहुत रोती थीं। यह सुनकर उसे ढाढस हो जायगा। उसका जी बड़ा कच्चा है। मुझे याद करके रोज रोता होगा। यह थोड़े से रुपये है, लेते जाओ, उसके पास भिजवा देना। [ २६३ ] पद्म--इसकी क्या जरूरत है? मैं तो वहाँ हूँ ही मेरे देखते उसे किसी बात की तकलीफ न होने पावेगी।

भामा--नहीं भैया, लेते जाओ, क्या हुआ। इस हाँडी में थोडा सा घी है, यह भी भेजवा देना। बाजारू घी घर के घी को कहाँ पाता है, न वह सुगन्ध न वह स्वाद। उसे अमावट की चटनी बहुत अच्छी लगती है, मैं थोड़ी सी अमावट भी रखे देती हूँ। मीठे-मीठे आम चुनकर रस निकाला था। समझाकर कह देना, बेटा, कोई चिन्ता मत करो। जब तक तुम्हारी माँ जीती है, तुमको कोई कष्ट न होने पावेगा। मेरे तो वही एक अन्धे की लकड़ी है। अच्छा है तो, बुरा है तो, अपना ही है। संसार की लाज से आँखो से चाहे दूर कर दूँ, लेकिन मन से थोड़े ही दूर कर सकती हूँ।

५१

जैसे सुन्दर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुन्दर रंगो से चित्रों में उसी प्रकार दोनों बहनो के आने से झोपड़े में जान आ गई है। अन्धी आँखों में पुतलियाँ पड़ गई है।

मुरझायी हुई कली शान्ता अब खिलकर अनुपम शोभा दिखा रही है। सूखी हुई नदी उमड़ पड़ी है। जैसे जेठ वैसाख की तपन की मारी हुई गाय सावन में निखर जाती है और खेतों में किलोलें करने लगती है, उसी प्रकार विरह की सताई हुई रमणी अब निखर गई है, प्रेम में मग्न है।

नित्यप्रति प्रातःकाल इस झोपड़े से दो तारे निकलते है और जाकर गंगा में डूब जाते है? उनमें से एक बहुत दिव्य और द्रुतगामी है, दूसरा मध्यम और मन्द। एक नदी में थिरकता है, नाचता है, दूसरा अपने वृत्त से बाहर नहीं निकलता। प्रभात की सुनहरी किरणों मे इन तारों का प्रकाश मन्द नहीं होता, वे और भी जममगा उठते हैं।

शान्ता गाती है, सुमन खाना पकाती है, शान्ता अपने केशों को सँवारती है, सुमन कपड़े सीती है, शान्ता भूखे मनुष्य के समान भोजन के थालपरट्ट पड़ती है सुमन किसी रोगी के सदृश सोचती है कि मैं अच्छी हूँगी या नहीं। [ २६४ ] सदन के स्वभाव में भी अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनन्द भोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घण्टों नहाता है, बाल संवारता है, कपड़े बदलता है, मुगन्ध मलता है। नौ बजे से पहले वह अपनी बैठक में नहीं आता और आता भी है तो जमकर बैठता नहीं, उसका मन कहीं और रहता है। एक-एक पल में भीतर जाता है और अगर बाहर किसी से बात करने में देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ता ने उस पर वशीकरण मन्त्र डाल दिया है।

सुमन घर का सारा काम भी करती है और बाहर का भी। वह घड़ी रात रहे उठती है और स्नान-पूजा के बाद सदन के लिए जलपान बनाती है। फिर नदी के किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजेतक यहाँ से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब सब लोग सोने चले जाते है, तो वह पढ़ने बैठ जाती है, तुलसी की विनय पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानन्द के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवनचरित्रों को बड़े चाव से पढ़ती है। मीरा पर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा धार्मिक ग्रन्य ही पढ़ती है। लेकिन जानकी अपेक्षा भक्ति में उसे अधिक शांति मिलती है।

मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बड़ा आदर है, वह उनके झगड़े चुकाती है, किसी के बच्चे के लिए कुर्ता टोपी सीती है, किसी के लिए अर्जन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है तो उसके घर जाती है और दवा दारू की फिक्र करती है वह अपनी गिरी दिवाल को फिरसे उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते है और उसका यश गाते है। हाँ, अगर आदर नहीं है तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घर का सारा बोझ सँभाले हुए हैं, लेकिन मदन के मुँह से कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नहीं समझती। दोनों के दोनों उसकी ओर से निश्चिन्त है, मानो वह घर की लौंडी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके